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गीता दर्शन भाग-20
हुआ दीया जला, तो बाद में पांच मिनट परमात्मा को धन्यवाद देकर | लेकिन हमारी हालत वैसी है, जैसा मैंने सुना है, एक मछली ने विदा हो जाना चाहिए। इसलिए कि यह भी समझ हमारी कहां, तेरी | | एक दिन जाकर सागर की रानी मछली से पूछा कि यह सागर कहां ही है! उसको ही समर्पित करके चले जाना चाहिए। यह भी हम है? बहुत सुनती हूं चर्चा! मछलियां बड़ी बात करती हैं! पुरखों से कहां समझ पाते! तूने समझाना चाहा, तो हम समझ गए। तूने सुनी है यह बात कि सागर है कोई। पर कहां है? सागर कहां है? दिखाना चाहा. तो दिखाई पड़ गया। तने इशारा किया. तो इशारा | स्वभावतः, मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही जीती मिल गया। तुझे धन्यवाद दे देते हैं और चले जाते हैं। है और सागर में ही समाप्त हो जाती है। जो इतना निकट है और
बैंक्स गिविंग है। यह सिर्फ आभार है। और आज तो मैं आपसे सदा निकट है, वह दिखाई नहीं पड़ता। जो बहुत ऑबियस.है, जो कहूंगा, अपनी जगह बैठकर ही डोलें और ताली बजाएं और प्रभु | बिलकुल सदा ही साथ है, वह दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ने के का नाम लें। और एक भी आदमी जाए न।
लिए बीच-बीच में खो जाना जरूरी है। एक सूत्र और ले लें।
मछली को सागर से निकालो, तब उसे पता चलता है कि सागर कहां है। डाल दो तट पर मछली को निकालकर, तब तड़फन आती
| है। तब पता चलता है, सागर कहां है। अन्यथा सागर में रही मछली सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। | को कभी पता नहीं चलता कि सागर कहां है। पता चलेगा भी कैसे?
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ।। १३ ।। | दूरी चाहिए पता चलने को। पर्सपेक्टिव चाहिए, फासला चाहिए। और हे अर्जुन, वश में है अंतःकरण जिसके, ऐसा सांख्ययोग | | थोड़ा फासला हो तो पता चलता है, नहीं तो पता नहीं चलता। का आचरण करने वाला पुरुष निःसंदेह न करता हुआ और तो सागर की मछली को पता न हो, आश्चर्य नहीं है। हमको भी न करवाता हुआ, नौ द्वारों वाले शरीररूप घर में सब को | पता नहीं है कि हम परमात्मा में ही जीते, पैदा होते, जन्मते, बड़े को मन से त्यागकर, अर्थात इंद्रियां इंद्रियों के अर्थों में बर्तती | होते, बिखरते, विसर्जित होते हैं। और सागर की मछली तो कोशिश है, ऐसा मानता हुआ आनंदपूर्वक, सच्चिदानंदघन परमात्मा करने से कभी किनारे पर भी आ सकती है। हम परमात्मा के किनारे के स्वरूप में स्थित रहता है।
| पर कभी नहीं आ सकते, क्योंकि कोई किनारा है ही नहीं। इसीलिए तो हमें पता नहीं चलता कि परमात्मा कहां है।
लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है? अगर परमात्मा कोई चीज न समें एक ही नई बात कही है, वह समझ लें।। होती, तो बताई जा सकती थी, यह रही। एक पत्थर भी बताया जा र कहा है, अंतःकरण वश में हुआ जिसका! इस संबंध सकता है, यह रहा; और परमात्मा नहीं बताया जा सकता कि कहां
में हमने बात की है। न करता है, न कराता हुआ, है। क्योंकि परमात्मा कहां है, यह पूछना ही गलत है। परमात्मा का सच्चिदानंद परमात्मा में सदा स्थित रहता है। यह आखिरी बात इस मतलब ही यह होता है कि जो सब जगह है, जो सब कहीं है, सूत्र में नई है।
एवरीव्हेयर। हर कहीं है जो, उसका नाम परमात्मा है। ऐसा व्यक्ति, ऐसे ज्ञान को उपलब्ध, इंद्रियों से अपने को भिन्न इसका यह मतलब भी होता है कि जैसे हम दूसरी चीजों को बता जानता है जो, वासनाएं जिसके अंतःकरण को अशुद्ध और कुरूप | सकते हैं कि यह रही, ऐसे हम परमात्मा को नहीं बता सकते।
और दुर्गधित नहीं करतीं; कर्म करता हुआ भी जानता नहीं, मानता | | इसलिए हम यह भी कह सकते हैं कि परमात्मा का मतलब है, वही, नहीं कि मैं कर्म करता हूं। प्रभु ही करता है। कराता हुआ भी नहीं| जो कहीं भी नहीं है, नोव्हेयर। कहीं नहीं बता सकते कि यह रहा। मानता कि मैं कराता हूं। प्रभु ही कराता है। ऐसा पुरुष प्रतिपल, हर कहीं भी अंगुली निर्देश नहीं कर सकती कि यह रहा। सब चीजों को घड़ी, सोते-जागते, उठते-बैठते सच्चिदानंद परमात्मा में ही स्थिर बता सकते हैं, यह रही, परमात्मा को नहीं बता सकते। अगर रहता है। एक क्षण को भी वह हटता नहीं वहां से। हटे तो हम भी परमात्मा को बताना हो, तो अंगुली के इशारे से नहीं बता सकते; नहीं हैं, लेकिन हमें इसका पता नहीं है, उसे पता होता है। हटे तो | | मुट्ठी बंद करके बताना पड़ेगा कि यह रहा। अंगुली से इशारा करेंगे, हम भी नहीं हैं। सच्चिदानंद परमात्मा हमारा स्वरूप है। | तो गलती हो जाएगी। क्योंकि फिर अंगुली के अतिरिक्त जो इशारे
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