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________________ निष्काम कर्मल से सिकुड़ जाएंगी आंखें, और मौत पर ठहर जाएंगी। किनारे खड़े होकर देखें, सुबह जब यह घूमने जाता है, तब इसके पश्चिम के मनोविज्ञान ने पचास साल में जो-जो घोषणाएं की | चेहरे को, इसके पैरों की गति को, इसके हल्केपन को, इसकी थीं, वे सब सही हो गईं। सही इसलिए नहीं हो गईं कि सही थीं, ताजगी को। दोपहर उसी रास्ते से, वही आदमी, उन्हीं पैरों से दफ्तर सही इसलिए हो गईं कि सही मान ली गईं। और आदमी ने कहा कि जाता है, तब उसके भारीपन को, उसके सिर पर रखे हुए पत्थर को, जब हो ही नहीं सकता अनमोटिवेटेड एक्ट, तो पागलपन है। उसे उसकी छाती पर बढ़े हुए बोझ को—वह सब देखें। सुबह क्या था? करने की कोशिश छोड़ दो। मोटिवेटेड नहीं था, कहीं पहुंचना नहीं था, कोई अंत नहीं था। लेकिन मैं कहता हूं. हो सकता है। उसे समझना पडेगा कि कैसे घूमना अपने में पर्याप्त था, घूमना ही काफी था। हो सकता है। तीन बातें ध्यान में ले लेनी जरूरी हैं, तो कृष्ण का | | हां, कुछ लोग घूमने को भी मोटिवेटेड बना ले सकते हैं। अगर निष्काम कर्मयोग खयाल में आ जाए। नेचरोपैथ हुए, तो घूमने को भी खराब कर लेंगे! अगर कहीं पहली बात, कभी आप खेल खेलते हैं। न कोई राग, न कोई | प्राकृतिक चिकित्सा के चक्कर में हुए, तो घूमना भी खराब कर द्वेष; खेलने का आनंद ही सब कुछ होता है। आदतें हमारी बुरी हैं, लेंगे। घूमना भी फिर सिर्फ घूमना नहीं है। फिर घूमना बीमारी से इसलिए खेल को भी हम काम बना लेते हैं। वह हमारी गलती है। लड़ना है। और जो आदमी घूम रहा है बीमारी से लड़ने के लिए, समझदार तो काम को भी खेल बना लेते हैं। वह उनकी समझ है। वह बीमारी से तो शायद ही लड़ेगा, बीमारी उसके घूमने में भी - हम अगर शतरंज भी खेलने बैठे, तो थोड़ी देर में हम भूल जाते प्रवेश कर गई! तब घूमना हल्का-फुल्का आनंद नहीं रहा; भारी हैं कि खेल है और सीरियस हो जाते हैं। वह हमारी बीमारी है। गंभीर | | काम हो गया। बीमारी से लड़ रहे हैं! स्वास्थ्य कमाने जा रहे हैं! हो जाते हैं। हार-जीत भारी हो जाती है। जान दांव पर लग जाती है। फिर कहीं पहुंचने लगे आप। मोटिव भीतर आ गया। कुल जमा लकड़ी के हाथी और घोड़े बिछाकर बैठे हुए हैं! कुछ भी । लेकिन क्या कभी ऐसा जिंदगी में आपके नहीं हुआ कि शरीर नहीं है; खेल है बच्चों का। लेकिन भारी हार-जीत हो जाएगी। गंभीर ताकत से भरा है, सुबह उठे हैं और मन हुआ कि दस कदम दौड़ हो जाएंगे। गंभीर हो गए, तो खेल काम हो गया। फिर राग-द्वेष आ. लें? अनमोटिवेटेड। कोई कारण नहीं है। सिर्फ श र्फ शक्ति भीतर धक्के गया। किसी को हराना है; किसी को जिताना है। जीतकर ही रहना | दे रही है। उसी तरह जैसे कि झरना बहता है पहाड़ से, फूल खिलते है; हार नहीं जाना है। फिर द्वंद्व के भीतर आ गए। शतरंज न रही | वृक्षों में, पक्षी सुबह गीत गाते हैं-अनमोटिवेटेड। कोई राग-द्वेष फिर, बाजार हो गया। शतरंज न रही, असली युद्ध हो गया! | नहीं है; ऊर्जा भीतर है, वह बहना चाहती है, आनंदमग्न होकर मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि शतरंज भी कोई पूरे भाव से खेल बहना चाहती है। ले, तो उसकी लड़ने की क्षमता कम हो जाती है, क्योंकि लड़ने का कृष्ण कह रहे हैं कि जब भी कोई व्यक्ति राग और द्वेष दोनों को कुछ हिस्सा निकल जाता है। निकास हो जाता है। हाथी-घोड़े | समझ लेता, तब उसकी ऊर्जा तो रहती है, जो राग-द्वेष में लगती कर भी, लड़ने की जो वृत्ति है, उसको थोड़ी राहत मिल जाती थी, ऊर्जा कहां जाएगी? मझे किसी से लड़ना नहीं है: मझे किसी है। हराने और जिताने की जो आकांक्षा है, वह थोड़ी रिलीज, उसका | से जीतना नहीं है; फिर भी मेरी ताकत तो मेरे पास है। वह कहां धुआं थोड़ा निकल जाता है। जाएगी? वह बहेगी। वह अनमोटिवेटेड बहेगी। वह कर्म बनेगी. हम खेल को भी बहुत जल्दी काम बना लेते हैं। लेकिन खेल | | लेकिन अब उस कर्म में कोई फल नहीं होगा। अब वह बहेगी, काम नहीं है। बच्चे खेल रहे हैं। खेल काम नहीं है। खेल सिर्फ लेकिन बहना अपने में आनंद होगा। आनंद है, अनमोटिवेटेड। रस इस बात में नहीं है कि फल क्या लेकिन हम इतने बीमार और रुग्ण हैं कि हमें कभी सुबह ऐसा मिलेगा। रस इस बात में है कि खेल का काम आनंद दे रहा है। | मौका नहीं आया। कभी-कभी बाथरूम में आप गा लेते होंगे। सुबह एक आदमी घूमने निकला है, कहीं जा नहीं रहा है। आप | | शायद उतना ही है अनमोटिवेटेड–बाथरूम सिंगर्स। किसी को उससे पूछे, कहां जा रहे हैं? वह कहेगा, कहीं जा नहीं रहा, सिर्फ | सुनाना नहीं है। कोई ताली नहीं बजाएगा। कोई अखबार में नाम घूमने निकला हूं। कहीं जा नहीं रहा, कोई मंजिल नहीं है। यही | नहीं छपेगा। कोई सुनने वाला श्रोता नहीं है। अकेले हैं अपने आदमी इसी रास्ते पर दोपहर अपने दफ्तर भी जाता है। रास्ते के बाथरूम में। एक गीत की कडी फट पडी है। शायद ठंड लड़ाक 287
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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