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________________ गीता दर्शन भाग-26 अकर्म में पड़े हैं; लेकिन भीतर सपनों का जाल बुन रहे हैं। दिनभर तो भीतर का कर्ता भी विदा हो जाता है। तब बाहर कर्म रह जाते हैं। भी जो नहीं बुन पाए, वह रातभर बुनेंगे। दिन में जो हत्याएं नहीं कर लेकिन वे कर्म कर्ता-शून्य होते हैं। उनके पीछे अकर्ता होता है, पाए, रात में करेंगे। दिन में जो व्यभिचार नहीं कर पाए, रात में अकर्म होता है। और चंकि पीछे अकर्ता होता है, इसलिए प्रत्युत्तर करेंगे। दिन में जो नहीं हो सका, वह रात में पूरा किया जाएगा। से नहीं पैदा होते वे। वे सहज-जात होते हैं। जैसे वृक्षों में फूल आते रातभर गहन कर्म से चेतना गुजरेगी। हैं, ऐसे उस व्यक्ति में कर्म लगते हैं। आप में कर्म लगते नहीं; तो कृष्ण तो सोए हुए आदमी को भी नहीं कहेंगे कि यह अकर्म | दूसरों के द्वारा खींचे जाते हैं। में है। वे कहेंगे, अकर्म का पता तो तब चलेगा, जब भीतर गहरे में आप थोड़ा सोचें। अगर राबिन्सन क्रूसो की तरह आप एक कर्म की वासना न रह जाए, जब भीतर गहरे में मन शून्य और मौन | | निर्जन द्वीप पर छोड़ दिए जाएं, तो आपके कितने कर्म एकदम से हो जाए, जब भीतर गहरे में कर्म की सूक्ष्म तरंगें न उठे-तब होगा | | बंद नहीं हो जाएंगे? अकेले हैं आप। आपका प्रेम बंद हो जाएगा; अकर्म। | आपकी घृणा बंद हो जाएगी। आपका क्रोध बंद हो जाएगा। और यह बड़े मजे की बात है, यह बहुत ही मजे की बात है कि अहंकार किसको दिखाइएगा? साज-शृंगार किसके सामने जिसके भीतर अकर्म होगा, उसके बाहर प्रतिकर्म कभी नहीं होता। करिएगा? सब बंद हो जाएगा। किसके सामने अकड़कर जिसके भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता है। चलिएगा? सब बंद हो जाएगा। बाहर से सब गिर जाएगा। कर्म सहज है-दूसरे की प्रतिक्रिया में नहीं, दूसरे के प्रत्युत्तर में | सुना है मैंने, राबिन्सन क्रूसो की नाव जब डूबी, और वह एक नहीं-सहज, अपने से भीतर से आया हुआ, जन्मा हुआ। | निर्जन द्वीप पर लगा; द्वीप पर लगने के बाद उसे खयाल आया, जिस व्यक्ति के भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता नाव आधी डूबी हुई अभी भी दिखाई पड़ रही है। उसने सोचा, कुछ है। और जिस व्यक्ति के भीतर गहन कर्म होता है, उसके बाहर जरूरत की चीजें हों तो उठा लाऊं। खयाल आया, निर्जन द्वीप है, प्रतिकर्म होता है, रिएक्शन होता है। | अकेला हूं; कुछ बच जाए सामान साथ, तो ले आऊं। इसलिए कृष्ण अगर यह कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, गहन है | | वापस गया। एक पेटी उठाई। खोली, मन प्रसन्न हो गया, स्वर्ण यह राज, गूढ़ है यह रहस्य, बुद्धिमान भी तय नहीं कर पाते कि कर्म की अशर्फियां ही अशर्फियां थीं। फिर एकदम से खुशी खो गई, क्या है, अकर्म क्या है! अर्जुन, तुझे मैं कहूंगा वह गूढ़ रहस्य; फिर मन उदास हो गया। फिर पेटी बंद करके उसने वहीं छोड़ दी। क्योंकि उसे जो जान लेता, वह मुक्ति को उपलब्ध हो जाता है। क्या हुआ? स्वर्ण-अशर्फियां दिखाई पड़ी, तो बड़ा प्रसन्न हुआ जो व्यक्ति भी कर्म और अकर्म के बीच की बारीक रेखा को कि अच्छा हुआ, स्वर्ण-अशर्फियां मिल गईं। लेकिन पीछे खयाल पहचान लेता है, वह स्वर्ग के पथ को पहचान लेता है। जो व्यक्ति | | आया क्षणभर बाद, निर्जन है द्वीप; न है बाजार, न है कोई और; भी कर्म और अकर्म के बीच के बहुत नाजुक और सूक्ष्म विभेद को | | स्वर्ण की अशर्फियों का करूंगा क्या? फिर वे स्वर्ण की अशर्फियां, देख लेता है, उसके लिए इस जगत में और कोई सूक्ष्म बात जानने | जो बड़ी बहुमूल्य थीं, वहीं छोड़ दी उसने, उसी डूबती नाव में छोड़ को शेष नहीं रह जाती। दी; और तट पर बैठकर डूबती हुई नाव को, और अशर्फियों को तो दो बातें स्मरण रख लें। हम जिसे कर्म कहते हैं, वह प्रतिकर्म | | डूबता हुआ देखता रहा। उन्हें बचाकर लाने की इच्छा ही न रही। है, कर्म नहीं। हम जिसे अकर्म कहते हैं, वह अकर्मण्यता है, आप, पूना के पास नाव डूब रही हो, तो स्वर्ण की अशर्फियां अकर्म नहीं। कृष्ण जिसे अकर्म कहते हैं, वह आंतरिक मौन है; | ऐसे छोड़ पाएंगे? नहीं छोड़ पाएंगे। जब आप स्वर्ण की अशर्फियां वह अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव है; लेकिन बाहर कर्म का | बचाकर लौट रहे हों नदी से, और मैं आपसे पूर्वी कि आपने स्वर्ण अभाव नहीं है। की अशर्फियां बचाने का कर्म किया? तो आप कहेंगे, हां। लेकिन जब अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव होता है, तो कर्ता खो कृष्ण कहेंगे, सिर्फ प्रतिकर्म किया। स्वर्ण की अशर्फियां बचाना भी जाता है। क्योंकि कर्ता का निर्माण अंतर में उठी हुई कर्म की तरंगों आपका प्रतिकर्म है, क्योंकि वह एक बड़े बाजार की अपेक्षा में हो का संघट है, जोड़ है। भीतर जो कर्म की वासना है, वही इकट्ठी | रहा है। अगर निर्जन द्वीप पर होता, तो आप न कर पाते। वह कर्म होकर कर्ता बन जाती है। अगर भीतर कर्म की कोई तरंगें नहीं हैं. नहीं है।
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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