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अहंकार की छाया है ममत्व*
उन्मेष है। कुछ चीज भीतर भर गई है, वह बाहर बह रही है। शरीर रही थी कि यह क्या पाप हो रहा है! स्त्री और पुरुष साथ नाच रहे नहीं सम्हलता, इसलिए नाच रहा है।
हैं! कृष्ण को न समझ पाएगी ऐसी बुद्धि। अगर नृत्य और कीर्तन यह नृत्य कोई लय-तालबद्ध व्यवस्था नहीं है, इसलिए में भी स्त्री-पुरुष का खयाल बना रहे, तो अच्छा है कि नृत्य-कीर्तन डिसआर्डरली है। इसमें कोई व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था होनी भी नहीं| मत करो। इतना भी न भूलता हो! दूसरे का शरीर न भूलता हो, तो चाहिए, तभी उसकी मौज है, तभी उसकी नैसर्गिकता है, तभी उसकी अपना शरीर कैसे भूलेगा? अगर इसका भी खयाल बना रहे कि स्पांटेनिटी है, और तभी आप उसमें भीतर प्रवेश कर पाएंगे। आज पास में स्त्री खड़ी है, इसलिए बच-बचकर नाचो, तो मत नाचना। मैंने यह कहा, तो जरा आज फिर गौर से देखना आप। आप शायद क्योंकि फिर अपने शरीर का खयाल भूलने वाला नहीं है। सोचते होंगे कि ठीक है...।
कोई तो घड़ी हो, जहां आप शरीर न रह जाएं और सिर्फ वही रह एक मित्र आए, वे बोले, हम तो कीर्तन बीस साल से करते-करते | जाएं, जो भीतर हैं। वहां न कोई स्त्री है, न कोई पुरुष है। किसी थक गए। कुछ होता नहीं। होगा भी नहीं। क्योंकि कीर्तन कोई किया घड़ी में तो सब भूल जाना चाहिए। लेकिन हमारे मंदिर में भी थोड़े ही जाता है। होना चाहिए। वह आनंद की अभिव्यक्ति बननी स्त्री-पुरुषों के फासले बने हुए हैं। स्त्रियां अलग बैठी हैं, पुरुष चाहिए। वे कहते हैं, हमें कीर्तन बीस साल हो गए करते-करते, कुछ अलग बैठे हैं! हुआ नहीं। तो वे कुछ फल की आकांक्षा से कर रहे होंगे; कीर्तन | __ सुनी है न आपने घटना मीरा की कि जब वह गई वृंदावन, तो सकाम हो गया। वे सोच रहे होंगे, कुछ हो जाए।
| मंदिर के पुजारी ने भीतर न आने दिया। उसने कहा कि मैं स्त्री को ये संन्यासी जो यहां बैठे हैं, कुछ होने के लिए नहीं कर रहे हैं। | देखता ही नहीं। तो मीरा ने खबर भिजवाई कि गोस्वामी को कहो इनका आनंद है। गीता घंटेभर सुनी। अगर इतने आनंद से भी हृदय | | कि मैं तो सोचती थी, एक ही पुरुष है, कृष्ण! तुम दूसरे पुरुष कहां न भर जाए, कि नाच लें पांच मिनट और फिर विदा हो जाएं, तो | से आ गए? बेकार गई बात।
क्षमा मांगी आकर कि माफ कर दो। भूल हो गई। इसलिए जानकर यह अव्यवस्थित है। यह अव्यवस्थित ही ये नासमझियां धर्म के नाम पर बहुत हैं। ये तोड़ने जैसी हैं। रहेगा। फिर भी आपके डर से, आपकी मौजूदगी से नए संन्यासी उन्मुक्त! किसी घड़ी में तो जीवन के सारे थोथे नियमों को एक तरफ कोई आते हैं, तो वे तो हिम्मत भी नहीं जुटा पाते हैं। वे धीमे-धीमे | रखकर डूब जाएं। और फिर देखने वाली दृष्टि कैसी बेहूदी है! जिस करते रहते हैं। लेकिन मैं चाहता हूं कि दो-चार वर्ष में पूरे मुल्क में | | स्त्री को, जिस पुरुष को यहां कीर्तन नहीं दिखाई पड़ा, कृष्ण का इस. हवा को फैलाऊंगा। पूरे मुल्क में क्यों, सारी दुनिया के नाम नहीं सुनाई पड़ा, हरिनाम नहीं सुनाई पड़ा, उसे दिखाई पड़ा कि कोने-कोने तक फैलाने जैसी है। और वह जो फेस्टिव डायमेंशन है। एक औरत एक पुरुष के पास नाच रही है! उस स्त्री की बुद्धि कितनी मनुष्य के उत्साह का, उमंग का; उत्सव का जो आयाम है चित्त का, है! उस स्त्री की समझ कैसी है! और जिसने मुझे खबर दी उसने वह खुलना चाहिए।
कहा कि वह वृद्धा थी। अगर वृद्ध होकर भी अभी यौन के इतने धर्म बहुत गंभीर हो गया है। और जितना गंभीर होगा धर्म, उतना अंतर भूले नहीं, तो फिर कब? कब्र के बाद? अर्थी उठ जाएगी रुग्ण और बीमार होगा। गंभीर शकलों को मंदिरों से विदा कर दो। | तब? कब होगा? ये भेद कब गिरेंगे? ये कहीं तो गिर जाने चाहिए। मंदिर नृत्य के और जीवन के उत्सव के स्थल हों, तो हम धर्म को | । इसलिए अव्यवस्थित है, कोई व्यवस्था नहीं है। हरिनाम की वापस ला पाएंगे।
कोई व्यवस्था नहीं होती, सिर्फ आनंद होता है। अराजक है, गंभीर चेहरे, बीमार, घबड़ाए हुए, जिंदगी से परेशान, पीड़ित- | केआटिक है। जानकर है, क्योंकि जितना अराजक होगा, उतने ही नहीं, मंदिर को बेरौनक कर गए हैं। मंदिर तो जीवन के नृत्य का क्षण| | भीतर के बंधन गिरेंगे। और भीतर जो छिपी आत्मा है, वह प्रकट है। वहां तो जिंदगी की सारी गंभीरता बाजार में छोड़कर चले जाना | हो सकेगी। चाहिए। वहां तो नाचते हुए ही जाना चाहिए। वहां तो नाचना चाहिए और किसी पाने की आकांक्षा से नहीं है। सिर्फ प्रभु को धन्यवाद घड़ीभर सब भूलकर, लोग-लिहाज, लाज-लज्जा, सब भूलकर। देने की आकांक्षा है। घंटेभर सुनी गीता; हृदय के कहीं फूल खिले;
कल एक महिला ने मुझे खबर दी कि कोई बूढ़ी महिला पीछे कह कहीं कोई वीणा का तार छुआ और बजा; कहीं कोई भीतर बुझा
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