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वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
बुद्ध जैसे आदमी की तो तैयारी नहीं होती। दो-तीन-चार साल के, | बात समाप्त हो गई है। इससे ज्यादा इस कर्म में मैं नहीं पड़ता हूं। परीक्षार्थी, प्रश्नपत्र देख लेते हैं; क्वेश्चंस देख लेते हैं। तैयारी कर बुद्ध ने कहा कि मैं तुम्हारा गुलाम नहीं हूं। लेते हैं। लेकिन बुद्ध जैसा प्रश्न तो कभी लाखों-करोड़ों वर्ष में एक प्रतिकर्म गुलामी है, स्लेवरी है; दूसरा आपसे करवा लेता है। बार उठता है। क्योंकि कर्म ही कभी करोड़ों वर्षों में एक आदमी जब दूसरा आपसे कुछ करवा लेता है, तो आप गुलाम हैं, मालिक करता है; बाकी सारे लोग प्रतिकर्म करते हैं।
नहीं। कर्म तो वे ही कर सकते हैं, जो गुलाम नहीं हैं। वह आदमी मुश्किल में पड़ गया। उसने कहा, आप भी क्या इसलिए कृष्ण अगर कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, कि बुद्धिमान पूछते हैं! उसे कुछ और न सूझा।
| भी नहीं समझ पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है। बुद्ध ने कहा, मैं ठीक ही पूछता हूं। कुछ और कहना है? उसने अकर्म तो और भी कठिन है फिर। कर्म ही नहीं समझ पाते। कहा, लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं, आपके ऊपर थूका है! प्रतिकर्म को हम कर्म समझते हैं; और अकर्मण्यता को हम अकर्म
बुद्ध ने कहा, तुमने थूका, लेकिन मैं समझा कि तुमने कुछ कहा समझते हैं। अकर्मण्यता को, कुछ न करने को, बैठे-ठालेपन को, है। क्योंकि थूकना भी कहने का एक ढंग है। शायद मन में इतना इनएक्शन को हम नान-एक्शन समझ लेते हैं। कुछ न करने को हम क्रोध है तुम्हारे कि शब्दों से नहीं कह पाते, इसलिए थूककर कहा है। समझते हैं, अकर्म हो गया। एक आदमी कहता है कि हम कुछ नहीं
कई बार शब्द असमर्थ होते हैं, बुद्ध ने कहा। मैं ही कई बार करते, तो सोचता है, अकर्म हो गया। बहुत-सी बातें कहना चाहता हूं, शब्दों में नहीं कह पाता, तो फिर लेकिन अकर्म बहुत बड़ी क्रांति-घटना है, म्यूटेशन है। सिर्फ न इशारों में कहनी पड़ती हैं। तुमने इशारा किया; मैं समझ गया। करने से अकर्म नहीं होता। क्योंकि जब आप बाहर नहीं करते, तो
उस आदमी ने कहा, लेकिन आप कुछ नहीं समझे। मैंने क्रोध मन भीतर करता रहता है। जब आप बाहर करना बंद कर देते हो, किया है! बुद्ध ने कहा, मैंने बिलकुल ठीक समझा कि तुमने क्रोध मन भीतर करना शुरू कर देता है। किया है। तो उस आदमी ने पूछा, आप क्रोध क्यों नहीं करते हैं? आपने देखा होगा, आरामकुर्सी पर बैठ जाएं, हाथ-पैर ढीले कर
बुद्ध ने कहा, तुम मेरे मालिक नहीं हो। तुमने क्रोध किया, | दें-अकर्म में हो गए; हम सब की परिभाषा में। कुछ भी नहीं कर इसलिए मैं भी क्रोध करूं, तो मैं तुम्हारा गुलाम हो गया। मैं तुम्हारे रहा है आदमी, इनएक्टिव है, आरामकुर्सी पर लेटा है। लेकिन उस पीछे नहीं चलता हूं। मैं तुम्हारी छाया नहीं हूं। तुमने क्रोध किया, आदमी की खोपड़ी में एक खिड़की बनाई जा सके, तो पता चले बात खतम हो गई। अब मुझे क्या करना है, वह मैं करूंगा। कि वह आदमी कितने कामों में लगा हुआ है!
बुद्ध ने कुछ भी न किया। वह आदमी चला गया। दूसरे दिन हो सकता है, इलेक्शन लड़ रहा हो; जीत गया हो; दिल्ली पहुंच क्षमा मांगने आया, और बुद्ध से कहने लगा, क्षमा कर दो! सिर गया हो। न मालूम क्या-क्या कर रहा हो! जितना वह कुर्सी पर से रख दिया पैरों पर; आंसू गिराए आंखों से। जब सिर उठाया, बुद्ध दौड़कर भी नहीं कर सकता था, उतना कुर्सी पर लेटकर कर सकता ने कहा, और कुछ कहना है?
है। कुर्सी पर से दौड़कर कुछ करता, तो समय बाधा डालता। उस आदमी ने कहा, आप आदमी कैसे हो!
दिल्ली इतनी जल्दी नहीं पहुंच सकता था। लेकिन कुर्सी पर लेटकर बुद्ध ने कहा, मैं समझ गया। मन में कोई भाव इतना घना है कि दिल्ली पहुंचने में समय का कोई व्यवधान नहीं; स्थान की कोई नहीं कह पाते शब्दों से, आंसुओं से कहते हो; सिर को पैर पर बाधा नहीं; न कोई ट्रेन पकड़नी पड़ती है, न कोई हवाई जहाज रखकर कहते हो-गेस्चर्स, मुद्राओं से। कल भी, कल भी कुछ पकड़ना पड़ता है; न वोटर्स के सिरों की सीढ़ियां बनानी पड़ती कहना चाहते थे, नहीं कह पाए; आज भी कुछ कहना चाहते हो, हैं—कुछ नहीं करना पड़ता है। आरामकुर्सी पर लेटा, दिल्ली नहीं कह पाए।
पहुंचा! इच्छा ही कर्म बन जाती है। उस आदमी ने कहा, मैं क्षमा मांगने आया हूं। मुझे क्षमा कर दें। | जो बाहर से काम रोककर बैठ जाते हैं, वे अकर्मण्य तो हो जाते बुद्ध ने कहा, मैंने तुम पर क्रोध ही नहीं किया, इसलिए क्षमा हैं, कर्महीन दिखाई पड़ते हैं; लेकिन भीतर बड़ी सक्रियता, बड़े करने का तो कोई उपाय ही नहीं है। जैसे कल मैंने देख लिया था गहन कर्म का जाल चलने लगता है। कि तुमने थूका, ऐसे आज देखता हूं कि तुमने पैरों पर सिर रखा। रात आप पड़े हैं, सोए हैं। दिखता है ऊपर से, बिलकुल ही
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