SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीता दर्शन भाग-26 अज्ञश्चाश्रधानश्च संशयात्मा विनश्यति । | संकल्प नहीं है; निर्णयरहित, जिसका कोई निर्णय नहीं है; विललेस, नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। ४०। । जिसके पास कोई विल नहीं है। संशय चित्त की उस दशा का नाम और हे अर्जन भगवत विषय को न जानने वाला तथा | है, जब मन ईदर-आर, यह या वह, इस भांति सोचता है। श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता | एक बहुत अदभुत विचारक डेनमार्क में हुआ, सोरेन कीर्कगार्ड। है। उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिए तो न सुख है और | उसने एक किताब लिखी है, नाम है, ईदर-आर—यह या वह। न यह लोक है, न परलोक है। अर्थात यह लोक और | | किताब ही लिखी हो, ऐसा नहीं; खुद भी इतने ही संशय से भरा परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।। | था। एक युवती से प्रेम था, लेकिन तय न कर पाया वर्षों तक, विवाह करूं या न करूं! तय न कर पाया यह कि प्रेम विवाह बने या न बने! इतना समय बीत गया—इतना समय बीत गया कि वह - शय से भरा हुआ, संशय से ग्रस्त व्यक्तित्व विनाश युवती थक गई। उसने विवाह भी कर लिया। तब एक दिन उसके 1 को उपलब्ध हो जाता है। भगवत्प्रेम से रहित और | | घर खबर करने गया कि मैं अभी तक तय नहीं कर पाया हूं। पर संशय से भरा न इस लोक में सुख पाता, न उस लोक | पता चला कि अब वह युवती वहां नहीं है। उसका विवाह हुए काफी में। विनाश ही उसकी नियति है। समय हो गया है। दो बातें ठीक से समझ लेनी इस श्लोक में जरूरी हैं। इस सोरेन कीर्कगार्ड ने किताब लिखी, ईदर-आर—यह या एक तो भगवत्प्रेम से रहित, दूसरा संशय से भरा हुआ। दोनों | वह। उसे अनेक बार लोगों ने चौरस्तों पर खड़े देखा, दो कदम इस एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। संशय से भरा हुआ व्यक्ति | | रास्ते पर बढ़ते, फिर लौट आते; फिर दो कदम दूसरे रास्ते पर भगवत्प्रेम को उपलब्ध नहीं होता है। भगवत्प्रेम को उपलब्ध व्यक्ति | | बढ़ते, फिर लौट आते। गांव के बच्चे उसके पीछे दौड़ते और संशयात्मा नहीं होता है। लेकिन दोनों को कृष्ण ने अलग-अलग | | चिल्लाते, ईदर-आर-यह या वह ! उसकी पूरी जिंदगी ऐसी ही कहा, क्योंकि दोनों के तल अलग-अलग हैं। | इनडिसीजन में-टु बी आर नाट टु बी, होऊं या न होऊ, करूं या संशय का तल है मन और भगवत्प्रेम का तल है आत्मा। लेकिन न करूं। मन से संशय न जाए, तो आत्मा के तल पर भगवत्प्रेम का अंकुरण जब चित्त ऐसे संशय से बहुत गहन रूप से भर जाता है, तो नहीं होता। और आत्मा में भगवत्प्रेम का अंकुरण हो जाए, तो मन | विनाश को उपलब्ध होता है। क्यों? क्योंकि जो यही तय नहीं कर संशयरहित होता है। दोनों ही गहरे में एक ही अर्थ रखते हैं। लेकिन | | पाता कि करूं या न करूं, वह कभी नहीं कुछ कर पाता। जो यही दोनों की अभिव्यक्ति का तल भिन्न-भिन्न है। तय नहीं कर पाता कि यह हो जाऊं या वह हो जाऊं, वह कभी भी इसलिए यह भी ठीक से समझ लेना जरूरी है कि जब कहते हैं | कछ नहीं हो पाता। कि संशयात्मा-संशय से भरी हुई आत्मा-विनष्ट हो जाती है,। | सृजन के लिए निर्णय चाहिए, असंशय निर्णय चाहिए। विनाश तो ठीक से समझ लेना, संशयात्मा का तल आत्मा नहीं है; तल मन | | के लिए अनिर्णय काफी है। विनाश के लिए निर्णय नहीं करना है। आत्मा में तो संशय होता ही नहीं है। लेकिन जिसके मन में पड़ता। संशय है, उसे मन ही आत्मा मालूम होती है। इसलिए कृष्ण ने किसी भी व्यक्ति को स्वयं को नष्ट करना हो, तो इसके लिए संशयात्मा प्रयोग किया है। किसी निर्णय की जरूरत नहीं होती। सिर्फ बिना निर्णय के बैठे रहें. जिसके मन में संशय है, इनडिसीजन है, वह मन के पार किसी | विनाश अपने से घटित हो जाता है। किसी को पर्वत शिखर पर आत्मा को जानता नहीं; वह मन को ही आत्मा जानता है। और ऐसा | |चढ़ना हो, तो श्रम पड़ता है, निर्णय लेना पड़ता है। लेकिन पत्थर मन को ही आत्मा जानने वाला व्यक्ति विनाश को उपलब्ध होता है। की भांति पर्वत शिखर से लुढ़कना हो घाटियों की तरफ, तब किसी संशय क्या है? संशय का, पहला तो खयाल कर लें, अर्थ डाउट निर्णय की कोई जरूरत नहीं होती और श्रम की भी कोई जरूरत नहीं है, संदेह नहीं है। संशय का अर्थ इनडिसीजन है। अनिश्चय नहीं होती। आत्मा, जिसका कोई भी निश्चय नहीं है; संकल्पहीन, जिसका कोई इस जगत में पतन सहज घट जाता है, बिना निर्णय के। इस |256
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy