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ॐगीता दर्शन भाग-20
वह कह सकता है।
दिया धन्यवाद, भीतर की कली कुम्हला जाती है। इतनी छोटी-सी इसलिए कृष्ण कहते हैं, मूढजन को तो, बुद्धिहीन को तो बड़े | | अपेक्षा भी प्राणों को उदास करती और प्रफुल्लित करती है। जितनी विपरीत मालूम पड़ेंगे। लगेगा कि कहां संसार के कर्म का जाल बड़ी अपेक्षाएं होंगी, फिर उतनी ही उदासी और प्रफुल्लता की
और कहां सब छोड़कर किसी गुफा में बैठ जाना मौन, बड़ी विपरीत | अपेक्षा के अनुपात में दुख का भार बढ़ता चला जाएगा। हैं बातें। लेकिन कृष्ण कहते हैं, नहीं हैं विपरीत। क्यों नहीं हैं | | दिन में चौबीस घंटे में जो आदमी एक काम अपेक्षारहित कर ले, विपरीत? नहीं हैं विपरीत इसलिए, कि चाहे कोई आकांक्षाओं को | | उसने प्रार्थना की, उसने नमाज पढ़ी, उसने ध्यान किया। एक काम छोड़ दे, और चाहे कोई कर्म को छोड़ दे, दोनों से चित्त में एक ही | | आदमी अगर चौबीस घंटे में अपेक्षारहित, फलरहित कर ले, तो अवस्था घटित होती है।
बहुत देर नहीं लगेगी कि उसके कर्मों का जाल धीरे-धीरे जिसने आकांक्षा को छोड़ दिया, उसके लिए कर्म अभिनय से अपेक्षारहित होने लगे। क्योंकि उस छोटे-से काम को करके वह ज्यादा, एक्टिंग से ज्यादा नहीं रह जाता। जिसने फल की आकांक्षा पहली दफे पाएगा कि जीवन न दुख में है, न सुख में है, वरन परम छोड़ दी, उसे कर्म खेल से ज्यादा, लीला से ज्यादा नहीं रह जाता। | शांति में उतर गया। उस छोटे-से कृत्य के द्वारा शांत हो गया। वह कर्म को छोड़े या न छोड़े, कर्म की कोई भी प्रभावना उसकी | | अपेक्षा सुख का आश्वासन देती है, दुख का फल लाती है। चेतना पर अंकित नहीं होती है। क्योंकि कर्म अंकित नहीं होते, फल अपेक्षारहित कृत्य गहन शांति के सागर में डुबा जाता है। की आकांक्षा अंकित होती है।
अपेक्षारहित कृत्य आनंद के द्वार खोल देता है। __कभी आपने सोचा कि आप कर्म से कभी पीड़ित नहीं हैं, आप | । देखें, प्रयोग करें। और जैसे-जैसे खयाल में आएगा, वैसे-वैसे पीड़ित फल की आकांक्षा से हैं! और अगर कर्म से पीड़ित होते हैं, | | समझ में आएगा कि अगर अपेक्षारहित कृत्य किया, तो वही अंतिम तो फल की आकांक्षा के कारण पीड़ित होते हैं। पीड़ा का जो जहर | फल मिलता है, जो कर्म को छोड़ने वाले को मिलता होगा। जो है, वह फल की आकांक्षा में है, अपेक्षा में है, एक्सपेक्टेशन में है। आदमी कर्म छोड़कर भाग गया है, वह भी शांत हो जाता है, जितनी बड़ी अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कर्म देता है। जितनी छोटी अशांति का कोई कारण नहीं रह जाता। लेकिन जिस आदमी ने फल
अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कम हो जाती है। जितनी शून्य अपेक्षा, की आकांक्षा छोड़ दी है, अशांति के सारे कारण मौजूद रहते हैं, उतनी ही पीड़ा विदा हो जाती है। लेकिन हम कोई कर्म जानते नहीं, | | लेकिन भीतर अशांति को पकड़ने वाली ग्राहकता, रिसेप्टिविटी जो हमने बिना फल की अपेक्षा के किया हो।
नष्ट हो जाती है। प्रयोग करें। चौबीस घंटे में तय कर लें कि एक छोटा-सा काम दो रास्ते हैं। एक दर्पण है। और मैं उसके सामने खड़ा हूं। मैं हट बिना फल की आकांक्षा के करेंगे। राह पर जा रहे हैं। किसी आदमी जाऊं, तो दर्पण पर तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दूं, मैं खड़ा का छाता गिर गया है। उसे उठाकर दे दें। लेकिन लौटकर रुकें न, रहूं, तो भी तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दं, तो भी परिणाम कि वह धन्यवाद दे। और धन्यवाद न दे, तो मन में देखें कि कहीं यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। मैं हट जाऊं, दर्पण को बना पीड़ा तो नहीं खटकती है? अगर धन्यवाद न दे, तो जरा मन में देखें | | रहने दं, तो भी परिणाम यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। दोनों कि कहीं विषाद का धुआं तो नहीं उतरता है? कहीं ऐसा तो नहीं | कृत्य बहुत अलग हैं। लेकिन परिणाम दोनों का एक है कि तस्वीर लगता है कि कैसा आदमी है, धन्यवाद भी न दिया!
मिट जाती है। अगर धन्यवाद की भी अपेक्षा है, जो कि बहुत छोटी अपेक्षा है, दर्पण को तोड़ना कर्म को छोड़ने जैसा है। और आकांक्षा को नामिनल, न के बराबर...।
| तोड़ना स्वयं दर्पण से हट जाने जैसा है। दर्पण अपनी जगह है, मैं इसीलिए समझदार आदमी दिनभर धन्यवाद देते रहते हैं, ताकि ही हट गया। कर्म अपनी जगह है, मैंने ही कर्म से अपनी आकांक्षा जो व्यर्थ की अपेक्षाएं हैं लोगों की, वे उनकी तृप्त होती रहें। हटा ली, अहंकार को हटा लिया। मैं पीछे हो गया। धन्यवाद देने वाले का कुछ भी नहीं बिगड़ता, लेकिन लेने वाले को इसलिए कृष्ण कहते हैं, दोनों में से कुछ भी हो जाए अर्जुन, बहुत कुछ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। अपेक्षा पर निर्भर है। परिणाम एक ही होता है। लेकिन ऐसा ज्ञानीजन जानते हैं। और जो
छोटा-सा शब्द धन्यवाद, भीतर जैसे फूल खिल जाता है। नहीं ऐसा जानते हैं, उनका ही दर्शन सम्यक है। उनका ही देखना ठीक
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