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________________ मृत्यु का साक्षात मिथ्या ज्ञान गिर जाएगा। मिथ्या ज्ञान गिरा, अज्ञान का बोध होगा। अज्ञान का बोध हुआ, ज्ञान की यात्रा शुरू हो जाती है। और वे पुरुष, ज्ञान अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं, वे परलोक में आनंद को उपलब्ध होते ही हैं, इस लोक में भी आनंद से भर जाते हैं। एक आखिरी श्लोक और । एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।। ३२ ।। ऐसे बहुत प्रकार के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार किए गए हैं। उन सबको शरीर, मन और इंद्रियों की क्रिया द्वारा ही उत्पन्न होने वाले जान। इस प्रकार तत्व से जानकर निष्काम कर्मयोग द्वारा संसार-बंधन से मुक्त हो जाएगा। इ न सारे यज्ञों के द्वारा, इन सारे यज्ञों को करते हुए, निष्काम कर्म के भाव से दृष्टारूप हुआ व्यक्ति मुक्त हो जाता है। यह सूत्र कनक्लूसिव है । वह जो भी कहा है इसके पहले, उसकी निष्पत्ति है। निष्पत्ति में, जीवन के समस्त कर्मों को कामना के कारण नहीं, निष्कामना के आधार पर करते हुए, यह आधार है निष्पत्ति का। दो बातें आपसे कहूं, तो खयाल में आ जाए। एक, हम एक ही तरह के कर्म को जानते हैं अब तक। वह कर्म है, सकाम | बिना कामना के हमने कोई कर्म कभी जाना नहीं । इसीलिए तो हमने आनंद कभी जाना नहीं । सिवाय दुख के हमारा कोई परिचय नहीं है। काम कर्म की एक खूबी है, जब तक नहीं पूरा होता, तब तक सुख की आशा रहती है। जब पूरा होता है, दुख के फल हाथ में आते हैं। निष्काम कर्म की एक खूबी है, जब तक करते हैं, तब तक कामना और आशा से शून्य होना पड़ता है; और जब कर्म पूरा हो जाता है, तो आनंद से भर जाते हैं, आपूरित हो जाते हैं। सकाम कर्म को हम भलीभांति जानते हैं। हम सब ने सकाम कर्म किए हैं। हमने प्रेम किया, तो सकाम । हमने मित्रता की, तो सकाम। हमने दुकान चलाई, तो सकाम । हमने प्रार्थना भी की, तो सका। हम प्रभु के मंदिर में भी खड़े हुए, तो कामना को लेकर । हमने यज्ञ भी किया, तो कामना को लेकर। हमने भजन भी किया, तो भी कामना को लेकर। हमारा अनुभव कामना का अनुभव है। | निष्पत्ति भी हमारी दुख की निष्पत्ति है। इतना हम भी जानते हैं। कृष्ण जो कहते हैं, वह इससे उलटी बात कहते हैं। हमारा अनुभव यह है कि हमने जहां-जहां कामना के फूल: को तोड़ना चाहा, वहीं-वहीं दुख का कांटा हाथ में लगा। जहां-जहां कामना के फूल के लिए हाथ बढ़ाया, फूल दिखाई पड़ा जब तक, हाथ में न आया, जब हाथ में आया, तो सिर्फ लहू, खून; कांटा चुभा; फूल तिरोहित हो गया। लेकिन मनुष्य अदभुत है। उसका सबसे अदभुत होना इस बात में है कि वह अनुभव से सीखता नहीं। शायद ऐसा कहना भी ठीक नहीं। कहना चाहिए, अनुभव से सदा गलत सीखता है। सीखता नहीं है, ऐसा कहना ठीक नहीं सीखता है; गलत सीखता है। अगर हाथ बढ़ाया और फूल हाथ में न आया और कांटा हाथ में आया, तो वह यही सीखता है कि मैंने गलत फूल की तरफ हाथ बढ़ा दिया; अब मैं ठीक फूल की तरफ हाथ बढ़ाऊं। यह नहीं सीखता कि फूल की तरफ हाथ बढ़ाना ही गलत है। यह नहीं सीखता । और साधारण आदमियों का तो हम छोड़ दें। राम अपनी कुटिया के बाहर बैठे हैं। स्वर्णमृग दिखाई पड़ जाता है। स्वर्णमृग ! सोने का हिरण ! होता नहीं। पर जो नहीं होता, वह दिखाई पड़ सकता है। जिंदगी में बहुत कुछ दिखाई पड़ता है, जो है ही नहीं। और जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता है। स्वर्णमृग दिखाई पड़ता है राम को उठा लेते हैं धनुष-बाण। | सीता कहती है, जाओ, ले आओ। निकल पड़ते हैं स्वर्णमृग को मारने। यह कथा बड़ी मीठी है ! राम स्वर्णमृग को मारने निकल पड़ते हैं! सोने का मृग कहीं होता है ? लेकिन आपको भी दिखाई पड़ जाए, तो रुकना मुश्किल हो | जाए। असली मृग हो, तो रुक भी जाएं; सोने का मृग दिखाई पड़ जाए, तो रुकना मुश्किल हो जाएगा। 197 हम सभी तो सोने के मृग के पीछे भटकते हैं । एक अर्थ में हम सबके भीतर का राम सोने के मृग के लिए ही तो भटकता है। और | हम सबके भीतर की सीता उकसाती है, जाओ, सोने के मृग को ले आओ। हम सबके भीतर की कामना, हम सबके भीतर की वासना, हम सबके भीतर की डिजायरिंग कहती है भीतर की शक्ति को, ऊर्जा को, राम को - कि जाओ । इच्छा है सीता; शक्ति है राम । कहती है, जाओ, स्वर्णमृग को ले आओ। दौड़ते फिरते हैं। स्वर्णमृग हाथ
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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