________________
गीता दर्शन भाग-28
लेता है, तब अहिंसा है। इस अहिंसा के क्षण में भी वही हो जाता एक प्रक्रिया है। दो-तीन उसके अंग हैं, उनकी आपसे बात कर दूं। है, जो योगाग्नि में जलकर होता है।
पहला तो, जो जहां है, वह वहां से हटे नहीं। क्योंकि हटते इसलिए कृष्ण कहते हैं, अहिंसादि मार्गों से भी। | केवल कमजोर हैं; भागते केवल वे ही हैं, जो भयभीत हैं। और जो
ऐसे वे और मार्ग भी गिनाते हैं। ऐसे बहुत मार्ग हैं। इसमें उन्होंने संसार को भी झेलने में भयभीत है, वह परमात्मा को नहीं झेल दो-चार ही गिनाए। कोई एक सौ बारह मार्ग हैं, जिनसे व्यक्ति वहां | | सकेगा, यह मैं आपसे कह देता हूं। जो संसार का ही सामना करने पहुंच सकता है, जहां पहुंचकर और आगे पहुंचने को कुछ शेष नहीं | | में डर रहा है, वह परमात्मा का सामना कर पाएगा? नहीं कर रह जाता; उसे पा सकता है, जिसे पाकर फिर पाने का कोई अर्थ | | पाएगा, यह मैं आपसे कहता हूं। संसार जैसी कमजोर चीज जिसे नहीं रह जाता। आप्तकाम हो जाता है।
डरा देती है, परमात्मा जैसा विराट जब सामने आएगा, तो उसकी | आंखें ही झप जाएंगी; वह ऐसा भागेगा कि फिर लौटकर देखेगा
| भी नहीं। यह क्षुद्र-सा चारों तरफ जो है, यह डरा देता है, तो उस प्रश्नः भगवान श्री, दो-तीन दिनों से अनेकानेक | विराट के सामने खड़े होने की क्षमता नहीं होगी। और फिर अगर श्रोतागण आपके आस-पास दिखाई पड़ने वाले नव | परमात्मा यही चाहता है कि लोग सब छोड़कर भाग जाएं, तो उसे संन्यास और नव संन्यासियों के संबंध में कुछ बातें सबको सबमें भेजने की जरूरत ही नहीं है। आपके स्वयं के मुख से ही सुनना चाहते हैं। कृपया नहीं; उसकी मर्जी और मंशा कुछ और है। मर्जी और मंशा यही इस संबंध में कुछ कहें।
| है कि पहले लोग क्षुद्र को, आत्माएं क्षुद्र को सहने में समर्थ हो जाएं, ताकि विराट को सह सकें। संसार सिर्फ एक प्रशिक्षण है,
एक ट्रेनिंग है। म ह जो भी मैं कह रहा हूं, संन्यास के संबंध में ही कह इसलिए जो ट्रेनिंग को छोड़कर भागता है, उस भगोड़े को, प रहा हूं। यह सारी गीता संन्यास का ही विवरण है। और एस्केपिस्ट को मैं संन्यासी नहीं कहता हूं। जीवन जहां है, वहीं।
____ जिस संन्यास की मैं बात कर रहा हूं, वह वही संन्यास संन्यासी हो गए, फिर तो भागना ही नहीं। पहले चाहे भाग भी जाते, है, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं।
तो मैं माफ कर देता। संन्यासी हो गए, फिर तो भगाना ही नहीं। फिर करते हुए अकर्ता हो जाना; करते हुए भी ऐसे हो जाना, जैसे मैं | तो वहीं जमकर खड़े हो जाना। क्योंकि फिर संन्यास अगर संसार करने वाला नहीं हूं-बस, संन्यास का यही लक्षण है। | के सामने भागता हो, तो कौन कमजोर है? कौन सबल है? फिर
गृहस्थ का क्या लक्षण है? गृहस्थ का लक्षण है, हर चीज में तो मैं कहता हूं, अगर इतना कमजोर है कि भागना पड़ता है, तो कर्ता हो जाना। संन्यासी का लक्षण है, हर चीज में अकर्ता हो जाना। फिर संसार ही ठीक। फिर सबल को ही स्वीकार करना उचित है।
संन्यास जीवन का, जीवन को देखने का और ही ढंग है। बस, तो पहली तो बात मेरे संन्यास की यह है कि भागना मत। जहां ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में, घर का फर्क नहीं है, खड़े हैं, वहीं, जिंदगी के सघन में पैर जमा कर! लेकिन उसे ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में जगह का फर्क नहीं है, | प्रशिक्षण बना लेना। उस सबसे सीखना। उस सबसे जागना। उस भाव का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में, परिस्थिति का फर्क | सबको अवसर बना लेना। पत्नी होगी पास, भागना मत। क्योंकि नहीं है, मनःस्थिति का फर्क है। संसार में जो है। हम सभी संसार पत्नी से भागकर कोई स्त्री से नहीं भाग सकता। पत्नी से भागना तो में होंगे। कोई कहीं हो—जंगल में बैठे, पहाड़ पर बैठे, | | बहुत आसान है। पत्नी से तो वैसे ही भागने का मन पैदा हो जाता गिरि-कंदराओं में बैठे-संसार के बाहर जाने का उपाय, है। पति से भागने का मन पैदा हो जाता है। जिसके पास हम होते परिस्थिति बदलकर नहीं है। संसार के बाहर जाने का उपाय, हैं, उससे ऊब जाते हैं। नए की तलाश मन करता है। मनःस्थिति बदलकर, बाई दि म्यूटेशन आफ दि माइंड, मन को ही पत्नी से भागना बहुत आसान है। भाग जाएं; स्त्री से न भाग रूपांतरित करके है।
| पाएंगे। और जब पत्नी जैसी स्त्री को निकट पाकर स्त्री से मुक्त न मैं जिसे संन्यास कह रहा हूं, वह मन को रूपांतरित करने की हो सके, तो फिर कब मुक्त हो सकेंगे! अगर पति जैसे प्रीतिकर
152