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________________ काम-क्रोध से मुक्ति इसलिए। और जब तक कोई समर्पित न हो, तब तक मुक्त नहीं हो पाता है। समर्पण, सरेंडर मुक्ति है। और यह बड़े मजे की बात है कि इसके पहले सूत्र में कृष्ण कहते हैं कि तू संकल्प को बड़ा कर, आज्ञा चक्र को जगा । और ठीक उसके बाद के सूत्र में कहते हैं कि मैं परमात्मा हूं, ऐसा जान । असल में, जो महा संकल्पवान है, वही समर्पण कर पाता है। जिसके पास संकल्प नहीं है, वह समर्पण भी नहीं कर पाएगा। कमजोरों के लिए संकल्प नहीं है। शक्ति समर्पण बनती है। यह पांचवां अध्याय पूरा हुआ। इस पूरे अध्याय में कृष्ण अर्जुन को कर्म करते हुए, समस्त कर्म के जाल में डूबे रहते हुए मुक्त होने की सारी कीमिया, सारी केमिस्ट्री, सारी अल्केमी उपस्थित की है। गीता का एक-एक अध्याय अपने में पूर्ण है। गीता एक किताब नहीं, अनेक किताबें है। गीता का एक अध्याय अपने पूर्ण है। जरूरी नहीं है कि इसके आगे गीता पढ़ें। जरूरी तभी है, जब पांचवां अध्याय न पढ़ पाएं, न समझ पाएं। ध्यान रखें, जरूरी तभी है, जब पांचवां अध्याय बेकार चला जाए, तो फिर छठवां पढ़ें। अर्जुन पर बेकार चला गया, इसलिए छठवां कृष्ण को कहना पड़ा। बेकार इसलिए चला गया कि कृष्ण को दिखाई पड़ा कि अभी कुछ हुआ नहीं। फिर और बात करनी पड़ी। फिर और बात करनी पड़ी। फिर और बात करनी पड़ी। अगर एक अध्याय भी गीता का ठीक से समझ में आ जाए – समझ का मतलब, जीवन में आ जाए, अनुभव में आ जाए। खून में, हड्डी में आ जाए; मज्जा में, मांस में आ जाए; छा जाए सारे भीतर प्राणों के पोर-पोर में - तो बाकी किताब फेंकी जा सकती है। फिर बाकी किताब में जो है, वह आपकी समझ में आ गया। न आए, तो फिर आगे बढ़ना पड़ता है। लेकिन ध्यान रहे, अगर कोई भी व्यक्ति गीता या बाइबिल और कुरान जैसी किताबों को सिर्फ बौद्धिक रूप से समझने की चेष्टा में संलग्न होता है, तो गलती कर रहा है। वह ऐसी ही गलती कर रहा है, जैसे कोई व्यक्ति सड़क के किनारे, सीमेंट की सड़क के पास कांटा और आटा लगाकर बैठ जाए मछली पकड़ने को— सीमेंट की सड़क पर ! वहां कोई मछली पकड़ में नहीं आएगी। ऐसी ही गलती है। बुद्ध से कोई अगर अस्तित्व के जगत में खोजने निकल पड़े, कुछ पकड़ में नहीं आता। बुद्धि का वहां अर्थ नहीं है। इतना ही अर्थ है बुद्धि का कि आपकी जो पकड़ी हुई, जकड़ी हुई अबुद्धि है, उसे तोड़ पाए। आप हल्के हो पाएं। समझ लें, ऐसा समझ लें, आपके हाथ-पैर में जंजीरें पड़ी हैं। | आप हट नहीं पाते उस जगह से। मैं एक हथौड़ी लाकर आपकी | जंजीरें तोड़ देता हूं। जंजीरें तोड़ सकता हूं हथौड़ी से, स्वतंत्र नहीं कर सकता आपको। फिर भी आप वहीं खड़े रहें, तो मैं क्या करूंगा ? जंजीरें गिर जाएं जमीन पर, आप वहीं बैठे रहें, तो मैं क्या करूंगा ! सिर्फ नकारात्मक काम, निगेटिव काम बुद्धि से हो सकता है। आपके मन पर जो बहुत-सी अबौद्धिक धारणाएं जकड़ी हुई हैं, बुद्धि उनको काटकर तोड़ सकती है। लेकिन उतने से स्वतंत्रता नहीं सिद्ध होती। उससे सिर्फ गुलामी टूटती है। और अगर आप उठकर चल | नहीं पड़ते, तो आपके आस-पास फिर जंजीरें इकट्ठी हो जाएंगी। बैठा रहेगा, उसके आस-पास जंजीरें इकट्ठी हो जाती हैं। जो चलता रहेगा, वही स्वतंत्र होता है। नदी का पानी बहता रहे, तो स्वच्छ होता है। रुक जाए, सड़ जाता है। और जो व्यक्ति भी केवल सोचता रहता है, वह रुक जाता है। जीता है, वह बहता है और चलता है। तो अंत में इतना ही कहूंगा, बहें। जो सुना, जो समझा, उसे कहीं करें। हजार मील की बात बेकार है एक कदम चलने के आगे । एक कदम काफी है। एक कदम चलें, तो हजार मील की बात करने की | कोई जरूरत नहीं है । और एक-एक कदम चलकर हजारों मील का फासला पार हो जाता है। 425 अब पांच मिनट, अंतिम दिन हम कीर्तन में बैठेंगे। कोई जाएगा नहीं। एक भी व्यक्ति नहीं जाएगा। और साथ दें। आप भी गाएं। आप भी अपनी जगह डोलें; ताली बजाएं। एक पांच मिनट आनंद में, और फिर हम विदा हो जाएं।
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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