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स्वाध्याय - यज्ञ की कीमिया
समस्त रोगों को वैसा ही देख लेता है, जैसे वे हैं—इन देअर टोटल नैकेडनेस, उनकी पूरी नग्नता में - वह फिर वैसा ही नहीं रह सकता, जैसा था। उसमें रूपांतरण शुरू हो जाता है; उसमें बदलाहट शुरू हो जाती है। और वह जो बदलाहट है, वह स्वाध्याय का सहज परिणाम है।
स्वाध्याय में कठिनाई है, लेकिन स्वाध्याय करने में जो समर्थ है, बदलाहट में कठिनाई नहीं है। बदलाहट बिलकुल सहज है; छाया की तरह पीछे चली आती है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, स्वाध्यायरूपी यज्ञ! इस यज्ञ से गुजरकर भी... ।
इसके लिए वे दो-तीन और सहारे बताते हैं। शास्त्र का अध्ययन स्वाध्याय के लिए सहारा बन सकता है। लेकिन किस शास्त्र का अध्ययन सभी शास्त्र स्वाध्याय के लिए सहारा नहीं बन सकते हैं। केवल वे ही शास्त्र स्वाध्याय के लिए सहारा बन सकते हैं, जो आत्म-स्वीकृतियां हैं, कन्फेशंस हैं। जैसे सेंट अगस्तीन की किताब कन्फेशंस या टाल्सटाय की जीवन- कथा, या रूसो की जीवन कहानी, या गांधी की आत्मकथा । इस तरह के वक्तव्य स्वाध्याय के लिए सहयोगी हो सकते हैं।
लेकिन लोग इनका स्वाध्याय नहीं करते। स्वाध्याय अगर वे करते हैं, तो गीता का करते हैं। गीता स्वाध्याय में सहयोगी उतनी नहीं हो सकती, क्योंकि गीता कन्फेशन नहीं, स्टेटमेंट है। गीता तो सत्य का वक्तव्य है, असत्य की स्वीकृति नहीं। गांधी की आत्मकथा काम की हो सकती है स्वाध्याय करने वाले को, क्योंकि उसमें असत्य की बहुत स्वीकृतियां हैं। उसमें भीतर के रोगों के बहुत स्वीकार हैं।
गांधी बता पाते हैं कि पिता मर रहे हैं, पैर दबा रहा हूं; चिकित्सकों ने कहा है, यह रात आखिरी होगी, लेकिन बारह बजे के करीब कामवासना भारी हो जाती है । कल भी भोगा था पत्नी को, परसों भी भोगा था, आज भी भोगने का मन है। बाप मर रहा है! बाप की मृत्यु भी वासना से नहीं छुड़ा पाती!
चकमा करके – कोई पूछता है कि बहुत थक गए होओगे, मैं हाथ-पैर दबा दूं? थके नहीं हैं, क्योंकि थका आदमी कामवासना के लिए आतुर नहीं होता । मौका पाकर कि किसी ने कहा कि मैं पैर दबा दूं, गांधी वहां से खिसक गए। एक ही दीवाल का फासला था। उस पार वह पत्नी के साथ संभोग में रत हो गए। और पत्नी गर्भिणी है, प्रेगनेंट है। चार ही दिन बाद उसको बच्चा हुआ, हालांकि मरा
हुआ हुआ या होते ही मर गया। होने वाला था । यह मृत्यु भी, यह हिंसा भी कहीं न कहीं गांधी को जीवनभर पीड़ा देती रही।
जब वे संभोग में हैं, तभी पिता की मृत्यु हो गई। हाहाकार घर में मच गया, रोना-चिल्लाना। इसलिए जिंदगीभर फिर ब्रह्मचर्य की आकांक्षा रही।
काम के प्रति गांधी का जो इतना गहरा विरोध है, उसमें वह घटना भीतर बैठ गई मन में; वह गहरी उतर गई। बाप की हत्या जुड़ | गई संभोग के साथ | और पिता फिर दुबारा नहीं मिल सके। मन पर अपराध का भाव, गिल्ट बैठ गई। गांधी उस गिल्ट से जिंदगीभर मुक्त नहीं हुए। गांधी जिंदगीभर अपराध - भाव से पीड़ित रहे । लेकिन आदमी ईमानदार थे; नीयत उनकी साफ थी; स्वीकार सब कर लिया।
यह स्वीकृति पढ़ेंगे, तो अपने भीतर भी स्वीकार करने में सुविधा बनेगी। इस तरह के शास्त्र, जो स्वीकृतियां हैं, कन्फेशंस हैं, वे स्वाध्याय में सहयोगी बन सकते हैं।
उपनिषद नहीं बन सकते स्वाध्याय में सहयोगी । लेकिन लोग उपनिषद का स्वाध्याय करते हैं! उपनिषद बेयर स्टेटमेंट्स हैं। | उपनिषद का ऋषि कहता है, ब्रह्म है। खतरनाक है उसका स्वाध्याय | करना । उपनिषद का ऋषि कहता है, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। ये सत्य को उपलब्ध लोगों के वक्तव्य हैं। आप भी बैठकर इनको पढ़ पढ़कर मन में सोचने लगते हैं, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं! खतरे में पड़ेंगे। आप ब्रह्म वगैरह बिलकुल नहीं हैं। कृपा करके जो हैं, वही अपने को जानें। चोर हो सकते हैं, बेईमान हो सकते हैं, ब्रह्म बिलकुल नहीं हो सकते।
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लेकिन उपनिषद पढ़ने में खतरा है एक । और वह खतरा यह है कि उपनिषद जानने वालों के वक्तव्य हैं, और न जानने वाले उन वक्तव्यों को पकड़ लें, तो वे अपने को धोखा देने में समर्थ हो जाएंगे। स्वाध्याय तो नहीं कर पाएंगे, हत्या कर लेंगे अपनी |
नहीं; स्वाध्याय में ऐसे शास्त्र सहयोगी हैं, जो असत्य से गुजरने वाले लोगों की आत्म-स्वीकृतियां हैं। सत्य को पहुंचे हुए शिखर के उदघोषण नहीं; असत्य की घाटियों में सरकने वाले लोगों की पीड़ाओं की स्वीकृतियां । इसलिए मैं आपसे कहूंगा कि कई बार ऐसे लोगों के वक्तव्य, जिन्होंने सत्य को नहीं जाना है, लेकिन असत्य की पीड़ा को भोगा है और असत्य की पीड़ा को स्वीकार करने का साहस दिखलाया है— जैसे, न तो टाल्सटाय को सत्य का कोई अनुभव है, न गांधी को ।