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________________ माया अर्थात सम्मोहन जागता रहा कि कब लौटे, तो पकडूं। एक रात मौत वापस | शंकर कहते हैं, परमात्मा तो है। यह जगत नहीं है, लेकिन तुम्हें लौटती थी। कहा, ठहर। हद हो गई! इतना झूठ! मुझसे कहा, दस | | दिखाई पड़ता है। हजार लोग मारने हैं। पचास हजार तो मर चुके! उस मौत ने कहा, । माया का अर्थ है, जो नहीं है और दिखाई पड़ता है। जिस दिन तुम मैंने दस हजार मारे हैं; बाकी अपने आप मर गए। बाकी घबड़ाहट जानोगे उसे, जो है, उस दिन जो दिखाई पड़ता था और नहीं था, वह में मर गए। मेरा कोई हाथ नहीं है। बाकी यह समझकर कि प्लेग खो जाएगा, तिरोहित हो जाएगा। संबंध कभी जोड़ना नहीं पड़ेगा। आई, मर गए। दस हजार मारकर मैं जा रही हूं, बाकी चालीस हजार जब तक जगत है, जगत है; परमात्मा नहीं है। संबंध का कोई अपने आप मरे हैं। और आगे भी मरें, तो मेरा कोई जिम्मा नहीं है। सवाल नहीं है। जिस दिन परमात्मा होता है, परमात्मा ही होता है; रस्सी और सांप एक नहीं हैं उसे, जिसे रस्सी सांप दिखाई पड़ | जगत नहीं होता। संबंध का कोई सवाल नहीं है। रही है। जगत जिन्हें दिखाई पड़ रहा है अभी, उनसे यह कहना कि | इसलिए परमात्मा और माया के बीच कोई भी संबंध नहीं है, माया और परमात्मा एक हैं, बड़ा कठिन है समझना। कैसे एक हो | रिलेटेड नहीं हैं। संबंध हो नहीं सकता। एक सत्य और एक असत्य सकते हैं? एक नहीं हैं। के बीच संबंध हो कैसे सकता है। नदी पर अगर हमें एक बिज जगत दिखाई पड़ रहा है, तब तक परमात्मा है ही नहीं। एक का | बनाना हो, एक सेतु, एक पुल बनाना हो; एक किनारा सच हो और सवाल कहां है! माया ही है। नींद है गहरी; वही है। जिस दिन नींद | | दूसरा किनारा झूठ हो, पुल बना सकते हैं आप? कैसे बनाइएगा से कोई जागता है, तो परमात्मा ही बचता है, जगत नहीं बचता। । | पुल ? सच्चे किनारे पर एक हिस्सा पुल का रख जाएगा, पर दूसरे इसलिए एक बहुत कठिन पहेली है यह। बहुत कठिन पहेली है। | हिस्से को कहां रखिएगा? और अगर दूसरा हिस्सा झूठ पर भी रखा पहेली इसलिए कठिन है कि जिन लोगों ने जाना, उन्होंने कहा, | जा सकता है, तो फिर सच का भी शक हो जाएगा। परमात्मा ही है, जगत नहीं है। पर हम, जो जानते हैं, जगत है, उनसे माया और ब्रह्म दोनों कभी आमने-सामने खड़े नहीं होते किसी पूछते ही गए कि कुछ तो बताओ! जगत है तो ही। शंकर कहते हैं | । मनुष्य के अनुभव में, लेकिन इस तरह के मनुष्य आमने-सामने कि जगत माया है। माया मतलब, नहीं है। पर हम पूछते हैं, हम कैसे | | खड़े हो जाते हैं, एक का अनुभव ब्रह्म का और एक का अनुभव मान लें कि माया है। पैर में कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है! । | माया का। वे आमने-सामने बातचीत करते हैं। तब इन दो शब्दों __ योरोप में एक विचारक हुआ, इंग्लैंड में, बर्कले। वह भी कहता | | का उपयोग करना पड़ता है। वह जो ब्रह्म को जानता है, उसे मानना था शंकर की तरह कि सब जगत इलूजन है, एपियरेंस है, दिखावा तो पड़ता है कि जगत है, क्योंकि सामने वाला कह रहा है कि है। है, कुछ है नहीं। वह डाक्टर जानसन के साथ एक दिन सुबह घूमने इस चर्चा को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, अगर वह कह दे कि निकला। और उसने डाक्टर जानसन से भी कहा कि सब जगत | नहीं ही है। तब भी सामने वाला कहेगा कि जिसको तुम इतने जोर माया है। . से कहते हो, नहीं है, वह कुछ तो होना चाहिए, नहीं तो इतने जोर ___जानसन बहुत यथार्थवादी। उसने एक पत्थर उठाकर बर्कले के | | की जरूरत क्या है? जब तुम कहते हो, नहीं है, तो तुम किस चीज पैर पर पटक दिया। लहूलुहान हो गया पैर। बर्कले पैर पकड़कर को कह रहे हो कि नहीं है। किसी चीज को तो नहीं कह रहे हो! बैठ गए। जानसन खड़ा है बगल में। वह कहता है कि जब सब मान लो, नहीं है जगत; लेकिन जिससे कह रहे हो, वह तो है! यह माया है, तो पैर किसलिए पकड़कर बैठे हो! पत्थर है ही नहीं। | कठिनाई है। शंकर से लोग पूछते हैं कि जगत माया है, कैसे मानें? तुम भी संसार और सत्य, माया और ब्रह्म, आमने-सामने एनकाउंटर तो भिक्षा मांगते हो। भूख लगती है। खाना भी खाते हो। सोते भी | | उनका कभी होता नहीं। उनका कभी कोई मिलन नहीं होता। उनके हो। कैसे मानें? शंकर का वश चले, तो शंकर कहें, जगत है ही | | बीच कोई संबंध नहीं है। माया का मतलब ही है कि जो नहीं है और नहीं। लेकिन लोग, जिनसे उन्हें बात करनी है, वे कहते हैं, जगत | | दिखाई पड़ता है। है। परमात्मा नहीं है तुम्हारा। कहीं दिखाई नहीं पड़ता! जगत तो सांप दिखाई पड़ रहा है और नहीं है; रस्सी है। अब बड़ी दिखाई पड़ता है। उलटी बातें कहते हो। जो है, उसको कहते हो, कठिनाई है कि वह कहां से आ रहा है! क्यों दिखाई पड़ रहा है! नहीं है। और जो नहीं है, उसको कहते हो, है। तो शंकर क्या कहें? | | कृष्ण कहेंगे, वह तुम्हारा प्रोजेक्शन है, तुम्हारी माया है। तुमने ही |367
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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