Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||श्री वीतरागायनमः।। युग प्रमुख चरित्र शिरोमणी सन्मार्ग दिवाकर आचार्य श्री विमस सागर जी महाराज की हीरक जयन्ती के शुभ अवसर पर प्रकाशित पुष्प नं०-६० आचार्य सोमदेव विरचित् यशःस्तिलक चम्पू (पूर्व खण्ड) अनुवादक स्व० पं० सुन्दरलाल शास्त्री प्रेरक ज्ञान विवशकर उपाध्याय श्री भरतसागर जी महाराज निर्देशिका आर्यिका श्री स्याद्वादद्मतिमाता जी अर्थसहयोगी श्री धर्मानुरागी श्री त्रिलोकचन्द कोठारी सुपुत्र श्री कुलद्वीप जी कोठारी कोटा Yxtaram प्रकाशक भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद Mne Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i विषय मङ्गलाचरण प्रशंसा व कुकत्रि-निन्दा, यशस्विक की वियो कविता को कारणसामग्री आदि का वर्णन जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र संबंधी 'यौधेय' देश का वर्णन राजपुर नगर की शोभा का निरूपण उसके राजा मारिस का वर्णन विषयानुक्रमणिका प्रथम आश्वास ... मार्ग Mily .... 1444 'भैरव' नामक तात्रिक गुरु का मरिस राजा के की बलि पूजा का प्रबन्ध व नगररक्षको को इस अवसर पर राजपुर नगर के प्रान्तभाग में 'वाचायै' का ससंघ आगमन व उनकी विशेषताओं का सरस लिए प्रलोभन, प्रलाभ-वश राजा द्वारा चण्डमारी देवी बलि-हेतु सुन्दर मनुष्य-युगल लाने की आज्ञा वर्णन एवं प्रसङ्गवश हेमन्त (शीत), मीम व वर्षा ऋतु आदि का सरस निरूपण आचार्य द्वारा राजपुर शहर की हिंसाय प्रवृत्ति की जानकारी के साथ उनका क्रमशः 'नन्दनवन' व 'स्मरसौ मनसवर्गीचे में प्रवेश, उसकी अनुपम छटा का वर्णन तथा आचार्यश्री की वहाँपर हरने से अि प्रकार श्मशानभूमि को व वहाँपर पड़ी हुई मृत स्त्री का कलेवर देखकर आचार्यश्री का वैराग्य-चितवन सेमुनिमनारमेखछा' नामकी पहाड़ी पर संदरने का वर्णन तथा मध्याह्न-किन के अनन्तर हिंसा-दिवस के कारण स्वयं उपवास करते हुए 'सुताचार्य' को अपने संघ के साधुओं को राजपुर के समीपवर्ती ग्रामों में आहारार्थ जाने की आज्ञा तथा हिंसा निवारणार्थं क्षुल्लकयुगल को राजपुर नगर में आहार देतु जाने की आज्ञा एवं क्षुल्लक युग का वर्तमान जीवन-वृतान्त व उसका कुमार-अवस्था में दीक्षा लेने के कारण का निर्देश तथा उसका सरस निरूपण राज-किक्करों द्वारा बटि हेतु क्षुल्लक-युगल (भाई-बहिन का पकड़ा जाना, उसी प्रसङ्ग में उसकी सौम्य प्रकृति देखकर राज-किरों के मन में विशेष पश्चाताप एवं रामकिङ्करों को भयङ्कर आकृति देखकर रुकयुगल को विचारधारा तथा प्रसवध प्रस्तुत देवी के मन्दिर का वर्णन 753 •*** उक्त शुलक युगल द्वारा चण्डमारी देवी के मन्दिर की फर्श पर तार खींचे खबे हुए पारित राजा का ता चमारी देवी का देखा जाना और उन दोनों का न माखित राजा का लक युगल के मारने हेतु उपत होना परन्तु उनकी सौम्यमूर्ति देखकर विरक होना और उसके मन में क्षुल्लक युगल के अपने भानेज-भाजन होने का विचार आना, इसी प्रसङ्ग में 'अवसरविलास' वैतालिक द्वारा राजा को तलवार फेंक देने का आग्रह करना व राजा द्वारा सलवार को देवी के चरणों में अर्पित करना, इसी प्रसङ्ग में तलवार को विशेषता का वर्णन एवं राजा द्वारा झुल्लकयुगल की अम्वर्धना शुल्क युगल द्वारा राजा को प्रशंसा, राजा द्वारा उसकी अनोखी पर्वाङ्ग सुन्दरता का वर्णन एवं अपना परिचय देने के लिए निवेदन तथा क्षुल्लक युगल द्वारा अपना परिचय देने का आश्वासन पूर्व अन्त्यमङ्गल ..... 6466 १ ३ ८ ११ १५ ૧૬ * ११ ६१ 42 ८० ८६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वास विषय मङ्गलाचरण 'अभयधि' क्षुल्लक द्वारा माखित राजा को अपना वृत्तान्त सुनामर व 'अवम्ति' देश का एवं उसकी राजधानी 'उज्जयिनी' का वर्णन .... "" १०४ उसके राजा 'यशो' व फारामी 'चन्तमति' का वर्णन पानी का राजा के समक्ष स्वपम-निवेदन, राजा द्वारा स्वप्न के फलस्वरूप पुन-प्राप्ति का कथन, गर्भवती चन्दमति का एवं उसके दोहले का वर्णन, गर्भपोषण-देन वैद्यों को आश देना तथा संस्कार-विधि का कथन' १२१ राजा द्वारा गर्भस्थ शिशु-संरक्षणार्थ उपयुफ शिक्षा दीज्ञाना, प्रसतिह-निर्माण की भाहा, प्रसव-काली प्राप्ति व पूत्रोत्पत्ति का वर्णन, पोस्पति-कालीन ब्रहास व अन्यदिनी की शोभा-आदिका निरूपण ... राजा द्वारा पुन की जन्मप्रिया व यशोधर' नामसंस्कार कि 1 जाना तय उसकी बाललीलाओं का निरूपण .... " कुमारकाल में कुमार का निमाभ्यास द्वारा ६४ कक्षा का पारदों विशन होगा एवं विवाह-योग्य होगा " १२१ 'विद्या-दीन राजपुत्र राजतिलक के योग्य नहीं सका यसपूर्वक निर्देश एवं राजमार का ताफ-सौन्दर्य - १३. राजकुमार के व्यक्तिला का प्रभाव, उसके द्वारा की ही पिता की सेवा-शुभूषा व भाषापासन-आदि, उसके जन्म से पिता का अपने को भाग्यशाली समझमा एवं भागन्दनक कथा-कौएलों द्वारा समय-यापन का निर्देश ... पिता-पुत्रों का पारस्परिक प्रेमपूर्वक अनुकूल रहमा, घी व दर्पण में अपना मुख देख रहे यशोध महाराज का । शिर पर सत्र केश देखकर शाम को प्राप्त होगा साथ ही सूर्योदय-आदि अन्य घटनाभाने का पान शुन केश देखकर या राजारा१. भावमाओ का चितवन एवं पर्या करने का मिय इसी समय उक महाराज द्वारा यशोधर राजमार के लिए नैतेिकशिक्षा-मादिदी जाना एवं उनका तपश्चर्याहेतु वन में प्रस्थान करने उ होने का वर्णन .... .... १५६ यशोधर द्वारा पिता को तपश्रया से विरक्त करने का उद्यम तथा पितृभक्ति का विशेष परिचय दिया जाना यशोर्च राजा द्वारा उक्त कथन रोककर 'एकावली' नामकी मातियों की माला यशोधर के गले में पहिनाना तथा अधीनस्थ नृपसमूह-आदि को बुलाकर यशाधर राजकुमार का राजबन्ध-महोत्सव विवाहमहोत्सव करने की आशा दी जाना पूर्व संयमधर महर्षि के निकट जिनवीक्षा-भारण 'प्रतापवर्धन सेनापति द्वारा कुमार का राज्याभिषेक व विवाहाभिषेक संबंधी महोत्सव-तुशिप्रा नदी के तट पर सभामण्डप व भूमिप्रदेश का निमांग कराना साथ में उसे मनाशपतिनगर से अलकृत कराना सधा 'उद्धताकश' और 'शालिहोत्र' नामके क्रमशः इस्तिसेना व अबसेना के प्रधान अमात्यों को बुलाना और कुमार के लिए सर्वश्रेष्ठ हाथी व सर्वर अश्व के बारे में विज्ञापन कराने का वर्णन 'उताकुश' द्वारा यशोधर महाराज के समक्ष उन महोत्सवों के योग्य उदयगिरि नामके हाथी की महत्वपूर्ण विशेषताओं का निवेदन किया जाना एवं इसी प्रेस में स्किलामः नाम के स्तुतिपाठक द्वारा गार हुए गजप्रशंसा-सूचक सुभाषित गीतों का निर्देश .... 'शालिहोत्रा द्वारा उक्त महाराज के समक्ष विजयक्षमतेत्र' नामके अमरत्र की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का प्रकट किया जाना सथा इसीप्रसङ्ग में शामिविनोदमकर नाम के स्मुतिपाठक द्वारा गाए हुए सुभारित गीत "" ज्योतिषी विद्वन्मण्डल द्वारा उक महाराज के लिए धोनों उत्सों का साथ होना एवं उनकी अनुकूल बम (शुद्ध मुहूर्त ) सुनाई जाना तथा अभिषेकमण्डप में पधारने की प्रेरणा की जाना Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | • उपाधियाँ उनकी दार्शनिक प्रकाण्ड विद्वत्ता की प्रतीक हैं। साथ में प्रस्तुत यशस्तिलक के पंचम, षष्ठ व अष्टम श्वास में सांख्य, वैशेषिक व चार्वाक आदि दार्शनिकों के पूर्वपक्ष व उनकी युक्तिपूर्ण मीमांसा भी उनकी विलक्षण व प्रकाण्ड दार्शनिकता प्रकट करती है, जिसका हम पूर्व में उल्लेख कर आए हैं। परन्तु केवल तार्किकचूडामणि ही नहीं थे साथ में काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र और राजनीति आदि के भी धुरंधर विद्वान थे । कवित्व - उनका यह 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य इस ये और काव्यकला पर भी उनका असाधारण अधिकार था। जो सुन्दर पथ कहे हैं वे जानने योग्य है २-३ : बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे महाकवि उसकी प्रशंसा में स्वयं प्रन्थकर्ता ने यत्र तत्र 'मैं शब्द और अर्थपूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्यरस ) को भोग चुका हूँ। अतएव अब जो अन्य कवि होंगे, वे निश्चय से उच्छिष्टभोजी ( जूँठा खानेवाले ) गे वे कोई नई बात न कह सकेंगे । इन उक्तियों से इस बात का आभास मिलता है कि आचार्य श्रीसोमदेव किस श्रेणी के कवि थे और उनका यह महाकाया मह लपयोनिधि व कविराज कुअर-भादि उपाधियाँ की है भी न की प्रतीक हैं। धर्माचार्यश्व यद्यपि अभी तक श्री सोमदेवसूरि का कोई स्वतंत्र धार्मिक प्रन्थ उपलब्ध नहीं है परन्तु यशस्तिलक के अन्तिम तीन आश्वास (६८), जिनमें उपासकाध्ययन (श्रावकाचार ) का साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया गया है एवं यशः के चतुर्थ आश्वास में वैदिकी हिंसा का निरसन करके अहिंसा तत्त्व की मार्मिक व्याख्या की गई है, इससे उनका धर्माचार्यत्व प्रकट होता है । राजनीतिज्ञता - श्री सोमदेवसूरि के राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण उनका 'नीतिवाक्यामृत' तो है ही, इसके सिवाय यशस्तिलक के तृतीय आश्वास में यशोधरमहाराज का चरित्र-चित्रण करते समय राजनीति की विस्तृत चर्चा की गई है। उक्त विषय हम पूर्व में उल्लेख कर आए हैं। विशाल अध्ययन - यशस्तिलक व नीतिवाक्यामृत ग्रंथ उनका विशाल अध्ययन प्रकट करते हैं । ऐसा जान पड़ता है कि उनके समय में जितना भी जैन व जैनेतर साहित्य ( न्याय, व्याकरण, काव्य, नीति, व दर्शन आदि ) उपलब्ध था, उसका उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था । स्याद्वादाचल सिंह शार्किकचक्रवर्ति वा भपंचानन वाकोलपयोनिधि कविकुलराजप्रभृतिप्रशस्तिप्रशस्तालङ्कारेण षण्णवतिप्रकरण -युक्तिचिन्तामणिसूत्र - महेन्द्रमा तलिस जल्प-यशोधर महाराज चरितमहाशाखवेधसा श्रीसोमदेवसूरिणा विरचितं (नीतिवाक्यामृर्त) समाप्तमिति । नीतिवाक्यामृत १. देखिए यश० आ० १ श्लोक नं० १७१ २. देखिए आ०१ श्लोक नं० १४, १८, २३ । ३. देखिए आ• २ श्लोक नं० २४६, आ० ३ श्लोक नं० ५१४। ४. मया चागर्थ संभारे भुके सारस्वते रसे कषयोऽन्ये भविष्यन्ति नूनमुच्छिष्टभोजनाः ॥ चतुर्थ आ पू० १६६ । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्ता का समय और स्थान -- ' यशस्तिलकचम्पू" के अन्त में लिखा है कि चैत्रशुक्ल १३ शक सं० [१] (विक्रम संवत् १०१६) को, जिस समय श्री कृष्णराजदेव पाण्ड्य, सिंहल, चोल व चेरम-प्रभृति राजाओं को जीतकर मेलपाटी नामक सेना-शिविर में थे, उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त 'वहिग' को (जो चालुक्यवंशीय अरिकेसरी के प्रथम पुत्र थे) राजधानी गंगाधारा में यह काव्य समाप्त हुआ और 'नीतिवाक्यामृत' यशस्तिलक के बाद की रचना है क्योंकि नीतिवाक्यामृत की पूर्वोक्त प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपने को यशस्तिल महाकाव्य का कर्ता प्रकट किया है इससे स्पष्ट है, कि उक्त प्रशस्ति लिखते समय वे 'यशस्तिलक' को समाप्त कर चुके थे । दक्षिण के इतिहास से विदित होता है कि उक्त कृष्णराजदेव ( तृतीय कृष्ण ) राष्ट्रकूट या राठोर वंश के महाराजा थे और इनका दूसरा नाम 'अकालवर्ष' था। ये अमोघवर्ष तृतीय के पुत्र थे। इनका राज्यकाल कमसे कम शकसंवत् ६७ से ८२४ ( वि० सं० २०३२ – १०२९ } तक प्रायः निश्चित है। ये दक्षिण के सार्वभौम राजा थे और बड़े प्रतापी थे। इनके अधीन अनेक मलिक या करत राज्य थे। कृष्णराज ने जैसा कि सोमदेवसूरि ने यशस्तिलक में लिखा हैसिंहल, चोल, पाण्ड्य और चेर राजाओं का युद्ध में परास्त किया था। इनके समय में कनड़ी भाषा का सुप्रसिद्ध कवि 'पोन्न' हुआ है, जो जैन था और जिसने 'शान्तिपुराण' नामक श्रेष्ठ प्रन्थ की रचना की है। महाराज कृष्णराजदेव के दरबार से उसे 'उभयभाषा कवित' की उपाधि मिली थी। राष्ट्रकूटों या राठोरों द्वारा दक्षिण के चालुक्य ( सोलंकी ) वंश का सार्वभौमत्व अपहरण किये जाने के कारण वह निष्प्रभ हो गया था । अतः जब तक राष्ट्रकूट सार्वभौम रहे तब तक चालुक्य उनके आज्ञाकारी सामन्त या माण्ढालेक राजा बनकर रहे। अतः अरिकेसरी का पुत्र 'वाद' ऐसा हा एक सामन्त राजा था, जिसकी गंगाधारा नामक राजधानी में यशस्तिलक की रचना समाप्त हुई है। इसी अरिकेसरी के समय में कनडी भाषा का सर्वश्रेष्ठ जनकाने 'पम्प' हुआ है, जिसकी रचना पर मुग्ध होकर 'आरकेसरी' ने उसे धर्मपुर नामका एक ग्राम पारितोषिक में दिया था। उसके बनाये हुए दो ग्रन्थ ही इस समय उपलब्ध हैं - १. ''आदिपुराणचम्पू और २ भारत या विक्रमार्जुनावजय । पिछला गन्थ शक संवत् ८६३ वि० [सं० ६६८) में - यशांस्तलक से २८ वर्ष पहले बन चुका था। इसकी रचना के समय अरिंकसरी राज्य करता था तब उसके १८ वर्ष बाद - यशास्तलक का रचना के समय --- उसका पुत्र सामन्त 'वद्दिग' राज्य करता होगा यह इतिहास से प्रमाणित होता हैं । विनीतसुन्दरलाल शास्त्री १. "शकनृपकालातीत संवत्सर पातेष्वष्टस्वे काशीस्य विकेषु गतेषु अद्भुतः ( ८८१ ) सिद्धार्थसंवत्सर । न्तर्गत चैत्रमास मदनत्रयोदश्यां पाष सिंहल - चोल-चेरमप्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य भल्याटी ( मेलपाटी) प्रवर्धमानराज्यप्रभावे श्री कृष्णराजदेवे सति तसादपद्मोपजीविनः समधिगतपय महाशब्दमहासामन्ताधिपते श्वालायकुलजन्मनः सामन्त बूडामणेः सरिणः प्रथमपुत्रस्य श्रीमद्वागराजस्य लक्ष्मीप्रवर्धमानवसुधारायां गणाधारायां विनिर्मापितमिदं काव्यमिति ।" श्रीमदर्शिके २. चालुक्यों की एक शाखा 'जोल' नामक प्रान्त पर सभ्य करती थी, जिसका एकभाग इस समय के धारवाड़ जिले में आता है और श्रीयुत आर०नरसिंहाचार्य के मत से चालस्य अरिगरी की रानी'लगेरी' में थी, जो कि इस समय 'लक्ष्मेवर' के नाम से प्रसिद्ध है। गंगाधारी मी संभवतः वही है । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MA -- - -- बिक्य उक्त महाराज द्वारा आहार-थेला में 'समान धैच के आयुर्वेद सम्बन्धी सुभाषित रखनामृत का पान मिया खामा ... ३४० उक्त महाराज द्वारा प्रीधरतु में 'मदनमदविनोद' नाम के उद्यान का दर्शन तथा प्रसङ्गवस प्रोम्मकसु-आदि .. ३११ उफ्फ महाराज द्वारा उक्त उद्यान सम्बन्धी फुबारों के गृह में प्यारी स्त्रियों के साथ क्रीडा की जाना तथा स्तुति पाठकों के सुभाषित-अषण से प्रकासित मनवाले उनके द्वारा ग्रीष्मऋतु सम्बन्धी मध्याइ-बैलाएं व्यतीत की जाना एवं इसी प्रसङ्ग में फुब्बारों के गृह-क्षादिका सरस वर्णन " ३५४ प्रधानत द्वारा 'अचल नरेश के 'मुफूल' नाम के दृत को यशोधर महाराज की राम-सभा में प्रविष्ट काला, इसी प्रसङ्ग में वर्षाऋतु का वर्णन, उक्त महाराज द्वारा 'अकालजफद' नाम के स्तुतिपाठक के सुभाषित गीतों का श्रवण एवं 'शिवलयविटोकविलास' नामके राजमहल पर राजसमूह के साध स्थिति "" उक महाराज के प्रधान दूत द्वारा अवलनरेश के चूत के प्रति यशोधर महाराज के लिए भेंट दिखलाने । ख लानेवाले के प्रति लेख देने के लिए कहा जाना, उसके फलस्वरूप भेंट व लेख-समर्पण उक्तदूत को देखकर यशोधर महाराज के प्रधान दूत द्वारा अपलनरेश के साथ युद्ध करने का निश्चय किया जाना ... प्रधान दृस द्वारा अबकनरेश की भेंट च लेख का अभिवाय-सूचना तथा - विरोदमें वाल्माला उपस्थित की जाना एवं उक्त दूत को मौलिक संदेश कहने के लिए प्रेरणा रक महाराज द्वारा उक्त दूत के प्रति कहे हए 'कोण्डमाखण्ड-आदि वीरों के वीररसपूर्ण वचन-श्रवन 'प्रतापवर्धन सेनापति द्वारा बीरों को नैतिक शिक्षा देते हुए प्रधानदूत को अचलनरेश के लिए प्रसिदेख व प्रतिभेंट प्रेषित करने व उक्ततके प्रति समुचित वर्ताव करने का संकेत ..." उक्त महाराज के प्रधान दूत धारा अयलनरेश के लिए लिखा आदेख सुनाया जाना एवं सेनापति हारा मचलनरेश को आमन्त्रण दिया जाना अचलनरेश के यहाँ 'विजयवर्धन सेनापति का प्रेषण, इसी प्रसत्र में शरदऋतु-आदि। 'प्रत्यक्षताय नाम के गुरुचर द्वारा यशोधर महाराज के लिए उक्त सेनापति की विजयश्री का विज्ञापन, प्रसङ्गवश हेमन्स अतकालीन घटनाओं का, स्तुतिपाठकों के सुभाषितो शरा हेमन्त ऋतु का वर्णन, युद्धव युबकालीन घटनाओं का निर्देश तथा युद्ध-फा का वर्णन उक्त महाराज द्वारा स्तुतिपाठकों के सुभाषित गीस अषणपूर्वक वसन्त ऋतु में कामदेव की आराधना की जाना, प्रसङ्गवश वसन्त ऋतुकालीन घटनाओं एवं वसन्तकनु, आभरणविधान तथा झूलों का वर्णन "" ३. ठक्त महाराज द्वारा 'विजयजत्रायुध' व 'सूप्तसूत' नाम के स्तुतिपाठकों के पुभाषितों द्वारा 'महानवमी' व दीपोत्सव' पर्व की शांभा-श्रवण व इसी प्रसार में अपराजिता व अम्बिकादेवी की स्तुति-श्रवण .. ३११ उक्त महाराज द्वारा आयुधसिद्धान्तमध्यापावितसिंहनाद' नाम के स्तुतिपाठक द्वारा अनुविधा की विशेषता तथा 'मार्गणमाल' नाम के स्तुतिपाठक के सुभाषित गीतों के प्रवगपूर्वक धनुधिशा का अभ्यास ... ३९५ उक्त महाराज द्वारा कविकुरपत्कण्ठीख' नाम के मित्र द्वारा पो हुर चन्द्रोदय-निरूपक सुभाषित-श्रवण, प्रसवश सायंकाल-आदि का तथा स्तुतिपाठको-आदि के सभाषित-अत्रण ३९५ यशोधर महाराज द्वारा कमनीय कामिनियों के कामबर की चिकित्सा की जाना इसी प्रसर में विरहिणी नियों की अवस्था आदि का सरस वर्णन व अन्त्यमाल-गान अन्त्यमालव यात्मपरिचय .... श्लोकानामकारानुक्रमः ( परि० नं०१) प्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द-निघण्टु (परि नं०२) धन्यवाद व शुद्धिपत्र - -- ___... --- ३८० ----- - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "१८५ विषय उक्त महाराज का अभिषेक-मप में जाना व प्रसङ्गवश उसकी अनुपम छटा का वर्णन एवं इसी प्रसङ्ग में 'अलकेमि विवास मामके स्तुतिपाठक द्वारा गाए हुए दोनों उत्सव संबंधी माङ्गलिक गीतों को श्रवण करते हुए वक्त महाराज का विवाहदीक्षाभिषेक व राज्याभिषेक के माङ्गलिक स्नान से अभिषिक्त होने का वर्णन .. १८३ मनोधर महाराज मारा आचमनविधि, पूजनादि के उपकरणों की अभिषेचनविधि । विवाह-होम किया जाना एवं मनोजकुमार' नामक स्तुतिपाठक * सुभाषित गीव श्रवण करते हुए उक्त महाराज का विवाददीक्षा पूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होमा तथा राजमुकुट से अलस्कृत होने का वर्णन .... यशोधर महाराज द्वारा यादिवश्वनि आदि पूर्वक अपना, हाथी व घोड़े का स्था अमृतमति महादेवी का पहबन्धोत्सव किया जाना एवं स्तुतिपाठकों के मालिक गीत श्रवण किये जाने का निर्देश .. १८. भरक्षक सैनिकों से घेष्टित हुए उक महाराज का अभिषेक मण्डप से हर्षपूर्वक उजयिनी की ओर प्रस्थान किया। जाना एवं इसीप्रसङ्ग में कुखपृद्धों द्वारा पुण्याइपरम्परा ( आशीर्वाद ) उच्चारण कीजाने-आदि का वर्णन .. १८९ अमृतमति महादेवी के साथ 'उदयगिरि नामक सर्वश्रेष्ठ हाथी पर आरूढ़ हुए उक्त महाराज के शिर पर इधिनी पर मारूक हुई कममीय कामिनियों द्वारा चमर होरे जाना एवं इसी प्रसङ्ग में वादिन-ध्वनि आदि .... १९१ उज्जयिनी नगरी उक्त महाराज के 'त्रिभवनतिलक नामके राजमहल की अनुपम छटा का वर्णन सक्त महाराज द्वारा 'कीतिसाहार नामके सतिपाठक के पभाषित पथ भवण किये जाना व अन्य मङ्गमगान एवं यरास्तिक की मुक्तियों के श्रवण का निरूपण तृतीय आश्वास मङ्गलाचरण व स्तुतिपाठकों के सुभाषित मीत श्रवण करते हुए यशोधर महाराज का शय्या-त्याग उक्त महाराज का शारीरिक व आस्मिक लियाओं से निवृत्त होकर 'लक्ष्मीविलासतामरस' नाम के राज-सभा. मण्डप में प्रविष्ट होना, प्रसवश उक्त सभामण्डप का वर्णन, यहाँपर उक्त महाराज द्वारा न्यायाधिकारियों के साथ समस्त प्रजाजनों के कार्य स्वयं देखे जाना और उनपर ___ ज्यायानुकूल विचार किया जाना व इसी प्रसङ्ग में ऐसा न करने से राजकीय हानि का वर्णन पञ्चोधर महाराज द्वारा राजसभा में देव, पुरुषार्थ व देव और पुरुषार्थ की मुख्यता-समर्थक 'विद्यामहोदधिः मादि तीन मन्त्रियों से दैव-आदि की मुझयता श्रवण किये जाने का निर्देश उक्त महाररव द्वारा 'उपायसर्वन' नामके मन्त्री से उक्त मन्त्रियों की अप्राकरणिक बात का खण्डनीक राजनैतिक सिद्धान्तों ( विजिगीषु-आदि राष्ट्रमर्यादा, नय व पराक्रमशक्ति, मन्त्र-गुण, मन्त्रियों का लक्षण व कर्सच्य, उत्साह, प्रधानमन्त्री, मन्त्र-माहात्म्य, राष्ट्ररक्षा, विजयश्री के साम-आदि उपाय न जानने का दुष्परिणाम, व साम-आदि उपाय-माहात्म्य, मन्त्रशक्ति (जानवल ) की विशेषता, विजिगीषु राजाओं के सन्धि व विप्रह-आदि के सूचक सीनकाल ( उदयकाल, समताकाल व हानिकाल), विभिनय की हानि, कर्तव्य एवं माहात्म्य, शस्त्र-युद्धनिषेध, शक्तिशाली सैन्य से लाभ व कमजोर से हानि, वैधीभाव का माहात्म्य, युद्धसमुद्र को पार करने का उपाय, साम, दान, दण्ड व भेदनीति व उनका प्रयोग, पृथ्वी-रक्षा पर दृष्टान्त ष सैन्य-प्रेषण-आदि) का श्रवण किया जाना उक महाराज द्वारा 'नीतिगृहस्पति' नामके मंत्री से उक्त बात का समर्थनपूर्वक सुभापितत्रय ( राजनैतिक सीन मधुर श्लोक) का श्रवण तथा कर्तव्य-निश्चयपूर्वक सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संभ्रय व द्वैधीभाष इन राम-कृति के ६ उपायों के अनुष्टान किये जाने का वर्णन ... २१. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय मन्न मन्त्री का लक्षण, एक महाराज रारा सन्धि विग्रद-आदि विजयभी के उपायों में राजदत की अपेक्षा का निश्चयपूर्वक अपने 'हिरण्यगर्भ' मामके दूत को बुलाया जाना, इसी प्रसङ्ग में राजदूत के लक्षणआदि का वर्णन, उन महाराज द्वारा उक्त दूत के लिए लेख्याचा अधिकारी से शत्रुराजा के लिए लिखा गया लेख श्रवण कराया जाना, दूतकर्तव्य, कर्वव्य-प्युत बूत से हानि, 'शलनका नाम के गुप्तचर का आगमन श्रवण किया जाना तथा उक्त महाराज द्वारा उससे हंसी-मजाकपूर्वक कुछ भी विवक्षित वृत्तान्त Vछा आना एवं इसी प्रसा में गुप्तचरों के होने से लाभ व न होने से हानि का निर्देश .... २५२ उक्त महाराज द्वारा उक्त गुप्तचर के समक्ष 'पामरोदार' नामके मन्त्री की प्रशंसापूर्वक उसकी नियुक्ति का कारण कहा जाकर यह ला जाना कि उस मंत्री का इस समय प्रजा के साथ कैसा पाप है। 'शलनका नामके गुप्तचर द्वारा यशोधर महाराज के समक्ष उफ 'पामगेदार' नामके मन्त्री की प्रजापाटन आदि संबंधी विशेष कटु-आलोचना की जामा और उसके कुसङ्ग से उनकी अपकीति और सत्सङ्ग व कुसङ्ग का प्रभाव सया इसी प्रसङ्ग में उसके द्वारा दुष्ट मनी व दृष्ट राजा के चरित्र-निरूपक 'तरुणीलीलाविलास'आदि १४ महाकवियों की काव्यरचना प्रवण कराई खाने का वर्णन .... उसे श्रवण कर कुपित हुए. यशोधर महाराज द्वारा उ मुटुबालोदना माना, नुनसले दुराव बारा उनके प्रति गुतवर-प्रवेश और विचाररूप नेग्न-युगल के विना राज्य की हानि का निर्देश किया जाकर पुनः उक्त मन्त्री की कटु-आलोचना ( मांस भक्षण, चोरी, व्यभिचार, नीचकुल, मूर्खता व लांच घूस-आदि ) की जाना एवं इसी प्रसङ्ग में नीवों के सरकार व समानों के अपमान का दुष्परिणाम-समर्थक दृष्टान्तमाक्षा तथा उक्त मंत्री को दुष्ट प्रमाणित करने के हेतु दुष्टों के कुलों आदि का निरूपण एवं उक मंत्री के महाचर्य पालन-आदि की खिही जबाने-देतु 'अश्वस्थ व 'भरतवान'-आदि नामके महाकवियों की कायरचना भवण कराई जाना तथा सुयोग्य व तुष्ट मन्त्री से लाभ-हानि के समर्थक ऐतिहासिक धातों का निरूपण " २८. उक्त महाराज द्वारा सेनापतियों के सैन्य-दर्शन सम्बन्धी विज्ञापन श्रवण किये जाना एवं सेनापति का लक्षण निर्देशपूर्वक विविध देशों से आए हुए सैन्य का निर्देश ... उक्त महाराज द्वारा महान् रामदूतों के विविध राजदूतों व विविध राजाओं के आगमन सम्बन्धी विज्ञापन । श्रवण किये जाना व राजबूत का स्वक्षण एवं क्रीसा-मन्त्रियों के भण्उवचन श्रवण किये जाने का निरूपण ... उक्त महाराज द्वारा राजनैतिक दो श्लोकों का विचार किया जाना व राजनैतिक ज्ञान की विशेषता का निर्देश ... ३१६ यशोधर महाराज का नृस्य-दर्शन, सरस्वती का स्तुतिगान तथा संगीत-समर्थक सुभाषित रलोक का वर्णन .. उक्त महाराज द्वारा 'पपिस वैतपिडक' नाम के कवि का मानमर्दन व इसकी काव्य-रचना का भ्रवण एवं उसके । प्रश्न का असर-प्रदान सथा काध्यकला सम्बन्धी सुभाषित रलोक के श्रवण किये जाने का वर्णन " उक्त महाराज द्वारा वादविवादों में ख्याति प्रास की जाना तथा वस्तृत्वकला आदि के समर्थक सुभाषित पप-श्रवण " ३२४ उक्त महाराज द्वारा हाथियों के लिये शिक्षा दी जाना एवं प्रशिक्षित हाथियों से हानि गौरक्षा सम्बन्धी सुभाषित श्लोक-युगल श्रवण किये जाने का वर्हन उक्त महाराज के लिए सेनापति द्वारा दाथियों की मदावस्था विशापित की जाना, इसी प्रसङ्ग में गज-प्रशंसा सूक्क सुभाषित श्रवण किये जाना एवं भावाश'-आदि द्वारा मदजल की निवृत्ति के उपचार (औषधिर्या) श्रवण किये जाना तथा उनका करिविनोदविलोकनोहद' नाम के महल पर आरूढ़ होने का वर्णन " ३३१ उक्त महाराज का हाथियों की क्रीडा-दर्शन, सुभाषित-श्रवण, उनके क्षरा हस्तियन्त-जटनातिविधि तथा हरिसदन्त. घेष्टन-क्रिया सम्पन्न की जाना पूर्व हस्तिसेना की विशेषता-समर्थक सुभाषित श्रवण किये जाने का वर्णन ... ३३९ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय पाठकवृन्द ! पूज्य आचार्यों ने कहा है- 'धर्मार्थकाममोक्षेषु बैलक्षण्यं कलासु च । करोति कीर्ति प्रीति च साधुकाव्यनिषेषणम् ।।' अर्थात् - 'निर्दोष, गुणालंकारशाली व सरस काव्यशास्त्रों का अध्ययन, श्रवण व मनन आणि धर्म अर्थ काम मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का एवं संगीत आदि ६४ कलाओं का विशिष्ट ज्ञान उत्पन करता है एवं कीर्ति व प्रीति उत्पन्न करता है।' उक्त प्रवचन से प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू' भी समूचे भारतीय संस्कृत साहित्य में उच्च कोटि का, निर्दोष, गुणालंकारशाली, सरस, अनोखा एवं बेजोड़ महाकाव्य है, अतः इसके अध्ययन आदि से भी निस्सन्देह उक्त प्रयोजन सिद्ध होता है, परन्तु अभी तक किसी विद्वान् ने श्रीमत्सोमदेवसूरि के 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य की भाघाटीका नहीं की, अतः हमने ८ वर्ष पर्यन्त कठोर साधना करके इसकी 'यशस्तिलकदीपिका' नामकी भाषाटीका की और उसमें से यह पूर्वखण्ड प्रकाशित किया । संशोधन एवं उसमें उपयोगी प्रतियाँ -- आठ आश्वास ( सर्ग ) चाला यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य निर्णयसागर मुद्रण यन्त्रालय बम्बई से सम् १६९ में यो खण्डों में से प्रथमखण्ड ( ३ आश्वास पर्यन्त ) मूल व संस्कृत टीका सहित मुद्रित हुआ है और दूसरा खण्ड, जो कि ४ आश्वास से लेकर ८ आश्वास पर्यन्त है, ४॥ आश्वास तक सटीक और बाकी का निष्टीक ( मूलमात्र ) प्रकाशित हुआ है । परन्तु दूसरे स्वम्ड मैं प्रति पेज में अनेक स्थलों पर विशेष अशुद्धियाँ हैं एवं पहले खण्ड में यद्यपि उतनी अशुद्धियाँ नहीं है तथापि कतिपय स्थानों में अशुद्धियाँ हैं । दूसरा खण्ड तो मूल रूप में भी कई जगह त्रुटित प्रकाशित हुआ है । अतः हम इसके अनुसन्धान हेतु जयपुर, नागौर, सीकर व अजमेर- आदि स्थानों पर पहुँचे और वहाँ के शास्त्रभण्डारों से प्रस्तुत ग्रन्थ की ह० लि० मूल व सटिप्पण तथा सटीक प्रतियाँ निकलवाई और उक्त स्थानों पर महीनों ठहरकर संशोधन आदि कार्य सम्पन्न किया । अभिप्राय यह है इस मद्दा क्लिष्ट संस्कृत प्रन्थ की उलकी हुई गुत्थियों के सुलझाने में हमें इसकी महत्त्वपूर्ण संस्कृत टीका के सिवाय उक्त स्थानों के शास्त्र भण्डारों को इ० लि मूल व सटि प्रतियों का विशेष आधार मिला। इसके सिवाय हमें नागौर के सरस्वतीभवन में श्रीदेव - विरचित 'यशस्तिल पञ्जिका' मिली, जिसमें इसके कई हजार शब्द, जो कि वर्तमान कोशग्रन्थों में नहीं हैं, उनका लिखित है, हमने वहाँपर ठहर कर उसके शब्द निघण्टु का संकलन किया, विद्वानों की जानकारी के लिए हमने उसे परिशिष्ट संख्या २ में ज्यों का त्यों प्रकाशित कर दिया है। इससे भी हमें सहायता मिली एवं भाषा टीका को पल्लवित करने में नीतिवाक्यामृत, प्रदिपुराण, चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश, कौटिल्य अर्थशास्त्र, साहित्यदर्पण व वाग्भट्टालंकार आदि अनेक प्रन्थों की सहायता मिली। अतः प्रस्तुत 'यशस्तिलक' की 'यशस्तिलकदीपिका' नाम की भाषाटीका विशेष अध्ययन, मनन व अनुसन्धानपूर्वक लिखी गई है, इसमें मूलमन्धकार की आत्मा क्यों की त्यों बनाए रखने का भरसक प्रयत्न किया गया है, शब्दश: सही अनुवाद किया गया है। साधारण संस्कृत पढ़े हुए सज्जन इसे पढ़कर मूलथ लगा सकते हैं । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमने इसमें मु०टी० प्रति का संस्कृत मूलपाठ प्रायः ज्यों का त्यों प्रकाशित किया है परन्तु अहाँपर मूलपाठ अशुद्ध व असम्बद्ध मुद्रित था, उसे अन्य ३० लि सटि० प्रतियों के आधार से मृत में ही सुधार दिया है, जिसका वत् तत् स्थलों पर टिप्पणी में उल्लेख कर दिया है और साथ ही ६० लि० प्रतियों के पाठान्तर भी टिप्पणी में दिये गये हैं । इसीप्रकार जिस श्लोक या गद्य में कोई शब्द या पद अशुद्ध था, उसे साधार संशोचित व परिवर्तित करके टिप्पणी में संकेत कर दिया है। हमने स्वयं इसके प्रूफ संशोधन किये हैं, अतः प्रकाशन भी शुद्ध हुआ है, परन्तु कतिपय स्थलों पर दृष्टिदोष से और कतिपय स्थलों पर प्रेस की असावधानीकुछ अशुद्धियाँ (रेफ व मात्रा का कट जाना आदि) रह गई हैं, उसके लिए पाठक महानुभाव क्षमा करते हुए अन्त में प्रकाशित हुए शुद्धि पत्र से संशोधन करते हुए अनुगृहीत करेंगे ऐसी आशा है । सुन्दरलाल शास्त्री प्रा० न्याय काव्यतीर्थ सम्पादक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसप्रकार सोमदेव का रचा हुआ यह विशिष्ट ग्रन्थ जैनधर्माबलम्बियों के लिये कल्पवृक्ष के समान है । अन्य पाठक भी जहाँ एक ओर इससे जैनधर्म और दर्शन का परिचय प्राप्त कर सकते हैं वहीं दूसरी ओर भारतीय संस्कृति के विविध अंगों का भी सविशेष परिचय प्राप्त कर सकते हैं । प्रायः प्रत्येक आश्वास में इसप्रकार की सामग्री विद्यमान है। उदाहरण के लिये तीसरे आश्वास में प्राचीन भारतीय राजाओं के आमोदप्रमोद का सविस्तर उल्लेख है। बाण ने जैसे 'घ' में मिगृह का किया है जैसा ही वर्णन यशस्तिलक में भी है। सोमदेव के मन पर कादम्बरी की गहरी छाप पड़ी थी। वे इस बात के लिए चिन्तित दिखाई देते हैं कि बाग के किए हुए उदात्त वनों के सदृश कोई वर्णन उनके काव्य में छूटा न रह जाय। सेना की दिग्विजय यात्रा का उन्होंने लम्बा वर्णन किया है। इन सारे वर्णनों की तुलनात्मक जानकारी के लिये बाणभट्ट के तत्सदृश प्रसंगों के साथ मिलाकर पढ़ना और I लगाना आवश्यक है। तभी उनका पूरा रहस्य प्रकट हो सकेगा। जैसा हम पहले लिख चुके हूँ, इस प्रन्थ के अर्थ- गाम्भीर्य को समझने के लिये एक स्वतंत्र शोधग्रन्थ की आवश्यकता है । केवलमात्र हिन्दी टीका से उस उद्देश्य की आंशिक दृति ही संभव है। इसपर भी श्री सुन्दरलाल जी शास्त्री ने इस कठिन ग्रन्थ के विषय में व्याख्या का जो कार्य किया है उसकी हम प्रशंसा करते हैं और हमारा अनुरोध है कि उनके इस ग्रन्थ को पाठकों द्वारा उचित सम्मान दिया जाय । महाकवि सोमदेव को अपने ज्ञान और पाण्डित्य का बड़ा गर्व था और 'यशस्तिलक' एवं 'नीतिवाक्यामृत' की साक्षी के आधार पर उनकी उस भावना को यथार्थ ही कहा जा सकता है । 'यशस्तिलक' में अनेक अप्रचलित शब्दों को जानबूमकर प्रयुक्त किया गया है। अप्रयुक्त और क्लिष्ट शब्दों के लिए सोमदेव ने अपना काव्यरचना का द्वार खोल दिया है। कितने है। प्राचीन शब्दों का जैसे उद्धार करना चाहते थे । इसके कुछ उदाहरण इसप्रकार हैं- घृष्णि - सूर्यरश्मि (पृष्ठ १२, पंक्ति ५ । । बल्लिका श्रृंखला, हिन्दी बेलः दावा के बाँधने की जंजीर को 'गजबेल' कहा जाता है और जिस लोहे से वह बनती है उसे भी 'गजबेल' कहते थे (८/२) । सामज हाथी १८३७ कालिदास ने इसका पर्याय सामयोनि ( १६१३) दिया है और माघ (१२/११ ) में भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ हैं। कमल शब्द का एक अर्थ मृगविशेष अमरकोश में आया है और बाण की कादम्बरी में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है । सोमदेव ने इस अर्थ में इस शब्द को रक्खा है ( २३ | ४ ) । इसीसे बनाया हुआ कमली शब्द (२४।३) मृगांक --- चन्द्रमा के लिये उन्होंने प्रयुक्त किया है। कामदेव के लिये शुपकाराति (२५२११) पर्याय कुषाण युग में प्रचलित हो गया था । अश्वघोष ने बुद्धचरित और सौन्दरनन्द दोनों ग्रन्थों में शूर्पक नामक मछुवे की कहानी का उल्लेख किया है ! वह पहले काम से अविजित था, पर पीछे कुमुद्वती नामक राजकुमारी की प्रार्थना पर कामदेव ने उसे अपने वश में करके राजकुमारी को सौंप दिया । = = = E आच्छोदना = मृगया ( २५०१ ); पिथुर = पिशाच ( २८|३); जरूथ = पल या मांस (२८1३); दैर्घिकेय कमल (३७/७); विरेय = नद ( ३७७६ ); गर्लर - महिष (३८ . १ ); प्रधि = कूप (३८:३); गोमिनी = श्री (४२IE); कच्छ - पुष्पवाटिका (४६१२); दर्दरीक दाडिम (५५) =), नन्दिनी उज्जयिनी (७०१६); उष्ट्र (७५१३); मितद्रु अश्व (७५१४); स्तभ = द्वाग (७८१६) पालिन्दी = बीचि (२०६३); बलाल बायु (११६१५); पुलाफ - घुंघरू (२३५॥१); इत्यादि नये शब्द ध्यान देने योग्य हैं, जिनका समावेश सोमदेव के प्रयोगानुसार संस्कृत कोशों में होना चाहिए। सोमदेव ने कुछ वैदिक शब्दों का भी प्रयोग किया है; जैसे विश्वक श्वा = Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६शह): शिपिविष्ट (७७११) जो ऋग्वेद में विष्णु के लिये प्रयुक्त हुआ है किन्तु पंजिकाकार ने जिसका अर्थ रुद्र किया है। तमा (६१) शब्द भोजकृत समरांगण सूत्रधार में कई बार प्रयुक्त हुआ है जो कि प्रासाद शिल्प का पारिभाषिक शब्द था। इस समय लोक में आधे खम्भे या पार्श्वभाग को तमञ्जा कहा जाता है। सप्तर्षि अर्थ में चित्रशिखण्डि शब्द का प्रयोग (५१०१) बहुत ही कम देखने में आता है। केवल महाभारत शान्तिपर्व के नारायणीय पर्व में इसका प्रयोग हुआ है और सोमदेव ने वहीं से इसे लिया होगा। इससे ज्ञात होता है कि नये नये शब्दों को ढूंढकर लाने की कितनी अधिक प्रवृत्ति उनमें धी। सोमदेव के शब्दशाल पर वो स्वतंत्र अध्ययन की आवश्यकता है। ज्ञात होता है कि माघ, बाण और भवभूति इन तीनों कवियों के ग्रन्थों को अच्छी तरह छानकर उन्होंने शब्दों का एक बड़ा संग्रह बना लिया था जिनका वे यथासमय प्रयोग करते थे। मौकुलि - काक (१२५१७); शब्द भवभूति के 'उसररामचरित' में प्रयुक्त हुआ है। हंस के लिये द्रुहिणद्विज अर्थात् ब्रह्मा का वाहन पक्षी (१३७/३१ प्रयुक्त हुआ है। संपादक ने पहले खंड में केवल तीन आश्वासों के अप्रयुक्त क्लिष्ट शब्द पंजिकाकार श्रीदेव के अनुसार मुद्रित किए हैं। उनका कथन है कि आठौं आभासों की यह सामग्री लगभग १३०० श्लोकों के बराबर है जिसका शेषनाग दूसरे स्खण्ड के अन्त में परिशिष्ट रूप में मुद्रित होगा। अत एव यशस्विलकचम्पू के संपूर्ण उद्धार के लिये द्वितीय खण्ड का मुद्रित होना भी अत्यन्त आवश्यक है जिसमें अवशिष्ट ५ आश्वासों का मूल पाठ, उसकी भापाटीका ( इस अंश पर श्रुतसागर की संस्कृत टीका उपलब्ध नहीं है।) भौर क्लिष्ट शब्दसूची इस सब सामग्री का मुद्रण किया जाय । वासुदेवशरण अग्रवाल Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन समय में 'यौधेय' नाम का जनपद था । यहाँ का राजा 'मारिदत्त' था। उसने 'वीर भैरव' नामक अपने पुरोहित की सलाह से अपनी कुलदेवी वण्डमारी को प्रसन्न करने के लिये एक सुन्दर पुरुष और स्त्री की बलि देने का विचार किया और चाण्डालों को ऐसा जोड़ा लाने की आज्ञा दी । उसी समय 'सुदत्त' नाम के एक महात्मा राजधानी के बाहर ठहरे हुए थे। उनके साथ दो शिष्य थे— एक 'अभयरुचि ' नाम का राजकुमार और दूसरी उसकी बहिन 'अभयमति' । दोनों ने छोटी आयु में ही दीक्षा ले ली थी। वे दोनों दोपहर की भिक्षा के लिये निकले हुए थे कि चाण्डाल पकड़कर देवी के मन्दिर में राजा के पास ले गया। राजा ने पहले तो उनकी बलि के लिये तलवार निकाली पर उनके तपःप्रभाव से उसके बिचार सौम्य होगए और उसने उनका परिचय पूँछा । इसपर राजकुमार कहना शुरु किया । ( नामक प्रथम आश्वास समाप्त ) | इसी 'भरत क्षेत्र' में 'अवन्ति' नाम का जनपद है। उसकी राजधानी 'उज्जयिनी शिप्रा नदी के तट पर स्थित है । यहाँ 'यशोष' नाम का राजा राज्य करत था। उसकी रानी चन्द्रमति' थी। उनके 'यशोधर' नामक पुत्र हुआ। एक बार अपने शिर पर सफेद बाल देखकर राजा को वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने पुत्र यशोधर को राज्य सौंप कर संन्यास ले लिया । मन्त्रियों ने यशोधर का राज्याभिषेक किया। उसके लिये शिक्षा के तट पर एक विशाल मण्डप बनवाया गया। नये राजा के लिये 'उदयगिरि' नामक एक सुन्दर तरुण हाथी और 'विजयवैनतेय' नामक अव लाया गया। यशोधर का विवाह 'अमृतमति' नाम की रानी से हुआ। राजा ने रानी, अभ्र और हाथी का पट्टबन्ध धूमधाम से किया । पट्टबन्धोत्सव नामक द्वितीय आवास समाप्त ) | अपने नये राज्य में राजा का समय अनेक आमोद-प्रमोद व दिग्विजयादि के द्वारा सुख से बीतने लगा। ( लक्ष्मा विनोदन नामक तृतीय श्वास समाप्त ) । एक दिन राजकार्य शीघ्र समाप्त करके वह रानी अमृतमति के महल में गया। वहाँ के साथ विलास करने के बाद जब वह लेटा हुआ था तत्र रानी उसे सोगा जानकर धीरे से पलंग से उत्तरी और वहाँ गई जहाँ गजशाला में एक महावत सो रहा था। राजा भी चुपके से पीछे गया। रानी ने सोते हुए महावत को जगाया और उसके साथ विलास किया। राजा यह देखकर ध से उन्मत होगया। उसने चाहा कि बड़ीं तलवार से दोनों का काम तमाम कर दे, पर कुछ सोचकर रुक गया और उलटे पैर लौट आया, पर उसका हृदय सूना हो गया और उसके मन में संसार की असारता के विचार आने लगे । नियमानुसार वह राजसभा में गया । यहाँ उसका माता चन्द्रमति ने उसके उदास होने का कारण पूँछा तो उसने कहा कि 'मैंने स्वप्न देखा है कि राजपाट अपने राजकुमार 'यशोमति' को देकर मैं वन में चला गया हूँ; तो जैसा मेरे पिता ने किया मैं भी उसी कुरीति को पूरा करना चाहता हूँ" । यह सुनकर उसकी माँ चिन्तित हुई और उसने कुलदेवी को बलि चढ़ाकर स्वप्न की शान्ति करने का उपाय बताया। माँ का यह प्रस्ताव सुनकर राजा ने कहा कि मैं पशुहिंसा नहीं करूँगा । तब माँ ने कहा कि हम आटे का मुर्गा बनाकर उसकी बलि चढ़ायेंगे और उसी का प्रसाद ग्रहण करेंगे। राजा ने यह बात मान ली और साथ ही अपने पुत्र 'यशोमति' के राज्याभिषेक की आज्ञा दी। यह समाचार जब रानी ने सुना तो वह भीतर से प्रसन्न हुई पर ऊपरी दिखावा करती हुई बोली- 'महाराज ! मुझ पर कृपा करके मुझे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी अपने साथ वन ले चलें।' कुलटा रानी की इस ढिठाई से राजा के मन को गहरी चोट लगी, पर उसने मन्दिर में जाकर आटे के मुझे की बलि चढ़ाई। इससे उसकी माँ प्रसन्न हुई, किन्तु असती रानी को भय हुआ कि कहीं का बैगगा जमिन हा! गतब उसने आटे के मुर्गे में विष मिला दिया। उसके खाने से चन्द्रमति और यशोधर दोनों तुरन्त मर गये। (अमृतमति महादेवी-दुर्विलसन नामक चतुर्थ श्रावास समाप्त ) । राजमाता चन्द्रमति और राजा यशोधर ने आटे के मुर्गे की बलि का संकल्प करके जो पाप किया इसके फलस्वरूप तीन जन्मों तक उन्हें पशुयोनि में उत्पन्न होना पड़ा। पहली योनि में यशोधर मोर की योनि में पैदा हुआ और चन्द्रमति कुत्ता बना। दूसरे जन्म में दोनों उञ्जयिनी की शिप्रा नदी में मछली के रूप में उत्पन्न हुए। तीसरे जन्म में वे दो मुर्गे हुए जिन्हें पकड़कर एक जल्लाद उजायना के कामदेव के मन्दिर के उद्यान में होनेवाले वसन्तोत्सब में कुक्कुट युद्ध का तमाशा दिखाने के लिये ले गया। वहाँ उसे आचार्य 'सुदत्त' के दर्शन हुए। ये पहले कलिङ्ग देश के राजा श्रे, पर अपना विशाल गाय छोड़कर मुनित में दाक्षित हुए। उनका उपदेश सुनकर दोनों मुर्गों को अपने पूर्वजन्म का स्मरण होआया। अगले जन्म में वे दोनों यशोमात राजा की रानी कुसुमावलि के उदर से भाई बहिन के रूप में उत्पन्न हए और उनका नाम क्रमशः 'अभयसाच' और 'अभयमति' रखा गया। एक बार राजा यशोमति आचार्य मुदत्त के दर्शन करने गया और अपने पूर्वजों की परलोक-गांत के बारे में प्रश्न किया । __ आचार्य ने कहा-तुम्हारे पितामह यशोर्घ स्वर्ग में इन्द्रपद भोग रहे हैं। तुम्हारी माता अमृतमति नरक में है और यशोधर और चन्द्रमति ने इसप्रकार तीन घार संसार का भ्रमण किया है । इसके बाद उन्होंने यशोधर और चन्द्रमति के संसार-भ्रमण की कहानी भी सुनाई। उस वृत्तान को सुनकर संसार के स्वरूप का ज्ञान हो गया और यह उर हुआ कि कहीं हम बड़े होकर फिर इस भवचक में न फंस जाय । अतएव बाल्यावस्था में ही दोनों ने प्राचार्य सुदत्त के संघ में दीक्षा ले ली। इतना कहकर 'अभयरुचि' ने राजा मारिदत्त से कहा- हे राजन् ! हम वे ही भाई-बहिन है। हमारे प्राचार्य सुदत्त भी नगर से बाहर ठहरे हैं। उनके आदेश से हम भिक्षा के लिये निकले थे कि तुम्हारे चाण्डाल हमें यहाँ पकड़ लाए। (भयभ्रमणवर्णन नामक पाँचवें आश्वास की कथा यहाँ तक समाप्त हुई।) वस्तुतः यशस्तिलकचम्पू का कथाभाग यही समाप्त हो जाता है। आश्वास छह. सात, आठ इन तीनों का नाम 'उपासकाध्ययन' है जिनमें उपासक या ग्रहस्थों के लिये छोटे बड़े छियालिस कल्प या अध्यायों में गृहस्थोपयोगी धर्मों का उपदेश आचार्य सुदत्त के मुख से कराया गया है। इनमें जैनधर्म का बहुन ही विशद निरूपा हुआ है। अठे आश्वास में भिन्न भिन्न नाम के २१ कल्प हैं। सातवे आश्वास में बाइसवें कल्प से तेतीस कल्प तक मद्यप्रवृत्तिदोष, मद्यनिवृत्तिगुण, स्तेय, हिंसा, लोभ-आदि के दुष्परिणामों को बताने के लिये छोटे छोटे उपाख्यान हैं। ऐसे ही आठवें आश्वास में चौतीसवें कल्प से छियालीसवें कल्प तक उपाख्यानों का सिलसिला है। अन्त में इस सूचना के साथ अन्य समाप्त होता है कि आचार्य सुदन्त का उपदेश सुनकर राजा मारिदत्त और उसकी प्रजा प्रसन्न हुई और उन्होंने श्रद्धा से धर्म का पालन किया जिसके फलस्वरूप सारा ग्रीधेय प्रदेश सुनब गर्व शान्ति से भर गया। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M.HD माकथन संस्कृत के गद्य-साहित्य में अनेक प्रधानन्ध हैं। उनमें बाण की 'कादम्बरी', मोमदेव का 'यशस्तिलकचम्पू और धनपाल की 'तिलकमंजरी' ये तीन अत्यन्त विशिष्ट ग्रन्थ हैं। वाण न कादम्बरी में भाषा और कथावस्तु का जिस उच्च पद तक परिमार्जन किया था उसी आदर्श का अनुकरण करते हुए सोमदेव और धनपाल ने अपने ग्रन्थ लिखे। संस्कृत भाषा का समृद्ध उत्तराधिकार क्रमशः हिन्दी भाषा को प्राप्त हो रहा है। तदनुसार ही कादम्बरी' के कई अनुवाद हिन्दी में हुए हैं। प्रस्तुत पुस्तक में श्री: सुन्दरलालजी शाली ने 'मोयोला के 'यशस्तिल मनम्प का भाषानुपाद पातुत करके हिन्दी साहित्य की विशेष सेवा की है। हम उनके इस परिश्रम और पाण्डित्य की प्रशंसा करते हैं। इस अनुवाद को करने से पहले 'यशस्तिलकचम्पू' के मूल पाठ का भी उन्होंने संशोधन किया और इस अनुसंधान के लिये जयपुर. नागौर सीकर और अजमेर के प्राचीन शालभंडारों में छानबीन करके यशस्तिलकचम्पू' की कई प्राचीन प्रतियों से मूल पाठ और अर्थों का निश्चय किया। इस श्रमसाध्य कार्य में उन्हें लगभग ८ वर्ष लगे। किन्तु इसका फल 'यशस्तिलकचम्पू' के अधिक प्रामाणिक संस्करण के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है । 'यशस्तितक' का पहला संस्करण मूल के पाठ आश्वास और लगभग साढ़े चार पाश्वासों पर 'श्रुतसागर की टीका के साथ १६०२-१९०३ में 'निर्णयसागर' यंत्रालय से प्रकाशित हुआ था। उस ग्रन्थ में लगभग एक सहस पृष्य है। उसीकी सांस्कृतिक सामग्री, विशेषतः धार्मिक और दार्शनिक सामग्री को आधार पनाकर श्री कृष्णकान्त हन्दीकी ने 'यशस्तिलक और इण्डियन कल्चर' नाम का पाण्डित्यपूर्ण प्रन्थ १६४६ में प्रकाशित किया, जिससे इस योग्य ग्रन्थ की अत्यधिक ख्याति विद्वानों में प्रसिद्ध हुई। उसके बाद श्री सुन्दरलाल जी शास्त्री का 'यशस्तिलक' पर यह उल्लेखनीय कार्य सामने आया है। आपने आठों आश्वासों के मूल पाठ का संशोधन और भाषाटीका तैयार कर ली है। तीन आश्वास प्रथम खण्तु के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं और शेष पाँच आश्वास टीका-साहिल दूसरे वएड में प्रकाशित होंगे। प्राचीन प्रतियों की छानबीन करते समय श्री सुन्दरलाल जी को 'भट्टारक मुनीन्द्रकीर्ति दिगम्बर जैन सरस्वती भवन' नागौर के शास्त्रमण्डार में 'यशस्तिलक-पत्रिका' नाम का एक प्रन्थ मिला, जिसके रचयिता 'श्रीदेवा नामक कोई विद्वान थे। उसमें पाठों आश्वासों के अप्रयुक्त क्लिष्टसम शब्दों का निघण्टु या कोश प्राप्त हुआ। इसकी विशेष चर्चा हम आगे करेंगे। इसे श्री सुन्दरलाल जी ने परिशिष्ट दो में स्थान दिया है। इसप्रकार ग्रन्थ को स्वरूप-सम्पन्न बनाने में वर्तमान सम्पादक और अनुवादक श्री सुन्दरलाल जी शास्त्री न जो परिश्रम किया है, उसे हम सर्वथा प्रशंसा के योग्य समझते हैं। आशा है इसके आधार से विदूनन संस्कृत बाआय के 'यशस्तिलकचम्पू' जैसे श्रेष्ठ प्रन्थ का पुनः पारायण करने का अवसर प्राप्त करेंगे! 'मोमदेव ने यशस्तिनकचम्पू की रचना ५ ईसवी में की। 'यशस्तिलक' का दूसरा नाम 'यशोधरमहाराजचरित' भी है, क्योंकि इसमें उन्जयिनी के सम्राट 'यशोधर' का चरित्र कहा गया है: Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् - 'यशोवर' नामक राजा की कथा को आधार बनाकर व्यवहार राजनीति, धर्म, दर्शन और मोक्ष सम्बन्धी अनेक विषयों की सामग्री प्रस्तुत की गई छ । 'सोमदेय' का लखा हुआ दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ 'नानृत' है, उसमें कोटिल्य के अशास्त्र की आधार मानकर सामदेव न राजशास्त्र विजय को सूत्रों में निबद्ध किया है। संस्कृत वाङ्मय में 'नीतिवाक्यामृत' का भी विशिष्ट स्थान है और जीवन का व्यवहारिक निपुणता से ओतप्रोत होने के कारण वह ग्रन्थ भा सर्वथा प्रशंसनीय है । उस पर भी श्री सुन्दरलाल जी ने हिन्दी टीका लिखी है । इन दोनों ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि 'सोमदेव' की प्रज्ञा अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि की थी और संस्कृत भाषा पर उनका असामान्य अधिकार था । साधु I 'सोमदेव' ने अपने विषय में जो कुछ उल्लेख किया है, उसके अनुसार वे देवसंघ 'नेमिदेव' के शिष्य थे । वे राष्ट्रकूट सम्राट् 'कृष्ण' तृतीय (२६-६६८० ई०) के राज्यकाल में हुए । सोमदेव के संरक्षक 'अरिकेसरी' नामक चालुक्य राजा के पुत्र 'वाद्यराज' या 'वदिग' नामक राकुमार थे । यह वंश राष्ट्रकूटों के अधीन सामन्त पदवीधारी था । 'सोमदेव' ने अपना ग्रन्थ 'गङ्गधारा' नामक स्थान में रहते हुए लिखा । धारवाड़ कर्नाटक महाराज और वर्तमान 'हैदराबाद' प्रदेश पर राष्ट्रकूटों का जखण्ड राज्य था । लगभग आठवीं शती के मध्य से लेकर दशम शती के अन्त तक महाप्रतापी राष्ट्रकूट सम्राट् न केवल भारतवर्ष में बल्कि पश्चिम के अरब साम्राज्य में भी अत्यन्त प्रसिद्ध थे । अरबों के साथ उन्होंने विशेष मैत्री का व्यवहार रखा और उन्हें अपने यहाँ व्यापार की सुविधा ''बल्लभराज' प्रसिद्ध था, जिसका रूप अरब लेखकों में बल्हरा पाया जाता है। राष्ट्रकूटों के राज्य में साहित्य, कला, धर्म और दर्शन की चौमुखी उन्नति हुई। चम्पू ग्रन्थों की रचना हुई। पहला महाकवि इन्द्र तृतीय (६१४-६१६ ई०) के राजपण्डित हुई है और उससे राष्ट्रकूट संस्कृति का सुन्दर । इस वंश के राजाओं का विरुद उस युग की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर दो विक्रमकृत 'नल वम्पू' है। 'त्रिविक्रम' राष्ट्रकूट सम्राट् इस चम्पूमन्य के संस्कृत कोर्स इलेप प्रधान शब्दों से भरो परिचय प्राप्त होता है । त्रिविक्रम के पचास वर्ष बाद 'सोमदेव' ने 'यशस्तिलक चम्पू' की रचना की। उनका भरसक प्रयत्न यह था कि अपने युग का सच्चा चित्र अपने गद्यपद्यमय ग्रन्थ में उतार दें। निःसन्देह इस उद्देश्य में उनको पूरी सफलता मिली। 'सोमदेव जैन साधु ये और उन्होंने 'यसांखळक' में जैनधर्म का व्याख्या और प्रभावना को ही सबसे ऊँचा स्थान दिया है । उस समय कापालिक, कालामुख, शेव व चार्वाक आदि जो विभिन्न सम्प्रदाय लोक में प्रचलित थे उनको शास्त्रार्थ के अखाड़े में उतार कर तुलनात्मक दृष्टि से 'सोमदेव' ने उनका अच्छा परिचय दिया है । इस दृष्टि से यह ग्रन्थ भारत के मध्यकालन सांस्कृतिक इतिहास का उडता हुआ स्रोत है जिसकी बहुमूल्य सामग्री का उपयोग भविष्य के इतिहास प्रन्थों में किया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में श्रीकृष्णकान्त हन्दीकी का कार्य, जिसका उल्लेख ऊपर हुआ है, महत्त्वपूर्ण है । किन्तु हमारी सम्मति में अभी उस कार्य को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है जिससे 'सोमदेव' की श्लेषमयी शैली में भरी हुई समस्त सामग्री का दोहन किया जा सके । भविष्य के किसी अनुसंधान प्रेमी विद्वान् को यह कार्य सम्पन्न करना चाहिए । 'यशस्तिलकचम्पू' की कथा कुछ उलझी हुई है । घाण की कादम्बरी के पात्रों की तरह इसके पात्र भी कई जन्मों में हमारे सामने आते हैं। बीच-बीच में दर्शन बहुत लम्बे हैं जिनमें कथा का सूत्र खो जाता है। इससे बचने के लिये संक्षिप्त कथासूत्र का यहाँ उल्लेख किया जाता है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिकी हिंसा का निरसनपूर्वक अहिंसाधर्म की मार्मिक व्याख्या है और इसी में (पृ. १११-११४ ) में जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध की गई है एवं आ• ६-८ तक श्रावकाचार का दार्शनिक पद्धति से अनेक कथानकों सहित साङ्गोपाङ्ग निरूपण है। दर्शनशास्त्र-इसके पंचम आश्वास में सांख्य, जैमिनीय, वाममार्गी व चार्वाकदर्शन के पूर्वपक्ष हैं। यथा-पृश्यमाणो यथाङ्कारः शुक्लसा नैति जातुचित् । विशुद्धाति कुत्तरियत निसर्गमलिनं तथा ॥ मा० ५ पृ. २५० न चापरमिरस्ताविष: समर्थोऽस्ति पत्थोऽयं सपःप्रयास: सफलायास: स्यात् ।। यतः । बादशवर्षा थोपा षोडशवर्षोचितस्थितिः पुरुषः। प्रीतिः पर। परस्परमनयोः स्वर्ग: स्मृत: सद्भिः॥श्रा० ५५० २५०-२५१ अर्थात् 'धूमध्यज' नामके विद्वान ने मीमांसक-मत का आश्रय लेकर सुदचाचार्य से कहा-'जिस. प्रकार घर्षण किया हुअा अक्षार (कोयला) कभी भी शुक्लता (शुभ्रता) को प्राप्त नहीं होता उसीप्रकार स्वभावतः मलिन चित्त भी किन कार गों से विशुद्ध हो सकता है ? अपि तु नहीं हो सकता । परलोकस्वरूपवाला स्वर्ग प्रत्यक्षप्रतीत नहीं है। जिसनिमित्त यह तपश्चर्या का खेद सफल खेद-युक्त होसके। क्योंकि 'बारह वर्ष की स्त्री ओर सोलह वर्ष की योग्य आयुवाला पुरुष, इन दोनों की परस्पर उत्कृष्ट प्रीति ( दाम्पत्य प्रेम ) को सजनों ने स्वर्ग कहा है ।। इदमेव च तत्वमुपलभ्यालापि नीलपटेन - श्रीमत्रां झपकतनस्य महती सार्थसंपस्करों ये मोहादवधारयन्ति कुधियां मिथ्याफलाम्वेषिणः । ते तेनैव निहाप निर्दयतरं मुण्डीकृता लुजिताः केचित्पञ्चशिखीकृताश्च जटिन: कापालिकाबापरे । आ० ५ पृ० १५३ अर्थात्-'नीलपट' नामके कवि ने इसी बाममार्ग को लेकर कहा है 'जो मूदबुद्धि झूठे फल ( स्वर्गादि ) का अन्वेषण करनेवाले होकर अज्ञानवश कामदेव की स्त्रीमुद्रा (तान्त्रिक योग-साधना में सहायक स्त्री) का, जो कि सर्वश्रेष्ठ और समस्त प्रयोजन व संपत्ति सिद्ध करनेवाली है, तिरस्कार करते हैं, वे मानोंउसी कामदेव द्वारा विशेष निर्दयतापूर्वक ताड़ित कर मुण्डन किये गए, अथवा केश उखाड़नेवाले कर दिए गए एवं पश्चशिखा-युक्त ( चोटीधारी ) किये गए एवं कोई तपस्वी कापालिक किये गए। अण्डकर्मा-यावज्जोवन सुखं जीवेनास्ति मृत्योरगोचरः। भस्मीभूतस्य शान्तस्प पुनरागमन कुतः ।। भा० १५० २५३ ___ अर्थात्-'चण्डकर्मा' कहता है कि निम्नप्रकार नास्तिकदर्शन की मान्यता स्वीकार करनी चाहिए-'जब तक जियो तब तक सुखपूर्वक जीवन यापन करो; क्योंकि संसार में कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं है। अर्थान-सभी काल-कवलित होते हैं। भस्म की हुई शान्त देह का पुनरागमन किसप्रकार हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता ॥१॥ पश्चात् उनका अनेक, प्रवल व अकाट्य दार्शनिक युक्तियों द्वारा निरसन (खंडन) किया गया है।' १. 'धुमत्रज' विद्वान् के जैमिनीय मत का निरास --- मलकलापतायात रल' विशुपति यातो भवति वन. तत्पपाणी यधा च कृतकिपः । कुशलभागिः श्रद्धन्यैस्तथासनयाश्रितरयमपि बलत्य देशाभागः कियेत नरः पुमान् ॥१॥ आ. ५ पू० २५४ सारांश-जिानकार मल ( कौट ) के कारण काता-यूक्त माणिक्यादि स्त्र यनों ( शाणोल्लेरान-आदि उपागों ) द्वारा विशुद्ध हो जाता है और जिसप्रकार मुवर्ण-पाषाण, जिसकी कियाएँ । अभि-तापन, छेदन व भेदन-आदि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थकर्ता का परिचय - प्रस्तुत शास्त्रकार द्वारा स्त्रयं लिखी हुई यशस्तिलक की गद्यप्रशस्ति' से विदित होता है कि यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य के रचयिता आचार्यप्रवर श्रीमत्सोमदेव सूरि है, जो कि दि० जैन सम्प्रदाय मैं प्रसिद्ध व प्रामाणिक चार संघों में से देवसंघ के आचार्य थे। इनके गुरु का नाम 'नेमिदेव' और दादागुरु का नाम 'यशोदेव' था । ग्रन्थकर्ता के गुरु वार्शनिक-चूड़ामणि थे; क्योंकि उन्होंने ६३ महावादियों को शास्त्रार्थ में परास्त कर विजयश्री प्राप्त की थी। नीतिवाक्यमृत की गद्यप्रशस्ति" से भी यह मालूम होता है कि श्रीमत्सोमद्देवसूरि के गुरु श्रीमन्नेमिदेव ऐसे थे, जिनके चरणकमल समस्त तार्किक समूह में चूडामणि विद्वानों द्वारा पूजे गये हैं एवं पचपन महावादियों पर विजयश्री प्राप्त करने के कारण प्राप्त की हुई कीर्तिरूप मन्दाकिनी द्वारा जिन्होंने तीन भुवन पवित्र किये हैं तथा जो परम तपश्चरणरूप रत्नों के राकर (समुद्र) हैं। उसमें यह भी उल्लिखित है कि सोमदेषसूरि वादीद्रकालानल श्रीमहेन्द्रदेव भट्टारक के अनुज - लघुभ्राता थे। श्री महेन्द्र देव भट्टारक की उक्त 'वादीन्द्र कालानल' उपाधि उनकी दिग्विजयिनी " दार्शनिक विद्वत्ता की प्रतीक है। प्रस्तुत प्रशस्ति से यह भी प्रतीत होता है कि श्रीमत्सोमदेव सूरि अपने गुरु व अनुजसरीखे तार्किक चूडामणि व कविचक्रवर्ती थे । अर्थात्–श्रीमत्सोमदेव सूरि 'स्वाद्वादाचलसिंह', 'तार्किक चक्रवर्ती', 'वादीभपंचानन', 'वाकहोलपयोनिधि', 'कविकुलराज' इत्यादि प्रशस्ति (उपाधि) रूप प्रशस्त अलङ्कारों से मण्डित हैं। साथ में उसमें यह भी लिखा है कि उन्होंने निम्नप्रकार शास्त्ररचना की थी। अर्थात् वेषणवतिप्रकरण (६६ अध्याय वाला शास्त्र ), युक्तिचिन्तामणि ( दार्शनिक अन्य ), त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प (धर्मादि- पुरुषार्थत्रय-निरूपक नीतिशास्त्र यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य एवं नोतिवाक्याभूत इन महाशास्त्रों के बृहस्पतिसरीखे रचयिता है। उक्त तीनों महात्माओं ( यशोवेष, नेमिवेष व महेन्द्रदेव ) के संबंध में कोई ऐतिहासिक सामग्री उनकी अन्य रचना आदि उपलब्ध न होने के कारण हमें और कोई बात ज्ञात नहीं है । घार्किकचूडामणि - श्रीमत्सोमदेवसूरि भी अपने गुरु और अनुज के सदृश बड़े भारी तार्किक विद्वान थे। इनके जीवन का बहुभाग पदर्शनों के अभ्यास में व्यतीत हुआ था, जैसा कि उन्होंने 'यशस्तिलक' की स्थानिका में कहा है- 'शुष्क घास- सरीखे जन्मपर्यन्त अभ्यास किये हुए पक्षान्तर में भक्षण किये 'हुए ) दर्शनशास्त्र के कारण मेरी इस बुद्धिरूपी गौ से यशस्तिलक महाकाव्यरूप दूध विद्वानों के पुण्य से उत्पन्न हुआ है' । उनको पूर्वोक्त स्याद्वादाचलसिंह, वादीभपंचानन व तार्किकचक्रवर्ती-आदि शुद्धि के उपाय ) की गई हैं, सुवर्ण होजाता है उसीप्रकार कुशल बुद्धिशाली व आत ( श्रीतराग सर्वज्ञ ) तथा उसके स्याद्वाद ( अनेकान्त ) का आश्रय प्राप्त किये हुए किन्हीं धन्य पुरुषों द्वारा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि अत्मशुद्धि के उपायों से यह आत्मा भी, [ जो कि शरीर व इन्द्रियादिक से भिन्न होती हुई भी मिध्यात्वादि से मलिन है ] जिसके का विस्तार नष्ट हो गया है, ऐसा उत्कृष्ट शुरू किया जाता है ॥ १ ॥ इसके बाद वाममार्ग आदि का विस्तृत निरास है, परन्तु विस्तार - वश उल्लेख नहीं किया जा सकता । १. श्रीमानस्ति स देवराङ्गतिलको देवो यशः पूर्वकः शिष्यस्तस्य वभूव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेषादूषयः 1 तस्याश्वर्यतपः स्थिते त्रिनव तेजेतुमेहावादिनां शिष्योऽभूदिह सोमदेव यतिपस्तस्यैष काव्यकः ॥ - यशस्तिलक चम्पू २. इति सफलतार्किकचकचूडामणिलुम्वितचरणस्य, पंचपंचाशन्महावा दिविज योपार्जित कीर्तिमन्दाष्टनी पवित्रितत्रिभुवनस्य, परमतपश्चरणभोदन्वतः श्रीमन्नेमिदेव भगवतः प्रिय शिष्येण यादीन्वकालानलश्रमन्महेन्द्र देव महार का नुबेन, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं अप्रयुक्त-निष्टतम शब्द निघण्टु आदि के ललित निरूपण द्वारा ज्ञान का विशाल खजाना भरा हुआ है । उदाहरणार्थ - राजनीति — इसका तृतीय प्रवास (१५१८५-३७७, एवं धृ= ३=४-२=६) राजनीति के समस्त तत्वों से ओतप्रोत है। इसमें राजनीति की विशद, विस्तृत व सरस व्याख्या है। प्रस्तुत शास्त्रकार द्वारा अपना पहला राजनीति प्रन्थ 'नीतिवाक्यामृत' इसमें यशोधर महाराज के चरित्र चित्रण के व्याज से अन्तर्निहित किया हुआ-सा मालूम पड़ता है। इसमें कला व कहानी कला की कमनीयता के कारण राजनीति को नीरसता लुप्तप्राय हो गई है। गजविद्या व अश्वविद्या- इसके द्वितीय व तृतीय आश्वास (आ २ पृ= १६३-१७६ एवं आ० ३ ० ३२६-३३६) में विद्या अविद्या का निरूपण है । शस्त्रविद्या - इसके तृतीय आश्वास ( पृ० ३६६-३७४ व २६३-३६५ ) में उक्त विद्या का निरूपण है। आयुर्वेद इसके तृतीय आश्वास ( ० ३४० - ३५१ ) में स्वास्थ्योपयोगी आयुर्वेदिक सिद्धान्तों का वर्णन है । वादविवाद - इसके तृतीय आश्वास ( पृ २१८-२४१ ) में उक्त विषय का कथन है । नीतिशाख - इसके तृतीय अश्वास की उक्त राजनीति के सिवाय इसके प्रथम आश्वास (श्लोक नं० ३०-३२ ३५-३८ ४५ १२० १३० १३४, १३३, १४३, १४८-१५१, पृ० =६, ६१, ६२ के गद्य, ११, १३, २४, ३३, ३४, ५६-५७, श्लोक नं १५२ ) में तथा द्वितीय आश्वास (श्लोक नं ९२. ६, पृ० १५६-१५६ तक का गद्य, । नीतिशास्त्र का प्रतीक है। चतुर्थ आवास (पृः ७६ ) के सुभाषित पद्यों व गद्य का अभिप्राय यह है - 'यशोधर महाराज दीक्षा हेतु विचार करते हुए कहते हैं— 'मैंने शास्त्र पद लिए, पृथ्वं। अपने अधीन कर ली, याचक अथवा सेवकों के लिए यथोक्त धन दे दिए और यह हमारा यशोमतिकुमार' पुत्र भी कवचधारी वीर है, अतः मैं समस्त कार्य में अपने मनोरथ की पूर्ण सिद्धि करनेवाला हो चुका हूँ" । "पंचेन्द्रियों के स्पर्शआदि विषयों से उत्पन्न हुई सुख-तृष्णा मेरे मन को भक्षण करने में समर्थ नहीं है'। क्योंकि 'इन्द्रियविषयों ( कमनीय-कामिनी आदि) में, जिनकी श्रेता या शक्ति एक बार परीक्षत हो चुकी है, प्रवृत्त होने से चार बार खाये हुए को खतः हुआ यह प्राणी किस प्रकार लक्षित नहीं होता ? अपितु अवश्य लज्जित होना चाहिए | सुरत मैथुन) कीडा के अखीर में होनेवाले संस्पर्श ( सुखानुमान ) को छोड़कर दूसरा कोई भी सांसारिक सुख नहीं है, उस श्रमिक सुख द्वारा यदि विद्वान पुरुष उगाए जाते हैं तो उनका तत्त्वज्ञान नही है | इसके पश्चात् के गद्य-खण्ड का अभिप्राय यह है ' मानव को बाल्य अवस्था में विद्याभ्यास गुणादि कर्तव्य करना चाहिए और जवानी में कम सेवन करना चाहिए एवं वृद्धावस्था में धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ का धान करना चाहिए। अथवा अवसर के अनुसार काम आदि सेवन करना चाहिए ।' यह भी वैदिक वचन है परन्तु उक्त प्रकार की मान्यता सर्वथा नहीं है, क्योंकि आयुकर्म अस्थिर है। अभिप्राय यह है कि उक्त प्रकार की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है. क्योंकि जीवन क्षणभंगुर है, अत मृत्यु द्वारा गृहीत केश- सरीखा होते हुए धर्म पुरुषार्थी का अनुष्ठान विद्याभ्यास- सा बाल्यावस्था से ही करना चाहिए। エ चतुर्थ आश्वास ( पृ० १५३-१४५ ) के सुभाषित पद्यों में कूटनीति है, उनमें से दो लोक सुनिए— 'तुम लोग मनुष्यों का सम्मान करते हुए कर्णामृतप्राय मधुर वचन बोलो तथा जो कर्तव्य चित्त में वर्तमान है, उसे करो । उदाहरणार्थ- मयूर मधुर शब्द करता हुआ विषैले साँप को खा लेता है । जिसप्रकार यह लोक ईंधन को जलाने हेतु मस्तक पर धारण करता है उसीप्रकार नीतिशास्त्र में प्रवीण पुरुष को भी शत्रु के लिए शान्त करके विनाश में लाना चाहिए उसका क्षय करना चाहिए * । १, समुखियालंकार | २. ३ बार ४. ष्टान्तालङ्कार । ५. दृष्टान्तालङ्कार | Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक व पौराणिक दृष्टान्तमालाएँ- इसके तृतीय आश्वास (पृ० २८५-२८६) में उक्त विषय ब उल्लेख है। इसी प्रकार इसके चतुर्थ आश्वास (पृ. १५३ ) की ऐतिहासिक दृष्टान्तमाला सुनिए-'जैसे यवन देश में स्वेच्छाचारिणी 'मणिकुण्डला' रानी ने अपने पुत्र के राज्य-हेतु विप-दृषित मध के कुरले से 'अज' राजा को मार डाला और सूरसेन ( मथुरा ) में 'वसन्तमती' ने विष-दूषित लाक्षारस से रेंगे हुए अधरों मे सुरतविलास' नामके राजा को मार डाला-इत्यादि । अनोखी व वेजोड़ काव्यकला- इस विषय में तो यह प्रसिद्ध ही है। क्योंकि साहित्यकार धाचार्यों ने कहा है। निर्दोष ( दुःश्रवत्व-श्रादि दोषों से शून्य ।, गुगसम्पन्न ( औदार्य-श्रादि १० काव्यगुणों से युक्त ) तथा प्रायः सालंकार (उपमा-आदि अलंकारों से युक्त ) शब्द व अर्थ को उसम काव्य कहते हैं। अथवा शृङ्गार-श्रादि रसों की आत्मावाले वाक्य (पदसमूह ) का काव्य कहते है। उक्त प्रकार के लक्षण प्रस्तुत यशस्तिलक में वर्तमान है। इसके सिवाय 'ध्वन्यते ऽभिव्यज्यते चमत्कारालिङ्गितो भावोऽस्मिमिति ध्वानः। अथात-जहाँपर चमत्कारालिङ्गित पदार्थ व्यअनाशक्ति द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है, उसे ध्वनि कहत हैं। शासकारों ने श्यन्य काव्य को सर्वश्रेष्ठ कहा है। अतः प्रस्तुत यशस्तिलक के अनेक स्थलों पर ( उदाहरणार्थ ( प्रथम आश्वास पृ. ४५ (गय)-४७ । ध्यन्य काव्य वर्तमान है, जो कि इसकी उत्तमता का प्रतीक है एवं इसके अनेक गधों व पद्यों में भृङ्गार, वीर, करुण व हास्य-आदि रस वर्तमान हैं। उदाहरणार्थ आश्वास दूसरे में ( श्लोक नं. २२०) का पद्य शृङ्गार रस प्रधान है-इत्यादि । ज्योतिषशास्त्र--आश्वास २ ५ पृ. १८२-२८२) में ज्योतिषशास्त्र का निरूपण है, इसके सिवाय आश्वास चतुर्थ में, जो कि मुद्रित नहीं है, कहा है - जय यशोधर महाराज की माता ने नास्तिक दर्शन का आश्रय लेकर उनके समक्ष इस जीव । पूर्व जन्म व भविन्यजन्म का अभाव सिद्ध किया तब यशोधरमहाराज ज्योतिषशास्त्र के आधार से जीव का पूर्वजन्म व भविष्यजन्म सिद्ध करते हैं कि हे माता! जब इस जाव का पूर्वजन्म है तभ. निम्नप्रकार आर्याच्छन्द जन्मपत्रिका के आरंभ में लिखा जाता है-'इस जीव ने पूर्वजन्म में जो पुण्य व पाप कर्म उपार्जित किये हैं, भविष्य जन्म में उस कर्म के उदय को यह ज्योतिषशास्त्र उसप्रकार प्रकट करता है जिसप्रकार दीपक अन्धकार में वर्तमान घट-पटादि वस्तुओं को प्रकट ( प्रकाशित ) करता है। अर्थात्-जब पूर्वजन्म का सद्भाव है तभी ज्योतिषशास्त्र उत्तर जन्म का स्वरूप प्रकट करता है, इससे जाना जाता है कि गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त ही जीव नहीं है, अपितु गर्भ से पूर्व व मरण के बाद भी है-इत्यादि'। अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्दनिघण्टु-प्रन्थ के इस विषय को श्री श्रदय माननीय डा. वासुदेवशरण' जी अग्रवाल अध्यक्ष-कला व पुरातत्वयिभाग हिन्दविश्वविद्यालय काशी ने अपने विस्तृत व साङ्गोपाङ्ग 'प्राक्कथन में विशेप स्पष्ट कर दिया है वेद पुराग य स्मृतिशास्त्र-इसके चतुर्थ श्रावास में इसका निरूपण है, परन्तु विस्तार-यश 'उल्लेख नहीं किया जा सकता। धर्मशास्त्रद्वितीय आश्वास । पृ. १४१-१५५) में धैराग्यजनक १२ भावनाओं का निरूपण है। चतुर्थ आश्वास में ५. सथा च काव्यप्रकाशकारः तददोषी रब्दायी सगुणादनाउकुती पुनः क्यापि । २. तथा च विश्वनाथ कविराज:- वाश रसास्मक काव्यम् । साहित्यदर्पण से सकलित-सम्पादक ३. तथा च विश्वनाथ कविराजः - वाकयातिशायिनि व्यग्ये वापरतन् काव्यमुत्तमम् ॥१॥ साहित्यदर्पण (४ परिच्छेद ) से संकलित ४. यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः प्रापिन् । न्यायति शाब मेसत्तमसि द्रव्याधि दीप इव । आ० ४ (. ९३) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एम= ए० शास्त्री जयपुर के सौजन्य से प्राप्त हुई थी। रचना शक संवत् १०८ लिपि सं० १८६६ का है। आरम्भ निम्न प्रकार है: इसमें १२३ x ६ इच्छ की साईज के २५६ पत्र है । प्रति विशेष शुद्ध व टिप्पणी-मण्डित है । इसका श्रियं कुवलयानन्द स. दिवमहोदयः । देवन्द्रप्रभः पुष्यमासासिनी ॥ १ ॥ -- ३. 'ग' प्रति का परिचय - यह ६० सिटि प्रति श्री दि जैन बड़ाधड़ा के पंचायती दि जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार की है, जो कि श्री बार मिलापचन्द्रजी B. So LL. 13. एडवोकेट सभापति महोदय एवं श्री : धर्मः सेठ नौरतमलजी सेठी सराफ और कोषाध्यक्ष तथा युवराजपदस्थ श्री० पं० चिन्मादजी के अनुग्रह सौजन्य से हुई थी। इसमें १९३३ इञ्च की साईज के ४०४ पत्र हूँ। यह प्रति विशेष शुद्ध एवं सटिप्पण है। प्रस्तुत प्रति वि सं १६५४ के तपसि मास में गङ्गाविष्णु नाम के किसी विद्वान द्वारा लिखा गई है। प्रांत का आरम्भ ॐॐॐ परमात्मने नमः । श्रियं कुवलयानन्द प्रसादितमहादयः । देवन्द्रप्रभः पुष्याजगन्मानवासिनीम् ॥ १ ॥ श्रीरस्तु । श्रीः । ५ विशेष प्रस्तुत प्रति आधार से किया हुआ यश उत्तरार्द्ध का विशेष उपयोगी व महत्त्वपूर्ण संशोधन (अनेकान्त वर्प किरण -२ ) की दो प्रति हमें श्री० पं० दीपचन्द्रजी शास्त्री पांड्या ककड़ा ने प्रदान की थीं एतदर्थं अनेक धन्यवाद । उक्त संशोधन से भी हमें 'तिलक' उत्तरार्ध के संस्कृत पाठ-संशोधन में यथेष्ट सहायता मिली । ४. 'घ' प्रति का परिचय - यह ६० लि० सटिः प्रति श्री दिन जैन बड़ामन्दिर वीसपन्थ आम्नाय सीकर के शाकभण्डार से श्री० पं० केशव देवजी शास्त्री व श्री० पं० पदमचन्द्रजी शास्त्री के अनुग्रह व सौजन्य से प्राप्त हुइ थी। इसमें १३४ ९इच की साईज के २५ पत्र हैं। लिपि विशेष स्पष्ट व शुद्ध है। इसका प्रतिलिपि फाल्गुन कृ० ६ शनिवार सं १६१० को श्री० पं० चिमनरामजी के पौत्र व शिष्य पं 'महाचन्द्र' विद्वान् द्वारा की गई। प्रति का आरम्भ - ॐनमः सिद्धेभ्यः । श्रियं कुवलयानंप्रतिमहोदयः इत्यादि मु- प्रतिवत् है । अन्त में वर्गः पदं वाक्यविधिः समासो इस्वादि सु प्रतिवत्। धन्य संख्या ८००० शुभं भूयात् । योऽस्तु । इसका अन्तिम लेख - अथास्मिन् शुभसंवत्सरे विक्रमादित्यसमयात् संवत् १६१० का प्रवर्तमा ने फाल्गुनमासे कृष्णपचे तिथौ पष्ट्यां ६ शनिवासरे मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये अजमेर गच्छे श्रीमदाचार्यवर आचार्यजी श्री श्री श्री श्री १०८ श्री गुणचन्द्रजी तत्पट्टे आचार्यजी श्री श्री १. प्रसादीकृतः दत इत्यर्थः । २. चन्द्रवत् समास इत्यादि मु० प्रतिका 1 पूखद् गौरा प्रभा यस्य । अखोर — वर्णः पदं वाक्यविधिः t ३. प्रसादित निर्मलीकृतो महादयो येन सः । प्रसादीवृतः दस इत्यर्थः । चन्द्रस्य मृगाङ्कस्यैव प्रभा दीप्तिर्य पुयात्। पुष्टि क्रियात्। चन्द्रः कर्पूरः तत्प्रभा यस्य सः । हिमांशु बदमाश्चन्द्रः घनसार चन्द्रसंशः मतं वतु ं जिलाधीशपालिना ॥ १ ॥ श्यास । भयत्राप्यमरः । इसके अखीर में---वर्षे वेद-रारेभ-शीतगुमिते मासे तपस्याहये तथ्य नाम् । गंगा विष्णुरितिप्रश्रागतेनाभिख्यया निर्मिता ग्रन्यस्यास्य लिः समाप्तिमगमद्गुर्व Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकीति जी तत्पट्टे आचार्यजी श्री श्री विशालकीर्ति जी तत्पट्टे आचार्य जी श्री श्री १०८ भानुकीर्ति जी दत्शिष्य पं० भागचन्दजी, गोवर्धनदासजी, हेमराजजी, बेणीरामजी, लक्ष्मीचन्दजी, लालचन्दजी, उदयरामजी, मनसारामजी, आर्जिका विमलश्री, लक्ष्मीमति, हरवाई, बखती', राजा", राही एतेषां मध्ये पंडितजी श्री भागचन्दजी सदिष्य पं० जी श्री दीपचन्दजी तस्शिष्य पंडितोत्तम पंडितजी श्री श्री चिमनरामजी तत्पौत्र शिष्य महाचन्द्रेणे 'यशस्तिलक' नाम महाकाव्यं लिपिकृतं सीकरनगरे जैनमन्दिरे श्री शान्तिनाथ चैत्यालये शेखावतमहाराय राजा श्री भैरवसिंहजी राज्ये स्वात्मार्थे लिपिकृतं शुभं भूयात् । इसका सांकेतिक नाम 'च' है। ५. 'च' प्रति का परिचय-यह प्रवि बड़नगर के श्री दि. जैन मन्दिर गोट श्री० सेठ मलूकचन्द हीराचन्द जी वाले मन्दिर की है। प्रस्तुत मन्दिर के प्रबन्धकों के अनुग्रह से प्राप्त हुई थी। इसमें १२४५३ इञ्च की साईज के २८३ पत्र हैं। इसकी लिपि पौष कृ. द्वादशी रविवार वि० सं० १८० में श्री पं० बिरधीचन्द जी ने की थी। प्रति की स्थिति अच्छी है। यह शुद्ध व सटिप्पण है। इसके शुरु में मुद्रित प्रति की भाँति श्लोक हैं और अस्वीर में निन्नप्रकार लेख है वि० सं० २ वर्षे पौषमासे कृष्णपक्षे द्वादश्यां तिथी आदित्यवासरे श्रीमूलसंघे नंघानाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये आचार्य श्री श्री शुभचन्द्रदेवाः तत्संघाष्टके पंडितजी श्री श्री नौनिधिराम जी तशिध्य पं. श्री नवलराम जी तशिष्य पं. बिरधीचन्द्र जी तेभेद यशस्तिलकचम्पू नाम शास्त्रं लिखित स्ववाचनार्थ। श्री शुभं भवतु कल्याणमस्तु। इसका सांकेतिक नाम 'च' है। अन्धपरिचय श्रीमत्सोमदेवतरि का 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य संस्कृत साहित्यसागर का अमूल्य, अनोखा व बेजोड़ रत्न है। इसमें ज्ञान का विशाल खजाना वर्तमान है, अतः यह समूचे संस्कृत साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण अनोखी विशेषता रखता है। इसका गद्य कादम्बरी' व 'तिलकमरी' की टकार का ही नहीं प्रत्युत उससे भी विशेष महत्वपूर्ण व क्लिष्टतर है। प्रस्तुत महाकाव्य महान् लिष्ट संस्कृत में अष्टसहस्त्री-प्रमाण (श्राठ हजार लोक परिमाण) गद्य-पद्य पद्धति से लिखा गया है। इसमें आठ आषास ( सर्ग) हैं, जो कि अपने नामानुरूप विषय-निरूपक है। जो विद्वान् 'नवसर्गगते माघे नवशब्दो न विद्यते' अर्थात्'नौ सर्गपर्यन्त 'माई काव्य पढ़ लेने पर संस्कृत का कोई नया शब्द बाकी नहीं रहता' यह कहते हैं, उन्होंने यशस्तिलक का गम्भीर अध्ययन नहीं किया, अन्यथा ऐसा न कहते, क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थ में हजारों शब्य ऐसे मौजूद है, जो कि वर्तमान कोशग्रन्थों व काव्यशास्त्रों में नहीं पाये जाते। अतः 'गते शब्दनिधापस्मिन्नवशब्दो न विद्यते' अर्थात् 'शब्दों के खजानेरूप इस यशस्तिलकचम्पू के पढ़ लेने पर संस्कृत का कोई भी नया शन्द बाकी नहीं रहता' यह उक्ति सही समझनी चाहिए। पञ्जिकाकार श्रीदेव' विद्वान ने कहा है कि इसमें यशोधर महाराज के चरित्र-चित्रण के मिष से राजनीति, गजविद्या, अश्वविद्या, शस्त्रविद्या, आयुर्वेद, वादविवाद, नीतिशास्त्र, ऐविहासिक व पौराणिक दृष्टान्तमालाएँ, अनोखी व वेजोड़ काव्यकसा, हस्तरेखाविज्ञान, ज्योतिष, वेद, पुराग, स्मृतिशाख, दर्शनशास्त्र, अलकार, छन्दशास्त्र, सुभाषित १. देखिए-इसका अप्रयुक्त क्लिन्तम शब्द-निघण्टु (परिशिष्ट २ पृ. ४९९-४४.)। १. देखिए पत्रिकाकार का श्लोक नं ४२। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य का सम्पादन विशेष अनुसन्धानपूर्वक निम्नलिखित इलि प्रान प्रतियों के आधार पर किया गया है W १. 'क) प्रति का परिचय - यह प्रति श्री पूज्य भट्टारक मुनीन्द्रकति दिन जैन सरस्वती भवन नागौर (राजस्थान ) व्यवस्थापक — श्री० पूज्य भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्ति गादी नागौर की है, जो कि संशोधनहेतु नागौर पहुँचे हुए मुझे श्री० धर्म० सेठ रामदेव रामनाथ जी चाँदूवाड़ नागौर के अनुग्रह से प्राप्त हुई थी। इसमें १०१X५ इल की साईज के ३३१ पत्र हैं। यह विशेष प्राचीन प्रति है, इसकी लिपि ज्येष्ठ वदी ११ रविवार सं० १६५४ को श्री० 'रुकादेवी' श्राविका ने कराई थी। प्रति का प्रारम्भ - श्री पार्श्वनाथाय नमः । श्रियं कुवलयानन्द प्रसाधितमहोदयः । इत्यादि मुत्र प्रतिवत् है । इसमें दो आश्वास पर्यन्त कहीं २ टिप्पणी है और आगे मूलमात्र है। इसके अन्त में निम्नलेख पाया जाता है 'यशस्विकारनाम्नि महाकाव्ये धर्मामृतवर्ष महोत्सवो नामाष्टम आश्वासः । " भद्रं भूयात् " "कल्याणमस्तु" शुभं भवतु । संवत् १६५४ वर्षे ज्येष्ठ वदी ११ तिथौ रविवासरे श्रीमूलसंघ बलात्कारगणे सरस्वतीच्छे नंद्याम्नाये आचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये मंडलाचार्य श्री भुवनकीर्ति तत्पट्टे मण्डलाथार्यानुक्रमे मुनि नेमिचन्द दत्शिष्य आचार्य श्री यशकीर्तिस्तस्मै इदं शास्त्रं 'यशस्तिलकाख्यं' जिनधर्म समाश्रिता श्राषिका 'स्का' ज्ञानावरणीयकर्मक्षयनिमित्तं घटाप्यतं ।' मानवान्खानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । श्रन्नदानात्सुखी निस्यं निर्व्याधिर्भेषजाद्भवेत् ॥ शुभं भवतु । कल्याणमस्तु | इस प्रति का सांकेतिक नाम 'क' है । विशेष उल्लेखनीय महत्वपूर्ण अनुसन्धान – उक्त 'क' प्रति के सिवाय हमें उक्त नागौर के सरस्वतीभवन में श्रीदेव विरचित 'यशस्तिलक- पञ्जिका' भी मिली, जिसमें 'यशस्तिलकचम्पू' के विशेष क्लिष्ट, अयुक्त व वर्तमान कोशप्रभ्थों में न पाये जानेवाले हजारों शब्दों का निघण्टु १३०० श्लोक परिमाण लिखा हुआ है। इसमें १२४६ की साईज के ३३ पृष्ठ हैं । प्रति की हालत देखने से विशेष प्राचीन प्रतीत हुई, परन्तु इसमें इसके रचयिता श्रीदेव विद्वान् या आचार्य का समय लिस्त्रित नहीं है। उक्त 'यशस्तिलकपञ्जिका' का अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द निघण्टु हमने विद्वानों की जानकारी के लिए एवं यशस्तिलक पढ़नेवाले छात्रों के हित के लिए इसी प्रन्थ के अखीर में (परिशिष्ट संख्या २ ० ४१६-४४०) ज्यों का त्यों शुरु से ३ आवास पर्यन्त प्रकाशित भी किया है। यशस्तिलक-पञ्जिका के प्रारम्भ में १० श्लोक निम्नप्रकार हैं । अर्थात् श्रीमखिनेन्द्रदेव को नमस्कार करके श्रीमत्सोमदेवसूरिविरचित 'यशस्तिलकचम्पू' की पञ्जिका 'श्रीदेव' विद्वान द्वारा कही जाती है ॥ १ ॥ ' यशस्तिझकचम्पू' में निम्नप्रकार विषयों का निरूपण है १. यशोधर महाकाव्ये सोमदेव विनिर्मिते । श्रीदेवेनोच्यते पंजी त्या देवं विनेश्वरम् ॥ १॥ 1 छंदःशङ्गनिषेट् क्लंकृतिफला सिद्धान्तसामुद्रज्योतिर्वैद्य वेदवादभरतानश लिया श्वायुधम् । तर्काख्यानकर्मनीतिश कुममाष्ट्पुराणस्मृतिश्रेयोऽध्यात्मंजरिति प्रवचनी व्युत्पत्तिरत्रोच्यते ॥ २ ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. छन्दशास्त्र २ शब्दनिघण्टु ३. अलङ्कार ४. संगीन आदि कलाएँ, ५. सिद्धान्त, ६. हस्तरेखाविज्ञान, ७ ज्योतिषशास्त्र, वैद्यक, वेद, १२ वादावाद ( खण्डन-मण्डन ), १२. नृत्यशास्त्र १२. कामशास्त्र या मनोविज्ञान, १३. गजविद्या १४. शस्त्रविद्या, १५. दर्शनशास्त्र, २६. पौराणिक ऐतिहासिक कथानक, १७ राजनीति, १८. शकुनशास्त्र, १९. वनस्पतिशास्त्र, २० पुराण, २२. स्मृतिशाख, २२. अध्यात्म जगत में वर्तमान श्रेय ( शाश्वत कल्याण ) और २३. वक्तृत्वकला की व्युत्पत्ति ||२|| मैं ( श्रीदेव ) और यशस्तिलककार श्रीमत्सोम देवरि दोनों ही लोक में काव्यका के ईश्वर ( स्वामी ) है; क्योंकि सूर्य व चन्द्र को छोड़कर दूसरा कौन अन्धकार-विध्वंसक हो सकता है? आप तु कोई नहीं ||२|| 'यशस्तिलक' की सूक्तियों के समर्थन के विषय में तो मैं यशस्तिलककार श्रीमत्सोमदेवमूर्ति से भी विशिष्ट विद्वान हूँ, क्योंकि स्त्रियों की सौभाग्यविधि में जैसा पति समर्थ होता है वैसा पिता नहीं होता ||४|| 'यशस्तिलक' के अप्रयुक्त शब्द निघण्डु का व्यवहार में प्रयोग के अस्त हो जानेरूप अन्धकार को और द्विपदी आदि अप्रयुक्त छन्दशास्त्र विषयक अप्रसिद्धिरूपी अन्धकार को यह हमारा प्रस्तुत ग्रन्थ ( यशस्तिलक- पञ्जिका), जो कि उनका प्रयोगोत्पादकरूपी सूर्ये सरखा है, निश्चय से नष्ट करेगा ॥२॥ जिसप्रकार लोक में अन्धा पुरुष अपने दोष से स्खलन करता हुआ अपने खींचनेवाले पर कुपित होता है उसी प्रकार लोक भी स्वयं अज्ञ ( शब्दों के सही अर्थ से अनभिज्ञ है, इसलिए शब्दों के प्रयोक्ता कवि की जिन्दा करता है ||६|| 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए इसप्रकार के मार्ग का अनुसरण करनेवालों ने तो निश्चय से निघण्टु शब्दशास्त्रों के लिए जलाञ्जलि दे दो, अर्थात् उन्हें पानी में बक्ष दिया ||७|| जिनकी ऐसी मान्यता है कि 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए' उनके यहाँ जह, पेलव ( पेलवं विरलं तनु इत्यमरः - छितरा ) व योनि आदि शब्दों का प्रयोग किस प्रकार संघटित होगा ? ||८|| इसलिए शब्द व अर्थ के वेत्ता विद्वानों का 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए अथवा प्रयुक्त शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए यह एकान्त सिद्धान्त नहीं है ||६|| प्रस्तुत शास्त्र पञ्जिका ) मे १३०० लोकपरिमाण रचा हुआ अभूतपूष व प्रमुख शब्दनिघण्टु शब्द व अर्थ के सर्वेश 'ओदव' कचि से उत्पन्न हुआ है | इसक अखार में निनप्रकार उल्लिखित है: -- इन श्रीदेव-विरचितायां यश-पत्रिकायां आम आद्यासः । इति यस्तिष्ठक- टीकं समासं । शुभं भवतु | इस प्रति का भी सांकेतिक नाम 'क' है । २. 'ख' प्रति का परिचय यह टिप्पण प्रति आमेर-शास्त्र भण्डार जयपुर की है। श्री माननीय - पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थं प्रिन्सिपल संस्कृत जैन कालेज जयपुर एवं श्री पं० कस्तूरचन्द्रजी कालीबाल अहं काव्यकर्ता वा तौ द्वावेवेश्वव विधुन्नातिरेकेण को नामान्यस्तमोपहः ॥ ३॥ कवेरपि विदग्धोऽइमैसरसूतिसमर्थने । यसौभाग्यविधी स्त्री प्रतिवन पिता प्रभुः ॥४॥ प्रयोगास्तमयं छन्द स्स्वप्रसिद्धिमयं तमः । तत्प्रयोगोदयाओं हि निरस्वत्य समंजसम् ॥५॥ यात्याकर्ष कायान्तः स्वदोषेण यथा स्खलन् । स्वयमज्ञस्तथा लोकः प्रयोक्तारं विनिन्दति ॥६॥ नाप्रयुक्तं प्रयुजीवेत्येतन्मार्गानुसारिभिः । निषशास्त्रेभ्यो नूनं दत्तों जलाञ्जलिः ॥७॥ जह पेलव योग्याद्यान् शब्दस्तत्र प्रयुञ्जनं । नाप्रयुक्तं प्रदुखीतेत्येषः येषी नवी हृदि ॥८॥ माप्रयुक्तं प्रयोक्तव्यं प्रयुक्तं वा प्रयुज्यते । इत्येकान्ततस्तो नास्ति वागर्थौचित्यवेदिनाम् ॥९॥ सामा दाशी वाचा पूर्वा समभूदिह । कवैर्वागर्थसर्व ज्ञापकत्रिशती तथा ॥ १० ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LADDA श्रीसमन्तभद्राय नमः श्रीमत्सोमदेवसूरि-विरचितं यशस्तिलकचम्पूमहाकाव्यम् यशस्तिलकदीपिका-नाम भाषाटीकासमेतम् प्रथम आश्वास श्रियं कुवलयानन्दप्रसाक्तिमहोदयः । देवश्चन्द्रप्रभः पुष्याजगन्मानसासिनीम् ॥ १ ॥ निय दिश्यास्स वा श्रीमान् पस्य संदर्शनादपि । भवेत् लोम्यलक्ष्मीणां जन्नुः कन्नु निकेतनम् ॥ ३ ॥ श्रियं देपास्त वः काम यस्पोन्मीलति केवले । लोक्यमुस्सगंदारं पुरमेकमिवाभवत् ॥ ३ ॥ अनुवादक का मङ्गलाचरण जो है मोक्षमार्ग के नेता, अरु संगादि विजेता है। जिनके पूर्णज्ञान-दर्पण में, जग प्रतिभासित होता है।। जिनने कर्म-शत्रु-विध्वंसक, धर्मतीर्थ दरशाया है। ऐसे श्रीऋषभादि प्रभु को, शत-शत शोश मुकाया है।।१।। जिनकी कान्ति चन्द्रमा के समान है और जिन्होंने समस्त कुवलय ( पृथिवीमंडल ) को यथार्थ सुख प्रदान करने के उद्देश्य से अपने महान् ( अस्त न होनेवाले ) उदय को उसप्रकार निर्मल ( कर्मरूप श्रावरगों से रहित, वीतराग, विशुद्ध व अनन्त ज्ञानादियुक्त ) किया है. जिसप्रकार शरत्कालीन पूर्ण चन्द्रमा समस्त कुवलय ( चन्द्रविकासी कमलसमूह ) को विकसित करने के लिए अपने महान उदय को निर्मल (मेघावि आवरणों से शून्य) करता है. ऐसे श्री चन्द्रप्रभ भगवान जगन के चिप्स में निवास करनेपाली लक्ष्मी ( भूतज्ञानविभूति) को वृद्धिंगत करें ॥१॥ जिसके दर्शनमात्र से अथवा सम्यग्दर्शन के प्रभाव से भी यह प्राणी तीन लोक ( ऊर्च, मध्य व अधोलोक) की लक्ष्मी (इन्द्रादि-विभूति ) का मनोहर मात्रय (निवासस्थान ) होजाता है एवं जो अन्तरालक्ष्मी (अनन्तदर्शन. अनन्तज्ञान, अनन्तसुख व मनन्त वीर्यरूप आत्मिक लक्ष्मी) और बहिरङ्गालक्ष्मी ( समवसरणादि विभूति ) से अलकृत हैं ऐसे श्री चन्द्रप्रभ भगवान् श्राप लोगों के लिए स्वर्गश्री व मुक्तिश्री प्रदान करें ॥२॥ जिसके केवलज्ञान प्रकट होने पर तीन लोक महोत्सव-केवलज्ञान कल्याणक-युक्त होने से अत्यन्त मनोहर-चित्त में रहास उत्पन्न करनेवाले-होते हुए एक नगर के समान प्रत्यक्ष प्रतीत हुए. वह चन्द्रप्रभ भगवान् श्राप लोगों के -उपमालबार । २-अतिशयालझार । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये यस्पामिनखनक्षत्रविज़म्भाय नभस्यते । नमज्जगत्त्रयीपालकुन्तलाभोगडम्बरः ॥ ४ ॥ बालारुणायते यस्य पादद्वितयमण्डलम् । प्रहनिविपाधीशकिरीटोदयकोटिपु ॥५॥ नखोज्जम्भकराभोगकेसर यस्कमलम् । नम्रामरवधूनेनदीबिशारत्रम्जा से ६ ॥ यस्पदस्मृतिसंभारा वनत्रयनायकाः । वाल्मनो देवसिखोना सिद्धादशादिवेशते ॥४॥ तस्मै सत्कीर्तिपूर्ताय विश्वदृश्बैकमूर्तये । नमः शमसमुद्राय जिनेन्द्राय पुनः पुनः A ॥८॥ अपि च । भूर्भुवः स्वस्त्रयं वेलावलकुल्लायते । अपाराय नमस्तस्मै जिनबोधपयोधये ॥९॥ ELLO लिए यथेष्ट स्वर्गश्री व मुक्तिश्री प्रदान करे ॥ ३॥ जिनके चरणों के नखरूप नक्षत्रों के प्रसार के लिए नमस्कार करते हुए तीन लोक के स्वामियों-इन्द्र व नरेन्द्रादि--के केश-समूह की विस्तृत शोभा आकाश के समान आचरण करती है। भाषार्थ- भगवान के चरणकमलों में नत्रीभूत इन्द्रादिकों की विस्तृत केशराशि की परिपूर्ण शोभा आकाश के समान है. जिसमें भगवान् की नवपंक्ति नक्षत्रपंक्ति के समान चमकती हुई शोभायमान होरही है॥४॥ जिस जिनेन्द्र भगवान् के चरण-युगल का प्रतिबिम्ब, नमस्कार करते हुए तीन लोक के स्वामियों-इन्द्रादिकों के मुकुटरूप उदयाचल की शिखरों पर प्रातःकालीन सूर्य के समान पाचरण करता है: ॥५१] जिस जिनेन्द्र भगवान के चरण-युगल कमल के समान प्रतीत होते हैं, जिनमें भगवान के चरणों के नखों से फैलनेवाली किरणों का विस्ताररूप केसर ( पराग) वर्तमान है एवं जो नमस्कार करती हुई इन्द्राणी-श्रादि देवियों के नेत्ररूप जल से भरी हुई यावष्ठियों में खिल रहे है ॥६॥ जिस भगवान् जिनेन्द्र के चरणकमलों की स्मृति (ध्यान) की प्रचुरता से जो मानों-सिद्धपुरुष-ऋद्धिधारी योगी महापुरुष का वचन ही है, संसार के प्राणी तीनलोक के स्वामी-इन्द्र व नरेन्द्रादि-होते हुए उसप्रकार वचनसिद्धि, मनोसिद्धि व देवसिद्धि के स्वामी होजाते है, जिसप्रकार सिपरुष के पचन से वचन सिद्धि, मनोसिद्धि व देवसिद्धि के स्वामी होते हैं।॥७॥ ऐसे उस त्रैलोक्य-प्रसिद्ध जिनेन्द्र को बार-बार नमस्कार हो, जो प्रशस्त अथवा अबाधित कीर्ति से परिपूर्ण है, एवं जिनकी केवलज्ञानमयी मूर्ति ( स्वरूप ) अद्वितीय-बेजोड़-और विश्व के समस्त चराचर पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेवाली है एवं जो उत्तमक्षमा के अथवा ज्ञानावर यादि कर्मों के क्षय के समुद्र है 11८॥ भगवान के उस अपार केवलज्ञानरूप समुद्र के लिये नमस्कार हो, जिसमें तीन लोक ( पृथ्वीलोक, अधोलोक व ऊर्ध्वलोक ) उसके मर्यादानीत बहाव को रोकनेवाले तटवर्ती या मध्यवर्ती पर्वत-समूह के समान श्राचरण करते हैं। भाषार्थ-भगवान के केवलज्ञान में अनन्त प्रैलोक्य को जानने की योग्यता-शक्ति--- वर्तमान है, उसमें अनेक सभ्यग्दर्शनादि गुणरूप रत्नों की राशि भरी हुई है, अतः उसमें समुद्र का आरोप किया जाने से रूपकालकार है और तीन लोकों को उसकी सीमातीत विकृति रोकने वाले पर्वत-समूह की सरशसा का निरूपण है, अतः उपमालकार है ॥९॥ प्रस्तुत काव्य के प्रारंभ में श्रुतकेवली गणधर देवों के प्रसिद्ध १-उपमालकार। २-उपमालकार। *-'पूर्ताय' इति ह. लि, सटि. ( क, ग, च, च,) प्रतिषु पाउः । पूरितच्छन्नयोः पूतं पूर्त खातादेकर्मणि : इति विश्वः । ३-रूपक २ उपमालंकार। ४-रूपक व उपमालंकार । ५-उत्प्रेक्षालंकार वा उपमालंकार। ६-अतिशमालंकार A-लोक नं. ४ से ८ तक पंचदलोकों से कुलक समझना चाहिये । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अश्विास कि च । मतेः सूतेजि समति मनसश्चक्षुरपरं । यदाश्रिल्पास्मार्य भवति निम्मिलनेविषयः ।। विवरत्यन्तैर्भस्तिभुषनाभोगविभवैः । स्फुरत्तस्वं ज्योतिस्तादिद भयतादारमयम् ॥१०॥ सर्वशकः कविभिः पुरातनैरवीक्षितं घस्मु किमस्ति संप्रति । रोदयुगीनस्तु कुशाप्रधीपि प्रयक्ति यत्तत्सदृशं स विस्मयः ॥११॥ कृतीः परधामविलोकमानस्ततितकापि कमिन दोनः ! अक्षयो राजपचेन सम्यक्प्रयानिव प्रत्युत विस्मयाय ॥१२॥ हत्या कृती: पूर्वकृताः पुरस्तात् प्रत्यक्ष साः पुनरीक्षमाणः । तथैव जल्पेदय योन्यथा वा स काव्यचौरोऽस्तु स पातकी च ॥१३॥ असहायमनार्या रत्न रत्नाकरादिव | मत्तः काव्यमिदं आसं सता रदयमण्डनम् ॥१४॥ उक्तयः कविताकान्ताः सूक्तयोऽप्रसरोचिसाः । युतयः सर्वंशाम्बान्तास्तस्य यस्पाय कौतुकम् ॥१६॥ किंचित्काव्यं श्रवणसुभगं वर्णनोवीर्णवणं किंचिद्वायोचितपरिचयं हसमस्कारकारि ! भवासूप्रेरक इह सुकृती फिन्तु युक्तं तदुर गुत्पश्यै सकलविषये स्वस्य चान्यस्य च स्पान ॥१६॥ स द्वादशाङ्ग तज्ञान के लिए हमारा नमस्कार हो, जिसका द्रव्य व भावरूप से बार बार अभ्यास करके यह मानव अद्वितीय ज्ञानचक्षु प्राप्त करता हुआ समरत जानने योग्य लोकालोक के स्वरूप का शाता होजाता है और जिसमें समस्त तत्त्व (जीय व अजीबादि ) तीनों लोकों में विस्तार रूप से पाई जानेवाली अपनी भनन्त पर्यायों के साथ प्रकाशित होते हैं एवं जो विशेष प्रतिभा की उत्पत्ति का कारण है ॥१०॥ लोक में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं, जो सर्वज्ञ समान प्राचीन प्राचार्यों समन्तभद्रादि ऋषियोंद्वारा अज्ञात हो तथापि इसकाल का कवि तीक्ष्णवुद्धि होता हुआ भी इस पंचमकाल में उनके समान अन्य-रचना करता है, यह आश्चर्य की बात है ॥ ११॥ जो कयि दूसरे प्राचीनकवियों के काव्यशासों पक्षण न करता हश्रा उनकी काव्यवस्त भी कहता है, वह जघन्य न होकर उत्कृष्ट ही है। क्योंकि अक्षु-हीन मानय राजमार्ग पर बिना रखलन के गमन करता हुआ क्या विशेष आश्चर्यजनक नहीं होता ? अवश्य होता है ।। १२ ।। जो कार प्राचीन श्राचार्यों की कृतियों-काव्य रचनाओं को सामने रखकर प्रत्येक शब्दपूर्वक उनका बार-बार अभ्यास करता हुथा उसीप्रकार कहता है, अथवा उसी काव्यवास्तु के अन्य प्रकार से कहता है, वह काव्यचौर व पापी है ॥ १३॥ प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू नामका महाकाव्य, जो कि अद्वितीय (बेजोड़ा, दुसरे काव्यग्रन्थों की सहायता से रहित और किसी अन्यप्रन्य को आदर्श न रखकर रचा हुअा होनेसे विद्वानों के वक्षःस्थल का माभूषण रूप है, मुझ सोमदेवमूरि से उसप्रकार उत्पन्न हुआ है जिसप्रकार समुद्र व स्वानि से रत्न उत्पन्न होता है" ॥ १४॥ इसके अभ्यास करने में प्रयत्नशील विद्वान् को नयीन काव्यरचना में मनोहर म मूतन अर्थोद्रायनाएँ उत्पन्न होगी एवं अवसर पर प्रयोग करने के योग्य सुभाषितों का तथा तर्क, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार व सिद्धान्त-श्रादि समस्त शास्त्र संबंधी युक्तियों का विशेष शान उत्पन्न होगा ॥१५॥ ___ कोई काव्य, रचना में उत्कट अश्भरशाली होने से कर्यामृतप्राय होता है और कोई काव्य प्रशस्त अर्थ की बहुलता से हृदय में चमत्कार-जनक होता है। इसप्रकार लोक में शब्दाडम्बरयुक्त व अर्थबहुल काव्य के प्रति कौन बुद्धिमान् कुपित होगा? परन्तु कवि की वही कृत्ति-काव्य रचना-जो कि स्वयं और दूसरों को समस्त शास्त्र संबंधी तत्वज्ञान कराने में विशेष शक्तिशाली है, सर्वश्रेष्ट समझी जाती है ।।१६।। १- अतिशयालंकार व जाति-अलंकार। २–आक्षेपालंकार । -'कृलेक्षणो' इति मु. सटीक प्रती पाटः, भतिस्तु 'कृमाहिंसायाम् इति पाताः प्रयोगाद। ३-आक्षेपालंफार 1 ४-उपमालंकार। ५-उपमालंकार । -प्रस्तुत काव्यशान का फलप्रदर्शक अतिशयालंकार । ७-आक्षेपाळकार । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आजन्मसमभ्यस्ताच्छुकात्तकोत्तणादिव समास्याः । मसिसुरभेरभवदिद सूक्तिपयः सुकृतिना पुण्यैः ॥१४॥ याच एवं विशिष्शनामनन्यसमवृत्तयः । स्वस्यातिशायिन हेतुमातुः कान्ता लता हक ११८॥ वागर्थः कविसामय अयं सत्र वयं समम् । सर्वेषामेव वक्तृगां तृतीयं मिनशस्तिमम् ॥१९॥ लोको युक्तिः कलारन्दोऽलंकाराः समयागमाः । सर्वसाधारणाः सनिस्तीर्धमार्गा इस स्मृताः ॥२०॥ अर्थो नामिमतं शब्दं न शब्दोऽथ विगाहते । स्त्रीवन्धमिव मन्दस्य दुनोति कविता मनः ॥२१३ सूखी घास के समान जन्मपर्यन्त अभ्यास किये हुए ( पक्ष में भक्षण किये हुए ) दर्शनशास्त्र के कारण मेरी इस बुद्धिरूपी गाय से यह 'यशस्तिलकमहाकाव्य' रूप दूध विद्वानों के पुण्य से उत्पन्न हुआ॥ १७॥ जिसप्रकार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई अतिमनोहर शाखाएँ वृक्ष की इसप्रकार की विशेषता प्रकट करती हैं-'जिस वृक्ष की ऐसी विशेष मनोज्ञ शाखाएँ हैं, वह वृक्ष भी महान् होगा' इसीप्रकार विशिष्ट विद्वान कवियों की अनोखी य विशेषप्रौढ़ काव्य रचनाएँ भी उनके कवित्वगुण की इसप्रकार विशेषता-महानता-प्रकट करती है-'जिस कवि की ऐसी अनोखी व विशेषप्रौढ काव्यरचनाएँ हैं, वह कवि भी अनोखा, बहुश्रुत प्रौढ विद्वान् होगा ॥१८॥ काव्यरचना में निम्न प्रकार तीनतरह की कारणसामग्री की अपेक्षा होती है। १–शब्द २-अर्थ और ३- कवित्वशक्ति। उनमें से शुरू की दो शक्तियाँ समस्त कवियों में साधारण होती हैं. परन्तु तीसरी कवित्वशक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है॥१६॥ जिसप्रकार तीर्थों (गंगादि) के मार्ग सज्जनों द्वारा सर्वसाधारण माने गये है। अर्थात् गङ्गादि तीर्थों में ब्राह्मण और चाण्डाल सभी जाते हैं, उसमें कोई दोष नहीं है, उसीप्रकार व्याकरण, तर्कशास्त्र, गीत-नृत्यादिकला, छन्दशास्त्र, अलङ्कार (शब्दालङ्कार व अर्थालङ्कार) एवं षड्दर्शन (जिन, जैमिनी, कपिल, काचर, चार्याक व बुद्धदर्शन ) अथवा ज्योतिष शास्त्र भी शिष्ट पुरुषों द्वारा सर्वसाधारण माने गये हैं। अर्थात् उनका अभ्यास भी सर्वसाधारण कर सकते हैं, उसमें कोई आपत्ति (दोष) नहीं है" ॥२०॥ मन्दः (मूर्ख) कवि की कविता का अर्थ-शब्द निरूपित पदार्थ- सही नहीं होता; क्योंकि उसका सही अर्थ के निरूपक शब्दों के साथ समन्वय-मिलान - नहीं होता और न उसके शब्द ही सही होते हैं। क्योंकि वे सही अर्थ में प्रविष्ट नहीं हो सकते यथार्थ अभिप्राय प्रकट नहीं कर सकते, इसलिए उसकी ऋषिता उसके मन को उसप्रकार सन्तापित-मलेशित करती है जिसप्रकार कमनीय कामिनियाँ मन्द (नपुंसक पुरुष या रोगी) का चित्त सन्तापित करती हैं। क्योंकि वह न तो उन्हें भोग सकता है और न उनसे आनन्द ही लूट सकता है ॥ २१॥ हमारी ऐसी धारणा है कि प्रस्तुत काव्य-यशस्तिलकपम्पू १-उपमा व रूमकालंकार होने से संकरालंकार । २-अनुमानालंकार। तथा चोक्तम्-संस्कारोत्थं स्वभावोत्थं सामथ्र्य द्विविध कवेः।। ___ तत्र शास्त्राधयं पूर्वमन्यदारमोहसंश्यं ॥१॥ यश की संस्कृत टीका से संकलित अर्थात कवित्वशक्ति दो प्रकार की होती है। -संस्कारोत्थ ( काव्यशास्त्र के अभ्यास से उत्पन)। और २-स्वभावोत्थ (स्वाभाधिर विचारशक्ति से उत्पन्न)। भावार्थ-प्रस्तुत कवित्वशक्तिीहीमाधिकता से करियों की काव्यरचनाएँ भी हीनापिक होती है। ३-अतिशयालंकार । ४-उपमालंकार । - मन्दो जनः अल्पकामो रोगी च, इ. लि. सटि. प्रति (क, घ) से संकलित । ५-उपमालंकार। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्रश्वास दुर्जनानां विनोदाय बुधानां मतिमन्मने । मध्यस्थानां म मौनाय मन्ये काव्यमिदं भवेत् ॥ २३ ॥ सुकषिकामा धुर्वे प्रबन्ध सेवाविवृद्धपानाम् । विशुमम्यकन्दलीय भवतु रुचिर्मद्विधाभिधानाम् ॥ १३ ॥ न गर्थ पद्यमिति वा सो कुर्वीत गौरवम् । किन्तु किमन्यत् सुखमिंत्र क्रियाः ॥ ४ ॥ तएव कत्रो छोके येषां वचनगोचरः । पूर्वोऽपूर्वतामय यात्यपूर्वः सपूर्वताम् ॥ १॥ सापत्र सुकदेव वस्तिस्थामपि याः श्रुताः । भय म चैकान्तेन वकोक्ति: स्वभावास्याममेव वा । धान प्रीतये किन्तु इयं कान्ताजनेरिव ॥ २० ॥ नियमः कक्षा ५ दुर्जनों को कौतुकशाली (उत्कण्ठित) करता हुआ विद्वानों को बुद्धिमान बनाया और मध्यस्थ ( ईर्ष्यालु ) पुरुष भी इसे देखकर चुप्पी नहीं साधेंगे अर्थात् वे भी इसे अवश्य पढ़ेंगे || २२ || अच्छे कवियों-are श्रीहर्ष, माघ व कालिदास आदि के काव्यशास्त्रों की कर्णामृतप्राय रचना के बाद – अभ्यास- - से जिनकी जड़ता अत्यधिक बढ़ गई हैं, ऐसे विद्वानों को, हम सरीखों की काव्यरचनाओं - यशस्तिलक- आदि काव्यशास्त्रों में उसप्रकार रुचि उत्पन्न होवे, जिसप्रकार अत्यन्त मीठा खाने से उत्पन्न हुई गले की जड़ता दूर करने के लिए नीम के कोमल किसलयों (केम्पलों) के खाने में रुचि होती है। भावार्थ - जिसप्रकार नीम की कोपलों के भक्षण से, अत्यधिक मीठा खाने से उत्पन्न हुई गले की जड़ता ( बैठ जाना) दूर होजाती है उसीप्रकार अत्यधिक बौद्धिक परिश्रम करने से समझ 뀸 आनेलायक प्रस्तुत 'यशस्तिलक' काव्य के अभ्यास से भी उन विद्वानों की जड़ता नष्ट होजाती है, जो दूसरे कवियों के अतिशय मधुर, कोमल काव्य-शास्त्रों के पढ़ने से बौद्धिक परिश्रम न करने के कारण जड़ता युक्त होरहे थे * ॥ २३ ॥ प्रस्तुत 'यशस्तिलक' काव्य गद्यरूप अथवा पद्यरूप (छन्दोद्ध है, इतनामात्र कहने से यह सज्जनों द्वारा आदरणीय नहीं है, इसलिए इसकी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें उसप्रकार का परमानन्द लक्षण सुख वर्तमान है, जो कि वचनों के अगोचर होता हुआ भी स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से प्रतीत है, जिस प्रकार स्त्रीसंभोग से अनिर्वचनीय लक्षण सुख होता है, जो कि स्वयं प्रत्यक्ष से प्रतीत है। सा सुख स्त्रियों के गद्य ( सरस वचनालाप | और पद्य ( स्पर्शन व आलिङ्गनादि ) से नहीं है ता || २४ || लोक में वे ही श्रेष्ठ कवि हैं, जिनकी काव्यरचनाओं में गुम्फित वस्तु ( काव्यवस्तु ) लोकप्रसिद्ध होने पर भी अपूर्व सी (कभी भी न सुनी-सी) मालूम होती है और अपूर्व प्रसिद्ध वस्तु भी अनुभूत -सी प्रतीत होती हुई चित्त में अपूर्व चमत्कार (उल्लास ) उत्पन्न कर देती है || २५ || अच्छे कवि को उन्हीं रचनाओं को प्रशस्त (श्रेष्ठ) समझनी चाहिए, जो सुनीजाकर पशुओं के चित में भी ( मनुष्यों का तो कहना ही क्या है) परमानन्द का क्षरण और प्रचुर रोमाना उत्पन्न करने में कारण हों ।। २६ ।। कत्रियों के काव्य, सर्वथा वकोक्ति ( चमत्कारपूर्ण उक्ति) प्रधान होने से अथवा स्वभावाख्यान - जाति नाम का अलङ्कार की मुख्यता से विद्वानों के चित्त को चमत्कृत - शासित नहीं करते किन्तु जब उक्त दोनों अलङ्कारों से अलङ्कृत होते है तभी विद्वानों के चित्त में उस प्रकार अपूर्व चमत्कार उल्लास - उत्पन्न करते हैं। जिसप्रकार रमणियाँ, तब तक केवल वकोक्तिचतुराई- पूर्ण कुटिल वचनालाप - मात्र से अथवा केवल स्वभावाख्यान ( लज्ञापूर्वक मनोवृति का अर्पण ) १-- अतिशयालंकार । २--उपमालंकार | ३ - उपमालंकार | ४- अतिशयालंकार। ५- तालंकार | Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অয়ালিকা भयुधम्युक्तियुनिजे रुबीनामुत्सबो महान् । गुणाः किं न मुवर्णस्य व्यज्यन्ते निकोपळे ॥२८॥ भवकापि स्वयं लोक काम कात्यपरीक्षकः । रसमाकानभिशाप भोना वेसिन कि रसम् ॥२९॥ स्या वस्तुः श्रमः सो निर्विचारे नीचरे । प्राज्यभोग्यविधिः कः स्यातणस्वादिनि देहिनि ॥३०॥ या पार्थिवस्वसामान्यामागियारमसमागमः । पार्थिदः पार्थिवो ननं वृथा तत्र कः श्रमः ॥३१॥ अहलावहिरो गपयाः प्राणान्यपरिमहात् । स्वयं विचारशून्यो हि प्रसिदया रज्यते जनः ॥३२॥ यः स्वयं करते नैव यशोतो मूढधीश्वरः । मरणादपि दुःखाय कापकीर्तिस्तयोः पुरः ॥३३॥ असारं भवेद्रस्न बहिः कात्रं च कुन्धरम् । यथा तथा करेः काव्यमको विभाज्यताम् ॥३४॥ निःसार पदार्थस्य प्रायगारम्परो महान् । न हि स्वर्गे निस्तारसे याक् प्रजायते ॥३५॥ मात्र से प्रेमी के हृदय में प्रेम उत्पन्न नहीं करती जय तक कि वे उक्त दोनों गुणों से विभूषित नहीं होती। ॥२७ ।। विद्वान् न होनेपर भी काव्यरचना की युक्ति में निपुणता प्राप्त किये हुए कवि से भी विद्वानों को विशेष आनन्द प्राप्त होता है। क्योंकि क्या कसोटी के पत्थर पर सुवर्ण के गुण (पीवत्वादि) प्रकट नहीं किये जाते ? अवश्य प्रकट किये जाते है । जिसप्रकार शकर की पाक विधि से अपरिचत होने पर भी उसका आस्वाइन करनेवाला मानव क्या उसके मधुर रस को नहीं जानता? अवश्य जानता है। उसीप्रकार जनसाधारण स्वयं कवि न होने पर भी कवि की कृतियों-काव्यों को सुनता हुआ उनके गुण दोष का जाननेवाला होता है ।। २९ ।। जिसप्रकार घास खानेवाले पशु के लिए अधिक घीवाले भोजन का विधान निरर्थक है उसीप्रकार विचार-शून्य-मूर्ख-राजा के उद्देश्य से कचिद्वारा किया हुआ समस्त काव्यरचना का प्रयास व्यर्थ है ॥३०॥ पृथिवीस्वधर्म की समानता समझकर माणिक्य और पाषाण के विषय में समान सिद्धान्त रखनेवाला-रत्न और पत्थर को एकसा समझनेवाला ( मूर्ख)-राजा निश्चय से मिट्टी का पुतला ही है अतः उसके लिए कवि को काव्यकला का प्रयास करना निरर्थक ही है." ।। ३१॥ लोक में कवि की रचनाएँ प्रायः करके विद्वानों द्वारा स्वीकार की जाने पर जब प्रसिद्धि प्राप्त कर लना है, तभी वे जनसाधारण द्वारा उस प्रकार माननीय हो जाती है-अमुक कब का कृति विहन्नन पड़ते हैं, अतः वह अवश्य सर्वश्रेष्ठ होगी-जिसप्रकार स्त्री प्रायः करके राजा द्वारा पाणिग्रह न की जाने पर ख्याति प्राप्त कर लेने से सर्वसाधारण द्वारा माननीय समझी जाती है-अमुक श्री राजा साहब की रानी हूँ : इसलिए. यह अवश्य अनोखी व विशेप सुन्दरी होगी। क्योंकि निश्चय से जन-समूह विवेकहीन होने के कारण प्रसिद्धि का आश्रय लेकर किसी वस्तु से प्रेम प्रकट करता है ॥३२॥ जो म्बयं नवीन कायरचना नहीं करता एवं जो दूसरे कवियों के काव्य नहीं पढ़तामूर्ख है-ऐसे दोनों मनुश्यों के सामने काव्य की प्रशंसा करना मरण से भी अधिक कष्टदायक है। विशेषार्य–विसप्रकार अन्य के सामने नृत्य कलाका प्रदर्शन, बहिरे को कर्णामृतप्राय मधुर संगीत सुनाना एवं सखी नदी में सरना कष्टदायक है उसी प्रकार काव्यरचना व काव्यशाख से अनभिज्ञ-मुखें- के समक्ष काव्य की प्रशंसा करना भी विशेष कष्टदायक है ।। ३३ ।। जिसप्रकार रत्न भीतर से श्रेष्ठ (बहुमूल्य) और काच बाहिर से मनोहर होता है उसीप्रकार क्रमशः सुकावे व कुकाये की रचनाओं में समझना चाहिए ॥३४॥ तुच्छ वस्तु में प्रायः करके विशेष प्राडम्बर पाया जाता है। उदाहरणार्थ-जैसी ध्वनि काँसे में होती है, वैसी सुवर्ण में नहीं होती ।। ३५ || काव्यशान्त्रों की परीक्षाओं में उन सज्जनपुरुषों को ही साक्षी ५-पमालंकार । २- आपालंकार। -क्तिनाम. आक्षेपालंकार। ४-साक्षेपालबार । ५पसंहार । -अर्थान्तरन्यासालंकार । -माति-अलंकार । ८-उपमालंकार। -ष्टान्तालंकार । LAATTA Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास काव्यकथासु न एत्र हि कयाः साक्षिणः समुद्रसमाः । गुणमणिमन्तनिदधति दोषमलं ये बहिन कुर्वन्ति ॥३६॥ भआत्मस्थितेर्वस्तु विचारणीयं न जानु जात्यन्सरसंश्रयेण । वर्गनिर्वर्णविधौ धानां सुवर्णवर्णस्य सुधानुषन्धः ॥३४॥ गुमेषु ये दोषमनीषयान्धा दोपात् गुणीकर्तुमभेशते का । श्रोतुं कवीनां वचनं न तेऽहां सरस्वतीदोहिपु कोधिकारः ॥३८॥ - अयं कविष कविः किमत्र हेतुप्रयुक्ति कृतिभिविधेया। श्रोनं मनश्शात्र यतः समर्थ वागर्थयारूपनिरूपमाप ||३॥ कवितायै नमस्तस्यै सदसोल्लासिताशयाः। कुर्वन्ति कवयः कोसिलता लोकान्तसंश्रयाम् ॥४॥ निद्रा विदूस्यसि शास्त्ररस रुगत्सि सर्वेन्द्रियार्थमसमर्थविधि विधस्से । घेता विभ्रमपसे कविते पिशाचि लोकस्तथापि सुकृती त्वदनुग्रहेण ॥११॥ (परीक्षक ) नियुक्त करना चाहिये, जो समुद्र के समान गम्भीर होते हुए गुण ( माधुर्यादि ) रूप मणियों में अपने हृदय में स्थापित ( ग्रहण ) करते हुए काव्यसंबंधी दोपों-( दुःश्रवत्वादि) को बाहिर निकाल दत है-उनपर दृष्टि नहीं डालते ॥ ३६॥ परीक्षक को परीक्षणीय वस्तु, (काव्यादि) की मर्यादा या स्वरूप के अनुसार परीक्षा करनी चाहिए। उसे कभी भी परीक्ष्य वस्तु में अन्य वस्तु का आश्रय लेकर परीक्षा नहीं करनी चाहिए। उदाहरणार्थ-तर्कशास्त्र की परीक्षा-विषय में व्याकरण की परीक्षा और व्याकरण शास्त्र के विषय में तर्कशास्त्र की परीक्षा नहीं करनी चाहिए। किन्तु परीक्ष्य वस्तु की मर्यादा करते हुए-तर्क से तर्क की, व्याकरण से व्याकरण की और काव्य से कान्य की परीक्षा करनी चाहिए। उदाहरणार्थ चाँदी की परीक्षा विधि में सुवर्ण के पीतत्यादि गुणों का प्राक्षेप करना - प्रस्तुत चाँदी में सुवर्ण के अमुक असाधारण गुण नहीं हैं, इसलिए यह चाँदी सही नहीं है-विद्वानों के लिए निरर्थक है। निष्कर्ष - प्रस्तुत यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य के गुणादि की परीक्षा अन्य काव्यग्रन्थों से करनी चाहिये, जिसके फलस्वरूप यह बेजोड़ प्रमाणित होगा ॥ ३७ ।। जो मानव, काव्य शास्त्र के दोषों ( खंडितत्वादि ) को जानकर उसके गुणों 'माधुर्यादि) में विचार शून्य है-काव्य गुणों की अवहेलना करते हैं अथवा जो दोषों को गुण बनाने में समर्थ हैं, वे काव्य-शास्त्र के सुनने लायक नहीं। क्योंकि सरस्वती (द्वादशाङ्गश्रुतदेवना) से द्रोह करनेवालों को शास्त्र श्रवण करने का क्या अधिकार है ? कोई अधिकार नहीं' [1३८॥ क्योंकि जब काव्यसंबंधी शब्द और अर्थ (काव्यवस्तु) के स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए क्रमशः श्रेग्नेन्द्रिय और मन समर्थ है। अर्थात् जब श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा काव्य के शब्दों का और मन द्वारा उसके अर्थ का बोध होसकता है तष 'यह सुकाय है और श्रमुक कवि नहीं है इस प्रकार के वचनों का प्रयोग-जिना द्वारा गण-दोष का निरूपण करनाक्या विद्वानों को प्रस्तुत काब्य ( यशस्निलक) में करना चाहिए? नहीं करना चाहिए। (क्योंकि निराधार पंचनमात्र से काव्य की परीक्षा नहीं होती ) ॥ ३६ ।। उस सुकवि के काव्य के लिए, जिसके रस से शिवा हर्ष को प्राप्त कराया गया है चित्त जिनका ऐसे विद्वान् कथि, अपनी कीर्तिरूप लता को तीनलोक के अन्त तक व्याप्त होनेवाली-अत्यधिक विस्तीर्ण करते हैं, हमारा नमस्कार हो ॥४०॥ हे कविते! व्यन्तरि। तू कधि की निदा भङ्ग करती है, उसके न्याय-व्याकरणादि शास्त्रों के रस को ढकती है उसमें प्रतिबन्ध ( बाधा ) डालती है, एवं उसके समस्त इन्द्रियों ( स्पर्शनादि) के विषयों ( स्पर्शादि) की शक्ति को सीण करती है तेरे में संलग्न हुए कवि की समस्त इन्द्रियों के विषयों को उपभोग करने की . १-उपमालंकार। २-दृष्टान्तालंकार । ३-आक्षेपालंबार । ४-यथासंख्यालंकार । ५–अतिशय । रूपालंकार का संकर। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कृतमविषिस्तरेण । अस्ति खल्वित्र सकलायकपाने भरसक्षेत्रे चतुर्वर्गमार्गणीपकरणप्रसूतः समरसप्रशस्समहीपलवाकरणभूता सुरलोकममोरथाविधेयो योथेयो नाम धाम सम्पदो जनपदः । ... पन महानृपतय इष गोमण्डलचन्ता, सहवर्तिश्रिय हर महिषीसमाकुलाः, भरत प्रयोगाइब सगम्भोः , सुगतागमा इवाविकपप्रधानाः, कामिनीनितम्या इव करभोरखः, भुतय इवाजसंजनितविस्ताराः, श्रमणाइव जातरूपधारिणः, गृहस्पतिमीतर लाखमालका: शक्ति क्षीण होजाती है एवं तू चित्त को प्रान्त करती है। इसप्रकार तेरे में यद्यपि उक्त अनेक दोष पाए जाते हैं, तथापि कवि तेरी कृपादृष्टि से विद्वान व पुण्यशाली होजाता है। ॥ ४१ ।। उक्त यात का अधिक विस्तारपूर्वक निरूपण करने से कोई लाभ नहीं, अतः इतना ही पर्याप्त है। निश्चय से इसी जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र (आर्यखण्ड) में, जो कि समस्त आश्चर्यो ( केवल झान की उत्पत्ति-श्रादि कौतूहलों ) का एकमात्र अद्वितीय स्थान है, ऐसा 'यौधेय' नाम का देश है, जिसमें समस्त पुरुषाथों ( धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष) को प्राप्तकरानेवाली कारणसामग्री (द्रव्य, क्षेत्र व कालादि) की उत्पत्ति पाई जाती है, जो समस्त प्रशंसनीय पृथिवी मण्डलों का आभूषणसदृश है एवं समस्त सुख-सामग्री से भरपूर होने के फलस्वरूप जहाँ पर प्रजाजनों द्वारा स्वर्गप्राप्ति की कामना नहीं कीजाती और जो धनादि लक्ष्मी का निवास स्थान है। जिस यौधेय देश में ऐसे ग्राम है अहाँके ग्राम महान राजाओं के समान गेमण्डलशाली हैं। अर्थात्-जिसप्रकार महान् राजालोग गोमण्डल ( पृथियीमंडल ) से संयुक्त होते हैं, उसीप्रकार प्राम भी गो-मंडलशाली हैं। अर्थात गार्यों के समूह से अधिष्ठित है। जो, चक्रवर्ती की लक्ष्मी के समान महिषी-समाकुल है। अर्थात-जिसप्रकार चक्रवर्ती की लक्ष्मी महिषियों-पट्टमहादेवियो-से सहित होती है, उसीप्रकार प्राम भी महिषियों -- भैंसोंसे व्याप्त है। इसीप्रकार जो, संगीतशास्त्रों के समान गन्धों से सुशोभित हैं। अर्थान्-जिसप्रकार संगीतशास्त्र गन्धर्यो ( संगीतज्ञों) से मण्डित-विभूपित-होते हैं. उसीप्रकार प्राम भी गन्धर्चा- घोड़ोंसे मण्डित है। जो बौद्ध शास्त्रों के समान अविकल्प प्रधान हैं। अर्थात्-जिसप्रकार बौद्धशास्त्र क्षणिकवादी होने के कारण प्रधान । प्रकृति-कर्म) एवं स्वर्ग व पुण्य-पापादि के विकल्प (मान्यता) से शून्य हैं अथवा निर्विकल्पकज्ञान की मुख्यताशाली हैं। उसीप्रकार ग्राम भी अविकल्प-प्रधान हैं। अर्थात्-- जिनमें प्रधानता (मुख्यता) से अधि-मेढाओं का समूह वर्तमान है। जो कामिनियों के नितम्बों ( कमर के पीछे के भागों के समान करभोरू हैं। अर्थात् जिसप्रकार त्रियों के नितम्ब, करम के समान जाँघों से युक्त होते हैं, उसीप्रकार प्राम भी करम-ऊरू अर्थात् अटों से महान् है। जो वेदों के समान अजसंजनित विस्तार हैं। अर्थान-जिसप्रकार वेद, अज- ब्रह्मा-से भलीप्रकार किया है विस्तार जिनका ऐसे हैं, उसीप्रकार प्राम भी अजों-बकरों-से भलीप्रकार किया गया है विस्तार जिनका ऐसे हैं। जो, दिगम्बर मुनियों के समान जातरूपधारी हैं। अर्थात्-जिसप्रकार विगम्बर साधु जातरूप-नग्नवेष- के धारक होते हैं, उसीप्रकार प्राम भी जातरूप-सुवर्ण - के धारक हैं। जो चार्वाक ( नास्तिकदर्शन ) के शास्त्रों के समान अदेवमातृक है। अर्थात्-जिसप्रकार १--विषमालंकार अथवा व्याजस्तुति । २-'मणिबन्धादाकनिष्ठं करस्य करभी वहिः' इत्यमरः । कलाई से लेकर छिगुनी तक हाय फी शहिरी कोर को करभ कहते हैं। चढ़ाव उतार के कारण स्त्री की जाँच के लिए कवि लोग इसकी उपमा देते हैं। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास भागवता इव प्रतिपद्मकृष्णभूमयः, सांख्या इव समाभितप्रकृतयः, हरमौत व सुभाः, संक श्व हुलबहुलाः ग्रह्मवादा पत्र प्रथितासमा महायोगिन हर क्षेत्रप्रतिष्ठाः सलिलमभिषय इव विद्रुमको स्वर्गत इवातिथिप्रार्थ न मनोरथाः, गगनसान इव मक्षत्रविराजिनः कलत्रकुचकुम्मा इव मकरसंचा € चाक के शात्र अदेवमातृक अर्थात् देव ( सर्व-ईश्वर) और माता - श्रात्मद्रव्य -- की मान्यता से शून्य हैं उसीप्रकार प्राम भी श्रदेष - मेघ वृष्टि (वर्षा) के अधीन नहीं है-रिइटबहुल है-अर्थात् वहाँ के लोग नहीं तालाब आदि की जलराशि से उत्पन्न हुई धान्य से जीविका करते हैं, न कि दृष्टि की जलराशि से । जो वैष्णवों की तरह प्रतिपन्नकृष्णभूमि हैं । अर्थात् – जिसप्रकार वैष्णव लोग कृष्णभूमिद्वारिका क्षेत्र में छह माह पर्यन्त निवास करते हैं, उसीप्रकार ग्राम भी प्रतिपद्मकृष्णभूमि हैं। अर्थात् जिनकी कृष्णभूमि - श्यामवर्णवाली खेतों की भूमि कृषकों द्वारा स्वीकार की गई है ऐसे हैं। जो सांख्य दर्शन के समान समाश्रित प्रकृति हैं । अर्थात् जिसप्रकार सांख्यदर्शनकार प्रकृति ( सत्व, रज, चौर राम इन तीन गुणरूप चौबीस भेदयुक्त प्रधान तत्व ) स्वीकार करते हैं उसीप्रकार ग्राम भी समादि प्रकृति है । हलजीविक आदि १८ प्रकार की प्रजाओं से सहित हैं। जो श्रीमहादेव के मस्तक-समान सुलभ जलशाली हैं । अर्थात् जिसप्रकार महादेवका मस्तक गङ्गा को धारण करने के कारण सुलभ जलशाली है उसीप्रकार गावों में भी जल सुलभ हैं । अर्थात् - वहाँ मरुभूमि (मारवाड़) की तरह पानी कठिनाई से नहीं मिलवा । जो बलभद्र की युद्धकीड़ाओं के समान दलबहुल हैं । अर्थात् जिसप्रकार बलभद्र की युद्धक्रीड़ाएँ, इलायुधधारी होने के कारण हल से बहुल ( प्रचुर - महान ) होती हैं. उसीप्रकार ग्राम भी कृषि प्रधान होने के कारण अधिक हलों A से शोभायमान हैं। इसीप्रकार जो वेदान्तदर्शनों की तरह प्रपश्चित आराम है अर्थात्जिसप्रकार वेदान्त दर्शन प्रपचित-विस्तार को प्राप्त कीगई है आराम - विद्या ( ब्रह्मज्ञान ) जिनमें ऐसे हैं उसीप्रकार ग्राम भी विस्तृत हैं आराम (उपवन-बगीचे) जिनमें ऐसे हैं । जो महायोगियों -- गणधरादि ऋषियों के समान क्षेत्रप्रतिष्ठ हैं। अर्थान् -जिसप्रकार महायोगी पुरुष क्षेत्रज्ञ - आत्मा -- में प्रसिष्ठ - लीन होते हैं, उसीप्रकार ग्राम भी क्षेत्रों-हलोपजीवी कृषकों की है प्रतिष्ठा (शोभा) जिनमें ऐसे हैं। जो समुद्रों के समान विद्रुमच्छन्नोपशल्य है । अर्थात् जिसप्रकार समुद्र, विद्रुमों-मूंगों से व्याप्त है उपशल्य - प्रान्तभाग-- जिनका ऐसे हैं, उसी प्रकार प्राम भी विद्रुम-विविध भाँ के वृक्षों अथवा पक्षियों से सहित वृक्षों से व्याप्त हैं उपशस्य ( समीपवर्ती स्थान जिनमें ऐसे है । इसीप्रकार जो स्वर्गभवनों के समान अतिधिप्रार्थनमनोरथ हैं । अर्थात् जिसप्रकार स्वर्गभवन, अतिथि— कुशनन्दन कल्याण व वृद्धि) की प्रार्थना का है मनोरथ जिनमें ऐसे हैं, अथवा तिथि ( दिन ) की प्रार्थना का मनोरथ किये बिना ही वर्तमान हैं उसीप्रकार ग्राम भी अतिथियों साधुओं अथवा अतिथिजनों की प्रार्थना का है मनोरथ जिनमें ऐसे हैं जो आकाश के मार्ग समान नक्षत्र द्विजराजी है। अर्थात्-जिसप्रकार आकाश मार्ग नक्षत्रों (अश्विनी व भरणी आदि नक्षत्रों या ताराओं और द्विजों (पक्षियों) या द्विजराज (चन्द्र) से शोभायमान हैं. उसीप्रकार ग्राम भी नक्षत्र-द्विजों— अर्थान् सत्रिय और ब्राह्मणों से शोभायमान नहीं हैं किन्तु शूद्रों की बहुलता (अधिकता) से शोभायमान हैं। जो कमनीय कामिनियों के कुल कलशों के समान भतृ कर संबाधसद हैं । अर्थात् – जिसप्रकार कमनीय कामिनियों के कुचकलश भर्तृकर संबाध (पति के करकमलों द्वारा किये जानेवाले मर्दन को सहन करते हैं उसीप्रकार ग्राम भी भर्तृ कर संबाध -राजा द्वारा लगाए हुए टेक्स की संबाध (पीड़ा ) --- को सहन करने हैं। 1 } कृषि करने वा यन्त्र विशेष । २ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सुरेचरसेना इव स्वाम्परा राज्यविसः । निकम मालाः, वियतापगाप्रवाहा हब विगतोपल सीमानः, सकराजगनिर्माणप्रदेशा एव सर्वजीविनः, सुद इच च परस्परप्रेमाभिजात्याः कुक्कुटसंपात्याः सन्ति मामाः । अपि च विचकोस्परस्पन्दितरलेक्षणाः केष्टितालक्यणत्कनकमयकरणाः सरसनवराजिविरुद्धस्तिभुजमण्डलाः कानिकोल्लासवशवशिसोरुस्थलाः स्वैरसंजाल्पनस्मेरसिम्बाधराः कर्णकण्डमिषोदलितकक्षान्तराः पृथुनितम्बवशस्पटलरहगतिविक्रमाः सहजशकाररसभरिसमुखविनमाः पीनकुचकुम्भदर्पसुटरकञ्चकाः शालिवप्रेषु यादयः क्षय गोपिका: पान्यसाथषु मदनोत्सवं कुर्यते यत्र साप पुननिरमपाचिन्वते । जो इन्द्र की सेना के समान स्वामी में अनुरक्त हैं। अर्थात्-जिसप्रकार इन्द्रकी सेना तारक का घर करने के लिए स्वामी कार्तिकेय-से अनुरक्त-प्रेम करने वाली है, उसीप्रकार ग्राम भी स्वामी-पालक राजा में अनुरक्त है। जो अच्छे राजा के दिनों के समान जिनका महीभाग निकरटक है। अर्थात-जिस प्रकार अच्छे राज्य के दिनों में भूमि के प्रदेश निकण्टक-क्षुद्रशत्रुओं से रहित होते हैं उसीप्रकार प्रामों में भी भूमि के प्रदेश निष्कण्टक-वेर वगैरह काँटों वाले वृक्षों से शून्य हैं। इसोप्रकार जो गङ्गानदी के प्रवाहों के समान विगत-उपल-सीमाशाली हैं। अर्थात्-जिसप्रकार गङ्गा नदी के प्रवाह वि+गत+उपल सीमाशाली है, अर्थात्-हंस, सारस व पक्रयाक आदि पक्षियों से प्राप्त कीगई है गण्डशैलों-चट्टानवाले पर्वतों-की सीमा जिनमें ऐसे हैं, उसीप्रकार प्राम भी विगल-उपल सीमाशाली है. अर्थात-पापाणों से शून्य सीमा से सुशोभित हैं। जो समस्त जगत ( अधोलोक, ऊर्ध्वलोक मध्यलोक ) के निष्पादन प्रदेशों के समान सर्पजीवी है। अर्थात्-जिसप्रकार समस्त जगत के निष्पादन स्थान ( ऊर्ध्वलोक-आदि) समस्त चतुर्गति का प्राणी-समूह है वर्तमान जिनमें ऐसे हैं उसीप्रकार ग्राम भी सर्व जीबी-सः जीव्यन्ते भुज्यन्ते, सर्वान् जीययन्ति वा, अर्थात् समस्त राजा व तपस्वी आदि द्वारा जीविका प्राप्त किये जानेवाले अथवा सभी को जीवन देनेवाले हैं। एवं जो मित्रों सरीखे पारस्परिक स्नेह से मनोहर है। अर्थान्जिसप्रकार मित्र पारस्परिक प्रेम से सुन्दर मालूम होते हैं, उसीप्रकार प्राम भी ग्रामीणों के पारस्परिक प्रेम से मनोहर हैं। एवं जो इतने पास-पास बसे हुए हैं, कि मुर्गों द्वारा नड़कर सरलता से प्राप्त किये जाते हैं। जिस यौधेय देश में धान्य के खेतों में गमन करती हुई ऐसी गोपियाँ-ग्वालने अथवा कृषकों की कमनीय कामिनियाँ-एक मुहुर्त पर्यन्त पान्थ-समूह-बटोहीसंघ-के नेत्रों को आनन्द उत्पन्न करती है, परन्तु पश्चात् वियोग-वश जीवनपर्यन्त विप्रलम्भ (वियोग) से होनेवाले सन्नाप को पुष्ट करती हूँ-वृद्धिगत करती हैं। जिनके चखाल नेत्र, फर्णमण्डल के आभूपणरूप विकसित कुवलयों-नीलकमलों से स्पर्धा करते हैंजनके समान है। जिनके सुवर्ण-घटित कङ्कण क्रीड़ावश परस्पर के करताड़न से शब्दायमान होरहे हैं, जिनकी भुजाओं के प्रदेश । स्थान), प्रियतमों द्वारा नकाल में दीगई --कीगई–सरस-सान्द्र (गीली) नस्य-क्षत की रेखाओं से कर्बुरित ( रंग-बिरंगे हैं। जिन्होंने कमर की करधोनियों को ऊँचा उठाकर अपनी जंघाओं के प्रदेश दिखाये हैं। जिनके विम्यफल सरीखे ओष्ठ परस्पर में यथेष्ट वार्तालाप करने के फलस्वरूप मन्द हास्य से शोभायमान होरहे हैं, जिन्होंने कानों को खुजाने के बहाने से अपने बाहुमूल के प्रदेश दिखलाये हैं। जिनके मनोहर गमनशाली पादाक्षेप---चरणकमलों का स्थापन-विस्तीर्ण ( मोटे) नितम्बों-- कमर के पीछे के हिस्सों के कारण स्खलन कर रहे हैं, जिनके मुख-कमलों का विभ्रम . (हार-बिलास प्रथया भ्रकुटि-संचालन ) स्वाभाविक शृङ्गाररस के कारण भरा हुअा है एवं जिनकी काँचली (स्तन वस्न) पीन ( स्थूल ) कुचकलशों (स्तनों) के भार की वृद्धि से फट रहे हैं। १, श्लेष उपमा व समुच्चयालंकार। २, शहाररसप्रधान विप्रलम्भसंदर्शित जाति-आलंकार । | Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास स यौधेय इति क्यातो देशः शेऽस्ति भारते । देवश्रीस्पर्षया स्वर्गः स्वाट्रा मध वापरः ॥ १२ ॥ धपत्रक्षेत्रसंजातसस्यसंपतिवन्धुराः। चिन्तामणिसमारम्भाः सन्ति यत्र क्युन्धराः ॥ ३ ॥ लखने यन्त्र नोलस्य लनस्यन बिगाने । विगारस्य च धाम्यस्य नालं संग्रहाणे प्रजाः ॥ ५॥ दामेन वित्तानि धनेन यौवनं यशोभिरापि गृहाणि चार्थिमिः । मजन्ति सांकमिमानि वेहिनां न यत्र वर्णाश्रमधर्मचर:४५ तन्न तविलासिनीविलासकालसमासामाममरकुमारकाणामनालाचे नमस्तरणमार्मचिनिनिमिः, उपहसिसमिसिएगिरिहरावलशिखः, अनितटनिविविकटटोस्पाटकरटिरिपुसमीपसंचारचाकलचन्तुमागविलोचनरूचिकिचालयोपहा. रिभिः, अहमस्थनुसाच रणाक्षुण्णमासमायविक्रमः, अम्बरपरचमूविमानगतिवकिमविधायिभिः, अनवरतत्रिदर्शनास भरतक्षेत्र में प्रसिद्ध यह 'यौधेय' देश अत्यधिक मनोहर होने के फलस्वरूप सा प्रतीत होता था-मानों-अशा इन्द्र की लक्ष्मो से इंश्यों करके दृसरे स्वर्ग का ही निर्माण किया है । यहाँ की भूमियाँ, अत्यधिक उपजाऊ खेतों में भरपूर पैदा होनेवाली धान्यसम्पत्ति से मनोहर और चिन्तित वस्तु देने के कारण चिन्तामणि के समान आरम्भशाली थी ।।४३।। जहाँपर ऐसी प्रचुर--महानधान्य सम्पत्ति पैदा होती थी, जिससे प्रजा के लोग बोई हुई धान्यगाशि के काटने में और काटी हुई धान्य के मर्दन करने में तथा मर्दन की हुई धान्य के संग्रह करने में समर्थ नहीं होते थे ||४४ा जहाँपर प्रजाजनों की निम्न प्रकार इतनी यस्नु परस्पर के मिश्रण से युक्त थीं। यहाँ धनसंपत्ति पात्रदान से मिश्रित थी। अर्थात् यहाँ की उदार प्रजा वान-पुण्यादि पवित्र कार्यों में खुब धन खर्च करती थी। इसीप्रकार युवावस्था धन से मिश्रित थी। अर्थात्-वहाँ के लोग जवानी में न्यायपूर्वक प्रचुर धन का संचय करते थे। एवं यहाँ की जनता का समस्त जीवन यशोलाभ से मिश्रित धा-यहाँ के लोग जीवन पर्यन्त चन्द्रमा के समान शुभ्रकीति का संचय करते थे। वे कभी भी अपकीति का काम नहीं करते थे। तथा वहाँ के गृह याचकों से मिश्रित थे, अर्थात् यहाँ के गृहों में याचकों के लिए यथेष्ट दान मिलता था। परन्तु वहाँपर वर्ण । ब्राह्मण व क्षत्रियादि ) व बाश्रम (ब्रह्मचारी व गृहस्थ-आदि ) में वर्तमान प्रजा के लोग अपने-अपने कर्तव्यों में लीन थे । अर्थात् एक वर्ण व आश्रम का व्यक्ति दृसरे वर्ण व आश्रम के कर्तव्य (जीविका-यादि ) नहीं करता था* ॥४५।। उस प्रस्तुत 'योधेय' देश में से चैत्यालयों से सुशोभित राजपुर नाम का नगर है। जो ( चैत्यालय ) ऐसे प्रतीत होते थे मानों-राजपुर की कमनीय काम नियों के बिलाम-कटाभ-विक्षेपरूप नेत्रों की चंचलता-देखने के लिए विशेष उत्कण्ठित चित्तवृत्तिवाल देवकुमारों को । कयोंकि स्वर्ग में देवियों के नेत्र निश्चल होते हैं ). आधार-शून्य आकाश में वहाँ से उतरने के मार्ग का बोध करानेवाले चिन्हों के योग्य जिनकी उज्वल कान्ति है। जिन्होंने अपनी उच्च व शुभ्र शिस्वरों द्वारा हिमालय व फैलाश पर्वत के शिखर तिरस्कृत कर दिये हैं। जिनमें ऐसे बिकसित मुबलयों से पूजा हो रही है जिनकी कान्ति, चायालयों की कटिनियों में जड़े हुपय जिनकी विस्तृत केसरों से व्याः श्रीवार प्रकट भिगोधर हो रही हैं ऐसे मणि-घटित कृत्रिम सिंहों के समीप में संचार करने में भावभीत म्हुग--जीवितसिंह की शंका से हरे हुए चन्द्र में स्थित मृग के नेत्रों के समान है। जो इतने ज्यादा ऊँचे हैं, जिससे ग्राकाश में गमन करने से थके हुग सूर्य के रथ मंबंधी घोड़ों के पैरों को एक मुहर्त के लिए जहाँपर पूर्ण विश्राम मिलता है। जो ( चैत्यालय ), देव और विद्याथरों की सेना के विमानों की गति को कुटिल करनेवाले हैं। जिनकी १. 'चरपासूण इति हरि ह. लि. सुटि. ( . घ.)नि पाः । २. उत्प्रेक्षाला। ३. उपमालंकार । ४. दीपकालंकार । ५. दीपकालंकार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये क्रान्तकामिनीकपोलप्रमस्वेदापनोदमन्दस्यन्वपताकाञ्च पचैः रचितापराधविरुद्वामाचरणानवनिलिम्पनी कनिकाय कृतकैताक कुतूहलित विस्मितसिद्धयुवतिभिः अतिषिध 'संचरस्तुतुन्दरीकरचापलुस काण्डचि मकरसम्भ स्तम्भकोत्तम्भितमणिमुकुरमुखावलोकना कुलकल केडिदियौः स्वस्तिरथविमानवाहू न संबाधानुबन्धिभिः अग्रश्न रत्नधयनिचिका चमकलश विसरविरल किरणआज मितान्तरिक्षलक्ष्मीनिवास विचित्रसिचयोलोचैः, अमृतकरात पस्पर्श ब्रुवचन्द्रकान्तसपप्रणा लोकलजाकासार सिममान त्रियद्विद्वारिणी विरह वैश्वानर कर्मम मेर शरीरयष्टिभिः भद्दिमधामसृष्णिसंधुक्षित विमरकान्तकि पिरिपर्यन्तस्फुरस्कृशानुक्रणविकास्यमानामरमुनिमध्याह्नदीपैः, अमलका मलासार विलस एकल हंसमिद्विगुणदुकुलांशु कमैजयन्तीसप्ततिभिः उपरिंतनतल उठा के बालकभयपकाय मानजय विजयपुर - स्सर पवनाशनैः उपान्तस्तुपभिपतत्पारावतपशिखरों पर वायु से मन्द मन्द फहराई आनेवाली ध्वजाओं के वस्त्रपल्लव निरन्तर आकाश में बिहार करते हुए विद्याधरों के समूह में प्रविष्ट हुई विद्याधरियों के गालों पर उत्पन्न हुए श्रमबिन्दुओं को दूर करते हैं। किये हुए अपराध ( अन्य स्त्री का नाम लेना आदि दोष ) से कुपित हुई कमनीय कामिनियों ( देवियों ) के चरणकमलों में नम्रीभूत हुए देवों के स्तुतिपाठक समूह द्वारा की हुई धूर्तता के देखने से पूर्व में आश्चर्य चकित हुई पश्चात् लञ्जित हुई और कुछ हँसी को प्राप्त हुई हैं सिद्धयुवतियाँ (अणिमा व महिमा आदि गुणशाली देवविशेषों की रमणीय रमणियाँ - देवियाँ जहाँपर ऐसे हैं । जहाँपर ध्वजाशाली स्तम्भों (खंभों ) के चित्र, प्रस्तुत चैत्यालयों के समीप संचार करनेवाली देवियों के कपड़ों की चपलता द्वारा नष्ट कर दिये गये हैं । उन रलमयी दर्पणों में, जो कि बहुत से ध्वजावाले खंभों के ऊपर स्थित छोटे खंभों के ध्वजादंडों पर बँधे हुए थे, अपना मुखप्रतिविम्ब देखने में संलग्न -- आसक्ती-मनोहर क्रीजावाले देवों के स्खलित ( नष्ट ) वेगवाले ( रुके हुए ) विमान वाहनों ( हाथी -आदि ) के लिए, जो चैत्यालय, निरन्तर कष्ट देने में सहायक थे (क्योंकि मणिमयी दर्पणों में अपना मुखप्रतिविम् देखने में आसक हुए देवरों द्वारा उनके संचालनार्थ प्रेरणा करनी पड़ती थी । जो ऐसे प्रतीत होते ये मानों— अनेक प्रकार के नवीन रत्न-समूह से जड़ित सुवर्ण कलशों से निकलकर फैलती हुई अविच्छिन्न किरणों की श्रेणी द्वारा जिन्होंने आकाशरूप लक्ष्मीगृह के पंचरंगे वस्त्रों के चदयों की शोभा उत्पन्न कराई है। जिनमें चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श द्वारा द्रवीभूत हुए-- पिघले हुए चन्द्रकान्तमणियों के प्रणाली -- जल निकलने के मार्गों से उछलते हुए जल समूह की प्रचुर जल वृष्टि द्वारा, विद्याधरियों की विरहरूप अभि की बाह से श्रङ्गाररूप हुई शरीरयष्टि सींची जा रही हैं। जिनमें सूर्य किरणों के स्पर्श से प्रज्वलित हुए. सूर्यकान्त मणियों के उपरितन भागों से उचटने वाले अभि के स्फुलिङ्गों— कणों द्वारा, सप्तर्षियों के मध्याह्नकालीन दीपक जलाए जारहे हैं । जिनमें निर्मल स्फटिक मणिमयी ऊपर की भूमियों पर कीड़ा करते हुए कलहंसों की श्रेणी द्वारा उज्वल दुपट्टों व शुभ्र ध्वजाओं के वस्त्र समूह दूने शुभ्र किये गये हैं । जिनमें ऊपर की भूमियों पर पर्यटन करते हुये मयूर बच्चों के डर से ऐसे सर्प, जिनमें जय व विजय ( आकाश में रहने वाले सर्प विशेष ) प्रमुख हैं, शीघ्र भाग रहे हैं । जिनमें, ऐसे धूप के बुओं का, जो कि समीपवर्ती कृत्रिम पर्वतों के ऊपर आती हुई कबूतर पक्षियों की श्रेणियों से दुगुनी विवाले किये गये हैं ( क्योंकि जंगली कबूतर धूसर ( धुमैले) होते हैं ), विस्तार २. 'मुखावलोकन के लिकल दिनांकः" इति क्योंकि सटीक मु० प्रति में 'जयविजयपुर १२ १. अतिविधरतिच' इति ह. लि. रादि ( च, घ) प्रतिषु पाट सटीक मुद्रित प्रती पाटः । ३. उक्त पाठ ह० लिं० सहि० ( रा ग च) प्रतियों से संकलन किया गया है। नाशनैः, ऐसा पात्र हैं, जिसकी अर्थ- संगति सही नहीं बैठती थी— सम्पादक Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्रश्वास १३ पङ्क्तिपुनरुक्तधूपधूमाडम्बरैः, अतिनिकट बिकोपपिष्टशुक्शावसंदिग्रमान हरितारुणमणिभिः इतस्ततोऽविदूरतरचर चाफमूदायाच्द्रायमानमेकर वनैः अनिलएलनिधिरवधूतित्रिचिभिः अनवधिसुधा प्रधाकामसंदिग्धस्वर्धुनी प्रवाहैः, प्रफुलस्तव कैरिवान्तरिक्षण, प्रेतदीपसृष्टिभिरिव रोदः कोटरस्य शिखण्डमण्डन पुण्डरीकानी केरित नभोदेवतामाः पुण्यपुओपार्जनक्षेत्रैरिक त्रिभुवनभव्यजनस्य, डिण्डीर पिण्डमण्डलैखि विहायः पारावारस्य, अडडासवास्विव्योमयोमकेशस्थ, स्फटिकोस्कीकी का कुत्कोचैरिव ज्योतिर्लोकस्य, ऐरावत कुलकलभैशिवानङ्गनर, समन्तादुपसर्प खानेकमाणिक्य रुचितर पसरेग परिकल्पयनिरिव विनेयजनानां त्रिदशवेश्मनिवेशारोहणाथ सोपानपरम्पराम अशेषस्य जगतः परलोकावलोकनोचित भावसंभारसारस्य संसारसागरोत्तारणपतपातैरिव विचित्रकोटिभिः कूटैर्घटनाश्रयां त्रियमुचैपाल पैरपरैश्चाटिरुत्तुङ्ग तोरणमणिमरीचिपिञ्जरितामर भवनं महाभागभवनैरुपशोभितं राजपुरं नाम नगरम् । 1 पाया जाता है। जिनमें, निकटवर्ती कपोत- पालियों पर बैठे हुए तोताओं के बच्चों से हरित व लाल मशियों की भ्रान्ति उत्पन्न हो रही है । जहाँ-तहाँ समीप में घूमते हुए नीलकंठ पक्षियों के पंखों से उत्पन्न होने वाली प्रचुर नील कान्ति से, जिनमें, इन्दुनील मणियों की कान्ति लुप्तप्राय होरही है । वायु के संयोगवश उत्पन्न हुए कम्पन से मधुर शब्द करती हुई । ( छोटी-छोटी ) घंटियों की श्रेणियों से वहाँ की पालिध्वजाएँ - चिन्ह शाली वस्त्रध्वजाएँ भी मधुर शब्द कर रही हैं उनके कलरषोंमधुर शब्दों को सुनकर जहाँ पर विद्याधरों की कमनीय कागिनियों द्वारा नृत्य विधि आरम्भ की गई है। जो सीमातीत वेमर्याद — फैलते हुए चूने के शुभ्र तेज से आकाश गङ्गा के प्रवाह का सन्देह उत्पन्न करते हैं। जो ऐसे प्रतीत होते हैं-मानों- - श्राकाश रूप वृक्ष के प्रफुल्लित पुष्पों के उज्वल गुच्छे ही हैं। जो ऐसे मालूम पड़ते हैं- मानों स्वर्ग और पृथिवीलोक के मध्य अन्तराल रूपी कोटर में जलते हुए उज्वल दीपकों की श्रेणी ही है। अथवा जो ऐसे प्रतीत होते हैं - मानों - आकाश रूप देवता के मस्तक को अलंकृत करनेवाले श्वेतकमलों की श्रेणी ही है । अथवा मानों - तीन लोक में स्थित भव्यप्राणियों के समूह की पुण्य समुदाय रूप धान्य के उत्पादक क्षेत्र - खेत ही हैं । अथवा जो ऐसे प्रतीत होरहे हैं-मानोंआकाशरूप समुद्र की फैनराशि के पुत्र ही हैं । अथवा मानों आकाशरूप शक्कर के महान् हास्य का विस्तार ही है । अथवा मानों - ज्योतिर्लोक - चन्द्र च सूर्य आदि के स्फटिकमणियों के ऐसे क्रीड़ा पर्वत हैं, जो कि टाँकियों से उकीरे जाने के कारण विशेष शुभ्र हैं। अथवा मार्नो – आकाश रूप वन के ऐरावत हाथी के कुल में उत्पन्न हुए शुभ हाथियों के बच्चे ही हैं । इसीप्रकार सर्वत्र फैलनेवाली अनेक रत्नों की कान्तिरूप तरों के प्रसार फैलाव से ऐसे प्रतीत होते हैं, मानों- भव्यप्राणियों को स्वर्ग में आरोहण करने के लिए, सीढ़ियों को रचना ही कर रहे हैं। अथवा ऐसे मालूम होते हैं-मानों - अखिल विश्व - समस्त भव्यप्राणी समूह — जो कि मोज्ञ में गमन के योग्य भावों- परमधर्मानुराग रूप भक्ति- श्रादि- के समूह से अतिशय - शाली - महान है, उसे संसार समुद्र से पार करने के लिए जहाज ही है । इसीप्रकार जो चैत्यालय, पाँच प्रकार के माणिक्यों से जड़ा गया है अप्रभाग जिनका ऐसी शिखरों से अनेक प्रकार की रचना सम्बन्धी शोभा को धारण करते हैं। उक्तप्रकार के चैत्यालयों से तथा ऐसे धनाव्यों के महलों से, जिन्होंने मेघ-पटल का चुम्बन किया है एवं जिन्होंने अस्यन्त ऊँचे मणिमयी दरवाओं के मणियों की किरणों से देवविमानों को पीतवर्णशाली किया है, सुशोभित राजपुर नाम का नगर है' । १. उत्प्रेक्षादिसं करालंकार । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ यशस्तिलका mere सर्वसारं विधिना दर्शवितस्य लोकस्य । अमरपुरीलक्ष्मी मम् सृहं प्रयशने ॥ ४६ ॥ समोसमर्थः प्रभवेस्कुस एक तत्र रिपुलोकः । टिस्पर्शभयादिव मध्ये प्राकारनिमणिम् ॥ ४७ ॥ परिचायक परकृतमाभाति समन्ततः पुरं रम्यम् आयसनिगदनिव सुरहरणभयादिव जमेन ॥ ४८ ॥ विष-सोधमूर्ध मत्रोकैः कुम्भाः काञ्चनकल्पिताः । भान्ति सिद्धवाः शेषाः सिद्धार्थका इव ॥ ४९ ॥ विलासिनीर्यत्र विनिर्माय न बोक्ने मनविभ्रमभीव व्यधावनगोचराः ॥ ५० ॥ एममध्वंसियुत्रलोकविलोकनात् भार सर्वदा म पुराणपुरुषी हृदि ॥ ५१ ॥ काकामिनी भयादिव नमात्मजा । विवेश हरदेश सदनवरा ।। ५२ ।। यत्र जानवर प्रसाधितालका मरोपकारैः, अलिका हूणरङ्गवङ्गारिताकोरिभि:, उपसर्पितविलासविकापाविरल हम ऐसी उत्प्रेक्षा करते हैं- जो राजपुर नगर अत्यन्त मनोहर होने के फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होता था मानों - मध्यलोक की जनता को स्वर्गपुरी की शोभा दिखने के लिए ही ब्रह्मा ने सर्वोत्कृष्ट वस्तुएँ ग्रहण करके अत्यन्त सावधानी से इसका निर्माण किया था |२४६|| जिस नगर को नष्ट करने के लिए जब यमराज भी समर्थ नहीं हैं तो उसे शत्रु-लोक किसप्रकार नए कर सकते हैं? तत्राऽपि - शत्रुकृत भय न होने पर भी प्राकार ( कोट की रचना में हम ऐसी कल्पता करते हैं कि धूलि द्वारा स्पर्श होजाने के डर से ही मानों - अर्थान - यह धूलि - धूसरित ( मलिन ) न होने पावे इसी हेतु से ही उसके चारों ओर फोट की रचना की गई थी* ||४|| चारों ओर खातिका - ( खाई ) मण्डल से विभूषित हुआ अतिशय मनोहर जो नगर सर्वत्र ऐसा शोभायमान प्रतीत होता था मानों अत्यन्त रमणीक होने के कारण - 'कहीं देषता लोग ईर्ष्या-वश इसे चुरा न ले जॉय' इस डर से ही वहाँ के पुरुषों द्वारा लोहे की सौंफल से जकड़ा हुआ शोभायमान होरहा था रे ||४८ || प्रस्तुत राजपुर में कुछ विशेषता है जहाँपर राजमहलों के उच्च शिखरों पर स्थापित किये हुए सुवर्णकलश ऐसे अधिक शोभायमान होते थे मानों- देवषिशेषों की कमनीय काभिनियों द्वारा आरोपित की गई मस्तकों पर सेपी गई - पीले सरसों की आशिकाएँ ही हैं क्योंकि शिकाएँ भी तो मस्तकों पर क्षेपी जाती है || ४६ ॥ जहाँ की कमनीय कामिनियाँ श्वनी अधिक खुबसूरत थी कि ब्रह्मा ने पहिले उन सुन्दरियों की रचना को सही, परन्तु पश्चात् उनकी जवानी अवस्था में उन्हें उसने अपने नेत्रों से नहीं देखा । क्योंकि मानों उसे अपने चित्त के चलायमान होने का भय था ॥ ५० ॥ कामदेव की सर्वोत्कृष्ट सुन्दरता के अभिमान को नष्ट करनेवाले वहाँ के अत्यन्त खुबसूरत नवयुवक समूह को देखने से ही मानों - पुराणपुरुष - श्रीनारायण ( श्रीकृष्ण ), अपनी प्रियतमा लक्ष्मी को हमेश अपने वक्षःस्थल पर धारण करते थे। ( क्योंकि मानों उन्हें इस प्रकार की आशङ्का थी कि कहीं हमारी लक्ष्मी यहाँ के सर्वोत्तम सुन्दर नवयुवकों को न चाहने लगे! क्योंकि अनोखे सर्वाङ्ग सुन्दर नवयुवक को देखकर कौन रमणीक रमणी पुराण पुरुष - जीर्ण वृद्ध पुरुष से प्यार करेगी * ॥ ५१ ॥ जिस नगर की कमनीय कामिनियों के साथ रति विलास करने की आशङ्का (भय) से ही मानों पार्वती परमेश्वरी, अपने प्रियतम शिवजी की रक्षा में तत्पर होती हुई – महादेव के व्यभिचार की आशङ्का से भयभीत होती हुई उनके आधे शरीर में प्रविष्ट हुई ।। ५२ ।। जिस राजपुर नगर में कामदेवरूप महाराज कुमार ने, मदनोत्सब के ऐसे दिनों में, ( श्रवण मास २. आक्षेप उत्प्रेक्षालंकार । ३. उरप्रेक्षालंकार । ४. उत्प्रेक्षा व उपमालंकार | ६. हनुगर्नितं त्प्रेक्षालंकार । ७. उमेशालंकार | १. कार ५. श्लेष व उत्प्रेक्षालंकार । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्राश्वास पिलोकविलोचनलीलाकमलैः, संकल्पितकपोललावण्यम समागमैः, विस्फारितामृतकान्तबिम्साघरसः, संजनितस्मरसाराला - कर्णपूरैः, उदारहारनिझरोचित्तचक्रोडावलविहारसंपादिभिः, स्तन मुकुलमृगालमीलावलिवाहिनीविहितजनकेलिविभ्रमः, प्रदर्शित मनोहंसावासनाभीवलमिगमः, प्रकटितवेतोबासनिवासशासनमसीलिमित्रतलिपिस्पर्धमानरोमराजिभिः, विस्तारितपमस्तमयसाम्राज्यविहजघनसिंहासनैः, संवारिताकदलीकाण्डकाननैः, घरणनग्नसंपादितरतिरहस्परपदापविरेचनैः पौरागनाजनैषिनोधमान इव मनसिजगहाराजनन्दनो निजारापरस्सरसेषवप्युस्स्वदिवसेषु न परपुरपुरन्ध्रीणामहणायु परिचयं कार । तत्र [चास्सि] समस्तमहीमहिला शिवण्डमण्दन करे पुरे पुतिनो हरिवंशजन्मनः प्रचण्डदोईपरमण्डलीमण्डन. मण्डलामावण्विारातिप्रकाण्डस्य चण्डमहासनस्य नृपतेःसूनुः पराक्रमापहसितनृगनलनहुषभरतभगीरथभगदत्तो मार (R) के कृष्ण व शुक्ल पक्ष की तृतीया व फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी ये मदनत्सव के दिवस कहे जाते हैं, क्योंकि इन दिनों में स्त्रियाँ नगर से बाहिर बाग-बगीचों में जाकर कोड़ा करती हुई कजली महोत्सब मनाती है) जो कि अपनी पूजा की जाने के कारण सरस-चित्त में उल्लास उत्पन्न करने वाले भी हैं, दूसरे नगर की खियों द्वारा की हुई अपनी पूजाओं का परिचय (जानकारी) प्राप्त नहीं किया। क्योंकि वहाँ पर ऐसा प्रतीत होता था मानों-यह-कामदेवरूप महाराजकुमार-प्रस्तुत नगर की ऐसी सुन्दर श्रीसमूहों द्वारा क्रीड़ा कराया जारहा था। जिन्होंने अपने केशपाशरूपचमरों की सेवा निरन्तर सुसज्जित की है। जिन्होंने ललाटरूप अङ्गण की श्रेष्ठ नाट्यभूमि पर अपने भृकुटीरूप लताओं के अग्रभाग सुसजित किये हैं। जिन्होंने ऐसे नेत्ररूप लीला कमल प्रदर्शित किये है. या निकट किये हैं, जो कि अपनी शोभा के विनस से निरन्तर की जानेवाली सुन्दर चिाया से मुक्तः है। जिन्होंने गालों की खुबसुरतीरूप मद्य अथवा बसन्त समागम की सुचारू रूप से रचना की है। जिन्होंने अमृत-समान अत्यन्त मने हर (मोठे) बिम्बफल सरीखे अपने श्रोठों का रस घिस्तारित किया है, अथवा प्रियतम को पिलाया है। जिन्होंने काम से उत्कृष्ट पार्तालापरूप कर्ण-आभूषग भली प्रकार स्थापित किया है। 'अर्थान् जो (स्त्री-समूह), कामोहीपक, सरस व विलासयुक्त मधुर भाषण रूप कर्णाभरण से विभूषित है। जो अत्यन्त मनोहर मोतियों की मालारूप झरनों से योग्यताशाली ( सुन्दर प्रतीत होने वाले ) स्तनरूप क्रीड़ा पर्वतों पर बिहार उत्पन्न करती है। जिन्होंने, स्तनरूप अविकसित (विना फूली हुई) कमल कलियों सहित मृगल की शोभा को धारण करनेवाली उदररेखारूप नदियों में जलक्रीड़ा का विलास किया है। जिन्होंने मनरूप हँस के नियास का कारण ऐसा नाभिपअर का मध्यभाग दिखाया है। जिन्होंने ऐसी रोमावली प्रदर्शित की है, जो कामदेव की वसतिका (निवासस्थान ) के निमित्त से लिखे हुए लेख या श्रादेश की अञ्जन-लिखित लिप के साथ स्पर्धा ( तुलना ) करती है। सिदोंने ऐसे नितम्बरूप सिंहासन प्रकट किये हैं. जो परिपूर्ण सुखरूपसाम्राज्य (चक्रवर्तित्व ) के प्रतीक है। जिन्होंने धारूप केलों के स्वम्भों के समूह का प्रदर्शन किया है एवं जिन्होंने चरणों के नखों द्वारा संभोग सम्बन्धी गोपनीय तस्य को प्रकाशित करने के हेतु मगियों के दीपकों की कल्पना सृष्टि उत्पन्न की है। समस्त पृथिवीरूपी कामिनी के मस्तक पर तिलकरचना करनेवाले ( सर्वश्रेष्ठ) उस पजपुर नगर में, पूर्वोपार्जित विशिष्ट पुण्यशाली, हरिवंश में उत्पन्न हुए एवं अपनी बलिप बाहदण्ड मण्डली को अलंकृत करनेवाले खड्ग द्वारा, शत्रुओं की प्रीया विदारण करनेवाले ( महान पराक्रमी ) ऐसे "चण्डमहासेन' नामक राजा का पुत्र 'मारिदत्त' नाम का राजा था, जिसने अपने महान पराक्रम द्वारा नग, नल, नहुष (यादवों * 'लापकलाप' इतिह.लि. सटिक (क-ग) प्रतिषु पाठः। १. 'महिलामण्डला इति. प्रतौपाठ: । २. 'चण्डम्ब चण्डमा' । 3. संस्ालंकार। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिल कचम्पूकाव्ये दो नाम राजा | बालका एमीसमागमः कुलवृद्धानां प्रतिपक्ष पितृधनसपोवन लोकस्वाजात विद्यावृद्धगुरुकुलपासनः समानशीलत्र्यसन चारित्र सचित्र परिवृतः समादिभवता च तासयीकेन वयसा निरङ्कुशतां नीयमानः, दस्वयं परिगृहीतवीरपरिका विधिः, उभयकः कश्राम्योन्याभिमुख निष्ठीन मक्शौर्यश्रीबेणिदण्डानुकारिणा दानद्रवेग श्यामतपोभितिभिः, मदिरामस्य । दोन्मत्रमधुकर राजन डिपिङमा डम्बरैः क्रोधानज्वालाकराललोचनापतिसकलदिक्पाल साध्वसः अनुरसारधिरथोन्माद्यमियो' दस्तद्दर व निष्ठुर मिट सम्धुपाथः प्रबाहलावितपुरसदनैः, का राजा ), भरत (ऋषभदेव के पुत्र ), भगीरथ ( सगरपुत्र ), और भगदत्त ( राजा विशेष ) - श्रादि पराक्रमी राजाओं को तिरस्कृत किया था । H जिसने वाल्यकाल में ही राज्यलक्ष्मी प्राप्त की थी। उसके कुलों (पिता व दादा आदि ) में से कुछ तो स्वर्गवासी और कुछ सांसारिक विषयों से बिरक होकर दीक्षित ( वपस्वी ) हो चुके थे इसलिए उसे शास्त्रज्ञान से महत्ता प्राप्त किये हुए गुरुकुल ( विद्वानों व प्रशस्त राजमन्त्रियों का समूह ) से शास्त्रज्ञान के संचय करने का अवसर ही नहीं मिल सका, जिसके फलस्वरूप ( मूर्ख रद्द जाने के कारण ) वह ऐसे भाणों के पुत्रों से जो इसी के समान दुष्ट प्रकृति, दुर्व्यसनी व दुराचारी थे, वेष्टित रहता थाउनका कुसन करता था। जिसके परिणाम स्वरूप युवावस्था के प्राप्त होने पर वह मारिदत्त राजा निरंकुश -- उच्कुल (सदाचार की मर्यादा को उड़न करनेवाला ) हो गया। नीतिनियों' ने भी कहा है कि “जवानी, धनसम्पत्ति, ऐश्वर्य और अज्ञान, इनमें से प्राप्त हुई एक-एक वस्तु भी मानव को अनयकुक्मों में प्रेरित करती है, और जिस मानव में उक्त चारों वस्तुएँ यौवन व धनादि - इडी मौजूद हो. उसके अनर्थ का तो कहना ही क्या है। अर्थात् उसके अनर्थ की तो कोई सीमा ही नहीं रहती । प्राकरणिक प्रवचन ग्रह है कि प्रस्तुत मारिदत्त राजा में उक्त चारों अनर्थकारक वस्तुओं का सम्मिश्रण था, इसलिए वह युवावस्था प्राप्त होने पर राज्यलक्ष्मी आदि की मदहोशी- यश कुत्सन में पड़कर निरंकुश ( स्वच्छन्द ) होगया था । वह ( मारिदस राजा ) कभी स्वयं बीरों का बाना ( शिरस्त्राण लेहटोप व बख्तर आदि ) धारण किये हुए किसी समय ऐसे हाथियों के साथ क्रीड़ा करता था। जिनकी गण्डस्थलभित्तियों, दोनों ( वाम और दक्षिण ) गण्डस्थलों के मध्यदेश में परस्पर सम्मुख बैठी हुई मनश्री मदजल रूप लक्ष्मी और शौर्यश्री के बँधे हुए केशपाश के समान [ मरने वाले ] मदजल से श्यामवर्णवाली होचुकी थी। जिन्होंने गण्डस्थलों से प्रवाहित मद ( दानजल ) रूप मदिरा की दुरव्यापी सुगन्धि का पान करने से हर्षित हुए भँवरों के शब्दों द्वारा पटों ( नगाड़ों की ध्वनि द्विगुणित दुगुनी ) अथवा निरस्कृत की है । } जिन्होंने क्रोधाग्नि की ज्वालाओं से भयानक नेत्रों द्वारा समस्त इन्द्रादिकों को अथवा शत्रुभूत राजाओं को भय उत्पन्न किया है। जिन्होंने सूर्य का रथ नीचे गिरा देने के छल से ऊपर उठाये हुए शुण्डाइण्ड (सूड़ों) से निर्भयता पूर्वक पट्टी कर (ड) लालारूप जलप्रवाह से देवविमान प्रक्षालित किये हैं । (क, ख, ग, घ ) प्रतियों में संकलन किया गया है । 'मिथोदरत' पाठ १ क शुद्ध पाठ हलिस सुप्रति में है, जो कि प्रत सम्पादक २, तथा च विष्णुशमां – यो नः प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयं ॥ १ ॥ 1 हितोपदेश से संकलित - सम्पादक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास करापलेपभयभ्रस्यदाशाकरटिवटर, प्रधानजवकम्पितञ्चरणिदेवतः, चरणम्यासनमदुगोलक [भार] दलितोषकमावली, प्रश्पकपुर:पक्षत्रमिप्रारम्भविजीभतप्रभवनजनितकुलशैलशिखरवियटन, कटकण्डूयनविनोदभनमहामहीपनिवाही, समस्यामा संमतुसोचछलफलोगितामयविधिमनोपहारसंतपितमपुरुष:, मनस्नु नृतसंहारसमरिख, दृणिषु क्सकालामिरिस, कमेषु विनिवेशितविशसनकर्मभिरिव, करेषु निहितवधक्रियापारित, पादेषु संपादिरावासपारित्र, बालधि , नियुकपमारिष निजमदगम्भानुबन्धवाधितापरहिरदमदमे स्यन्दनवेदमुपतिष्ठमानैः, मरशिरोदर्श प्रधाचनिः, सुरगालोकं पुरः प्रनिभासमानैः, सपनद्विपमाघाघ्रायं प्रक्षुभ्यनिः, प्रतिरोभमणिस्वभाव संरम्भमाणैः, झमेलकविषय विनिहन्धतिः, गोचरं परिलुम्पमानैः, प्रलयकालानिलयसिताचसकुलविभीषणः, प्रतिकरिशयन गिरिकलीलालुलितमहाखिलाशानिमिगणशैलेः, फरनिष्पारणपातिससालवनैः, दन्तकोसिमुत्पारितपुरकपाः, स्वकीयबलविजिज्ञापविमरव रविरपाड़म्बरं रदेषु जिनकी शुण्डादण्डों के संचार के भय से दिग्गजेन्द्रों के समूह इधर-उधर भाग रहे हैं। जिन्होंने शीघ्र गमन के बेग से पृथिवी की अधिष्ठात्री देवता काम्पत की है। जिन्होंने परों के स्थापन से झुक हुए पृथिवी मंडल के भार से धरणेन्द्र ( शेषनाग ) के फणामएडल चूणीकृत (चूर-चूर ) कर दिये हैं। पृष्ठभाग, अप्रभाग घ वाम-दक्षिण पार्श्व भागों के चक सरीखे भ्रमण के प्रारम्भ से बढ़ी हुई वायु द्वारा, जिन्होंने कुलपर्वतों के शिखर विघटित किये हैं। जिन्होंने गएडस्थलों की खुजली खुजाने की कीड़ा से विशाल वृक्षों के समूह तोड़ दिए हैं। जिन्होंने, समस्त प्राणियों का चूर्ण (घात) करने से अत्यधिक उछलते हुए खन की धाराओं की अखण्ड पूजा द्वारा राक्षसों को सम्तय किया है। जो ऐसे प्रतीत हो रहे थे-मानी-जिन्होंने अपने चित्तों में प्रलयकाल को ही स्थापित किया है। जो ऐसे मालूम पड़ते थेमानों-जिन्होंने अपने नेत्रों में प्रलयकालीन अग्नि व प्रलयकालीन रुद्र को ही धारण किया है। इसीप्रकार जो ऐसे ज्ञात होते थे-मानों-जिन्होंने दाँतों में हिंसा कर्म को ही आरोपित किया है। एवं मानों जिन्होंने शुण्जादण्डों में हिंसा करने का उपाय ही स्थापन किया है। एवं मानों-जिन्होंने पैरों में वनपात को उत्पन्न कराया है । अर्थात्--जिनके चरणों के निक्षेप से ऐसा प्रतीत होता था, मानों-बापान ही होरहा है। और मानों-जिन्होंने पूँछों में यमराज के दण्डों को ही स्थापित किया है। जिन्होंने अपने मदजज के गंध की निरन्तर प्रवृत्ति से दूसरे हाधियों का मद पीड़ित किया है। जो, रथ को भलीभाँति जानकर उसे भङ्ग करने के उद्देश्य से ग्रहण करने के लिए प्राप्त होरहे हैं। जो मानव का मस्तक देखकर उसपर हमला ( आक्रमण ) करने के हेतु उस ओर दौड़े आरहे हैं। जो घोड़ों को देखकर उन सहित रथों पर आक्रमणपूर्वक चमक रहे है। अर्थान्-उनके सामने टूट पड़ते हैं। जो शत्रुओं के हाथियों की मदांध सूंघकर क्षुभित हो रहे हैं। जो शत्रु संबंधी हाथियों के घंटास्फालन का शब्द सुनकर कुपित होरहे हैं। जो ऊँटों का स्थान स्वीकार कर रहें हैं। अर्थान्-जो आक्रमण-हेतु ऊँटों के सम्मुख प्राप्त होरहे हैं। जो छत्र-भङ्ग कर रहें है। जो, प्रलय कालीन प्रचण्ड वायु द्वारा उड़ाए हुए पर्वत-समूहों के समान भयंकर हैं। जिन्होंने गेंद की क्रीड़ा-समान सरलता पूर्वक उखाड़े हुए विशाल चट्टानों के खण्डों द्वारा क्षुद्रपर्वत इसलिए चूर-चूर किये हैं: क्योंकि मानों-उन्हें. उनमें-शुद्रपर्ववों मेंशत्रु-हाथियों की शक्का-भ्रान्ति-उत्पन्न होगई थी। शुण्डादरडों के ताड़न द्वारा जिन्होंने शालवृक्षों के वन जड़ से उखाड़ दिए हैं। जिन्होंने दाँतों के अग्रभागों द्वारा नगर के दरवाजों के किवाड़ तोड़कर नीचे गिरा दिये है। जो अपने पराक्रम का बोध (ज्ञान ! कराने की इन्छा से ही मानों-दम्तरूप मुसलों पर सूर्य-रथ को महान् धुरा का विस्तार धारण किये हुए हैं । १. ' विनः ' इति इ. लि. म. (क) पनी पारः | Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्विचम्पूकाव्ये शेषं पुष्करेषु मन्दराचलं शरीरेषु महापणाः कोशकटस्त्रोतस्सु सूर्य लोचनेषु तारामचं विम्बुषु च मखेषु पथ पराविपरोहणप्रणिधिभिः, बिसतन्तुवत् प्रतिनलिकैः वीरणप्ररोह वत्पर्य स्ववाहरिः, वातानत्रम्मचितवनैः प्रमदिवालास्तम्भैः घृणाला समितितार्गणैः कुमुदकाण्डवदुन्मूक्तिमिवाचे मुखपटाभोगवचगणितकरेणुभिः परमाणुच्छोचनगोपादपि दूरतरसंचरणारैः कर्मतालपवनपरिक्षिप्तदिगन्त धनसंपैः, गगनात्राभोरकृषितकर सूत्कारकम्पितमइकोकैः पशुप्रमाथोन्मथितमार्तण्डमण्ड पोपदेदिमसनभोभागः, बहावगाहकालिदेवते कामदारविहारविशासित बनदेवीसंदोहे, कि वेगवीथीपरिमाणैः शाम्या समप्रमासैरिव सकलागयतमानेतुं प्रवृतिः सामर्थः सह चिक्रीड | १८ " शरीरों पर सुमेरुपर्वत को, और लिङ्गमहानादयों को धारण करते हुए ही मानों नक्षत्र-मंडल को एवं नखों में चन्द्रमा को ने द्वारा महावतों के वचन प्रयोग इसीप्रकार जो शुण्डा दण्डों पर नागराज ( शेषनाग ) को, (जननेन्द्रिय) छिड़ों एवं गण्डस्थल प्रवाहों में गङ्गा व यमुना आदि प्रतीत हो रहे हैं। एवं जो नेत्रों में सूर्य को और मदविन्दुओं में और वेगों में वायु को स्थापित हुए ही गानों या कुशों के प्रयोग उसप्रकार तिरस्कृत किए गए हैं जिस प्रकार वृक्षों को तोड़कर तिरस्कृत किया जाता है। सृणालतन्तुओं के समान ( सरलतापूर्वक ) जिन्होंने लोहे की सौंफलें तोड़ दी हैं। जिन्होंने बन्धन-खम्भे उसप्रकार सरलता पूर्वक नीचे गिरा दिये हैं जिसप्रकार उशीर के तृणाङ्कुर सरलता से तोड़कर नीचे गिरा दिये जाते हैं। जिन्होंने रस्सी वगैरह बंधन इसप्रकार सरलता से छिन्न-भिन्न कर दिये हैं, जिस प्रकार लताओं के समूह सरलता से तोड़ दिये जाते हैं। इसी प्रकार जिनके द्वारा बन्धन-संभ सरलतापूर्वक उपाय कर उस प्रकार चूर-चूर कर दिये गये हैं, जिस प्रकार कमल दंड (मृणाल) खरलता से खाद कर चूर-चूर कर दिये जाते हैं। इसी प्रकार जिन्होंने मृणाल समूह की भाँति भलाएँ - किवाड़ों के दंडे (बेदे) ट कर दिये हैं। जिन्होंने शरीर बाँधने वाले खंभे, उसप्रकार उखाड़ दिये हैं जिसप्रकार श्वेत कमल-समूह सरलता से उखाड़ दिया जाता है। जिनके द्वारा दूसरे हाथियों का समूह उसप्रकार तिरस्कृत किया गया है भगा दिया गया है, जिस प्रकार कृत्रिम सिंह की मुख सम्बन्धी आलेप वस्तु सरलता से तिरस्कृत की जाती है-इटा दी जाती है अथवा जिस प्रकार कृत्रिम सिंह के मुख का वस्त्रविस्तार सरलता से हटा दिया जाता है। जिन्हें बीर पुरुष परमाणु-समान नेत्र के विषय से दूर रह कर वैष्टित कर रहे हैं। अर्थात् जिस प्रकार सूक्ष्म परमाणु दृष्टिगोचर नहीं होता-नेत्रों से दूर रहता है. उसी प्रकार वीर पुरुष भी जिन्हें मयानक समझ कर दूर से उन्हें वेष्टित कर रहे हैं-दूर रह कर जिन्हें घेरे हुए हैं। जिन्होंने कर्मरूपी तालपत्रों की वायु द्वारा मेघपटल दिशाओं में उड़ा दिये हैं। आकाश की सुगन्धि को सूँघने के उद्देश्य से ही मानों टेढ़े किए हुए शुरहादंडों के शब्द विशेष से जिन्होंने ब्रह्मलोक कम्पित किये हैं। जिन्होंने धूलि के प्रक्षेप द्वारा सूर्यमण्डल को दूर फेंक दिया है। जिन्होंने कीचड़ के लेप द्वारा आकाश का प्रदेश दुर्दिनीकृत (मेष व कोहरे से आच्छादित) किया है। जिन्होंने नदी व सरोवर यादि के जल के विलोन द्वारा जल देवताओं को दूर भगा दिया है। जिनके द्वारा स्वेच्छापूर्वक किए हुए पर्यटन से वन देवियों की श्रेणी भवमी की गई है। इसी प्रकार जिन्होंने संचार करने योग्य षीधी (मधावभूमि) का विस्तार अपने विशेष वेग द्वारा उपन करने से नाप लिया है। एवं जिनका स्वभाव बौद्ध दर्शन के शाख के समान समस्त पृथिवी मंडल को शून्यता प्राप्त कराने की चेष्टा में है। अर्थात् जिस प्रकार बौद्ध दर्शन * 'विघटितत्तटिकार्गल' इति इ. लि. सटि. ( क ग ब ) प्रतिषु पाठः । A. पथापनाय स्तम्नैः" इति टिप्पणी (क, च) प्रतिषु * 'सर' इति इ. लि. सटि (च) प्रती पाठः । १. समुच्चय व दीपकालंकार । L Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास १६ कदाचित कोणकोटिकल + कन्दुकाम्बरचारणा परिस्खलित दिग्देवताविमानमण्डलो दुष्टाश्वैः सह प्रीति कन्। कदाचित्रिभुजपराकमाचितासराजलव्याल महासरसीनामसि चिजगादे | कदाचिददतिदुर्दशार्दूलः कृत्कोलकुरामायिक त्कारचोरास्वरण्याना विजहार । क्वाचिन्नियुद्धायासित प्रबल घेतालः पूतनाकरोड्रमर उमस्कारवनसाः क्षपायु पितृनावनोः संचचार | कदाचिदसहायसाहसः साश्रर्यशौर्यनिर्मित बिनरवीरावतारमुपालचूडामणिमरीचिपसरपरस्ताण्डत्रित चरणकमलः शत्रुक्षत्रिक नेत्रापाङ्गसङ्गो छिपादानामात्मानं पाळतां निनाय । कदाचित्तौर्यत्रिकाशिविशेपत्रिजगन्धर्वलोकः ख+तिकतायरङ्गेषु वनदेवतानां समाजं नयामास । समस्त प्रथिवी मंडल की शून्यता का समर्थक है उसी प्रकार हाथी भी समस्त पृथिवी मंडल के पात द्वारा उसकी शून्यता के उत्पादक हैं । .. किसी समय बल्ले के अप्रभाग द्वारा ताड़ित की हुई मनोहर गेंद को आकाश में प्राप्त कराने से स्तब्ध - निश्चल किये हैं दिशाओं में स्थित देवविमानों के समूह को जिसने ऐसा वह मारिदत्त राजा दुष्ट घोड़ों से प्रेम प्रदर्शित करता था उनके साथ कीड़ा करता था। किसी अवसर पर अपनी भुजाओं के पराक्रम से नानाभाँत के युद्ध में प्रेरित किये हैं महान मगर आदि जल जन्तुओं को जिसने ऐसा वह राजा, विशाल सरोवरों की जल - राशि का विलोड़न करता था। किसी समय वह अपने बाहुदण्ड द्वारा विशेष बलशाली व्याघ्र - सिंहादि को मृत्यु मुख में प्रविष्ट कराता हुआ ऐसे विशाल बनों में विहार करता था, जो कि पर्वतों की विच - गुफाओं की गंध सूँघने वाले उल्लुओं के रौद्र ( भयंकर ) शब्दों से भयानक थे किसी समय अपनी भुजाओं द्वारा किये हुए युद्ध से प्रचण्ड बेतालों का दमन करता हुआ यह राजा रात्रियों में ऐसी दमशान भूमियों पर बिहार करता था, जो कि राक्षसियों के हाथों पर वर्तमान उत्कट इमरुधों के शब्दों से भयानक थीं । 1 किसी समय उसने, जो कि अद्वितीय ( बेजोड़ ) साहसी था और जिसने अपना चरणकमल आश्चर्यजनक वीरता से पूर्व में जीते जाने से नत्रीभूत हुए, दुर्बार- दुर्जेय और योद्धाओं में जन्म धारण करनेवाले ऐसे राजाओं के मुकुटमणियों की किरणों के प्रसार ( फैलाव ) रूप तालाब में नचाया है । किसी अवसर पर उसने अपना शरीर शत्रुभूत राजपुत्रों की युवती रमणीय रमणियों के कटाक्षों की संगति से कट हुई लाजाअलियों ( माङ्गलिक अक्षत विशेषों) के ऊपर गिराने की पात्रता ( योग्यता ) में प्राप्त कराया। किसी समय गीत, नृत्य व वादित्र शास्त्र में चातुर्य की विशेषता से गायक -समूह को जीतनेवाले उसने मनोहर बनों के लतामण्डपों की रङ्गस्थलियों-नाट्यभूमियों पर वनदेवता की श्रेणी का नृत्य कराया । १. संकरालंकार । * 'कन्दुकान्तर' इति इ. लि. मू. ( क, ख, ग, घ, च) प्रतिपाः । A 1 स्तुति कखेनलता इति ह. लि. रादि (क, ग, च) प्रतिषु पाठः । अस्य पचनसमूहः-- वलतिकदेशसभ्यम्विनलतामंडपनृत्य भूमिषु । नागरस्य पत्रिकायां तु सनि बनखमुद्दः खेलने कीचन मिति लिखितं । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकच स्पूकाव्ये कदाचिद्दात्रीणामकारी विजृम्भणजलधरः, चोली भ्रूलतानर्तमानिलः केरलीनां नयनदीविकालिकलहंस, सिंहली मुखकमलमकरन्दपानमधुकर फर्यादीनां कुचकलश बिकासः, सौराष्ट्रीय बलिवाहिनी विनोदकुञ्जरः, कम्बो tatti गर्भसंभोगभुजङ्गः, पछत्रीपु नितम्ब स्थली खेलनकुरङ्गः, कटिङ्गीनां च किसलयोत्सव पुन्पाकरः [स] सारं २० विम्वयामास । किसी समय ऐसे मारिदत्त राजा ने निम्नप्रकार भिन्न-भिन्न देश की रमणीय रमणियों के साथ काम करते हुए कामदेव को तिरस्कृत किया था । जो ( मारिदत्त ) आन्ध्र — तिलिङ्ग -... देश की ललित ललनाओं की केशपाश रूप मरियों यल्लरियों या लताओं के उल्लसितविकसित करने के लिए treat श्रर्थात् जिसप्रकार मेघवृष्टि द्वारा लताएँ उल्लसित -- वृद्धिंगत होजाती हैं उसीप्रकार जिसकी कामक्रीड़ा से आन्ध्र देश की ललनाओं की केशपाशवल्लियाँ उल्लसित होजाती थीं- खिल उठती थीं। जो चोलदेश की रमणीय रमयों की भ्रुकुटि रूपी लताओं के नृत्य कराने में मलयाचल की बायु के सदृश था । अर्थात् — जिसप्रकार मलयाचल की शीतल, भन्द सुगन्धित वायु से लताएँ कम्पित होती हुई मानों उल्लासपूर्वक नृत्य करने लगती हूँ उसीप्रकार जिस मारिदत्त के रूप लावण्य से मुग्ध होकर चोलदेश की कमनीय कामिनियों की भ्रुकुटिरूपी लताएँ नाँच उठती थीं। जो केरल देश की कमनीय कामिनियों की नेत्ररूपी बावड़ियों में कोढ़ा करने के लिए राजहंस के तुल्य था । अर्थात् — जिसप्रकार राजहंस जल से भरी हुई बावड़ियों में यथेच्छ क्रीडा करता है उसी प्रकार जो मारिदत्त राजा केरल देश की ललित ललनाओं की कान्तिरूप जल से भरी हुई नेत्ररूपी यावड़ियों में यथेच्छ कीड़ा करता था। जो लङ्काद्वीप की कमनीय कामनियों के मुखरूप कमलों का मकरन्द (पुष्परस ) पान करने के लिए भ्रमर के समान था । अर्थात् जिसप्रकार भँवरा कमलों के पुष्परस का पान करता है उसी प्रकार राजा मारिदत्त भी लङ्का दीप की युवती स्त्रियों के सन्दहास्य रूप पुरुषरस से व्याप्त मुखकमलों का पान (चुम्बना द) करता था । जा कर्णाट (देश-विशेष) की रमणीय रमणियों के भृङ्गाररस से भरे हुए कुचकलशों--स्तन-कलशों को सुशोभित करने के लिए पल्लव के समान था । अर्थात् जिसप्रकार कोमल पल्लव से जल से भरा हुआ कलश शोभायमान होता है उसीप्रकार राजा मात्रदत्त भी अपने हस्वपल्लवों द्वारा करपाटीसियों के शृङ्गाररसपूर्ण कुचकलशों को सुशोभित करता था। जो सौराष्ट्र देश की ललित ललनाओं की त्रियारूप नादयों में कीड़ा करने के लिए हाथी के समान था । अर्थात्-जिसप्रकार हाथी नदियों में कीड़ा करता है, उसीप्रकार राजा माारदत्त भी सौराष्ट्र देश की ललनाओं की कान्तिरूप जल से भरी हुई त्रिवलीरूप नदियों में कीड़ा करता था। जो कम्बोज देश-काश्मीर से आगे का देश की रमणियों की नाभिरूपी जा या वेदिका के मध्यभाग में कीड़ा करने के लिए सर्प समान था । अर्थात् जिसप्रकार सर्प, छज्जा या वेदिका के मध्य कांड़ा करता है उसीप्रकार मारिदत्त भी कम्बोज देश की स्त्रियों की नाभिरूप छज्जा या वेदिका के मध्य कीड़ा करता था । इसीप्रकार जो पलव देश की स्त्रियों के नितम्ब रूप स्थलियों ( उन्नत प्रदेशों । परीक्षा करने के लिए कस्तूरिमृग के समान है। अर्थात् जिसप्रकार कस्तूरीमृग उन्नत स्थलियों पर क्रीड़ा करता है उसी प्रकार राजा मारिदत्त भी पल्व देश की स्त्रियों की नितम्ब स्थालयों पर कोड़ा करता था । एवं जो कलिङ्ग देश को कमनीय कामिनियों के चररूप पलकों को उल्लसित करने के लिए वसन्त के समान है । अर्थात् — जसप्रकार बसन्तऋतु पत्रों को उद्घासयुक्त बुद्धिंगत करती है उसी प्रकार राजा मारिदत्त भी कलिङ्ग देश की स्त्रियों के चरणरूप पलवों को उल्लास ( आनन्द करता था । ' ॐ 'विजृम्भमाण' इति मूल पाठ मुक्ति राटीक पति से संकलित - राम्पादक । १. शुभाररसप्रधान उपभा आदि शंकरालंकार । i + Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्राश्वास कदाचिदुनिद्वारविन्द्रमकरन्दविम्बकोलोज बलिव पिकेषु माकन्दरीजलकावलोकनोलाविलासमानसेपु पाचवीतून सौरभो डुमरमरुपमानमकरध्वजध्वज, कामिनीनुमदिशम्पादित कुलकाननेषु, विलासिनीविल किसानृतसंत माणकुरवकतरुषु रमणीमणिमञ्जरशिञ्जिव कुलरचरणास्फालनसन 1 बार्शीकशाखिए, परिमलमिलन्मिलिन्दसंदोह - दूषितषट्पदा तिथिपादकदम्बकुसुनधूलिधूसरघरा, ऐपु, कन्दर कलापसंचरयति तुरविकिरनखमुखात्र लिख्य मानव शरीरेषु, कान्तार कुहुर विहरत्को फिल कुल कोलाहलो अपिताङ्गव्याध्यातिका विपाशशक्षणमंधुक्षिषु मनसिजाजकच कारद्रवध्यन्हदयेषु विधाभिसारिकाजनानामन्धतमसप्रसाधिषु, घोराणामपि प्रणयिनी प्रर्णाति तु मानिनामपि प्रमाप्रसादनन्यनिदाने, शूराणामपि वल्लभाचाटुकार कारगेड, यमिनामपि रविश्वातङ्कायतनेषु पुष्पचापशरप्रसारसारेषु मधुमासवासरेषु कामामधारामापेदे । २१ वह मारिदत्त राजा किसी अवसर पर कामदेव की निवासभूमि से संबंध रखनेवाली सभोगकीदा को ऐसे ऋतु के दिनों में प्राप्त हुआ। जिनमें वसन्त ऋतु के दिनों में-क्रीड़ा करने की ऐसी याड़ियाँ वर्तमान है, जो कि विकसित कमलों के पुष्परस-समूह से व्याम और विशिष्ट तर वाले जल से भरी हुई है। जिनमें आम्रवृक्षों की लता श्रेणियों के देखने से कामी पुरुषों के चित आनन्द को प्राप्त कराये गये हैं। जिनमें मलयाचल की भूमि पर वर्तमान चन्दन वृक्षों के वन सम्बन्धी पुष्पों की सुगन्धि से उत्कट (अतिशय सुगन्धित) वायु द्वारा कामदेव की ध्वजा के वस्त्र कम्पित हो रहे हैं। जिनमें कमनीय कासिनियों की मुखों की मद्य से- मयं के कुरले से- वकुल वृक्षों के वन विकसित होरहे हैं, ( क्योंकि कधि संसार में ऐसी प्रसिद्धि है कि कमनीय कामनी के मण्डप (मय के कुरले) द्वारा वकुल वृक्ष पुष्प विकसित होते हैं) । जहाँपर युवती स्त्रियों की सुन्दर चितवन रूप अमृतों द्वारा कुरक वृक्ष सन्तृप्त— सन्तुष्ट (विकसित ) किये जारहे है । कमनीय कामिनियों के रत्नखचित नूपुरों के मधुर शब्दों से शब्द करनेवाले पादों के ताड़न से जहाँ पर अशोक वृक्ष प्रफुटित हो रहे हैं, क्योंकि कवि संसार की प्रसिद्धि के अनुसार अशोक वृक्ष, कामिनी के पाद- ताड़न से विकसित होते हैं) । जहाँपर सुगन्ध एकत्रित हो रहे भँवरों के समूहों से चम्पा वृक्ष श्यामवशाली किये गये हैं । जहाँपर कदम्बवृक्षों के पुष्पों की परागों (धूलियों) से भूमि- मण्डल धूलि - धूसरित होरहे हैं । जहाँपर गुफा-समूहों में प्रविष्ट होते हुए कबूतरों के नखों और मुखों (ट) द्वारा लताओं के शरीर धूमे जारहे हैं। गायों के मध्य में संचार करते हुए कोकिल-समूहों के कल-कल शब्दों द्वारा प्रकट किये गए ( जागे हुए ) कामदेव रूपी दुष्ट सर्प से, जहाँपर कामी (ख-लम्पट) पुरुष व्याकुलित-काम- पीड़ित - किये गये हैं । इसीप्रकार जो (बसन्तऋतु के दिन ) विरहिणी स्त्रियों की विरहाझिको प्रदीप्त करनेवाले हैं। जिनमें कामदेव के धनुष की टङ्कार - ध्वनि (शब्द) द्वारा पथिकों के चित हरे जा रहे हैं- कामविह्वल किये जारहे हैं। कामोद्दीपक होने के फलस्वरूप जो, अभिसारिकाओं ( परपुरुष लम्पट स्त्रियों) को दिन में भी महान अंधकार उत्पन्न करने वाले हैं, फिर रात्रि में तो कहना ही क्या है। जिनमें योगी पुरुषों को भी स्त्रियों के चरणों पर झुकने के कारण वर्तमान हैं फिर कायरों को कहना ही क्या है। जिनमें अभिमानी पुरुषों को भी स्त्रियों को प्रसन्न करने के लिये दीनता ( याचना ) की उत्पादक कारण सामग्री पाई जाती है। जो शूरवीरों द्वारा भी की जानेवाली स्त्रियों की मिथ्या स्तुति B C * 'माकन्दमञ्जरीजालका ककोलासितविला सिमानसेषु इति ह. लि. राहि. (ग) प्रत पाठः । A. आघ 'माकन्दः पिकवल्लभः इत्यमरः । B. स्त्री C. विसषु इति टिप्पणी उक्त प्रत अर्थात्-जिनमें वृक्ष की मजरोसमूहों से उपलक्षित कमनीय कामिनियों के कारण कामी पुरुषों के चिन उदासित - आनन्दित कराये गये हैं। * 'कुलकेलि' इति ह. ल. ( क ग ) प्रतिष्ठयं पाठः । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये दाधिकरणकिसलयोश्चासमसृणितमार्गनिर्गमाभिः, पादनसमयूखोपहारविहारमहीमण्डलाभिः, मेखलाकलापकलितोंस्तम्भिकापुमरुक्तकामनदेवसोयावतोरणमालाभिः, नितम्बस्थलीदि गुणिताशोकशाखाशयनसंनिदेशाभिः, तमूहराजिविजित लतापरोहासमिः, मामिगर्भनिर्भस्सितकी ढाकुस्कीलकम्वसभिः, बलिविलासविलुसवल्लरीचक्षनाभिः, स्सनविस्तारविम्बिसप्रसूनस्तबकाभिः, भुपारपराजिसकान्तारतानाभिः, अधराधरीकृतवालवालाभिः, कपोलतलोछसस्स्वेदजलमारीबालमु मिवावसपछवामिः, चिरकान्तिकलपितसप्तच्छदच्नयाभिः, अलंकारीकृतवमस्पतिविभूतिभियुपतिभिः सह प्रसवनेषु मे ॥ कदाविन्मरकतामणिविनिर्मितमूला, कोलकोपलसंपादितभित्तिभनिकासु, कामोपरचितसोपानपरम्परासु, मुक्काफालपुलिनपेशलपर्यन्तास, करिमकरमुखममानवारिमारताभोगा, करपादस्तुरसरमा , दुग्धोदधिवेलास्विव बनानपवलास, लाने के कारण है। जो योगी पुरुषों को भी संभोग कीड़ा की रसरूप व्याधि के उत्पादक स्थान हैं एवं जो कामदेव के वाणों की प्रवृत्ति से विशेष शक्तिशाली है। किसी अवसर पर वह मारिदत्त राजा प्रमदवनों - अन्तः पुर के बगीचों-में ऐसी तरुणियों के साथ कीदा करता था। कैसी हैं वे तरुणियाँ? जिन्होंने लावण्य-वश बगीचे की लक्ष्मी । पत्र पुष्णदि की शोभा) अपने शरीरों पर स्थापित की है। उदाहरणार्थ-जिन्होंने घरण रूप कोपलों के उल्लास (कीड़ा ' द्वारा मार्ग प्रवृत्तियों कोमलित की हैं। जिन्होंने चरण-नखों की किरणों से बिहार-योग्य पृथ्वी-मण्डल उपहारयुक्त किये हैं। जिन्होंने मेखला समूह से वेष्टित अपने जंघा रूपी छोटे खम्भों द्वारा उद्यान देवता की महोत्सव बोरख माला को पुनरत-द्विगुणित-किया है। जिन्होंने अपनी नितम्बस्थली द्वारा अशोकवृक्ष की शाखाओं का शय्यास्थान द्विगुणित किया है। जिन्होंने रोमराजियों द्वारा लतारूप अङ्कर का विस्तार शिरकत किया है। जिन्होंने नाभि के मध्यभाग से कीड़ा करने की क्षुद्र पर्वतों की गुफाएँ तिरस्कृत की हैं। जिन्होंने त्रिवलियों की शोभा द्वारा लताओं के संचार या पाठान्तर में वेष्टन विरस्कृत किये हैं। जिन्होंने अपने सुन्दर स्तनों-कुचों के विस्तार से फूलों के गुच्छे तिरस्कृत--लजित-कर दिये हैं। जिन्होंने भुजाओं की रचना द्वारा वन का विस्तार पराजित-तिरस्कृत किया है। जिन्होंने विफल-सरीखे अोठों की कोमल कान्ति से कमल पल्ल्व तिरस्कृत किये हैं। जिन्होंने गालों के प्रान्त भागों पर सुशोभित स्वेदजलरूप. मरीजालों द्वारा अपने कर्णपूरपल्लब पुष्पित ( फूलों सहित) किये हैं एवं जिन्होंने केशपाशों की कृष्णकान्ति द्वारा तमालवृक्षों की कान्ति तिरस्कृव की है। किसी अवसर पर नवीन युवति स्त्रियों से वेष्टित हुए उस मारिदत्त राजा ने ऐसी गृह की बावड़ियों में उस प्रचर जलक्रीड़ा सम्बन्धी सुख भोगा जिसप्रकार हथिनियों से वेष्टित हुआ हाथी क्रीड़ासुख भोगता है। कैसी है वे गृह चावढ़ियाँ ? जिनके मूलभाग मरकत मणियों द्वारा रचे गये हैं। जिनकी भित्तियों की रचना स्फटिकमणि की शिलाओं से निर्मित की गई है। जिनकी चढ़ने-उतरने की सीढ़ियाँ, सुवर्ण द्वारा निर्मित कराई गई हैं। जिनके प्रान्त भाग मुक्तामय तटों से अति मनोहर हैं। जिनका विस्तार कृत्रिम हाथियों व कृत्रिम मकरों के मुखों से छोड़े जाने वाले जलपूर से पूरित है। जिनके तरसों का सनम कपूर की धूलियों के समूहों से उन्नत है। वे गृह वावड़ियाँ उस प्रकार चन्दन-धवल थीं। अर्थात् श्वेत चन्दन से शुभ्र मी जिसप्रकार क्षीरसागर के बट चन्दन-धवल होते हैं। अर्थान्-श्वेत चन्दन की तरह शुभ्र होते हैं। जो १. संपरालबार। २. संकरालंकार। * 'क्लनाभिः' इति ह. लि. सर्टि. ( घ) प्रतिषु पाठः । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्रावास वनस्थलीष्विव सकमलासु, शिशिरशैलसिलास्विर मृगमदामोडमेदुरमध्यासु, कण्ठीरवकण्ठपीठेचित्र सकेसराम, विरहिणीशारीरयटिचिव मृणालनायिनीपु, मन्त्रवादोक्तिश्विन विविधपन्त्रश्लाधिनीथु, वसन्सलतास्त्रि विचित्रपल्लवप्रफलास्काराधिकासु गृहदाधिकासु को पुभिः करीक कामिनीभिः परिवृतो जमकीदासुखमन्वभून् ।। अन्तलीनसत्त्वः शर्वरीवातून इव रजस्तमोबहुलोऽपि, वनस्थलियों सरीखी सकमल थीं। अर्थात्-जिसप्रकार वनस्थलियाँ सकमल-मृगों से व्याप्त होती है उसी प्रकार ग्रह-बावडियाँ भी मकमल थी। अर्थात-मामलों-कमल पापों अथवा जलों से व्याप्त थीं। जिनका मध्यभाग कस्तूरी की सुगन्धि से उसप्रकार स्निग्ध है जिसप्रकार हिमालय पर्वत की शिलाएँ कस्तूरी की सुगन्धि से स्निग्ध होती हैं। जो सिंहों की प्रशस्त गर्दन-सरीखी सकेसर हैं। अर्थात-जिसप्रकार सिंहों की गर्दन केसरों-गर्दनस्थित बालों की मालरों से व्याप्त होती हैं उसीप्रकार गृह-बावड़ियाँ भी केसरों-कमलकसरों या केसर पुष्पों से व्याप्त थीं। जो विहिणी स्त्रियों की शरीरयष्टि-सरीखी मृणालवलयों से अधिष्ठित है। अर्थात-जिसप्रकार विरहिणी स्त्रियों की शर रष्टियाँ, मृणाल निर्मित कटकों से विभूषित होती हैं { क्योंकि उनकी शरीरयष्टि परिताप-युक्त होती है अत ये शीतोपचार के लिए कमलों के मृणाल धारण करती है ।, उसीप्रकार गृह बावड़ियाँ भी मृणाल-समूहों से विभूपित थीं। जो मन्त्रशारू के वचन-समान विविध यन्त्रों से श्लाघनीय हैं। अर्थात-जिसप्रकार मन्त्रशास्त्र के वचन अनेक सिद्धचक्रादि यन्त्रों का निरूपण करने से श्लाघनीय ( प्रशस्त ) हैं उसीप्रकार गृह बावड़ियाँ भी नाना प्रकार के यन्त्रों-फुब्बारोंधादि-से प्रशस्त थी। जो उसप्रकार विविध भाँ.त के पल्य, फूल व फलादि की प्रचुरता से अतिशय पूजाशालिनी हैं ।जसप्रकार वसन्त ऋतु संबंधी शाखालताएँ अनेक प्रकार के पल्लव, पुष्प व फलादि की प्रचुरता से अतिशय सन्मान-शालिनी हाता है। जो मा.रदत्त राजा, रात्रे सम्बन्धी प्रचण्ड वायुमण्डल के समान अन्तौनसत्व था। अर्थात्जिस प्रकार रात्रि का प्रचण्ड वायु-भण्डल अन्तलीन सत्व-मध्य में स्थित हुए पिशाच से युक्त होग है उसीप्रकार प्रस्तुत राजा भी अन्तर्लीनसत्व ... शरीर में स्थित हुए चल से वलिष्ट था । अथवा अन्तीन सत्य-जिसका सत्व (पुण्य परिणाम ) अन्तरात्मा में हो लीनता-तन्मयता - को प्राप्त हो चुका है ऐसा था। अर्थान् -उसका पुण्य परिणाम आत्मा में केवल योग्यता ( शक्ति ) मात्र से वर्तमान था किन्तु प्रकट रूप में कुसंग-वश नष्ट होचुका था। इसीप्रकार वह रात्रे सम्बन्धी प्रचण्ड वायुमण्डल के समान रजस्तमोबहुल भी था। अर्थात् -जिसप्रकार रात्रे सम्बन्धी प्रचण्ड वायुमण्डल रजस्तमोबहुलधूलि व 'घन्धकार से बहुल होता है. इसीप्रकार वह मारिदत्त राजा की-राजसी ('मैं राजा हूँ' ऐसी अहंकार-युक्त ) प्रकृति व तामसी'--(दीनता व अज्ञानता-युक्त) प्रकृति की अधिकता से व्याप्त होने पर * 'पीटीवव' इति है. लि. सटि. (क, ग) प्रतिद्वये पाठः । t'कारापिकास' इति ह. लि. सप्टि. (क) प्रतौ पाठः । १. संकरालकार । २, ३, ४. सत्वरजस्तमो लक्षणं यथा वदनमयना दिनसमता सत्वगुणेन स्यात् । रजोगुणेन तोषः। स चानन्दपर्यायः तकिंगानि स्फूर्यादानि, तमोगुणेन दैन्यं जन्यते । 'हा देव, नाष्टोऽस्मि वञ्चितोऽस्मि, श्यादि वदनविच्छायता ने चनादि व्यजनीयं दैन्यं तमोगुणलिशामिति । यशस्तिलक की संस्कृत टीका पृ. ४० से समुदत। अर्थात् सत्व, रज और तम का लक्षण निम्न-प्रकार है । सत्व गुण से मानव के मुख व नेत्रादि में प्रसवता होती है और रजोगुण से संतोष होता है, जिसे आनन्द भी कहते हैं। स्फूर्ति-उत्साह-आदि उसके झापक चिन्द हैं। एवं तमोगुण से दीनता प्रकट होती हैं। -हाय देव, मैं नष्ट हो गया, इत्यादि दीनता है। मुख की म्लानसा बनेनों का संकोच करना-आदि द्वारा प्रकट प्रतीत होनेवाली दीनता तमोगुण से प्रकट होती है। -सम्पादक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्खिलाकचम्पूचने मानिस र म्यसनेषु जसप्रीतिरपि, मगज इस कामवारप्रवर्तयोऽपि, धनुर्मइ वावणितमन्त्रिलोकोऽपि, रविरिष विलयनशमोगपि, बसन्त व विजास्तम्दनोरि, त्रुमादन इन विदूरितकमलोल्लवोपि, पारिपुल रवानात्मनीनतिरपि, कमशीब दोशगमरुधिरपि, कांदिशोक इवानवस्थितक्रियोगपि, प्रसिपचन्द्र इव दुर्दशेपि बचाक हद वारयमितानियोपि, भी अपनी राज्य लक्ष्मी की प्राप्ति-श्रादि सुनसामग्री की परम्परा को देवता के अधीन उत्पन्न हुई के समान सूचित करतः | अक्षर मनुस्य नही हूँ किन्तु देवता हूँ, इसप्रकार सूचित करता था। ओ प्रचण्ड वायु की भाँत्ति व्यसनों में बद्धप्रीति था। अर्थात्-जिसप्रकार प्रचण्ड वायु व्यसनों-वि-असनोंनाना प्रकार के पदार्थों को फैंकने में अनुरक्त होती है उसीप्रकार प्रस्तुत मारिदत्त भी व्यसनों ('वचनों की कठोरता, दृष्ट की कठोरता, धन का दूषण (श्रामदनी से अधिक खर्च करना, पैतृक सम्पन्ति को अन्याय से खाना और स्वयं न कमाना-आदि). "शराब पीना, 'परकी सेवन. "शिकार खेलना व 'जुश्रा खेलना-इन सात प्रकार के कुकृत्यों ) में अनुरक्त-बुद्धि हो करके भी अपने को देवता मानता था। जो उस प्रकार कामचारप्रपर्सन । स्मरपरवशता-कामवासना की पराधीनता में प्रवृत्ति करनेवाला ! था मिसप्रकार, जंगली हाथी कामचारप्रवर्तन स्वच्छन्दता से प्रवृत्ति करनेवाला-होता है। इसीप्रकार उसके द्वारा मन्त्रीलोक (सचिव-समूह ! उसप्रकार अपमानित किये गये थे जिसप्रकार धनुर्ग्रह ( असाध्य प्रहविशेष ) द्वारा मन्त्रिलोक ( मन्त्र तन्त्रवादियों का समूह) तिरस्कृत कर दिया जाता है। जो उसप्रकार कुवलय -- पृधिषीमंडल-का अवेक्षण ( कष्टों को पर दृष्टिपात ) नहीं करता था जिसप्रकार सूर्य, कुपलयों (चन्द्रषिकासी कमलसमूहों । का अवेक्षण (विकास) नहीं करता। जो उसप्रकार विजाति आनम्दन (नीच जातिवाले नट नर्तकादि पुरुषों को आनन्दिन करनेवाला ) था जिस प्रकार वसन्तऋतु वि-जातिमानन्तन--पक्षियों की श्रेणी का आनन्द देनेवाली अथवा वि-जाना-मानन्दन ( मालती-चमेली के पुष्पों के चिस से विगत-राहत होती है। जो उसप्रकार विदूरित कमल-उत्सव था। अर्थात्-जिसने बास्मिक हिंसादि पापों में किये हुए उद्यम क निकटवर्ती किया था जिस प्रकार हेमन्त ऋतु विदूरित कमलोत्सव होता है । अर्थात् कमलों के विकास को विदूारत ( हिम-दग्ध ) करनेवाली होती है। जिसकी वृति ( जीविका व पक्षान्तर में मान्यता ) उस प्रकार अनात्मनान (आत्मकल्याण कारिणी नहीं ) थी जिस प्रकार बौद्ध की वृत्ति ( मान्यता ) अनात्मनीन ( आत्मद्रव्य की सत्ता को न माननेवाली) होती है। जो उसप्रकार दोप-आगम-रुचि (हिंसा पापों के समर्थक शास्त्रों में रुचि ( श्रद्धा ) रखनेवाला अथवा कामादि दोषों की प्राप्ति में रुचि रखनेवाला } था जिसप्रकार चन्द्रमा दोषा-अागम-रुचि ( रात्रि के आगमन में जिसकी कान्ति बढ़ती है ऐसा ) होता है। जो उसप्रकार अनय स्थितक्रिया-युक्त (जिसका कर्तव्य न्यायमार्ग में स्थिर नहीं-न्यायमार्ग का उल्लङन करनेवाले हिंसादि पापकार्यों के करने में तत्पर ) था जिसप्रकार भयभीत पुरुष अनवस्थित क्रिया-युक्त ( निश्चल कर्तव्य न करनेवाला) होता है। जो प्रतिपदा के चन्द्र की तरह दुर्दर्श था। अर्थाम्-जिसप्रकार अमावस्या के निकटवर्ती प्रतिपदा का चन्द्र सूक्ष्मतर होने के कारण दुर्दर्श । पड़ी कठिनाई से देखने में आने योग्य ) होता है उसीप्रकार. मारिवत राजा भी दुदर्श था। अर्धाम्मे वा में आए हुए लोगों को भी जिसका दर्शन अशक्य था। जो उसप्रकार यारबनिता-प्रिय । वेश्याओं से प्रेम करनेवाला ) धा जिस कार चक्रवाक (चकया वार-अयनि-ता-प्रिय (जल-पूर्ण पृथिवीवालाय-आदि-की शोभा से प्रेम करनेवाला) होता है। १. तथा चोक्का--'न स्या जाती घसन्ने' साहित्यदर्पण रातम परिः झोक २५। अर्थात्-कवि समय में ख्यात है किमान्त में जाती (मालवी-चमेली) के पुष्पों का विकसित रूप से वर्णन नहीं होता। सम्पादक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाभास रथमणमाभिवका हवालासकोपि, पूर्णकाराविरिष मधुवनिम्मनोऽपि, बसध्यास हवामोनाभिरतोऽपि, विगतविपणाली सामागमा स्वस्थ वातावanमिनायाणपरम्परामावर एवं वस्य धरोद्धारकुलशिखरिणः करिब स स्वभन्दाचारपागलुषितां निजसलामीमुपपामास, क्षणमिनिमाणामानण्यजननामपति वीरकलावबारामियात्मनि संकल्पपता, परदन परिमामदारुणं नगपादिम्पसलमेर राख क्षत्रपुत्राणां कुलधर्म इसि मभ्यमामस्थ, माषु परिषस्येव मनोविमोया कथास्ववितृष्यतः, परिपाक्गुणकारिणी भिन्यामापत्र परोपरोधानुपयुझानस्य, सत्पुरुषमोठी दिपायनियर परिगणपता, घेतोषिजृम्भगकामनुचरं बतरण्यासवरमधमागल्य, जो उसप्रकार अशासक (इन्द्रिय सुखों मैं अथषा जुआ खेलने में लम्पट) था जिस प्रकार गाड़ी के परिए ब मध्यभाग अनासक्त (दोनो पहियों के बीच में पड़ा दुभा मझ-भोरा-सहित) होता है। जो यसप्रकार मात्र लम्ध-विजुम्भण (जिसने मद्यपान में प्रवृत्ति की है ऐसा) था जिसप्रकार कामदेव मधु-सन्ध-विजृम्भण (वसन्तऋतु के प्रकट होने पर अपना विस्तार प्रकट करनेवाला) होता है। जो मकर-आदि अलजन्तुओं सरीमा आच्छोदनाभिरत था। अर्थात्-जिसप्रकार मकर-भादि जलजन्तु अच्छ-उद-नाभि-रस (स्वच्छ जल के मन में अनुरक) होता है उसीप्रकार प्रस्तुत मारिदा राजा भी आच्छोदन-अभि-रत (शिकार खेलने में विशेष अनुरक्त) था। इसीप्रकार वह, जिसे विपत्तिरूपी पक्षसी का समागम नट होगया है, ऐसा था। भार शत्रुरत उपद्रवों से रहित था, तथापि उक्त दुर्गुणों से युक्त होने पर भी वह अपनी कल्याणपरम्परा (राज्यादि लक्ष्मी से उत्पन्न हुई सुखश्रेणी) को देवत्व के अधीन है उत्पत्ति जिसकी ऐसी मानवा था। अब 'मैं मनुष्य ही हूँ किन्तु देवता हूँ, जिसके फलस्वरूप ही मुझे ऐसी प्रचुर राज्यविभूति-संबंधी कल्याणपरम्परा प्राप्त हुई है। इस प्रकार जनसमूह को सूचित करता था। इसप्रकार अपने पेश की राज्यलक्ष्मी को स्वीकार करते हुए ऐसे उस मारिदत्त राजाके फुलपर्व व्यतीत हुए। कैसा है यह मारिदत्त राजा? जो पृथिषी के उखुरण कार्य के लिए कुलपर्वत सरीखा है। अर्थात्-जिसप्रकार फुलाचल पृथिवी का उद्धरण (धारण) करते हैं उसीप्रकार प्रस्तुत मारिपत्र भी पृथियी का उद्धरण (शिष्ट-पालन और दुष्ट-निमह रूप पालन ) करता था। जो अपनी ऐसी यम्यलक्ष्मी को हाथी सरीखा स्वीकार कर रहा था, जिसे उसने अपनी स्वच्छन्द आचरण रूप धूलि शरा कलुषितर डाली थी। अर्थात्-जिसप्रकार स्वच्छन्द विहार करने वाला मदोन्मत्त हाथी अपनी पीठ की लक्ष्मी (शोभा) को पराग-(धूलि ) प्रक्षेप द्वारा कलुषित ( धूलि-धूसरित ) करता हुआ उसे स्वीकार करता है उसीप्रकार प्रस्तुत मारिदत्त ने भी अपनी स्वच्छन्द ( नीति-विरुव) असस्प्रवृत्ति (परस्त्रीलम्पटना व वेश्श गमनादि) रूप पराग (वोष)द्वारा अपनी वंश परम्परा से प्राप्त हुई उज्वल राज्यलक्ष्मी को कलुषित (मकिन दूषित) करते हुए स्वीकार किया था। जो, केषल क्षणमात्र के लिए चारादि इन्द्रियों को कौतुक वा फराने वाली राक्षसवृत्ति (शिकार खेलना-आदि असुरक्रिया) को अपने चित्त में वीरता की कला के जन्म सरीखी अथवा सुभट विज्ञान की पत्पत्ति-सी समझता था। एवं फलकाल में ऐहलौकिक पारलौकिक पारण दुःखों को उत्पन्न करने वाले शिकार खेलना आदि दुराचारों को क्षत्रिय राजकुमारों का कुलाचार समझता था। जो मारिदत्त, चित्त में भ्रान्ति उत्पन्न करने वाले शाखों के श्रवण करने में उसप्रकार विशेष तृष्णा (भासति) करता था जिसप्रकार मरुस्थल भूमियों पर स्थित हुमा पथिक मानसिक भ्रान्ति उत्पन्न करने वाली कथानों के श्रषण करने के अयसर पर अत्यधिक तृष्णन करता है-अल पीना चाहता है। यह उदयकाल में गुणकारक ( भविष्य में सुख देनेवाले) सदाचार के पालन करने में दूसरे हितैषी पासपुरुषों के बामड्परा उसप्रकार प्रवृत्त होता था, जिसप्रकार रोगी पुरुष, उदयकाल में गुणकारक (आरोग्यताजनक) दुक १. संकरालंकार व इलेषोपमालंकार । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये वितपस्तुतिमुलषु चिन्तामणेरिख पात:, सकलजनसाधारणेऽपि स्वदो त्रिकमसदीक्षितस्येव देवभयेनाभिनिविशमानस्य, निबाजीवनपरपातु बीपमामस्थाप्यरक्पारणस्पेवावेततः, लालापानिलगलित हितोपदेशावतंसम्प, पन्दनवरिष नाहियूहिववारतरोत्सरतकस्वागावामोजस्व कतिचित् संवत्सरा व तिचक्रमुः । स पुनरेवा नपतिरात्मराजपाल्पामेव पण्णमारिंदेवतापा: पुरतः सकलसत्योपसंहासत् स्वयं च सकललक्षणोपरनमनुस्ममिधुमपाश्चिापरलोक विचिनः परवावस्म सिदिभवतीति वीरभैरवनामकारकुनाचार्यकानुपभुत्य खेचरीलोकहोपवावलोकवस्तूस्तिवास्तवैध प्रतिपालदाराधनविधिः, अकालमाहानवमीमहमिषसमाहतसमस्तसामन्तामास्यज्ञानपक्षा, प्रसभित्तसालापरवबोगनवस्वानाधिमावितभुवनान्तासंघावतामदा, ससंरम्नमम्परतलादिलाया: पातालमूलाह औरधादि के सेवन करने में सरे हितैषी वैधादि के आग्रह से प्रवृत्त होता है। अभिप्राय यह है कि बसे पारलौकिक मुख देनेवाली सदाचार प्रवृत्ति में उमप्रकार स्वयं रुचि नहीं थी जिसप्रकार रोगी पुरुष को आरोग्यता उत्पन्न करने वाली कटु ओषधि के सेवन में स्वयं रुचि नहीं होती। जो (मारिदा ) सत्सङ्ग को बाहर से भी अधिक करदायक मानता था। वह पाप में प्रवृत्त करानेवाले सेवक को पिता से भी अधिक हितेषी समझता था। इसीप्रकार यह उसकी भूठी प्रशंसा करने वालों के लिए चिन्तामणि के समान मन नाही वस्तुएँ (प्रचुर धनादि ) देखा था। समस्त मनुष्य लोक के समान अपने मानव शरीर को वह समकार देवत्वरूप से मानता था जिसप्रकार सांख्ममत की दीक्षा-धारक पुरुष अपना मानव शरीर देवत्य को प्रास हुभा मानता है। जिसप्रकार विन्ध्याचल पर्वत का हाथी पकड़ने वाले स्वार्थी पुरुषों द्वारा संकट स्थान (गहना) पर प्राप्त कराया हुबा भी अपनी रक्षा का उपाय नहीं सोचता उसीप्रकार अपनी उदरपूर्ति में ता. त्या पुरुषों ( जन्लम्पट कर्मचारियों ) जागा महासंकट ( नाश) के स्थानों में प्राप्त किया जाने वाला मारिदन राजा भी अज्ञान-वश अपनी रक्षा का उपाय नहीं सोचता था। जिसका इसलोक व परलोक में सुख-शान्ति दाबक धर्मोपदेशरूप कर्णाभूषण; दुष्टों की पचनरूप वायु द्वारा नीचे गिरा दिया गया था। अर्वात-जो सदा धर्म से विमुख रहता था। जिसप्रकार चन्दन वृक्ष भयङ्कर सपों से येष्टितरहता है। इसलिए अपनी मलाई (जीषन) चाहनेवाले पुरुष उससे दूर भाग जाते हैं, उसी प्रकार प्रस्तुत मारिदत्त भी दुष्ट पुरुष(सखोर स्वार्थलम्पट नीच पुरुष) समूहरूप सपों से वेष्टित रहता था, इसलिए कल्याण चाहनेवाले लोग उससे दूर भाग जाते थे।' एक समय उस मारिदत्त राजा ने अपनी राजधानी (राजपुर नगर ) में चार्वाक के कुत्सित शिष्य 'वीरभैरव' नामके कुलाचार्य ( वंशगुरु ) से निम्नप्रकार उपदेश सुना-“हे राजन् ! पण्डमारी देवी के सामने समस्त जीवों के जोड़ों की बलि ( हत्या करना ) रूप पूजन करने से और स्वयं अपने करकमलों से खडद्वारा शारीरिक समस्त लक्षणों से अलंकृत मनुष्य-युगल की बलि करने से आपको ऐसे अनोखे खड़ा की सिद्धि होगी, जिसके द्वारा तुम समस्त विद्याधरों के लोक पर विजय श्री प्राप्त कर सकेगे।" उक्त उपदेश-श्रवण से मारिदत्त राजा के मन में समस्त विद्याधर-समूह पर विजयलक्ष्मी प्राप्त करने की और विद्याधरों की कमनीय कामिनियों के साथ रतिविलास करने की तीव्र लालसा उत्पन्न हुई। इसलिए उसने पूर्वोक्त विधि से चण्डमारी देवी की पूजन विधि करने का दृढ़ निश्चय किया। अर्थात्-उसने चण्डमारी देवी के मन्दिर में शारीरिक शुभलक्षणों से अलंकृत मनुष्य-युगल का षध पूर्वक अन्य दूसरे जीवों के जोड़ों की बलि वध) करने हद संकल्प कर लिया। इसलिए चैत्र शुक्ला नषमी के दिन कीजानेवाली पूजा के बहाने से उसने अपने अधीनस्थ समस्त राजाओं, मंत्रियों और प्रजाजनों को उक्त मन्दिर में बुलाया। तदनन्तर वह मारिदच १. संकरालशर । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास २७ गतरालेभ्यश्च विभावर्या तमःसंततिभिरिवानिर्भवतीभिः, गतिवेगविगाजालाक्षिप्माणमहाप्रहमाक्षोभरुषितगगनगामिलोकाभिा, परस्परसंघफुटस्ववाहकोटिरसघण्टाक्ताकर्णनावतीर्णननारदजनित लक्ष्यामिः, कपर्दनिर्दयसंमर्दनिर्मोदालगईगलगुहाररस्पू.स्कारस्फारितललाटलोचनानसावालालपितादितिसुतनिकेतमपताकाभोगामिः, शिखण्डमण्टनोडमरमरशिरणिपर्यन्तम्भ्रान्तप्रधद्धनिरुवामनदीधितिप्रवन्धामिर, श्रवणभूषणभुषाविहामिद्यमानकपोलसललिसिवातपस्माभिः, इतरेतनस्किीसफेरकारमयपहायमान हिमकरहरिणपरित्राणोसाहितनक्षत्रमिकनाभिः, वियद्विहाराश्रयश्रमप्रसारिवासरामसनापसारितसरापगापपःस्पर्शप्रकोपिससप्तर्षिभिः, मतियाटप्रवर्दधाराप्रपामधनसंघावनिर्जितवराहषेषविष्णुसमुसतधराकोमाभिः, समारोवकोपरमाकासिमुखरघर्षरकघोरघोषभीषितानिमिपपरिपनि, लिपि कीकसोस्कटकोशेरकोशावकाशतया तारकिशमिम व्योम निमापयन्तीभिः, सकलस्य जगतः क्षयक्षपाभिरिधाविदारणदीर्थदेहा. राजा जिसने प्रलयकालीन सुब्ध हुए सात समुद्रों के शब्दों सरीखे भयङ्कर भेरी-वगैरह बाजों के शब्दों द्वारा पृथिवी मण्डल पर संचार करनेवाली देवियों को हर्ष प्रकट किया है, ऐसे चण्डमारी देवी के मन्दिर में पहुँचा, जिसका प्राङ्गण ऐसी महान व्यन्तरी देवियों से परिपूर्ण था। कैसी हैं वे महान् व्यन्तरी देवियाँ ? जो श्राकाशमण्डल, पृथिवी का मध्यभाग, अधोलोक का मूलभाग और चारों दिशाओं ष विदिशाओं से उस प्रकार विस्तार पूर्वक प्रकट हो रही हैं जिसप्रकार रात्रि में अन्धकार श्रेणियाँ विस्तार पूर्वक प्रकट होती हैं। जिनके शीघ्रगमन की उत्कण्ठा से शिथिल हुए केश-समूहों से तिरस्कृत किये जारहे सूर्यादि ग्रहों व पिशाचों के संचार से, विद्याधर कुपित किये गये हैं। जिन्होंने परस्पर की टकर से टूटनेवाले नरपडरों या डमरुओं के अग्रभाग पर बँधे हुए घण्टों के शब्द श्रवण करने के कारण [ संग्राम होने की भ्रान्ति-वश उत्पन्न हुए इर्ष के कारण ] आकाश में आए हुए नृत्य करनेवाले नारद का नैराश्य (आशा-भक) उत्पन्न कराया है। अर्थात् युद्ध न होने के कारण जिन्होंने संप्राप्रिय नारद की आशा भा कर दी है। जिन्होंने सपों से बँधे हुए जटाजूट का निर्दयतापूर्वक पोड़न-गाढ़-बन्धन–किया है, जिसके फलस्वरूप जिन्होंने हर्षराहत (व्याकुलित ) हुए केशपाश-बद्ध सपों के कंठविवरों से प्रकट हुए फुस्कार-पायु संबंधी शब्दों से विशेष वृद्धिगत हुई तृतीय नेत्रों की अग्निज्यालाओं द्वारा, सूर्यविमान की ध्वजा का विस्तार भस्म ( दग्ध) कर दिया है। जिन्होंने मस्तक के आभरणरूप व विशेष भयानक नरमुण्डों के समूहों के प्रान्तभागोंपर मण्डला. कार स्थित हुए महान् गृद्धपक्षियों से सूर्य की किरण-समूह आच्छादित की है। जिनके गालवलों पर लिखित रुधिर की पत्रिरचना कानों के आभरणरूप सों की जिदाओं द्वारा चाटी जारही है। जिन्होंने ऐसे चन्द्र-मृग की रक्षा करने में, जो कि परस्पर का गमनभङ्ग करने से उत्पन्न हुए द्वेष-वश प्रकट हुई विशेष विस्वत प्रकुटियों के भङ्ग (चदाने ) से भयानक मुखों द्वारा उत्पन्न हुए महान् शब्दों से भय से भाग या है, नक्षत्र-श्रेणी को उत्कण्ठित या पाकुलीकृत किया है। जिनके द्वारा, आकाश गमन संबंधी शारीरिक खेदवश मुख बाहिर निकाली हई अपर्यन्त-बहद-जिरा से निकाले हुए (उच्छिष्ट-अँठे किये हुए) आकाशगङ्गा के जल का स्पर्श करने के कारण मरीचे व त्रि-आदि सप्तर्षि कुपित किये गये हैं। जिन्होंने विशेष रूप से मुख से बाहिर निकले हुए दंष्ट्राकुर के प्रान्त भाग पर स्थित मेघसमूह द्वारा विष्णु की वराह वेष में धारण की हुई पृथिवी की शोभा जीती है। अर्थात्-वराह-चेषधारी विष्णु ने वंष्ट्रा के अप्रभाग द्वारा पृथिवी उठाई थी उसकी शोभा प्रस्तुत महान् ज्यन्तरियों द्वारा जीती गई। जिन्होंने आकाश और पृथिवी भएडल के मध्य में शब्द सहित कीड़ा करनेवाले पादों की व्याप्ति से शब्द करती हुई घुघुर-मालाओं के भयानक शब्दों से देवताओं का समूह भयभीत किया है। हड़ियों के स्कट मुकुटों पर फैलाए हुए केशों के विस्तार से ओ मानों-दिन में भी आकाश को तारकित (सारामों से भलत) कर रही है। जिनका शरीर उसप्रकार अत्यन्त असण्य और विशाल है, जिसप्रकार प्रलयकालीन रात्रियों Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये मिसानोनितीमितमानपरितस्थ भिपिकचित्प्रमत्यनुत्तरलतालबेताबालविवन्धमानहाकिनीताशवाइम्बरम्, चिदअमावीलभूतनिसिसिपायरभरमपमानास्पर्शभूरुहम्, कपिलमोहमउमस्करबलयाखेकस्कपालिनीत्रिशूलबहाननिर्मिअनुसन्मारपामारकोरकामिनीवर्सरी किममाणकभाभोगम्, कपिदुमाधप्रमाथसायंमानपिथुरापितजयमन्धरकपालकमपिसकिन्धुपायाचाराक्षसक्षिप्यमाणयक्षरक्षित क्षेत्रमिक्षितवनदेवतापोतम्, कधितरक्षुरक्षोदामकालास्थिमा, स्कोशिसाहसयमानाबाना निवैजगन्तीकम्, कपिछार्दूलदानयवदनविदयमानचिरमिशन यालियोलमार, चिस्कासासूरवरप्रचारपद्यमान फरारूराम, चित्काररूपकोणपकराएकरविकीर्यमाणबपिविक्सिपिरियोनिकाचवहिपमानास्वामशोणितदभित्तिपश्चाङ्गुलम् , कचिदसर्वगर्योपूर्णमोमलुनमामे (को) मनमाषपानपात्रासानिपपरम्, चित्साधकलोकनिमशिरोवामानगुग्गुलरसम्, सचिनरव्यानप्रबोकि तीवानिरवनियादीपन अत्यन्त सह और विस्तृत होती है। प्रसङ्ग-उस चण्डमारी देवी के मन्दिर का प्राङ्गण उक्त प्रकार की महान व्यन्वरी देवियों से परिपूर्ण था। फिर कैसा है यह चण्डमारी देवी का मन्दिर ? जहाँ पर किसी स्थान में नृत्य करते हुए व उत्कट हस्त-ताड़न करनेवाले येताल-समूहों द्वारा हाकिनियों के तारडव-नृत्य का विस्तार बाधित क्रिया जारहा है। किसी जगह पर, भृकुटिबन्ध से मनामक व्यन्तर विशेषों द्वारा निकाले हुए या भगाये हुए वानररूप राक्षसों के भार से जहाँ पर निकटवर्ती वृष स्वयं भक्त ( नष्ट) होरहे हैं। किसी स्थान पर, हाथों पर स्थित व अत्यन्त भयानक डमरुओं के शब्द संबन्धी लय ( साम्य) से झीदा करती हुई व्यन्तरी योगिनियों के त्रिशूलों के उच्छलन से मुकुटरूप चन्द्रमा, विद्र सहित किए गए थे और जिसके फलस्वरूप उनसे अमृत-क्षरण-प्रवाहित हो रहा था, उस अमृत के पीने में तत्पर हुई कोर-कामिनियों द्वारा जहाँपर दिशाओं का समूह विचित्र वर्णशाली किया आरहा था। जहाँपर किसी स्थान पर हिंसक या उच्छल प्रमाथगणों (पिशाच-समूहों) से पीड़ित किये जानेवाले रापसों द्वारा अर्पित किए गए गीले मांस से भरे हुए सकारों के खण्ड पाए जाते हैं। कहाँ पर किसी स्थान पर प्रज्वलित मूंख के कारण खाने में विशेष लम्पट काकरूप राक्षसों द्वारा, वनदेषियों के ऐसे बाखक गियए जा रहे हैं, जो यक्ष द्वारा रक्षित स्थान पर छोड़े गए थे। किसी जगह, जंगली कुकुर रुप रामसों के तीक्ष्ण दाँतों द्वारा जहाँ पर इदियों के सट ( प्रान्तभाग) तोड़े जा रहे हैं। जहाँपर किसी स्थान पर, सकरूप राक्षसों के चनुपुटों द्वारा शुष्क धर्मखजाएँ खण्डित की जारही है। जहॉपर किसी जगह, करों के कण्ठसमूह व मस्तकसमूह पर स्थित अटाओं से, जो कि व्याघ्र देषधारी राक्षसों के मुलों से पवाई जा रही थी और चिरकाल से बिम-मित्र की जारही थी, व्याप्त हुई तोरणमालाएँ पाई जाती हैं। किसी स्थान पर भैसासुरों के सुरों के संचरण से जहाँपर पशुभों के शुष्क शरीर रूप किने घर-घर (मप्र) किये जा रहे हैं। जहाँपर किसी स्थान पर गजासुरों के उमत शुण्डादण्डों से आजपर्म के बदथे शेपण किए जारहे हैं। जहाँपर किसी स्थान में शुष्क ष रुधिर-निमित भिात्तयों के पित्र विद्वानास्प रामसों के तीक्ष्ण नखों के अग्रभागों द्वारा खोदे व उकीरे जा रहे है। जहाँपर किसी स्थान पर महान् पर्ष से व्याप्त शृगालरूप राक्षसों से आस्वादन किए जाने वाले मच के पात्र भूत मद्यघटों के शकस (संस) पाए जाते हैं। जहाँ पर किसी स्थान पर मन्त्रसाधक पुरुषों द्वारा अपने मस्तक पर वसाये जाने वाले गुग्गुल का रस वर्षमान है। जहाँ किसी जगह पर दुष्ट पुरुषों द्वारा अपनी नसों की अभियों के बीफ अक्षाए गये हैं। ...लि. सटि. प्रतिगों से संरलित । मु. प्रती तु 'रक्षीदरावदार्यमाषपुराणास्थिप्ररर्थ' । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास ZE चिन्महासाहसिकास्परुचिरापानप्रसाद्यमानरुद्रम् कचिन्महामतिकवीरकन्यविक्रीचमाणस्वनवरीपकृष्टस्वकीयान्त्रयन्त्रदलतोयमाणमातृमण्डलम् कचित्परुषमनी ममनुरमीत राहून रामलसहिद, कमस्मापि - शङ्काङ्कम, महाकालस्यापि विहितसाध्वलोकम्, समस्तस्वसंहारायतनं देवतायतनमुपगम्योपविश्य पापको कीनाशनगर मार्गानुकारिणा करार्थितेन तरवारिणा प्रकम्पितरातुरोकस्तमिथुना डाकिमदानादिवेश। अत्रान्तरे भगवानमरचूडामणिमयूख शेखरितचरणनखशि बोडेखपरिधिः, वसापरमामनिधिः, अवाश्याम्, कारयाचा (घ) चातुर्यसूतभावना प्रभावप्रकम्पिताय । तत्रिनस वनदेवतो संसप्रसूनमकरन्दस्वन्द जहाँ किसी प्रदेश पर महासाहसी पुरुषों द्वारा अपनी रुधिर धारा पीने के फलस्वरूप रुद्र ( श्री महादेव ) प्रसन्न किये जा रहे हैं। जहाँ पर किसी स्थल पर चार्षाक ( नास्तिक) बीरों द्वारा अपने शरीर का काटा हुआ मांस मूल्य लेकर बेचा जारहा है। जहाँ किसी जगह पर निर्दय पुरुषों द्वारा अपने पेट से बाहर निकाली हुई अपनी चाँतों के समूह से क्रीड़ा करने के कारण मातृ-मण्डल (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौसारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी और चामुण्डा ये सात माताएँ) प्रसन्न किया जा रहा है। जहाँ किसी स्थान पर निर्देयबुद्धि पुरुषों द्वारा अपने मांस की आहुतियों से अग्नि देवता सन्तुष्ट किया जा रहा है। एवं जिसने यमराज के हृदय में भी मृत्युभय या प्राणघातक व्याधिविशेष की आरा उत्पन्न की है, फिर सर्व साधारण लोगों का तो कहना ही क्या है। और जिसने रुद्र के चित्त में भी विशेष भय उत्पन्न किया है। इसीप्रकार जो समस्त प्राणियों के संहार - प्रलय (नाश) का स्थान है। प्रस्तुत मारिस राजा उक्त प्रकार के चरउमारी देवी के मन्दिर में प्राप्त होकर उसके सिंहासन के निकट बैठ गया । तत्पश्चात् खड़े होकर मृत्यु- मुख में प्रविष्ट कराने वाली व हस्त में धारण की हुई तीक्ष्ण तलवार से समस्य देव दानवों के समूह को कम्पित करते हुए उसने [मनुष्य युगल की बलि करने के उद्देश्य से ] चण्डक नाम के कोट्टपाल के सेवकों को शुभलक्षणों से युक्त मनुष्य-युगल ( जोड़ा ) लाने की आज्ञा दी। इस अवसर पर ( उसी चैत्र शुक्ला नवमी के दिन ) राजपुर नगर की ओर विहार करने के इच्छुक ऐसे 'सुस' नाम के आचार्य ने, अपने संघ-सहित विहार करते हुए पूर्व दिशा में उक्त नगर का 'नन्वमवन' नाम का उद्यान देखा । कैसे हैं सुदत्ताचार्य ! जो समस्त इन्द्रादिकों द्वारा पूजनीय हैं। जिसने देवों के शिरोरलों की किरणों में अपने चरण-नख मुकुदित किये हैं और उनकी अम किरण समूह का परिवेष (मण्डलघेरा ) प्रकटित किया है। जो 'सुदत्त' इस दूसरे नाम की अक्षय निधि होते हुए अनाश्वान्' (अनेक उपवास करनेवाले हैं अथवा इन्द्रियरूप चोरों पर विश्वास न करके उन पर विजय प्राप्त करनेवाले (पूर्ण जितेन्द्रिय), शाश्वत् कल्याणमार्ग की साधना में स्थित एवं अहिंसाधर्म की मूर्ति होने के कारण समस्त प्राणियों द्वारा विश्वास के योग्य) हैं। जिसके चरणकमल भावर्यजनक पंचाचार सम्बग्दर्शनादिआचार) रूप चरित्रधर्म के अनुष्ठान चातुर्य से उत्पन्न हुए महान् भेदज्ञान के अनोखे प्रभाव से पूर्व में कम्पित कराये गए पश्चात् शरण में आए हुए नत्रीभूत यनदेवता के फुके हुए मुकुट संबंधि पुष्परस के क्षरण से दुर्दिन को प्राप्त हुए हैं। अर्थात् प्रस्तुत भुक्कुटों के पुष्परस के चरण से जहाँ पर बँधेरा-सा या गया है। १. थोऽक्षस्तेनेष्वविश्वस्तः शाश्वते पथि निष्ठितः । समस्तसत्वविश्वास्यः सोऽमाश्वानिह गीयते ॥ बच्च Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तितका पूत्रव्ये सालिबासमतीप्रायपदासाईसमर्थकाहिशयविपसमाजवरसरबतीकर क्रीडापालकतिसर्थः बाधिशेष:सविधवापिनिषण्णकारीमविरोधाधकास्यमामाशा साधावससितादेवमासमाया, समस्तसमशनवविवाविदामदुप. प्रकार पुस्तकमण्डलीमार्सण्या, पविगन्सविधासविक्षतशिध्यणिसमीरपथप्रथमानकीतिकलहसीमिबासीहतमिखिलभुकभाभोगा, मुशामिःसन्धिसमाधिरिषुषिशेषोन्मेपनिर्विषीकृतविषविषमदोषामुपविषयविषधरः, प्रसंख्यानपविषावकलुष्यानुस्थानमन्मथमवरब्रितबस्मरविजयः, ___ जो ऋषिराज समस्त षद् दार्शनिकों (जिन, जैमिनीय, फपिल (सांख्य ), कणाव अथवा गौतम, चार्वाक भौर बौद्धदर्शन ) के शास्त्ररूप तीर्थ में निरूपण किये हुए पदार्थ' समूह संबंधी गम्भीर शान की अतिशय विशेषता रखते थे, इसलिए मयूरवाहिनी सरस्वती देवी ने साक्षात् प्रकट होकर अपने करकमलों पर स्थित क्रीड़ा कमल द्वारा जिनकी पूजा की थी। जिस ऋषिराज का यशरूप कमल-समूह चारों समुद्र-रारी हों के लिश्टर गन समान किन्न परियों के मुखरूप सूर्य द्वारा विकसित हुआ था और जलदेवता-समूह द्वारा कर्णपूर आभूषण बनाया गया था। जो ऋषिवर, समस्त शास्त्रों के निर्दोष शान में पारंगत हुए महाविद्वानों के समूहरूप श्वेत कमल-समूह को विकसित करने के लिए सूर्य समान थे। जिसकी कीर्तिरूपी राजहंसी, समस्त दिशाओं के प्रान्त में रहनेवाली विख्यात बहुश्रुत विद्वत्ता पूर्ण शिष्य मण्डली रूप धाकाश में व्याप्त हो रही थी, जिसके कारण वह समस्त पृथिवीमण्डल पर विस्तार रूप से निवास कर रही थी। जिसने जहर-समान तीव्रतर पापकर्म से कलुषित करनेवाले कमनीय कामिनी आदि विषयरूप भंयकर सों को, अपने शुद्ध ( राग, द्वेष व मोहरहित ) मानसिक अभिप्राययुक्त और मोक्षरूप अमृत की वर्षा करनेवाले धर्मध्यान रूप आसोज पूर्णमासी-संबंधी चन्द्रमा के उदय से निर्विष कर दिया था। धर्मध्यान और शुक्लध्यान रूप वाग्नि से समूल भस्म (दग्ध) किए हुए और जिसके कारण पुनरुज्जीवित (फिर से पैदा हुआ ) न होनेवाले कामदेव के मद द्वारा अर्थात् कामदेव पर अनोखी विजय प्राप्त करने के कारण-जिन्होंने शिवजी धारा की हुई कामविजय को १. समस्त दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत पदार्थों के नाम:-- ५-जैनदर्षन में-जीव, अजीय, भालव, बन्ध, संघर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य व माप ये नघ पदार्थ माने गये हैं। २-जमिनीय दर्शन में-नित्य घेदवाक्यों द्वारा तत्वनिर्णय होता है, अतः इसमें वेद धारा निरूपण किया हुआ 'धर्मतत्य ही पदार्य माना है। -कपिल-सांख्य दर्शन में-१५ पदार्थ माने हैं। १-प्रकृति, २-महान् , ३-अहंकार और अहहार से जलन होनेवाली ५ तन्मात्राएँ (१-शब्द, २-रूप, ३-गन्ध, ४-रस और ५को स्पर्शतमात्रा ) और ११ इनियाँ (पाँच शानेन्द्रिय-स्पर्शन, रसना, घ्राण, पक्षु और श्रोत्र ) और पाँच कर्मेन्द्रिय ( १-वाणी, २-पाणि ( हाथ ), -पाद, ४-पायु (गुदा) और उपस्थ ( जननेन्द्रिय) और मन और पाँच तम्मानाओं से उत्पन्न होनेवाले पंचभूत ( पृथिवी, जल, वायु, तेज और भाकाण) अर्थात् शब्दतन्मात्रा से आकाश, रूप से सेज, गन्ध से पृथिवी, रस से अल और स्पर्श से बायु उत्पक होता है। इस प्रकार २४ पदार्थ हुए और पुरुषतस्य ( आत्मदय्य), जो अमूतिक, चैतन्य अकर्ता और भोक्ता है। सब मिलाकर २५ पदार्थ माने हैं। ४-कणाददर्शन में-१-द्रव्य, २--गुण, कर्म, ४-सामान्य, ५-विशेष, ६-समवाय और ५-प्रमाण थे सात पदार्थ माने गये हैं। ४-गौतमदर्शन में-- १६ पदार्थो का निर्देश है। १-प्रमाण, २-प्रमेय, ३-संक्षय, ४-प्रमोजन, ५-दृष्टान्त, ६-सिद्धान्त, ७- अवयव, 6-तर्क, ९-नर्णय, १०-पान, १-जल्प, १२-वितण्डा, ११-हेत्वाभास, १४-ल, १५-जाति और १३-निमइ स्थान । ५-चाक ( नास्तिक ) दर्शन में- पृथिषी, जल, तेज, और भायु ये चार पदार्थ माने हैं। मह जोधपदार्थ को स्वतंत्र : मानकर उक चारों भूतो-पृथिवी-बाद-के संयोग से उसकी उत्पत्ति होना मामता है। -चौसदन में-बार आर्यसत्य ( दुःख, दु:खासमू दुःनिरोध, और दुःखों की समुलतल हानि (अब से नाम होना) ये चार पदार्थ माने हैं। यशस्तिलक-संस्कृत टीका पूर्वाद से पू. ५१ सम्वृत Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास लोम्यासतगुणधर्मधरः, अकिंचनोऽपि रत्नप्रनिवासः, अविभूभाऽपि सुवर्णालंकारः, अविषमलोचमोऽपि संपन्नो गाऽपि सुदर्शनविराजितः, असगस्टहोऽपि जातरूपप्रिया, K किया था। क्योंकि शिवजी द्वारा भरम किया हुआ कामदेव पुनरुज्जीवित होगया था, कि प्रस्तुत प्राचार्य सुदत्त श्री द्वारा भस्मीभूत किया हुआ कामदेव पुनरुज्जीवित न होसका। परवस्तमोबहुलोऽपि । रजोगुण व तमोगुण की प्रचुरता से रहित होकर के भी-प्रताप व पराक्रम-युक्त व की अधिकता से राहत होने पर भी ) आतत-गुण-धर्म-धर ( आरोपिन- दाई गई प्रत्यश्चा-युक्त -- धनुर्धारी) थे। यहाँ पर विरोध प्रतीत होता है, क्योकि प्रताप और पराक्रम-हीन पुरुप चढ़ाई पाले धनुप का धारक किस प्रकार हो सकता है। इसका परिहार यह है कि जो अरजस्तमोबहुलोऽपि पाप व अज्ञान की प्रचुरता से रहित होते हुए श्रपि (निश्चय से ) आतत-गुण-धर्म-धर (महान मावि गुणों व उत्तमझमादिरूप धर्म के धारक) थे। इसी प्रकार जो अकिञ्चन ( दरिद्र) होकर के मायनिवास (तीन माणिक्यों के धारक थे। इसमें भी पूर्व की भाँति बिरोध मालूम पड़ता है, करिद्र मानव का तीन माणिक्यों का धारक होना नितान्त प्रसङ्गत है। अतः समाधान यह है कि पिराज ) अकिश्चन (धनादि परिग्रहों से शून्य-निर्मन्य वीतरागी) होते हुए निश्च प्र से रत्नत्रयनिवास मार्शन, सम्बरझान व सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय के मन्दिर ) थे। जो अचिभूपणोऽपि (कनककुण्डलादि I से रहित होने पर भी) सुवर्णालंकार ( सुवर्ष के अलारों से अलंकृत अथवा राजकुल के वृक्षार) यहाँ पर भी विरोध प्रतीत होता है, क्यों के आभूषण-हीन मानव का सुवर्णमयी प्राभूपणों से मण्डित या राजकुल का शृङ्गार होना असङ्गल है। अतः इसका परिहार यह है कि जो अ-विभूषण सका सर्वज्ञ हरे भूपग है, ऐसे ) होते हुए निश्रय से सुबर्ण-अलंकार राजकुल अथवा शोभन आभूषण से सुशोभित ) थे। जो अपमलोचनोऽपि ( अत्रिलोचन---शङ्कर (रुद्र) न हो करके सम्पन्न-उमा समागम (गोरी-पार्वतो-के साथ पारपूर्ण रतिपिलास करनेवाले थे। यहाँ पर Tोध प्रतीत होता है; क्योंकि जो शङ्कर नहीं है, वह पार्वती परमेश्वरी के साथ परिपूर्ण रसिविलास ला किस प्रकार हो सकता है ? अतः समाधान यह है कि जो अ-विप-मा-ले'चन ( हालाहल सरीखी काली कर दृष्टि से शून्य अथवा राग, द्वेष रहित समदर्शी या शास्त्रोक्त लोचन-युक्त अथवा मिध्यात्व सम्बग्रंष्टि होते हुए निश्चय से जो सम्पन्न-उमा-सम-भागम थे। अर्थान्—जिसकी कीति, या परिणाम और सिद्धान्त ज्ञान परिपूर्ण है, ऐसे थे। भावार्थ-जो कीर्तिमान, समदृष्टि एवं प्रकाण्ड विद्वान थे। इसी प्रकार जो अकयोऽपि ( श्रीकृष्ण नारायण न होकरके भी ) सुदर्शन( सुदर्शन चक्र से विभूषित ) थे। यहाँ भी पूर्व की तरह विरोध प्रतीत होता है। क्योंकि जो की पण नहीं है, वह सुदर्शन चक्र से विराजित किस प्रकार हो सकता है ? अतः इसका परिदार यह है अकृष्ण ( पापकालिमा या कृष्णलेश्या से रहित ) होते हुए निश्चय से सुदर्शन-राजित ( सर्वोत्तम सौन्दर्य या सम्यग्दर्शन से अलंकृत ) थे। अथवा [शः कृत उपद्रवों के अवसर पर ] जो सुदर्शनमेरू सरीखे पजिव (निश्चल) थे। जो असङ्गम्पृहोऽपि धन-धान्यादि परिग्रहों में लालमा-शून्य हो करके भी जातरूप सुवर्ण में लालसा रखने वाले थे। यह कथन भी विरुद्ध प्रतीत होता है, क्योंकि धन-धान्यादि परिग्रहों झानसा न रखने वाले घातरागो सन्त की सुवर्ण में लालसा किस प्रकार हो सकती है ? अतः इसका धान यह है कि जो असशस्पृह ( असङ्गो-कर्ममल कज से शून्य सिद्ध परमेटियों अथवा परिप्रह-हीन नियों में लालसा रखते हुए ) निश्चय से जातरूप प्रिय थे। अर्थान्-जिन्हें नग्न मुद्रा ही विशेष प्रिय थी। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाविसकापूलव्ये परमातीविरपि महाभागरितः, अकठिनत्तिरपि समास्तमाः, मन्यास्पदपोऽपि नियमितकरणमामः, उफ्याश्चतस्तपस्तपल, सुदीचयः समामृतनिरशेतस्थ, मानसप्रदेश: सरस्वतीदारवायाः, प्रभवपर्वतः प्रशममम्माकिनीप्रवाहस्य, सविध सौजन्यारीजस्थ, दाहरणं गम्भीरतापाः, निदर्शनमौदार्यस्थ, प्रसूतिरुधानं महिम्नः, प्रत्यादेशोऽभिध्यायाः, सिविल, मानावविश्व सर्वगुकानीनाम् । सर सरसत्संचरणसंकोचिनि, शिशिरकण्मयरीजामाविममाणानिलकुळे, स म्पथरवेप. अस्मारिति, विसरमादेशकशनचीके, विषमूलकोटरकुटोसंकुचिमाल्गर्दपरिषदि, जो अशुद्धनयनीतिरपि ( नीति-विरुद्ध असत् प्रवृत्ति में तत्पर होकर के भी) महाभागचरित (पुण्यवानों) सरीखे चरित्रशाली ये। यह भी असगास प्रसीत होता है, क्योंकि नीतिविरुद्ध असत् प्रवृत्ति भनेवाला पुण्यधानों सरीखा चरित्रशाली किस प्रकार हो सकता है? इसच समाधान यह है कि जो अशुद्धनीति (अशुवनय-परसंपर्कषश पदार्थ को अशुद्ध करने पाणी पशुखमय में प्रवृत्त होते हुए) निश्चय से यो महाभागचारेत (महान् प्रमशरूप चरित्र के धारक) थे। इसी प्रकार जो अकठिनवृत्तिरपि ( कोमल प्रकृति-युक्त हो सके भी) क्षमा स्वभाव (पृथिवी-सरीखी प्रकृति शाली-कठोर) थे। उक्त पात भी विस्तू है। मोकिमत प्रकृतिवाला मानव कठोर प्रकृति-युक्त किस प्रकार हो सकता है। इसका समाधान यह है किजो अकठिन चि, अर्थात् जिसकी आहारवृत्ति निर्दयता-शून्य है ऐसे होते हुए जो निश्चय से जमा स्वभाव (तचमक्षमा धर्म के धारक) थे। भावार्थ-जिस सुदत्ताचार्य की गोचरी व भ्रामरी-मादि नामवाली जीविका (आहार ) गृहस्यों को पीड़ा पहुँचानेवाली नहीं थी और जो निश्चय से समस्त प्राणियों में स्मा-धर्म के धारक थे। जो अन्यालहृदयोऽपि (कण्ठ पर सर्प का धारक शक्कर-न हो करके भी) नियमित-करण पाम जिसने त्रिपुर-दाह के अवसर पर अपने करण --सैन्य संबन्धी देवताओं का गण व शरीर-स्थित प्राम नियमित-बद्ध किये हैं,) हे अर्थात् जो त्रिपुरदाह-सहित है। यह कथन भी असङ्गस प्रतीत होता है क्योंकि रुद्र-शून्य व्यक्ति का त्रिपुरदाह असंगत है। इसका समाधान यह है कि जो अव्याख हृदय (अदुष्ट चित्तशाली) होते हुये निश्चय से नियमिव - करणाम है। अर्थात्-जिसने अपना इन्द्रिय समूह नियमित-वशीभूत किया है। अभिप्राय यह है कि जो सुदस श्री शुद्ध हृदय होते हुए तिलिव इसी प्रकार जो सृषिराज सुदच श्री तपोरूपी सूर्य के उदित करने के हेतु उद्याचल, दयारूप असतारण हेतु कार्तिक मास संबन्धी पूर्णमासो का चन्द्र सरस्वतीरूपी राजहंसी के निवास हेतु मानसरोवर एवं शान्तिरूप गला के प्रवाह हेतु हिमालय तथा सजनसारूप बीज के उत्पत्ति क्षेत्र हैं। इसी प्रकार जो गम्भीरता व उदारता का उदाहरण, माहात्य की जन्मभूमि एवं अभिध्या (विषयाकारमा व पदव्यस्पृहा) का निराकरण तथा धैर्य की निधि होते हुए समस्त गुण रूप मणियों की खानि । जिस पूज्य सुदनाचार्य की गत्रियों ऐसी हेमन्त (शीच ) ऋतु में सुख पूर्वक व्यतीत होती थी। यो (हेमन्त ऋतु) समस्त प्रणियों के पर्यटन का संकोच करती है। जिसमें पाले के जल विन्दुओं की मजार-भोपी को तिरस्कृत करनेवाला-उससे भी अत्यधिक ठण्डा-वायुमण्डल वह रहा है। जो विश्व के समस्त प्राषि-समूह की चीत्रवेदना और कम्पन को वृद्धिंगत करने वाली है। जिसमें पराधीन पथिकों दन्तपतरूप वीणा नीरस शब्द कर रही है। जिसमें, कोटर ( जीर्ण-वृक्ष की खोह ) की बॉमी-मल रूम कुटी -एक खम्भे वाला वस्रगृह ( तम्बू) में सर्पसमूह सिकुड़ा हुआ है। १. विरोधामाट-अलहार। २. समुचयालंकार । । - - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास ३१ हिम पहिलाकुरित कुटहारिकाकुन्तलकलापे, मृगयूथरोमन्धसामर्थ्यदथिमि, प्रावेल मुक्ताफलित करडिरिपुरोमभागे, मजपालविलासिनी कपोलविधु वैशधरा तिनि, हलाजी वजायापदशलावण्यलोपिनि, बनेश्वरवमिताभ र दलका सिकशिनि, मुनिकामिनीफरकिसल्यकृततरङ्गस, द्विजकण्ठकुण्डला विधायिनि विप्रलन्धपुरन्ध्रीस्तनभारज निसजानुसंबाधे, कुचकुइरोपसर्पणरतपोखेक्सि सवसि विश्वम्भोरुभूषण मिळावे, सहसुप्तमिथुना किनादेशिनि निरन्तरमुस्सन्तीभिः करतरूपरामर्शसुखविकोपनचीभिरिव सदरामप्रियातिथिति दुर्विधकुटुम्बेषु जरस्कश्चापटचराणि मयत पथिकेषु पाणिपलदानि, निरवयति दयितोसितमनुसरन्तीनामभिसारिकाणामरूपक्ष्मा स्वारासारश्री कलिस शौकेिमशुक्तिपुटस्पर्धीनि विलोचनानि, संधानयति सा एलीना भूरूपये सपाट पटकारिषु बृहद्रा हयालुताम्, जिसमें हिम-बिन्दुओं द्वारा जल-पूर्ण घटों की धारक दासियों के केशपाशों की श्रेणी पलित (सफेद) बालाकुरों से व्याप्त की गई है। जो हिरण-समूह की रोथाँने की शक्ति को पीड़ित करने वाली है। जहाँ पर सिंहों का स्कन्धकेसर स्थान हिम-बिन्दु-समूह द्वारा मोतियों से व्याप्त किया गया है । जो गोकुल सम्बन्धी ग्वालों को गोपियों के गाल रूप चन्द्रमाओं की उज्वलता नष्ट करती है। जो कृषकों की कामिनियों के चरणकमलों का लावण्य नष्ट करनेवाली है। जो भीलों की कामिनियों के श्रेष्ठ रूप पत्तों की कान्ति को कृश करने वाली है। जिसने प्राम्य तापलों की कामिनियों— उपस्थिनियों के हस्त पक्षों पर वरन सनम किया है। जो ब्राह्मणों के गलों को छुटता युक्त --- शक्तिदीन- करनेवाली है । जिसने वियोगिनी स्त्रियों के कुचकलशों के भार से उनके जानुत्रों-घुटनों को कष्ट उत्पन्न किया है। जिसमें बालबचोंवाली स्त्रियों का मन ऐसे शिशुओं द्वारा वेद- खिन्न किया गया है, जो ( दुग्धपान करने के हेतु ) उनके स्तनों के मध्य प्रवेश करने में अनुरक्त है। जिसमें अधिक ठंड के कारण कमनीय कामिनियों द्वारा आभूषणों के धारण करने की प्रीति रोक दीगई है । जो एक शय्या पर सोनेवाले स्त्री पुरुषों के जोड़ों के लिए गाढ़ आलिङ्गन करने का आदेश करने वाली है। जो भीलों की स्त्रियों के स्तन युगलों पर निरन्तर प्रकट होने वाली ऐसी सेमावराजियों को उत्पन्न करके उसे ( कुच-मण्डल को ) कण्टकित करती है, जो कि हस्ततल के स्पर्शमात्र से उसप्रकार सुख नष्ट करती हैं जिसप्रकार छत के स्पर्श से चुभी गई सूचियाँ (सुईयाँ ) सुख नष्ट करती हैं या दुःख देती हैं। ओ दरिद्र मनुष्यों के कुटुम्बियों की कथड़ी व जीर्ण वस्त्र फाड़ती है। जो पान्थों के हस्तपल्लव कम्पित करती है। जो प्रियके गृह में प्राप्त होनेवाली अभिसारिका' – प्रिय को प्रयोजन सिद्धि के लिए संकेत स्थान को जानेवाली - स्त्रियों के तिरछे नेत्र रोगों के अम भागों में स्थित हिम बिन्दुओं के समूह द्वारा उनके नेत्रों को इसप्रकार मनोश प्रतीत होनेवाले करती है जिसप्रकार ऐसे सीपों के फुट जिनके प्रान्त में मोतियाँ स्थित हैं, शोभायमान होते हैं। अग्नियों में लालसा वा श्रद्धा विस्तारित करती है, जो कि अधाओं से श्वेत रक्त चिन्हों को उत्पन्न करने वाली हैं। * तथाच श्रुतसागराचार्य: जो तपस्वियों की स्त्रियों को ऐसी लेकर समस्त कामोद्दीपकों में :--यस्य वूर्ती प्रियः प्रेष्य दत्वा संकेतमेव वा । कुतवित्कारणान्नेति विप्रलब्धात्र सा स्मृता ॥१॥ यशस्तिलक की संस्कृत टीका पृष्ठ ५७ से संकलित अर्थात - जिसका प्रिय वली भेजकर अथवा स्वयं संकेत देकर के भी किसी कारणवश उसके पास नहीं भाता, उसे विप्रलब्धावियोगिनी - नायिका कहते हैं । १. तथा च श्रुतसागराचार्य : कान्तार्थिनी तु या याति संकेत साभिसारिका । संस्कृत टीका पू. ५८ से संकलित Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये ध्यानयति पवर्णय मनोहराणि गर्भरूपपनेषु पच्याच्चानि, मन्दति च प्ररोचिषोऽपि तेजः स्फुरितिमानम् । अपि च यत्राविशिशिरभरात कान्ते काककुटुम्बिनी न कुरुते प्राप्तेऽपि चाटुक्रियां | हंसपुदान्तरात्रि कतिष्टति ॥ कृत्कुचरस्तवतिसवयः पांसुः पुनः शीर्यते । भर्तृणां प्रायनं न मुञ्चति परं कोऽपि योषिज्वनः ॥ ६३॥ सिंहः संनिहिते सति गजे शीर्यत्क्रमस्वन्तो । मध्याऽपि न जातराध्यकवलः प्रायः कुरङ्गीपतिः । यत्सः कुण्ठितकण्ठनालवलन: पातुं न शक्तः स्तः । वक्त्रं नैत विभावकर्मकरणे पाणामपि ॥ ६४ ॥ एः स्तम्यतरूप्ररूढ विरसप्रागाणां रतिः क्षोणी धूल के व्याप विकिरत्यक्ताः प्रभावागमे । कोकः शुल्कएाजारचरणन्यासः त्रिषां वीक्षते व प्रान्तविधुनि च कम हंसः पदं न्यस्यति ॥ ५० ॥ सडेदात् खरं खिद्यते भूमिश्वस्तकरा करेणुरवशक्षीरस्ती सम्पति । हंसी जो गर्भस्थ शिशुओं के मुखों से ऐसे ढोल या नगाड़े बजवाती है, जो प प प इसप्रकार आर-बार मनुष्यों के लय ( साम्य) को प्रकट करने के कारण चित्त को अनुराअत करते हैं । इसीप्रकार जो अत्यधिक ठंड के कारण सूर्य के भी प्रकाश सम्बन्धी स्फुरण को मन्द करती है । जिस शीतऋतु में विशेष शांत वश चकवी अपने पति - चकवा - के आजाने पर भी प्रातः काल होने पर भी - उसकी मिथ्या स्तुति नहीं करती। इसीप्रकार हंस, जिसके चञ्चुपुट (चोंच ) के मध्यभाग से शैवाल गिर रहा है, ऐसा हुआ स्थित है । अर्थात् अधिक शीत के कारण शवाल चबाने में भी समर्थ नहीं है । जहाँ पर हाथी ने सूँड द्वारा जिसकी राशि की है ऐसी धूलि बड़ी कठिनाई से नाचे गिरती है । अर्धान- उसकी सूँड़ पर लगी हुई धूलि नीचे नहीं गिरती । जिसमें विशेष ठण्ड के कारण खियाँ पतियों की शय्या उनके अत्यन्त कुपित होने पर भी नहीं छोड़तीं ॥ ५३|| जिसमें अत्यन्त ठंड के कारण शेर, जिसके पंजों का स्पन्दन - चलना व्यापारशून्य होगया है हाथी के समीपवर्ती रहने पर भी भूखा रहकर कष्ट उठाता है। अर्थात् उसे मारकर नहीं खाता। जहाँ पर अत्यधिक ठण्ड के कारण कृष्णसार मृग, मध्याह्न हो जाने पर भी प्रायः छोटे-छोटे तृणों को ग्रास करनेवाला नहीं रहता । जहाँ पर बछड़ा जिसके गले के नाल की झुकने की चेष्टा कुण्ठित — मन्द क्रियावाजी — होचुकी है, स्तनपान करने समर्थ नहीं है । एवं जहाँपर विशेष शीत पड़ने से ब्राह्मणों का भी इस्त प्रातःकालीन क्रिया काण्ड सन्ध्या-वन्दन व आचमनादि-करते समय मुँह की ओर नहीं जाता ||५४|| जिस शीतऋतु में विशेष शीत-वश हिरणों का अनुराग ( चबाना ) धान्यादि के प्रकाण्ड ( जब से लेकर शाखातक का पौधा प्रदेशों में उत्पन्न हुए नीरसप्राय पत्तों से होता है । अर्थात् जिस शीतऋतु में अत्यधिक शीत- पीड़ित होने के I कारण हिरणों में अपने मुख के संचालन करने की शक्ति नहीं होती इसलिए वे स्तम्बचर्षण करने में असमर्थ हुए नीरस पत्तों को ही चढाते हैं। इसी प्रकार जिस शीतऋतु के आने पर चटका दे पक्षियों द्वारा सूर्योदय के समय पृथिवी पर लोटने की क्रीडाएँ छोड़ दी गई हैं। एवं जहाँ पर चकवा शुष्क मृणालसमूह पर अपने चरण स्थापन करता हुआ अपनी प्रिया - धकवी - की ओर देखता है । एवं जहाँपर इस मुख की चोंच के अग्रभाग द्वारा कम्पित किये हुए कमल पर पैर स्थापित करता है || ५|| जिस शीत ऋतु के अवसर पर विशेष शीत पड़ने से हंसी अपने मुख के मध्य में हंस द्वारा अर्पण किये हुए कमलिनीकन्य के खंड से अत्यन्त दुःखी हो रही है । क्योंकि वह विशेष ठंड के कारण उसको चबाने में असमर्थ होती है । ) १. दीपकालंकार । २. दीपकालंकार | ३. दीपकालंकार | Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं श्राश्वासं प्रातडिम्भविचेष्टितुण्डमानी हार काहाम मे हस्तभ्यस्तफलहवा च शब्दी बाष्पातुरं रोदिति ॥१६॥ सारि करिणो गृह्णन्ति रोघः स्थिता जिह्नमनाएमेसिन पयः सिंहे कृष्णेऽपि च । एणानामधराभ्वराललुलियास्त्रिष्टति पाथःकणाः पूर्वोत्खास विशुष्क पत्रलगतः पोत्री व मुस्वाशनः ॥ २७ ॥ क्रि व शून्याः परैः कररुद्द रमणीरूपोला ः कान्ताधरा न शनक्षतकान्तिमाज: । स्वच्छन्दकेलिषु स्ता बनिया न यत्र काले परं जनितमगे ॥ ६८ ॥ पत्र । लीच्छाविलास विरतैर्नयनासिवान्नैः स्पर्शासुखावर दलैर्वश्नार विन्दैः । रोमाञ्चकण्टकित कुकुड्मलैश्च श्रीभिः साः सुकृतिनः सुरते सतेशः ॥६९॥ ३५ यत्रानवरसमन्तः प्रवर्धमानध्यानधैर्य धनंजयावधूत हिमसमयप्रत्यूहष्यूहस्यातिनिन्दा तसौ मध्यसमध्यासिन हव स्थि गायिनो हेमन्ते विहितविर हिनदुर्लभ विभातसमागमाः सुखेन विभान्ति विभावर्यः । rer च दादातिप्रापासजहाँपर हथिनी, जिसने अपना शुण्डाईड ( सैंड ) पृथिवी पर गिरा दिया है और जिसके दुग्ध-पूर्ण स्तन ठंड के कारण पराधीन हो चुके हैं, अर्थात् — उसका बच्चा शीत-पीड़ित होने के कारण उसका स्तनपान नहीं कर सकता, दुःखी हो रही है। इसी प्रकार के आने पर भी सवेरे अपने व मुख को पसरने की क्रिया — खाने की क्रिया - से शून्य जानकर अर्थात् - इसका मुख प्रास भक्षण करने में तत्पर नहीं है, अतः उसे मरा हुआ समझकर अपने हाथ में द्राक्षादि फलों का रस धारण करती हुई पात के कष्ट पूर्वक रुदन करती है ||५६ || जिस शीतऋतु में विशेष ठण्ड के कारण हाथी मध्याह्नबेला में भी नदी आदि जलाशयों के तटों पर स्थित हुए तरों का पानी पीते हैं। एवं सिंह प्यासा होने पर भी पानी उसकी जिहा के अप्रभाग से गले की नाल ( छिद्र ) में प्रविष्ट नहीं होता । अर्थात्जिला के प्रभाग में ही स्थित रहता है। इसीप्रकार जलबिन्दु हिरणों के घोष्ठ के मध्य में ही स्थित रहते हैं, कष्ठ के नीचे नहीं जाते । इसीप्रकार जंगली बराह पहिले स्त्रीखों द्वारा खोदी हुई सूखी छोटी तलैया में स्थित हुआ नागरमोथा चवाता है ॥५७॥ विशेष यह कि जिस ऋतु में रमशियों के गाल नख-चिन्हों -- नखक्षतों से शून्य हैं, एवं खियों के ओष्ठ दन्त-क्षतों की कान्ति ( रक्तवा रूप शोभा ) के धारक नहीं है और जिसमें उल्लास उत्पन्न करानेवाली कामिनियाँ यथेष्ट क्रीड़ा करने में अनुरक्त नहीं हैं। केवल प्रस्तुत शीतऋतु काश्मीर की केसर-कदम में ही प्रीति उत्पन्न कराती है, क्योंकि केसर उष्ण होती है ॥५८॥ जिस शीत ऋतु में कमनीय कामिनियों ने संभोग क्रीड़ा के अवसर पर पुण्यवान् पुरुषों को लीला बिलास ( प्रफुल्लित होना आदि ) से विरल नेत्ररूप नीलकमलों द्वारा और जिनके ओंठ दल शीत व कठोर होने के कारण दुःखजनक हैं ऐसे मुखकमलों द्वारा तथा जिनके तट प्रकटित रोमानों से फण्टकित हैं ऐसी कुक्षियों ( रसन-कालयों ) द्वारा सुख के अवसर पर खेद - विन्न किया है ॥५६ कैसे हैं सुदत्ताचार्य ? जिन्होंने चित्त में बढ़ते हुए धर्मध्यान की निश्चलतारूप अभिद्वारा शीतकालसंबंधी विवाधाओं के समूह को नष्ट कर दिया है और जो शीतऋतु में भी कठोर जमीन पर उसप्रकार शयन करते हैं जिसप्रकार शीतर हित राज-महल मध्य में राजकुमार शयन करता है। कैसी हैं वे शीतकालीन रात्रियों ? जिनमें वियोगी पुरुषों को प्रातःकाल का समागम दुर्लभ किया गया है। इसीप्रकार श्रीष्म ऋतु के दिनों में भी जब भगवान् । सम्पूर्ण ऐश्वर्यशाली ) सूर्य अपनी ऐसी किरणों द्वारा समस्त पृथ्वीमण्डल के रस कवलन - भक्षण करने के लिए उद्यत तत्पर-था अतः ऐसा प्रतीत होता था मानों प्रलयकाल से उद्दीपित जठरपाली प्रलयकालीन अनि ही है, तब ऐसे सुदन्ताचार्य की मध्याह्न वेलाएँ सुखपूर्वक व्यतीत होती १. दीपकालंकार | २. दीपकालंकार ३. हेतु - अलंकार | ४. हेतु अलंकार । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L यशस्तिलक चम्पूकाव्ये स्तनोपल शिविर लस्फुलिङ्गसङ्गत पितस्थल लज राजिभिस्तस्मूल विद्यार्ध विनिर्गताशीविषविषधरवदनोद्गीर्णगाडगरखानकाखाकाशएप्रकाशमसरोवर इद इनका मान महिला श्वासानि पुनरुको बम्धेर पाजिस जगतज्योतिःसारैरिव का मानिक गर्भनिर्भरैरित्र च करैश्चिरविसर्ग समयसंधुषितजरुर जातवेदसीव सकलानपि रसान् प्रसितुमत्रसिते भगवति गभस्तिमादिनि, परागप्रसरभूसरित समर तदिगन्तराष्टाभिर्वा लघुसिभिर्जगतो अनिताइहारे परिसर्पति समन्तान्नद इत्र सर्वकष महति भुविदिनि दिशि विदिशि च वैश्वानरसृध्य इव दृष्टिपथमत्रतरति विष्वदी चिलोके, विनिर्मितमु रोपहारास्थित्र दुःस्पर्शप्राry सर्वतः शर्करारिला विरोचन चूर्ण की सचित्र नपसूमाथितातिथिषु पधिषु थीं। कैसे हैं सुदत्ताचार्य ? जिन्होंने धर्मध्यान करने के उद्देश्य से सूर्य के समीपवर्ती शिखरवाले ऊँचे पर्वत की शिखर पर आरूढ़ होकर अपनी दोनों भुजलताएँ लम्बायमान की हैं। जिन्होंने अपने प्रताप द्वारा सूर्यविम्व को केशित करनेवाला मुखमण्डल सूर्य के सम्मुख प्रेरित किया है । जिन्होंने वित्त संबंध को करनेवाली - श्रचिन्तनीय - तपश्चर्या द्वारा समस्त देव - विद्याधर- समूह को आश्चर्य उत्पन्न कराया है । जिनका शरीर ऐसे आत्म ध्यान से उत्पन्न हुए शाश्वत् सुख के प्रवाहरूप अमृतसमुद्र से स्नान कराया गया था, जिसमें परिपूर्ण धर्मध्यान व शुक्लध्यान रूप पूर्णमासी के चन्द्रोदय से ज्वार-भाटा आरहा धा वृद्धिंगत हो रहा था और फिर शरीर के भीतर न समा सकने के कारण मानों - निषिद्ध स्वेदन के मिष ( बहाने से शरीर से बाहर निकल रहा था। इसीप्रकार जो ऋषिराज सुदसाचार्य शाश्वत सुख-समुद्र में स्नान करने के कारण ऐसे प्रतीत होते थे मानों— मेघवर्षा के मन्दिर - विशाल फुल्दारों के गृह के समीप ही प्राप्त हुए हैं। कैसी हैं वे सूर्यकी किरणें ? जिनकी उष्णता - प्रकाश वन की दावानल अग्नि के प्रज्वलित होने से द्विगुणित होगया है । जिनके द्वारा स्थलकमलों की श्रेणियों (समूह) इसलिए विशेष सन्तापित की गई थीं, क्योंकि इन किरणों में सूर्यकान्त मणिमयी पर्वतों की शिलाओं के अग्रभागों से उचटते हुए अग्निकों का सङ्गम होगया था। जिनके प्रकाश का विस्तार इसलिए विशेष भयानक था, क्योंकि उसमें वृक्षों की जड़ों में वर्तमान बिलबिद्रों से आधे निकले हुए विष सर्पों के मुख से उगली गई तीव्रषि संबंधी अग्नि ज्वालाओं का सङ्गम या मिश्रण था । जिनकी उष्णताबन्ध विरह रूप अग्नि द्वारा भस्म की जानेवाली ( वियोगिनी) कमनीय कामिनियों की (उष्ण ) श्वास वायु द्वारा द्विगुणित किया गया है। जो तीन लोक के समूह सम्बन्धी प्रकाशतत्वको स्वीकार की हुई सरीखी और अग्निकणों को गर्भ में धारण करने से अतितीव्र सरीखीं शोभायमान होती थीं। जब सर्वत्र ऐसी (उष्ण ) वायु का संचार हो रहा था तब प्रस्तुत आचार्य की श्रीष्मकालीन मध्याहवेलाएँ सुख पूर्वक व्यतीत होती थीं। कैसी है वायु ? जिसने धूलि के प्रसार ( उड़ाना ) द्वारा समस्त दिशाओं के मंगलको धूसरित — कुछ उज्वल करनेवाली वायुमंडल की वृत्तियों (प्रवृत्तियों अथवा पक्षान्तर में क़ौशिकी, सात्त्वती, आरभटी व भारती इन चार प्रकार की वृत्तियों) द्वारा समस्त लोक के शारीरिक अङ्गों का उसप्रकार विशेष (संचालन या शोषण) किया है जिसप्रकार नट (नृत्य करने में प्रवीण पुरुष) अपने शारीरिक अङ्ग का विशेष (संचालन) करता है। और जो उष्णता वश समस्त जगत को सन्तापित करती है— पत्थरों को भी उष्ण मनाती है। फिर क्या होने पर मध्याह्न वेलाएँ व्यतीत होतीं थी ? जब समस्त जगत नेत्र मार्ग में प्राप्त दृष्टि गोचर हो रहा था तब ऐसा प्रतीत होता था मानों उसकी पृथिवी, आकाश, दिशाओं ( पूर्व-पश्चिमादि ) व विदिशाओं ( आग्नेय व नैऋत्यकोण आदि) में अग्नि की रचनाएँ दी हुई हैं । एवं जय रेवीली भूमियाँ सर्वत्र दुःस्पर्श--- दुःख से भी प्रचार करने के लिये अशक्य - संचार वाली हुई तब ऐसी प्रतीत • होती थीं- मानों उन्होंने उष्ण अग्नियों की पूजाओं को ही उत्पन्न किया है। इसीप्रकार जब मार्ग, जिनमें नखों को पकानेवाली धूलियों द्वारा पाग्य – रस्तागीर - क्लेशित किये गये थे तब ऐसे ज्ञात होते थे Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास प्यमानभूपापिरोयत्र शिवासिडिलवतापकरेषु सौधविवरेषु, प्रलयकालपारपासभीवास्त्रिव पातालमूलनिलीयमानतनुशतास लेलिहानवनिसाम, समाचरितपञ्चाग्निसाधनमानसानामिव महीधरतापसानां प्रवृद्धमूर्धनिममध्यामनु गगनतलेषु, द्रुतरखरेश्वारुचिभिरिव मरुमरीचित्रीचिभिर्वव्यमानमनोव्याकुलेषु कमलकुलेषु, धारणिधनधागारासारभूगोलस्पर्शप्रकुपितेनार्ध्वस्तिमा दन्दशूकेश्वरेणापाइनिश्चतैः कोपशानुभिरिव क्वध्यमानास जनादेवतानामावसथसस्सी मिळनिवासकाननदवोद्रिक्तपित्तास्थिव दुःसहविवाहदेहसंदोहामु वनदेवीपु, विवरितबसन्तसमागमास्वित्र रिहिणीकपोलमर्म सतावनपक्तिय, तणवर्मकस्सिा पाण्डप परामपंप, स्वकीयकोशकारमतानां कलहंसकम्बिनीनां चिन्ता ज्यस्करेषु, क्षयामयमन्देष्विव परिम्लायत्सु देधिकेयकान्तारेषु, करेणुकरोत्तम्भिसकमलिनीदलासपोपचर्यमाणधारणधु बनसाःएसष्टोत्पादितपुरकिनीदरम्हविरादानु कासारवसुन्धराम, कठाराठीकएकमलनिर्लोटलुइस्पाठीनक्षोभकलुपबारिषु मानों-अग्नि के प्रज्वलित इंधन-समूह से ही व्याप्त है। जब महलों के मध्य भाग, जो उनमें निवास करने वाले भोगी पुरुषों को सन्तापित करते थे तब ये ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-अग्नि में तपार जानेवाले मूसाओं-सुवर्ण गलाने के पात्रों ( घरियाओं ) के मध्यभाग ही हैं। जब सपिणियाँ, जिन्होंने विशेष गर्मी-वश अपनी शरीर-लताएँ अधोभाग में प्रविष्ट की थी तब दे देसी प्रतीत होरही थी-मानों-प्रलयकालीन बसाग्नि-पात से ही भयभीत हुई है। इसोप्रकार जब आकाशमण्डल पर्चतरूप तापसियों केजो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-जिन्होंने अपनी चित्तवृत्ति पश्चाग्नि साधन में प्रवृत्त की है, मस्तकों पर वर्तमान वृद्धिंगत वापधूम से मलिन हो गए थे। इसीप्रकार जच हिरणों के झुण्ड विशेष उण्णतावश जिन मन मृगतृष्णारूप तरङ्गों से, जो पिघली हुई चाँदी के रस की रेखा-सी शोभायमान होती थीं, धोखा खाया गया था, जिसके फलस्वरूप वे व्याकुलित---कि फर्मव्य विमूढ़ हो गए थे। एवं उब जलदेषियों के गृहसरोवर ऐसे मालूम होते थे-मानों-वे ऐसे शेषनाग द्वारा कटाक्षों से प्रकट की हुई क्रोधाग्नियों द्वारा सन्तापित-गर्म किये जा रहे थे, जो कि सूर्य के तीव्रतर आतपरूप अङ्गार-वर्षण से संताप को प्राप्त हुए भूमिपिण्ड के स्पर्श से विशेष कुपित हो गया था और इसीलिए जिसने अपने दो हजार नेत्र ऊपर की ओर संचालित-प्रेरित किये थे । जब यनदेवियों, जिनके शरीर-समूहों को असहनीय सन्ताप होरहा था ऐसा प्रतीत होरही थीं-मानों-अपने गृह के वनों में धधकती हुई दावानल अग्नि के द्वारा जिनकी आयुष्य नष्ट होचुकी है। इसीप्रकार लताओं से सुशोभित बन-श्रेणियाँ उसप्रकार शुष्कपत्तोंवाली हो चुकी थी जिसप्रकार विरहिणीपति से वियोग को प्राप्त हुई - स्त्रियों के गाल शुष्क--ग्लान-पड़ जाते हैं। इसलिए बैसी शोभायमान होती थी जिन्हें वसन्त ऋतु का समागम बहुत काल से दूर चला गया है-नहीं हुआ है। एवं वृक्ष कुछ पीले और सफेद पत्तों के कारण पाण्डु रंग वाले होरहे थे, इसलिए अग्नि में प्रवेश करके बाहर निकले हुए सरीखे शोभायमान हो रहे थे। एवं विशेष गर्मी के कारण चारों तरफ से शुष्क होरहे कमलों के वन ऐसे मालूम होते थे मानों-क्षय रोग से ही क्षीण होगये हैं और शक हो जाने के कारण वे उन राजहरि घर उत्पन्न करते हैं, जिनके बच्चे कमलों के मध्यभाग की कोटरों में उत्पन्न हुए हैं। इसीप्रकार जब बगीचों व अटषियों के तालाब. जिनमें हथिनियों द्वारा शुण्डादंडों-सूडों से उत्थापिठ किये हुए कालिनी-पचों के छत्तों से हाथियों की सेवा की जारही है--उन्हें छाया में प्राप्त किया जारहा है। एवं अब सरोवर-भूमियाँ, जिनपर ऐसे जंगली सुअर वर्तमान हैं, जो अपनी वलिष्ट दाद द्वारा उखाड़ी हुई कमलिनियों के मध्यभागों पर पर्यटन कर रहे हैं। एवं जब तालाब, जिनके जल वस-समान कठोर मध्यभागवाले पृष्ठों (पीठों) से शोभायमान कछुओं के निर्लोठन-संचार-के कारण यहाँ वहाँ जल में लोट पोट होने वाले मच्छों के संगर के कारण कलुषित-हो गये हैं। प्रारूप Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये महालक्ष्मयामाददेषु नखायुषेषु, करति सौरभेयेषु वर्षे, सर्वति गर्वरेषु गर्ने, गलन्तीषु पुष्पंधयेषु प्रतिषु, वाटिका मनोकसां मन्नाकेषु कथाशेषालु पोषितां कामकेखियु ज्वलदाईदारुदारुणा दीर्घाइनिदायनिर्गमा करीब मचस्यत्रिव देवखातेषु प्रभावभरभिष्विव खातस्त्रिमीषु धाश्वनभरारम्भेविवमभिषु कुलको बुलुम्पनीसंहारसमयदिवसेवित्र प्रशान्तवन्तु संचारेषु वर्त्म प ज बे 'मार्कण्डयास्तपति मरुभुबामन्निसात्त्वं दधानः कामं व्योमान्तराणि स्थगयति किमपि धोति भावस्पुरस्तात् । निमिष विसृजत्येतद्दाशान्तराखं मग्भाङ्गानिम्नगानां पयसि च करिणः स्वाधमन्याति यः ॥ ६५ ॥ मध्याहेण धात्मतुवरसुरास्तोषमार्ग स्वजन्ति स्थानामानेतुमीशाः पयसि कृतरसीन हस्तिनो नैव मिण्डाः । को फिल्मी विपति शिशिररकन्दरोणिदेशान्स्वेच्छेषु चेमाः कमललं वारलाः संयन्ति ५६१ ॥ एवं सिंह व्याघ्रादि जीव जिनका मनोरथ बिशाल वृक्षशाली वनों के मध्य में प्रवेश करने का होरहा है। इसीप्रकार जब विशेष गर्मी-वश बैलों का मद चूर-चूर होरहा था, भेंसाओं का गर्ज झीख हो रहा था, जब अँवरों का सन्तोष नष्ट हो रहा था -- अर्थात् विशेष गर्मी- वश कमलादि पुष्पों के सूख जाने से भरे पुष्परस न मिलने से अधीर हो रहे थे और पक्षियों की कष्ठ- नालें उच्छ्रवास कर रही थीं। इसीप्रकार जब कमनीय कामिनियों की रतिविलास करने की क्रीडा व्यापार-शून्य होचुकी थी- छोड़ दी गई थी एवं प्राणियों की शरीरयष्टियाँ लम्बे दिनोंयाले उष्ण-समय के कारण जिनसे स्वेदजल वह रहा था, उसप्रकार वारुल अशक्यस्पर्श ( बिनका धूना अशक्य है ) हो गई थीं जिसप्रकार जलती हुई गीली लकड़ियाँ अशक्य स्पर्श होती है । एवं अगाध सरोवर बन-भूमियों के समान हो चुके थे - शुष्क हो गये थे, और नदियाँ वैसीं सूख गई थी- निर्जल हो गई थीं जैसी हाथी-घोड़ों के दौड़ने को भूमि सूखी होती है और जिसप्रकार मरुभूमि — मस्स्थल – के मध्यभाग जल-शून्य होते हैं। उसीप्रकार कुएँ भी विशेष उष्णता के कारण अल-शून्य हो गए थे। एवं समुद्र, जिनका पानी चुल्लुओं द्वारा उचाटनेलायक हो गया । अर्थात् वीव्र गर्मी पड़ने से उनमें बहुत वो पानी रह गया था और मार्ग, जिनमें प्राणियों का संचार जसप्रकार रुक गया था बिसकार प्रलयकाल के दिनों में प्राणियों का संचार -- गमन - रुक जाता है। जिन उष्ण ऋतु के दिनों में अत्यन्त तीव्र तापशाली सूर्य मरुभूमियों को अग्निमय करता हुआ खाप छत्पन्न करता है और कोई अत्यन्त प्रकाशमान व अनिर्वचनीय ( कहने के अयोग्य ) सतेज स्कन्ध पदार्थ आगे शीघ्र गमन करता हुआ गगन मण्डलों को स्थगित करता है। इसीप्रकार यह प्रत्यक्ष दिखाई देने का दिशाओं का समूह ऐसा प्रतीत होता है- मानों आकाश के ऊपर वाष्पों की तरङ्ग पक्ति को ही प्रेषित कर रहा है एवं नदियों की जल-राशि के मध्य में अपना शरीर दुबोने वाले हाथियों को उबालती हुई चण वायु बह रही है' ॥ ६० ॥ जिस प्रीष्म ऋतु की मध्याह्न वेला में अत्यन्त उत्ताल – उभय-खुर वाले घोड़े अव मार्ग को वेग पूर्वक छोड़ते हैं और महावत पानी में अनुरक्क हाथियों को हथिनी शाला में लाने के लिए समय नहीं है। इसीप्रकार मयूर शारीरिक सन्ताप के कारण अपना मुख ऊँचा किये हुए शीतल गुफा के पर्वव-सन्धि प्रदेश (स्थान) तू ढ़ता है एवं ये प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली राजहँसियाँ जलप्राय प्रदेशों-वालान आदि--में वर्तमान कमल-पत्तों के अधोभाग का यथेष्ट आश्रय लेती है ||६१ ॥ १ -- समुच्चयालंकार । २ - समुच्चयालंकार । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर साक्षात आसीनप्रकलायितैः करिपतिः क्षोणीधरम्भनुमस्कयाम्वितकम्पर: किमपि व पापण्मुहुतिहति । मिवामुद्रितलोचनो हरिरपि प्रीष्मेषु माध्यंदिनीविद्रोणिदादापितवपुर्वेलामसिकामति ॥ ६ ॥ किं च । गण्डस्थलीषु सलिलं न जलाशयानामम्मास्युतिः कुचन गेषु म बाहिनीनाम् ।। नाभीदरेषु वनितास जसं न वाडै नीवोलतोलसति शुष्यति यन्त्र लोकः ॥ ६ ॥ सुदुर्लभरसोऽप्येष सरसाधरपल्लानः । तत्करोति व सहेष्टि चित्रं धर्मसमागमः ॥ ६४ ॥ इति मागधयुधप्रतिबोधितमध्याहसंभ्यः सुकतावनध्यघिण्टासिभिविलासिनीनां चिकुरलोचमावलोकनामृतदरिकमनोहराः कुश्चकप्रभाशपश्यामलितपर्यन्तवृत्तयः समस्यास्यन्ते भूरुवनभूमयः, तेषु तपसपनकेतुषु विर्सनकरमूलविहान विखशिखरिशिरःभितस्य प्रलम्बितभुशलतायुगलस्य खरमयूखलेदिखेदितमुखमण्डलस्य मनोगोचरातिचारिसपरमारचर्षितसरलोकल्प परिपूर्खसमाधिचन्द्रोदयविम्भितेन परमानन्दस्यम्दसधापयोधिना पुनरनम्सरमन्सरपर्याप्ताकाशेनेव धनधर्मशान बहिराहता परिदलाविसापघनस्य बन्नधारागृहमुपागतस्येव यान्ति भ्याकसमयाः ॥ जिस प्रीम ऋतु में पर्वत के मध्य में वर्तगान वृक्ष के स्कन्ध-तना पर अपनी ग्रीवा-गर्दनस्थापित करनेवाला हाथी बैठा हुआ घूर रहा है, इससे ऐसा प्रतीत होता है-मानों-कुछ अनिर्वचनीयकहने को अशक्य-वस्तु का बार-बार ध्यान-चिंतन-करता हुआ स्थित है। इसीप्रकार सिंह व व्याघ्रादि, जिसने अपना शरीर पर्वत के सन्धि प्रदेश पर तत्परता के साथ कुछ स्थापित किया है और जो निद्रा से नेत्र बन्द किये हुए है, प्रीष्म ऋतु संबंधी मध्याहू-बेला व्यतीत करता है | जिस ग्रीष्म ऋतु में हाथियों की कपोल-स्थलियों में जल था । अर्थात्--उनके गण्डस्थलों से मद जल प्रवाहित हो रहा था, परन्तु जलाशयों में पानी नहीं था । इसीप्रकार जल का तरण स्त्रियों के स्तन रूप पर्वतों में था। अर्थात्-उनके कुचकलशों से दुग्ध क्षरण होता था, परन्तु नदेयों में पानी नहीं था। एवं कमनीय कामिनियों के नाभि-छिद्रों में जल थाअर्थात्-जनके नाभि रूप छिद्रों से स्वेद जल प्रवाहित होता था, परन्तु समुद्र में जल नहीं था। एवं जहाँ पर त्रियों की वस्त्रप्रन्थि उल्ल सत । वृद्धिंगत ) होती थी, परन्तुं लोक-पृथ्वी तल-शुष्क हो रहा था ॥६३|| यह उष्णकाल का समागम जो सुदुर्लभ रसवाला होकर के भी अर्थान्-रस ( जल ) शोषण करने के फलस्वरूप जिसमें रस ( जल ) दुःख से भी प्राप्त होने के लिए अशक्य है ऐसा होकर के भी जो सरसाधर पल्लव है। अर्थात्-जिसमें ओष्ठ पल्लव सरस ( स्वेदविन्दु-साहित हैं। अतः यह आश्चर्य है कि यह (उष्णकाल का समागम) उसी कार्य (रस-शोषण) को करता है और उसी कार्य ( रस-शोषण )से देष करता है, क्योंकि इसने अोष्ट पल्लव सरस ( स्वेदजल सहित ) किये है ॥६४॥ जिन प्रीष्म ऋतु के दिनों में ऐसे कामी पुरुषों द्वारा, जिन्हें उक्त प्रकार नटाचार्य विद्वानों द्वारा मध्याहू सन्ध्या समझाई गई है और जो पूर्वभव के पुण्य से सफल हैं, ऐसी वृत्तशाली वनभूमियाँ भलीप्रकार आश्रय की जाती हैं। कैसी हैं वृक्षशाली बनभूमेयाँ ? जो उसप्रकार चित्त में उल्लास-यानन्दउत्पन्न करती है जिसप्रकार रमणीय रमणियों के कुटिल-तिरछे नेत्रों की सुन्दर चितवन रूप अमृत का प्रवाह या कृत्रिम नदी चित्त में उल्लास-हर्ष-उत्पन्न करती है और जिनके चारों तरफ के प्रदेश कमनीय प्रमिनियों के कुचकलशों के अग्रभागों की कान्ति (तेज) रूपी कोमल तणों द्वारा श्यामलित किये गये हैं। ___ वर्षाऋतुकालीन तपश्चर्या-निरन्तर धर्मध्यान की चिन्ता में अपनी चिसति दुबोनेवाले और उन मेघाच्छन दिनों में भी वृक्ष की मूल पर निवास करने के कारण ऐसे प्रतीत होनेवाले-मानों-जिन्होंने १. सदरचयालंकार। २, अतिशयालंकार । ३. अतिशयालंकार । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये येम । पयोधरोचतिजमितजगवलयनीहनिचलेषु, निबरसनाथनृपतिवापसंपादिपु, संपादितखराबरखण्डमेषु, खरिडतविलासिनीमनोरथपरिपन्धिषु, परिपधिपरिषदरसाइंधु - त्रुहिगवाहनस्थितिम्भदि, अभिनाजगर्जनोर्जितपर्जग्याविच्जिालनदुस्साए, दुस्सहविरहशिखिसं धुक्षणविधायिषु, विहिसनिकामकाकासारमा लघशवि शिसनेषु, विशंसनावसरसरसमीरसंस्कारवादेषु, पाडकरकरालिमविलोपिप, विलसहिमधामदीधितिप्रसरे, प्रसरस्पूरपयःपादपनिर्मुलिप, निर्मूलित जटतटरहानोकहस्तलितालकपना हनीप्रपाषु, प्रवाहपतद्वारावारिगिरिशिखरशीलाप्रसाधिः, प्रसाधिताम्धकारश्यामलाखिलदिगन्ते, क्नदेवताओं की रक्षा का कर्त्तव्य 'आचरण किया है. ऐसे सुदत्ताचार्य द्वारा ऐसे वर्षा ऋतु के दिनों में ऐसी रजिणे पतीत की जाती थी। कैसी हैं वे वर्षा ऋतु की रात्रियाँ ? जिन्होंने निविड़ अन्धकार समूह द्वारा समस्त पृथिवीमण्डल के प्राणियों को अपने शरीर के देखने की शक्ति लुप्त कर दी है एवं अभिसारिका -कामुक-त्रियों के मनरूप बचों के पालन करने में जो भैसों के समान समर्थ हैं। अर्थात् - जिसप्रकार-भैसें अपने बच्चों के पालन करने में समर्थ होती हैं उसीप्रकार प्रस्तुत वर्षाऋतु की रात्रियाँ भी अभिसारिका खियों के मन रूप बों के पेपण करने में समर्थ होती है। कैसे है वे वर्षात के दिन जिन्होंने मेघों के विस्तार से समस्त पृथिवी-मण्डल को श्याम कनुक-प्रच्छादन घविशेष-उत्पन्न किया है। जो मेघों के कारण राजाओं के धनुष प्रावरणों ! उकनेवाले वस्त्रों) से सहित करनेवाले हैं। जिन्होंने कमल बन की शोभा नष्ट की है। जो रण्डता' -- पति द्वारा मानभङ्ग को प्राप्त कराई गई–त्रियों के मनोरथों के शत्रु प्राय है। अर्धान्–जो खण्डिता कामनियों के रतिविलास संबंधी मनोरथों का घात करते हैं। जो शत्रु-समूह का उत्साह भङ्ग करनेवाले हैं। क्योंकि वर्षाऋतु के दिनों में शत्रु चढ़ाई-पादि का उद्यम नहीं करता। इसीप्रकार जो हँसों के निवासस्थान-मानसरे वर--का विघटन करनेवाले हैं। जो, मदोन्मत्त हाथियों की गर्जना (चिंघारना ) से भी दुगुनी गर्जनाबाले मेघों के निरन्तर होनेवाले शब्दों से सहन करने के लिए अशक्य हैं। जो असहनीय बियोगरूप अग्नि को उद्दीपित करनेवाले हैं। जिन्होंने अत्यधिक ओलों की घृष्टि द्वारा व्याघ्रादि अथवा अष्टापड़ों का पराक्रम नष्ट कर दिया है। जो प्रलयकाल के अवसर पर बहनेवाली प्रचण्ड वायु के सूत्कार--शन्दविशेष-से भी विशेष शक्तिशाली विशेष भयङ्कर मालूम होते हैं। जो सूर्य के तीव्र ताप को नष्ट करनेवाले हैं एवं जिन्होंने चन्द्र-किरणों का प्रसार ( प्रवृत्ति) नष्ट किया है। जो पहनेवाले नदीप्रवाह की जलराशि द्वारा वृक्षों का उन्मूलनकरते है-जड़ से उखाड़कर नीचे गिरा देते हैं। इसीप्रकार जिनमें, जड़ से उखाड़े हुए. तटवर्ती वृक्षों द्वारा, अपने तटों को नीचे गिरानेवालो नदियों के जल-प्रवाह स्वागत किये गये है-रोके गये हैं। जो अधिकिान रूप से गिरनेवाली जल-धाराओं की जलराशि द्वारा पर्वत-शिखरों के शतखण्ड करनेवाले हैं। जिनमें समस्त विकाण्डल किये हुए अन्धकारवश मलिन हो रहे हैं। *'हिषु' इति सरि. ( क ) प्रती पाठः। ठिक्क पाठ इ. लि. सटि. ( *, ख, ग, घ, च) प्रतियो से संकलित । 'वित्रासनेषु इदि पाठः मु. प्रतौ । १-तभा व विश्वनायः कविः पार्समेति प्रियो यस्या अन्य सम्भोगचिन्द्रितः । सा नपिउतेति कथिता धीरराष्वाकपायता ।। . भार-दूकुरी बी के साथ किये हुए रति रिलास के चिन्दी से चिन्हित हआ जिसका पति जिसके समीप प्रातः साल पहुँचता है, उसे विद्वानों ने ईप्या--रतिविलास संबंधी चिन्हो को देखकर उत्पन्न हई असहिष्णुता या वाह..-से फसवित चित्त माली सण्डिता नायिका कहा है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास ४१ दिगम्तरधरदरोगीर्णजालप्लावितदन्तिपोतेच, पोतसंभावमाकुमकुरीजीविताशाविनामपिशुनसभिण्डसंघहेषु, संघमार पारिवाइवपुण्डमाखण्डलकोवण्डविलोकमाध्यायस्वरासजिषु, समिताबकायकामकर्कशदशेपु, विषमवनिमाशाः पातालानि । खालसाजनयत्सु, या य--मेघोद्रीपसस्कठोस्करकासारश्रसस्सिन्धुरे पूरप्लावितकूल पादपकुलक्षुभ्यस्सरिस्पासि । अम्मश्चाइसमीरणाश्रयशिवाफेटकारताम्यन्मृगे काले सूचिमुखाप्रभेचविमिरप्रायःक्षपासङ्गिनि ॥६५॥ भूयःपयःप्लवनिपातितलिङ्गे पर्जन्यर्जितस्तिजितसिंहपोते। सौदामनीमुलिका लिासर्वगिने AIT रिपती कुम्ही ॥६६॥ स्त्रीणां कुचोष्णपटलैरजवावतारः संक्षिप्तः पुनरयं मयनानलेन । यत्राधरामृतघृताहुति चण्डितार्चिः संकल्पजन्मविटपी परमुत्प्रकाशः ॥ ६ ॥ जिनमें, दिमण्डल में स्थित पर्वत की गुफाओं से निकली हुई जलराशि में हाधियों के बचे डुवोये गये हैं। जिनमें, ऐसी विजलीरूप यष्टियों का निपुर प्रहार पाया जाता है, जो मृग-शिशुओं की रक्षा करने में व्याकुल हुई हिरणियों के प्राण धारण की इच्छा को नष्ट करने की सूचना देनेवाली है। जो ऐसे इन्द्रधनुष के देखने में पान्थों की शीघ्रता उत्पन्न करानेवाले हैं, जो कि परस्पर के निष्ठुर प्रहार से गरजनेवाले मेघों के शरीर को अलंकृत करनेवाला है। जिनमें डोरी चढ़ाए हुए धनुष द्वारा कामदेव की उत्कट अवस्था पाई जाती है। अर्थात्-जो विलासी युवक-युवतियों की कामेच्छा को द्विगुणित-वृद्धिंगत-करते हैं। इसीप्रकार जो आकाश, भूमि, आठों दिशाएँ तथा पाताल को जलमय करते हैं। ऐसे जिस वर्षा ऋतु के समय में यञ्चेवाली हिरणी किस देश का आश्रय करे, क्योंकि ऐसा कोई भी स्थान जल-शून्य नहीं है, जहाँ यह बैठ सके। कैसा है वर्षा ऋतु का समय ? जिसमें मेषों द्वारा उदान्त (फैंके हुए)व पृथिवी पर गिरते हुए एवं पाषाण-जैसे कठोर प्रोलों की तीव्र वृष्टि द्वारा हाथी भयभीत हो रहे हैं। जिसमें नदियों का जल, जलपूर में डूबे हुए तटवर्ती वृक्ष समूहों द्वारा ऊपर उछल रहा है। इसीप्रकार जिसमें जलराशि द्वारा प्रचण्ड ( वृक्षों के उन्मूलन करने में समर्थ ) यायु के तापन यश उत्पन्न हुए शृगाल भृगालिनियों के फेत्कारों-शब्दविशेषों-से हिरण दुःखी हो रहे हैं-निर्जल प्रदेश में जाने की आकांक्षा कर रहे हैं। जिसमें सूची के अप्रभाग द्वारा भेदने योग्य निबिड अन्धकार से व्याप्त हुई रानियों का सङ्गम वर्तमान है। जिसमें प्रचुर जल राशि के ऊपर गिरने के फलस्वरूप पर्वत-शिखर नीचे गिरा दिये गये हैं। जिसमें मेघों की गड़गड़ाइट ध्वनियों द्वाप सिंह-शावक तिरस्कृत किये गये हैं। इसीप्रकार जिसमें विजलियों के तेज द्वारा समस्त दिशाएँ भयानक की गई हैं। ।।६५-६६॥ कुछ विशेषता यह है कि जिसमें ऐसा कामदेव रूप वृक्ष ही केवल अत्यन्त तेजस्वी हुआ वृद्धिंगत होरहा था, जो मनोझ स्त्रियों के कुचकलशों की उष्णता-समूह से जड़ावतार ( जल के आगमन से-शून्य) होवा हुमा उनकी नेत्र रूप अग्नि द्वारा उद्दीपित हुआ था सथा जिसकी ज्यालाएँ कमनीय कामिनियों की भोष्ठामृत रूप घृताहुति से प्रचण्डीकृत थी-सेजस्वी कीगई थीं ॥६॥ + 'पराइयपु इति सटि, प्रतिषु पाठः। ५. आक्षेपालंकार । २. हेतु-अलंकार-गर्भित दीपकालंकार । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकान्ये सपिप धाराशरारभरण मेघः कोदण्डचण्डः सह मन्मथेन बालाबला सेति च सिन्धुस्वश्चिन्ताकुलस्तिष्थति यत्र पान्धः ॥॥ सत्र बारिवाहवासरेषु तस्मूलनिवासिना निरन्तरयोगोपयोगनिमग्नमनस्कारेण विहितवनदेवतारक्षाधिकारेणेक पीयन्ते निखिलस्य जगतरसमस्काण्डसण्डितनिजशरीरदर्शनवृत्तयोऽभिसारिकाजनमोऽपत्यपोषणगर्वर्यः शर्यः । यस्य च भगवतस्तत्मणक्षरक्षीररिपोरपिण्डपाण्डऔरफ्योलम्याप्तिभिर्यशोभिः संभूतमिदमशेषं भुवनमालभमस्मदीयं सितं सर्गदर्शन भविष्यतीवि प्रवाशक इष प्रजापतिः पुरैव प्रदीपकलिकानिकरपेशलानि शेषफणासु प्रभान्ति रत्नानि, निरन्तर सवालालप्रकाशपिष्टातकनिकीशंकप्सीमन्तिनीसीमन्तपर्यन्सानि झोरोदधिमध्येषु वबगानलमपटलानि, मधुमसविला. सिनीविलोचनाडम्बरसिम्मीनि हम्मगुरुधिरसि बटाबरकलानि, कदिनितम्बिनीस्तनाइम्धस्तिमृगमवपस्वभङ्गसुभगानि गामिनीपतिस्याशवपुरि कुरक्षाकृतिशासनमहांसि, ससससुररमणीकरविकीर्यमाणसिन्दूरपरागपिजराणि पुनासोरकरिकुमुदपुण्डरीकेषु सिरविणकुम्भस्यलानि, प्रकामपीतपीडितमुकमहवरकरपल्लवपच विनिवाप्यमानविद्याधरीबिम्बाधराकृतीनि शिशिर शिवरभूति चातुराङ्गाणि, कुछ विशेषता यह है-जिस वर्षा ऋतु के समय में नर्मदा-श्रादि नदी से रोका हुआ पान्थ इसप्रकार की चिन्ता-( स्मृति ) यश किंकर्तव्य-विमूढ हुआ स्थित है कि यह मेघ, जो कि इन्द्र धनुप से प्रचण्ड व जलधारा रूप वाणों की तीव्र वर्षा की विशेषता से व्याप्त एवं कामदेव के साथ वर्तमान है एवं मेरी नव युवती प्रिया बलहीन है. ॥६॥ जब यह समरत तीन लोक प्रस्तुत भगवान-पूज्य-सुदन्ताचार्य के ऐसे यश-समूह से व्याप्त या, जो कि तत्काल में क्षरणशील-नचे गिरनेयाले-दूध के फेन-समान शुभ्र था और जिसका विस्तार समाप्त नहीं हां था तब मानों-ब्रह्मा ने इसप्रकार की श्राशा की कि 'हमारी शुभ्र मष्टे (हिमालय व क्षीरसागर-श्रादि) का दर्शन लोगों को दुर्लभ होजायगा, इसप्रकार भयभीत हुग ही मानोंससने पहले से ही शेषनाग के हजार फणों के ऊपरी भागों में अपनी सृष्टि के चिह्न बतानेवाले ऐसे कान्तिशाली रस उत्पन्न किये. जो दीपक की शिस्या-समूह के समान मनोहर थे। इसीप्रकार मयभीत हुए ही मानों-उसने शीरसागर के मध्य में ऐसे बड़वानल अग्नि-मण्डलों को उत्पन्न किया जन्होंने दिनरात प्रकाशमान होनेवाले वाला-समूह के प्रकाशरूप सिन्दूर-आदि के चूर्ण से दिशारूप कामिनियों के केशपाशों के पर्यन्त स्थान व्याम किये हैं। एवं मानों-उसने विनायक-पिता (श्रीमहादेष) के मस्तक पर ऐसे अटारूप कल उत्पन्न किये, जो मद्य से विद्वल हुई कमनीय कामिनियों के नेत्रों को तिरस्कृत ( तुलना) करते थे। एवं उसने श्रीनारायण के साले-चन्द्रमा के शरीर में ऐसे मृगाकार चिन्ह के तेज उत्पन्न फिये, जो श्रीमहादेव की भार्या पार्यती-के स्तनों पर विस्तारित कीहुई कस्तूरी की तिलक-रचना सरखे मनोहर थे। इसीप्रकार उसने ऐरावत, कुमुद (नैऋत्य दिग्गज ) और पुण्डरीक (आग्नेय कोण का दिग्गज ) इन शुभ्र दिग्गजों के मस्तक समूहों पर ऐसे कुम्भस्थल उत्पन्न किए, जो देवकन्याओं के करकमलों से निरन्तर फैकी जानेवाली सिन्दूर-धूलि से पिञ्जर (गोरोचन के समान कान्तिशाली) थे। इसीप्रकार अपनी शुभ्र सृष्टियाले हिमालय की पहचान कराने के लिए ही मानों-उसने ( ब्रह्मा ने ) उसके ऊपर ऐसे गैरिक ( गेरू ) धातु के शिखर उत्पन्न किये, जिनकी आकृति विद्यारियों के एकविम्ब फल-से ऐसे १. सहोसि-अलंकार । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास कुबेरपुरकामिनीकुचचूचुकपटलश्यामलानि ललितापतिशैलमेखलासु तमालतहबनामि, निजनाथावसथपथप्रस्थानपरिणतरतिचरणशिजानहि जीरमणितमनोहराणि सपरिषस्म शब्दितानि, कलिन्दकन्याकझोलजलश्यामायमानोर्माणि, मन्दाकिमीस्रोतसि पयांसि, निरहरदाष्टकमषीलिखितलिपिस्पर्धीनि सरस्वतीनिटिलतटेषु कुन्सालजालानि, रमनिरस्मततन्तुसम्तामापहासीनि सितसरसिजकोशेषु केसरागि, कम्बुकुलमाम्ये अ पाचमन्ये कृरुणकरपरिग्रहनिरवधीनि व्यवाददानि ।। यस्य च मुजन्मनः प्रगुणतरुणिमोन्मेषमनोहारिणी यथादेश निवेशितपरिणयप्रवणगुणमोतमणिविभुषणा ओटों सरीखी थी, जो कि उनके पतियों द्वारा पूर्व में विशेषरूप से पान किए गए और पश्चान् पीड़ित (चुम्बित ) किये गए. और तत्पश्चात् छोड़ दिए गए थे एवं जो अपने प्रियतमों के हस्तरूप कोमल पल्लवों की वायु द्वारा वृद्धिंगत किये गए थे। इसीप्रकार मानों-उसने कैलाशपर्वत की कटिनियों पर ऐसे तमालवृक्षों के बन उत्पन्न क्रिये, जो कुवेरनगर ( अलकापुरी) की नवयुवती कामिनियों के कुचकलशों के अग्रभाग-पटल सरीखे श्याम धे। इसीप्रकार उसने इस समूहों में ऐसे शब्द उत्पन्न किये, जो अपने पात कामदेव के गृह-मागे में प्रस्थान करनेवाली शते के चरण-कमलों में शब्द करनेवाले नूपुरों-घघरुओंके कामक्रीड़ा के अवसर पर किये जानेवाले शब्दों के समान मनोहर थे। इसीप्रकार मानों उसने गलाप्रवाह में ऐसे जल उत्पन्न किये, जिनकी तरङ्गे यमुना की तरङ्गों के जलों से श्यामलित कीगई थीं। इसीप्रकार उसने सरस्वती के मस्तक-तटों पर ऐसे केश-समूह उत्पन्न किए, जो हस्ती के दन्तपट्टक पर स्याही से लिखी हुई लिप को तिरस्कृत करते थे। एवं उसने श्वेत कमलों के मध्य ऐसे केसर-पराग-उत्पन्न किये, जो कि हल्दी के रस से रजित सूत्र-( तन्तु ) समूह को तिरस्कृत करनेवाले थे। इसीप्रकार मानों-- उसने शंख-कुल में प्रशस्त पाञ्चजन्य ( दक्षिणावर्त नामक विष्णु-शंख ) में ऐसे दिन उत्पन्न किये, जो कि श्रीनारायण के हस्त को स्वीकार करने में मर्यादा का उल्लङ्घन करते थे। यर्थान-पानजन्य शंख के फूकने के दिन विस्तृत ( बेमर्याद । होते हैं, क्योंकि वह शंग्व नित्य रहनेवाले विष्णु के कर कमलों में सर्वदा वर्तमान रहता है। अतः मानों-उसके शब्द भी विष्णु द्वारा करकमलों में धारण करने से काल की सीमा का उल्लङ्घन करते है। जिस पवित्र अवतारवाले सुदत्ताचार्य की ऐसी कीर्तिकन्या समस्त संसार में संचार करती हुई आज भी किसी एक स्थान पर स्थित नहीं रहती। अर्थात्-समस्त लोक में पर्यटन करती रहती है। जो सरल ( मद-रहित ) प्रकृतिरूप तारुण्य-जषानी के प्रकट होने से चिप्स को अनुरक्षित करती है। जिसके यथायोग्य शारीरिक अवयवों-हस्त-श्रादि-पर स्थापित किये हुए, व विवाह के योग्य तथा गुणोंज्ञानादिरूप तन्तु मालाओं में पोए हुए रत्नों से व्याप्त ऐसे सुवर्णमय आभूषण हैं। १. अन्तदीपक-अलंकार । २, इसका पनि से प्रतीस होने योग्य अर्थ यह है कि जो विषय कयायल्प मानसिक कषता से रहित है। अर्थात्- ऐसा होने से ही प्रस्तुत आचार्य को आदर्श कीर्ति-कन्या नवयुवती थी। ३. इसका ध्वनिरूप अर्ध यह है कि जिसके ऐसे अविवक्षित सुन्दर पदार्थरूपी रन हैं, जो कथन-शैली से निरूपण किये हुए नयों-गमादि-की अनुकूलता-~-यथार्थता--प्रकट करते हैं। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है--विवक्षितो मुख्य इतथ्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्ष्यो न निरात्मकस्ले। तथाऽरिमित्रानुभयादिनियावधेः कार्यकर है वस्तु ॥१॥-हत्त्वयंभूरतोत्र श्लोक नं ५३ । अर्थात-हे प्रभो! आपके दर्शन में, जिस धर्म को प्रधान रूप से कहने की इच्छा होती है, वह मुख्य कहलाता है तथा दूसरा जिगको कहने की इच्छा नहीं होनी बह--द्रव्य व पर्याय Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकान्ये निसांत्यागपती स्वयंवर वरणार्धमादिदेव कीर्तिपतिवरा भुवनान्तराणि विहान्सी 'जरस जराजनितजयस्खलन कमलासम, म खलु समसवं मे निखिलमगमगरसागरविहार कृतहलिन्याः सहचरकर्माणि कर्नम्। इति पितामहम्, 'महत्यापतिपरिमहललितबापुरतिमुवाचरानेवनीक्षण अतकरण पौलोमीरमण, नाईसि प्रयासहरुपितायाः करजराजिपाटनप्रवामपनानुनयनानि विधानम्, इति मावस्मनिया, इसी प्रकार जो (कीति-कन्या) स्वभाव से दूसरों के चित्त को प्रसन्न करने की चतुराई रखती है'। एवं जो स्वयं पति को स्वीकार करने के हेतु प्रेरित हुई ही मानों सर्वत्र लोक में पर्यटन कर रही है। जिस सुदत्ताचार्य की कीतिकन्या ने निम्नप्रकार दोषों के कारण ब्रह्मा व इन्द्रादि को तिरस्कृत करते हुए उनके साथ विवाह न करके समस्त लोक में संचार किया। 'हे विशेष वृद्ध ब्रह्मा ! वृद्धावस्थानश तेरी शीघ्रगमन करने की शक्ति नष्टप्राय होचुकी है. इसलिए तू समस्त पर्वत, नगर व समुद्रों पर विहार करने की उत्कण्ठा रखनेवाली मेरे साथ विहार करने में समर्ध नहीं है। इसप्रकार प्रस्तुत कीतिकन्या ने ब्रह्मा का तिरस्कार किया। "हे देवताओं के इन् ! 'अहल्या तापसी के पसि-गौतमऋाप - की पत्नी अहल्या के साथ व्यभिचार दोष के फलस्वरूप गौतमऋषि की सापवरा तेरे शरीर में पूर्व में युवातमुद्रा-एक हजार योनियाँ उत्पन्न हुई थी। पश्चात् वे ही अनुनय विनय करने के फलस्वरूप हजार नेत्ररूप परिणत हुई थी अतः भूतपूर्व हजार भगों के धारक! जत्पन हए हजार नेत्रों के धारक और ह क्षतकरण । अर्थान-उक्त योनिमुद्रा कफ फलस्वरूप जननेन्द्रिय से शून्य एवं ह पौलोमी-रमण ! अर्थात्-ई पुलोम की पुत्री के स्वामी ( पति । पिसा के समान पूज्य श्वसुर के पातक ह देवेन्द्र ! प्रेमकलह से वापत हुइ मुझ तुम अपनी ऐसी जननेन्द्रिय द्वारा, जो मानोंमेरी नल-भणी द्वारा फाड़ दीगद है, प्रसन्न करने में समर्थ नही हो, क्योंकि तुम सर्वात भगाकार होने के फलस्वरूप जननेन्द्रिय शून्य हो। इसप्रकार सुदसश्री की कीतिकन्या द्वारा इन्द्र तिरस्कृत किया गया। गि कहलाता है। परन्तु यह अविबाय-मण धर्म-गये के सोग की तरह सर्वथा अभावरूप नहीं होता। क्योंकि वस्तु में उसी सप्ता--मौजूद:-गण रूप से अवश्य रहती है । इसप्रकार मुल्य व गोप की व्यवस्था से एक ही वस्तु शत्रु, मित्र और भय आदि शांचयों रो लिए रहती है । जैसे कोई व्यक्ति किसी का उपकार करने के कारण मित्र है । वही किसी का अपकार जाने के कारण शत्रु है। वह किसी अन्य व्यक्ति का उपकार-अपकार करने से शत्रु-मंत्र दोनों है । इसी प्रकार जिससे उसने उपेक्षा र रक्खी है उसका वह न शत्रु हैं और न मित्र है । इसप्रकार उसमें शत्रुता-मित्रता आदि के गुण एक साथ पाए जाते हैमतः वस्तुतः वस्तु विधि-निषेधरुप दो दो सापेक्ष धर्मों का अवलम्बन लेकर ही अर्थ किया करने में कार्यकारी होती है। १-प्रस्तुत गुण प्रस्तुत दोनों (सुदसवी व उसकी कार्तिकन्या) में समान रूप से वर्टमाम है। २-ध्यान से प्रतीत होनेवाला अपे यह है कि जिस कीर्तिकन्या को मोक्षरूप पर की प्राप्ति-हेतु माझलिक विधि क आशा दांगई है। क्योंकि नीसिनिष्टो ने कहा है-'कीर्तिमान पृश्यते लोके परह च मानवः, संस्कृत टीका प्र. ८. से समुदत । भात-कीतिशाली मानब इसलोक व परलोक में पूजा आता है। - इसका ध्यान रुप भर्थ यह है कि पृधावस्था-यश गमन करने की शक्ति से हीन पुरुष यदि कमला ( लक्ष्मी) को आसन (स्वीकार) करता है, तो उसकी कीर्ति नहीं होती। --इसका पनि रूप अर्थ-ओ परस्त्रीलम्पटहुआ युक्ती श्री का भेषधारण करके परी का सेवन करता है एवं अनेक नियों की ओर नीति-विरुद्ध खोर्टी नजर फेंकता है, जो शारीरिक अङ्गों से हीन हुमा दवसुर-घाती है, तषा जो प्र-कलह-कुपित अर्थात् प्रष्टनयों-ससमकों के विवाद के अवसर पर कुपित होता है। अर्थात अकाव्य यत्रियों द्वारा एकान्तवादियों का खंडन नहीं करसा एवं फलाह-जनक वचन श्रेणियों द्वारा उनका निभह नहीं करता और परस्पर अपेक्षा रखने वाले नय स्वीकार नहीं करता एवं जो सप्तमधातु-वीर्य-का नाश करता है, उसकी कीर्ति नही होती। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाभास 'ममरपाण्डुरोगवशता, नाकाशः सञ्चिविरचिसकान्तस्वीकाराया: परिणयनखा पट जातसम्, भनपरासनलाशमानस मातापिरिषदिगम्तवास, न स्थानमनहासनिर्भरतश्यायाः किमहामा' इति दामोधनम् 'उल्बमबाल्यशिराशेषशरीरपरिकर निशाचर, न पदमिन्दीवस्मृणालकोमल वलवाया: सरमसालिनानाम् इति मसेयम्, 'जीर्थोवकोपरगाछिसमुरतव्यवसाय सागरालय, न समरिचरपरिचितकामनायाः काग्निविकरणोदाहरणामा प्रति प्रचेतसम, "हे अग्निदेव ! तू उत्कट पाण्डु ( पीलिया) रोग से पराधीन या पीड़ित है और हवन जानेकाली वस्तु का भक्षक है, अतः तू अपनी श्रद्धा द्वारा पति को स्वीकार करनेवाली मेरी घरमालाब पानी । इस प्रकार प्रस्तुत कीर्ति कन्या ने अग्निदेव का अनादर किया। अब यमराज को तिरस्कृत करती हुई कीविकन्या कहती है-हे यमराज । तेरी चित्तवृत्ति निर्दोषी लोक के कवलन करने को विशेष इच्छुक है और तेरा निवासस्थान वातापि- इल्वल का भाई दैत्य विशेषम रामस्य की दक्षिामिता में है; इसलिए तू कामरस से अत्यंत परिपूर्ण हृदयशालिनी मेरी कामक्रीड़ा के कलहों का स्थान नहीं होसकता"। अब नैऋत्यकोण-निवासी राक्षस का अपमान करती हुई कीर्तिकन्या कहती है-हे राक्षस ! तेरा समस्त शरीर-परिकर (हस्व-पादादि) उत्कट अस्थियों ( हरियों नसों से व्याप्त होने के फलस्वरूप तू अत्यन्त कठोर है, और रात्रि में पर्यटन करता है इसलिए नीलया के मृणाल-सरीखी कोमल बाहुलताओं से विभूषित हुई मेरे द्वारा शीघ्र किये जानेवाले गाइ-आलिजन र पात्र नहीं हो सकता । अब वरुण देवता की भर्त्सना करती हुई कीर्तिकन्या कहती है-हे वरूण ! तेरी मैथुन करने की शक्ति, वृद्धिंगत-उत्कट---जलोदर व्याधि से बिलकुल नष्ट होचुकी है और तेरा निवास स्थान समुद्र ही है: अतः चिरकाल से कामशान का अभ्यास करनेवाली मेरे साथ रतिविलास करने में उपयोगी क्रियाभोंआलिङ्गन व चुम्बनादि काम क्रीड़ाओं का दृष्टान्त नहीं हो सकता। +--इसका ध्वन्यार्थ यह है कि जो पाउरोगी है वह दूषितशरीर होने के कारण दक्षा अपात्र होने से कीर्तिभाजन नहीं होता। एवंपाणिपुट पर स्थापित की हुई समस्त परतुका भक्षण करते हुए बतन पालने वाले मुनि की ईति नहीं होतो एवं जो साधु स्व-रूचि-फ्रान्त-अस्वीकार-आत्म स्वरूप में सम्यग्दर्शन द्वारा परमात्मा को स्वीकार नहों करता, यह कीर्तिभाजन नहीं होता। २.-इसका म्यनिरूप अर्थ-निरपराधी को अपने मुख का प्रास बनाने पालबपराधी को किस प्रकार छोर सकता है। और दक्षिण दिशा में दैत्यभक्षक के समीप निवास करनेवाला शिटपुरुषों को सिकार छोड़ सकता है ! और अगासिबों के प्रति अनुराग प्रकट न करनेवाले की कीर्ति किसप्रकार होसकती है। -वन्यार्थ-जिसका शरीर अषमा मात्मा, मामा, मिथ्यात्व और निदान इन तीन पल्मों से विशwt और जो निशायर ( रात्रिभोजी), उसकी कीर्ति विसप्रकार हो सकती है। अपित नही होसम्ती । ४-इसकी पनि अलोदर म्याधि से पोषित होने कारण पानी न पौनेवासे और अपनी बाबा के प्रति अनुराग प्रदर्शित न करने वाले की कीर्ति नहीं होती । इसीप्रकार जो लक्ष्मी का स्थान है। अर्थात--जो परको सम्परता के कारण निर्भन्ध ( निष्परिभही) नहीं होता और काम-स्त्र अति---विशेष रूप से जिन-शासन बम्पास की रा, उसकी कीर्ति किस प्रकार हो सकती है। एवं घिसकी विसति आस्मोजाति से विमुख होती हुई पंधिोलियों में शव है, उसकी कीर्तिलिसप्रकार हो सकती है। अपि नही होसकी। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पतिविदितचापललामत, वात, न पितः स्थिरनायकसमागमाधिन्याः प्रीतिविलसितानाम्' इति मभस्वन्तम्, भनवरतमधुपानपरिक्युतमतिप्रकाश विशेश, न गोचरस्वरानिमुधारसास्वादविस्फुरित श्रवणालिपुटायाः सहालाएगोष्ठीनाम्, इति नहावरपिसरम्, 'अनुचितबिताएकण्ठपीठ शितिकण्ठ, न भाजरममनियरियायाः पृथुजघनसिंहासनारोहणानाम् इति कृत्तिवालपम्, अनि पदतचरणनखण्डमयूख न प्रभुः प्रसभपुष्पप्रभाषरन्यसंभोगायाः करसंवाहमसुस्वानाम्' इति हरितवानानम्. ' अझयक्षयामयमंशयित मोरित बुधतात, न शरणमगणितमाखसौभाग्यभापिसजन्मटमनायाः प्रबन्धनिधुवनविधीनाम्' इतिनिशाइर्शम्. अव वायुदेवता का तिरस्कार करती हुई कौति कन्या कहती है-हे वायुदेव ! तुम ऐसे चखल कुल में उत्पन्न हुए हो, जिसकी चपलता विशेप विख्यात है, इसालए तुम मेरी प्रेम-प्रवृत्तियों के बलम नहीं होसकते: क्योंकि में तो स्थिर प्रकृतिशानी पति को प्राप्त करने का प्रयोजन रखती हूँ। अब कुवेर के अनादर में प्रवृत्त हुई कीतिकन्या कहती है-ह कुवेर ! निरन्तर मद्यपान करने से तेरी बुद्धि नष्ट होचुकी है. इसलिए तू भी ऐसी मेरे साथ की जानेवाली कान्त भाषए-गोष्ठियों के योग्य नहीं है। जिसके कर्णरूप अञ्जलिष्ट चतुर पालाप ( वक्राक्त) रुप अमृत प्रवाह के आस्वादन करने में सदा संलग्न रहते है। अव प्रस्तुत की तिकन्या श्रीमहादेव का तिरस्कार करती हुई कहती है-अयोग्य चिता (मृतकाान) के समीप आसन लगानेवाले व नीलग्रीयाशाली हे महादेव ! तू विशुद्ध-चरित्र शालिनी मेरे विस्तीर्ण जंघारूप सिंहासन पर आरहण का पात्र नहीं है। . अब सूर्य का अनादर करती हुई कीर्तिकन्या कहती है-हे सूर्य ! तेरे चरणों के नख दुःखकर कुष्टरोग से उत्पन्न हुई पीप-वगैरह से नष्ट हो चुके हैं एवं तेरी किरणें भी विशेप तीन है, इसलिए तू ऐसी मेरे, जिसके साथ रति-विलास करने का मुख बिशिष्ट पुण्य के माहात्म्य से प्राप्त होता है, करकमलों द्वारा किये जानेवाले पाद मईन संबंधी सुखों का पात्र नहीं है | अब चन्द्र का अपमान करती हुई कीति कन्या कहती है-हे वुध के पिता चन्द्र ! तेरा जीवन ( आयु ) अविनाशी क्षय रोग के कारण संदिग्ध है। अथान-दीर्घनिद्रा (मृत्यु) योग्य है। इसलिए तू एसा मर सा ६: ३सालए तू एसी मर साथ वीर्यस्तम्भन पूर्वक की जाने याली मैथुन कियात्रों का स्थान नहीं है, जिसके जन्मलग्न ( उत्पत्ति-मुहूर्त) के अवसर पर ज्योतिषियों द्वारा निस्सीम सुख कहा गया है। -इससी पनि-भाव-आदि के चञ्चल कुल में उत्पन्न हुए चश्चल प्रश्नतिशाली को और सम-आगम-अर्थीराहेत मर्यात समता परिणान और अमात्म शास्त्र के अभ्यास का प्रयोजन न रखने वाले साधु पुरुष की कीर्ति नहीं होसकती। नसका स्वनिरूपार्थ-नास्तिक सम्प्रदाय में दीक्षित होने वाले की व मद्यपान करनेवाले साधु की बुद्धि पर परदा पा जाता है। इसी प्रकार विद्वानों के मुभाषितामृत का रसास्वाद न करने वाले की और दिगम्बर साधुओं के प्रति पञ्चलिपुर न बाँधनेवाल-नमस्कार न करने वाले-का कार्ति नहीं होती। -इसका स्वनिरूपार्ष-अपवित्र स्थान पर बैठकर स्वाध्याय-आदि धार्मिक कियाओं को करनेवाले, संगकण्ठशाली, अपने चरित्र में बार वार असिचार लगाने वाले, और सिंहों के पर्वतादि स्थानों पर निवास न करनेवाले-बनवासी न होने वाले-कार्तिभाजन नहीं होसकते।। ४-इसकी वनि-कुष्ठरोग से पीड़ित व्यक्ति के नसमात्र ( जग-सा) भी बारित्र नहीं होता। एवं मधुर पपनो भारा लोगों को मुन्न न देनेवाले की कीर्ति नहीं होती। -सी ध्वनि-जो साधु क्षय रोगी रा ीमार रहता है, जिसकी भाहार-प्राप्ति संदिग्ध होती है, जो दूसरे को वियों के साथ मिविलास करके पुत्र उम्पा करता है, जो प्रवन्ध-निभुवन-विधि नहीं जानता। अर्थात महापुराण Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास 'अवतानकालायसतलिफाकृविसलसिमस्तकदेश हृषीकेश, न समीपमदयाचप्रहमहिलविनहायाः कुटिलकुन्तलाविलविलोचनधुम्बनानाम्। इति मुचुन्स, अविरलारलोल्लासमापनजाल भुजङ्गमलोकपाल, न संगमागमनमनस्पकल्पसंकल्पितप्राणिसाषास्तुण्डीराधरामृतानाम्' इति कुम्भीनसा थानभिनन्दन्ती, मरुमरीचिवीचिनिचयवन्यमामा मृगाङ्गनेव पास्यवस्तिस्य वसुमतीपतेर्मतिरिव निखिलमविलयोन्मीलिसान्तरालोफलाधनस्य मुनेर्मनीषत्र, च न क्वविदयापि मानासि स्थितिम् ॥ यस्य च सुकृप्तिमस्तपस्तपनकरकाश्मीरकेसरारुणितस्तुति मुखरमुरयोचिदलकवलयादा दिवितादृश्याचलदीसंदोहा अब श्रीनारायण की भर्त्सना करती हुई कीर्ति कन्या कहती है-है श्रीनारायण ! तेरा मस्तक पुराण पुरुष होने के फलस्वरूप 'अधोमुखवाली लोहे की कड़ाही के आकार वाली गंजी खोपड़ी से व्याप्त है। इसलिए तू ऐसी मेरे कुटिल केशों से मिले हुए नेत्र संबंधी चुम्बनों के समीवती होने योग्य नहीं है, जिसका शरीर दोनों कर कमलों से निर्दयता पूर्वक केशों के प्रहण करने में श्राग्रह करता है। इसीप्रकार प्रस्तुत कीर्तिकन्या धरणेन्द्र ( नागराज ) का तिरस्कार करती हुई कहती है-हे शेष नाग ! तेय हजार फणोंवाला मुख-समूह घने ( तीन ) विषसे व्याप्त है । तुझे भी ऐसी मेरे जिसका जीवन ज्योतिषियों ने पाण्यात सरकार पर्वत (त्यागी, सा है, पके हुए विश्रफल सरीखे श्रोष्ठों के अमृत की प्राप्ति नहीं होसकती। इसीप्रकार प्रस्तत सदत्ताचार्य की कीतिकन्या उसप्रकार धोख हुई किसी स्थान पर आज तक भी नहीं ठहरी जिसप्रकार मृग-तृष्णा की तरङ्ग-पक्ति द्वारा प्रतारित की जाने वाली ( धोखा खाई हुई ) हिरणी किसी स्थान पर स्थित नहीं रहती। इसीप्रकार वह आज तक भी किसी स्थान पर उसकार स्थित नहीं हुई जिसप्रकार राज्य पद से भ्रष्ट हुए राजा की बुद्धि किसी स्थान पर स्थित नहीं रहती। इसीप्रकार यह उसप्रकार किसी स्थान पर स्थित नहीं हुई जिसप्रकार ऐसे मुनिका, जिसको समस्त पापरूपमल ।घातिया कर्म) के क्षय होने पर विशुद्ध आत्मा से केवल शान उत्पन्न हुआ है, केवल-शान किसी एक पदार्थ में स्थित नहीं रहता । * . अनेक देशों की गोपियाँ, विशेष पुण्यशाली अथवा विशिष्ट विद्वान जिस मुदत्ताचार्य के गुण विस्तारों को, जो कि हिमालय पर्वत के शिखरमण्डलों पर शोभायमान होरहे है, तीन लोक में विख्यात ऐसे उदयाचल पर्वत की गुफा-समूह की मर्यादा करके या व्याप्त करके गाती है. जिसमें सपरूपी सूर्य की किरणरूप काश्मीर केसरों द्वारा स्तुति करने में पाचाल हुई देवियों के केरामाशों की श्रेणी राञ्जत ( लालवर्णवाली ) की जारही है। आदि शास्त्रों की स्वाभ्याय-आदि निधियों को नहीं आनता और जो रात्रि में अपराध करता है, उसकी कीर्ति नहीं होती। क्योंकि मुठो कीर्ति श्रेयस्कारिणी नहीं होती। -इसकी ध्वनि-जो साधु गंजे मस्तक को धारण करता हुआ भी दौलत नहीं होता। जो मानव युवावस्या में प्रविष्ट होकर भी तपश्चर्या में तत्पर नहीं है। जो इन्द्रियों द्वारा प्रेरित हुआ केश-उधन के अवसर पर उसप्रकार अपनी कुटि गिराता है, जिसप्रकार नट रजस्थली-नाव्यभूमि-पर प्राप्त होकर अपनी भ्रकुटि संचालित करता है। एवं जो अपने केशलचन के अवसर पर अXट व सर्जनी को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है, उसकी कीर्ति नहीं होती। २- जो मुनि मधुरभाषी न होता हुआ मुम्ब मे विषतुल्य फट्रक वचन बोलता है और कामी पुरुषों की रक्षा करता है, उसकी कीर्ति नहीं होती। *- उपमालंकार व अन्तर्दापक-अलंकार । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ यशस्तिलकचम्पूकाध्ये इच्छापरी*संदोहवस्मृप्तापगाप्रमाहापहसितयशःफेलपटापाण्डरोपलान्तकदेशावर सेतुबन्धमेखलालकहरामेखलाकुलकहरनिबीकिनारीगणीश्रमामयादनियमनामशुचिरामाविगीतवापाटकन्दरादा मनहरधराधरनितम्बाखराधनितम्बारम्बरस्यपदपथनस्थानमन्धरितगतिकीर्तिमन्दाकिमीतरङ्गद तुरंदरपदनाचा तुहिनीचूलिकामालातहिनशैललिकाचक्रयालविलासीनि गायन्ति पुणविजृम्भितानि जनपगोप्यः ॥ स भगवान् पुण्यपानीयवों कोऽमपूर्वः पर्जन्य विनाविनेयमानसस्पप्रसराः पुरस्थानीयहोणमुखकाईटिकसंप्रनिगममामविभः सममिनरक्ष्यन्विटरमाण:: प्रणतसमलहिणालमौलिमपडलीभववरणनखरसोस्करः, शिवचरणकरणनयनिरूपणगुणहारविहितालभूषणैः एवं वे (गोपियाँ ), ऐसी सेतुबन्धपर्वत ( दक्षिणदिपर्व) की कटिनी-समूह की गुफा की मर्यादा करके या व्याप्त करके प्रस्तुत आचार्य का गुणगान करती हैं, जिसमें शिलाओं के मध्यवर्ती प्रदेश, ऐसे यश-समूह के फेन-पटल समान शुभ्र है, जो कि सेतुबन्ध पर्वत की गुफा के समूह-समान विस्तृत अमृतनदी के प्रवाह को तिरस्कृत ( तुलना ) करता है। इसीप्रकार वे गोपियों, ऐसे अस्ताचल पर्वत के तट की मर्यादा करके या व्याप्त करके प्रस्तुत आचार्य का गुणगान करती हैं, जिसकी गुफा ऐसे पंचमाविरागपूर्ण गीतों से शन करती हुई शोभायमान होरही है, जो (गीत ) कटिनी-समूह की गुफाओं में स्थित देवियों के समूह द्वारा गाए जानेकाले कम्गा, जितेन्द्रियता, पंचमहाव्रत ष सुदत्तश्री का नाम इनसे पवित्र हैं। इसीप्रकार वे गोपियाँ ऐसे हिमालय पर्वत के शिखर-मण्डल की मर्यादा करके या व्याप्त करके प्रस्तुत आचार्य के गुण-विस्तार गाती हैं, जिसके गुफारूपी मुख ऐसी कीर्तिरूपी मन्दाकिनी (गंगा) की तरङ्गों से उन्नत दन्तशाली हैं, जिसकी गति हिमालय पर्वत के विस्मृत तटों पर वर्तमान ऊँचे नीचे (ऊबड़खावड़) मार्ग पर प्रस्थान करने से मन्द (धीमी) पड़गई है। उस जगत्प्रसिद्ध भगवान् (इन्द्रादि द्वारा पूज्य ) ऐसे सुदचाचार्य ने संघ-सहित विहार करते हुए 'नन्दनवन' नामका राजपुर नगर संबंधी उद्यान (बगीचा) देखा। कैसे हैं सुदनाचार्य ? जो पुण्य रूप जलवृष्टि करने के कारण अनिर्वचनीय व नवीन मेघ सरीखे हैं। अर्थात्--उनसे उसप्रकार पुण्यरूप जल की वृष्टि होती थी जिसप्रकार मेघों से जल-वृष्टि होती है। वे (सुदत्ताचार्य) ऐसी भूमियों को, जिनमें विनयशील भव्यप्राणी रूप धान्य का विस्तार पाया जाता है और जो पुर (राजधानी), स्थानीय ( भाठसौ प्रामोसे संबंधित नगर विशेष), द्रोणमुख ( चार सौ ग्रामों से संबंधित नगर), काटिक (दो सौ ग्रामों से संबंधित नगर ), संग्रह (दश प्रामों से संबंधित नगर), और निगमग्राम (धान्योत्पत्तिवाले गाँव) इनसे संबंध रखती है, आनन्दित करते हुए राजपुर की ओर विहार कर रहे थे। जिसके चरणोंके नखरूप रत्नसमूह नमस्कार करते हुए राजाओंके मुकुटों को अलकृत करते थे। जिसके पादमूल (चरणकमल), ऐसे प्रचुर पारासरियों (तपस्वी साधुओं) द्वारा नमस्कार किये गये थे, जिनमें कुछ ऐसे थे, जिन्होंने सम्यग्चारित्र का पालन, नयचक शास्त्र का उपदेश, और ज्ञान-ध्यानादि गुणरूपी मोतियों की मालाओं से अपने वक्षस्थल-मण्डल विभूषित किये थे। *'संदोहवइदमृतापगा' इति ह. लि. सटि (क, ग, च) प्रतिषु पाठः । १. पाराशरिणः तपस्विनः इति इ. लि. ( क घ ) प्रतिषु टिप्पणी वर्तते । एवं भिक्षुः परिबाट कर्मन्दी पाराशर्यपि मस्करी इत्यमरः । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्राश्वास अश्विस्समस्तश्नुतघरोखरणाविधिपणे निररिसवितानातीविषचनसमनोविनिर्मितावसंसभृषित भव्यश्रोत्रैः कैश्चिदात्मेतरतर्ककर्कशोदकवितकोविकास्यमानभुवनाशायरासपीः, कैश्चिन्नध्यानव्यकाव्योपदेशकास्वान्दोच्छ. मागच्दतुच्या कल्याणकारनव्याख्यानमण्डपानी?; कैश्चिवजनेन्चान्द्रापिस (श) लपाणिनीयाघनेकव्याकरणोपदिश्यमानशब्दार्थसंबन्धवैवाधीसरिस्मालिसशिष्यशेमुषीपदविन्यासायनीकैरपरश्च तप्सद्विधानवद्यमतिमन्दाकिनीप्रवाहाबागोरितान्तेवासिमामसवास:प्रसः सिससिपरिव परिमुषितकषायकालथ्यश्चित्रातिपरिव मदरहितः कोकनदकानमैरिव प्रतिपन्न मित्रभाः विश्वभरेश्वरैरिख प्रणीतषिमहरूण्डैस्मशहरिष परित्यक्तदोषैः कामिनीमनैरिम प्रकटितपरलोकागमकामै उनमें से कुछ ऐसे थे जिन्होंने अपनी बुद्धि समस्त द्वादशाङ्ग शास्त्र रूप पृथिवी या पर्वत के उद्धार करने में ऋषभदेव या विष्णु सरीखी प्रम्बर ( तीक्ष्ण ) कर ली थी। उनमें कुछ ऐसे थे जिन्होंने ऐसे वचन रूप पुष्पों द्वारा, जो तिरेसठ शलाका के महापुरुषों के चरित्रग्रन्थों के निरूपण की चतुराई से सहित और पवित्र ( पूर्वापर-विरोध-रहित ) हैं, रचे हा कार्याभरणों से भव्य- पुरुषों के श्रोत्र अलङ्कृत किये धे। उनमें कुछ ऐसे थे जिन्होंने जनदार्शनिक व अन्य दार्शनिकों (जैमिनीय, कपिल, कणाद, चार्शक और बौद्ध) के दर्शनशास्त्रों का विषमतर उत्तर विचार ( गम्भीर बान) प्राप्त किया था, जिसके फलस्वरूप वे, दार्शनिक तत्वों के युक्ति-पूर्ण कथन रूप सूर्य द्वारा तीन लोक के हृदय कमल प्रफुल्लित कर रहे थे। उसमें से कुछ ऐसे थे जो, नवीन और प्राचीन साहित्य संबंधी तात्त्विक व्याख्यान देते थे, इसलिए उनकी व्याख्यान कला रूपी पुष्प वाटिका के काय कुसुमों का यथेष्ट संचय करने के हेतु आई हुई बहुतसी प्रवीण शिष्य मण्डली से उनके व्याख्यान मंडप समृह खचाखच भरे रहते थे। कुछ ऐसे थे जिन्होंने पेन्द्र (इन्द्रकवि रचिव ), जैनेन्द्र (पूज्यपाद-रवित जैन व्याकरण ), चान्द्र (चन्द्रकवि-प्रणीत ), आपिशल (आपि शालि-कृत) श्रीर पारिएनीय-श्रादि अनेक व्याकरण शास्त्रों द्वारा निरूपण किये जानेयाले शब्द और अर्थ के संबंध की चतुराई प्राप्त की थी और उस चतुरता रूपी गंगा नदी द्वारा जिन्होंने शिष्यों की बुद्धि संबंधी शब्द रचनाभूमि निर्मल की थी। इसीप्रकार जिस मुदत्ताचार्य के चरण कमल दूसरे ऐसे तपस्वियों द्वाग पूजे गये थे, जिन्होंने जन-उन जगप्रसिद्ध विद्याओं (ज्योतिष, मन्त्रशास्त्र, आयुर्वेद, स्त्री-पुरुष-परीक्षा, रस्त्र-परीक्षा, गजविद्या और अश्वविद्या (शालिहोत्रादि-शास्त्रों) के अध्ययन-मनन से उत्पन्न हुई निर्दोष बुद्धि-मन्दाकिनी (गंगानदी) के प्रवाहों में अवगाहन करने के फलस्वरूप शिप्यों के मनरूप यलों के विस्तार उज्वल किये थे। जिन्होंने, कपाय कालुप्य-क्रोध, मान, माया घ लोभ रूप कषायों की कलुषता (पाप प्रवृत्ति) को उसप्रकार दूर किया था जिसप्रकार शुक्ल वरून कपाय-कालुष्य (नीली रसादि संबंधी मलिनता) से दूर होते हैं। जो उसप्रकार मदों (ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप व रूप इन पाठ प्रकार के अभिमानों ) से रहित थे जिसप्रकार चित्र में उकीरे हुए हाथी मद-रहित (गण्डस्थलों से प्रवाहित होने वाले मदनल से रहित) होते हैं। जिन्होंने मित्रभाष (विश्व के साथ मैत्रीभाव) को उसप्रकार स्वीकार किया था, जिसप्रकार रक्त कमलों के बल मित्रभाव-सूर्य के उदय को-वीकार करते हैं। अर्थात-अपने विकसित होने में सूर्योदय की अपेक्षा करते हैं। जिन्होंने विग्रह-दण्ड ( काययलेश ) का उसप्रकार भली-भाँति अनुष्ठान किया था जिसप्रकार चक्रवर्ती, विग्रह-दण्ड अर्थात्--युद्ध व सैन्य संचालन का भली भाँति अनुदान करते हैं। अर्थान-शत्रु के साथ सन्धि नहीं करते। जो दोपों रागादि या व्रतसंबंधी अतिचारी) से बस रहित से देवताओं के शरीर दोपों ( वात, पित्त व कफ) से रहित होते है। जिन्होंने परलोक-यागम ( दशाध्यायरूप मोनशास्त्र या स्वर्ग-प्राप्ति ) में उसप्रकार काम (प्रीति) प्रकट किया है जिसप्रकार बेश्यायों का समूह परलोकागम ( कामी पुरुषों के श्रागमन ) होने पर काम ( रति विलास की लालसा) प्रकट करता है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये पतिशास्त्रैरिव प्रकाशितशस्योगतीर्थोद्योगैर मग भोगैरिव निरुपमे वर्ष नवम पविलैरिव बिजू रिसरजोभिरखिछद्वीपदी पैरव समोपचार महा बाहिनी प्रवाहैरिव वीतस्पृहाप्रकृतिभि: सक्कुसुमैरिव निसर्गगुणप्रणयिभिः कुमारश्रमणमनोभिरिवाज्ञातमनसद्वै निखिलभुवनभद्रान्तरायनेमिभिर्मू छोसरगुणोदाहरणभूमिभिमतचर्वण नितजगदानन्दैः समक्ष बारिशलता कन्दै 1 जिन्होंने नीतिशारूों के समान शम, योग व तीर्थों में उद्योग प्रकाशित किया है । अर्थात्जिसप्रकार राजनीतिशास्त्र. शम ( प्रजा के क्षेमहेतुओं- कल्याण-कारक उपाय ), योग ( गैरमौजूद धन का लाभ ) तथा तीर्थों ( मंत्री, सेनापति, पुरोहित, दूव व अमात्य आदि १८ प्रकार के राज्याङ्गों की प्राप्ति में उद्योग प्रकाशित करते हैं उसीप्रकार जिन्होंने राम, योग व तीर्थो में उद्यम प्रकट किया था । अर्थात्जिन्होंने ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय करने में, ध्यान शास्त्र के मनन में और अयोध्यादि-तीर्थों की वन्दना करने में अपना उद्यम प्रकाशित किया है। जो आकाश विस्तार सरीखे उपलेप-रहित थे । अर्थात्1 जिसप्रकार आकाश के विस्तार में उपलेप ( कीचड़ का संबंध ) नहीं लगता, उसीप्रकार जिनमें उपलेप ( पाप-संबंध या पश्मिह-संबंध ) नहीं था। जिसप्रकार वर्षा ऋतु के दिन विदूरित- रज ( धूलि-रहित ) होते हैं उसीप्रकार वे भी विपूरित-रज थे । अर्थात् -- ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्मों से रहित अथवा चपलता से रहित थे। जिनका चरित्र सूर्य-समान तमोपह था । अर्थात् जिसप्रकार सूर्यमण्डल तमोपट ( अन्धकार विध्वंसक ) होता है उसीप्रकार उनका चरित्र भी तमोपह ( अज्ञानांधकार का विनाशक ) था । जो महा नदियों (गंगा व यमुना आदि ) के प्रवाह सरीखे धीत स्पृहा प्रवृत्ति थे। अर्थात्-जिसप्रकार महानदियों के प्रवाद बीत-स्पृह होते हैं। अर्थात् चैतन्य-रहित - जड़ात्मक (ड और ल का अभेद होने सेजलात्मक ) होते हैं उसीप्रकार वे भी बीस- स्पृहा प्रवृत्ति थे । अर्थात् - जिनकी विषयों की लालसा की प्रवृधि नष्ट हो चुकी थी। जो स्वभाव से उसप्रकार गुणप्रणयी थे। अर्थात् वे उसप्रकार स्वतः गुण ( शास्त्र ज्ञान) में रुचि रखते थे जिसप्रकार पुष्प मालाओं के पुष्प स्वतः गुरु प्रणयी ( तन्तुओं में गुथे हुए ) होते हैं। जो कुमार काल में दीक्षित हुए साधुओं के हृदय-समान मदन फल के सङ्ग से रहित थे। अर्थात्जिसप्रकार कुमार दीक्षितों के हृदय ( हाथों में वैवाहिक कङ्कण-बन्धन न होने के कारण ) मदनफल -- काम विकार — के संगम से रहित होते हैं उसीप्रकार के भी मदन-फल ( सन्तान या धतूरे के फल ) के सङ्गम से रहित थे । अर्थान् - बाल ब्रह्मचारी थे। जो समस्त पृथिषी मंडल के भद्रकार्यो' ( बल, धन, सुख व धर्म की युगपत्प्राप्ति) में उत्पन्न हुई बिष्न बाधाओं को नष्ट करने के लिए उसप्रकार समर्थ है जिसप्रकार धाराएँ a संबंधी विन्न बाधाओं को ध्वंस करने में समर्थ होती हैं। इसीप्रकार वे तपस्थी मूलगुणों (५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियों का वशीकरण केशलुश्चन और ६ आवश्यक, निरम्बरस्व ( नम रहना स्नान न करना, पृथिवी पर शयन करना, दाँतोन न करना, खड़े होकर आहार लेना, और एक बार आक्षर लेना इन २८ मूलगुणों— मुख्य चारित्रिक क्रियाओं - और उत्तर गुणों ( उत्तम क्षमादि दश लक्षण धर्मोका 'अनुष्ठान, दश हजार शील के भेद, और २२ परीपद्दों का जय आदि) को धारण करने के लिए दृष्टान्त भूमि थे। अर्थात स्थान भूत थे। जिन्होंने धर्मोपदेशरूप अमृत वृष्टिद्वारा समस्त पृथिवीमण्डल के प्राणियों को सुखी बनाया हूँ। जो ब्रह्मश्वर्यरूप लता की मूल समान I * 'अनमनाभोरि' इति ६० लि० प्रतियु ( क, ग, व ) पाउ:, आकाशविस्तारैरित्यर्थः । १ - मई व धर्म सुधर्मो युग टि. ( ख ) प्रति से संकलित — सम्पादक 1 F Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास रिचत्रशिखण्डिमालीस्तूयमानपुण्याचरौरभ्वाचयीकृतसतिसगावतायरिभिः पारारिभिरपरेण चान्नानेन भमणसंप्रेनोपास्यमानपादमूला, सौध दिवसे तदेव पुरमनुसितीर्घः, घमघोरामकस्वनाकर्णनानुपयुक्तमनःप्रणिधानः, सतीथ्यपि नगरे महतीषु वसतिषु पौराणामतीव प्राणिवथे साधा बुद्धिरित्यवधिना बोधेनावबुद्धशावधीरितपुरप्रयेशः, पूर्वस्या पदिशि निवेशिताःप्रकाशः, सुरसुरभिलपनलूनाप्रभागमिव समशिनारदेशाभोगम् अमृतसिक्तोदयमिव स्निग्धदक्षवलयम, इन्द्रनीलकुस्कीलमिव लोचनोल्लासिष्ठीलम, मन्योन्यविभवसंभावनोबापायमिव परस्परसमतिकरितकिशलयम्, अखिलविष्टपोल्पत्तिस्थानमिव गर्भितप्रसूतप्रवर्धमानमहीमहाकावस्थानम. *अनामनिमालीविहिवसहसवासानरोधमिव निर्दलितनिखिलायाधम, इतरेतरश्रीमत्सस्तिमिव सकल शोभासंरम्मोचितम्, जिनका पवित्र आचार चित्रशिखण्डियों'–मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वसिष्ठ ऋषियों-की मण्डली द्वारा प्रशंसा किया जारहा था एवं जिन्होंने मिध्यामार्ग की उत्पत्ति रोक दी है। इसीप्रकार जिस सुदचाचार्य के चरणकमल अनूचान (द्वादशाङ्ग श्रुतधर) ऋषि, यति, मुनि व अनगार रूप चार प्रकार के श्रमण संघ से नमस्कार किये गये हैं। प्रस्तुत सुदत्ताचार्य ने उसी आगामी चैत्र शु. महानवमी के दिन उसी राजपुर नगर में संचार करने के इच्छुक होकर महाभयानक दुन्दुभि वाजों के शब्दों के श्रवणकरने से उस ओर अपनी चित्तवृत्ति प्रेरित की। 'यद्यपि राजपुर नगर में मुनियों के ठहरने योग्य विशाल वसतियाँ (चैत्यालय:आदि स्थान) है तथापि 'यहाँपर नागरिको की बुद्धि प्राणि-हिंसा में विशेष प्रवृत्त होरही है, यह बात प्रस्तुत आचार्य ने अषधिज्ञान से जानी । पश्चात् नगर-प्रवेश को तिरस्कृत करके पूर्व दिशा की भोर इष्टि-पात करते हुए उन्होंने ऐसा 'नन्दनवन' नामका उधान ( वगीचा ) देखा । जिसके शिखर देश का विस्तार सम है ( उबड़-स्थायद नहीं है) इसलिए जो ऐसा प्रतीत होता था मानों-जिसका अग्रभाग देवों की कामधेनुओं के मुखोंसे काटकर चाया गया है। जिसके पत्तों के वलय (क-आभूषण) स्निग्ध है, इसलिए जो ऐसा ज्ञात होता था मानों-जो उत्पत्ति काल में अमृत से ही सींचा गया है। जिसकी शोभा नेत्रों को थानन्दित करनेवाली है, इससे जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों--इन्द्रनील मरिण का पर्वत ही है। जिसके पल्लव परस्पर में मिश्रित थे, अतः जो ऐसा मालूम पड़ता था, मानों-जिसे एक दूसरे की सम्पत्ति देखने की उत्कट श्रभिलाषा लगी हुई है। जहाँ पर ऐसे विशाल वृत्तों के छोटे-छोटे वृक्षों की स्थिति पर्तमान है, जो कि अंकुरित, उद्भूत ( उत्पन्न ) व वृद्धिंगत होरहे थे, इसलिए जो ऐसा ज्ञात होता या मानों-समस्त पृथिवीमण्डल का उत्पत्ति स्थान ही अंकुरित, उद्भूत व वृद्धिंगत होरहा है। समस्त लोक के कष्ट दूर करनेवाला होने से बह ऐसा मालूम होता था, मानों-जिसने आकाशसम्बन्धी सप्तर्षि मण्डली या चारण ऋद्धिधारी मुनिमण्डली के साथ संगति करने का आग्रह किया है। जो समस्त छह ऋतुओं (बसन्त-आदि) की शोभा (पुष्प-फलादि सम्पत्ति की प्रकटता) के आरम्भ योग्य है। मर्थात्-जहाँ पर समस्त ऋतुओं की शोभा पाई जाती है। अतः जो ऐसा ज्ञात होता था, मानों-परस्पर की शोभा देखने में ईर्ष्या-युक्त ही है। * 'अनशनमुनिमण्डलीसहसवासम्यवहारमिब' इति ह. लि. सटि, (क) प्रतो पाठ: परन्तु इ. लि. (ख, ग,) प्रतियुगले 'अनशनमुनिमजली' इत्यादि मुरित सटीक प्रतिवत् पाठः 1 विमर्श-ह. लि. (स, म) प्रतियुगालस्य एवं मुदितसटीकपुस्तकस्य पाठः विशेषशुद्धः श्रेष्ठश्च -सम्पादक १. तथा थाह धुतसागरः मूरि:--मरीचिरनिरा अत्रिः पुलल्यः पुलहः क्रतुः । वसिष्टश्चति सप्त ने अयाचित्रशिण्डिनः ॥१॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अम्बरचश्वसनवासकृतकुतूहलमिव गगमवलोल परिमलम् असमशरोद्यावदिवसभित्र प्रसवपरागपिए किस दिन देवतासीमन्तसंतानम् अशिशिरकरण नाम उणविनोनामगमविपान्तरितषामनिमिषषोषितामसिक सटकु कालिस हर समय शुक्तिभिरिव पत्र अन्तराल से निर्गताभिः प्रसूनमशरीभिरुपचितो परितनविस्तारम् । आसनराम्रापगाभिषेकसंगमाहरूमिः *कर मपरित्र मधुकर कुकलुषित ! वहिःप्रकारम्, उज्जृम्भजपापुष्पादितमीज्ञानमौलिमिव परिणामसंगतशिवम्, अभि नयागमप्रस्तारमित्र तालबहुल व्यवहारम् धनायतनमिव मन्वाररायतनम् जीमूतवाहतचरितावतारमिव नागबलीविभव सुन्दरम् मित्र संमानणासनम्, मकरध्वजाराधनप्रसाधितगाउँमै रहर पूरातरुभिः श्यामलित विक्याल it निलयम् जिसके पुष्पों की सुगंधि श्राकाश मंडल पर ऊँचे उड़ रही है, इसलिये जो ऐसा प्रतीत होता था, मानों देवताओं के वस्त्रों को सुगन्धित करने के लिए ही जिसे उत्कण्ठा उत्पन्न हुई है । जिसने पुष्पों की पराग द्वारा दिशारूपी देवियों का केशपाश- समूह सुगन्धि चूर्ण से व्याप्त किया है। अतः वह ऐसा मालूम होता था, मानों- कामदेव का महोत्सव दिन ही है। जिसके उपरितन प्रदेश का विस्तार किशलयपुटों के मध्यभाग से उत्पन्न हुई ऐसी पुष्पम अरियों से व्याप्त है, जो ऐसी प्रतीत होती थीं- मानों सूर्य को नमस्कार करने में स्नेह रखनेवाली व वृक्षों की शाखाओं में अपने शरीर छिपानेवाली देवियों के ललाटपट्टों पर कुकालित किये हुए हस्तों की नखशुक्तियाँ ही हैं। जिसका बाह्य प्रदेश ऐसे भ्रमर-समूहों द्वारा श्यामलित (कृष्ण धयुक्त) किया गया था, जो ऐसे प्रतीत होते थे मानों निकटवर्ती आकाशगङ्गा में स्नान करने के फलस्वरूप नष्ट होते हुए पापकण ही हैं । जिसका अप्रदेश पकी हुई नारद्वियों से व्याप्त हुआ उसप्रकार शोभायमान होता था जिसप्रकार विकसित जपापुष्पों द्वारा जिसकी पूजा की गई है, ऐसा महेश्वर मुकुट शोभायमान होता है। जो उसप्रकार तालबद्दल व्यवहार (ताडवृक्षों की प्रचुरप्रवृत्ति युक्त) है जिसप्रकार संगीतशास्त्र का विस्तार ताक्ष बहुल व्यवहार (या के मान की विशेष प्रवृत्ति-युक्त - द्रुतविलम्बित- प्रवर्तन) होता है । जो उसप्रकार मन्दार-आयतन (पारिजात वृक्षों का स्थान ) है जिसप्रकार आकाश भन्द-आर-आयतन ( शनैश्वर प मङ्गल का स्थान ) होता हूँ। जो उसप्रकार नागवल्ली- विभव-सुंदर (ताम्बूललताओं - पनवेलों की सघनता से मनोहर ) है जिसप्रकार जीमूतवाहन (विद्याधर विशेष ) के चरित्र का अवतार ( कथासम्बन्ध ) नागवली - विभव - सुन्दर (सर्प श्रेणियों की रक्षा करने के फलस्वरूप मनोश ) है । जो उसप्रकार संनह्यमान आणासन ( जहाँपर बीजवृत्त व रालवृक्ष परस्पर में मिल रहे हैं) है जिसप्रकार कामदेव की आयुधशाला संनिझमान वाणासन (धारोप्यमाणचढ़ाई हुई डोरीवाले धनुष से युक्त ) होती है। जिसमें ऐसे सुपारी के वृक्षों द्वारा राजभवन श्यामलिस ( श्यामवर्णवाले ) किये गये हैं, जो ऐसे प्रतीत होते थे, मानों - जिनके शरीर कामदेव की पूजा-विधि के लिए रचे गये हैं ऐसे मयूरपिच्छों के छन ही हैं। अर्थात् जो सुपारी के वृद्ध मयूरपिच्छ की शोभा उत्पन्न करते थे । ५२ * 'कलत्रे रिष' इति (क) प्रती 1 ↑ 'वहि: प्रकाशम्बरम् (क) प्रती + 'नारंगसंगत शिखम्' इति (क) प्रती । ई 'मन्दारसारं (क, घ, च) प्रतिषु ललिताः 1 दिप्पश्य — मन्दारवृक्षः पचे मन्दः शनैश्वरः आरः मंगल: इस समुचिखितं । निष्कर्ष - टीकापेक्षया एवं मूलपाठापेचयार्थमेो नास्ति । १. उच - ताल: कालक्रियामानं यः साम्यमुनानं रुदि प्रति ( क ) से संकलित -- २. श्रीभूतवाहन नाम के विद्याधर ने दयाहता वश गरुड़ के लिए भक्षणाथ अपना शरीर अर्पण किया था, जिसके फलस्वरूप गरुड़ ने सर्प भक्षण नहीं किये, अतः उसने सर्पों की रक्षा की। संस्कृत टी. पू. ९५ से संग्रहीत --- सम्पादक Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास अपि च क्वचिक्नोलजाकमिर्जितसरफलपलिवेक्षिमतारुणितविविजविमानशालम् , कपिलवलीदलोडमरवम्बरचुम्बितजम्शीरासरालम्, विश्वस्यास्थानककिस्स्म्यिम् , मात्रमेहविराजितराबादनासीनसुरसुन्दरीगणगीयमानमनसिजविजयप्रबन्धम् , धिरखेचरावतरणपतत्संतामकुम्पलसंवलिसपारिजातलतान्तभ, चित्परमतपत्ररणोपाजित: सुरसैरिव महाफलप्रमापिभिः पनसपापैरुपयसपर्यन्तम्, चिनलक्ष्मीस्तनमियास्मीयकान्तिमितनीलहरिदनमुखानमपश्यत. " किंच-वृन्गलितः पुष्पैरुपहारभुपाहरत् । तारोबासिनमःशोभा विभावालभूमिषु ॥६९॥ यत्प्रान्तपश्योछासिप्रसमाउन संचयम् । दधातीन्दुमणियोतिपञ्च रागावलश्रियम् ॥७॥ यत्र च मधुकर कुटुम्बिमीनिकुरम्बाम्बरप्युम्यमानमकरन्युकदम्बरसम्पविलम्बितनिजनियम्बिनीसिम्बाधरपानपरवशविकासिनि, पुससुनोन्मुख मुखरपरिखेलस्सखीसखानेकखगप्रेशनखमुखाचलिरूपमानफलिसशिखरैः सभीपशासिभिः स्खलित प्रस्तुत उद्यान में और भी कुछ विशेपताण हैं-जहाँपर किसी स्थान पर अक्षोलों (अखरोट वृक्षो) के समूह सरीखे पिण्डखजूर-वृक्षों के फलों की स्वयं पच्यमानता ( पकना) द्वारा देविमानों के शिखरस्थान अरुणित-अव्यक्त राग युक्त-किये गए हैं। किसी स्थान पर जो लवन वृक्ष के पत्तों के उत्कट विस्तार से स्पर्श किये हुए जम्बीर वृक्षों से सघन या व्याप्त है। जहाँ, किसी स्थान पर पीपल वृक्षों के उत्थान (वृक्ष के ऊपर वृक्ष उत्पन्न करने) से कपित्थ वृक्षों के स्कन्ध पीड़ित किये गये थे। किसी प्रदेश पर जहाँ पर पारिजात वृक्ष से सुशोभित क्षीरि वृक्षों ( वर-वृक्ष-आदि) की जड़ों पर बैठी हुई देवियों के समूह द्वारा कामदेय का विजय-प्रबन्ध गाया जारहा था। किसी स्थान पर जहों पर विद्याधरों के आगमन-वश टूट रहे वृक्ष विशेषों को कोमल पल्लवों से नमेरु वृक्षों के पुष्प मिश्रित हो गए थे। किसी स्थान पर जिसकी आगे की भूमि विशाल फल देनेवाले पनस वृक्षों से व्याप्त थी और जो पनस वृक्ष उस प्रकार विशिष्ट फल (महान् फल ) देते थे जिसप्रकार चिरकालीन तपश्चर्या से उत्पन्न हुए पुण्य-विशेष विशिष्ट फल ( स्वर्गादि क सुख ) देते हैं। किसी स्थान पर जिसने अपनी कान्ति द्वारा दिमण्डल को उसप्रकार श्यामलित (नील वर्ण) किया था जिसप्रकार वनलक्ष्मी का कुच अपनी कान्ति द्वारा दिमण्डल को श्यामलित करता है। डंठलों से नीचे गिरे हुए पुष्पों द्वारा मानों-सुदत्ताचार्य की पजा करता हुआ यह उधान ( पुष्पों से व्यास) क्यारियों की पृथिवेयों पर ताराओं से प्रकाशमान आकाश की शोभा ( तुलना) धारण करता है ॥६६॥ जिसका समूह या अपचय ऊपर के पल्लयों पर शोभायमान होनेवाले पुरुषों से आच्छादित है, ऐसा वह बगीचा, चन्द्र कान्त मरिणयों से शोभायमान पद्मराग भणियों के पर्वत की शोभा- उपमाधारण करता है || ऐसे जिस बगीचे में कामी पुरुष कमनीय कामिनीजन के साथ क्रीड़ा करते हैं। कैसा है यह बगीचा? जहाँ पर बिलासी पुरुष अपनी कमनीय कामिनियों के विवफल-सरीखे ऐसे मोष्ठों के पान करने में पराधीन है, जो कि भँवरियों के समूह द्वारा आस्वादन किये जारहे अत्यधिक पुष्परस के गुल्म सरीखे है। जहाँपर यह में तत्पर वानप्रस्थ सपस्त्रियों का चित्त निकटवर्ती ऐसे वृक्षों द्वारा ध्यान से विचलित किया गया था, जिनके फलशाली शाखाओं के अग्रभाग, ऐसे पक्षियों के चलाए जारहे नखों और चोचों द्वारा चोटे जारहे थे, जो कि रतिक्रीड़ा संबंधी सुख में उत्कण्ठित, मञ्जुल शब्द करनेवाले, चारों ओर से क्रीड़ा करते १. उत्प्रेक्षा, क्रिष्टोपमा-आदि संफरालंकार । ५. उत्प्रेक्षालंकार व उपमालंकार। । उपमालंकार । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये प्रसंस्थाममखसंमुखीनवैखानसमामसे, कितवसहचरोपरचितकरवायलयालास्यमानमधुमत्तसीमन्तिनीसमालोकन कुराहरू मिलमदेवताभराभुगमककुभविटपिनि, वटविटपवि.संकटकोटरोपविष्टवाघादशुकपटकपच्यमानेन विवि कटरताटोपचाटुपाटन विघट. माममुनिमनःकपाटपुटसंधियन्ध, विकिर कुलकलहवराविशीर्यमाणकरबक सल्मुकुरमुताफहितवितदिकाबलिकर्मणि, चपलकपिसंरातलुसमानभराभिर्मिर्भविभमारम्भहंभ्रमाभिभामिनीभिः परिसभ्यमाणनिमृतसरसापराधवनभे, भुजमूलपुलकवितरणकान्तकेतवान्तरादितयुतिपुष्पावचितिनि, समस्तम्भसंभृतलतासोक्तःतविनिर्मितासु पीनस्तमलिखितपस्न लाञ्छितोर:स्थलरमणरसरभसोलद्धतालयलनास लीलान्दोमामु विक्षसन्तीनां विलासिनीना मुखरमणिमेखलाजालवाचालिमबहलपञ्चमालप्ति. पवितविरहवीरधि, जम्बूजाअतुझस्पारापतपतङ्गसंदीपितमदनमददरिद्वितमन्दरीसंभोगहुसबहे, कदलीदलातपत्रोसम्भनदारभरितभर्तृभुजाभागसंभावनविकटकुनकुम्भमण्डलानामितस्ततो विहान्तीनां सम्भोरणामनवरसझणझणायमानमणिमञ्जीरशिहुए. अपनी पक्षिणियों के साथ स्थित हुए व नाना प्रकार के थे। जहाँ पर ऐसी वन-देवताओं (व्यन्तरियों) के भार-वश अर्जुन वृक्ष भन्न किये गये थे, जो कि मद से मस हुई ऐसी कमनीय कामिनियों के देखने की उत्कण्ठा-वश वहाँ पर एकत्रित होरही श्रीं, जो धूर्त (विलासी) पतियों द्वारा किये हुए हस्त-ताल के लय (किंवासाम्य ) से नचाई जारही थीं। जहां पर भाड-आदि कामी पुरुषों की विस्तृत कामकीड़ा विशेष स्पसे प्रकट होरही थी और उसकी ऐसी मिथ्या-स्तुति-पटुता द्वारा मुनियों के मनरूप कपाट-युगल का सन्धिवन्ध ( जुड़ाय ) टूट रहा था. जो ऐसे तोतों के झुण्डों द्वारा उच्चस्वर से गान की जारही थी, ओ कि वटवृक्ष की शाखा के विटङ्कः ( पल्लवों से उन्मत अग्रभाग) की संकोचपूर्ण कोटर में स्थित हुए बहुगी शन कर रहे थे। जहाँपर पक्षियों के झुण्ड के कलह-वश कुरयक वृक्ष की छोटी-छोटी अर्ध-विकसित पुष्पों की उज्वल कलियाँ गिर रही थीं, जिसके फलस्वरूप वह ऐसा मालूम पड़ता था--मानों-जहॉपर मोतियों की श्रेणि-सहित वेदी को पूजा का विधान ही वर्तमान है। जिनके अभिमान का भार चपल बन्दरों के आगमन से नष्ट हो चुका था और जो बन्दर द्वारा किये हुए अत्यन्त भोहों के संचालन के प्रारम्भ से भयभीत होचुकी थी ऐसी कोप करने वाली स्त्रियों द्वारा जहाँ पर ऐसा पति आलिङ्गन किया जारहा था, जो कि मानी. नम्र था एवं जिसने तत्काल अपनी पत्नी का अपराध किया था। जहाँपर भुजाओं के मूल (छाती ) पर हस्ताङ्गलियों के रखने में तत्पर हुए पति के छल से युवती रमणियों के पुष्प-चुण्टन में विष्नबाधा उपस्थित कीगई थी। जहाँपर नय युवती रमणियाँ ऐसे कीड़ा करने के झूलों से विलास करती थीं उन्हें उतारती और चढ़ाती थी, जो कि देवदार के वृक्षरूप खम्भों पर बँधी हुई लताओं और मञ्जल वृक्षों की श्रेणियों से रचे गए थे और उन नवयुवतियों के कठिन कुचकलशों पर कीहुई पत्ररचना से शोभायमान इदम मण्डल संबंधी संभोग क्रीड़ा रस की उत्कण्ठा-यश जिनमें उनके शीघ्रगामी धरण कमलग्छल रहे थे। जहाँपर उन नय युवती कामिनियों की मधुर शब्द करनेवाली मणिमयी करधोनी-श्रेणियों की शब्द बहुलता-वश द्विगुणित किये हुए पश्चम राग विशेष ( सप्तम स्वर) से यिरहरूप लता पल्लषित (धृद्धिंगत कीगई थी। जहाँपर अन्यूवृत्तों के कुलों ( लताओं से बाच्छादित प्रदेशों ) में मधुर शब्द करते हुए कबूतर पक्षियों से उद्दीपित हुए कामोद्रेक द्वारा कामिनियों की रतिविलास रूप अग्नि तिरस्कृत कीगई थी। जहाँपर केले सरीखे अंघावाली और यहाँ-वहाँ घूमनेवाली ऐसी कमनीय कामिनियों के निरन्तर भुन भुन रूप मधुर शश्च करनेवाले पाँच प्रकार के माणिक्यों से जड़े हुए सुवर्णमय नूपुरों (घुघरुओं-चरण-आभूषणों) के अध्यक्त ६ मधुर शब्दों द्वारा जलक्रीड़ाषाली वावड़ियों की फलहँसश्रेणी किंकर्तव्यविमूढ की गई थी, * विकटटर' इति (2) प्रतो । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ प्रथम आश्वास जिताकुलिसजलकेन्दिाधिकाकलाईससंसदि, रमणरतनिरतवनितारसिरसोत्प्लेकविचद्विविधाफिलालम्यामोपसुरमितसुमाभुजङ्गनाभीवलभिगमे, समालदलनिसरसपूरितकरकिरालपपुटेम् पमितमखलेखमीधारिणा खचरनिचयेन रव्यमानसहचरीकपोलफलकतलतिलकविचित्रपरनभक्तिनि, सरताभियुसकुम्हारिकातालुसलोत्तरलतररुतोरप्लावितनिचुतमूलविलनिलीमोलकपालकालोकनाकुलकाकोलकुलकोलाहलकाहळे, बहकोकिलापगलितजस्य निसगांदुत्ताकतासुरतसंरम्भिणः परपालामनस्य कलगलोलसचोहोचपितानुरूपनपरसारिकाशावसंकुलकुलायकरलोपकण्ठजरविताभिनवाङ्गलारतिघेतसि, माकदमामकरन्दविन्दुस्यन्दतुर्दिनेन मुचकुन्दमुकुलपरिमलोहासिना प्रचलाकिकुलकलापसीमन्तोचितेन वासघातकेनाचम्ममानसुरसभमखिसखेवरीपयोधरमुग्खलुलितघनधर्मजलमारीबाले, निघुननविधिविधुरपुरप्रकापरवयितदीपमानानमयरकचारितदर्दरीकबीसीधुमि, पुण्डाकाण्डमण्डपसंपातिनीभिः पिपरिवनियस्तरमामरिसविधिमारवाकाण्डताण्डविसिकिमपर, जिनके माशों का विस्तार केले के पत्तारूप अब के उबलन भार से ज्याप्त हुए पतिके बाहुन मण्डल की विनय (हस्त द्वारा झुकाने ) करने से प्रकट दिखाई देता था। जहाँपर विपरीत मैथुन में तत्पर हुई कमनीय कामिनी की भोग संबंधी रागकी अधिकता के फलस्वरूप विकसित मोगर-पुष्पों की घुटनों तक लम्बी पुष्पमाला टूट गई थी और उसकी मनमोहनी सुगन्धि द्वारा सौभाग्यशाली कामी पुरुषों की नाभिरूपी बलभी (छज्जा) का मध्यभाग सुगन्धित किया गया था। जहॉपर ऐसे विद्याधर-समूह द्वारा समर्पित किये जानेराले विद्यारियों की गाल-स्थलीरूप पाट्टका के ऊपर तिलक से विद्याधरियों के गालों पर की हुई पत्र रचना विचित्र (चमत्कार जनक) प्रतीत होती थी, जिसने अपना हस्तपाल्लव पुट तमाल के पत्तों से निकाले हुए रससे व्याप्त किया था और जो बनाई हुई नखरूप लेखनी का धारक था। जिसमें ऐसे उल्क-जचे के देखने से पिाल हुई काकपक्षियों की श्रेणी के कल कोलाहल से प्रस्फुट शब्द वर्तमान था, जो दुर्जन की संभोग क्रीड़ की अधिकारिणी और जलसे परिपूर्ण घट को धारण करनेवाली दासी के तालुतलसे उत्पन्न हुए उत्कण्ठित शब्द द्वारा उड़ाया गया था और वृक्ष की मूल में वर्तमान छिद्र में गुप्तरूप से स्थित था। जहाँपर ऐसे वृक्ष के समीप, जिसमें ऐसे घोंसले थे जो कि कोकिल प्रलाप (निरर्थक शब्द) द्वारा नष्ट लावाली व स्वभावतः विशेष उत्कएठा पूर्वक काम सेवन में तत्पर हुई वेश्याओं के मधुर कएठ से प्रकट हुए अस्पष्ट शब्द को बार बार उधारण करने में प्रयत्नशील तोतों के बच्चों से भरे हुए थे, वाला ( षोडशी) स्त्री की रतिविलास संबंधी मनोवृत्ति विशेष प्रौढ़ होचुकी थी। जहाँपर मैथुन के खेद से दीनता को प्राप्त हुई विद्याधरियों के कुच कलशों के अग्रभागों पर लोटते हुए प्रचुर प्रवेद-जलों के मअरी-जाल (बल्लरी-समूह) ऐसे घायुरूप घातक (पपीहा) द्वारा श्रास्वादन किये जारहे थे, जो विशेष सुगन्धि आम्रवृक्ष की पुष्पवल्लरियों के पुष्परस संबंधी विन्दुओं के झरण से धूसरित एवं मुचकुन्दों ( माघ पुष्पों) की कलिकाओं के मदन यश उत्पन्न हुई सुगन्धि से सुशोभित और मयूर मण्डलों के पंख समूह रूप केशपाशों से योग्य था। भावार्थ-उत्त तीनों विशेषणों द्वारा क्रमश: वायु की शीसलता, सुगन्धि व मन्द-मन्द संचार का निरूपण समझना चाहिए। इसीप्रकार जहाँपर मैथुन क्रीड़ा फी कामशास्त्रोक्त विधिसे पीडिस किए हुए नवयुवतियों के ओष्ठ पल्लवों पर ऐसा दाखिमषीज रूप मद्य वर्तमान था, जो कि पति द्वारा आरोपित किया जा रहा मुखरूप पानपात्र से संयोजित किया गया था। पीत क्षु की प्रकाण्डशाला में प्राप्त हुए कामुक पुरुष-समूह द्वारा तेजी से तारे गए नगाड़ों के वृद्धिंगव शब्दों को सुनकर जहाँपर मयुर-मण्डल का असमय में ताण्डव नृत्य होरहा था। भावार्थ AB * 'माकन्दविन्दुस्यन्ददुर्दिवेन' इति (ग) प्रतौ । टिप्पण्या तु A. धान। B. प्रवाह । C. मेघच्छन्नेऽशि दुर्दिनमित्यमरः इति लिखितं । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मृद्दी काफलग नटुककामिनीकर वलय-मणिमरीचिमेव किसकिफिरावयामिमि नारिकेर सलिल विलुप्यमानमिथुन मन्मथ कहासमयः पातु च्छ्ान्छे, कन्दुरूविनोइम्याविस्तारितविम्मेण तमनसं भिधानविदङ्गा र मत्सरेण अभिविभ्रमोदभ्रामसभासत्परिमळमिलम्मिलिन्द दोहापायासेन बिबकिनी समाजेन मामकारण चरणपर्यस्त बकुल वास भूमिमि रजनिरसपिअरचण्डकाभिर्महीरुहनिमद्दिकाभिरिव परिपाकपेशल फळ विमतमध्याभिर्बीज प्रहरीभिरपरा भिन्न पृक्षौषधिवनस्पतिवता निरविरमणीये, मरखचरामराणां मिथः संभोगलक्ष्मीमिव दर्शपति निखिलसुधन्वनामां श्रियमिवात्राय जातजन्मनि, रोअप रागवैपनी र सिकेस की रजः परमिलितक पोचवणेन विविधकुसुमदयनिसियाम कर्मणा कुजकुलोरहिका मुगलकुदका पेम तापिच्छगुम्छ रिशतपत्रीमनद्धचिकुर भङ्गिमा भयकोलेदविदर्भमाण्ड केशपाशेन प्रिबालमनरीक्षण कतिक पिकार केसर विराजितसीमन्तसंयविना क्योंकि वहाँपर नगाड़े की ध्वनि में मयूरों को मेघगर्जना की भ्रान्ति होती थी, अतः वहाँपर उनका असमय में वाडव नृत्य होरहा था। अहपर कमनीय कामनियों के कर द्राक्षाफलों के खाने में चल हो रहे थे, इसलिए के इणों के मणियों की किरण श्रेणी द्वारा अहपर कुरएटक ( पीली कटैया ) वृक्षों की पंति चित्र विचित्र वर्णवाली कीगई थी। श्री पुरुषों के ओड़े को कामदेष की कार के अन्त में जो जल पीने की उत्कट इच्छा होती थी उसकी वह प्यास जहाँ पर नरियल फलों का पानी पीने द्वारा शान्य की जाती थी । यहाँ पर ऐसी शृङ्गार चेष्टा-युक्त कमनीय कासिनियों के समूह द्वारा बकुल पृष्ठों की क्यारियों की भूमि, लाहा रस से अव्यक्त राग वाले चरण कमलों के स्थापन से पाटलित ( श्वेत रक्त वर्ण बाली) की गई थी, जिसने गेंद खेलने के बहाने से अपनी मुकुटि का संचालन प्रकट किया था और मवयुवकों के समीप में आने से जिसको अपना शरीर शृङ्गारित करने का मत्सर - द्वेष विशेष रूप से उत्पन्न हुआ थप कम्पित भ्रुकुटि के क्षेप से शोभायमान मुख की सुगन्धि-वश एकत्रित हुई अँवरियों के समूह से जिसका कटाक्ष विक्षेप विभूषित हो रहा था । जो, पके हुए मनोहर फलों से विशेष नस्त्रीभूत मध्य भाग वाली मातुलित लताओं से जो ऐसी प्रतीत होती थी मानों-- हल्दी के रस से पीत रक्त कुन कलश मण्डलों से शोभायमान वृक्ष-समूह की स्त्रियाँ ही हैं - एवं दूसरे वृक्षों ( पुष्प-फल-सहित मात्रादि वृक्ष ), औषधियों ( फलपाकान्त कदली वृक्षादि भौषधियाँ), वनस्पतियों (फलशाली वृक्ष ) और लताओं अत्यन्त रमणीक था । इससे ओ ऐसा मालूम पड़ता था— मान-मनुष्य, विद्याधर और देवताओं को परस्पर में काम क्रीड़ा की लक्ष्मी का दर्शन ही करा रहा है और मानों समस्त तीन लोक के बगीर्थों की लक्ष्मी को महस करके ही इसने अपना जम्म धारण किया है। कैसा है वह कमनीय कामिनीजन १ जिसका गाल रूपी दर्पण, अर्जुन वृक्ष की पुष्प - पराग की शुभ्रता से सर्वत्र व्याप्त हुए केतकी पुष्पों की पराग समूह से माँजा गया था। जिसने अनेक प्रकार के फूलों के पत्तों से विशेष रूपले तिलक रचना की थी। जिसका केशपाश, इन्द्रजौ वृक्ष के पुष्पों की कलियों से व्याप्त हुए. मल्लिका पुष्पों से सुसज्जित था। जिसकी केशरचना तमाल वृक्ष संबंधी पुष्पों के गुच्छों से शोभायमान होने पाली सेवन्सी पुष्पों की माला से बँधी हुई थी। जिसका केशपाश सुगन्धि पत्र-मारियों से गुंथे हुए सुगन्धि पत्तों वाले पुष्ष गुच्छों से मुकुटित था । जिसका केश-पाराश निवाल वृक्ष की मअरियों के पुष्प समूहों से संयुक्त हुए कर्णिकार पुष्पों की पराग-पुअ से विशेष रूप से सुशोभित था । १ तथा चोकं फल्ली वनस्पतिर्ज्ञेया वृक्षाः पुष्पफलोपगाः । औषध्यः फलपाकान्ताः पायो गुल्माव वीरुधः ॥' संस्कृतटीका पू. १०५ से समुद्धृत- सम्पादक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्राश्वास - धम्पकचितविकचकचनारविरचितावतंसेन माधवीप्रसूनगर्भगुम्फितधुन्नागमालाविलासिना रक्तोत्पलनालान्तरालमृणालबाकुलसकोटन सौगन्धिकानुबनकालकेयूरपर्यायिणा सिन्दुबास्सरसुन्दरकालीप्रवालमेखम शिरीषवशवाणमृतमहालकारखाना मधुकानुविद्धवन्धकतनूपुरपणेन अन्यास व तासु तास कामदेवकिलकिजिलोचितासु कोडात बद्धानन्देन सुन्दरीजनन पर स्मन्ते कामिनः ॥ सदेवमनेकलोकोस्पादितग्रस्ययायाः पुरदेध्याः सिद्धायिकायाः सर्वसस्वाभयपदावासरसं मस्सौमनसं नामोद्यानमवलोक्य, . प्रास्तम्यनिसम्धिनी रसिकथाप्रारम्भचन्द्रोदयाः कामं xकामरसावतारविषयत्र्यापारपुष्पाकः । प्राय: प्रातसमाधिशुन्द्र मनसोऽप्येते प्रदेशाः क्षणात्स्वान्तवान्तकृतो भवन्ति तदिह स्थातुं न युक्त यो इति व विता, मनागन्तः स्तिमितमानसः प्रसरहनेकषितकरसः सकागदापातघटनाधस्मरः स्मरः खलु रमलानवासिनमप्पानयल्यात्मनो निदेशभूमिम्, कि पुनर्न गोधरपसितम्, जिसने अपना कर्णपूर चम्पा पुष्पों से व्याप्त हुए विकसित कचनार पुरुषों से रचा था। जो माधवीलता के पुष्पों के मध्य में गुंथे हुए पुन्नाग पुष्पों की मालाओं से विभूषित था। जिसकी भुजाएँ लाल कमल की नाल के मध्य में वर्तमान पश्मिनी-कन्द के कण से अलङ्कत थीं। जो लाल कमलों के मध्य में गुंथे हुए श्वेत कमलों के केयूरों (भुजवन्ध आभूषणों ) से अलत था। जिसकी कदली लवाओं के कोमल पत्तों की कटिमेखला ( करधोनी ) सिन्दुवार ( वृक्ष विशेष) के पुष्पों के हार से मनोहर प्रतीत होती थी। जो शिरीष पुष्पों के बीच में गुंथे हुए मिण्टी पुष्पों से रचे हुए जवा-संबंधी आभूषण से रमणीक था। जिसने मधुक पुष्पों के मध्य में गुंथे हुए बन्धु-जीव पुष्पों से नूपुर आभूषण की रचना की थी एवं जो दूसरी ऐसी जगत्प्रसिद्ध क्रीड़ाओं में श्रानन्द मानता था, जो कि कामदेव के हर्ष पूर्वक गाए हुए गीतादि विलास के मिश्रण से योग्य थीं। प्रस्तुत सुदसाचार्य ने इसप्रकार अनेक लोगों को विश्वास उत्पन्न करानेवाली सिद्धायिका (महावीरशासनदेवता ) नाम की राजपुर नगर की देवी के ऐसे 'स्मरसौमनस' नामक बगीचे को, जहाँपर समस्त प्राणियों को अभयदान देनेवाला अनुराग पाया जावा है, देखकर कुछ आभ्यन्तर में निश्चल चित्तवृत्तिवाले और अनेक विचारधाराओं के अनुराग से युक्त होते हुए उन्होंने अपने मन में निम्नप्रकार विचार कियाये पूर्वोक्त धगीचे की ऐसी भूमियाँ, जो कि तीन लोक की कमनीय कामिनियों की रतिविलास सम्बन्धी कथाओं के कहने का उसप्रकार प्रारम्भ करती हैं जिसप्रकार चन्द्रोदय होनेपर रतिविलास सम्बन्धी कवा का प्रारम्भ होता है। एवं जो, यथेष्ट कामरस को उत्पन्न करनेवाली संभोगक्रीडा में उसप्रकार प्रेरित करती है जिसप्रकार वसन्त ऋतु कामोद्दीपक संभोग-कीड़ा में प्रेरित करती है, ऐसे संयमी साधु के भी चित्त में प्रायः करके मुहूर्तमात्र में राग उत्पन्न करती हैं, जिसकी चित्तवृत्ति, स्वाधीन किये हुए शुद्धोपयोग के कारण विशुद्ध होचुकी है। अत: साधु को ऐसी रागवृद्धि करनेवाली उद्यानभूमियों पर ठहरना उचित नहीं ||७|| क्योंकि यह कामदेव समस्त तीन लोक के प्राणियों पर निष्ठुर प्रहार की रचना करने के फलस्वरूप सर्वभक्षक है। इसलिए जब यह निश्चय से श्मशानभूमि पर रहनेवाले मानव को भी अपनी आदेशभूमि पर प्राम करा देता है सघ फिर कामोद्दीपक उद्यानभूमि पर रहनेवाले का तो कहना ही क्या है? अपात् १. समुश्चमालबार । २. उपमालकार । * 'रतिरसोझासामृतामोधराः । ४ 'कामशरप्रचार चतुरन्यापारपुष्पारराः । इति ह. लि. सष्टि. (क) प्रतो पास। A. बसन्तमासाः। . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ यशस्तिपकाये मनो हि केवलमपि स्वभावतो विषपाटवीमवगाहते, कि पुनर्म धानङ्गशृङ्गारप्रदेशम्, कथापि खलु कामिनीनां घेतो विभ्रमयति, किं पुनर्न मयनपथमुपगतस्तास संभोग संभवः धिः करतु नियमनियमपि स्वच्छ विजृम्भन्ते, किं पुनर्न प्राप्तस्वविषयवृत्तीनि; बोधाधिपतिराकाशेऽपि संकल्प राज्यमारचयति किं पुनर्न पर्यवसितबहिः प्रकृतिः; क्योऽपि न पमस्येव मनसि व्यापारस्य किचित्परिहर्तभ्यमस्ति प्रत्युतावानेष्विन्धनेषु वह्निरिव नितान् छनि षु मकरध्वजः तच मनो महामुनीमामपि दुर्लभं पत्र कुष्ठिो युणकोट इव प्रभवितुं न सोति विषयवर्गः, भूयते हि किला लक्ष्यजन्मनो दक्षसुतानां जयके सिविलोकन तपः प्रत्यक्षस्या, पितामहृदय तिलोत्तमा संगीतकार, कैवर्तीसंगमात् पाराशरस्य, स्थनेमे टोनर्तनदर्शनात् । अपि च क्षीणस्तपोभिः क्षपितः प्रवासध्यिापितः खाधु समाधिषोः । तथापि चिनं ज्वति स्मराभिः कान्ताजनापाङ्गविछोकनेन ॥ ७२ ॥ उसे तो अवश्य ही कामी बनाकर रहेगा। मानवों की चित्तवृति जय स्वभाव से पचेन्द्रियों की विषयरूप अटवी में प्रविष्ट होती है तब कामयर्द्धक ष शृङ्गारयुक्त स्थान को प्राप्त करनेवाले की चित्तवृत्ति का तो कहना ही क्या है । जब स्त्रियों की कथामात्र भी चित्त को चलायमान करती है, तब रतं. बेलास सम्बन्धी उनकी कामक्रीड़ाओं की श्रेणी स्वयं प्रत्यक्ष देखी हुई क्या चिप्स को चलायमान नहीं करेगी ? अवश्य करेगी | चक्षुरादिक इन्द्रियाँ व्रतरूप बन्धनों से बँधी हुई होने पर भी अपने विषयों की ओर स्वच्छन्दतापूर्वक बढ़ती चली जाती हैं तब अपने-अपने विषयों को प्राप्त कर लेने पर क्या उनकी ओर तीव्रवेग से नहीं बढ़ेंगी ? अवश्य बढ़ेगी। जब यह आत्मा शून्य स्थान में भी संकल्प राज्य स्थापित कर देता है सब फिट प्रकृति ( श्री अथवा राज्यपक्ष में मंत्री ) को प्राप्त करके क्या यह संकल्प राज्य नहीं वनायगा ? अपितु अवश्य बनायगा । कामदेव के व्यापार द्वारा बाल, कुमार, तरुण और वृद्ध अवस्था में वर्तमान कोई भी मानव एसप्रकार नहीं छूट सकता जिसप्रकार यमराज द्वारा किसी भी उम्र का प्रारणी नहीं बच सकता । भावार्थ - जिसप्रकार यमराज, वाल व कुमार आदि किसी भी अवस्थाषाले मानव को घात करने से नहीं चूकता, उसी प्रकार कामदेव भी बाल व कुमार आदि किसी भी अवस्थावाले मानव को कामानि से संतप्त किये बिना नहीं छोड़ता । विशेषता तो यह है वृद्धों में कामदेव उसप्रकार अधिक प्रज्वलित होता है जिसप्रकार सूखे ईंधन में अभि अत्यधिक प्रज्वलित होती है। वह विशुद्ध ( राग, द्वेष व मोहरहित ) मन, जिसे पंचेन्द्रियों के विषय समूह ( स्पर्श व रसादे ) उसप्रकार पराजित करने में समर्थ नहीं हैं जिसप्रकार घुण-कीट बत्र को भक्षण करने में समर्थ नहीं होता, महामुनियों को भी दुर्लभ है । उदाहरणार्थ - निश्चय से सुना जाता है कि दक्षप्रजापति की कमनोय कन्याओं की जलकोड़ा देखने से शङ्करजी की पर्या दूषित हुई एवं तिलोत्तमा नाम की स्वर्ग की वेश्या का संगीत ( गीत, नृत्य व वदत्र ) श्रवण के फलस्वरूप ब्रह्माजी की तपश्चर्या नष्ट हुई सुनी जाती है और धीवर कन्या के साथ रसिबिलास करने से पाराशर ( वेदव्यास के पिता ) की तपश्चर्या भङ्ग हुई, पुराणों में सुनी जाती है । एवं नटी का नृत्य देखने से रथनेमि नाम के दिगम्बराचार्य की तपश्चर्या नष्ट हुई सुनी जाती है । विशेषता यह है - यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जो कामरूप अनि उपवास वगैरह तपश्चर्या से श्री (दुर्बल) हुई और तीर्थस्थानों पर बिहार करने से नष्ट हुई एवं धर्मध्यान रूप जलपुर द्वारा अच्छी तरह से बुझा दी गई है वह स्त्रीजनों के कटाक्ष-दर्शन से प्रज्वलित हो उठती है । अर्थात्- [- मृत होकरके भी जीवित हो जाती है ॥७२॥ १. रूपक व अतिशयालंकार । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भापास तावसपो बपि चेतसि तवचिता कार्म पीकविषये पामा शमन। यावा पश्यति मुखं रगडोषमाम अत्तिनियासिकामसूत्रम् ॥ ३॥ श्रोत्र मुतो पति वीक्षणमीक्ष्यमाणवि स्मृतः समागविजयामि। प्राणाम् पुनः प्रणयदाधितो रति बोके वापि वनितायन एष पर तपो पृगायते पुंसां सम वीर्यफजितः । मीणा भूपापविमान्तोत्रापाङ्ग गहते। ॥४१५ था swi देश: I ri एकः दुकर मुरम्, पूरतरमुखमामि गिरि हिलानीच सायन्ते शरीरिणां स्क्यानि सुखेनैवापस्तात् पातपिठमारोक्षयितु म पुमर्दुःखेनापि, अस्ति योसि बहुविवानि ति विदुषी प्रवाया, जब तक यह मानव कमनीय कामिनियों का ऐसा मुख, जिसने शृङ्गार चेष्टाओं द्वारा कामसूत्र उदाहरण मुक्त बनाया है, नहीं देखता तभी तक यह शरीर द्वारा विशेषरूप से तपश्चर्या करता है और सभी तक इसके वित्त में आत्मभ्यान के भाष विशेषरूप से प्रकट होते हैं एवं तभी तक इसकी इन्द्रियों अपने अपने स्पर्श-मादि विषयों में अत्यन्त शान्त रहती है परन्तु जब यह ललित-सलनाओं के शृङ्गार-पूणे मुख का वर्णन करता है उसी समय इसकी तपश्चर्या तत्त्वचिंता व जितेन्द्रियता नष्ट होजाती है। 11७३॥ यह कामिनी-जन विशेष चौर है, क्योंकि सुनी हुई यह, सुननेवाले के कान चुरा लेती है। अथों-जिसने स्त्री का नाम मुमा है, वह फिर स्त्री सिवाय दूसरी बात नहीं सुनता और दर्शन की हुई नेत्र चुरा लेती है, क्योंकि फिर कामीपुरुष को सी-सिषाय कुछ दिखाई नहीं देता। इसीप्रकार चिन्तषन की हुई यह मम हर लेती है और आलिंगन कोई उसकी वीर्थधातु का भय करती है और स्नेहयुक्त हुई प्राण हर लेती है और वियोग को प्राप्त हुई खीजन भोजन-आदि में रुचि नष्ट कर देती है। अर्थात्-जब कामीपुरुष का स्त्री से षियोग होजाता है तब यह असके दुःख से भोजन-पान छोड़ देता है। तथापि संसार के लोग उस स्त्री की प्राप्ति के लिए किसप्रकार प्रयस्नशील देखे जाते है |क्षा कमनीय कामिनियों के भ्रुकुटिरूप धनुष पर चढ़ाए हुए नेत्रों के कटाक्ष सप पाणों के प्रहार से मानवों की तपश्चर्या युजि, धीरता और लज्जा के साथ-साथ नष्ट होजाती है 11७11 जिसप्रकार एकवार गिराये हुए महलको फिर से जैसे का तैसा बनाने में मदाम् कष्ट उठाना पड़ता है ससीप्रकार स्त्री-आदि के उपद्रों से एकवार तपश्चर्या से विचलित हुए मम को भी फिर से काबू में लाने के लिए (पुनः तपश्चर्या में संक्षत करने के लिए) महान् कष्ट का सामना करना पड़ता है। एवं विसप्रकार अस्यंत ऊँचे पर्वतशिखर सरलता से अमीन पर गिराए जा सकते हैं परन्तु अनेक कट उठाये जाने पर भी फिर से ऊपर नहीं पदाए जा सकते इसीप्रकार अत्यन्त उन्नत (पंचेन्द्रियों के विषयों से पपन्मुख ) और तपश्चर्या-यादि में लवलीन हुए मानवों के चिप्स भी सरलता से नीचे गिराए जा सकते हैंविषयों में लम्पट किये जा सकते हैं। परन्तु अनेक कष्ट उठाए जाने पर भी फिर से ऊपर नहीं पड़ाए जा सकते-पुनः वपर्या में स्थिर नहीं किये जा सकते । 'पापियों को भी पुण्य कार्यों के करने में बहुत विश्न वाधाएँ हुआ करती हैं परन्तु जब वे पाप कायों में प्रवृच होते हैं तब उनकी समस्त विघ्न बाधाएँ कहीं पर नष्ट हो जाती हैं ऐसी विद्वानों में प्रसिद्ध है। अतः तपस्वी संयमी जनों के पुण्य कार्यों ( धर्म ध्यानादि ) में विघ्न बाधाएँ उपस्थित होना स्वाभाविक ही है। १. उपमालंकार । १. दीपकालंकार ३. उपमा, सहोक्ति व रूपकासकार । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये असाभास बिसतगुर्दन्तिममिव प्रत्यवस्पन्तमात्मानमतं न भवति मिवारयितुम् तमुखद हवाधीरधीषु न बायते सतलिस्य बाबाच देहाडक्शनमः संयमः, बहिस्थास्थितः पारदरस इक द्वन्द्वपरिगतः पुमान् क्षगमपि नास्ते प्रसंस्थानकासु, एमपीई बनादलीतं करियूधमिवाचापि म संमवत्ति प्रायेण शान्तिनिक्तिम् , सर्वदोषदुई पालशुण्डालमिवामीNARIशोषणामग्वियमाममायनापि संरक्षितु न तरति पुरस्कारीलोमः । किंव-सम्वद्गुरको गन्यास्तावस्वाध्यायधीर देतः । यवन्न मनसि दमिताधिविष विशति पुरुषाणाम् ॥७६ ॥ सापत्यवादविषयस्तारपरकोचिन्तनोपायः । शतरुणीवित्र मतदयो न जायेत ॥१७॥ हास्य हि पतिस्तत्रन यत्रास्ति संगमः स्त्रीभि: । बालापासवधिरिसकणे कुतोऽप्रसरः ॥८॥ जिसप्रकार मृणाल तन्तु जाते हुए मवोन्मत्त हाथी के रोकने में समर्थ नहीं होता उसीप्रकार धर्म शासों का अभ्यास व अनुशीलन (चितवन ) भी विषय सुख की ओर प्रवृत्त होने वाले संचल चिपको याँभने (तपभर्या में स्थिर करने ) में समर्थ नहीं हो सकता। जिसप्रकार केवल गारमात्र को रण रखने वाला फायर पुरुषों द्वारा धारण किया हुआ वध (पख्तर ) शत्रु द्वारा विभिन्न प नष्ट होते हुए हृदय को सुरक्षित नहीं कर सकता उसीप्रकार पंचल चिन्तवाले पुरुषों द्वारा पालन किये हुए शरीरको सन्तापकारक प्रारम्भ वाले चरित्र का अनुष्ठान भी चंचल चित्त को सुरक्षित नही रख सकता। एवं जिसप्रकार अग्नि के ऊपर स्थापित किया हा पारद द्वन्न परिगत (अनेक औषधियों से वेष्टित ) होने पर भी चरण मात्र भी नहीं ठहरता ( उड़ जाता है) उसीप्रकार दून्दू परिगत (खुबसूरत स्त्री के साय एकान्त में रहने वाला मानष भी धर्मध्यान संबंधी कर्तव्यों में क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रह सकता। प्रकरण में जिसप्रकार वन से लाया हुआ हाथियों का समूह प्रायः करके बन्धन काल में भी पमायुक्त । शान्त ) नहीं होता उसीप्रकार प्रत्यक्ष रष्टिगोचर हुआ यह हमारा मुनि संघ भी इस चरित्र धर्म की साधना के समय में भी प्रायः करके क्षमा-युक्त ( विषय सुख से पराङ्मुख ) होकर धर्म ध्यान में स्थिर नही रह सकता । एवं जिसपर पुरवारी लोक ( महावत), समस्त दोषों से दुष्ट और शिक्षा उपदेश से यम मदोन्मत् दुष्ट हाथी का संरक्षण नहीं कर सकता उसीप्रकार पुरश्चारी लोक (मुनि संघ में श्रेष्ठ आचार्य) इस शिष्य मण्डल के इन्द्रिय समूह को भी, जो कि समस्त रागादि दोषों से दुष्ट और बारह भावनाओं की शिक्षा रूप उपदेश से शून्य है, अत्यंत सावधानी के साथ विषयों से रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। अब विशेषता यह है-जब तक साधु पुरुषों के चित्त में स्त्रियों का दर्शनरूप विष प्रविष्ट नहीं होखा तभी तक उनका पित्त शास स्वाध्याय की अनुशीलन-बुद्धि में सत्पर रहता है और तभी तक उनके सारा भाचार्य माननीय होते हैं। अर्थान-ज्यों ही साधुओं के चित्त में स्त्रियों का दर्शन रूप विष प्रविष्ट होवा है स्यों ही उनकी प्राचार्य भक्ति और शास्त्र स्वाध्याय ये दोनों गुण फूच कर जाते हैं ॥४६॥ ___ जब कक यह मानध, नवीन युवतियों के कुटिल कटाक्षों द्वारा चुराए हुए मृदयषाला नहीं होचा उमी तक यह प्रवचन (धर्म-शास) का विषय ( पात्र ) रहता है एवं तभी तक मोक्ष प्राप्ति की साधना के उपाय वाला होता है। ॥७॥ जो मानव नियों के साथ संगम (हास्य व रतिविलास-आदि) करता है, समें गुरु की आज्ञापालन-प्रवृत्ति नहीं रह सकती। क्योंकि जिसके श्रोत्र कामिनियों के परस्पर संभाषण रूप जन पूर से बहिरे हो चुके हैं, उस (विषय-सम्पट ) पुरुष को पूज्य पुरुषों की बाबा-पालन का अवसर पिसप्रकार प्राप्त हो सकता है? अपि तु नही प्राप्त हो सकता ॥el १-उपमालंकार । २. रूपकालंकार । ३. जाति-अलंकार । ४. रूपफ वे आक्षेपालंकार । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्राश्वास है कि तस्मात् - द्वयमेव तपःसिद्धौ बुधाः कारणसूचिरे । यदनालोकन स्त्रीणां यच संसर्गेण गुणा अपि भवन्ति दोषास्तदद्भुतं नैव । स्थितमघरे रमणीनाममृतं चेतांसि कलुषयति ॥ ७९ ॥ मरुतो जनः स्वयं नीतः । चित्रमिदं नतु यत्तां पश्यति गुरुधन्तुमियेषु ॥ ८० ॥ संलपनंतनोः ॥ ८१ ॥ इति च विचिन्त्य, 'तक्ष्णमत्र बहुप्रत्यूहभ्यूद्दासाथया निषथया' इति व निविष्य, परिक्रम्य च सोक्रमम्तरम्, सप्तजिहा जिए ज्वालाजालातीताकाशालाये स्मशानायं व्यालोका ॥ (स्वगतम् । ) अहम् पश्यन सकलानामयमङ्गलानामसमसमीहाभवनं पित्रनम् । यतः - काव्याला मरे: शस्योत्करैः पूर्ति कालमाहविमीर्णफेनविकलैः कीर्ण शिरोमण्डलैः । कायाधविनोदपाशविवशैः केशैश्चिर्त सर्वत: कालोस्पातसप्रदवै च भस्मोचयैः ॥ ८३ इतश्च यत्र—अर्धग्धशवलेश लालसैर्भण्दनोस्टद्मान्तरः । कास्के लिकर कौतुकोद्यतैर्विवकमिवान्तरम् ॥ ८३॥ ६१ ज्ञान-विज्ञानादि प्रशस्त गुण भी कुसंग-वश दोष होजाते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । उदाहरणार्थ — क्योंकि रमशियों के प्रष्ट में स्थित हुआ अमृत, हृदयों को कलुषित ( विषपान सरीखा अचेतन) कर देता है। भावार्थ - जिसप्रकार युवतियों के प्रोष्ठ-संसर्ग वश अमृत, मनुष्य हृदयों को कलुषित ( मूति व बेजान ) कर देता है उसीप्रकार ज्ञानादि गुण भी कुसंसर्ग वा अज्ञानादि दोष होजाते हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ||७|| रमणियों के मनोहर कटाक्षों द्वारा यह मानव अत्यन्त लघुता ( क्षुद्रता ) में प्राप्त कराया जाता है। क्योंकि यह प्रत्यक्ष देखी हुई घटना है कि यह, गुरु, बन्धु और मित्र जनों के बीच में स्थित होता हुआ भी स्त्री को ही अनुराग पूर्वक देखता रहता है* !|८०|| उस कारण से विद्वानों ने तप-प्राप्ति के दो उपाय बताए हैं । १– स्त्रियों का दर्शन न करना और २तपश्चर्या द्वारा शरीर को क्रश करना ॥८१॥ ऐसा विचार करने के पश्चात् उन्होंने यह निश्चय किया कि 'इस उद्यान भूमि में ठहरने से हमारी तपश्चर्या में अनेक विनयाधाओं की श्रेणी उपस्थित होगी' श्रयः वहाँ से थोड़ा मार्ग चलकर उन्होंने अग्नि की भीषण लपटों की श्रेणी से आकाश कान्ति को धूसरित करनेवाली श्मशान भूमि देखी । पश्चात् उन्होंने अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया - अहो ! विशेष आश्चर्य या खेद की बात है, हे भव्य प्राणियो ! आप लोग समस्त अशुभ वस्तु संबंधी विषम चेष्टाओं की स्थानीभूत स्मशानभूमि देखिये क्योंकि जो फाल रूपी दुष्ट हाथी के दन्ताङ्कुरों की विशेष भयानक अस्थि ( हड्डी ) राशियों से भरी हुई है। जो कालरूप मकर द्वारा उद्गीर्ण ( उगाले हुए) अस्थि-फेनों सरीखी कपाल श्रेणियों से व्याप्त है। जो काल रूप बहेलिये के क्रीड़ा पार्शो सरीखे केशों से सर्वत्र व्याप्त है और जो काल रूप अशुभसूचक शुभ्र काक की श्रेणी-सी भस्म - राशियों से भरी हुई है" ||२२|| जिसका एकपार्श्व भाग ऐसा था, जिसका मध्यभाग ऐसे शिकारी कुत्तों द्वारा उपद्वष-युक्त कराया गया था, जो अर्धदग्ध मुर्दों के खंडों में विशेष आकाङ्क्षा रखते थे व जिनके कण्ठ के मध्यभाग युद्ध करने में विश्वार-युक्त हुए कुत्सित (ककटु) शब्द करते थे एवं जो काल की क्रीडा करनेवाले कौतुकों (विनोदों) के करने में प्रयत्न शील थे ||३|| १. सालंकार | २. जति अलंकार | ३. समुच्चयालंकार । ४. रूपकालंकार । ५. जाति अलंकार । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ONE ६२ यशास्तलकचम्पूकाव्ये यत्र च--श्येनकुलं वृक्कुल द्रोणकुलं वकुलमण्डनाहीतम् । शवपिशिताशवशादिवि भुवि च समाकुल पुरतः ॥४॥ इसक्र-वाघाससमोसकीकसरसवावोस्पथाः पादपाः प्रेतोपान्तफ्तस्पततिापरुषप्रायः प्रदेशा दिशः। एते च प्रबलानिलयश्रयनशाच्छीच्छखाः सर्गतः संसर्पन्ति जरत्कोतरुचयो धूमाश्रिताचक्रजाः ॥८६॥ इतञ्च यत्र-कालाग्निरुद्रनिटिलेक्षयदुनिरीक्षाः कीनाशहामतवाहविरुक्षयीक्षाः ।। दाहाबपुःस्फुटवस्थिमध्यप्रारब्धशब्दकठिना दहनाश्रितानाम् ॥८६॥ इतश्च यत्र-सर्वदेहमृतभस्मनिकायः प्रेतचीवरकरालितकारः । कन्दलोर वणवपुः पवमानः क्रीडति प्रमधनाथसमानः ।।८।। कि च-भ्रश्यकीरणवशी शिरोजसास कुभ्यस्कोवस्करहतप्रचारः । दग्धार्धदेवमृतकाग्निमयप्रबन्धो बातः करोति ककुभोशुभगम्भबन्धाः ॥८८॥ इतश्च यत्र-यान्युत्सवेषु कृतिनां कृतमालानि वाद्यानि मोदिजनगयनिरर्गलानि । जिसके एक पार्श्व भाग में आकाश और पृथिवी मण्डल पर पाज, उलूक व काक पक्षियों का झुण्ड, कुत्तों के समूह की परस्पर लड़ाई होने से भयभीय हुआ मुर्दो के मांस भक्षण की पराधीनता-वश किंकर्तव्यविमूढ़ था ८४|| जिसके एक पाश्वभाग में से वृक्ष वर्तमान थे, जो कि प्रहण कीहुई मांस-साइत हाड्डयों के रस-साय ( चूने ) से मार्ग-हीन थे। अर्थात्-जिनके नीचे से गमन करना अशक्य था एवं जिनकी उपारतन शाखा प्रचण्ड वायु के आश्रय-वश टूट रही थीं। इसीप्रकार जिस श्मशान-भाम के दिशायों के स्थान मदों के समीप आए हुए पक्षियों से कठोर प्राय थे और जिसके एक पार्श्व-भाग में चिताओं ( "मुदो की अाम-समूहों) से उत्पन्न हुए, प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले धूम अत्यन्त बुद्ध कबूतरों की कान्ति के धारक हात हुए सवेत्र अच्छी तरह से फेल रहे थे ।।५।। जिस श्मशान भूमि के एक पार्थ भाग में एसी चिताओं का आनयाँ थी, जो उसप्रकार देखने के लिए अशक्य थीं जिसप्रकार प्रलयकालीन श्री महादेव के ललाट पट्ट का नेत्र दखने के लिए अशक्य होता है और जिनका दर्शन उसप्रकार अत्यंत निर्दय था ।जसप्रकार यमराज की होमाग्नि का दर्शन विशेष निर्दय होता है। इसीप्रकार जो चिता का आनयाँ ऐसे भयानक शब्दों से काठन ( कानों को फाड़ने वाली ) थीं, जो कि भस्म करने से चूं ते हुए भुओं के शरीरों की टूटती हुई हड्डियों के मध्य भाग से बेग पूर्वक उत्पन्न हुए थे ||६|| जिस श्मशान भूमि के एक पार्श्व भाग में ऐसी वायु का संचार होरहा था, जो श्री महादेव सरीखी थी। अर्थात्जिसप्रकार श्री महादेव अपने समस्त शरीर पर भस्म-समूह आरोपित (स्थापित) करते हैं उसीप्रकार श्मशानयाय ने भी अपने समस्त शरीर पर भस्म-पशि आरापित की थी और जिसकी देह उसप्रकार मों के कफ्फनों से रुद्र ( भयानक ) कीगई थी जिसप्रकार श्रीमहादेव का शरीर मुदों के वस्त्रों से रुद्र होता है और जिसका शरीर कन्दलों ( कपालों) से उसप्रकार व्याप्त था, जिसप्रकार श्रीमहादेव का शरीर कन्दलों (मृगचर्मों) से व्याप्त होता है." ।।४] जिस श्मशान भूमि में ऐसी वायु दिशाओं को दुर्गन्धित करती है, जिसके धन, टूटकर गिरते हुए शरीरोयाले मुर्दो के टूटकर गिरे हुए केश ही थे। जिसका प्रचार दुर्गन्धित मुदों के शरीरसम्बन्धी करसों ( हड्डी-पंजरों) द्वारा नष्ट कर दिया गया था एवं जिसका प्रबन्ध (अविच्छिन्नता) दुग्ध हुए अर्ध शरीरवाले मुदों की अग्नि द्वारा निष्पन्न हुआ था | जिस श्मशान भूमि के एक पाश्र्य भाग में, जो बाजे पूर्व में पुत्रजन्म व विवाहाद उत्सवों में इषित हुए लोगों के प्रतिबन्ध ( रुकावट ) रहित गानों से युक्त हुए पुण्यवानों के लिए मङ्गलीक होते थे, १. यथासंख्यालंकार। २. समुच्च्यालंकार । ३. उपमालंकार व धसन्ततिलका छन्द । ४. अपमालंकार स्वागताछन्द, तदुर्फ-स्वागतेति रनभादगुरुयुग्मम्' । ५.रूपकालंकार व मधुमाधवीछन्द । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास तान्येव शोकवशवन्धुरखोदुराणि नर्दन्ति संस्थितवतां विरसस्वराणि ॥८९। अपि च- यमभुक्तिसमयपिशुनः समाजसंद्वयव्यसन: 1 जादस्थर्योतोय; परामृतरस्वरः परुरः ।।.०॥ किंच-अचिरण तस्वं यसो भवेत्राजवजवरलेशः । नो चेदिर्थ दशा वो भवितेति चनतिजावतरम् ॥११॥ इतश्च यत्र-अस्सोकशोक शिकाशयशीर्णशईलोकश्चिताचरितयान्धवसन्निधौः । मुप्ता न कस्वयं परिवेदयन्ति बाप्पोष्ट्रतिस्पषितधेगवशा विलापाः ॥१२॥ इतश्च या--कलिकालकायकालाः शोकादिव दहनबान्धवक्षयात् । अङ्गाराः शल्यधराः क्षयक्षपातारकाकाराः ॥१३॥ इतन्त्र यत्र-चन्तोकीलितशुष्ककीकसकलाकीलो हलतालुकाः कण्ठान्तःप्रविलाशल्यशकलोद्रालस्करकुक्षयः । प्रेतप्रान्तपुराणपादपपसत्पत्यप्रदुष्यदृशः प्रभाम्यस्पविशङ्ककृतिकृतिक्षीत्राः शिधा: सोडवाः ॥१४॥ इतन-कथं नामेयमनप्रहपहिललोकलोचनानन्दचन्द्रिका चेतोभवानुचरमानवमनोमटक्रीडाक्तविहारवसतियु पतिरड्डीनान्तरात्मईसा गण्षमण्डलावासबायसपक्षप्रान्तापादितावतसा इदमवस्थान्तरमवासरत ॥ वे ही बाजे मुर्दो से सम्बन्धित हुए शोकाधीन बन्धुओं के नरस शब्दों से उत्कट हुए कुत्सित शब्द कर रहे हैं। IMERIT जहाँ पर ऐसे मदों के बाजों का शब्द होरहा है.जो कठिनप्राय (कानों को फाइनेवाला), यमराज की भोजन-बेला का सूचक और नम-समूह के दुलाने में मातम करतोयाना गवं संसार की क्षणिकता की घोषणा करनेवाला है |1800 जहाँपर मुदों का षाजा मानों-यह सूचित कर रहा है-हे भव्य प्राणियो! आप लोग शीघ्र ही पुण्यकर्म संचय करो, जिसके फलस्वरूप तुम्हें सांसारिक दारूण दुःख न भोगना पड़े, अन्यथा ( यदि शुभ कर्म नहीं करोगे) तो तुम्हारी भी यही दशा ( मृतक अवस्था ) होजायगी REFE जिस श्मशान भूमि पर विशेष शोक-वश शून्य हु। चित्त से नष्ट-शंकावाले गुरू-आ.द के विचार-शून्य) और चिता पर बन्धुजनों को स्थापित करनेवाले लोगों द्वारा ऊँचे स्वर से उच्चारण किये हुए ऐसे रुदनशब्द, जिनका वेग, अश्रुविन्दुओं के प्रकट होने के फलस्वरूप स्थगित होगया है, किसका मन सन्तापित नहीं करते ? अपितु सभी का चित्त सन्तापित करते हैं। शा जिस श्मशान भूमि में ऐसे अनारे हैं, जो हालयों के धारक और प्रलयकाल की रात्रिसंबंधी तारों सरीखे आकार-युक्त हैं एवं जो कलिकाल (दुषमा काल) के स्वरूप समान श्यामवर्ण हैं, इससे ऐसे प्रतीत होते हैं मानों अमिरूप कुटुम्बिजनों के नाश से उत्पन्न हुए शोक से ही श्याम होरहे है ॥९३|| जहाँपर ऐसी शृगालिनियाँ पर्यटन कर रही हैं जिनकी तालु. दांतों में कीलित (क्षुब्ध ) शुष्क ( मांस-रहित ) स्थिखंडरूप कीलों द्वारा विदारण की जारही हैं। जिनका उदर कण्ठ के मध्य प्रविष्ट हुए हड्डी के टुकड़े की वमन करने से कम्पित होरहा है। जिनके नेत्र मुर्दो के प्रान्तभाग पर स्थित हुए जीर्णवृक्षों से गिरते हुए पत्तों से विकृत होरहे हैं और जो निर्भयतापूर्वक फेरकार करने में मत्त होते हुए गर्यसहित हूँ' ॥६४| जहाँ पर एक स्थान पर काल-कवलित ५ श्मशान भूमि पर पड़ी हुई एक स्त्री को देखकर प्रस्तुत आचार्य श्री ने निम्नप्रकार विचार किया यह नवयुक्ती स्त्री, जो कि जीवित अवस्था में कामदेवरूप पिशाच से ध्याकुलित हुए मानषों के नेत्रों को उसप्रकार बानान्दत करती थी जिसप्रकार चन्द्र-ज्योत्स्ना (नौवनी) नेत्रों को मानन्दित करती है, और जो कामदेष के वास मानकों के मनरूप बन्दर के क्रीडावन में विहार करने की निवास भूमि थी, वही अब जिसका आत्मारूप हंस उड़ गया है व जिसका कर्णपूर गालों पर स्थित हुए काकपंखों के अप्रभागों से रचा गया है, किस प्रकार से प्रत्यक्ष देखी हुई इस मृतक दशा को प्राप्त हुई है? १. जाति-अलंकार व मधुमाधवौछन्द। २. रूपकालंकार व आर्याछन्द । ३. उपमालंकार र आशिन्द । ४. आक्षेपालंकार व वसन्ततिलकाछन्द । ५. उत्प्रेक्षालंकार । ६. जाति-अलंकार व शार्दूलविक्रीडित छन्द । ५. रूपकालंकार । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये वाहि--या पूर्व स्मरकेलिंचामररूचिः कणांवतंसोत्परिलग्निन्दिरसुपरतिरभूगावलोमण्डनम् । सेयं मलयात्री पिपने दातेरिसा सांपतं धूलीसरिता दधाति विसरत्समार्जनौवेष्टितम् ॥१५॥ में पूर्व कामकोडकोटिकनिमम । ते संप्रति ध्रुवौ बाते शुक्षवल्लूरकल्मचे ॥९॥ ये नीमरकरवाम्सकन्द्रकान्तको शौ। ते जीर्णोदन उपगुदवसीमे ॥१॥ ये कलाकेटिदोला मुखालक्ष्मीलसीपमे। ते भुती विनखवाधीरन्ध्राधमस्थिती ॥९८॥ कस्त रिकातिलकपस्त्रविचित्रितीर्थोऽभन्सगासमकान्तिस्यं कपोषः । सोऽध वि वहति वायसवालभुमः कोधप्रदोणतनुम्बफलोपमेथाम् ।।१९।। पा कामकेसीशुकतुकान्ता पार्नु मुखामोमवायताभुद । सा गन्धवाहा विवरावशेषनिवेशनिर्गच्छदाछपया ॥१०॥ यत्राधाऽमृतधिया नवपालचाभे कामं कृतार्थहदय: समपादिलोकः । सोज्जनपिजविवशतपयपूरपर्यन्ततिरधरस्वमगण्यसागात् ॥१०॥ पा मन्त्रणासंनिमेशा मले बिता शोगमगिद्रवेग । सा दन्तपक्ति: करपस्त्रवनश्यावविः क न चुनोति लोकम्॥१०॥ उसी अवस्थान्तर का निरूपण करते हैं जो केशवल्ली जीवित-अवस्था में काम-क्रीड़ा के अवसर पर कामदेव के चॅमर-सरीखी शोभायमान होती थी (क्योंकि कामदेव के चॅमर श्याम होते हैं) और जिसकी कान्ति कर्णपूर किये हुए नीलकमल में स्थित भ्रमर-समूह-सी अति मनोज्ञ प्रतीत होती हुई कपोल ( गात ) स्थली को अलकृत करती थी, वही केशवल्ली अब श्मशान भूमि पर वायु-प्रेरित व धूलि-धूसरित हुई टूटनेवाली मार की चेष्टा ( भाचार ) धारण कररही है" ||६५ || जो भ्रकुटियाँ जीवित अवस्था में प्रकट रीति से कामदेव के धनुष के अमभाग-सी थी, वे ही अध ( मृतक अवस्था में ) शुष्क माँस की बत्ती-सरीखी हो गई है ॥६६॥ जो नेत्र जीवित अवस्था में नीलमणि और लालमणि ( माणिक्य ) के प्रान्त भाग पर स्थित चन्द्रकान्तमरण सरीखी अवस्थाशाली थे, वे अब मृतक अवस्था में फूटे हुए नारियलों के छिद्रों से निकलते हुए दुर्गन्धि जल के वु व जैसे प्रतीत होरहे ॥१७॥ जो श्रोत्र जीवित अवस्था में संगीत-श्रादि कलाओं के क्रीड़ा करने के झूलों सरीखे शोभायमान होरहे थे और जो मुख-लक्ष्मी ( शोभा) रूपलता की सरशता धारण करते थे, परन्तु अप मृतक अवस्था में ) उनकी स्थिति टूटती हुई बंधी हुई चर्मरन के विद्र-सरीखी निकृष्ट होरही है" ।। ९८ ।। ओ गाल पूर्व में चन्द्रमा के सदृश कान्तिशाली था और जिसकी शोभा कस्तूरी की तिलक रचना से विचित्रता धारण करती थी, वही गाल अब काफ-शावक (बा) द्वारा भक्षण किया हुआ होकर कुष्ठ से छिद्रित अवयवोंवाले तुम्बीफल की तुलना प्राप्त कर रहा है | || जो नासिका पूर्व में कामदेव के क्रीड़ा-शुक की चचुपुट-सी मनोहर थी और मानोंमुख कमल की सुगन्धि का शन करने के हेतु ही विस्तृत होरही थी, अब उसी नासिका के छिद्र संबंधी अवशेष स्थान से प्रचुर पीप निकल रही है ।। १००१॥ नबीन पल्लव-समान कान्तिधारक जिस प्रोष्ठ में छमी पुरुष पूर्व में अमृतपान की बुद्धि से ( धुम्बन द्वारा) अपने हृदय को यथेष्ट सफल मानता था, अब उसके प्रान्त भाग से दुर्गन्धि-वश परवश पीप का प्रवाह निरन्तर यह रहा है. जिससे घड निस्सीम अधरत (निकलपने ) को प्राप्त होचुका है' || ११॥ जो दन्तपक्ति पूर्व में चन्द्रकान्त मणि के अंकुरों सरीस्त्री रचना युक्त धी और मूल में पद्मराग मणियों के रस से आश्रित थी, १. उपमालझार व शार्दूलविक्रीडित छन्द । २, उपमालद्वार । ३. उपमालद्वार । ४. उपमालकार। ५. उपमालद्वार वसन्ततिमा सन्द। ६. उत्प्रेक्षा व उपमालकार एवं इन्दवमा छन्द । ५. उपमालार प पसन्ततिलका झाद । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास यः कण्ठः काबुाकाशः कलकोकिलनिस्वनः। स विशीर्णशिरासंघिर्जरस्पक्षरतां गतः ॥१०॥ यौ हारनिरससनवपत्रकान्तौ फोडायलाविव मनोजगजस्य पूर्वम् । तौ पूसिपुष्पफलदुरदशाविनानो वक्षोस्तो यलिभुजा बलिपिण्डकल्पौ ॥१४॥ लाण्याम्बुधिची चिकोविसरुची हस्ती मृणालोपमौ कामारामारताप्रसानसुभगो प्रान्सोल्छसपलदौ । यौ पुष्पाचपिशाचबन्धविधुरी लीलाविलासाछसौ तो जातो गतजङ्गलौ प्रविजरकोदा दहाती ॥१०६५ यः कृशोऽभूत्पुर। मध्यो वलिनयविराजितः। सोऽम वरसो धत्ते चर्मकारतियुतिम् ॥१०॥ केलियापीठ कामस्य नाभी गम्मीरमण्डला। यासीत्सा निर्गताबान्ता स्वपस्सर्पविलाविला ॥१॥ या कामशरपुकामसममाभोगनिर्गमा सार्धधाधिनप्रास्ताविवर्णा तनुजावली ॥१०॥ स्मरतिपविहाराय यजातं साधनान्तरम् । तदलस्क्लेदविक्टिनं जघन्यत्वमगात्परम् ॥१०९॥ या कामकलभाष्ठामस्तम्भिकेवोरुवारी। सा श्वनि“मलावण्या वानयेणुपरप्रभा ॥११॥ वही दन्तपक्ति अन्य मृतक अवस्था में करोंत के अप्रभाग-सी श्यामवर्ण हुई किन कामी पुरुषों को सन्तापित नहीं करती ? सभी को सन्तापित करती है ।।१०।। जो कण्ठ पूर्व में श्रीनारायणकर-स्थित शङ्ख सरीखा था और जिसका शब्द कोयल-सा मधुर था, अब उसी कण्ठ की नसों की सन्धियाँ टूट गई है, अतः उसने जीर्ण-शीर्ण पिंजरे की तुलना प्राप्त की है। ॥१०३|| जो कुच (स्तन) कलश, पूर्व में हार (मोतियों की माला ) रूप झरना और कस्तूरी-केसर-आदि सुगन्धित द्रव्यों से की हुई नयीन पत्ररचना से मनोहर प्रतीत होते हुए कामदेव रूप हाथी के क्रोडापर्वत सरीखे थे अब उनकी अवस्था दुर्गन्धि कपित्थ (कैंथ । फल-जैसी दूषित होचुकी है और वे काक पक्षियों के हेतु दिये गये भोजन-पासों सरीखे प्रतीत होरहे हैं। ॥ १४॥ जो इस्त पूर्व में कान्ति रूप समुद्र की तरङ्ग-सरीखे सुशोभित होते थे। मृणाल-सरीखे जो कामदेव के उपवन सबंधी विस्तृत लता सरीखी प्रीति उत्पन्न करते थे। जिनके प्रान्त भाग में कोमल पल्लव शोभायमान हो रहे थेष कामदेव रूप पिशाच के बन्धन सरीखे जिन्हे काम क्रीडा के विस्तार में बालस्य था. हुए उनकी क्रान्ति जीर्ण-शीर्ण धनुष-यष्टि-सी होगई है। ॥१०॥ जो शरीर का मध्यभाग ( कमर ) पूर्व में कुश ( पक्षला ) होता हुआ त्रिवलियों से विशेष शोभायमान था, इस समय उससे रस ( प्रथम धातु) निकल रहा है, इसलिए वह चर्मकार ( चमार) को चमड़े की मशक की कान्ति धारण कर रहा है ॥१०६॥ जो नाभि, जीषित अवस्था में गम्भीर (अगाध) मध्यभाग से युक्त हुई कामदेव की क्रीड़ा पापिका-सी शोभायमान होती थी अब ( मृतक अवस्था में ) उसके प्रान्तभाग पर वाहिर निकली हुई बातें वर्तमान है, अतः वह सोते हुए सपों के छिद्र-सरीखी कलुषित (भलिन ) होरही है ॥ १०७ ।। पूर्ष में जिस रोमराजि की पूर्ण उत्पत्ति काम-वाण के मूल के प्रान्तभाग की पूर्ण समानता रखती थी, वह अब अर्धदग्ध धर्मके प्रान्तभाग-सरीखी निकृष्ट वर्णवाली होगई है। ॥ १० ॥ जिस कमर के अममण्डल पर जीवित अवस्था में कामदेष रूप हाथी पर्यटन करता था, वह अय निकलती हुई पीप वगैरह कुधातुओं से आई (गीला) हुआ बहुत बुरा मालूम पड़ता है, जिसके फलस्वरूप उसने विशेष निकृष्टता प्राप्त की है। ।। १०६ ॥ जो ऊरु (निरोह) रूपी लता, पूर्व में कामदेव रूपी हाथी के बच्चे को बाँधने के लिए छोटे खम्भे-सी थी, अब उसका लाषण्य (कान्ति) कुत्तों द्वारा समूल पवाई जाने से नष्ट कर दिया गया है, इसलिए यह जीर्ण बाँस सरीखी किसी में न पाई जाने वाली ( विशेष निन्य ) कान्ति १. आक्षेपालकार व उपमालहार एवं इम्यबजा छन्द । २. उपमालङ्कार। ३. उपमालबार व पसन्ततिलका छन्द । 1. उपमालद्वार व शालविक्रीडित छन्द । ५. उपमालद्वार। .उपमालहार। ७. उपमालद्वार। ८. उएमालहार । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्सिलकचम्पूकाव्ये में पूर्व स्मररारधी समाविवर्तिते सुवृत्ते च। फोलिकनसकाकार ते बड़े सांप्रतं जाते ॥११॥ पत्राक्तकमनं विरचितं यत्रालिसौ नूपुरी पत्रासीन वमौक्तिकावलि कक्षा फान्सा मखानां ततिः । पत्रासोकालोपत्र समभूस्क्रीडाविहारोवितस्तावरपाण्डकापडपटालप्रस्पटटी प्रमौ ॥११॥ किंच-षा कौमुदीन सरसीव सणालिनीव लक्ष्मीरित्र प्रियसखीव विलासिनीव । सस्तै रजनि सा सुतनुः प्रजाता प्रेतावनीइनबका विवशा बराकी ॥११३॥ यस्पाः रेलिक कल काहहै। सीमन्तितः नाका यस्याश्रन्दनवम्वन प्रणयिभिभोलान्तरे निर्मिसम । पस्पारगमन कामिभिाय चित्रः कपोल सः सा समाजका स्वविकृति तय धसेऽद्रुतम् ॥११॥ षा मानसलहसी नेत्रोल्पसन्द्रिका नया अगतः । सा कालमहाप्रतिना पटवा करता नीता ॥११॥ यभ्यस्यति यो लोकः स भवेत्तम्मयः स्फुटम् । प्रकामाभ्यस्तखटवाने युका खट्वाङ्गता ततः ॥११॥ धारण कर रही है। ॥११- ।। जो दोनों जलाएँ, जीवित अवस्था में कामदेव के तूगीर ( भाता) सी प्रतीत होती थी और मनोहर कान्ति से व्याप्त हुई गोपुच्छसा वर्तुलाकार धारण करती थी, उनकी आकृति अब जुलाहे के नज़क ( तन्तुओं के फैलाने का उपकरण विशेष ) सरीस्त्री हो गई है। ।। ११|| जिन देनों चरणों पर पूर्व में लाहारस का आभूषण रचा गया था। जिन पर धारण किये हुए नूपुरों-मजोरों-की झनकार होरही थी। जिनके नखपङ्क्तयों की कान्ति नवीन मोतियों की श्रेणी की शोभा सी मने हर थी। अशोक वृन का पल्लव समूह जिनके लीलापूर्वक पर्यटन के योग्य था, उन चरणों की अयस्था अब एरण्ड वृत्त के जीर्ण स्कन्ध समूह सरीखी प्रत्यक्ष प्रतीत होरही है। ||११।। कुछ विशेषता यह है-सुन्दर शरीर धारिणी जो खी सन इन जगप्रसिद्ध कान्ति आदि गुणों के कारण जीवित अवस्था में चन्द्र-ज्योत्स्ना-सी हृदय को आल्हादित करती मी। जो लावण्यरूप अमृत से भरी हुई होने के फलस्वरूप अगाध सरोवर-सरीखी. प्रफुल्लित कमल सरीखे नेत्रों वाले मुख से कमलिनी समान, उदारता के कारण लक्ष्मी जैसी, प्रतिपन्नता-यश प्यारी सखी-सी और सुरता-पूर्ण बचनालाप से विलासिनी-सी थी, वही अब श्मशान भूमि संबंधी वन के अधीन हुई अकेली होकर विचारी ( दयनीय अवस्था-यंग्य ) होगई है ॥ ११३ ॥ जिस स्त्री के केशपाश पूर्व में कामी पुरुषों द्वारा मखों से मनोहरता पूर्वक सीमन्तित ( कॅघी आदि से अलकन) किये गये थे। जिसके ललाट के मध्यभाग पर स्नेही पुरुषों द्वारा उत्तम चन्दन से तिलक किया गया था। जिसका यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाला गाल कामी पुरुषों द्वारा कस्तूरी की पत्ररचना द्वारा मनोहर किया गया था. यही स्त्री अब उन्हीं केशपाश, मस्तक और गालों पर खाद के अषयय व नारियल के कपाल के मध्यभाग-सरीखी विकृति (कुरूपता । धारण कर रही है. ? यह बड़े आश्चर्य की बात है:॥ ११४ ॥ जो स्त्री पूर्व में जगत के कामी पुरुषों के मनरूप मानसरोवर की राजहंसी थी और उनके नेत्ररूप कुवलयों (बान्द्रविकासी कमलों) को विकसित करने के हेतु चन्द्र-ज्योत्स्ना थी वही स्त्री अब यमराजरूप कापालक धारा वाट के अवयव व कपाल-सरीखा अशोभन दशा में प्राप्त कीगई है। ॥ १२५॥ लोक में जो मनुष्य जिस वस्तु का अभ्यास करता है, वह निश्चय से तन्मय ( उस वस्तुरूप) होजाता है, इसलिए विशेष रूप से खवाङ्ग (खाट पर शयन) का अभ्यास करनेवाले को खट्वाङ्गता ( भग्न हुई खाट-सरीखा) होना इषित ही है। अर्थान्-अब वह भग्न-खाट सरीखी होगई है ।।१६।। * 'समा क. पलाश क.। १. उपमालकार। २ उपमालधार व आछिन्द । ३. उपमा व समुख्यालाार एवं शार्दूलविक्रीडित छन्द । ४. उपमालङ्कार व वसन्ततिलकाछल । ५. उपमालवार व शार्दूलविक्रीवितमन्द । ६. सारचर उपमालंकार। ५. रुपक का अर्थान्तरन्यासालंकार । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास लतिरेव प्रणयतरोया वनदेवीक मेलिवनभूमेः। सा यमनृपतिबिमुक्ता फेलेव प्रास्यते पतर्गः ॥११॥ जीवन्स्येमा यौवालीस्सर्वस्य हृदयंगमा। मृताप्यभूत्तथैमेयं दुस्त्यजा प्रकृतियतः ॥११८॥ इंसायितं वदनपरदे स्मरातर्यस्या गजायितमभूस्कुचकुम्भमध्ये । एणायितं न जधनस्थलमेखलायां तस्याः कलेवरममी निकषन्ति कहाः ॥११९॥ पायं पायं मधु मधुरस्कपूर्व मुद्रभावात्स्मा स्मारं वदति च कसं या मुदा कुषितभूः । साय सस्मिनपगतमनोमर्कटस्वादनीहा प्रेतावासे निवसति गाता भोज्यमा शिवरनाम् ॥१२॥ यामन्तरेण जगतो विफलाः प्रयासा पामन्तरेण भवनानि बमोपमानि । यामन्तरेण हतसंगति जीवितं च तस्याः प्रपश्यत जनाः क्षणमेकमा ॥११॥ आश्लिष्ट परिणस्विस परमित वनागरोमाविस्तरसंसारसुखास्पद वपुरभूदेवं दशागोतारम् । शीर्थधर्मवयं पतस्पलभर भ्रश्यधिरापञ्जरं प चिप गलबलकुल कुध्यत्स्नसाजालकम् ॥१२॥ जो स्त्री पूर्व में स्नेहरूप वृक्ष की लता सरीखी व क्रीडास्थान संबंधी भूमि की वनदेवता जैसी थी, वह अब यमराजरूप राजा द्वारा छोड़ी हुई फेला (भक्षण करके छोड़ा हुआ अन्न) सरीखी काक-आदि पक्षियों द्वारा भक्षण की जारही है ॥ ११७ ॥ यह लो जिसप्रकार जीवित अवस्था में सभी की सदयंगमा (हृदयं गच्छति मनो हरति मनोवल्लभा) थी, उसीप्रकार अब मरने पर भी सबको हृदयंगमा ( हृदयं गमयति विरक्त करोति मन में उद्वेग-मय व वैराग्य-उत्पन्न करनेवाली) हुई है, क्योंकि वस्तुस्वभाव त्यागने के लिए अशक्य है.२ ।।११। काम-पीड़ित पुरुष पूर्व में जिस स्त्री के मुखकमल से उसप्रकार यथेच्छ क्रीड़ा करते थे जिसप्रकार राजईस कमलवनों में यथेच्छ कीड़ा करता है और जिसके कुचकलशों के मध्यभाग पर हाथी सरीखे कीड़ा करते थे एवं जिसकी जघनस्थल सम्बन्धी मेखला (कटिनी) पर कामीपुरुष उस प्रकार क्रीड़ा करते थे जिस प्रकार मृग पर्यंत-कटिनी पर यथेच्छ क्रीडा करता है परन्तु अब ( मृतक अवस्था में) उसी स्त्री का शरीर ये प्रत्यक्ष दृष्टगोचर हुए बगुले फाड़ रहे हैं ॥१९॥ मनोहर नेत्रशालिनी जो स्त्री पूर्व में विशेष गर्वपूर्वक बार पार मद्यपान करती थी और कुटेिल भृकुटिवाली जो बार वार स्मरण करके हर्षपूर्वक मधुर वाणी बोलती थी, अब वही स्त्री जिसका मनरूप बन्दर नष्ट होजाने के फलस्वरूप चेष्टा-हीन हुई इस श्मशान भूमि पर पड़ा हुई शृगालियों के भोजन को प्राप्त हुई है" ॥१२०॥ जिस स्त्री के बिना संसार के मानों को व्यापार-श्रादि संबंधी जीविकोपयोगी कष्ट उठाना निष्फल है और जिस प्रिया के विना गृह, भयर बटवीसरीखे मालूम होते हैं एवं जिसके विन्य जीवन भी मृतक-जैसा है। हे भव्यप्राणियो ! आप लोग, उस स्त्री का शरीर यहाँ पर क्षण भर के लिए देखें ॥१२॥ जिस स्त्री का शरीर सांसारिक सुख का आभय-स्थान-होने से जीवित अवस्था में राग से रोमानित हुए कामीपुरुषों द्वारा भुजाओं से गाद पालिङ्गन किया गया, चुम्बन किया गया व रति-पिलास किया गया, उसका शरीर अब निसप्रकार दयनीय दशा को प्राप्त होरहा है, जिसका चर्म-पटल फट रहा है, जिसमें से मांस का सारभाग गिर रहा है, जिसकी नसों का बन्धन नीचे गिर रहा है, जिसकी सान्धवन्धन-शक्ति नष्ट होरही है, जिसका हायों का समूह नष्ट होरहा है और जिसकी नसों की वेणी छिन्न-भिन्न होरही है' ।।१२२।। १. उपमालंकार । २. अर्थान्तरन्यास अलंकार। ३. समुच्चय १ उपमालंकार एवं सन्ततिलकायम्द । 8. उपमालंकार बसन्ततिलकाछन्द । ५. उपमालाकार व सन्ततिलका छन् । रूपकालहार घालविकोडित छन् । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आ, टाइप कहतरमहो स्मरनिछसितम् । इस्थमन्र्दुरन्ताङ्गी बहिर्मनुविभ्रमः । विषवझीव मोहाय यदेषा जगतोऽमि ॥ १२३ ॥ अपि च — माासाम्राज्यदर्याः कविञ्चनवचनस्पदिमाधुर्यपुर्याः स्वप्नातैश्वर्यजोभाः कुकनयमयारामरम्योउरामाः । फर्जन्यागप्रसारास्त्रिदिवपत्तिधनुर्वन्धुरा स्वभावादायुलविण्यलक्ष्म्यस्त जगदिदं चित्रमत्रैवतम् ॥ १२४ ॥ होय, स्वयं मन्त्रसरः । तलमवस्तुनि व्याप ट्रेन इद मिह ननु प्रस्तुतमवधार्यताम् — 'नैवात्र सखि परिणामुचितावकाशाः स्वाध्यायषन्धुरधशवसराः प्रदेश: । इन्द्र महतपन एवं पत्युदारं वाताव माग्सि परिसः पश्चप्रचारः ॥ १२६ ॥ किच-- पम्मृतानामवस्थानं तत्कथं जीवतां भवेत् । अन्यत्र शवशीलेभ्यः को सामदामहस्ततः ॥ १२६॥ प्रस्तुत सुताचार्य ने विचार किया है-जिस कारण जिसप्रकार विषवल्ली भीतर से दुष्ट स्वभाववाली (घातक) और बाहर से सुस्वादु होती हुई जगत के प्राणियों को मूर्च्छित कर देती है, उसीप्रकार यह स्त्री भी, जिसका शरीर मध्य में दुष्ट स्वभाव-युक्त है और बाहर से सौन्दर्य की भ्रान्ति उत्पन्न करती है. जगत के प्राणियों को मूर्च्छित करने के लिए उत्पन्न हुई है || १२३|| संसार में प्रागयों की आयु ( जीवन ), शारीरिक कान्ति और लक्ष्मी ( घनादि वैभव ) स्वभाव से ही क्षणिक हैं और उसप्रकार ऊपरी मनोहर मालूम पड़ती हैं जिसप्रकार विद्याधरादि की माया से उत्पन्न हुआ चक्रवर्त्तित्व मनोहर मालूम पड़ता है। इनमें उस प्रकार की श्रेष्ठ दिखाऊ मधुरता है, जिसप्रकार विद्वान् का मण्डल के शृङ्गार रस से भरे हुए वचनों में श्रेष्ठ मधुरता होती है। इनकी शोभा उसप्रकार की है जिसप्रकार स्वप्न ( निद्रा ) में मन द्वारा प्राप्त किये हुए राज्य की शोभा होती है और इनकी कान्ति उसप्रकार अत्यन्त मनोहर और उत्कृष्ट मालूम पड़ती है जिसप्रकार इन्द्रजाल से बने हुए बगीचे की कान्त विशेष मनं इर व उत्कृष्ट मालूम पड़ती है एवं इनकी रमणीयता उसप्रकार झूठी है । जसप्रकार मेघपटल के महल की रमणीयता झूठी होती है एवं ये उसप्रकार मिथ्या मन हर प्रतात दाते हैं जिसप्रकार इन्द्रधनुष रमणीक मालूम पड़ता है तथा पं यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ पृथिवी का जनसमूह इन्हीं आयुष्य, लावण्य और धनादि में आसात करता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है * ॥ १२४ ॥ अहो आत्मन् ! तुम पूर्वोक विचारधारा के प्रवाद में बहुत दूरतक बह गए। अर्थात्-तुमने यह क्या विचार किया ? क्योंकि आत्मद्रव्य से भिन्न वस्तु के विचार करने से कोई लाभ नहीं । अस्तु अ प्रकरण की बात सोचनी चाहिए । इस श्मशान भूमि पर ऐसे स्थान नहीं हैं, जो मुनियों के लिए योग्य अवकाश (स्थान) देने में समर्थ दों और जिनमें स्वाध्याय के योग्य क्षेत्र शुद्धि-संयुक्त भूमि का अवसर पाया जावे। हमारा मुनिसंघ मी महान है एवं यह सूर्य भी अत्यधिक सन्तापित कर रहा है और यहाँ का षायु-मण्डल भी चारों ओर से कठोर संचार करनेवाला वह रहा है, अतः यहाँ ठहरना योग्य नहीं ||२५|| वास्तव में जो भूमि मुर्दों के लिए है, वह शाकिनी, डॉकिनी और राक्षसों को छोड़कर दूसरे जीवित पुरुषों के ठहरने लायक किलप्रकार हो सकती है ? अतः हमें यहाँ ठहरने का आग्रह क्यों करना चाहे ? अपितु नहीं करना चाहिए ।। १२६ । सम्बन्द । १. समुच्चयालङ्कार थ वसन्ततिलका छन्द । १. उपमाकार २. उपमालङ्कार ४. आलेपाकङ्कार । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FERRE ६९ पुर्यावदयं दिगन्तरालेषु लोघने प्रसारयति तावदुत्तरस्यां हरिति राजपुरस्थाविवस्वमिं मुनिमनोहरमेव नाम खतरं पर्वतमपश्यत् पः खलु धम्मिविन्यास इद नागनगरदेवतायाः, किरोटोकलय वाटवीलक्ष्याः स्तनाभोग इव महिला, कन्दुक इव वनदेवतायाः, मातृमोक्क व दिग्बालक लोकस्य, ककुदोहम इव भूगोखावेन्द्रस्य द्वारभिधानस्तूप इष भुजङ्गभुवनस्य यज्यविधानबन्ध विहायविक्रमस्य त्रिविष्टपकुटनिर्माणमृत्पिण्ड इत्र प्रजापति जनस्य, केलिप्रासाद व ककुप्पा व्यकन्यकामिकरस्थ गविस्वमोष्ट व कलिकालस्य, मानस्तम्भ इवैकशिलाघटितारम्भ:, शिवशातकुम्भप्रदेश व विदूतिदयितासमावेशः अलोकाकाश श्च विगतजन्तुजातावकाशः तपश्चरणागम इव समुत्सारितवर्षधरसमागमः क्षप []कमेणिरिव सपः प्रत्यवायर हिवक्षोणिः, महावृत्त प्रस्तार एक विस्तीर्यापादविस्तारः, समीरकुमारैविरचितविशुद्धिरित्र स्वाध्यायोचितः कान्तारदेवताभिः संमार्जित व कमनीयकन्दरः, पर्यन्तपादपैः संपादितकुसुमोपहारः प्रदन्तरङ्गास्किरिष गुहापरिवरेषु तदनन्तर - श्मशानभूमि देखने के अनन्तर - उक्त प्रकार का विचार करते हुए ज्यों ही उन्होंने दिशासमूह की ओर हष्टपात किया त्यों ही उन्होंने उत्तर दिशा में राजपुर नगरके समीप 'मुनिमनोहर मेखल' नाम का ऐसा लघु पर्वत देखा, जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों- धरणेन्द्र नगर की देवता का केशपाश- समूह ही है । श्रथवा – मानों – वनलक्ष्मी का मुकुट समूह ही हैं । अथवा मानों – पृथिवीरूपी श्री के कुछ कलशों का विस्तार ही है । अथवा मानों - वनदेवी के क्रीड़ा करने की गेंद ही है। अथवामानों - दिशा रूपी स्त्री के बालक-समूह का माता द्वारा दिया हुआ लड्डू ही है । अथवा मानों पृथिवीरूप बैल के स्कन्ध का उन्नत प्रदेश ही है । अथवा - मानों पाताल लोक के दरवाजे को ढकनेवाला खम्भा ही है । अथया - मानों - आकाशरूप पक्षी का यष्टि पर आरोपण करने के लिए बना हुआ चबूतरा ही है । अथवा - मानों - ब्रह्मलोक का ऐसा मिट्टी का पिंड है, जो तीन लोक रूप घड़े के निर्माण करने में सहायक है । अथवा मानों - दिक्पालों की कन्या समूह का कीड़ा महल ही है । अथवा-मानों- पंचमकाल ( दुषमाकाल ) की गति को रोकने वाली चट्टान ही है । अथवा मानों- - एक अखण्ड शिला द्वारा निर्माण किया हुआ समवसरण भूमि का मानस्तम्भ ही है । अथवा मानों ऐसा मोक्ष रूप सुवर्ण का स्थान ही है, जहाँ पर स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया है । अथवा मानों - वह, ऐसा अलोकाकाश ही है, जहाँपर समस्त प्राणियों के समूह का प्रवेश नष्ट होगया है । अथवा मानों-ऐसा दीक्षा सिद्धान्त ही है, जिसमें नपुंसकों का प्रवेश निषिद्ध किया गया है। जिसकी पृथिवी एकान्त स्थान होने के फलस्वरूप ) उसप्रकार तपश्चर्या में होनेवाले प्रत्यवायों ( दोषों – विघ्नबाधाओं ) से शून्य थी जिसप्रकार क्षपकश्रेणी के स्थान ( आठवे गुणस्थान से लेकर वारहवें गुणस्थानों के स्थान ) तपश्चर्या संबंधी दोषों ( राग, द्वेष व मोहादि दोषों) से शून्य होते हैं ( क्योंकि क्षेपक श्रेणी में चारित्र मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का क्षय पाया जाता है ) । इसीप्रकार जो उसप्रकार विस्तीर्ण पादों (समीपवर्ती पर्वतों) से विस्तृत था, जिसप्रकार महाछन्दों के प्रस्तार ( रचना) विस्तीर्णपादों ( २६ अक्षर पाले चरणों) से विस्तृत होते हैं । स्वाध्याय के योग्य वह ऐसा मालूम पड़ता था मानों वायु कुमारों द्वारा जिसकी शुद्धि की गई है। यह धनवेषियों द्वारा संशोधित किया हुआ होने से ही मानों उसकी गुफाएँ अतिशय मनोहर थीं । अर्थात् जिसप्रकार तीर्थकर भगवान् की बिहारभूमि बनदेवियों द्वारा संमार्जन कीजाने से अतिशय मनोश होती है। जिसकी गुफाओं के प्राणों पर स्थित हुए अप्रक्त वृक्षों द्वारा जिसे पुष्पों की भेंट दीगई थी, इसलिए ऐसा मालूम पड़ता था मानों उसको गुफाओं के प्राङ्गणों पर विचित्र वशाली रंगावली दी कीगई है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक चम्पूकाये J सुपा सोपान्तोपत्यक: नाय स्वशनिरिवाभ्याम्प च संयमिभावनाशधनात पनशिकाराभ्वमेनसः परिबरिफ्लोशीर इत्र माविमानाम् एवमभ्यैरपि तैस्तैरयमर्थमेनु विस्वापि 四つ कर्मकस्योत्पाि समुपच मिथ च नितिमार्ग मध्याह क्रियः स्वयं तदिवसोपान्तोदवाला [स] समाकल्प परिवामहलमलिनं भ्रमणसमात्मवेशीयमान्तेवासिमा चितिं लोवनगोचरारामेषु प्रामेषु विध्याणार्थमादिदेश ॥ स च नम्बिनीनरेन्द्रस्व यशोधरमहाराजात्मजस्य पशोमति कुमारस्वाममहियां चण्डमहासेनमुवासरिरसंबन्तिप मारिदसमहीश्वरमही रहस्यामुअम्माला कन्यां कुसुमावस्यांसह संभूतं पूर्वभवस्मरणात् संसारसुखान्यागामिजन्मदुःखार जिसकी समीपवर्ती उपत्यका ( पर्वत की समीपवर्ती भूमि) छोटे-छोटे वृक्षों से वेष्टित थी, अतः वह ऐसा प्रतीत होता था मानों— महामुनि - सुदुताचार्यश्री के समागम से ही उसने हर्ष से उत्पन्न हुए रोमा का कबुक ही धारण किया है। जिसके निकुब्जों ( लताओं से आच्छादित प्रदेश ) से रनों का जल प्रवाहित होरहा था, इसलिए ऐसा मालूम पड़ता था मानों संयमी महापुरुषों की कोजानेवाली आराधना-पूजा से ही मानों उसने हर्ष के नेत्राओं का प्रवाह प्रकट किया है। जिसकी कटिनियों, शिलाओं पर उतरे हुए गृहों से और विशाल चट्टानों से प्रशंसनीय थीं; इसलिए वह ऐसा प्रतीत होता था— मानो उसने द्वयातगों (रागद्वेष रात साधु महात्माओं या धूलि व अन्धकारशून्य पर्वतों ) के लिए शयनासन हूँ। उत्पन्न किया । इसप्रकार प्रस्तुत पर्वत ने उक्त गुणों के सिवाय अन्य दूसरे पाप शान्त करनेवाले प्रशस्त गुणों ( विस्तीर्णता व प्रासुकता आदि ) द्वारा सीन प्रकार के मुनिसंघ ( आचार्य, उपाध्याय व सर्वसाधु समूह ) को अपने में प्रीति उत्पन्न कराई थी। उक्त पर्वत पर संघसहित जाकर स्थित हुए उन्होंने मार्ग व मध्याह्न की क्रिया पूर्ण की। अर्थात्मार्ग में संचार करने से उत्पन्न हुए दोषों की शुद्ध करने के लिए प्रायश्चित किया और देव वन्दना की एवं उसी दिन ( चैत्र शुक्ला नवमी के दिन ) हिंसा दिवस जानकर उपवास धारण किया । अर्थात्यद्यपि उन्होंने अष्टमी का उपवास तो किया ही था, परन्तु चैत्र शुक्ला हबों को राजपुर में होनेवाली हिंसा का दिवस जानकर उपवास धारण किया था। तत्पश्चात् - आहार संबंधी मध्याह्न-वेला जानकर उन्होंने अपने ऐसे मुनिसंघ (ऋष, मुनि, यात व अनगार उपास्थयों का संघ ) को, जो अपनी अपेक्षा तपश्चर्या ष आध्यात्मिक ज्ञान आदि गुणों से कुछ कम योग्यताशाली महान् शिष्य से रक्षित था, राजपुर के समीपवर्ती धामों में, जिनके बगीचे नेत्रों द्वारा दिखाई देरहे थे, आकर गोधरी ( चाहार ) ग्रहण करने की आज्ञा दी । तदनन्तर उन्होंने मानसिक व्यापार--अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम रूप अग्नि से प्रज्वलित हुए अवधिज्ञान रूप दीपक द्वारा यह निश्चय किया कि 'हमारे मुनिसंघ में रहनेवाले अभयरुचि ( क्षुल्क श्री ) और अभयमति (लिका श्री ) नामक क्षुल्लक जोड़े के निमित्त से निश्चय से आज होनेवाली महाहिंसा का बीभत्स वाडव बन्द होगा ( रुकेगा ) और जिसके फलस्वरूप यहाँ के समस्त नगर वासियों, मारत राजा और चण्डमारी आदि देषियों को अहिंसारूप धर्म- पालन करने के विशुद्ध अभिप्राय से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होगा' इसलिए उन्होंने अपने मुनिसंघ के उक्त नामवाले ऐसे क्षुखकजोड़े को उसी राजपुर नगर में जाकर आहार ग्रहण करने की आज्ञा दी, जो कि यशोधर महाराज के पुत्र ष यिनी नगरी के राजा 'यशोमांत कुमार' की ऐसी कुसुमावली नामकी पट्टरानी के उदर से साथ-साथ उत्पन्न हुआ भाई बहिन का जोड़ा था एवं जो, 'पूर्वजन्म के स्मरणवश सांसारिक सुखों ( कमनीय कामिनी आदि ) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आचास प्रसूतिवाणीव मन्यमानमरस्याचापि जिनरूपमहणायोग्यस्थायरमाचारवशामुपासकदशामाभितवदल मुनिकुमारका गम् 'अस्मारम्बस्वय पौरपुरेश्वरदेवताना धर्मकर्मावेशानुपशमो भविष्यति' इत्यन्त:संकष्यकृशानुकृतप्रयानावधियोधप्रदीपेन प्रस्यवमृश्य तत्रैव पुरे सदर्थमादित् ।। तदपि तं भगवन्समुपसंगृह्य मनुष्यरूपेण परिंगसं धर्मवयमित्र, मर्यलोकायतोणं स्वापदर्गमार्गयुगामिया, नयनविषयतां गतं नययमलमित्र, प्रदर्शितात्मरूपं प्रमाणवितमिव, बहिःप्रकटल्यापार शुभध्यानयुग्ममिव तपस्विकीया प्रतिपक्षसोदरमा रतिस्परमिथुनमिय, पुरो युगान्तरावलोकप्रणिधानाधारैर्दयाईनगमध्यापारभयदानामृतमिव प्राणि प्रवर्षत् , समन्तादुन्मुखालेखावरणनखमयूखप्ररोहबहवर्मनि वृत्तसत्त्वानुकम्पनं संयमोपकरणमिव पुमरुकयात्, को भविष्य जन्म सम्बन्धी दुःखरूप अंकुरों की उत्पत्तिहेतु क्षेत्र सरीखे हैं' इसप्रकार भलीभाँति जान रहा है तथा जिसने अखीर की ग्यारहवी प्रतिमा के अधीन क्षुल्लक अवस्था का विशेषरूप से आश्रय किया था, क्योंकि अब भी ( तपश्चर्या का परिज्ञान होने पर भी) उसका शरीर सुकोमल होने के कारण निर्णय मुद्रा-धारण के अयोग्य था। कैसी है यह कुसुमावली रानी ? जो चण्डमहासेन राजा की पुत्रतारूप नदी से बढ़ाए हुए ऐसे मारिदत्त राजा रूप वृक्ष की लघुभगिना ( बाहेन । रूपलना की कन्दली थी। अर्थात्जा चण्डमहासेन राजा की पुत्री और मा.रेदत्त महाराज की छटी बहिन थी और जिसे उज्जायेनी के नरेन्द्र 'यशोमति' कुमार की पट्टरानी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।' ___ ऐसा क्षुल्लक जोड़ा, मारिदत्त राजा द्वारा मनुष्य युगल लाने के हेतु भेजे हुए ऐसे कोट्टपाल किरों द्वारा पकड़ लिया गया. जो ऐसा प्रतीत होता था-~-मानों-मुनिधर्म व श्रावकधर्म का ऐसा जोड़ा ही है, जिसने उस भगवान् सुदत्ताचार्य को नमस्कार करके मनुष्य की आकात धारण की है। अथवा मानों-मनुष्यलोक में अवतीर्ण हुआ, स्वर्ग व मोक्षमार्ग का जोड़ा ही है। अथवा--मानों-दृष्टिगोचर हुआ द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय का जोड़ा ही है। अथवा मानों-अपना स्वरूप प्रकट करनेवाले प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणों का जोड़ा ही है। अथवा मानों-मन से निकलकर याहिर प्रकट हुम्ला, धर्मध्यान व शुलध्यान का जोड़ा ही है। सर्वोत्तम प अनखी सुन्दरता के कारण जो क्षुल्लक जोड़ा ऐसा प्रतीत होता था मानों से रति और कामदेव का जोड़ा ही है, जिन्होंने तपश्चरण करने की इच्छा से परस्पर में भाई-बहिन-पना स्वीकार किया है। जिसकी नेत्रों की दृष्टि, आगे चार हाथ पर्यन्त पृथिवी को देखने की सावधानता धारण करनेवाली होने से क्या से सरस थी, इससे ऐसा मालूम होता था-मानों-वह अपनी दया-मयी दृष्टि धारा समस्त प्राणि-समूह के ऊपर अभयदान रूप अमृत की वर्षा कर रहा है। अपने चरण नखों के किरणार रूप मथुर-पिच्छों द्वारा, जो फि ऊर्ध मुखवाले अप्रभागों से योग्य थे, वह क्षुल्लक जोदा, मार्ग में समस्त प्राणियों की रक्षा करनेवाले अपने संयम के उपकरमा ( मं रपंख को पंछी ) को मानों-द्विगुणित कर रहा था। भावार्थ-उक्त क्षलक जोड़ा मार्ग में प्राणिरक्षा के उद्देश्य से संयमोपकरण ( चारित्रसाधक मयूपिच्छ की पीछी ) धारण किये हुए था। क्योंकि जब मार्ग में स्थित जीव-जन्तु विशेष कोमल मयूरपिच्छ द्वारा प्रतिलेखन-संरक्षण किये जाते हैं तथ उनकी भलीभाँति रक्षा होती है। मयूरपिच्छों द्वारा प्रतिलेखन किये हुए ( सुरक्षित ) प्राणी इसप्रकार सुखी होते है मानों वे पालकी में ही स्थित हुए हैं। क्योंकि मयूरपिच्छ नेत्रों में प्रविष्ट होजाने पर भी उन्हें पीड़ित नहीं करते। अतः जनतत्वदर्शन में साधुपुरुष व क्षुल्लक को संयमोपकरण (मयूरपिच्छ) रखने का विधान है। क्योंकि उसमें मार्दवता, शरीर को धूलि धूसरित न होने देना, सुकोमलता-आदि जीवरक्षोपयोगी पाँच गुण पाये जाते हैं। १, उपमालहार । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये परिगृहीतमहातपश्चरण भारभित्र मन्दमन्दमध्वनि विहितविहारम् अभिमानव्ययभयाद्विभ्यविव पुरषीधिषु निमृसजिद्वान थम् विदादिशमपि लाघनीयशीलैस्तपः पयोधिकल्लोले यसामपि शांसिसचेतसामा चरिखाश्चर्य चिराचमस्कारम्, 47 पाप्राणानां न च हृदयहरिणस्य रतये न ददङ्गानमा करणकरिणोऽस्य मदनात् । ७२ फेरि मुनिषु च खलु स्थिसिरियम् ॥ १२७ ॥ भुवाय येषां न शरीरवृद्धिः चरित्राय च येषु नैष । तेषां वलिस्यं ननु पूर्वकर्मव्यापारमारोहहनाय मन्ये ॥ १२८ ॥ संसार बास्त रबौ कंदतुरसारमप्येनमुशन्ति यस्मात् । तस्मान्निरीहेरपि रक्षणीयः कायः परं मुक्तिसाप्रसूयै ॥ १२९ ॥ इति विश्विभ्सवत् तस्मान्महामुनिस मानन्दित बनदेवता मुख मण्डलागण्डशैलास्त्रिचतुराणि निवर्तमान्यविकान्तम्, प्रकरण में प्रस्तुत क्षुल्लक जोड़ा भी मयूरपिच्छ की पील्छी, जो कि चारित्र रक्षा का साधन है, रखता था । आणिरक्षा के उद्देश्य से मार्ग पर प्रस्थान करता हुआ वह क्षुल्लक जोड़ा ऐसा मालूम पड़ता था— मानों वह अपने शिर पर महान तपश्चर्या का बोझ धारण किये हुए हैं। जिसने नगर के मार्ग पर संचार करते समय अपने जारूपी रथ का संचार रोक रक्खा था, अतः मौनपूर्वक गमन करता हुआ वह ऐसा मालूम पड़ता था मानों वह अपने स्वाभिमान भङ्ग होने के भय से ही भयभीत होरहा था। क्योंकि वचन व्यापार से स्वाभिमान नष्ट होता है, यतः वह भोजनवेला में मोनपूर्वक गमन कर रहा था । अत्यन्त वालक अवस्था से युक्त होने पर भी जिसने अपनी प्रशस्त आचारशाली उपश्चर्या रूप समुद्र-तरकों द्वारा प्रशंसनीय चरित्र के धारक अत्यन्त वृद्ध तपस्वियों के चित्त में आश्चर्य से चमत्कार उत्पन्न किया था । जो निम्नप्रकार विचार करते हुए विहार कर रहा था - ' इस संसार में साधु महापुरुषों की व्याहारप्रण में प्रवृत्ति, न तो प्राणरक्षा के उद्देश्य से, न अपने मनरूपी मृग का पोषण करने के उद्देश्य से होती है, न शारीरिक आठों अङ्गों को बलिष्ट करने के लिये और न इन्द्रियरूप हाथियों के समूह को मदोन्मत बनाने के लिये होती है, किन्तु वे, निर्दोष श्राहार को, कामवासना को जब से उन्मूलन करनेवाले वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकरों द्वारा निरूपित मुक्तिलक्ष्मी की प्राप्ति का उत्कृष्ट उपाय समझ कर निश्चय से उसमें प्रवृत्त होते हैं। भावार्थ - निर्दोष आहार से शरीर रक्षा होती है और उससे मोक्ष प्राप्ति के उपायों में प्रवृत्ति होती है, यही साधु महात्माओं की निर्दोष आहार प्रवृत्ति का मुख्य उद्देश्य है" ।। १२७ ।। जिन मानवों या साधु पुरुषों की शारीरिक वृद्धि श्रुताभ्यास ( शास्त्रों का पठन-पाठन) के उद्देश्य से नहीं है और जिनका भुखाभ्यास, चरित्र संगठन करने के लिए नहीं है, उनकी शारीरिक दृढ़ता ( वलिष्टता) ऐसी प्रतीत होती है मानों - निश्चय से उन्होंने केवल पूर्वजन्म में किये हुये पाप कर्मों के व्यापार का बोझा ढोने के लिये ही उसे प्राप्त किया है ऐसा मैं जानता हूँ" ॥ १२८ ॥ क्योंकि तीर्थकरों ने इस मानव शरीर को असार ( तुच्छ ) होने पर भी संसार समुद्र से पार करने का अद्वितीय (मुख्य) कारण कहा है, अतः दिगम्बर साघु पुरुषों को भी मुक्ति रूपी लता को उत्पन्न करने के लिये निश्चय से इसकी रक्षा करनी चाहिए" || १२६ ॥ उक्त प्रकार चिन्तन करने वाला और प्रस्तुत 'सुनिमनोहर मेखला' नामक छोटे पर्वत से, जहाँ पर महामुनियों से वन देवताओं का मुख कमल प्रफुल्लित किया गया था, दीन चार निवर्तन ( मील वगैरह ) का मार्ग पार करके राजपुर की ओर आहारार्थ गमन कर रहा था, १ – तण चोचं - रजमेदाणमग्रहणं महकुमालदालनं च । अथे हे पंचगुणा तं पडिले परुविन्ति ॥ यशस्तिल को संस्कृत टीका पृ० १३७ से संकलित संपादक ४. उपमालङ्कार व उपजातिछन्द । २. मध्यदीपकालङ्कार । ३. उत्प्रेक्षालङ्कार व उपेन्द्र छन्द । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास आपातदुस्सहेमहापरी रहेखि तपः परीक्षितुमुपासाकारविधिभिर्धर्म प्रणिधिभिरिव प्रतिपक्षभावनाप्रकोपपतीः कर्मभिरिव धर्म,सप्रवः कलिकालतलैरिव प सैस्तदानपनाप सेन महीक्षिता प्रेषितनागरिकानुचरगणैः परिगा परम्पराचरितवस्त्र चीक्षणैः 'आः, कटा स्खलु शरीरिणय सेवया जीवनरेश पुरुषेषु । यस्मात् सस्य पूरे विहरति सम सामान पुंसो धर्मचित्तास्सह करणया याति देशान्तराणि । पापं शापादिय प सनुते मीपणन सायं सेवाकृतेः परमिह परं पातक नास्ति किंचित् ॥१३०॥ सौजन्यमैत्रीकरुणामणीमा व्यर्थ न भृत्यजनः करोति । फलं महीशादपि नैव तस्य यतोऽर्थमेवार्थनिमितमाहुः ॥१३१॥ ऐसा यह क्षुलक जोड़ा राजा मारिदत्त द्वारा मनुष्य-युगल लाने के लिए भेजे हुए ऐसे कोट्टपाल किडरों द्वारा पकड़ा गया, जो भागमन मात्र से उस प्रकार दुःखपूर्वक भी नहीं सहे जाते थे जिसप्रकार क्षुधा व सृषा-मादि परीषह भागमन मात्र से दुःखपूर्वक भी नहीं सहे जाते। जिन्होंने असुर-कुमारों (नारकियों को परस्पर में लड़ाने वाले देवताओं ) सरीखी भयानक आकृति धारण की थी। अतः जो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-प्रस्तुत क्षुल्लक जोचे की तपश्चर्या की परीक्षा हेतु आए हुए राजकीय धर्म सम्बन्धी गुप्तचर ही है। अर्थात-जिसप्रकार राजा के धर्म सम्बन्धी गुप्तचर धर्म की परीक्षा करने के लिए असुरों (वानों) सरीखी रौद्र ( भयानक ) आकृवि धारण करते हैं उसी प्रकार प्रस्तुत कोट्टपाल के नौकरों ने भी सक्त मुलक जोड़े की तपश्चर्या की परीक्षा करने के हेतु भसुराकार (रौद्र-आकृति) धारण की थी। जो ज्ञानावरण आदि को-सरीखे प्रतिपक्ष-भावना से विशेष क्रोध करते थे। अर्थान्-जिलकार शानायरल-बाद में प्रतिपक्ष-भावना श्रामिक भाषना-धर्मध्यानादि) से विशेष ऋध करते हैं (धर्मध्यानादि प्रकट नहीं होने देते ) उसी प्रकार वे भी प्रतिपक्षभावना ( शत्रुता की भावना ) से उत्पन्न हुए विशेष क्रोध से परिपूर्ण थे। वे धर्म का ध्वंस करने में उस प्रकार विशेष शक्तिशाली थे जिस प्रकार पंचमकाल (दुषमाकाल) की सामर्थ्य धर्म के ध्वंस करने में विशेष शक्तिशाली होती है। तदनन्तर (उस क्षुल्लक ओड़े को पकड़ लेने के बाद वे लोग परस्पर एक दूसरे के मुख की ओर देखने लगे और उनका मनरूप समुद्र निम्नप्रकार अनेक प्रकार की संकल्प-विकल्प रूप तरकों द्वारा विशेष चञ्चल हो उठा। उन्होंने पश्चाताप करते हुए विचार किया कि "दुःख है प्राणियों में से मनुष्यों की सेवावृत्ति की जीवन-क्रिया निमय से विशेष निन्दनीय है। क्योंकि सेवावृत्ति करनेवाले मानवों का सत्य गुण समानता के साथ दूर चला जाता है (नष्ट इजाता है) और उनके मन से प्राणिरता रूप धर्म करुणा के साथ दूसरे देशों में कूचकर जाता है-नष्ट हो जाता है। एवं जिस प्रकार महामुनि द्वारा दिया गया शाप सैकड़ों व हजारों गुण बढ़ता चला जाता है ससीप्रकार सेवावृत्ति करनेवालों का पाप भी क्षुद्र कर्मों के साथ-साथ सैकड़ों व हजारों गुणा बढ़ता चला जाता है, इसलिये सेवावृत्ति के समान संसार में कोई महान पाप नहीं है। ॥१३॥ वास्तव में यदि सेवकसमूह, सजनता, मित्रता और जीवदया-आदि अपने गुणरूप भणियों का व्यय न करे वो उसे अपने स्वामी से धन कैसे प्राप्त होसकता है? क्योंकि विद्वानों ने कहा है कि भन खर्च करने से ही धन प्राप्त होता है ॥१३॥ १. काम्यसौन्दर्य-सहोक्त्मतहार + महाकान्ताहन्द । १, परिवृत्ति-अलङ्कार व उपजातिरछन्द । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पसंकल्पकालोलोस्टोक्सान्तसिन्धुमिः, 'सचिम्पान्तर्भवतु मामैवम् । स्थाप्यस्मिन्मत्रादेववर्मणि न प्रायेणालेबासि। यस्मादस्माकमप्याजम्माधर्मकर्मोपनीविनां निसर्गस भायभूलिकानपशाभिनिवेगासेविनामेतानामसात वारसः स्वभावकाठिन्यनिष्ठुरोदर्य हृदयं सत्करोति कि पुन न वस महीपतेविगेकाहस्पतेः प्रत्यैव च विधुरबान्धवस्थितः। सदा पथा स्वामिरासनसम्पधापत्ति न भजेत, पपा पेदं प्राणायाममयामोहिते, सथानुसितामः इत्यभिप्राय: प्रकपपराक्रतुष्टाम्तःकरणैः, मो मिसिलमानोनिस्लिीपरिनिरानतिमिधान मशिनिदान धर्मकया. स्वाधगल मुनिमारमयुगल, एसस्मिनुपासवर्तिनि बने भवामीभवनमतचातुराश्रमगुरुवातमन्त्रमाहात्म्याहारसकुल संभूतस्मफलपलवासंकृतकरशालाबालाइनपााचनमवसोः स्वयमेव स्वयंभुवा भुवनानन्दसपादितदेहसौदर्यरतोरागमनमाकण्य युष्मदर्शनकृतहली शवपि भवन्तौ भाइरविन सदित इत भागम्यताम् इति भावितमि निर्भी, भनीषा समनुष्यागामिव तं भीषणं वेपमीपदुम्मेषेण पक्षुषा निरीक्ष्य , 'सोडस्त्वत्प्रणयादनेग मनला सासदावानल संसाराम्पिनिमनामावपि पिचदानन्दनम् । सस्त्रीरोगमकारणोचितमतेस्स्थतः निषः संगमो यषणापि विषे न तुपसि सवा तत्रापि सजा वयम् ॥ १३३॥ अस्तु ( इसप्रकार सेवावृत्ति महाम् पाप भले ही क्यों न हो) सयापि स्वामी (मारिदास महाराज) की माझा-पालनरूप इस कार्य में हम लोगों को प्रायः करके कष्ट नहीं होसकते। क्योंकि इस क्षुल्लक जोदे के दर्शन-देग से उत्पन्न हुआ करुणारस जब हम लोगों के, जो कि जन्म-पर्यन्त पापकर्म से जीविका करते हैं और जिनका चित्त सोषणकर्म (महान् जीव-हिंसा-श्रादि पापकर्म ) करने के कारण खोटा अभिप्राय रखता है, स्वाभाविक निर्दयता से निष्ठुरता-युक्त हृदय को कोमल बनाता है, तब मान की अधिकता में वृहस्पति सरीखे और दूसरों के दुःखों में स्वभावतः पन्धुजनों की तरह करुणारस से भरे हुए मारिदत्त महाराज के हदय को कोमल नहीं बनायगा ? अपितु अवश्य पनायेगा। अतः ऐसे अवसर पर हम लोगों को ऐसा कार्य करना चाहिए, जिससे स्वामी की आज्ञा का उल्लमान न हो और यह क्षुलक जोदा मी प्राण जाने के भय से भयभीत न होने पावे।' इसप्रकार हृदय से प्रेम करने में तत्पर और निर्दोष-दया-युक्त अन्तःकरण-शाली उन कोहपाल-किकरों ने निम्नप्रकार कहे हुए वचनों द्वारा दूसरों को धोखा देने के प्राइम्बर से परिपूर्ण होकर उस क्षुल्लक जोड़े से निम्नप्रकार वचन कहे तीन लोक को अनौखा मजल ( पापगालन व सुखोत्पादन ) उत्पन्न करनेवाली कीर्तिरूपी गला से पवित्र हुई शारीरिक निधि के धारक, विशुद्ध चरित्रशाली और धर्मकथाओं से व्याप्त हुए काठ से विभूषित ऐसे हे साधुकुमार युगल ! (श्रुष्टक जोड़े: ) इसी समीपवर्ती बगीचे में 'चण्डमारी देवी के मन्दिर में स्थित हुए ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति इन चार आश्रमवासियों के स्वामी मारिवत्त महाराज ने ऐसे बनमाली द्वारा, जिसके कर-कमलों का अङ्गलि-समूह, आपके चरित्ररूप मन्त्र के प्रभाष से खिंचकर भाई हुई समस्त ऋतुओं (हिम, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ऋतुओं) के पुष्पों, फलों व पल्लवों से सुशोभित होरहा था, आप पूज्य महात्माओं का, जो ऐसे अनौखे शारीरिक सौन्दर्य से अलंकृत हैं, जिसे ब्रह्मा ने तीन लोक को आनन्दित करने के लिए स्वयं निर्माण किया था, आगमन सुना है, अतः आपके दर्शन की तीन लालसा-युक्त हुए वे आप दोनों को बामन्त्रित कर रहे हैं, इसलिए यहाँ आइए। इसप्रकार धोखा देनेवाले उन कोरपाल किंकरों द्वारा बलि के निमित्त पकड़े हुए क्षुल्लक जोड़े ने यमराजके नौकरों सरीखे धनका महाभयपुर आकार कुछ उपादे हुए नेत्रों से देखकर निम्न प्रकार वचार कया है विधि ! (हे पूर्वोपार्जित कर्म !) तुम्हारे स्नेहबश इस आत्मा ने वह दुःस्वरूप दावानल सहन किया। अर्थान् पूर्वजन्मों ( यशोधर-आदि की पर्यायों ) मैं षिष-आदि द्वारा मारे जाने-आदि के Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ प्रथम आश्वास अर्थ महामेच निरस्तदोषः कृती करें प्रासपये मम स्यात् । इति व्यपेक्षास्ति न जातु देवे तस्मादल दैन्यपरिग्रहेण ॥ १३३ ॥ हवि ध्यायत. अनायतभसेवनं च तदाराधनतधिषणानामसंशयं सद्दर्शनं तिमिश्यतीति चानुस्मरणस्मेरान्तःकरणम्, सरीरेण प्रतिपद्मतन्मनुष्यमार्गानुसरणम्, तत्र कानने कैश्विष्कृतान्तदंष्ट्राकोटिकुटिएकर बालाला सन्मानसमेपम हिपमयमातङ्गमिवं पतपाणिभिः कैमिस्कीनाश र सनातरछतर वारिधारा जलरुधिर । बले इलास पलाशवेश भयपट कुम्भीरमकरसालकुलीरकमडपा की मकठोर कर प्रयत्नैः कैश्रिन्मृत्युमुखावर्त निभोद्भ्रान्तभ्रमिभ्रमिभीषित भेरुण्डको कोक कुर्कुटकुर र कलहंसग्रहणमितिमाहुभिः कैस्पिरेशपतिपुरमाग निकारिकाण्डमण्डितमरचमूरु (र) हरिहरिणकत्र राहवानर गौर कर कुलितहस्तैरपरैव गमावासप्रवेश परप्रास भयङ्कर दुःख भोगे और संसार समुद्र में डूबने से ( मयूर व कुत्ता आदि की पर्यायों के दुःख भोगने से ) थोड़ा तुम्हें आनन्द पहुँचाया। तत्पश्चात् - ऐसी राज्यलक्ष्मी का भी, जिसका योग्य अभिप्राय तुम्हारी क्रीडाप्राप्ति का हेतु है, त्याग किया। हे विधे ! तथापि अब भी यदि तुम संतुष्ट नहीं होते । श्रर्थात्उक्त दुःखों के सिवाय दूसरे दारुण दुःख देने के इच्छुक हो तो उन अपूर्व दुःखों के भोगने के लिये भी हम सहर्ष तैयार हूँ' || १३२|| अमुक मानव महान, निर्दोष व पुण्यशाली है, इसलिये मेरे मुख का प्रास किस प्रकार होसकता है ? इसप्रकार विचार करने की इच्छा कराल काल नहीं करता । अवसर पर दीनता दिखाने से कोई लाभ नहीं |१३|| अतः ऐसे "कुत्सित देवता के मन्दिर में जाने और उसके दर्शन करने के फलस्वरूप सम्यग्दर्शन की आराधना के कारण स्थिर बुद्धिशाली सम्यग्दृष्टियों का सम्यक्स्व निस्सन्देह, मलिन होता है" इसप्रकार की विचारधारा से जिसका चित्त कुछ विकसित होरहा था और जिसने केवल शरीर मात्र से ( न कि मन से ) कोहपालसेवकों का मार्ग अनुसरण स्वीकार किया था, ऐसा वह भुल कजोड़ा कोटपाल - किङ्करों द्वारा पकड़कर 'महाभैरव' नामक एडमारी देवी के मन्दिर में बलि किये जाने के उद्देश्य से लाया गया । कैसा है वह 'महाभैरव' नामका मन्दिर ? जो वन में स्थित हुआ ऐसे निर्दयी पुरुषों से वेष्टित था, जिनमें कुछ ऐसे थे, जो यमराज की दाद के अमभाग सरीखे कुटिल खन्न को श्रधा निकालने से भयभीत मनवाले मेड़, भैसे, ऊँट, हाथी और घोड़ों को बलि करने के लिए अपने हाथों से पकड़ े हुए थे। और उन ( निर्दयी पुरुषों) में कुछ ऐसे थे, जिनके हाथों का प्रयत्न ( सावधानता ) ऐसे नक, मकर, मैंडक, केकड़े, कछुए और मच्छ-आदि जलजन्तुओं के ग्रहण करने से कठोर ( निर्वृयी ) था, जो कि यमराज की जिह्वासरीखे चञ्चल तलवार-संबधी धारा ( प्रभाग ) जल में स्थित रुधिर का चारों तरफ से आस्वादन करने की विशेष आकाङ्क्षा करनेवाले राक्षसों के प्रवेश के भय से नीचे गिर रहे थे। और उनमें से कुछ ऐसे थे, जिनकी भुजाएँ, ऐसे भेरुण्ड ( महापक्षी ), कुररी गण, चकवे मुर्गे, कुरर ( जलकाक ) और कलहंस ( वतख ) पक्षियों के, जो यमराज की मुखरूप भँवर के सदृश ऊपर घुमाए हुए चक्र के चलने से भयभीत किये गए थे, ग्रहण करने से व्याकु क्षित थीं। और उनमें से कुछ ऐसे थे, जिनके इस्त यमराज के नगर संबंधी मार्ग समान भयङ्कर बाणों द्वारा कुपित व भयभीत किये गए चमरीमृगों, व्याघ्रों, शेरों, मृगों, भेड़ियों, शूकरों, बन्दरों और गोरखुरों ( गधे के आकार पंचेन्द्रिय सम्मूर्च्छन जीवों) से व्याकुलित थे । इसीप्रकार जो 'महाभैरव' नामका मन्दिर उक्त निर्दयी पुरुषों के सिवा दूसरे ऐसे निर्दयी पुरुषों से वेष्टित था। जिनकी भुजाओं में, यमराज के निवासस्थान ( यमपुर ) में प्रविष्ट करानेवाले सरीखे भाले, १, रूपकालङ्कार | २. आक्षेपालङ्कार । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशास्तलकचम्पूकाव्ये पहिसःस्फोट डिभिमः ( दिया) प्लमुराराने कायु शानिधिताल मलविलान्तालजातजन्तजनितभुजप्रयासस्थापि कास्पनीमोग स्वयमासम्मनारम्भासंभवादविहितहिंसाध्यवसागनारप्रामारण्यजन्मसमवायः पनजनैः समस्तं जगत्मजिहीभिः पिनाकपानिपरिजनैरिव परिवृतं महाभैरवं नाम तद्देवतापतनमानिन्ये ।। - लाभ्यां ... भावार्जन्म, बरं चयः, श्व चार्ग परमदशामाघनीयतपश्रणयक्रमः, पर पेय धर्मान्तरायपरम्परायां देवस्य मइती निघ्नना, सायमसाशप्रदेशप्रवेशः' इति ममानुशयस्तिमितातिभ्यामलिलक्षिवलशवलोकिभिरवशाकितहरहारायोयनोसानामदिनामाजन्मजीवनशपः कमलकुवलय कुसमाशिष व स्पर्शयजयामुस्सपिभिबोक्यपावनालेवः पावसयमयूखस्ताविशेषु देहिषु वधानुबन्धिवासि मनस्तमांसीव साक्ष्यद्भ्याम् । उत्सातम्रहो मुनिबालकाम्याम्यहोकि भूपो भवने भवाम्याः। नितम्मबिस्वोत्फणभागिभीमस्तीधरो मध्य स्थापगाया। ॥१३॥ भए - हिंसाध्यबसायाशयमद्धकोधानुबन्धाइमोसाइ: पहिस ( अस्त्र-विशेष ). मूसल. भुपुएिड-गर्जक ( अम्नविशेष ) भिण्डिमाल (गोफण ) और लोधन को आदि लेफर यष्टि, शक्ति, छुरी, गौशादी-आदि गनेक काशिनास निर्मिन रोके गए स्थल-जात (मृग-प्राडि ), जल-जात ( मगर-मरछ-आदि), विलों में पैदा हुए । सर्प-आदि ) जीवों से, प्रयास (दुःख) उत्पन्न कराया गया था। और जो अब भी ( समस्त जीवों के एकत्रीकरण के अबसर में भी) पृथ्वीपति (मारिदस राजा । द्वारा सत्र से प्रथम हिंसा का प्रारंभ नहीं किया गया था, इसीलिए ही जिन्होंने जोनों कर घात कर्म ( अलि नहीं किया था। और जिनमें कल ऐसे निर्दयी पुरुषों के समह थे, जो कि पर्वत. मार, पाम और वृक्षशाली बनों में उत्पन हुए थे। समस्त पृथिवी-भडल का संहार, (नाश) करने के इच्छुक हुए जो श्रीमहादेव के कुटुम्ब वर्ग सरीखे प्रतीत होते थे। "कहाँ तो प्रशस्त राजकुल में हुआ हमारा जन्म और कहाँ हमारी यह सुकुमार अवस्था और कहाँ वृद्धावस्था में धारण करने योग्य प्रशंसनीय तपश्चर्या का प्रारम्भ एवं कहाँ यह भाग्य की गुरूतर-अत्यधिकतत्परता. जो कि तपश्चर्या में वित्र समूह उपस्थित करती है एवं कहाँ यह अयोग्य स्थान पर गमन"। इसमकार की विचारधारा के फलस्वरूप कुछ पश्चाताप करने के कारण मन्द गमन करनेवाले ऐसे क्षुल्लक जोड़े द्वारा, जो ऐसा प्रतीत होरहा था-मानों-समस्त दिशाभों के मण्डल को देखनेवाली अपनी दृष्टियों द्वारा उन प्राणियों के लिए, जो कि देवी की पूजा के निमित्त बलि (घात, फरने के उद्देश्यसे लाये गये थे, आजीवन जीवन-दान देनेपाली कोमल और नीलकमल के पुष्पों सरीस्वी माशिषियों ( मस्तकों पर पुष्पों का निक्षेप रूप आशीर्षादों) को ही प्रदान कर रहा है। इसीप्रकार जो ऐसा मालूम पड़ता था, मानों-अपने घरों के नख-समूह की फैलती हुई ऐसी किरणों द्वारा, जिनके अप्रभाग तीन लोक को पवित्र करनेवाले थे, बलि के निमित्त लाए हुए उन प्राणियों की हृदय संबंधी दीनतात्रों को, जिनमें उनके घात की अवस्थाएँ वर्तमान है, प्रकाशित कर रहे थे। पण्डमारी देवी के 'महाभैरव' नाम के मन्दिर में ऐसा 'मारिवत' राजा देखा गया, जिसने हाथ से तलपार छा रखी थी, इसलिए जो नदी के मध्य में वर्तमान ऐसे पर्वत सरीखा था, जो कि कटनी मंडल (मध्य पार्श्वभाग ) पर फणा उठानेवाले सर्प से भयङ्कर है।" ।।१३४॥ उसका विशेष वर्णन यह है इस मारिदत्त राजा ने जीव-हिंसा संबंधी व्यापार के तुरभिप्राय की क्रियानिपतन से बढ़े हुए तीव क्रोध की निरन्तर प्रवृत्ति से अपने पैर उठाने का उद्यम किया था एवं विशेष रूप से अपने नेत्र चंचल किये थे __ * 'पुष: हाते कः । १. उपमा र समुच्चयालंकार । २. विमाटंकार । ३. यथासंख्योपमालबार । ४. उपमालंकार। ५. अतिशचालकार। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास सिंह व उपलोललोचनः संहाराविष्टः शिपिविष्ट एव भ्रुकुटिभीमः समालो किताशतिघटः सुमट व स्फुरिताधरः, सपत्नलोहितत्रिनिनकामः परशुराम इव शोणशरीरः प्रकटितण्डिाउस्बर: प्रलयकालाम्भोधर इव निर्खिशदुर्दर्शः प्रस्यूतिस्वाम्स: कृतान्त इव भीषणाकारः, क्रौर्यानलस्कुलिङ्गवर्षी जिसैकशितैः पर्यन्तेषु दायादन्यप्तिमिव परिस्फारयन् । 65 कि च । ज्वलन्निवान्तहितेन तेजस्सा सिवोद्रेण विष्टोकिते। काशीविषः १३६ ॥ सा देवता च वंट्राकोटिनिविष्टदृष्टि कुटिलक्ष्य लोकविस्फारित भङ्गोजदभाव भी पशमुखत्रस्यत्रिलोकी पति । सालादोगलोचना नलमिलवाकर छाम्बरप्लष्ट हिष्टपुरश्रयं विजयते यस्याः प्रचयं वपुः ॥ १३६ ॥ - इसलिए वह सिंह- सरीखा प्रतीत होता था । अर्थात् जिसप्रकार सिंह शिकार करने के लिए वीत्र क्रोध पूर्वक अपने पैर पंजे उठाता हुआ नेत्रों का चपल बनाता है उसीप्रकार क्रूर हिंसा -कर्म में तत्पर मारिदस राजा भी जी - हिंसा दुरभिप्रायवश तीत्र-क्रोध पूर्वक अपने पैर उठाते हुए नेत्रों को चपल कर रहा था।" भ्रुकुटिभङ्ग से भयानक प्रतीत होनेवाला राजा मारिदत्त पृथ्वी का प्रलय करनेवाले शिपिविष्ट ( फर्कश शरीर धारक श्री महादेव ) सरीखा मालूम होता था । अर्थात् -जिसप्रकार श्रीमदादेव पृथिवी का प्रलय करने के अभिप्राय के अवसर पर अपनी भ्रुकुटि चढ़ाने से भयङ्कर प्रतीत होते हैं उसीप्रकार प्रस्तुत मारिदन्त राजा भी प्रस्तुत जीव हिंसा के अवसर पर अपनी भौहों को चढ़ाने से भयङ्कर प्रतीत होता था । वह क्रोधवश ओठों को उसप्रकार संचालन करता था जिसप्रकार शत्रु-रचनाको भलीप्रकार देखनेवाला सुभट (सहस्रभट, लक्षभट, और कोटिभट योद्धा वीर पुरुष ) को वश अपने ओष्ठ का संचालन करता है । वह क्रोधवश उसप्रकार रक्त शरीर का धारक था जिसप्रकार मारे हुए शत्रुभूत क्षत्रियों के रक्तप्रवाह में स्नान करने के इच्छुक परशुराम का शरीर क्रोधवश लाल वर्णशाली होता है। जिसप्रकार बिजली-दंड का विस्तार प्रकट करनेवाला प्रलयकालीन मेघ महान् कष्ट से भी देखने के लिए अशक्य होता है उसीप्रकार बद मारिदत्त राजा भी खङ्गधारण करने के फलस्वरूप महान कष्ट से भी देखने के लिए अशक्य था । उसकी आकृति उसप्रकार भयानक थी जिसप्रकार बिन-बाधाओं से व्याप्त मनवाले यमराज जी आकृति भयानक होती है । यह क्रूरता रूपी अभिकणों की दृष्टि सरीखे अपने निरीक्षणों द्वारा सामने दावानल अभि के दीप्तिप्रसारको प्रचुर करता हुआ सरीखा प्रतीत होरहा था । * उसका विशेष वर्णन यह है कि वह मारित राजा आभ्यन्तर (हृदय) में प्रदीप्त हुए प्रताप से जल रहा सरीखा और अपनी तीव्र व क्रूर दृष्टि से जगत को भस्म कर रहा सरहखा एवं अपने प्रचण्ड व्यापार से जगत को भक्षण कर रहा जैसा प्रतीत होरहा था एवं जो आशी विष (दंष्ट्राविष या विचासर्प) समान अत्यन्त भयङ्कर मालूम होता था ।।१३५|| उक्त शुलक जोड़े ने ऐसी चण्डमारी देवी, देखी। जिस देवी का ऐसा अत्यन्त महान् शरीर, अप्रतिहत ( न रुकनेवाले ) व्यापार रूप से वर्तमान है। जिससे तीन लोक के स्वामी ( इन्द्र, चन्द्रव शेषनाग यादि ) इसलिए भयभीत होरहे थे, क्योंकि उसका मुख, दाद के अग्रभाग पर लगी हुई दृष्टि (नेत्र) के कुटिल निरीक्षण से प्रचुर किये हुए ( बढ़े हुए ) भ्रुकुटि भङ्ग ( भोड़ों का चढ़ाना) के आडम्बरपूर्ण अभिप्राय ( समस्त प्राणियों का भक्षणरूप आशय ) से भयानक था । इसीप्रकार जिसके द्वारा ऐसे आकाश में, त्रिपुर वान के तीनों नगर भस्म किये गये थे, जो कि उसके ललाट में उत्पन्न हुए ब प्रकट प्रतीत होनेवाले तीसरे नेत्र की अभि में एकत्रित हुई ज्वालाओं से रौद्र ( भयानक ) था ।।१३६।१ १. उपमालंकार | २. उपमालंकार । ३. उपमालङ्कार ४. उपमालङ्कार । ५. अतिशयालङ्कार । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पस्याब । उत्सर्प दर्पसकुलविकटजटाजूटचिभ्यनिधूनि प्रान्तप्रेस्कपालावलिचलनरणण्टखट्वाङ्गकानि । दैत्यध्वंसप्रमोदो रविधुसकराभोगखर्वतिरीणि स्फाराधाताछियपातोलदुदधिशलान्युद्धसोदेहितानि ॥१३॥ अपि च तस्याः शरीरे मनसि किमिव नैर्धण्यं वयते। यस्याः कपालमालाः शिखण्डमण्टनानि, शवशिशक: श्रवणावतंसाः, प्रमितप्रकोष्ठाः कर्णकुण्डलानि, परेतकीकसमणयः कण्ठभूषगानि, परासुनलरसाः शरीरवशंकानि, गतजीविसकराः करक्रीयाकमलामि, सीधुसिन्धवः संध्याचमनफल्याः, पित्वनानि विहारभमयः, मिताभसितानि पनवसाः, पण्डातकमाईचर्माणि, सारसनं मृतकान्त्रच्छेदाः, प्रनर्तनप्रदेशः संस्थितोर:स्थलानि, कन्दुकविनोदः स्तमोत्तमाङ्क, जलकेलयः शोणिसदीपिकाभिः, निशादलिप्रदीपाः श्मशानकृशानुकीलामिः, प्रत्यवसानोपकरणानि नाशिरःकोटिभिः, महान्ति दोहदानि च सर्वसत्त्वोपहारेण । या व लघीयसी भगिनीव यमस्य, जननीव महाकालस्य, दूतिकेव कृतान्तस्य, सहचरीव कामानिरहस्य, महानसिकीव मातृमय दुलस्य, धात्रीच यातुधानलोकस्य, श्राद्धभूमिरिच पिलपतिपक्षस्य, क्षयराविरिख समस्यजन्तूनाम् , जिसकी ऐसी उद्धत चेष्टाएँ ( वेषभूषा-आदि) थीं, जिनमें ऐसे जटाजूट से चन्द्रमा भयभीत होरहे थे, जो कि विस्तृत और मदोन्मत्त काल-सों से वेष्ठित और विकट था। अर्थात्-प्रकट दिखाई देरहा था अथवा विशेष ऊँचा होने से गगनचुम्बी था। इसीप्रकार जिनमें क्षुद्र घण्टियों वाली खाट की ऐसी तकियाएँ थी, जो शरीर के आगे ( गले पर ) हिलनेसली मुण्डमाला के हिलने से शब्द कर रही थीं एवं जिनमें महिषासुर-आदि के मारने से उत्पन्न हुए हर्ष से उत्कट व कपनेवाले हाथों के विस्तार से पर्वत भप्र-शिखर होने के फलस्वरूप छोटे किये गए थे। इसीप्रकार जिनमें प्रचुर र निष्ठुर प्रहार करनेवाले चरणों के गिरने से समुद्र की जलराशि ऊपर उछल रही थी॥१३॥ विशेष यह कि उस देवी की शारीरिक व मानसिक निर्दयता का वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है? अर्थात्-उसकी निर्दयता असाधारण थी। मुदों को मुण्डश्रेणियाँ जिसके मस्तक के आभूषण हैं। मरे हुए बच्चे जिसके कर्णपूर है। मृतकों के प्रकोष्ठ (विस्तृत हाथ) जिसके कानों के कुपडल हैं। मृतकों की हड़ियाँ रूप मणियाँ जिसके कएठाभरण है। मुर्दो के नलों (पैर की हड्डियों) का रस ( उनसे निकलनेवाला पसला पदार्थ) जिसके शरीर का विलेपन द्रव्य था। मुदों के शुष्क शरीर ही जिसके कर-क्रीड़ा-कमल थे। मद्य के समुद्रही जिसकी संध्याकालीन पाचमनों की कुल्याएँ ( कृत्रिम नदिएँ) थीं। श्मशान भूमियों जिसके क्रीडावन ये। चिता की भस्मपशि जिसके मुख को विभूषित करनेवाले श्राभूषण थे। गीले चमड़े, जिसका लहंगा था। मुदों की आँतों के खण, जिसकी करधोनी थी। मुर्गों की हृदयभूमियों, जिसकी नाट्यभूमि थी। बकरों के मस्तकों से जिसकी कन्दुक-क्रीड़ा होती थी। खून की बावड़ियों से जिसकी जल-क्रीड़ा होती थी। श्मशानभूमि की पिता की अग्नि-ज्वालाओं से जिसके संध्याकालीन दीपक प्रज्वलित होते थे। मुर्दा मनुष्यों के शिर की इड़ियों से जिसके भोजन-पात्र निर्मित हुए थे और समस्त जीवों की बलि (हिंसा) रूप पूजन द्वारा जिसके मनोरथ पूर्ण होते थे। जो यमराज की छोटी बहिन सरीखी, रुद्र की मावा-सी और यमराज की दूती जेसी थी। जो प्रलय-कालीन रुद्र की सखी सरीखी और ब्रह्माणी व इन्द्राणी-श्रादि सप्त प्रकार के मातृ-मण्डल की पापिकासी और राक्षस लोक की उपमाता सरीखी थी। एवं जो यमराज के कर्ण में प्राप्त हुए की श्राद्ध-भूमि सरीखी और समस्त प्राणियों की प्रलय कालीन रात्रि जैसी थी॥ १. अतिशयालंकार । २. समुबमालकार । ३. मालोपमालकार । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्राभास न केवलमसौ नाला चण्डमारीसिं पप्रथे । अत्यत्तित्तचारियडमारोति निश्रुता ॥१८॥ तत्र सकल वलयामृतरुचिरभयरुचिमुनिकुमारस्ताग्वि जनसंबाधमनिधाता देवताकारं नाचनीय 'विशुद्धबोध तप एवं रक्षा मामेवरपयेषु च संपतानाम् । अतः कृतान्तेऽपि समीपवृत्ती मातर्मनी माम्भ निशम् ॥ १६ ॥ जीवस्य सहर्शनरस्नमाजधारित्रयुनस्य समाहितस्य । आसितो त्युरुषपसातः परं पमोदस्य समागमा ॥१०॥ सा मृसियंत्र जन्तूनां पुरो दुःस्त्रपरम्परा। देवस्यास्य पुनक्षिा पुण्यभाजी महोत्सवः ॥१४॥ इति निवेदयन्निव यतो मा कदाचिदस्याः स्त्रैणो भावश्चिान्मनोर यशरमादितमिदं मन्यजन्म रिफलता मादिति कृतानुकम्पनः सकरुणामभषमतेः स्त्रसुर्मुखमत्रासोकिष्ट । यत्रैरपि—पर्याप्तं विरसावसान कटुरुिचावचैन किनां सौस्यमानसःबदाबदहनव्यापारदधात्मभिः । इत्यं स्वर्गसुखावधारणपरैराशास्ते सहिनं यत्रोस्पन्ध मनुष्यजन्मनि मनी मोशाय धास्यामः ॥ १४ ॥ प्रस्तुत देवता केवल नाम मात्र से 'चण्डमारी' रूप से प्रसिद्ध नहीं थी किन्तु अपनी शारीरिक व मानसिक क्रियाओं ( करता-आदि ) से भी चण्डमारी नाम से विख्यात थी ।।१३८ll उस चण्डमारी देवी के मन्दिर में उक्त क्षुल्लक जोड़े में से 'अभयरुचि क्षुल्लक' ने समस्त कुवलय (पृथिषी-मण्डल ) को उसप्रकार आल्हावित (आनन्दित) करते हुए जिसप्रकार चन्द्रमा समस्त कुवलय (चन्द्र विकासी कमल समूह ) को आल्हादित-प्रफुल्लित - करता है, महाभयङ्कर जन-समूह, राजा मारिदत्त और चण्डमारी देवी की मूर्ति देखी। तत्पश्चात्---अपनी बहिन अभयमति क्षल्लिका को निम्नप्रकार योध कराते हुए ही मानों और इसकी स्त्री पर्याय दुःखों से क्षुब्ध होकर किसी अवसर पर, दीर्घकाल से सैकड़ों मनोरथों द्वारा प्राप्त किये हुए इस मनुष्य जन्म को विफलना में न प्राप्त करा देवे' इसलिए उस पर दया का वर्ताव करते हुए उसने दया दृष्टि से उसके मुख की ओर दृष्टिपात किया। "बहिन ! यदि यमराज भी सामने आजाय नथापि अपना चित्त रक्षकहीन मत समझो; क्योंकि संयमी (चारित्र धारक) साधु पुरुषों की सम्यम्ज्ञान पूर्ण तपश्चर्या समस्त ग्रामों व पर्वतों में उनकी रक्षा करती है॥१३९|| हे वहिन ! सम्यग्दर्शन रूप चिन्तामणि रत्न से अलंकत और चारित्र (अहिंसादिवतों का धारण), धर्मध्यान ष शुकभ्यान से सुशोभित आत्मा को प्राप्त हुई मृत्यु केवल प्रशंसनीय ही नहीं है अपित निश्चय से शाश्वत कल्याण को भी उत्पन्न करनेवाली होती हैं ॥१४०॥ प्राणियों की मृत्यु वही है, जिसमें उन्हें भविष्य जीवन में विविध भाँति की दारुग दृश्य-श्रेणी भेगनी पड़े। परन्न पण्यवान पुरुष इस शरीर के छोरने को महान सत्सय ( प ) मानते हैं. क्योंकि उससे उन्हें भविष्य जीवन में शाश्वम सब प्राप्त होता है। ॥१४|| “ऐसे देवताओं के सुखों से, जो कि नीरस (तुच्छ) और अन्त में कटुक (हलाहलविषसरीखे घातक) है। इसीप्रकार जो उत्कृष्ट और निमट है। अर्थात् इन्द्रादि पदों के मुख उत्कृष्ट और किल्विषादि देवों के सुख निकृष्ट हैं तथा जिनका स्वरूप मानसिक दुःस्व रूप दावानल को प्रचलित करने के कारण भस्म (नष्ट ) कर दिया गया है, हम लोगों ( देवों ) का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।" इस प्रकार निश्चय करके स्वर्ग सुखों का त्याग करने में तत्पर हुए देवता लोग भी ऐसे उस दिन को प्राप्त करने की १. समुच्चमालकार। २. रूपकालकार । ३. तथा चोक-मृत्युकल्पमं प्राप्य येनात्माथी न साधितः । निमग्नो जन्मजन्याले सः पवान् किं करिष्यति ॥१॥ संस्कृत टीका पू. १५२ से समुत-सम्पादक अर्थातजिसने मृत्युरूपी कल्पधुक्ष प्राप्त करके आत्म-कल्याण नहीं किया, वह संसार रूप कोचर में फंसा हुआ दाद में क्या कर सकता है ? अपितु कुछ नहीं कर सकता। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूचव्ये जलवापि जन्मे म धर्माय सहते। कलात्मक भूनी विमला भवाराः ॥ १४३ ॥ स्थिरप्रकृतिरभारमतिरपि। तेनैव पर्याप्तमुदारसद स्नेदेन मे सन बस्स । तस्मादेई मयि च साशः पर पदे तत्र मनो मिहि ॥ १४ ॥ सं मोजलक्ष्मीझममीक्षवेद: सीवान तम्मा पमिदं वपुर्ने । अतो मसीतासरायो मुमस्यङ्गनासंगमने यत्तस्व ॥ १४६ ॥ हति विश्तिपरमार्धतयाधीरितमरणभया प्रसाश्वझिरपाले सहजम्मनरदेतसि शोधनविश्वामित्रापचिन्नती सदाननमपश्यत् । लि। देहारते कर्मण्ययं नरः कीजमोऽवनिति भवति । रिसायो कम्पत्रिका नारी तु मध्यमः पुरुषः ॥१४॥ अचलापतिपि स मारि (1) पस: पतीहानिदेशिामनासम्म अनिकमाएकयुगलप विलोकास्कुम्भोजदोरमाचोमाशा व नितरां प्रसलाइ चेतास, विरवा निगम मुमोच मावा बोलयो, जिनैतिभावामाग्महाभाग वनरकमवाप करणे, इण्या करते है. जिस दिन हम लोग (देवता लोग ) मनुष्य जम्म धारण करके समस्त कर्मोके शयरूप मोक्षमार्ग में अपना चित स्थिर करेंगे' ॥१५२।। जो मानव, इस मनुष्य जम्म को प्राप्त करके भी अहिंसा रूप धर्म के पालन करने की सुचारु रूपसे पेटा नही करवा उसके जीव और कर्म के प्रदेशों में दूसरे जन्महप नहर विस्तार पूर्वक उत्पन्न होवे ॥१४॥ ___ पश्चाम् चरित्रपालन में निश्चल स्वभावपाली प परमार्थ (प्रस्वहान ) आनने के फलस्वरूप मृत्यु-भय को निशरण करनेवाली अभयमति भुलिकनी ने अपने सहोपर-भाई (अभयाधि क्षुल्लक ) की मानसिक पीया को दूर करती हुई ही मानों-विशेष प्रसन्नपूर्वक इसके मुख-कमल की ओर देखा। हे विशिष्ट सानी बंधु ! पूर्वजन्म ( चन्द्रमती की पर्याय ) में उत्पन्न हुए स्नेह से मुझे पूर्णता होचुकी है, इसलिए अपने व मेरे शरीर से ममत्व छोड़कर शवम् कल्याण कारक मोक्षपद में अपनी चित्तवृत्ति स्थिर करो' ||४|| क्यों के तुम्हारा शरीर मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करानेवाली तपश्चर्या के योग्य है और स्त्री होने के कारण मेरा यह शरीर मोक्ष-दीक्षा में माननीय नहीं है, अतः मेरे शरीर की चिन्ता छोड़कर | मुखिहप बी के साथ समागम करने में प्रयाको ४ा यधपि शरीरानित क्रियाओं (मोक्षोपयोगी सपश्चर्या-आदि) में पुरुष और सीका मेव मर्यात-पत्नी की अपेक्षा विशेष तपश्चर्या-मादि कर सकता है परन्तु इब के अधीन रहनेवाली क्रियानो (पालना, पारवा, सरलता व शीलधर्म-आदि सद्गुणों) में पुरुष की अपेक्षा नारी में विशेषता है। सीता-मादि की तर विशेष प्रशंसनीय है, जबकि पुरुष रक गुणों में मारी की अपेक्षा मणा ) ॥१४॥ इस भुलक जोड़े के दर्शन से, जिसन पाने व चाबहारपाल द्वारा निवेदन किया गया था, मारित यहा का घिन उसप्रकार अत्यन्त प्रसन्न हुआ जिसमकार अगस्य नामक तारा के उदय से समुद्र प्रसन (वृद्धिंगत ) होजाता है। जिसप्रकार सूर्योदय से भाकाश मलिनता छोड़ देता है उसी घर इसके दर्शन से मारिदस्त राजा के नेत्रों ने कलुपता (मरष्टेि) बोर दी। जिसप्रकार पुण्यवान् पुरुष के रदय में जैनागम के ज्ञान से करुणारस का संचार होता है इसीप्रकार प्रस्तुत क्षुल्लक जो के दर्शन से मारिदत्त राजा की इन्द्रियों में भी करुणारस का संचार हुमा । १. कालबार। 1. पालद्वारा उशामार। ४. जाति-महार। ५. सपचालझार । ६, जाति-अलार। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास ८१ प्रणिधानविशेषान्मुमुक्षुरिव तमस्तिरकारान्तरास्मदिशि । पुनः कोपप्रसादयोरपरनपालक्ष्मी लाघवेत व्यवहारपरिक देदविभ्रमेण लोलासनसंश्रमेणापवार्य सभाभ्यन्तराध्वनि जनसंबाधम् अतीव च मनसि विस्मयमानः प्रकर्षवभिन्न बिन्दुमझरीजविरुपक्ष्म पल्लवः 'कथं नामैतदर्शनादाचान्यामृतमित्र नृशंसायामपि मुदुः प्रशान्तं मे येतः, चक्षुः पुनः कुलिशकीलितमय कथं न विपाभ्यामवगाहते, चिरप्रत्रसितप्रयजनलोकन दिन कम रमन्तदि चित्तमपि चेदं विरायाचरित परिचयमिव कथसतीत्रानन्दथुमन्थरम् किं नु खलु तदेतत्र स्वान्सम भागिनेययमलम्, आचकगं चापरे रेव रेवल नामप्रसिद्धा कुलवृन्दादेवस्य बालकाल एवाश्वयं उपर्यापर्या भवन्ति मानीन्द्रियाण्यपि प्रिषणनेषु प्रायेण प्राखस्तपनतेजांसीव रागोल्वणत्रयसि । यतः । आवाष्पजलपूरितनेषपात्रैः प्रत्यचतै पूर्वमेव ॥ १४॥ जिसप्रकार धर्मध्यान व शुक्लध्यान के माहात्म्य से मोक्षाभिलाषी मुनि का मानसिक अज्ञान नष्ट होजाता है उसीप्रकार उस क्षुल्लक जोड़े के दर्शन के प्रभाव से मारिदत्त राजा का मानसिक अज्ञान नष्ट होगया । तदनन्तर उसे देखकर मन में विशेष आश्रर्य करते हुए उसके पक्ष्म (नेत्रों के रोमान ) रूप पल्लव अत्यन्त आनन्द के अनुपात की क्षरण होनेवालीं विन्दु-वह्नरियों से व्याप्त होगए । तत्पश्चात् उसने ऐसे भ्रुकुटिलता के उत्क्षेप ( चढ़ाना) संबंधी श्रादर से, जिसने कोप और प्रसाद ( प्रसन्नता ) में दूसरे राजाओं की लक्ष्मी का लघुत्व और महत्व - रूप बोलने का ज्ञान करने में तराजू-दण्ड की शोभा तिरस्कृत की है। अर्थात् - जिस भ्रुकुटि उत्क्षेप संबंधी कोप से शत्रुभूत राजाओं की लक्ष्मी लघु (क्षीण) और प्रसाद से मित्र-राजाओं की लक्ष्मी महान होती है ।" सभा के मध्य मार्ग पर वर्तमान सेवक समूह को हटाकर अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया " इस क्षुल्लक जोड़े के दर्शन से मेरा मन, जो कि पूर्व में जीव-हिंसा के दुरभिप्रायवश अत्यन्त कलुषित ( मलिन ) होरहा था, अमृत पान किए हुए सरीखा क्यों चार घार ( विशेष ) शान्त ( क्रूरता रहित-अहिंसक) होगया है । अब मेरा नेत्र-युगल, वाकीलित-सा निश्चल हुआ, इसे छोड़कर दूसरे प्रदेश की ओर क्यों नहीं जाता ? जिसप्रकार चिरकाल से परदेश में गये हुए प्रेमीजन के दर्शन के फलस्वरूप यह आत्मा मन में विशेष आनन्द विभोर हो उठती है उसी प्रकार इसके दर्शन से मेरा हृदय क्यों इतना अधिक आनन्द-विभोर होरहा है? ऐसा प्रतीत होता है-मानों- मेरे हृदय ने इस क्षुल्लक जोड़ से चिरकालीन परिचय प्राप्त कर रक्खा है। इसीलिए यह विशेष उल्लास से मन्दगामी होरहा है। अथवा निश्चय से क्या यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ क्षुल्लक जोड़ा, मेरी बहिन की कुक्षि से साथ-साथ उत्पन्न हुआ भाज-भाजन का जोड़ा तो नहीं है ? क्योंकि मैंने कल या परसों ही 'रेवतक' इस प्रकट नामवाले कुलवृद्ध के मुख से अपने भानेज-भानेजन के जोड़े को बाल्यकाल में दीक्षित होकर आश्चर्य जनक तपश्चर्या करते हुए सुना था। क्योंकि जिसप्रकार प्रातः कालीन सूर्य के तेज (प्रकाश) विशेष अनुरक्त (लालिमा-युक्त ) होजाते हैं उसीप्रकार चक्षुरादिक इन्द्रियाँ भी पूर्व में बिना देखे हुए प्रियजनों (बन्धुओं) को देखकर प्रायः करके अनुराग से उत्कट तारुण्यशाली ( प्रेम-प्रवाह से ओतप्रोत ) होजाती हैं। मनुष्यों के ऐसे हृदय, जिन्होंने अपने नेत्र रूपी वर्तन, जिसे देखकर आनन्द की अश्रु-बिन्दुओं से भरपूर कर लिये हैं, और जो सर्वाङ्गीण हर्ष के रोमाच रूप पुष्प पुत्रञ्ज से जिसकी पूजा करने तत्पर होजाते हैं एवं आनन्द रूप मधुपर्क (दही और घृत आदि) द्वारा जिसका अतिथि सत्कार करने में प्रयत्नशील होजाते हैं, उसे पूर्व में ही (बिना संभाषण किये ही ) अपना प्रिय जन (बन्धु वर्ग ) निश्चय कर लेते हैं ||१४७|| १. मथासंख्य अलंकार । २, रूपकालंकार । ११ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक पम्पूकाव्ये सदस्मान शौड्रोदरि बाह्यमाह्मविलेन बिकल्पजालेन । सक्कयामि तावदेसदाला पोहदादेव हृदयात्राल परि विहिसाब रोड मकानो कम्' [ इत्येवं चिन्तयतिस्म ]1. अवसरे स्वामिनः प्रसारसं मानसमा साया इसरविलासनामकेन वैतालिकेनेदं वृमध्यभागीयतेस्म - 'नाना रिपवो न वापि भवतः कविनिदेशा रश: श्रीदेश तव देव या प्रणयिनी तस्यै न कोपीचयति । भाई टिमश्रममरप्रोशरतधाराजला सुखाव के लिदो पहचरी तख भवान् ॥ २४८ ॥ याचसैमुनिभिः समागमानिसर्गहिलो जनः प्रशाम्यति । आहार्यहिंसामलयः शमोदय भजन्ति यद्देव कुतः ॥ १४९ ॥ सीकरी कम्, अनवतंसमपि लोचन रुचिकुबलिस ८२ ין कर्णम्, अतः जिसप्रकार बौद्धदर्शन का विकल्पजाल | ज्ञान स्वरूप ) इन्द्रियों द्वारा प्रहण किये जाने बाले बाह्य घटपटादिपदार्थों के ज्ञान से शून्य होता है [ क्योंकि बौद्धदर्शन की एक शाखा क्षणिक ज्ञानाद्वैतवादी है, अतः उसके दर्शन में ज्ञान, वाह्य घटपटादि पदार्थ को नहीं जानता ] उसीप्रकार इस अवसर पर प्रस्तुत क्षुल्लक जोड़े के विषय में किया हुआ मेरा संकल्प - वकल्प समूह भी बाह्य पदार्थ (लक जोड़े का परिचय ) के ज्ञान से शून्य होरहा है । अतः उक्तप्रकार के संकल्प-विकल्प-समूह से कोई लाभ नहीं है। इसलिए मैं अपनी हृदय रूपी क्यारी की समीपस्थ भूमि में श्रङ्कारेत हुए उत्कण्ठा रूप वृक्ष को इनके साथ किये जाने वाले संभाषण रूप मनोरथ से फलशाली बनाता हूँ' प्रसङ्ग - प्रस्तुत शुलक जोड़े को देखकर मारिदत्त राजा ने अपने मन में उक्त विचार किया- इसी अवसर पर मारिदत्त राजा का हृदय कमल प्रफुल्लित जानकर 'अवसर विलास' नाम के वैतालिक (स्तुति पाठक) ने निम्नप्रकार दो श्लोक पढ़े- 'हे राजाधिराज ! शत्रु आपके निकटतर नहीं हैं, कोई पुरुष आपकी आज्ञा का उल्कुल नहीं करना. आपको यह राज्य लक्ष्मी आपसे स्नेह प्रकट करनेवाली है और इससे कोई भी ईर्ष्या नहीं करता । इसलिए आप अपनी ऐसी खजयष्टि (तलवार) को जिसका धाराजल, सुष्टि द्वारा दृढ़ता पूर्वक प्रण किये जाने के परिश्रम-भार से ऊपर पहला है, और जो युद्ध कीड़ा में आपकी भुजा की सखी- सरीखी है, छोड़िए । [ क्योंकि अब उससे आपका कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ] २ ॥१४८|| 'हे राजम् । जय स्वभावत: हिंसक पुरुष, करुणा रस से सरस हृदयशाली साधु पुरुषों की सति से शान्त ( दयालु ) होजाते हैं तब दूसरों के संसर्ग यश हिंसा में बुद्धि रखने वाले ( निर्दयी मानव) उनके संसर्ग से दचालु होते हैं. इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अपि तु कोई आश्चर्य नहीं है ॥ १४९ ॥ फिर भी ( उक्त दोनों श्लोकों के पढ़ने के बाद भी ) उक्त वैतालिक ( स्तुतिपाठक ) ने प्रस्तुत ऐसे जोड़े को बड़ी देर तक देखकर निम्नप्रकार एक श्लोक पढ़ाकैसा हूँ यह क्षुक जोड़ा ? अतिशय मनोज्ञ होने के फलस्वरूप जो ऐसा मालूम पड़ता थामानों-चूड़ामणि ( शिरोरल) रूप आभूषण से रहित होता हुआ भी जिसका मस्तक केशों की किरण - समृह रूपी चूड़ामणि आभूषण से विभूषित है। कपूर से रहित होकर के भी, जिसके दोनों श्रोश (कान), नेत्रों की कान्ति से मानों- कुवलयत (चन्द्र विकासी कमल-समूह से अलंकृत) ही थे । रूपकालंकार | २. रूपकाकार | ३. नेपालंकार | Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . T - J.. . - . .. . प्रथम आभास द अनलकारमपि कपोलकान्तिकुण्डलिसमुखमण्ससम् , अनावरणमपि वपुःप्रभापटलदुकूलोत्तरीयम् , अरण्यप्रेम्णा दमन्याजेन कमलर इव भुजउनमना लक्षाराममिवोरुमिषेण कालीकाण्डकाननमित्र चलनलोणाशोकवनमिय च सहानगमानम्, इन्दुष्टगेशाग तिसंपादितमित्र कुन्तलघु, सुरतस्ककप्रसाधितमिवालिकयोः, कामकोदपउकोटिटितमित्र भ्रपु, रमाकरणकोरकी. यमिन नेत्रेषु, सरकारपुछोडिखितमिव पक्ष्मानु, रतिक्रीयाकीरास्त्रलावण्यविहितमिव नामयोः, लक्ष्मीविभ्रमादर्शविनिर्मितमिव कपोखेषु, कीर्तिसरस्वतीविलासदोलतमिव भोत्रेषु, संध्यारुणामतकरखण्डनियंतितमिवाधरसोस्तन्मुनिकुमारकयुगलं विलोक्येदं वृत्तमपाठीर--- 'बालनुमः स्वसूलतोहसिकान्तमूर्तिजातः कथं पथि करालकृशानुवृत्तेः। आः पाप पुष्पार संप्रति कस्ताम्या केली कृते यवनयोस्त्वम् पिक्षितोऽसि ॥ १५० ॥ कर्ण-वे रहित होहीजो खेल शाट होना था-'नों-जिसका मुखमण्डल गालों की कान्तिरूपी सुवर्णमयी कुएडलों से ही व्याप्त है। संधान वस्त्रों से रहित होकरके भी जो मानों-शारीरिक प्रभापटल (कान्ति-समूह, रूपी पट्टदुकूल सम्बन्धी उपरितन वस्त्रों से ही अलंकृत है। जो ऐसा प्रतीत होता था-मानोंवन में प्रेम होने के कारण मनोज्ञ मुख के मिष से कमलवन को साथ ले जारहा है और भुजाओं के बहाने से लताओं के बगाचे को, ऊरुओं। जंघात्रों ) के बहाने से केलों के स्तम्भशाली वन को श्रीर चरणों के मिष से अशोक वन को साथ ही साथ लेजाता हुआ जारहा है। जो, अतिशय मनोश केशों से ऐसा विदित होता थामानों-जिसके केशसमूह, चन्द्र-मृग की नेत्रों की कान्ति से ही रचे गए है । ललाटों की मनोशता से जो ऐसा मालम पड़ता था--मानों-कल्पवृक्ष के पट्टको (तख्तों) से ही रचा गया है। जो भ्रुकुटियों की मनोज्ञता से मानों कामदेव के धनुष के अयभाग से ही रचना भाया है। जो मनोज नेत्रों से मानों - लाल, मधेत और कृष्णवर्ण-शाली रत्नसमूह से ही घाटेत किया गया है। जो मनोहर नेत्र-रोमों से, मानों-कामदेव के बाणों के पुलों ( प्रान्तपत्रों ) से ही निर्मित किया गया हो। जो मनोझ नासिका से ऐसा विदित होता था-मानों-उसकी नासिका, रति के क्रीड़ा करने योग्य शुकों की चचुपुटों की कान्ति से ही रची गई है। जो गालों के सौन्दर्य से ऐसा मालूम पड़ता था, मानों-लक्ष्मी के कीड़ा-दर्पण से ही जिसकी सष्टि हुई है और श्रोत्रों के लावण्य से ऐसा प्रतीत होता था—मानो-कीर्ति और सरस्वती के क्रीडा करने लायक झूलों से ही निर्मित किया गया है। जो लालिमा-शाली ओष्ठों से ऐसा आन पड़ता था-मानों-सन्ध्या-सम्बन्धी पव्यक्त लालिमाषाले चन्द्र-खण्डों से ही निर्मित किया गया है। प्रस्तुत यतालिक द्वारा पठित श्लोकआपकी बहिन रूपी बेलड़ी से उत्पन्न होने के कारण अतिशय मनोझ यह 'अभयरुचि' नाम का पालक रूप वृक्ष भयानक दुःखाग्नि के मध्य में किसप्रकार प्राप्त हुआ ? हे पापी कामदेव ! अब वर्तमान समय में तुम्हारी कीड़ा का निमित्त ( पृथिवी पर ) कौन पुरुष वर्तमान है, जिसके कारण तुम इसके विषय में अनादर-युक्त होरहे हो। अथवा पाठान्तर में यह अभयरुचि रूप वृक्ष, जो कि अभयमतिरूपी शाखा के प्रादुर्भाव से मनोन मूर्ति है, भयानक दुःखानि के मध्य कैसे प्राप्त हुमा ? हे पापी कामदेव ! अब वर्तमान मैं तुम्हारी क्रीडा-निमित्त दूसरा कौन होगा ? जिस कारण तुम ( पक्षान्तर में मारिदत्त राजा) इन दोनों में निरादर-युक्त होरहे हो। अभिप्राय यह है कि जब बी या लता में पुष्प ( पक्षान्तर में शिशु) होते है, उनमें तूने उपेक्षा ( निरादर) कर दी है तब तेरा फोड़ा-कार्य कैसे होगा ? अर्थात्-तेरी पुष्पवाण-क्रीडा किसप्रकार से होगी? ॥१५॥ * 'शिशुलतोद्गति' इति क, ख, ग, घ । 'सुपेक्षिप्तासि' इतिक० । १. उत्प्रेक्षालंकार । २. रूपकालंकार । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये एतच्चासावुपनिशम्य प्रवेष्टहार कटक पानपुरःसरमेताननाम्रुमवलोक्य पुनश्च यः समभ्यणस्कीर्णतयावतीerrकर्णविशेर्णवदनस्य बेतालचक्रस्य प्रतिसंक्रान्त त्रिकटा चक्रवालः स्वधा राजलनिमग्नसन की कसकराल इत्र प्रतिबिम्बिताधान परिहविनोदपरिकल्पितकमलकामन इव, प्रतिमासमागताङ्गारनिभने अनिकरः प्रदर्शितकालोकाशालातर इव पुरुसोदर्शनप्रकाश केशप्रतिशरीर खुर्दशि ककलः प्रचलिता खिलरिपुलाकसन समर्थारानल इत्र, प्रतियानागताभोगनुः समाप्तित्रिपयदक्षरासक्षेत्र इव, अपि च यः स्वस्य स्वामिनो नृपज्ञावसरेषु निजप्रतापार्जनजनितसावित्र्य इव सर्व भुवनप्रचार कुतुति को विं' कुलदेवतास वरपराक्रमप्रसूतिप्रथमप्रजापतिरित्र, दुर्वारविस्पष्टोनगलद्धारादधिरोपहार दुर्ललितवी र लक्ष्मीसमाकमन्त्र इव सक्षम शौर्य सिद्धौषधसाध्यधावशीकरगोपदेश व समुपामशिरद्विषभर व्याजृम्भस्तम्भाविर्भ महासाहस व प्रसिलावनिपालविलासिनी विश्रमभ्रम ८४ प्रस्तुत मावित्त राजा ने उक्त तालिक द्वारा पढ़े हुए उक्त तीनों श्लोक सुनकर भुजाओं के सुवर्णमयी कङ्कणों का प्रदान पूर्वक उसके मुखकमल की ओर दृष्टिपात किया । तत्पश्चात् उसने अपने हस्त पर धारण किये हुए ऐसे को ऐसे से, जो रूपाणी के लिए बन्धनस्तम्भ सरीखा, व लक्ष्मी रूप लता का आलिङ्गन करने के द्देतु वृक्ष-सा है एवं जो कालकाल ( पंचमकाल ) रूप क्षुद्रकीड़ों द्वारा जीर्ण-शीर्ण होनेवाले भूमण्डल रूपी देवमन्दिर का उसप्रकार जीर्णोद्धार करता है जिसप्रकार महान् संभा, जीर्ण-शीर्ण मन्दिर का जीर्णोद्वार करता है। जो याचकों के मनोरथ उसप्रकार पूर्ण करता है जिसप्रकार कल्पवृक्ष याचकों के मनोरथ पूर्ण करता है। जिसके द्वारा शत्रुरूपी पर्वत उसप्रकार चूर-चूर किये जाते थे, जिसप्रकार बिजली के गिरने से पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं और जो पृथिवी मण्डल को कीड़ा कमल सरीखा धारण कर रहा है, निकालकर चण्डमारी देवी के मन्दिर में फेंक दिया और इसके बाद संचालित किये हुए एवं ऊपर उठाए हुए करकमल से यात्रा में पाये हुए समस्त लोगों का कोलाहल निराकरण करनेवाले उसने उस जोड़े को, अपनी तर्जनी अङ्गुलि के इशारे से आज्ञापित समीपवर्ती सेवक द्वारा बिछवाए हुए उत्तराय आसन पर भूले सरीखे हिलनेवाले मार-जड़ित सुवर्ण कुण्डलों की किरण-समूह द्वारा आकाश रूप वर्गीचे को पटवित करने से उत्पन्न हुई मनोज्ञता पूर्वक समय में बढाया । कैसा है बद्द तीक्ष्ण वन? - जिसमें ऐसे बेतालसमूह की, जो निकटवर्ती पाषाण घटित होने से प्रतिविम्बित हुआ था कपर्यन्त चमकते हुए मुख से व्याप्त था, अत्यन्त कुटिलतर दादों की पंक्ति प्रतिबिम्बित हो रही थी, इसलिए जो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों अपने धारारूपी जल में डूबे हुए (पाताल में प्राप्त हुए), शत्रुओं का हयों से ही भयङ्कर प्रतीत होरहा है। जिसमें ओठ चाटनेवाली जिह्वा श्रेणी प्रतिबिम्बित हुई थी, जिससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों - बलात्कार पूर्वक खींची हुई-चाटी पकड़कर लाई हुई - शत्रु-लक्ष्मी के विरह का दूर करने के लिए ही जिसमें कमल-वन रचा गया है। जिसमें अङ्गार- सरीखे नेत्रोंवाले राक्षस-विशेषों का मण्डल प्रतिबिम्ब होरहा था अतः जो ऐसा विदित हो रहा था मानों - शत्रुभूत राजाओं की मृत्यु सूचित करने के हेतु ही जिसमें उल्का जाल (अशुभ तारों) की श्रेणी का विशेष रूप से पतन उत्पन्न हुआ प्रकट किया गया है। जिसकी मूर्ति, बिलावों के नेत्र सरीखी कान्ति-युक्त (अनि ज्याला सरीखे ) केशोंषाले राक्षसों के प्रतिविम्बों से व्याप्त होने के कारण दुःख से भी नहीं देखी जासकती थी, इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता धा-नानी — जिसमें ऐसी विशेष प्रचण्ड जठराग्मि, जो समस्त शत्रु-मण्डल को भक्षण करने में समर्थ हैं, चोपित की गई है। जिसके शरीर में कृष्ण शरीर का विस्तार प्रतिबिम्बित था अतः जो ऐसा प्रतीत होता था मानों -- जिसने शत्रु-घात करने में समर्थ राक्षस-भूमि ही संग्राम-निमित ग्रहण की है'। १. सालंकार । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म वं बाटमधूपधूमाडम्मर इव समायरसभरितार सिमतिमधुकरीमोहनमहौषधिप्रारम्भ हव संभूयोत्साहदुःसहद्विष्टद्विपचाविविशेषभेषजागम इत्र, काय कडपट्टिकाचा र परपरासुताचरितचरमाभिचार इव समनेकमा समानी कर्ततो वितरणदेवताविति मलिविधानं वीरश्रीविभ्रमणनामानमपहसिततान्तरसनालीले करबाल प्रसापट्टिपालानस्थानाललक्ष्मीचा भ्रमशिखरिणः मालिकाष्ठघुल रज्जग प्रासादोभन सम्भादर्श'जनत्रित्रित पदचरणाशनिदण्डाल्कीलकम्मलमित्र कहादुत्सृज्य रुद्राणी पादपीठो दोलायमानमणिकुण्डकिरणजाल एल्कविरागमना रामसुभगमुश्तर लत रोदस्तहस्ता स्तमितस्समस्तयात्रायासजनकोलाहलः प्रदेशिनी निदेश । दिष्टनिकटलाला टिक परिकलपने पुरस्तादुसरीपासने तन्मुनिकुमारफ्युगलमुपावीविशत् । कुषलयं Jthma तदपि तत्पार्थिवाया सपरिकरं तत्रोपविश्य नाश्योः संसारसुखविमुखमावयोरमीषु प्राणेष्वापरेषु वा केचिन्मनीषितेषु कुक्रिस्काचिदपेक्षास्ति, परमन्यत्रै कस्मात्तोनिःश्रेयसात् किस्वात्मनि पुरोभागिन्यपि जने प्रायेण श्रेयसमेत्र चिन्तयन्ति तच्चरितचेतसः । भवन्ति च तथाविधेऽपि तस्मिंस्ते निसर्गादिहामुत्र चाविरुद्ध वर्त्मनि जनितवोपदेवलः । प्रस्तुत खड्ग में विशेषता यह थी जो ( खड्ग ) अपने स्वामी ( मारिदत्त राजा ) को संग्राम-भूमियों पर अपनी भुजाओं द्वारा प्रतापोपार्जन करने में सहायता उत्पन्न करानेवाला सरीखा था। जो ऐसे पराक्रम ( पौरुष ) को, जो कि समस्त लोक में पर्यटन करने का कौतूहल रखनेवाली कीतिरूपी कुलदेवता का मित्र है, उत्पन्न करने में ब्रह्मा के समान था । जो ऐसी वीरलक्ष्मी को, जो दुःख से भी जीतने के लिए अशक्य ( विशेष शक्तिशाली ) शत्रुओं के वक्षःस्थल को विदीर्ण करने पर वहनेवाले प्रयाह-पूर्ण रुधिर की पूजा करने 'आसक्त है, बलात्कार पूर्वक खींचनेवाले मन्त्र - सरीखा है। जो ऐसी पृथिवी को, जो कि समस्त सीन लोक की रक्षा करने में समर्थ शौर्यरूप सिद्धौषधि — रसायन — द्वारा अधीन की जाती है, वश करने के लिए उसप्रकार समर्थ है, जिसप्रकार वशीकरण- आदि मंत्र शत्रु आदि को वश करने में समर्थ होते हैं । जो विस्तृत उत्कटता - शाली व विशेष बलिष्ठ शत्रुरूप सर्पों का विस्तार उसप्रकार कीलित करता है जिसप्रकार कीलित करने वाला मंत्र सर्पों को कीलित कर देता है। जो शत्रु-भूत राजाओं की कमनीय कामिनियों की कुटि नर्तनरूप भौरों को उसप्रकार उड़ा देता है, जिसप्रकार धूप के धुएँ का विस्तार, भौरों को उड़ा देता है। जो संग्राम रस (अनुराग) से परिपूर्ण शत्रुओं की बुद्धिरूपी भ्रमरियों को उसप्रकार मूर्च्छित करता है जिसप्रकार महौषधि का प्रारम्भ ( मूच्छित करनेवाली औषधिविशेष) बुद्धि को मूर्च्छित करती है। जो संग्राम में दुःख से भी सहन करने के लिए अशक्य ( प्रचण्ड ) शत्रुओं की गज श्रेणी को उसप्रकार भगा देने मैं समर्थ है । जसप्रकार अप्रीतिजनक औषधि का आगम ( मंत्रशास्त्र ) शत्रुओं को भगादेने में समर्थ होता है। जो कलिकालरूप लोकापवाद के कारण पापाचारी शत्रुओं की उसप्रकार मृत्यु करता है जिसप्रकार त्कृष्ट (अव्यर्थ ) मरणमन्त्र शत्रुओं की मृत्यु करदेता है। जिसकी पूजाविधि अनेक महासंग्रामों में आनन्दित किये गए संग्राम बताओं द्वारा कीगई है। बीर लक्ष्मी के भ्रुकुटि - विक्षेप को देखने के लिए दर्पण सरीखा होने से जो 'वीरश्री विभ्रम दर्पण' नाम से अलंकृत है और जिसके द्वारा यमराज की जिलाकान्ति तिरस्कृत की गई है। अर्थात् जो यमराज की जिल्हा सरीखा शत्रुओं को मृत्यु-घाट पर पहुँचाता है' । तदनन्तर प्रस्तुत क्षुल्लकजोड़े ने मारिखन्त राजा द्वारा की हुई प्रार्थना से उस आसन पर पर्यङ्कासन बैठते हुए अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया - "यथप सांसारिक एक सुखों से विमुखसि रहनेवाले हम मुमुक्षुओं क शाश्वत् कल्याण कारक मोक्ष पद के सिवाय किसी भी कारण से इन प्राणों पांच न्द्रयका रक्षा करने की व दूसरे किसी भी स्पर्शाद इष्ट विषयों की अभिलाषा नहीं है, तथा पे मोक्षमार्ग में { 1 १. संकरालंकार | Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिक्षकचम्पूकाव्ये भयानमाबादामासाहारीत चेल्कोऽपि जनः बलस्वम् । तथापि समिः प्रियमेव चिन्स्यं न मध्यमामेश्यमृते विष हि ॥१५१॥ सानोनितीसियारीपासोनिनिनिशान कृतबहुमानः संभाषणोत्सुकधिषणः प्रसन्नास:भरण इवोपक्ष्यते, व्यापारपति प प्रकटितप्रणययोरिवाश्योरामबाप्पोल्वणे मुह हुवीक्षणे, तत्पर्याप्तमन्त्रोपेक्षदीयलोकसंमतया पामतया [ सपा हि-] पुरः प्रत्यभूमीषु फलं यदि समीइसे । जगदानन्दनियन्दि वर्ष सूक्तिसुधारसम् ॥ १५३ ॥ इति र सुभाषितमनुस्मृत्य सौरवसज्जं सला स्वर्गापवर्गतरुपलबसंनिकाशं भर्मयावमिविहारपथप्रकाशम् । सरप (स्वयुगर्स सूपमेवमूचे तत्तापसा कयुग प्रचितचोभिः ॥१३॥ सत्र मुनिमार:जांभमानां प्रतिपालयित्रे जगत्त्रपन्नायिपराक्रमाप | बवान देवः स जिनः सदा ते राजमशेशणि मनीषितानि ॥ १६४ ॥ प्रवृत्ति करनेवाले महापुरुष, अपनी और शत्रु-मित्र के शाश्वत् कल्याण की कामना प्रायः अवश्य करते हैं एवं उनें इस लोक व परलोक में पापरहित ( शाश्वत् कल्याण-कारक ) मोक्षमार्ग का उपदेशामृत पान कराते हैं। जिसप्रकार अभूत अनेक बार मथन किया जाने पर भी सदा अमृत ही रहता है, अर्थात् कदापि विष नहीं होता उसीप्रकार सजन पुरुषों को भी किसी मानव द्वारा अज्ञान अथवा द्वेषबुद्धि-यश दुष्टता का बर्वाद किये जाने पर भी उसके साथ सज्जनता का प्रयवहार करना चाहिए -उसकी सदा कल्याण-कामना करनी चाहिए ॥ १५ ॥ प्रकरण में यह मारिदा राजा भी जिसकी बुद्धि सदाचारों (आसन-प्रदानरूप मिनय-आदि भने) के फलस्वरूप प्रशस्त है, जिसने सम्मान पूर्वक आसन प्रदान व विशेष सन्मान किया है और की वृद्धिहम लोगों के साथ चातालाप करने हेतु उत्करिठत है, प्रसमचिस पुरुष-सरीखा विखाई दे रहा है। यह, जिन पर स्नेह प्रकट किया गया है उन सरीखे हम लोगों की ओर आनन्द भश्रुओं से भरे हुए अपने नेत्र बार-बार प्रेरित कर रहा है, इसलिए हमें इसके साथ ऐसे मौन का वाष, जो कि उपेक्षा करने योग्य (अशिष्ट पुरुषों) के साथ अभीष्ट होता है, उचिव प्रतीत नहीं होता। हे जीध ! यदि तुम, स्नेही पुरुषों द्वारा भविष्य में इष्ट फल (सुख-सामग्री ) प्राप्त करना चाहते हो सो उन प्रेम-भूमि (विशेष स्नेही) पुरुषों में ऐसे सूक्त सुधारस (मधुर वचनामृत ) की वृष्टि करो, जो कि समस्त पृथिवी-मंडल के लिए भानन्द की वृष्टि करने पाला है" ।। १५२ ॥ ___ उक्त सुभाषित ( मधुर वचनामृत ) का स्मरण करके उस प्रसिद्ध तपस्वी (सुदत्ताचार्य ) के पुत्रसरीखे शिष्य युगल (प्रस्तुत क्षुल्लक जोड़े)ने अपने ऐसे दोनों करकमल, जो स्वर्ग और मोक्षरूप वृक्षों के पल्स्व-सरीखे हैं और जो दोनों धर्म (मुनिधर्म व श्रावधर्म) रूपी पुथिषी के विहार मार्ग के सहरा है, ऊँचे उठाकर मारिदत्त राजा से निम्न प्रकार कहे जानेवाले स्तुति (भाशीर्वाद ) रूप वचन प्रसिद्ध कविताओं द्वारा अतिशय सौन्दर्य युक्त व लग्नापूर्वक काहे ॥१५३ ।। ___ उक्त अभयरुचि ( भुलक) और अभयमति ( क्षुल्लिका ) नाम के क्षुल्लक जोड़े में से 'अभयरुचि शुलक ने निमप्रकार आशीर्वाव-युत वचनामृत की वर्षा की। हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध भगवान अर्हन्त सहा देव, समस्त वर्ण (प्रामादि) और आश्रम (अमचारी-श्रादि) में स्थित प्रजा के रक्षक और तीन लोक की रक्षा करनेवाले पराक्रम से विभूषित आपके लिए सदा समस्त अभीष्ट ( मनचाही ) वस्तुएँ प्रदान करे' ॥१५४ ।। १. अर्थान्तरन्यास-अलंकार । २, रूपकालबार । १. भतिशयालद्वार । जिम Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाभास अपिकमसाविन्द्रः स्वर्ग भाति सुकृती यस्य परिवामहीभारोबारादहिपतिस्य तिष्ठसि सुखम् । जगजात चैतद्विवयसमयानन्दति परं पिरं शास्त्र तेजस्तदिह जयताद सविधि ॥ १६६ ।। कपूरनुमगर्भधूलिधवल यस्तकामा स्विषः खेतिम्मा परिभूय चन्द्रमहसा साद' प्रतिस्पर्धसे । तस्पाकोन्मुसामाजिकरसलिटबगपावदातं यशः प्रालेयाचलचूलिकासु मखतो गायन्ति सिद्धानाः ॥ १५६ ॥ मातौरि फणीशकामिमि सति त्वं देवि हे रोहिणि श्रीमत्यनमु पारले व सुसनो मा मुशतात्मप्रियान् । नो वेदस्य नृपस्य कीर्ति विसराहलक्षशुद्ध जने युष्मार्क पतयोग्य दुर्बभतरा मन्ये भविष्यम्त्यमी . १६७ ॥ कुवलयदशनीलः कुम्तलाना कापो न भवति यदि गौः शंकरे साश्च पिताः । क्षितिप सब प्रक्षोभिः संभूतायां निमोक्यां साभपरतिवलिः किं तयोः स्शविदानीम् ॥ १५ ॥ हन्दुधालापि कति दलितभुवनत्रयापि तव नृपते । मलिनयति रिपुवना मुखानि यमाय सचित्रम् ॥ १५९ ॥ भुगसमखडाजनितः सपहनकुलकालता प्रयातोऽपि। शुचयति भुषनमखिलं पराक्रमस्ते तदाश्चर्यम् ॥ १६ ॥ सया चवह आश्चर्यजनक शात्र-तेज (क्षत्रिय राजाओं का प्रताप ) इस संसार में चिरकाल पर्यस्त सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रवृत्त हो. अर्थात्-उसे हम नमस्कार करते हैं, जिसके प्रभाष से इन्द्र. स्वर्गलोक में पुण्यशाली व सफल होरहा है एवं जिसके आचरण से शेषनाग. पृथिवी के भार के उद्धार से सुखपूर्वक जाग रहा है। अर्थात् क्षत्रिय राजाओं का प्रताप ही समस्त पृथिवी मंडल का भार वहन करता है, अतः धरणेन्द्र भी पाताल लोक में सुख पूर्वक राज्य करता है। इसीप्रकार जिसके द्वारा निश्चय से पृथिवी-मण्डल की समस्त प्रजा दिग्विजय के समय से लेकर अभी तक वृद्धिंगत होरही है' ११५५॥ हे राजन् । कपूर और सरकाश पके हुए नरियल के जल सरीखी ( शुभ्र ) कान्तिवाली आपकी जगत्प्रसिद्ध कीर्ति अपनी प्रतिमा ( उज्वलता) द्वारा केतकी पुष्पों की कान्ति तिरस्कृत करती हुई पूर्णचन्द्र के तेज से स्पर्द्धा करती है एवं देषियों हिमालय-शिखर पर स्थित हुई आपकी उज्वल कीर्ति का निम्नप्रकार सरस गान कर रही है ।।१५६।। हे जननी पार्वती! हे सती साध्वी देखी पद्मावती: हे देवी रोहणी! हे लक्ष्मी-शालिनी ऐराषवप्रिये ! हे सुन्दर शरीर धारिणी इसिनी! आप सब अपने-अपने पतिदेवों को मत छोड़िए। अन्यथायदि आप अपने पतियों ( श्रीमहादेव ष शेषनाग-आदि) को छोड़ देगी-तो ऐसा मालूम पड़ता है-पानोंजब इस मारिदत्त राजा की कीर्ति-प्रसार से समस्त लोक की शुभ्रता दुर्लक्ष ( दुःख से भी देखने के लिए अशक्य) होजायगी सब आपके पति (श्री महादेव, शेषनाग, चन्द्र, ऐरावत और हंस) इस समय विशेष दुर्लभ ( कठिनाई से भी प्राप्त होने को अशक्य ) होजायगे ॥१५७ हे राजन् ! जब दीन लोक आपकी शुभ्र कीर्ति द्वारा भरे हुए उज्वल होरहे हैं तब यदि पार्वती के केश-पाश नीलकमल पत्र सरीले कृष्ण न होते और श्रीमहादेव की जटाएँ यवि गोरोचन सरीखी पीली न होती तो उन शंकर-पार्वती की वेगशाली संभोग-क्रीड़ा इस समय क्या होसकती थी १५।१५८) हे पृथिवी-पति ! आपकी कीर्ति पूर्ण चन्द्रसरीसी शुभ है और उसके द्वारा समस्त तीन लोक उज्बम (शुभ्र) किये गए है तथापि वह शत्रु-खियों के मुख मलिन करती है, यह बड़े आश्चर्य की बात है"।।१५९।। हे राजन! आपका पराक्रम भुजग-सम-खड्ग-जनिठ अर्थात्-कालसर्प-समान कृष्ण ( काले ) खा से उत्पन्न हुआ है और शत्रुओं के वंश में कृष्णत्व को प्राप्त करता है, तथापि समय पृथिषा-मण्डल को शुभ करता है, यह माश्चर्य-जनक है। यहाँपर यह ध्यान देने १. समुरचय व अतिशयालहार। २, उपमा-अतिरामामबार । . उत्प्रेक्षालद्वार। ४. आक्षेपामदार । ५, उपमालंकार । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यसिसमापूरम्ये भद्रस्त्वमसि रवि पलपलमालानुरजनास्सस्यम् । किंतु यवरातिसामु तमांसि विदधाति सचिनम् ॥१६१. कृष्णपति वैरिवर्ग रजपति सतां ममोसि तव देष । दुजति सहानपि क्यापि अझ यशचरितम् ॥ १६६ ।। मूप त्वमेव माता धुरि कनीयः विहुमहालपि भवेधातिदेव । ब किता यह ते विनिमप्रबंशाः क्षोणीस्तरस्वागास्तु समलवंशाः ॥ १३ ॥ उत्सरवरिषवमुक्नहायोगसंकोचमन्त्र प्रहमोनीकापामाणिसुभासावशेषाहः । मालमोहम्बनिनवमरसतीगीतकीतिप्रशारः कर्म कम्पापुरेष प्रपतु सुचिरं धर्मधामाबोका ॥ १६४ ॥ योग्य है कि जर प्रस्तुत मारिदत्त राजा का पराक्रम सर्प-समान काले खङ्ग से उत्पन्न होने के कारण काला है और उसने शत्रु-वंश में भी कृष्णता प्राप्त की है तब उसके द्वारा समप्र पृथिवी मण्डल का शुभ्र होना निवा: नाराव है। जिस तीन गा), प्रातः सा परिहार यह है कि प्रस्तुत राजा का पराक्रम भुजग-सम खा-जनित (दोनो बाहुओं पर स्थित हुए अवक (सीधा) खा से उत्पन्न हुभा) होकर सपाकुल-कालवां प्रयातः (शत्रु-शों में, मृत्यु उत्पन्न करने वाला) है, इसलिए समस्त पृथिवी मंडल को शुभ्र करता है ||१६०॥ हे राजन् ! भाप उसप्रकार कुवलय ( पृथ्वी भएडल ) व कमला ( लक्ष्मी ) को अनुरजनबासित (धानन्दित ) करने के फलस्वरूप क्रमशः चन्द्र व सूर्य सरीखे हैं, जिसप्रकार चन्द्र कुवलय (चन्द्रविकासी कमल समूह) को ष सूर्य कमलों को अनुब्जित ( विकसित ) करता है यह बात सस्य है किन्तु वैसे झेने पर भी जो शमहलों में अन्धकार उत्पन्न करते हो यह आश्चर्य जनक है। अर्थानमापके पराक्रम द्वारा अनेक शत्रु धराशायी होते हैं, जिसके फलस्वरूप उनके गृहों में अन्धकार-सा छाजाता है ॥ १६१॥ हे पजाधिराज ! आपके यश का स्वरूप शत्रु-मण्डल को कृष्ण वर्णवाला और सजनों के चिस को रत ( लालवर्ण-युक) करता हुआ दुष्टों को मलिन करता है तथापि शुभ्र है। अर्थात्-आपसी कीर्ति शत्रों को स्तानमख, सज्जनों की मानन्दित और वादों को मलिन करती हई शभ्र है।।१२।। हे राजन् ! महापुरुषों में आप ही मुख्यरूप से वर्णन करने योग्य हैं। समुद्र महान होने पर भी लघु ही है, क्योंकि जिन क्षोणीभूतों · पर्वतो) ने उसका आश्रय किया है, वे वि-निमग्नवंशाः ( उनके बांस वृक्ष विशेष स्प से पाताल में चले जाते हैं डूब जाते हैं) जब कि आप का श्राश्रय करने वाले क्षोणीभृत (राजा लोग) समृद्धवंशाः (वंशों-कुलो-को श्रीवृद्धि करनेवाले ) होजाते हैं। ॥ १६३ ॥ यह मारिदत्त महाराज, जो विरोष उत्कट शत्रुमण्डल रूपी सर्प समूह के विस्तार को उसप्रकार कीलित करते हैं, जिसप्रकार कीलिव करनेवाला मन्त्र सर्प-समूह के विस्तार को कोलित करता है। जिसप्रकार मेध भूमि पर अमृत की वेगपूर्ण वर्षा करता है उसोप्रकार मारिखस राजा भी उनके चरणकमलों में नम्रीभूत हुए राजा रूपी कल्पवृक्षों की भूमियों पर अमृत की वेगशाली वर्ण करते हैं। अर्थात्-उन्हें धन-मानादि प्रवान द्वारा सन्तुष्ट करते हैं । एवं समुद्र पर्यन्त पृथिवी के स्वामी होने से जिनका कीर्ति-प्रवाह (पवित्र गुणों की कथन सन्तति ) अत्यन्त निकटवर्ती समुद्र के तट पर वर्तमान पर्वतों पर संचार करने वाली देषियों द्वारा गान किया जाता है। अर्थात् वीणा-आदि बाजों के स्वर-मण्डलों में जमाकर गाया जाता है और जो जीव दया रूप धर्म के रक्षक है, विशेषता के साथ दीर्घकाल तक कल्पान्त काल पर्यन्त जीनेवालेचिरंजीवी होते हुए-ऐश्वर्यशाली होवें ॥ १६४॥ . विरोधाभास-अलहार । ३. यथासंख्यालंकार व श्लेषोपमा । ३. पमुच्चय व अतिशयालगर । ४. दलेपालंकार । ५ रूपकालकार । में कर Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास पुष्पभोगस्य नारद: फरममृतरुचिः पत्बालमोनधा: कल्लोलाः स्कन्धवन्धो हरगिरिरमगम्भोधिरप्यालयालः । कन्दः दोष शाखाः पुनरस्बिालदिंगाभोग एशेष स स्तासी लोक्यप्रीनिहेतुः क्षितिप तत्र यशःपादपोऽनल्पकल्पम् ॥ १६५ ॥ मुनिकमारिकाअन्यायतिमिरनाशन विधुरितजनशरण समनानन्द । नृपवर लमीवश्चम मवतु चिरं धर्मवृद्धिस्ते ॥ १६६ ।। सुरगिरिरमरसिन्धुरम्भोनिधिस्वनिगमूहसारथिः फणिपतिस्मृतरोचिरमराश्च दिणे दश पाक्दम्बरम् । सावदोषभुवनचिन्तामणिचरित परं महोत्सवैस्सवचरितचन्द्र जय जीव विराज चिराय नन्द च ॥ १६ ॥ उपभुज्य यदिशस्त्रे नपुंसकं नमपि यसः सर्वाः । थामुपभोक्तुं यातं तरलिततारां तदाश्चर्यम् ॥ १६८ ॥ रिपुकुलतिमिरनिकरदावानल जगति तनोषि मङ्गलम दिवि भुवि विदिशि दिशि व विबुधार्चित धाम यासि सन्तसम् । भुवनाम्भोजसरसि महसा मत दिशसि विबोधनभियं धर्मविनोद भूप तत्र भानुमसत्र न किंचिदन्तरम् ॥ १९॥ हे राजन! वह जगत्प्रसिद्ध और प्रत्यक्ष किया हुआ आपका ऐसा यशरूप वृक्ष, अनन्तकाल तक तीन जोक के प्राणियों को आनन्दित करने का कारण हो, जिसमें तारा ( नक्षत्र ) रूप पुष्पों की शोभा होरही है। जो चन्द्ररूप फल से फलशाली होरहा है। जो आकाश-गङ्गा की तरङ्ग-समूह रूप पत्तों की शोभा से सुशोभित होता हुआ केलासपर्षत रूप स्कन्ध - तने-से अलङ्कत है और जो क्षीरसमुद्र रूप क्यारी में लगा दशा एवं धरणेनर रूप जड़ से शोभायमान होकर समस्त दिशाओं में विस्तार रूप शाखाओं से मरिडत है ॥ १६५ ॥ तत्पश्चात्-सर्वधी अभयमति-क्षुल्लिकाश्री ने भी प्रस्तुत मारिदत्त राजा को निम्नप्रकार आशीर्वाद दिया --अन्याय (अनीति ) रूप अन्धकार के विध्वंसक, दुःखित प्राणियों की पीड़ा को नष्ट करने में समर्थ, विद्वन्मण्डली को आनन्ददायक, राज्यलक्ष्मी के स्वामी एवं समस्त राजाओं में श्रेष्ठ ऐसे हे राजन् ! आपकी चिरकाल पर्यन्त धर्मवृद्धि हो ॥१६॥ समस्त पृथिवी-मण्डल को चिन्तामणि के समान चिन्तित वस्तु देनेवाले और चन्द्रमा के समान आनन्ददायक ऐसे हे राजन् ! आप निश्चय से संसार में तब तक पाँचों महोत्सवों से सर्वोत्कृष्ट रूप से विराजमान हो, दीर्घायु हों, शोभायमान हो और चिरकाल पर्यन्त समृद्धिशाली हों, जब तक संसार में सुमेरुपर्वत, महानदी गझा, समुद्र, पृथिवी, सूर्य, शेषनाग, चन्द, देवतागण, दशों दिशाएँ और भारमश विद्यमान है ॥१६७। हे राजन् ! आपका यश नपुंसक (नपुंसकलिङ्ग अथश नामर्द) और वृक्ष (वृद्धिंगत अथषा वृद्धावस्था से जीर्ण हुआ), समस्त दिशारूप स्त्रियों का उपभोग ( रति-विलास) करके अतिशय मनोज चञ्चल नेत्रोंवाली स्वर्गलस्मी का उपभोग करने प्राप्त हुआ है, यह बड़े आश्चर्य की बात है ॥१६॥ शत्रु-मण्डल रूप अन्धकार-समूह के विध्वंस करने में अग्नि सरीखे हे मारिवच महाराज ! थाप संसार में कल्याण विस्तारित करते हैं। हे विद्वत्पूज्य राजन् ! आप आकाश, पृथिवीमंडल, विदिशाओं (अभिकोण-श्रादि) व दिशात्रों को निरन्तर प्रकाशित करते हैं। हे महानुभावों के अभीष्ट ! धाप जगत में स्थित शिष्ट पुरुष रूपी कमलयन में विकास लक्ष्मी उत्पन्न करते हो, अतः जीवदया रूप धर्म . में कौतूहल रखनेवाले राजन् ! आपमें और सूर्य में कुछ भी भेद नहीं है। क्योंकि सूर्य अन्धकार नष्ट है' करता हुआ माङ्गलिक है एवं समस्त वस्तु का प्रकाशक होता हुआ कमलवन को प्रफुल्लित करता है, अतः आप और सूर्य समान ही है ॥१६॥ 1. समुच्चय व रूपालहार । ३. कालकार। ३. अत्युत्कर्ष समुच्चयालद्वार । ४, श्लेपालबार । ५, समुच्चय व उपमालकार । १२ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये श्रीरमणीरतिचन्दः कौतिकosreोचन्ह पाक्षिातपत्तिचनश्चिराय वसुधाङ्गनाशचन्द्रः ॥ १७ ॥ शक्षकलत्रोत्रमलिनालेयकालागमः क्षागीरक्षणदक्ष दक्षिगनृपक्रोडावतारक्षमः । राजधर्मविलासवास भवतः कल्पनासमः कामं भाति अगस्त्रये सुरवधूदत्तापात्रक्रमः ।। १७१ ॥ कमानन्दनवनु बारम्भोधिप्रतापगुणविदिते । धर्मसखे विजयश्रीर्वसतु कर तव नृपधुमणे ॥ १७ ॥ पोरभीनहितीप्रबोधनकर धोरस्नाकररत्वं लक्ष्मीकुचकुम्भमनकरत्व स्यागपुष्पाकरः। भदेवीवनिताबिना नकररत्वं लोकरक्षाकरसवं सत्यं जगदेकरामनृपते विद्याविलासाकरः ॥ १३ ॥ घनतालचामरं कापरणकाजी लयाडम्बरं भवार्पितभावमूहचरणन्यासासनानन्दितम् । जलस्पाणिपताकमीक्षणपधानातागहारोस्सर्व नृत्यं च प्रमदारतं च नृपतिस्त्रानं च ते स्तान्मुदे ॥ ६७४ ॥ जो. लक्ष्मी और रमणी (स्त्री) के संभोग हेतु चन्द्र' ( वांछनीब) है, कीर्ति-रूपी वधू के साथ कीड़ा करने में कार्तिकी पौर्णमासी के चन्द्र-सरीखे हैं एवं पृथ्वीरूप स्त्री का शरत्काल-संबंधी मुषर्णमयी आभूषण है। अर्थात्-जिसप्रकार शरत्काल में सुवर्ण-घाटत-आभूषण स्त्री को विशेष सुशोभित मता है. इसीप्रकार मारिदत्त राजा भी पृथ्वीरूपी स्त्री को सुशोभित करते हैं। एवं जो राजाओं को चन्द्र(कपूर ) सरीखे सुगन्धित करनेवाले हैं. ऐसे राजा मारदत्त चिरकाल तक चिरंजीवी हों अथवा सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रवर्तमान हो ||१७।। पृथ्वी-पालन करने में समर्थ व धर्म ( दान-पुण्यादि व धनुष ) के क्रीड़ामन्दिर हे राजन ! आपकी कीर्तिरूपी स्त्री का संभोग, जो कि शत्रुभूत राजाओं की स्त्रियों के नेत्ररूप कमलों को उसप्रकार दग्ध करने में समर्थ है, जिसप्रकार हेमन्त ऋतु कमलों को दग्ध करने में समर्थ होती है, एवं जो अनुकूल राजाओं की क्रीड़ा प्राप्त करने में समर्थ है तथा जिसके चरणों में देषियों द्वारा पूजा-भाजन समर्पण किया गया है, तीन लोक में विशेषता के साथ शोभायमान होरहा है। ॥१७॥ हे सम्राटसूर्य ! आपके ऐसे करकमल पर दिग्विजय लक्ष्मी स्थित हो, जो कमला-जन्दन-चतुर है। अर्थात् लक्ष्मी को आनन्दित करने में निपुण है। अथवा जो कमलानन्दन-चतुर है। अर्थान्जो कामदेव के समान संभोग-क्रीड़ा में चतुर है। जो चारों समुद्रों में प्रताप गुण से विख्यात है। इसीप्रकार जिसका धर्म ( दान-पुण्यादि वा धनुए) ही सखा (मित्र ) है ||१७|| हे राजम् ! आप संसार में अद्वितीय (असहाय) राजा रामचन्द्र है। अर्थान् -पता रामचन्द्र तो अपने सहायक सहोदर लक्ष्मण से साइत थे जब कि श्राप अद्वितीय ( असहाय ) राम हैं। आप वीरलक्ष्मी रूपी कर्मालनी को प्रफुल्लित करने के कारण श्रीसूर्य है एवं धर्मम्प रत्न को उत्पन्न करने के लिए समुद्र है। आप लक्ष्मी के कुचकलशों को पत्र-रचना द्वारा विभूषित करने है और त्याग करने में वसन्त ऋतु है एवं आप पृथिवीदेवी रूपी मनोहर स्त्री के साथ संभोग क्रीड़ा करते हुए लोकों की रक्षा करते है तथा यह सत्य है कि आप विद्याविलास की खानि है ।।१७३|| हे राजन् ! ऐसा नृत्य, खीसंभोग और सभामएप आपको प्रमुदित (हर्षित ) करने के लिए हो । जिसमें ( नृत्य व स्त्रीसंभोग में) केशपाश रूपी चॅमर फम्पित होरहे हैं। जिसमें (सभामण्डप में) हस्तों पर कुन्त ( शत्रविशेष ) धारण करनेवाले पुरुषों के कुन्त संबधी चॅमर सुशोभित हो रहे हैं। प्रथया जिसमें चश्चल बालों १. चन्नः सुधांशुकर्पूरतर्पकम्पियारिषु' काम्ये च इति विश्वः । अर्थान-चन्द्रशब्द, चन्द्रमा, कपूर, सुवर्ण, कवीला पध व जल व काम्य, इटने अर्थों में प्रयोग किया जाता है । २. रुपकालबार । ३. रूपकालंकार । धसने इसका दूसरा अर्थ यह है--समस्य सन्त्रा सत्संवृद्धौ धर्ममख्खे । अथात-धर्म या धनुप के मित्र हे मारिल महाराज | विमर्श-यहाँ बहुहि में समासान्न प्रन्यय नहीं होता, अतः उक अर्थ मे यह अर्थ विशेष मच्छा है--सम्पादक । ४. मकालबार । ५. प्यतिरेषस्पकालार। हामीलदाइम्बरं इति (क)। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास et मुनिकुमारः - 'अनर्थिनः खलु जनस्यामृतमपि निषिच्यमानं प्रायेण परिकल्पते संतापाय जायते चोपदेष्टः पिशाचकिन इवाकृतार्थव्यासः कथाप्रयासः, बाले चॅमर वर्तमान हैं—ढोरे जारहे हैं। जिसमें ( उक्त तीनों नृत्यादि में ) मधुर शब्द करनेवाली करधोनी के लय ( क्रीड़ा-साम्य ) का विस्तार वर्तमान है। जिसमें (नृत्य व स्त्री-संभोग में ) भ्रुकुटि - विक्षेष द्वारा भाव ( ४६ प्रकार का भाव व संभोग-दान संबंधी अभिप्राय ) समर्पण किया गया है और जिसमें ( सभामण्डप में ) भ्रुकुटि - विक्षेप द्वारा कार्य-निवेदन किया गया है। जिसमें ( नृत्यपक्ष में ) निरोह और चरण के आरोपण (स्थापन ) व क्षेपण ( संचालन ) द्वारा दर्शकों के हृदय में उल्लास उत्पन्न किया गया है। जिसमें ( स्त्रीसंभोग पक्ष में ) पुरुष के निरोह और स्त्री के चरणों का न्यास संबंधी ( रतिक्रीड़ोपयोगी ) आसनविशेष द्वारा आनन्द पाया जाता है। जिसमें ( सभामण्डप पक्ष में ) निरोहों व चरणों के ग्यासासन (स्थापनादि ) द्वारा आनन्द पाया जाता है। जिसमें ( नृत्यपक्ष में ) दोनों हस्तरूप ध्वजाएँ नृत्य कर रही हैं और जिसमें ( स्त्रीसंभोग पक्ष में ) हस्त श्रेणीरूप ध्वजाएँ संचालित की जा रही है । जिसमें ( सभामण्डप पक्ष में ) करकमलों पर धारण की हुई ध्वजा फहराई जारही हैं। जिसमें शारीरिक अनों हस्त पादादि ! के विक्षेप ( नृत्यकला-पूर्ण संचालन ) का उल्लास दृष्टिमार्ग पर लाया जारहा है। जिसमें ( स्त्रीसंभोग पक्ष में ) ङ्ग ( रति-विलास के अ ) और मोतियों के हार द्वारा दृष्टिपथ में आनन्द प्राप्त किया गया है एवं जिसमें ( सभामण्डप में ) हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना रूप सैन्य के श्रज्ञ समूह द्वारा हर्ष दृष्टिपथ में प्राप्त किया गया है' || १७४|| पश्चात् सर्वश्री अभयरुचि कुमार ( शुल्लक श्री ) ने मनमें निप्रकार विचार करते हुए राजा मारिका पुनः गुणगान करना प्रारम्भ किया-'ऐसे श्रोता को, जो वक्ता की बात नहीं सुनना चाहता, सुनाए हुए अमृत सरीखे मधुर वचन भी बहुधा क्लेशित करते हैं और साथ में रक्त का कथन करने का कष्ट भी निष्फल - विस्तार वाला होजाता है। निरर्थक बोलने वाला पक्का भूत चढ़े हुए सरीखा निन्य होता है। क्योंकि उसके वचनों से श्रोताओं का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । भावार्थ- नीतिनिष्ठों' ने भी कहा है कि जो वक्ता, उस श्रोता से बातचीत करता है, जो कि उसकी बात नहीं सुनना चाहता, उसकी लोग इसप्रकार निन्दा करते हैं कि इस बक्ता को क्या पिशाच ने जकड़ लिया है ? अथवा क्या इसे वातोषण सन्निपात रोग होगया है ? जिसके फलस्वरूप ही मानों यह निरर्थक प्रलाप कर रहा है। नीतिकार भागुरि ने कहा है कि 'जो बक्ता उसकी बात न सुननेवाले मनुष्य के सामने निरर्थक बोलता है वह मूर्ख है, क्योंकि वह निरसन्वे जंगल में रोता है'। जिसप्रकार अपनी इच्छानुकूल पति को चुननेवाली कन्याएँ, दूसरे को द आने पर ( पिता द्वारा उनकी इच्छा के विरुद्ध दूसरों के साथ विवाही जाने पर ) पिता को तिरस्कृत करती हैं या उसकी हँसी मजाक कराती हैं, उसीप्रकार वक्ता की निरर्थक वाणी भी उसे तिरस्कृत व हास्यास्पद बनाती है " I १. यथासंख्य अलङ्कार | २. तथा च सोमदेवसूरिः -- स खल्ल पिशाचकी बातकी वा यः परेऽनर्बिनि बाचसुद्दीरयति' नीतिवाक्यामृते । ३. तथा च भागुरि-अश्रोतुः पुरतो वाक्यं यो वदेदविचक्षणः । अरण्यरुदितं सोऽत्र कुरुते नात्र संशयः ॥ १ ॥ ४. तथा च सोमदेवसूरिः पतिंवरा इव परार्थाः बल वाचरताश्च निरर्थकं प्रकाश्यमानाः शपयस्यवश्यं जनवितारं । ५.समा वर्ग:- पृथालापं च यः कुर्यात् स पुमान् हास्यतां श्रजेत्। पतिंवरा पिता यद्वदन्यस्यार्थे था [ ददत् ॥१॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । यरास्तिलकरम्पुराव्ये पारिवाजापनकायकोलोरामयोः सूसुभास्सेषु म नृप्यति, स्वस्तमोबहुतेषु प्राणिषु प्रथमतरमेष धर्मोपदेशः मोति महती शिरुमम्पधा, भवति पारधीरणाय वक्तुः, सदेनमभ्यस्तरसप्रसरै बोभिल्लासयामि, भयदिनो हि समय र स्वादुफापोभनमावि दिसतो पुति मन्दानुनमपि भवत्शायस्यामभिमतावासये' स्यबगस्य पुनरपि सममम्तापतिमुपरयितुमप मेपवितरिया : प्रायमरचकितमासकोकेन्द्रः । मलिकालवाधिसेतुर्जयतु सुपः समरपोण्डीरः ॥ १५ ॥ वर्णः ॥ समसमासवाम पकाम कमलालय निखिलमय शौर्यनिगद कदमैकमोहए । भामिणममसमामबल रिकाल अप जीव कामद ॥ १७६ ॥ मात्रा ॥ इति महति मावि विधिमामि निषितस्तु नो पारयामि । वक्तु त्वदीयगुणगरिमधाम सवेशवचनविषयं हि नाम ।। १७७ ।। चतुष्पदी॥ प्रकरण में यह मारिदत पजा, जिनके दर्शन से इसकी तृप्ति का अन्त नहीं हुया, ऐसे हम लोगों भीमपुर बरनामृत की धारा से भव भी सन्तुष्ट नहीं होपाया। [अतः हमसे विशेष सूक्त सुधारसमधुरचनामत का पान करत नाहता है ] गण गानो मन से मदोन्मत्त व अज्ञानियों को सबसे पहले धर्म-क्या सुनाने से उनके मस्तक में शूल ( पीड़ा) उत्पन्न होजाता है, जिसके फलस्वरूप पक्का म भी अनादर होने लगता है। इसलिए मैं इसे अभ्यस्त ( परिचित) शृङ्गार घ वीररस-पूर्ण वचनामृत से माल्हादित करना चाहता हूँ। क्योंकि नीतिनिष्टों ने कहा है कि जिसप्रकार विन्ध्याचल से लाया हुआ हायी मधुर फलों का प्रलोभन देने से वश में हो जाता है, उसीप्रकार धर्मतत्व से अनभिज्ञ श्रोता भी वक्ता द्वारा की जानेवाली उसकी इच्छानुकूल प्रवृत्ति से पका के वश में होजाता है, जिसके परिणाम स्वरूप वक्ता को उससे भविष्य में बाम्छित फल की प्राप्ति होती है।' ___ उक प्रकार निश्चय करके सर्वश्री अभयरुचि कुमार ( क्षुल्लकली ) ने पुनः प्रस्तुत मारिदत्त राजा का पुणगान करना प्रारंभ किया । वर्णनस्तुति 'जो मारिदत्त महाराज शत्रुरूप देस्यों का अभिमान चूर-चूर करनेवाले हैं, जिनके प्रचुर प्रताप से विवापर राजा मयमीत होते हैं एवं जो पंचमकाल-रूपी समुद्र से पार करने के लिए पुलसमान हैं और " बुद्धभूमि में सौण्डीर ( त्याग व पराक्रम से विख्यात है, यह संसार में सर्वोत्कृष्टरूप से विराजमान होवे । अर्थात्- उसकी हम भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं॥१७॥समस्त कल्याणों के धाम (मन्दिर), समस्त जगत की विजय के इच्छुक, लक्मी-निधान, समस्त नीतिशासों के आधार, वीरता का कथन करनेवाले, संग्राम करने का अद्वितीय मनोरथ रखनेवाले, सिद्धान्त में सूचित की हुई अनोखी शक्ति से सम्पन्न, शत्रुओं के लिए यमराज तुल्य अभिलषित वस्तु देनेवाले ऐसे हे राजन्! आप सर्वोत्कृष्ट रूप से वर्तमान होते हुए दीर्घायु हो ॥१७६।। हे पजन् ! आपत्र गुणगरिमारूप तेज, वीर्थकर सर्पक्ष की प्रशस्त पाणी द्वारा ही निरूपण किया बायकता है। आप वर्णाश्रम में वर्तमान समस्त लोक के गुरु होने से महान है: अतः आपका समस्त गुणगान हमारी शक्ति के बाहिर है, इसलिए हम आप का अल्प गुणगान करते हैं॥१७) १. उपमा घर । २. रूपचमहार। * या घामशब्दः स्वभावेन अकारान्तः न तु नान्तः, सता हे विष्ट 'सामान्याम' I.लि. सदि. (क) प्रति से संकलित-सम्पादक। ३. मात्राप्छन्दः । ४. भतिशयालबार । चतुष्पदी । AN Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राधास अप कमलकलश सिमावरण सकलोपमानरुविरचितकरण । यमवरुणधमदशावतार कल्याणविजय संसारसार १८ ॥ एकातपत्रवसुधीचितार संमामलिमिताभुगा । विद्याविनोदसहजानुरागीतिप्रबन्धभूतभुवनभाग ॥ ११ ॥ सत्पुरुपस्वसग्रहणनिम्न गुरुदेवमहामुनिशमितविन्न । निखिलाभितजनकरूपमाभ भामिप्रतिपालनपदमनाम ॥ १८ ॥ रणवीर वैरिकरिकसविनोद शौण्डीरशिखामणिवन्यपाद । गुणयोषमुखरको चण्डारखण्डितपिपुगलनालय॥ ११ ॥ दोर्दण्जलितपरबलगगेन्द्र नियोजशौर्यतोपितसुरेन्द्र । कृतवन्धानर्सतर्ष यसमरमुनपुरकममवर्ष ॥ १८ ॥ निजभुजवलसाधितजगदसाध्य लक्ष्मीकुचनिबिवियाहुमप। दुश्पीडनविषमनेत्र सविनीनशेखरचरित्र ॥ १३ ॥ ____ जो कमल, घट, और वन के चिन्हों से व्याप्त हुए चरण-कमलो से सुशोभित है। जिसके मुख-आदि शारीरिक अवयव समस्त उपमानों (समान-धर्मवाली चन्द्र प कमलादि वस्तुभों) के कान्ति-मण्डल से रचे गए हैं। जो दण्डविधान में यमराज का अवतार, अगम्य (आक्रमण करने के अयोग्य) होने से बरुण के अवतार, याचकों की आशाओं की पूर्ति में कुवेर-सरश और ऐश्वर्य में इन्द्र के अवतार हैं। जिसका दिग्विजय, समस्त प्राणियों के लिए माङ्गलिक ( कल्याण कारक) है और जो संसार में सारभूत ( सर्वश्रेष्ठ ) है, ऐसे हे राजन् ! आप सर्वोत्कर्ष रूप से प्रवृत्त हो॥१७८।। जिसका शरीर एकरछत्र पृथ्वी के शासन-योग्य है, जो युद्ध क्रीड़ा रूपी प्यारी श्री के उपभोग करने में काली मारक , शास संबंधी गुहात में स्वाभाविक मनुराग ( अकृत्रिम स्नेह ) रखते हैं और जो कीर्ति समूह से पृथिवी मण्डल को परिपूर्ण करते हैं, ऐसे हे राजन् ! आप सर्वोत्कर्ष रूप से प्रवृत्ति करें ॥१७६।। जो सजन पुरुष-रूप रनों के स्वीकार करने में तत्पर हैं। जिसके द्वारा गुरुदेवों ( मातापिता व गुरुजन-आदि हितषियों ) और महामुनियों की विघ्न-बाधाओं का निवारण किया गया है। जो समस्त सेवकजनों के मनोरथ पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के सश है और पृथिवी का रक्षण करने में श्रीनारायण-तुल्य है, ऐसे हे राजन् ! आप सर्वोत्कर्ष रूप से प्रवृत्त हों ।। १० ।। जिसने संग्राम में शूरता या पाठान्तर में धीरता दिखानेवाले शत्रुओं के हाथी नष्ट किये हैं। जिसके चरणकमल स्याग और पराक्रम में विख्यात हुए राजाओं के शिखा-भशियों ( शिरोरत्नों) द्वारा नमस्कार करने के योग्य हैं। जिसके द्वारा बोरी की टवार थनि से शम्द करनेवाले धनुष के प्रचण्ड पाणों द्वारा शत्रुषों के कण्ठों के माल-(नलुश्रा-नसें या नाड़ी) समूह अथवा काठरूप-नालों (कमल-उण्डियों) के बन छिम भिम किये गए हैं, ऐसे हे मारिदास महाराज ! आप सर्वोत्कर्ष रूपमें वर्द्धमान हो ॥ १८१ ॥ जिसने बाहुपण द्वारा शत्रुसेना के श्रेष्ठ हायी पूर्ण किये हैं। जिसके द्वारा निष्कपट की हुई शूरता से सौधर्म-आदि स्वर्गों के इन्द्र उल्लासित (आनन्दित ) किये गए है। जिसने शत्रुओं के कबन्धों (शिर-शून्य शरीरों ) के नपाने की सालसा की है जिसके संग्राम के अवसर पर देवताओं द्वारा पुष्प-वृष्टि कीगई है, ऐसे हे राजन् ! भापकी जय हो, अर्थात्-माप सोस्कर्ष रूप से वर्तमान हों ।। १२॥ जिसने अपनी भुजामों (बाहुओं की सामर्थ्य से संसार में असाभ्य (प्रास होने के लिए अशक्य) सुख इस्त-गत (प्राप्त ) किया है। जिसका पकस्थल, लक्ष्मी के कुषों (स्वनो) द्वारा गाद मालिङ्गान किया गया है। जो [शत्रु संबंधी ] दुर्गों (जल, वन व पर्वतादि) और खानियों के पीड़ित ( नष्ट-भ्रष्ट अथक्षा हस्तान्तरित ) करने में नेत्रों की इटिससा धारण करता है। अथवा दुर्गा-करपीडन-विषमनेत्र अर्थात्-जो श्रीपार्वती के साथ बियाह करने में श्रीमहादेष सरीखा है और जिसका चरित्र, समस्त पृथिषी के राजाभों के लिए मुकुट-प्राय (शिरोधार्य) या श्रेष्ठ है।। १३ ॥ * 'धीर' इति का। 'समयमुक्त दि.A-टिप्पण्या व संग्राम इति जिवित । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिल्लकचम्पूकाव्ये अनाधितोपनगीतकर्ण वर्णस्थितिपालन दानकर्ण । कर्णप्रदेशविश्रान्तमयन भयनननृपतिसगावसदन ।। १८४ || सहनश्रितविपमधरोपकण्ठ कण्ठप्रशस्त इतमीतिकृष्ठ । लारीमुखासमोगईस कांट्युवतिसुरसावतंस ॥ १८६ ॥ सन्धीमकडमलकृतविलास चोलीनयनोत्पलवनविकास । पवनीनितम्बनम्बपदविदग्ध मल यसोरतिभरकेलिमुग्ध । वनवासिपोषिदधरामृताई सिंहलमहिलाननतिलकगई ॥ १८६ ॥ पद्धतिका ॥ इसि बुधजनकामः क्रोत्रितरामः सकलभुतपतिरजित | कृसबुधज कामः क्षिसिपतिरामस्स्वमिह चिरंजय त्रिभुत' ॥१८७ ममत्ता। जिसका वर्ण : यश) चारों समुद्रों के तटवर्ती उद्यानों में गाया गया है। जो ब्राह्मणादि वों को स्थिर करने के हेतु उनका पालन करता है। जो सुवर्ण-राशि का दान करने में कर्ण की तुलना करते हैं। जिसके नेत्र कानों के समीप पर्यन्त विश्राम को प्राप्त हुए हैं। प्रथाम्-जो दीर्घ लोचन हैं और नीतिमार्ग से नम्रीभूत हुए राजाओं के सद्धाय (आकुलता) को [ विश्राम देने में ] गृह स्वरूप हैं। अर्धान् नम्रीभूत राजाओं की प्राकुलता-निवारण के हेतु जो आधार भूत हैं ॥ १४ ॥ जो, असाध्य (जीतने के लिए अशक्य) पृथिवी के समीपवर्ती प्रदेशों को [जीतकर अपने गृह में लाया है। अथवा जिसने अपने गृह में स्थित असाध्य शत्रुओं को पर्वतों के समीप [ पहुँचाया है। अथवा टिप्पणी कार* के अभिप्राय से सदनश्रितविषमधरोपकाठ अर्थात्-जो विषमधरा ऊबड़-खाबड़ जमीम) के समीपवर्ती गृहों में स्थित हुए विषम ( असाध्य शत्रु) थे, वे आपके पराक्रम द्वारा ! पर्वत के समीपवर्ती हुए। जो मनोझ कण्ठ से सुशोभित है। जिसने नैतिक कर्तव्यों में कुण्ठित (शिथिल ) हुए ( नीतिसिम्ह पति करनेवाले प दमी में लगाट ! राजा लोग मार दिये हैं, अथवा तीक्ष्ण एंड द्वारा पीड़ित किये हैं। जो लाटी देश ( भृगुकच्छ देश ) की स्त्रियों के मुखकमलो का उसप्रकार संभोग (चुम्बनादि) करता है जिसप्रकार हंसपक्षी कमलों का उपभोग (चर्वण। करता है और जो कर्णाटक देश की युवतियों के साथ रविविलास करने में अवतंस ( कर्णपर) समान श्रेष्ठ है, ऐसे है मारिदत्त महाराज! आप सर्वोत्कर्ष रूप से वर्तमान हो ॥ १५॥ जिसने आन्ध्र (तिलग ) देश की सियों की कुधकलियों के साथ बिलास (कीड़ा) किया है। जिससे चोली ( समङ्ग । देश की कमनीय कामिनियों के नेत्र रूपी नील कमलों के वीच को प्रफुल्लिता प्राप्त हुई है। जिसने यवनी ( खुरासान-देशवी ) रमणीय रमणियों के नितम्बों ( कमर के पृष्ठ भागों) पर किये हुए नखरतों के स्थानों पर क्रीड़ा करने की चतुराई प्राप्त की है और जो मलयाचलवती कमनीय कामिनीयों की विशेष संभोग क्रीड़ा करने में कोमल है। अर्थात् - उनके अभिमायपालन में तत्पर है। जो वनों में निशस करनेवाली रमणियों के मोष्टामृत का पान करने में योग्य है और जो सिंहल (लेका दीप । देश की महिलाओं के मुखों पर तिलक रचना करने के योग्य है, ऐसे हे राजन् ! आपकी सर्वोत्कर्ष रूप से वृद्धि हो ॥ १६ ॥ जो समस्त पृथिवी-मण्डलवर्ती राजाओं द्वारा पूले गए है, अथवा जो उन्हें वश में करने के हेतु समुचित दण्ड की व्यवस्था करते हैं। जो तीन लोक में प्रसिद्ध हैं। जिनसे विद्वानों को अभीष्ट ( मनचाही ) वस्तु मिलती है। जिन्होंने पूर्वोक्त कमनीय कामिनियों का पभोग किया है। जिसने विदूजनों के ज्ञानादि गुणों की कामना (अभिलाषा) की है। अथवा *'सदनानिविषमधरोपण दिपमघराया उपकण्ठे सइने गृहे निता ये विषमास्ते धरे पर्वते श्रिताः। P--उपकष्टः समीपं । इति ह. लि.(क) प्रप्ति से संकलित-सम्पादक १. संकरालंकार र पोशमात्रा-चाली पदतिका इन्द । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आश्वास ६५ मात्रा ॥ तथा मुनिकुमारिकापि 'लक्ष्मीरामानङ्गः सपल कुछ कालविक्रमोतुङ्गः । कीर्तिविलासतमङ्गः प्रतापरङ्गश्चिरं जयतु ॥ १८८ ॥ उस्मारितारिसर्पः शरणागत नृपतिचित्तसंसर्पः । लक्ष्मीललामकूपस्वपतु चिरं नृपतिकन्दर्पः ॥ १८९ ॥ मुत्रनाब्ज सरस्वरगिर्धर्मांतर मिरुयतरुधरणिः । श्रीरमगीरवि सरणिर्मण्डलिक वामणिजात् ॥ १९० ॥ वर्णः ॥ कुपचन्द्र गृपतीन्य लक्ष्मी परकीर्ति सराष्टिपतिबुधवन । आ|| भुवनमभिमानधन चैन जय विहितसदर ॥ १९११ ॥ नृप महति भवति किंचिद्विशमि वक्तु गुणमखिलं नोचरामि । सिमरन यत्र का शक्तिः काचमणेर्हि तत्र ॥ १९२॥ विद्वजनों के गुणों का दरिद्रता रूप रोग नष्ट द्वारा उनकी सेवा करता है और जो राजाओं के चतुष्पदी || कृत' - बुध जनक- अम-अर्थात् जिसने अर्थात जो विद्वानों के लिए धन-प्रदान रामचन्द्र - सरीखे हैं, ऐसे हे राजन् ! आप संसार में दीर्घकाल पर्यन्त चिरंजीवी होते हुए सर्वोत्कर्ष रूपसे प्रवृत्त ह । ॥ १८७ ॥ किया है । मध्य में श्री तत्पश्चात् सर्वश्री अभयमति (क्षुल्लिकाश्री) ने प्रस्तुत राजा का निम्नप्रकार गुणगान करना आरम्भ किया -- ऐसे मारिदत्त राजा, जो प्रताप की प्रवृत्ति के लिए भूमिप्राय, लक्ष्मीरूपी कमनीय कामिनी का उपभोग करने में कामदेव, शत्रु-समूह की मृत्यु करने की सामर्थ्य के कारण उन्नत और कीर्ति के बिलास ( क्रीड़ा ) करने के लिए महल हैं, चिरकाल तक सर्वोत्कर्ष रूप से प्रवृत्त हों अथवा चिरायु हों ||१८|| जो शत्रुरूप सर्पों को भगानेवाले हैं और जिससे शरण में अथवा गृह पर आए हुए शत्रुओं के चित्त सन्तुष्ट होते हैं। जो लक्ष्मी के मस्तक के मध्यदेशवर्ती तिलक सहरा और राजाओं में कामदेव सरराखे हैं, ऐसे राजा मारिदत्त चिरकाल पर्यन्त ऐश्वर्यशाली हो ।। १८९|| जो पृथिवी मण्डल रूप कमल वन को उसप्रकार विकसित करता है जिसप्रकार सूर्य कमल-वन को विकसित करता है। जो धर्म रूप अमृत को उसप्रकार धारण करते हैं जिसप्रकार स्वर्ग अमृत धारण करता है। जो उदय रूप वृक्ष के लिए पृथिवी-समान है। अर्थात् जिसप्रकार पृथिषी वृत को उन्नतिशील करती है उसीप्रकार जो प्रजा की उन्नति करता है। जो लक्ष्मी रूप कमनीय कामिनी के संभोग का मार्ग और माण्डलिक राजाओं का शिखामणि ( शिरोरत्न ) है, ऐसा राजा मारिस चिरंजीवी हो || १९० || जो पृथिवी मण्डलरूप उत्पल समूह ( चन्द्र-विकासी कमल-समूह ) को उसप्रकार विकसित करता है. जिसप्रकार चन्द्रमा, कुवलय ( चन्द्र विकासी कमल समूह को विकसित करता है। जो राजाविराज और श्रीनारायण के अवतार हैं। जिसने कीर्तिरूपी फैलनेवाली अमृतवृष्टि द्वारा विद्वन्मण्डल- रूप बन उल्हासित (आनन्दित ) किया है। जिसका तीन लोक पर्यन्त स्वाभिमान ही धन है । जो धैर्य के मन्दिर और विद्वानों के रक्षक हैं, ऐसे हे राजन् ! आपकी जय हो । अर्थात् आप सर्वोत्कर्ष रूप से वर्तमान हों ॥ १६१ ॥ I हे राजाधिराज ! मैं आप महानुभाव का कुछ थोड़ा गुणगान करती हूँ; क्योंकि मैं आपका समप्र गुणगान करने को पार नहीं पा सकती । हे पृथ्वीपति ! जिस स्थान पर सूर्य का प्रकाश होरहा है, वहाँपर काँच की क्या शक्ति है ? अपि तु कोई शक्ति नहीं । अर्थात् यहाँपर सर्वश्री सुदत्ताचार्य सूर्यस्थानीय व मेरा यह भाई (लक अभयरूचि ) वीप्ति स्थानीय है, इन दोनों के सामने मैं काचमणि सी हूँ ।। १६२॥ 1 * घर' इति क, ग० । ↑ 'विरहसि क ग । 'सुप्रजन' इति ग० || 'आभुषनमहिमानचन' इति क १ – कुतरछेदितो सुत्रजनकामां विद्वज्जनगुणानां अमो रोगो वारिद्रय लक्षणो येन सः तषोकः । कम हिंसायाम् । इति धातोः प्रयोगात् । २- रूपकालंकार व पत्ताछन्द । ३. रूपकालंकार ४. रूपकालंकार ५. चतुष्पदी छन् । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परास्तिसकपम्पूकाव्ये बाल्मीकालापत्र सारस्वतरसनियादपान । पार्मार्थकामसमवृत्तचित्र सीधि मनोरथपति विच १९३ पसीनेवविलासनिरन्मोतपय रणकेलिशान्त रिपुवतिहरपसूरमसविरहामस्वजन्म मणिलील ॥ १९ ॥ विनतीसोन्मोतरिहितधीरामासनिवेश । शरणागतनपतिमनोभिलपितचिन्तामणिनिपुणगुणप्रतीत ॥ १९॥ भुषमन्यवानसौधम्म नीति प्रबन्धभामविज़म्भ । संग्रामरगति'काय वीरश्रीगीतयशाप्रबन्ध ॥ ११६ ॥ कोपि भाति सायामुपैति समवश्वपत्रासां समाति । शौपदीयांप्रतिसपरेन दोर्दण्डदलितारपुफुस्तकरीम् ॥१९७५ बस्तष सेवासु विकारमेति तस्मास्यागेव श्रीरपैति । कस्वां इसत्तिदेव नृपतिरामोधनयमतिः प्रयाति ॥ १९ ॥ सकरेगाताराणानि विपरफममानिमिभूषनानि । हरिकण्ठसमिबितानि विस्करदिविषारीडितानि ॥ भागाकाशमितानि नाम मनु न बाति धाम ॥ ११९ ॥ जिसका छत्र, लक्ष्मी के हस्त पर वर्तमान क्रीडाकमल सरीखा है। जो सरस्वती-संबंधी रस के क्षरण आधारभूत है । अर्थात्-जिससे श्रुतज्ञान रूपी रस प्रवाहित होता है। जिसकी चित्ति धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों के समान रूप से पालन करने में (परस्पर में बाधा न डालती हुई) प्रवृत्त है। जिसका मन धर्मपात्रों ( महामुनि व विद्वन्मएडल-आदि ) और यापकों के मनोरथ पूर्ण करता है, ऐसे हे राजन ! श्राप सर्वोत्कर्ष रूप से वृद्धिंगत हो ॥१९।। जिसप्रकार चन्द्रमा का उदय, चन्द्रकान्त-मणियों से जल प्रवाहित करने में समर्थ है उसीप्रकार जो शत्रुत्रियों के नेत्ररूप चन्द्रकान्त-मणियों के प्रान्तभागों से अश्रुजल प्रवाहित करने में समर्थ है। जिसे संपाम-क्रीड़ाएँ प्यारी हैं। जिसप्रकार सूर्य-किरणों के संसर्ग से सूर्यकान्त-मणियों के पर्वतों से अनि उत्पन्न होती है उसीप्रकार जो शत्रुओं की युवती नियों के हृदयरूप सूर्यकान्तमणियों के पर्वतों से विरह रूप अग्नि को उत्पन्न करने की शोभा से युक्त है ।।१६४|जो नम्रीभूत राजाओं की हृदय-कमल की कणिकाओं में लक्ष्मीरूप स्त्री का प्रवेश करनेवाले हैं। जिसप्रकार चिन्तामणि रत्न अभिलषित वस्तु के प्रदान करने में प्रवीण होने से विख्यात है उसीप्रकार जो दुःख निवारणार्थ शरण में आए हुए राजाओं के अभिलाषित वस्तु के प्रदान करने में प्रवीणता गुण के कारण विख्यात है ॥१६॥। जो तीन लोक को उसप्रकार उज्वल करता है जिसप्रकार पतले ( तरल) चूना-आदि शुभ्र द्रव्यों का घट वस्तुओं को शुद्ध करता है। जिसकी प्रवृत्ति विजनों द्वारा रचे हुए कीर्तिशास्त्र रूपी सूर्य की प्राप्ति के हेतु है। जिसने युद्धाङ्गण में मम (मस्तक रहित-शरीर) नमार हैं और जिसकीर्तिरूप सकवि-रचित शास्त्र वीर लक्ष्मी द्वारागान किया गया है।।१६६|जिसने त्याग और विक्रम की प्रसिद्धि से, विद्याधरों के इन्द्र आश्चर्यान्वित किये है और जिसने बाहुदण्डों द्वारा शत्रुसमूह के श्रेष्ठ हाथियों को जमीन पर पछाड़कर चूर्णित कर दिया है, ऐसे हे राजन् ! जो कोई पुरुष आपके साथ दुष्टता का वर्ताव करता है, वह यमराज के मुखरूपी कोल्हू की अधीनता प्राप्त माता अर्थान्–समें पेला जाने के फलस्वरूप मृत्यु-मुख में प्रविष्ट होता है ।।१९ हे आराधनीय राजन् ! जो राजा श्रापकी सेवा में विकृति (विमुखता) करता है, उसके पास से लक्ष्मी पहिले ही भाग जाती है। आपके साथ युद्ध करने में अपनी बुद्धि को नियन्त्रित (निश्चित करता हुआ जो राजा आप पर आक्रमण करता है, उसकी वृत्ति (जीविका ) नष्ट होजाती है ।।१९।। धैर्य के स्थान हे राजम् ! अहो! मैं ऐसी सम्मावना करती हूँ कि जो आपसे युद्ध करने का इच्छुक है. यह नष्ट जीविका-युक्त मानव, हाथों से अमि के अङ्गार खीचन्य चाहता है, शेषनाग की फणाओं में स्थित हुए मणियों से आभूषण निर्माण करने का इच्छुक है एवं सिंह की गर्दन की केसरों (केश-सटाओं) से चैमरों का निर्माण करके उनसे चॅमर ढोरने की अभिलाषा करता है और दिग्गजों के दाँत रूपी मूसलों से कीड़ा करना चाहता है तथा पुरुष-वाषनक्रम (उछलना या दौड़ना) से भाकारा की मर्यादा प्रमाण करना पाहता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम मावास लक्ष्मीरतिक्षोल प्रणविगह परकीति'वधूमहणाभिषङ्ग । यस्तय परमारीरतिनिवृत्तिमाख्याति यथार्थमसौ म पेन्ति ॥ २० ॥ बघ नासीरोद्धसरेणुरागमजस्किरणो* विरसिसभागः | आभाति पुर्पणममानयिम्बः क्षितिरमणीरतिनिधान । २०१॥ तब सेनाजनसेषिसताम् परिशुष्यद्वारिषु निम्नगासु । करिधावधरणिसमतोचितानि नूनं भवन्ति नृप विस्ततानि ॥२०॥ स्वस्कुलरहयरधभटभरेण सूर्णीकृतदुर्गपरम्परेण 1 रिपुविषयेष्वहितारण्यदाव दुर्गस्वमुमाप्रतिमास्थमेव ॥२०३॥ भक्तोऽम्युधिरोधःकामनेषु विविश्यव्याजपस्थितेषु । सैन्येपु विषतां पर्शनानि संमुखमापानित न गजितानि ॥२०४॥ गृहवाप्यः सलिलधयो मृचन्द्र कुलशैला: केलिमगा नरेन्द्र । लहादिद्वीपविधिः समर्थभूतः प्रतिषेशनिभः कृतार्थ ॥२०॥ भावार्थ-जिस प्रकार अङ्गार-आकर्षण-आदि उक्त बातें असम्भव य महाकष्ट-प्रद हैं उसीप्रकार महाप्रतापी मारिदत्त राजा से युद्ध की कामना करना भी असम्भव व कष्टदायक है।॥१९९॥ लक्ष्मी के साथ भोग करने में लम्पट, गङ्गादेषी नाम की पट्टरानी से विभूषित और शत्रुओं की कीर्तिरूपी वधू के स्वीकार करने में आसक्त ऐसे हे राजन् ! जो विद्वान्, तुम्हें परस्त्री के साथ रति-विलास करने से निवृत्त (त्यागी) कहता है, यह विद्वान् यथार्थ रहस्य नहीं जानता। क्योंकि आप निम्नप्रकार से परस्त्री के साथ रति विलास करने वाले हो । उदाहरणार्थश्राप लक्ष्मी ( श्रीनारायण की पत्नी ) का उपभोग करने में लम्पट हो और गङ्गा (शान्तनु की स्त्री और श्री महादेव की रखैली प्रिया) के साथ प्रेम करते हो। इसीप्रकार शत्रु कीर्तिरूपी वधू में भी आसक्त हो। ऐसी परिस्थिति में भी जो विद्वान आपको परस्त्री का भाई कहता है, वह यथार्थ रहस्य नहीं आनता' ।२०।। पृथ्वी-रूपी स्त्री के संभोग-मन्दिर ऐसे हे राजन् ! आपकी नासीर ( प्रमुखसेना) की. उछलती हुई धूलि के राग ( लालिमा ) के कारण डूबती हुई किरणों घाला सूर्य मलिन बिम्बशाली होता हुश्रा राँगे के दर्पण सरीखे मण्डलबाला होकर विद्वानों के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करता है ॥२०१॥ हे राजन ! जिनके वटों पर आपकी सेनाओं का समूह निवास कर रहा है और जिनकी जलराशि सूख गई है, ऐसी गङ्गा, - यमुना व सरयू-आदि नदियों के विस्तार निश्चय से हाथियों की दमन-भूमियों की समानता के योग्य होये हैं।।२२।। शत्रुरूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल अग्नि सरीखे हे राजन् ! आपके ऐसे सेना-समूह से, जिसमें हाथी, घोड़े, रथ और सहसमट, लक्षभट, और कोदिभट पैदल योद्धा वीर पुरुष वर्तमान है, और जिसके द्वारा शत्रु देशों की दुर्गपरम्परा (किलाओं की श्रेणी) छिन्न-भिन्न ( चूर चूर ) कर दीगई है, शत्रु-देशों में दुगों ( किलो ) का नाम मात्र (चिन्हमात्र ) भी नहीं रहा, इसलिए भव तो उन ( शत्रु पेशों) में दुर्गत्व ( दुर्गादेवीपन प किलापन ) केवल पार्वती परमेश्वरी की मूर्ति में ही स्थित होगया है । २०३ ।। हे राजन् ! जब आपकी सेनाओं ने समुद्र के तटवर्सी वनों में दिग्विजय के बहाने से प्रस्थान किया तब उनके सामने, शत्रु द्वारा भेजे हुए उपहार (रत्न, रेशमी वसा, हाथी, घोड़े और स्त्रीरत्न-प्रापि उत्कृष्ट वस्तुओं की भेट ) प्राप्त हुए न कि शत्रुओं की गर्जना ध्वनियाँ प्राप्त हुई ।। २०४ ॥ मनुष्यों में पन्द्र, कृतकृत्य अथवा पुण्य संपादन करने का प्रयोजन रखने वाले, पृथिवी के स्वामी, उदारता, शौण्डीर्य (त्याग व विक्रम ), गाम्भीर्य व वीर्य-आदि प्रशस्त गुणों से परिपूर्ण ऐसे हे राजाधिराज! जिस पापका इस प्रकार से माहात्म्य वर्तमान है, सब आप को संसार में. कौनसी वस्तु असाध्य (अप्राप्य ) है? अर्थात् कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है-सभी पदार्थ प्राप्त होसकते हैं। आपके माहात्म्य के फलस्वरूप समुद्र, गृह की पावड़ियाँ या सरोषर होरहे हैं। हिमवान, सम और विन्ध्याचल-श्रादि कुलाचल मापके क्रीडापर्वत होरहे हैं। मका 'रविरमितभाग' इति क. || A टिप्पणी-अमितं मपर्यन्त-मर्यादारहितं भाग्यं पुण्यं यस्य तत्संबोधनं । 1. निन्दास्तुति-अलंकार । विमर्श-जहाँपर शम्मी से निन्दा प्रतीत होती हो. परन्तु पर्यवसान-कलितार्थ में स्तुति प्रतीत हो उसे मिन्दास्तुति अलंकार कहते हैं। सेनामुखं तु नासौरमित्यमरः । २. देव-परिसंख्या अलंकार । ३. दीपकालंकार । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूचल्ये दिम्भिस्तम्माः सोभत्र पस्प बाताः प्रभास्सिपहा अपस्य । यस्ोत्यं तब महिमा महीन किसायं तस्य गुणैरहीन ।। ३०६॥ गनिजहीहि भोजावनीश चेदीश विमारमयशं प्रदेशम् । अरमन्तक पेश्म विहाय याहि पालय लघु लीरसमपहि ॥१०७॥ चोदेन अभिमुलय सिट पाण्य स्मपमुग्स इतप्रतिछ । वैरम पर्पट मलयोएकाठमागत नो वेत् पादपीठम् ।।२०८॥ सिस्य निभवितुमाशु सदसि सब तो देव वचसि । कयिते सति स क्षितिपः किमस्ति य: सेवाविधिधु न ते चकास्ति ॥२०॥ केरळमहिलामुखम्मस वडीयनिसाश्रवगावसंस । पोलखीकुचक्रब्बालविनोव पासवरमणीकृतविरहखेद ॥२१॥ अम्मरकान्तालक भानिस्त भरूयाङ्गमाङ्गनखदाननिरत । वनवासिनोविदीक्षगविमुग्ध कोट्युवति तत्रविदाध । कुरुवालललनाकुचसनुन कम्बोजपुरन्ध्रीसिककपत्र ॥११॥ परसिका । पादि द्वीप जो कि महाशक्तिशाली और विषम स्थान है, [अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से लकादि दीपों की रचना. जो कि दूरवर्ती है ] आपके समीपवर्ती गृह-सरीखे होरहे हैं और दिग्गजों के बन्धनस्तम्भ श्रापकी विजय के. जो कि लक्ष्मी से उन्नतिशील है, प्रशस्ति-पट्ट ( प्रसिद्धि सूचक पाषाणविशेष ) होचुके है' २.५-२-६।। "पृथिवी-पनि हे भोज! तुम व्यर्थ की गल-गर्जना (संप्राम-धीरता ) छोड़ो। हे चेदीश (कण्डिनपुर के अधिपति ) ! तुम पर्वत-संबंधी भूमि में प्रविष्ट होजाओ। हे अश्मन्तक ( सपादलक्षपर्वत के निवासी ) : तुम गृह छोड़कर प्रस्थान करो। हे पल्लव ( पश्चद्रामिल)! तुम क्रीडा-रस को शीघ्र छोड़ो। हे चोलेश । दक्षिणापथ में वर्तमान देश के स्वामी ) अथवा (गङ्गापुर के स्वामी)! तुम पूर्वसमुद्र का बलबन करके दूसरे किनारे पर जाकर स्थित होजाओ। प्रतिष्ठाहीन हे पाण्ड्य (दक्षिण देश के स्वामी ) ! तुम गर्व छोड़ो। हे वरम ( दक्षिणापथ के स्वामी)! तुम मलयाचल पर्वत के समीप भाग आओ। ऊपर कहे हुए आप सब लोग यदि ऐसा नहीं करना चाहते । अर्थात् सम्राट मारिदत्त द्वारा भेजे हुए उक्त संदेश का पालन नहीं करना चाहते तो शीघ्र ही मारिदत्त महाराज के सिंहासन की सेवा करने के लिए उसकी सभा में उपस्थित होजाओ"हे देव (राजन् ) ! अब आपके दूतों द्वारा उक्त प्रकार के षचन उक्त राजाओं की सभा में विशेषता के साथ कहे गए, तब क्या कोई राजा ऐसा है? जो आपके चरणकमलों की सेवाविधि में जाप्रत नहो? अर्थात्-समस्त राज-समूह आपकी सेवा में तत्पर है ॥२०७-२०६|| केरलदेश (अयोध्यापुरी का दक्षिणदिशावर्ती देश) की स्त्रियों के मुखकमलों को उसप्रकार विकसित ( उल्हासित ) करनेवाले जिसप्रकार सूर्य, कमलों को विकसित (प्रफुल्लित ) करता है। बीदेश (अयोध्या का पूर्यदिशा-वर्ती वेश ) की कमनीय कामिनियों के कानों को उसप्रकार विभूषित करनेपाले जिसप्रकार कर्णपूर ( कर्णाभूषण ) कानों को विभूषित करता है। चोलदेश ( अयोध्या की दक्षिण दिशा संबंधी देश) की रमणियों के कुच (स्तन) रूपी फूलों की अधखिली कलियों से क्रीड़ाकरनेवाले, पल्ल्यदेश (पञ्च द्वामिलदेश) की रमणियों के षियोग दुःख को उत्पन्न करनेवाले, कुम्सलदेश (पूर्वदेश) की सियों के केशों के विरलीकरण में तत्पर, मलयाचल की कमनीय कामिनियों के शरीर में नखक्षत करने में तत्पर, पर्वत संबंधी नगरों की रमणियों के दर्शन करने में विशेष उत्कण्ठित, कर्नाटक देशको त्रियों को फफ्ट के साथ आलिङ्गन करने में चतुर, हस्तिनापुर की सियों के कुच-कलशों को उसप्रकार आच्छादित करनेवाले जिसप्रकार कचुक ( अम्फर-आदि घन विशेष ) कुचकलशों को आच्छादित करता है, ऐसे हे राजन् ! आप काश्मीर देश की कमनीय कामिनियों के मस्तकों को कुचाम-तिलक रूप आभूषणों से विभूषित करते है॥२१०-२११५॥ मतभरत इति.। ।-टिप्पणी-नर्तने १. आज्ञेपालकार । २. आक्षेपालद्वार। ३. रूपकालंकार व पोकश ( १६) मात्राशाली पद्धतिका छन् । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम आवास पापीश्वर भूरमणीश्वर यदिदमलिगुण्य। उक्तं किचित्त्वत्स्तुतकृतिविधि न महोदय ॥ २१२ ॥ एता ॥ रिविरामन्दिर सुन्दरेन्द्र *श्रीराजन् मलैर्नरेवैः । स्टोऽसि दृष्टाः क्षिपि शितीशः कामैर्न केरुत्सवकारिभिस्ते ॥ २१३ ॥ इस्तागतैस्त्रिदिवलोकगमैस्तस्मान्तरालनिरतैश्च सपसजातैः । ९९ जगत्रयपुरीप्रथिने तदेह को नाम विक्रमपराक्रमवा निहास्तु ॥ २१४॥ सोऽपि राजा तयोरेवमभिनन्दतोचि वपुषि चानभ्यजनसाधारण मधुरतां निर्वर्ण्य 'स्वेदं करतलस्पर्शेनापि हासौकुमार्य वपुः क चायं वयःपरिणामकठोरोरपि महासत्राधिरोनियमका स्थारम्भस्तपः प्रारम्भः क्वेमानि पद निवेदन पशुमानि कल्लिपल्लवच्छषिषु करचरणतकेषु लक्षणानि क चायमादिव एवाजन्म भिक्षा कसम क्रमः प्रक्रमः । अहो आश्चर्यम् । कथमाभ्यामसत्यां नीतोऽयं निर्देशः । पृथ्वीरूपी स्त्री के स्वामी, समस्त गुणों के निवास स्थान और अद्भुत उदयशाली ऐसे हे राजाधिराज ! प्रकार हे जो तुम आपका गुणगान किया गया है, वह आपकी स्तुति करने में सही है । उक्त गुणगान श्रचर्यजनक नहीं है, क्योंकि आपके गुण इससे भी विशेष हैं ||२१२|| लक्ष्मी के निवास स्थान, इन्द्र- सरीखे मनोश और स्त्रियों के लिए कामदेव के समान विशेष प्रिय ऐसे हे राजन! जो राजा लोग आपकी शरण में आकर नत्रीभूत हुए हैं और जिन्होंने आपकी सेवा की है, उन्होंने आपके प्रसाद से कौन-कौन से ध्यानन्द जनक भोग प्राप्त नहीं किए ? सभी भोग प्राप्त किये * || २१३|| हे राजन् ! इसप्रकार आपके ऐसे शत्रु-समूहों से, जो कि बन्दीगृह में पड़े हुए हैं, जो स्वर्गवासी हो चुके हैं और जो भाग कर पतों की गुफाओं के मध्य भाग में स्थित है । अर्थात्-- जिन्होंने दीक्षा धारण कर पर्वतों और गुफाओं में स्थित होकर तपश्चर्या की है, आपकी शूरवीरता तीन लोकरूपी नगरी में विख्यात हो चुकी है तब इस संसार में आपको छोड़कर कौन पुरुष विक्रमवान और पराक्रमशाली ( सामर्थ्यशाली व उद्यमशाली ) है ? अपितु कोई भी विक्रमशाली और पराक्रमी नहीं है ।। २१४ ॥ उक्त प्रकार गुणगान करते हुए क्षुल्लक जोड़े की अनोखी शारीरिक सुन्दरता और वचनों की मधुरता देखकर मारिदत्त राजा ने भी निम्नप्रकार मन में विचार किया - "कहाँ तो इनका प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला अनौखा सुकोमलकान्त शरीर जिसकी स्वाभाविक कोमलता, हस्तल के स्पर्शमात्र से भी नष्ट होती है और कहाँ इनके द्वारा धारण की हुई ऐसी उम तपश्चर्या, जिसे युवावस्था के परिपाक से कठोर इन्द्रियोंषाले विशेषशक्तिशाली महापुरुष भी धारण नहीं कर सकते । इसीप्रकार कहाँ तो अशोकवृक्ष के किसलय- सरीखे इनके हाथ, पैर, और तलुने, जिनमें ड प्रथिवी के स्वामी (चक्रवर्ती) की राज्यविभूति के सूचक चिन्ह ि हुप दृष्टिगोचर होरहे हैं और कहाँ इनके द्वारा ऐसी कठोर साधना आरम्भ की गई है, जिसमें जन्म- पर्यन्त भिक्षावृति से जीवन-निर्वाह की परिपाटी पाई जाती है। अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है कि इन दोनों ने अपने शारीरिक शुभ चिन्हों द्वारा शुभ फल बतानेवाले सामुद्रिक शाक को किस प्रकार से असत्य प्रमाणित दिया ? H * औौराज इति क० । १. पत्ता छन्द, क्योंकि ६ मात्राओं से युक्त घत्ताछन्द होता है, कहींपर ६२ मात्राएँ भी होती हैं, इसके २७ भेद हैं। तथा चोतं पदं पाछन्दः । पत्तालक्षणं यथा क्वचिद्विषमित्राभिर्भवति । सप्तविंशतिभेदा पत्ता भवति । संस्कृत टीका पू. १०९ से समुल १. आक्षेपालङ्कार । ३. समुच्चय व भाक्षेपकार । ४. विमालंकार । पष्टिमात्रा मिता भवति । सम्पादक Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कि व नीलमणिसस्थाने कुन्सलेषु, शिशिरकरपरार्धतां भाजयोः, तर हारेक्शविल्लीपु, रत्नसमुच यं लोचनयुगलयोः, कौस्तुभास्पति कपालपु. अमृतधाराप्रवाइमालापषु, गम्भीर नामयोः, [ गम्भीरत्रमालापषु !, प्रवालपल्लयोल्लास रहनादयोः. मुधारसप्रभा स्मितिषु, प्रवेतःपाशाभवगविषये, कम्युकान्ति कण्ठयोः, वीचिविलसितानि वाहासू, लक्ष्मीविवानि करतलेषु, रमावेश्मशोभामुरःस्थलयोः, विशेषता यह है कि इस क्षुटक-युगल की अनोखी सर्वाङ्ग-सुन्दरता देखकर ऐसा प्रतीत होता हैमानों-इसके निर्माता प्रत्यक्षीभूत ब्रह्मा ने समुद्र को पारिवार सहित ( अन्य समुद्रों के साथ) विशेषरूप से दरिद्र (निर्धन ) अना दिया है। उदाहरणार्थ-- इसके नीलमणि-सरीखे कान्तिशाली केश-समूह देखकर ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-ब्रह्मा ने उनमें केशों के बहाने से इन्दनील मणियों की किरणे या प्रकर उत्पन्न करते हुए समुद्र को अन्य समुद्रों के साथ विशेष दरिद्र ( मणि-हीन) बना दिया। इसके चन्द्रमेसे मनोज्ञ मस्तकों को देखकर ऐसा विदित होता है-मानों-ब्रह्मा ने उनमें मस्तकों के छल से चन्द्रमा की प्रधानता उत्पन्न करते हुए, समुद्र को विशेष रूप से दरिद्र-निर्धन ( चन्द्र-शून्य ) बना दिया है। इसकी जलतरज-सी चन्चल भोहें देखकर ऐसा ज्ञात होता है मानों प्रजापति ने उनमें झुकाटयों के मष से समुद्र का चश्नल तरङ्ग-पाक्त ही उत्पन्न की है और जिसके फलस्वरूप उसने समुद्र को सपारयार विशेष दरिद्र (वरज-हीन ) बना दिया है। माणिक्य-सरीखे मनोज्ञ प्रतीत होनेवाले इसके नेत्रों की ओर दृष्टिपात करने से ऐसा प्रतीत होता है-मानों-प्रजापाते (ब्रह्मा ने उनमें नेत्री के मिष से कृष्ण, नील व लाल रत्नों की राशि ही उत्पन्न की है और जिसके फलस्वरूप ही उसने समुद्र को परिवार सहित विशेष दरिद्र (रत्नराशि-शून्य । बना दिया। इसके चमकीले आतशय मनोज गालों को देखकर ऐसा जान पड़ता हैमानों ब्रह्मा ने कपल ( गाल । तलों के बहाने से उनमें कौस्तुभमाण को उत्पन्न करते हुए समुद्र को विशेष परिद ( कौस्तुभ मणि से शून्य ) बना डाला। इसके आवेशय मधुर स्वरों को सुनकर ऐसा जान पड़ता है-- मानों-प्रजापति-प्रया ने, स्वरों के मिष से इनमें अमृत धारा का प्रवाह ही प्रवाहित करते हुए समुद्र को अभ्य समुद्रों के साथ दरिद्र ( अमृत-शून्य ) बना दिया है। इसकी अतिशय मनोज्ञ नासिकाओं की ओर हाटपात करने पर ऐसा हात होता है-मानो-मासिकाओं के बहाने से इनमें गम्भीरता उत्पन्न करते हए ब्रह्मा ने समुद्र को सपारंवार दारे कर दिया। इसके अतिमनोझ लालीवाले ओंठ देखकर ऐसा मालूम पड़ता है-मानो-ब्रह्मा ने प्रोष्ठों के बहाने से इनमें मूंगा की कोपलें उत्पन्न करते हुए समुद्र को सपरिवार भाग्य-हीन बना डाला। इसकी मनोश मन्द मुसक्यान देखकर ऐसा मासूम पड़ता है-मानोंब्रह्मा ने इसके बहाने से ही इसमें अमृतरस की कान्ति भरते हुए समुद्र को दरिद्र ( अमृत-शून्य ) कर दिया। इसके मनोज्ञ कानों को देखकर ऐसा भान होता है-मानों-प्रझा ने इसके कानों में दिक्पाल के मायुध उत्पन्न करते हुए समुद्र को विशेष दरिद्र (आयुध-हीन) कर दिया। इसीप्रकार इसके शख सरीखें मनोज्ञ काठ देखकर ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-काठों के मिष से मझा ने इनमें दक्षिणावर्त शंख की शोभा उत्पन्न मते हुए समुद्र का भाग फोड़ दिया। इसकी तरनों सरीखी चञ्चल भुजाएँ देखकर ऐसा प्रतीत होता है'मानों-उनमें ब्रह्माने सरङ्ग-शोभा उत्पन्न करते हुए समुद्र की दुर्दशा कर डाली-उसे तरज-हीन कर दिया। इसके सुन्दर इस्ततल देखकर ऐसा जान पड़ता है-मानों-ब्रह्माने उनमें लक्ष्मी के चिन्ह ही बनाए हैं, जिस के फलस्वरूप समुद्र को भाग्यहीन कर डाला। इसके लक्ष्मीगृह-सरीखे मनोज्ञ वृदय-स्थल देखकर ऐसा जान 1. कोष्टाइन पात्र ] संस्कृन टंका के प्राचार में नहीं होना चाहिए। क्योंकि उसे समन्वयपूर्वक पूर्ष गश्च में ।। प्रविष्ट कर दिया गया है-सम्पादक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्राश्वास त्रयेशिलतानि वषिषु, भावर्तविभ्रमं नाभिदेशयोग, पृथुस्त्वं नितम्बदेशे, वृत्तगुणनिर्माणमुरुषु, मुक्ताफलप्रसूति रणनखेषु, शावायरसनिर्भरतवं चास्य मिथुनस्य तनो, अमेन मुजा प्रजापतिमा नून सपरिवारः पारावार पर्व पर दारिद्रयमानिन्थे । भपि च । यत्रामसेन समजन्म विभाति विश्व, पोन्नुना सह रसिं भजतेमामीः । छावण्यमेव मधुरत्वमुपैति यत्र सहदे किमिव स्पमर्य नमोऽस्य ॥ २१५ ॥ इति क्षणं च प्रत्रिचिन्स्य भूपः सप्रमय तन्मिधुम भाषे । को नासो न का कुलं पत्र भूव जन्म ॥ २१ ॥ मज्ञातसंसारमुखं च बाल्ये जातं कुतः प्रव्रजनाय चेतः । एतम्मम प्रार्थनतोऽभिधेय सन्तो हि साधुष्वनुकूलवाचः ।। २१॥ पड़ता है मानो-ब्रह्मा ने उनमें हृदय स्थल के मिष से लक्ष्मी का मनंदर ही उत्पन्न किया है। इसकी उदररेखाएँ ऐसी मालूम पड़ रही हैं-मानों-ब्रह्मा वारा उत्पन्न किये हुए वेत्रों के कम्पन ही हैं। इसके नाभिदेश की गम्भीरता देखकर ऐसा प्रतीत होता है-मानों-प्रजापति ने नाभि के बहाने से उसमें जल में भैयर पड़ने की शोभा उत्पन्न करके समुद्र का भाग्य फोड़ दिया। इसके नितम्ब ( कमर के पीछे के भाग) देखकर ऐसा जान पड़ता है-मानों-ब्रह्मा ने उनमें विस्तीर्णता उत्पन्न करते हुए समुद्र को सपरिवार वरिद्र कर दिया। इसके गोल ऊरु (निरोहों) को देखकर ऐसा प्रतीत होता है-मानों-विधि ने उनमें वर्तुल (गोलाकार ) गुण की रचना करते हुए समुद्र को दरिद्र कर दिया। इसके मोतियों-सरीखे कान्तिशाली चरण-दरख देखकर ऐसा खात होता है--मानों-अल्मा ने उनमें मोतियों की राशि उत्पन्न करते हुए समुद्र का भाग्य फोड़ दिया । इस युगल का सर्वाङ्ग सुन्दर शरीर देख कर ऐसा मालूम पड़ता है मानों-इसका शरीर कान्तिरस से ओत-प्रोत भरते हुए ब्रह्मा ने समुद्र को अन्य समुद्रों के साथ विशेष दरिद्र (कान्ति-हीन ) बना दिया। इस मुनिकुमार-युगल-खुल्लकजोड़े-के अनौखे सौन्दर्य का वर्णन कषि फिसप्रकार कर सकता है? अथवा किसके साथ इसकी तुलना कर सकता है ? जिस अनौखे सौन्दर्य में इसका घरण से लेकर मस्तक पर्यन्त साप शरीर अमृत के साथ उत्पन्न हुआ शोभायमान होरहा है। अर्थात्-जिसका समस्त शरीर अमृत-सरीखा उज्वल कान्तिशाली है। जिसमें कमल लक्ष्मी (शोभा) चन्द्रमा के साथ अनुराग प्रकट कर रही है-संतुष्ट होरही है। अर्थात्-इसके नेत्र-युगल नीलकमल-सरीखे और मुख चन्द्रमा-सा है एवं जिसमें सौन्दर्य मधुरता के साथ वर्तमान है। अथवा जहाँपर नमक भी मीठा हो गया है। अर्थात्-जहाँ पर प्राप्त होकर खारी वस्तु अमृत-सी मिष्ट होजाती है ॥२१५॥ तत्पश्चात् उसने (मारिवत्त राजा ने) उत्तप्रकार क्षणभर भलीप्रकार विचार करके प्रस्तुत मुनिकुमार-युगल (क्षुल्लकोदे) से विनयपूर्वक कहा-आपकी जन्मभूमि किस देश में है.? एवं किस वंश में आपका पषित्र जन्म हुमा है! और आपकी चित्तवृत्ति, सांसारिक सुखों का स्वाद न लेसी हुई बाल्यावस्था में ही ऐसी कठोर दीक्षा के ग्रहण करने में क्यों तत्पर हुई? मेरी विनीत प्रार्थना के कारण आपको मेरे उक्त तीनों प्रश्नों का उत्तर देना चाहिये। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसी नीति है कि सजन पुरुष रमत्रय की आराधना करनेवाले साधु पुरुषों के साथ हितकारक व कोमल वचन बोलनेवाले होते है। ॥ २१६-२१७ ।। 1. उत्प्रेक्षालंकार । २. आक्षेप व उपमालंकार । ३. अर्थान्तरन्यासालंकार । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक चम्पूकाठचे मुविकुमार-वाम्बर दीक्षान्मुनीनां संकीर्तन रात्रिसदस्य युक्तम् । तथापि तत्कर्तु पचिष्ये भवन्ति भव्येषु हि ध्यानम्पोवित्पास्वामसमः स्कारस्फुर स्केवानाम्भोधिवरेकदेश विशसस्त्रैलोक्यवेडावलः । ।। २१८ ।। आशिमण्डन भवत्पादवान्मोक्षः श्रीनाथ प्रथितान्ययस्य भवतो भूपाजिनः श्रेयसे ॥ २१९ ॥ सोऽयमाशादितक्सा महेन्द्रामरमान्यधीः । देवाने संतसानभ्यं वस्वनी जिनाधिपः ॥ २२० ॥ इति कतार्किकलोक हामणेः भीम मिदेव भगवतः शिष्येण सद्योऽनवद्यगद्यपद्यविद्याधर चक्रवर्तिशिखण्डनीरमन श्रीसोमदेवसूरिणा विरचिते यशोधरमहाराज परि यशस्तिलकापरनाति महाकाव्ये कथाबतारो नाम प्रथम १०३ CITROE उक्त प्रश्नों को सुनकर मुनि कुमार ( अभयरूचि क्षुल्लक ) ने कहा- साधु पुरुषों को दीक्षा ग्रहण के सिवाय दूसरे देश व वंश का कथन करना उचित नहीं है तथापि मैं ( अभयरुचि क्षुल्लक, जो कि पूर्वभव में यशस्तिलक अथवा यशोधर राजा था ), उक्त तीनों बातों का कथन करने में प्रयत्न करूँगा। क्योंकि मुक्ति लक्ष्मी की प्राप्ति की योग्यताशाली भव्यपुरुषों के प्रति शिष्ट पुरुषों का अनुराग होना स्वाभाविक है' ।। २१६ ।। हे लक्ष्मीपति मारिदत्त महाराज ! श्रीभगवान् भहन्त सर्व ऋषभादि तीर्थकर, जिन्होंने शुक्लष्यान रूपी तेज द्वारा अन्धकार-समूह (ज्ञानावरण- आदि घातिया कर्मों की ४५ प्रकृतियाँ और नामकर्म की १६ प्रकृतियाँ इसप्रकार सब मिलाकर ६३ कर्म-प्रकृति रूप अन्धकार समूह) को समूल नष्ट किया है और जिनका तीनलोक रूपी वेला पर्वत ( समुद्र तटवर्ती पर्वत ) लोकालोक को प्रचुरता से व्यास करनेवाले ( जाननेवाले) और योगियों के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले केवलज्ञान रूप समुद्र के तट के एक पार्श्वभाग में शोभायमान हो रहा है । एवं जिसके चरण-कमल नमस्कार करते हुए इन्द्रों के मस्तकों के आभूषण हैं, विख्यात हरिवंश में उत्पन्न हुए आपका सदा कल्याण करने में समर्थ हो । २१९ ॥ [ सोऽयमाशार्पितयशा ] वह जगत प्रसिद्ध प्रत्यक्षीभूत जिनेन्द्र भगवाम जिसका शुभ्र यश दशों दिशाओं में व्याप्त है एवं [ महेन्द्रामरमान्यधीः ] जिसकी केवल ज्ञानरूपी भुद्धि समस्त राजाओं व देषों द्वारा पूजी गई है, [ देयाते संततानन्वं ] आप के लिए निरन्तर अनन्त सुख देनेवाली ( वस्त्वभीष्टं जिनाधिपः ) अभिलषित वस्तु ( मुक्ति लक्ष्मी ) प्रदान करें ||२२|||इसप्रकार समस्य तार्किक (षड्दर्शन - वेत्ता ) चक्रवर्तियों के चूडामणि ( शिरोरन या सर्वश्रेष्ठ ) श्रीमदाचार्य 'नेमिदेव' के शिष्य श्रीमत्सोमदेवसूरि द्वारा, जिसके चरण-कमल तत्काल निर्दोष गद्य-पद्यविद्याधरों के चक्रवर्तियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रचे हुए 'यशोधरचरित' में, जिसका दूसरा नाम 'यशास्तिलकचम्पू महाकाव्य' है, 'कथावतार' नामका प्रथम आश्वास ( सर्ग ) पूर्ण हुचा । 1 इसप्रकार दार्शनिक चूडामणि श्रीमदम्बादासजी शास्त्री व श्रीमत्पूष्य आध्यात्मिक सम्त भी १०५ लुक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य के प्रधान शिष्य जैनन्यायतीर्थ, प्राचीनम्या यतीर्थ, काव्यतीर्थं व आयुर्वेव विशारद एवं महोपदेशक आदि अनेक उपाधि-विभूषित सांगरनिवासी श्रीमत्सुन्दरलालजी शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेवसूरिविरचित यशास्लिकचम्पू महाकाव्य की 'यशस्तिलक- दीपिका' नाम की भाषा टीका में 'कथावतार' नामका प्रथम आश्वास ( सर्ग) पूर्ण हुआ । १. अर्थान्तरन्यासालंकार । २. रूपक व अतिश बालंकार । ३. काव्य-सौन्दर्य अतिशयालंकार एवं इस ठीक के चारों चरणों का शुरू का एक एक अक्षर मिलाने से 'सोमदेव' नाम बन जाता है। अतः प्रस्तुत अन्यकार आचार्य श्री मैं अपना अमर नाम अहित किया है—सम्पादक Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वास श्रीकान्याकुचकुम्भविभ्रमधरव्यापारकपत्रुमाः स्वर्गस्त्रीजनलोबमोत्पलधनाक्रीतार्थागमाः। जन्मापूविभूतिवीक्षणपथप्रस्थानसिद्धाशिवः पुष वासुमनसो मतानि जगमः स्यावाविवादविषः ॥ १॥ स्याद्वादी (स्यादस्ति' व स्यामास्ति-आदि सात भङ्गों-धर्मों-का प्रत्येक वस्तु में निरूपण करनेवाले अर्थात्-अनेक धर्मात्मक जीव-आदि सात तत्वों के यथार्थवक्ता-मोक्षमार्ग के नेता-वीतराग य सर्व ऋषभदेवप्रावि तीर्थक्कर) द्वारा निरूपण की हुई द्वादशाङ्ग शास्त्र की ऐसीं वाणियाँ, तीनलोक में स्थित भव्य प्राणियों के मनरयों ( स्वर्गश्री व मुक्तिलक्ष्मी की कामनाओं की पूर्ति करें। जो चक्रवर्ती की लक्ष्मीरूपी कमनीय कामिनी के कुचकलशों की प्राप्ति होने से शोभायमान होनेवाले भन्यप्राणियों के मनोरथों की उसप्रकार पूर्ति करती है जिसप्रकार कल्पवृक्ष प्राणियों के समस्त मनोरथों-इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। अर्थात्जो जैन-भारती चक्रवर्ती की विभूतिरूप रमणीक रमणी के कुचकलशों से फ्रीड़ा करने की भव्यप्राणियों की इच्छा-पूर्ति करने के लिए कल्पवृक्ष के समान है। इसीप्रकार जो, स्वर्ग को देषियों के नेत्ररूप कुषलयोंचन्द्रधिकासी कमलों के धन में भक्त पुरुषों का विहार कराने में समर्थ हैं, इसलिए जिनकी प्राप्ति सफल (सार्थक) अथवा कैलिकरण निमित्त है। अदाल-जिस जानकारती के प्रसाद से विद्वान् भक्तों को स्वर्ग की इन्द्र-लक्ष्मी प्राप्त होती है, जिसके फलस्वरूप उन्हें वहाँपर देवियों के नेत्ररूपी चन्द्रषिकासी कमलो के क्नों में यथेष्ट क्रीड़ा करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। एयं जो संसार में प्राप्त होनेवाली सर्वोत्कृष्ट भुक्ति लक्ष्मी के निरीक्षण-मार्ग में किये जानेवाले प्रस्थान के प्रारम्भ में उसप्रकार मानलिक निमित्त (कारण) हैं, जिसपकार सिद्धचक्र-पूजा संबंधी पुष्पाक्षतों की आशिष-समूह, स्वर्गश्री के निरीक्षण-मार्ग में किये जानेवाले प्रस्थान के प्रारंभ में माङ्गलिक निमित्त है। अर्थात्-जिस जैन-भारती के प्रसाद से विद्वाम् भक्त पुरुष को सर्वोत्कृष्ट मुक्तिलक्ष्मी की प्राप्ति होती है, क्योंकि मुक्तिलक्ष्मी की प्राप्ति के उपायों ( सम्यग्दर्शनशानधारित्र) में जैनभारती के अभ्यास से उत्पन्न होनेवाला सम्यग्ज्ञान प्रधान है, क्योंकि 'ऋते भानान्न मुक्तिः अर्थात्-पिना सम्यग्ज्ञान के मुक्ति नहीं होसकती ||१|| * स्यादवादविषः। स.। १. सर्वपानियमत्याः यथादृष्टमयेक्षकः । स्थाच्छन्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥ १॥ हरस्वयंभूस्तोत्र से । अर्थात्-ऐसा स्यात्' ( किसी अपेक्षा से ) शब्द, जो वस्तुतत्व के सर्वथा एकान्तरूप से प्रतिपादन के नियम को निराकरण करता है और प्रमाण-सिद्ध वस्तुतत्य का कपन अपेक्षाओं (विविध घटिकोषों) से करता है, भापके अनेकान्तवादी अईदर्शन में ही पाया जाता है. वह ('स्यात्' शब्द) आपके सिवाय दुसरे एकान्तपादियों ( बौदादिकों ) के दर्शन में नहीं है, क्योंकि वे मोक्षोपयोगी आत्मतत्व के सही स्वरूप से अनभिज्ञ है ॥ १ ॥ तथा चोक्तम्--भारत्या व्यवसाये व जिगीषायां रुचौ तथा। शोभायां पञ्चसु प्राहुः वियनि पूर्वसूरयः । सू. टी.से संकलित--सम्पादक २. रूपकालार। • उक्तश्लोक में बनभारती के प्रसाद से चक्रवर्ती की विभूति की प्राप्ति, इन्द्रलक्ष्मी का समागम और मुक्तिश्री की प्राप्ति का निर्देश किया गया है। अतः उक निरूपण से यह समझना चाहिए कि जैनभारती के प्रसाद से निम्रप्रकार सप्त परमस्थानों की प्राप्ति होती है। तथा च भगवजिनसेनाचार्य :--'सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिमण्य सुरेन्द्रता । साम्राज्य परमाईत्म निर्वाणं चेति सप्ता' ॥१॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ पशस्तितकचम्पूचम्ये या नासोकपतिमानसराहसी विवाधीस्वरविचारविहारदेवी । मत्याधिपचवणभूषणरत्नाहो सा व श्रियं वितस्ताविनगारपसूतिः ॥ २ ॥ महोबास्त्रप्रासादप्रकाशनकीर्तिकृत देवतामहः महामुमावतोपलासारसटिसदितालिकासम्पाल धर्मावलोकमहीराव परिप्रासमस्ततामोशेणांविनिर्णय, समाकळ्य-अस्ति सल्बिहेव क्ट्सएडमण्डलीविभागविचित्रे भरतक्षेत्र प्रहसिप्तधमुवसतिकाम्सोजन्ता नाम निखिललोकाभिशापविलासिबस्तुसंपत्तिनिरस्तसुरपाइपमढ़ो जनपदः । मिया महाणि श्रीदनिनान्यभ्युपपरिभिः । यत्र मैसर्गिको प्रीति भवन्ति सुकूतात्मनाम् ॥ ३ ॥ सबसे पत्र मेहानि खेउत्तईकमण्डवैः । पेशासकुलानीव कझोलेः झीरवारिधेः ॥ ४ ॥ यह जगप्रसिद्ध ऐसी जैनभारती-द्वादशाङ्गवाणी-आप लोगों के लिए स्वर्गश्री व मुक्तिलक्ष्मी प्रदान करे । जो देवेन्द्रों के मनरूप मानसरोवर में विहार करनेवाली राजहँसी है। अर्थात्जिसप्रकार राजहंसी मानसरोवर में यथेष्ट क्रीड़ा करती है उसीप्रकार यह जैनभारती भक्तों को स्वर्ग र इन्द्र-पद प्रदान करती हुई उनके मनरूप मानसरोवर में यथेष्ट क्रीड़ा करती है। जो विद्याधर-राजाभों और गणधरदेवों के विचारों की गृहदेषता है। अर्थात्-जिसके प्रसाद से भक्त पुरुष, विद्याधरों के स्वामी व गगधरदेच होते हुए जिसकी गृहदेवता के समान उपासना करते हैं एवं जो भरत चक्रवर्ती से लेकर श्रेणिक राजा पर्यन्त समस्त राज-समूह के कानों को सुशोभित करने के लिए रल-जड़ित सुषर्णमयी कर्णकुण्ठल है। भावार्थ-जिस द्वादशाङ्ग वाणी के प्रसाद से भक्तपुरुष स्वर्गलक्ष्मी विद्याधर राजाओं की षिभूति और भूमिगोचरी राजाओं की राज्यलक्ष्मी प्राप्त करते हुए मुक्तिलक्ष्मी के अनौखे वर होते है। ऐसी वह द्वादशान-वाणी आप लोगों को स्वर्गश्री व मुक्तिलक्ष्मी प्रदान करे ॥२॥ उक्त क्षुल्लक युगल में से सर्वश्री अभयरुचि क्षुल्लक ने मारिदत्त राजा से कहा-हे राजन् ! आपकी कीर्विरूपी कुल-देवता तीनलोक रूप मइल को प्रकाशित करती है, इसलिये आप लोगों के सम्माननीय है। मापने महाप्रभाररूपी पाषाणों की वेगशाली वर्षा द्वाय कलिकालरूपी दुष्ट हाथी अथवा काले साँप को गिरा दिया है। आप धर्मरक्षा में तत्पर होते हुए समस्त शाख-महासमुद्र का निश्चय करनेवाले है, अतः हे मारिदत्त महाराज ! आप हम लोगों का देश, कुल व दीक्षा-प्रण का वृत्तान्त ध्यान पूर्वक सुनिए खण्डों के देश-षभागों से आश्चर्यजनक इसी जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में पेसा ... 'अन्ति' नाम का देश है, जिसने अपनी मनोज्ञ कान्ति ( शोभा ) द्वारा वालोक की कान्ति तिरस्कृतलनित की है एवं जिसमें समस्त लोगों को अभिलषित वस्तुएँ प्राप्त होती है, जिसके फलस्वरूप जिसने । कल्पवृक्षों का अहङ्कार तिरस्कृत कर दिया है। जिस अचन्ति देश में पुण्यवान् पुरुषों के गृह धनादि लक्ष्मी के साथ और लक्ष्मी पात्रदान के साय एवं पात्रदान सन्मानादि विधि के साथ स्वाभाविक स्नेह प्राप्त करते हैं ॥३॥ जिस प्रकार क्षीरसमुद्र के तटवर्ती पर्वतों के समूह, उसकी तरकों से सुशोभित होते हैं, उसीप्रकार वहाँ के गृह भी कीड़ा करते हुए बछड़ों के समूहों से शोभायमान होते थे ।।४।। १. रूपालबार । २. उपमालंकार। टिप्पणीकार-विमर्श-श्रिया गृहाणि श्रीदनिः' इत्यत्र पंचमाक्षरस्य गुरुत्वं न साधुः पंचमं लघु सर्वत्रेतिवचनाच 'प्रदक्षिणार्चिव्याजेन स्वयमेव स्वयं ददो। तया भ्रमो च भग्नेन तथाप्यदुष्प्रत्यास्ति में भवं ॥ १ ॥ इत्यादि महाधीका प्रयोगदर्शनान् । सटि. (क: से संकलित–सम्पादक । २. दीपकालबार । ४. उपमालद्वार । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐ ܕ द्वितीय आश्वास बन सर्वाः कान्ताः कुट्टिमभूमयः । हंबै: एससीव सुदुगदभाषिभिः ॥ ५ ॥ प्रजाप्रकम्प्सस्यायाः सर्वदा या भूमयः । मुध्यन्ती शामरावासकल्पमुमवन भियम् । ६ ॥ निस्थं कृतातिथेयेन थेनुकेम सुधारयैः । पत्राक्रियन्त देवानामपार्याः कामयेनवः ॥ ७ ॥ विभ्रमल्लासमयं वीनां विलोकितैः । हसा न बहु सभ्यते घुसवोऽनिमिषाङ्गाः ॥ ८ ॥ जीवित कीये यत्र दशनाम विणम्हः । वपुः परोपकाराम धर्माय गृहमामम् ॥ ९ ॥ ari विद्यागमैत्र यौवनं गुरूसेच्या सर्वसङ्गपरित्यागैः संग पर वयः ॥ १० ॥ द्वावेव च जनौ यत्र बसतो वसतिं प्रति । अर्थिम्यवाङ्मुखो यो न युद्ध यो न परामुखः ॥ ११ १०५ fresकार प्रफुलित कमलों से व्याप्त हुए तालाब कोमन व अस्पष्ट वाणी बोलनेवाले राजहंसों से मनोहर प्रवीत होते हैं उसीप्रकार प्रस्तुत अवन्ति देश की कृत्रिम भूमियाँ भी कोमल a weपष्ट वाणी बोलनेवाले जमीन पर गिरते हुए मन करनेवाले सुन्दर यों से मनोहर प्रतीत होती थीं ' ॥ ५ ॥ जिसकी भूमियाँ ( खेत ) सदा प्रजाजनों की मनचाही यथेष्ट धान्य- सम्पत्ति से परिपूर्ण थीं, इसलिए ऐसी मालूम होती थी मानों वे स्वर्गलोक संबंधी कल्पवृक्षों के उपवन की लक्ष्मी चुरा रही हैं ॥ ६ ॥ अमृत सरीखे मधुर दुग्धपूर से सदा अतिथि सत्कार करनेवाले जिस अन्ति देश की सद्यः प्रसूत ( तस्काल में व्याई हुई ) गायों के समूह द्वारा जहाँपर देवताओं की कामतुएँ निरर्थक कर दीगई थीं ॥ ७ ॥ जहाँपर भ्रुकुटि दक्षेपों ( कटाक्ष - विक्षेपों) द्वारा सुन्दर प्रतीक्ष होनेवाली गोपियों की विलासपूर्ण तिरी चितवनों से मोहित हुए ( उल्लास को प्राप्त हुए) देवता लोग अपनी अप्सराओं (देषियों ) को विशेष सुन्दर नहीं मानते थे; क्योंकि उन्हें अपनी देवियों के निश्चल नेत्र मनोहर प्रतीत नहीं होते थे" || ८ ॥ जहाँपर जनता का जीवन कीर्तिसंचय के लिए और लक्ष्मी-संचय पात्रदान के हेतु एवं शरीरधारण परोपकार- निमित्त तथा गृहस्थ जीवन दान-पूजादि धर्म प्राप्त करने के लिए था ॥ ६ ॥ जहाँपर प्रजाजनों का वाल्यक ( कुमारकाल ) विद्याभ्यास से मलत था व युवावस्था गुरुजनों की उपासना से विभूषित थी एवं वृद्धावस्था समस्त परियों का त्याग पूर्वक जैनेश्वरी दीक्षा के धारण से सुशोभित होती थी ।। १० ।। जिसे अवन्ती देश में प्रत्येक गृह में दो प्रकार के मनुष्य ही निवास करते थे। १–ओ उदार होने के फलस्वरूप याचकों से विमुख नहीं होते थे। अर्थात् उन्हें यथेष्ट दान देते थे और २ - जो वीर होने के कारण कभी युद्ध से परामुख ( पीठ फेरनेवाले ) नहीं होते थे । अर्थात् - युद्ध भूमि में शत्रुओं से युद्ध करने तैयार रहते थे। निष्कर्ष -- जिसमें दानवीर व युद्धवीर मनुष्य थे ।। ११ ।। १. उपमालङ्कार । २ हेतु अलङ्कार । ३. हेदूपमालङ्कार । ४. हेतूपमालंकार । ५. दीपकाकार । * बाल्यं विद्यागमैर्यश्रेत्यनेन 'शैशवेऽभ्यस्त विधानामित्येकमितिचे 'वाम्बे विद्याणामर्थान् कुर्यात्कार्म यौवने, स्म विरे धर्म मोक्षं चेति वात्स्यायनोकिमस्य कवेरन्यस्य चानुसरतः कस्यचिदपि दोषस्याभावात्तदुकं 'मिष्यन्दः सर्वशास्त्राणा यत्काभ्यं तत्र दोषभाक्' लोकोकिमन्यशाओक्तिम चिस्येम ब्रुवन् कविः ॥ १ ॥ लोकमार्गानुगं किंचिक्किचिच्छानुर्ग । उत्पा किंचित्कवित्वं त्रिविधं वे ॥२॥ इति ६० लि० सर्टि० प्रति (क) से संकलित - सम्पादक । ६. दीपकालंकर, 1 ● अतिचालंकार । १४ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ यशस्तिमकपम्पूकाव्ये - बहिस मार्गभूमिनु निसगांदोमनुष्यमनीवितसमसंपाविमः सकलोकोपसेवमानसंपत्रिः पाणिपत्यापितस्पतियोचिदिसापसामामपि संपादितसामैत्रीमनोभिरपहसितसुरकाननानोकोवनदेवीदानमापचाभिस्तलमिः, 1 भनेनीरचरनिनिकलापचापप्रकलानिलाम्दोलितपाखिन्दीसंततिमिरविरविकासोल्लासस्वरूपहारकैरबारविन्दमकरन्पवि. स्पन्दसंदोहामोवसंमिताभपुष्पैक्चामनासीविनोदलहस्तोरारहवहारिभिर्विचरितारतप्रतिदिवसेंदि विजदेवार्चनोपयोगभागिमिर्जदेवापानिनः सरप्रदेश, मधुममधुपानवशकोशकोशकावरलिजक्कासवासरामपरिमलोस्लासिभिलेखमुख्पवैखानस. जसमापयोधिURUITA-मिडम्पिाखापखवयसवोत्पचिमिविसकरपरकीसटिसमपैः पाकिसलवाकअम्बितप्रसूनमधीलग्निसन्सविसबसविसंवरनेवाप्रवाः, जिस भवन्ति देश में प्रजाजनों की वृद्धिंगत भी ऐसी खमियाँ ( शोभाएँ) केवल अपने अपने स्थानों पर उसप्रनार सिंगल होरही थी, जिसप्रकार कुमारी कन्याएँ नवीन कर प्राप्त करने के पूर्व केवल अपने-अपने स्थानों (मावा-पिता के गृहों) पर वृद्धिंगत होती-पदवी रहती है। जिन्होंने (लक्ष्मियों ने) नगर के वाह्य प्रदेशों की मार्ग-भूमियों पर वर्तमान ऐसे वृक्षों, तालावों, विस्मृत लता-समूहों और दूसरे ऐसे बनमेणियों के वृक्षों द्वारा मतिथियों के मनोरथ पूर्ण किये थे। कैसे हैं के वृक्ष ? जिमकी लक्ष्मी ( पत्तों, कोपलों, पुष्प च फलादि रूप शोभा) स्वभावतः समस्त मानवों के मनोरथों सरीखी (अनुकूल ) उत्पन हुई थी। अर्थात्-जो स्वभावतः अपनी पुष्प-फलादि रूप लक्ष्मी द्वारा समस्त मानवों के मनोरथ पूर्ण करते हैं। जिनकी पुष्प, फल व छायादि रूप लक्ष्मी प्रावण श्रादि से लेकर चाण्डालादि पर्यन्त समस्त मानवों द्वारा आस्वादन ( सेवन ) की जारही थी। फलों मासेमके रहने के कारण जिन्होंने मनुष्यों के हस्त-कमलों पर फलों के गमले समर्पित किये। जिन्होंने स्वर्गलोक सम्बन्धी मुनियों के चित्तों में भी दानमंडप -सदावर्त के स्नेह को उत्पन्न किया है। जिन्होंने अपनी लक्ष्मी द्वारा कोलोक सम्बन्धी वनों ( नन्दनवन-आदि) के कल्पवृक्ष तिरस्कृत (लजित ) किये हैं और जो वनदेवी की सताशाला ( सदावर्त स्थान ) सरीखे मनोक्ष प्रवीत होते थे। कैसे है वासाष स्थान ? जिन्होंने ऐसी प्रचण्ड वायु द्वारा, जो बहुत से जलचर पक्षियों ( इंस, सारस व चक्रवाआदि) की श्रेणी की पंचलवा से उसम हुई थी, तरज-पंक्तियाँ कम्पित की हैं। जिनके जल प्रचुरतर विकास से उक्षसनशील कुवलय (पन्द्र विकासी कमल). लालकमल, कुमुद ष श्वेत कम की मकरन्द ( पुष्परस } बिन्दुओं के क्षरण-( गिरने) समूह की सुगन्धि से मिश्रित थे। जो चंचल कमलिनी के पत्तोंरूपी झयों के उठाने से [छाया करने के कारण ] अत्यन्त मनोहर प्रतीत होते थे। जिनके द्वारा वर्षा ऋतु के बिन तिरस्कृत किये गए थे। क्षीरसागर-सी उज्वल जलराशि से भरे हुए होने के फलस्वरूप जो स्वर्ग के इन्द्रों की अईम्व-पूजन के कार्य का आश्रय करणशील थे एवं जो अलदेवियों की प्याज सरीखे थे। कैसे सवामरहप? जो अवरों के पुष्परस-पान रूप मद्यपान के अधीन कमलों के मध्यभागलप । सराफात्रों से मरण होती हई केसरों की भय की विशेष सुगन्धि से उल्लसनशील (अतिशय शोभायमान) होरहे थे। जो देवर्षियों द्वारा किये हुए पुष्प-पुण्टन (चोड़ना) के योग्य थे। अर्थात्-देवषिगण भी। जिन सवाओं से फूलों का संचय करते थे। जिन्होंने ऐसे मनोज पुष्पों द्वारा, साहब ( देवोपान ) की पुष्पोत्पत्ति विरकत की थी, जो इन्द्र संबंधी मस्तक के समभाग के प्रशस्त आभूषण थे। जिन्होंने (लतामण्डपों ने) कल्पवृक्ष की लगों की रचना का अवसर तिरस्कृत किया था। जिन्होंने कर (हाथ) सरीखे कोमल पचों पर पुष्पमञ्जरी की मालाएँ धारण की थीं और जो वसन्तरूप राजा के कीड़ा सरीखे थे। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . . . द्वितीय माथास माध्यम निखितभुगमजनजनितमनोरयामासिमिः परिभताभोगभूमिभूकहप्रभाव पासवानोन्मुखपुण्यालेखिभिः वनराजिमाखिभिः तात्तिययः प्राला भनि लिया गयाबरमा परमाणम्मन्नु विस्तारपामासुः । मार्गोपान्तवनमावलियायापनीताप्रपा पूर्वाभ्यर्मसरोवतीर्णपानण्यातदेहश्रमाः। पुपैर्मन्दमुवः फलैर्मतधियस्तोपैः पृतम्बीउनाः पान्था यन्त्र पान्ति केलिकमलग्यालोकहारधियः ॥ ११ ॥ अपि च यत्र पक्षाध्यकार: सुवर्णदक्षिणा, मधुनमायमः समासंवधु, परदारोदन्तः कामागमेषु, क्षणिकस्थितिर्दशबख्शासनेषु, चालविणसः पृपवरवेषु, भावसंकरः संसर्गविद्यासू, कैसे हैं धनश्रेणी के वृक्ष ? समस्त लोक के मनोरथ पूर्ण करनेवाले जिन्होंने देवकुरु च उत्तर कुरु-आदि भोगभूमि संबंधी कल्पवृक्षो का माहात्म्य तिरस्कृत किया था एवं जिनकी पवित्र आकृति फल देने के लिए उत्कण्ठित थी। जिस अषन्ति देश में ऐसे पथिक, क्रीडाकमल संबंधी पुष्पमालाओ की चंचल लक्ष्मियाँ (शोमाएँ ) धारण करते थे, जिनका गर्मी से उत्पम हुआ फष्ट, मार्ग के समीपवर्ती उद्यान वृक्ष-पंक्ति के पत्तों की छाया द्वारा दूर किया गया था। जिनका शारीरिक श्रम ( खेव ), जल से भरे हुए निकटवर्सी तालाबों से बहती हुई शीतल समीर (वायु) द्वारा नष्ट कर दिया गया था। जो फूलों की प्रामि से विशेष इक्ति थे और वृक्षों के भाम्रादि फल प्राप्त होजाने के फलस्वरूप भोजन की आकांचा रहित हुए जिन्होंने जल-क्रीड़ाएँ सम्पन्न की थी' ।। १ ।। जिस अवन्ति देश में पलव्यवहार' सुवर्ण-दक्षिणाओं के अवसर पर था । अर्थात्जहाँपर प्रजा के लोग सुवर्ण को कौटे पर तोलते समय या सुवर्ण-वान के अवसर पर पालम्यवहार (परिमाण विशेष-४ रसी का परिमाण) से तोलते थे या लेन-देन करते थे, परन्तु यहाँ के देशवासियों में कहीं भी पल व्यवहार (मांस-भक्षण की प्रवृत्ति) नहीं था। जहाँपर मधु समागम घर्षप्रवर्तनों में था। अर्थात्-वर्ष व्यतीत होजाने पर एक बार मधु-समागम (बसन्त ऋतु की प्राप्ति ) होता था परन्तु प्रजाजनों में मधु-समागम (मद्यपान) नहीं था। जहाँपर पग-वारा-उदन्त कामशास्त्रों में था। अर्थात्-उत्कृष्ट स्त्रियों का वृत्तान्त कामशास्त्रों में श्रवण किया जाता था अथवा उल्लिखित था न कि कुलटाओं का, परन्तु यहाँ के प्रजाजनों में पर-दारोवन्त (दूसरों की स्त्रियों का सेवन ) नहीं था अथवा 'परेषां विदारणं या परदारा' अर्थात्-दूसरों के घात करने की अनीति प्रजाजनों में नहीं थी। जहाँपर घृणिक-स्थिति बौद्ध दर्शनों में थी। अर्थात् बौद्ध दार्शनिकों में समस्त पदार्थों में प्रतिक्षण विनश्वरता स्वीकार करने की मान्यता थी, परन्तु यहाँ की जनता में क्षणिक स्थिति (कहे हुए वचनों में चंचलता) नहीं थी। अर्थात वहाँ के सभी लोग कई हुए पचनों पर द रहते थे। जहाँपर चापलापिलास (चपलता) वायु में था। परन्तु यहाँ के प्रजाजनों में चापलविलास (परखियों के ऊपर इस्तादि का क्षेप) नहीं था। अथवा [चाप-ल-विलास अर्थात्-चापं लातीति चापलं तस्य विलासः ] अर्थात् यहाँ के लोगों में निरर्थक धनुष का महण नहीं था। जहाँपर मावसकर भरतऋषि-रचित संगीत शास्त्रों में था। अर्थात्---- भाषसंकर ( ४६ प्रकार के संगीत संबंधी भावों का मिश्रण या विविध अभिप्राय ) संगीत शारों में पाया जाता था, परन्तु प्रजाजनों में भाष-संकर (क्रियाओं-कर्तव्यों का मिश्रण) नहीं था। अर्थात् -- यहाँ के ब्राह्मणादि म्हों व प्रमचारी-प्रावि आश्रमों के कर्तव्यों में व्यामिश्रता (एक वर्ण का कर्तव्य दूसरे वर्ण द्वारा पालन किया १. उपमालहार। २. उपमालंकार । ३. पलं मासं परिमाणं च । ४. मधु मधं वसन्तथ । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलाकचम्पूकाव्ये सवामिनः प्रासालतियु, सम्मति:कायेषु, कस्कविताकर्णनं पुरुषपरीक्षाम, रामसपातः पत्त्रक देषु, बन्धविधिखीराम जि मेद पाहतेषु, उपसर्गयोगो भाष, निपाततिः शब्दास्त्रेषु, दोपचिन्ता भिषादयनेषु, भानिशमन याक जाना ) मही भी। अर्थात्- समस्त प्राणादि षणों के लोग अपने-अपने कर्तव्यों में तत्पर होते हुए दूसरे वर्णक कर्तव्य नहीं करते थे। जहाँपर परद्रव्याभिलाष मन्दिरों के निर्माण में था । अर्थात-वहाँ के लोग मन्दिरों के निर्माणार्य पर-व्य-अभिलाष करते थे। अर्थात्-उत्कृष्ट (न्याय से उपार्जन किये हुए) पन की था उत्कृष्ट प्रष्ट की इच्छा करते थे, परन्तु प्रजा जनों में पर-द्रव्य-अभिलाषा ( दूसरों के धन के अपहरण की लालसा)नहीं थी। जहाँपर +अक्रमगति सपों में पाई जाती थी। अर्थात्-जहाँपर अक्रमगति (बिना पैरों के गमन करना ) सांपों में थी, परन्तु वहाँ के लोगों में अक्रमगति ( अन्यायप्रवृत्ति) न्द्री यो। जहाँपर करकठिनताकर्णन, सामुद्रिक शासों में था। अर्थात्-हाथों की कठिनता रूप पिन द्वारा शुभ फल का निरूपण सामुद्रिक शामों में पाया जाता था, परन्तु प्रस्तुत देश में कर-कठिनताश्रवण (राबटेक्स की अधिकता का भवरण) नहीं था। जहाँपर शस्त्रसंपात (छुरी-औरह शकों का व्यापार) काटने में अथवा नागवल्ली के पत्तों के काटने में था.किन्त इन्द्रियों के काटने में शवों र प्रयोग नहीं होता था। जहाँपर बन्धविधि घोड़ों की कीसानों में थी। अर्थात् जहाँपर घोड़ों की मौदामों में बन्ध-विधि ( वृक्षों की जड़ों का पीढ़न) पाई जाती थी, परन्तु जनता में पन्धविधि (लोहे की साकनों द्वारा बाँधने की विधि) नहीं थी। जहॉपर लङ्गभेद शासों में था। अर्थात् लिङ्गभेद (कीलिक, पुलिस नपुंसकलिङ्ग भेद-दोष ) प्राकृत व्याकरण शालों में पाया जाता था, परन्तु जनता में लिक भेष (जननेन्द्रिय का छेदन अथवा तपस्वियों का पीड़न ) नहीं था। जहाँपर उिपसर्गयोग धातुओं (भू,ब गम्बादि क्रियाभों के रूपों) में था। मात्-भू-आदि धातुभों के पूर्व उपसर्ग (प्र-परा-आवि उपसर्ग) बोरे जाते थे परन्तु मुनियों के धर्मध्यानादि के अवसर पर उपसर्ग-योग ( उपद्रयों की उपस्थिति ) नहीं वा। जहाँपर निपातश्रुति व्याकरण शास्त्रों में थी। अर्थात्-निपातश्रुति (निपात संशावाले अध्यय शब्दों न प्रवण अथवा पुरन्दर, पायम, सर्वसह और द्विपंतप-इत्यादि प्रसिद्ध शब्दों का श्रवण ) ज्याकरण शास्त्रों में थी परन्तु निपावभुति (प्राणियों की हिंसावाले यज्ञों-मश्वमेध व राजसूय-आदि की विधि के । समर्वक वेदों का प्रचार अथवा सदाचार-स्खलन ) जनता में नहीं थी। 'जहाँपर दोष-चिन्ता (पात, पिच कफों की विकृति र विचार) वैयक शास्त्रों में थी, परन्तु जनता में योधचिन्ता ( दूसरों की निन्दा भुगली करना) नही थी। इसीप्रकार जाहाँपर नामनिशमन शब्दालारशाली शास्त्रों में था। अर्थात् मानिशमन (पदों का विच्छेद) शब्दालारों में सुना जाता था, परन्तु मानिशमन (जीवों का पावें रना भषया नव का खंडन करना या भागना) जनता में नहीं था। A विषियनुराकीकात इति ग-। A सतरघकीड़ास इत्यर्थः । १. वा चोक-कलमकरिमी हस्ती पादौ वा पनिकोमसो। यस्य पाणी च पादौ च सस्प राज्य विनिर्दित ॥१॥ यस्तिलक संस्थत टीका पु. १.१ से संग्रहात--सम्पादक ।। भराव्यं पर परदार । ममः अम्पाय: परणामावर । अलि हस्तथा । किबीनपुंसकारी पखी च। 1 उपसर्ग: उपदवः प्रपरादिध। निपातः स्वाचारश्यपः प्रविशब्दोच्चारणं च । दोषाः पैन्याया। पाताया। मापसाचर्म विश्वमय। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ द्वितीय आश्वास सीताहरणश्रवणमितिहासेषु, बन्धुकलद्दाख्यानं भारतकथासु, कुरुवृत्तिः के किस्थानेषु धर्मगुणच्छेदः संग्रामेषु, कुटिलता कामकोदण्डकोटिषु । किं । धर्मे यत्र मनोरथाः प्रणयिता यत्रातिथिप्रेक्षणे हा यत्र मनीषितानि मतयो यत्रोखणाः कीर्तिषु । सत्येय मनांसि विक्रमविधौ यत्रोत्सव देहिनां यत्रान्येऽपि निसर्गसङ्गनिपुणास्ते से च सन्तो गुणा ॥ १३ ॥ rang fronाता पृथुवंशतिपुरी ॥ १४ ॥ सौधनदध्वजाप्रान्तमणिदर्पणलोचना या स्वयं त्रिदशायालक्ष्मी दनुमिवोत्थि ॥ १५ ॥ शोभते यत्र सद्मानि सितयैः । इरादिशिखराणीव नवनिर्माकनिर्गमैः ॥ १६ ॥ था, जहाँ पर *सीता हरण - श्रवण अर्थात् - सीता ( जनकपुत्री ) के हरे जानेका श्रवण, रामायणादि शास्त्रों में परन्तु सीता हरण - श्रवण - अर्थात् लक्ष्मी (धन) का उद्दालन ( दुरुपयोग या नाश ) जनता में नहीं था। जहाँपर बन्धु - कलह - श्राख्यान अर्थात् - युधिष्ठिर व दुर्योधन आदि बन्धुओं के युद्ध का कथन, पाण्डवपुराण अथवा महाभारत आदि शास्त्रों में था परन्तु वहाँपर भाइयों में पारस्परिक कलह नहीं थी । जहाँपर कुरङ्गवृत्ति (मृगों की तरह उछलना ) क्रोदाभूमियों पर थी । अर्थात् क्रीडास्थानों पर वहाँ के लोग हिरणों- सरीखे उछलते थे परन्तु वहाँ की जनता में कुरङ्गवृत्ति ( धनादि के हेतु प्रीतिभङ्ग ) नहीं थी । जहाँपर धर्म-गुरुछेद ( धनुष की डोरी का खण्डन ) युद्धभूमियों पर था, परन्तु धर्म-गुण- छेव ( दानपूजादिरूप धर्म व ब्रह्मचर्यादि गुणों का अभाव ) वहाँ के लोगों में नहीं था एवं जहाँपर वक्रता ( टेढ़ापना ) कामदेव के धनुष के दोनों कोनों में थी, परन्तु वहाँ की जनता की वित्त वृत्तियों में वक्रता (कुटिलवामायाचार ) नहीं थी । 1 कुछ विशेषता यह है जिस अवन्ति देश में प्राणियों के मनोरथों का झुकाव, धर्म (दानपुण्यादि) पालन की ओर प्रेम का झुकाव साधुजनों को आहारदान देने के लिए उन्हें अपने द्वार पर देखने की ओर, मानसिक इच्छाओं का झुकाव वान करने की ओर प्रवृत था । इसीप्रकार उनकी बुद्धियाँ यशप्राप्ति में संलग्न रहती थीं और मनोवृत्ति का झुकाव सदा हित, मित व प्रिय बचन बोलने की ओर था एवं जहाँ के लोग पराक्रम प्रकट करने में उत्साह शीश थे। इसीप्रकार षहाँ के लोगों में उक्त गुणों के सिवाय वूसरे उदारता व वीरता आदि प्रशस्त गुणसमूह स्वभावतः परस्पर प्रीति करने में प्रवीण होते हुए निवास करते थे ||१३|| उस अषति देश में इक्ष्वाकु आदि महान् क्षत्रिय कुलों में उत्पन्न हुए राजाओं की राजधानी विख्यात ( प्रसिद्ध ) पायिनी नाम की नगरी है ||१४|| राजमहलों पर आरोपण की हुई ध्वजाओं के भागों पर स्थित हुए रक्तमयी दर्पण ही हैं नेत्र जिसके ऐसी वह उज्जयिनी नगरी ऐसी प्रतीत होती यी - मानों स्वर्ग लक्ष्मी को देखने के लिए दी स्वयं ऊँचे उठी हुई शोभायमान होरही है ॥१५॥ जिसप्रकार कैलास पर्वत के शिखर नवीन सर्पों की कौंचलियों के मिलने से शोभायमान होते है उसी प्रकार उस नगरी के गृह-समूह भी शुभ्र ध्वजाओं के फहराने से शोभायमान हो रहे थे ||१६|| *सौता जानकी लक्ष्मी । 1 कुरशः कुस्तिनृत्यं सुगवा कुस्सितरहं या भगवदुच्छलमं वा । १. परिसंख्यालंकार । २- या खोर्चा' यत्र साधारणं किचिदेकत्र प्रतिपाद्यते । अभ्यत्र तसा परिसंयोध्यते मया ॥" सं-टी- पृ० २०३ से संकलित – सम्पादक । ३. दीपक समुचयालंकार । ४. जाति-भलंकार । 1 ५. उश्प्रेशालंकार । ६. उपमालंकार । . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये नपानमाला यत्र तोपमः। भान्तीय मेलामन्दिनितम्बाः साभिषः ॥ १०॥ श्रीमत्वमपिरम्माणि वा इम्बोणिर्वते । शरणमीसपर्यास विफलाबामरक्रियाः ।। १८ ॥ सर्व चीभिवडामा मिष्टोचामपाएपणः । पौरकामदुहा यत्र भागभूमिनुमा इव ॥ १९ ॥ मक सिमानिव जालमागोनुनै हताः । वृभा रतिषु शैराणां यन्त्रव्यवनपुत्रिकाः ॥ २० ॥ चन्द्रोपलमाला निशि चन्द्रातपशुसः । इरन्ति पन हम्याणि पन्वयारागृहभियम् ॥ २१ ॥ पत्र सौषाम्मे सम्पविभमणाः क्षणम् । ओमाध्वनि सुतं यान्ति रविल्यम्दनवाधिनः ॥ २२ ॥ पस्स्थभित्तिमनियोतीता पत्र निशास्वपि । वियोगाय न कोकानां भवन्ति गृहदीपिकाः ॥ २३ ॥ स्गगाय या वित्तानि विसं धर्माय देहिनम् । गृहाण्यागन्तुमोगाय विनयाप गुणागमः २४ ।। सस्त्रवर्मनि पान्याना बहुदासपरिमाहात् । मूढीमधम्ति चेतासि यत्राभ्युपगमोनिषु ॥ २५ ॥ जिसमें नवीन व कोमल पत्तों की मालाओं के चिन्होंवाली तोरण-पंक्तियों (वन्दनमाला-श्रेणियों) उसप्रकार शोभायमान होती थी जिसप्रकार करधोनी से वेष्टित होने के कारण आनन्द उत्पन्न करनेवाले गृहलक्ष्मी के नितम्ब ( कमर के पश्चाद्भाग) शोभायमान होते हैं। जिस नगरी के अन्तःपुर के महलों ने, जो कि क्रीड़ा करते हुए मयूरों से मनोहर थे, गृह लक्ष्मी की पूजाओं में किये जानेवाले चमरों के उपचार (टोरे जाने ) निष्फल कर दिये थे ।।१८। जिस उज्जयिनी नगरी में, समस्त छहों ऋतुओं (हिम, शिशिर, वसन्त, प्रीष्म, वर्षा और शरद ऋतु) की लक्ष्मियों से अलत है शोभा जिनकी ऐसे गृह संबंधी कमीचों के वृक्ष, भोगभूमि के कल्पवृक्षों सरीखे नागरिकों के लिए वाच्छित फल देते हुए शोभायमान होरहे ॥१९॥ जिस उज्जयिनी नगरी में रात्रि में गृह संबंधी झरोखों के मार्गों से पीछे से आनेवाली (पहनेवाली) सिया नदी की शीतल, मन्द व सुगन्धित वायु द्वारा इस नगरी के निवासियों की संमोग-क्रीड़ा में सलाहुए खेद को दूर करने के हेतु यन्त्रों द्वारा संचालित कीजानेवाली पलों की पुतलियाँ व्यर्थ कर दीगई वी, क्योंकि वहाँ के नागरिकों का रतिक्लिास से उत्तम हुआ खेर सिप्रा नदी की शील, मन्द सुगन्धि मायु द्वारा, जो कि उनके गृहों के मरोखों के मार्ग से प्रविष्ट होरही थी, दूर होजाता था ।।२०॥ जिस नगरी के गृह, रात्रि में ऐसे चन्द्रकान्त-मणिमयी भित्तियों के अनभागों से, जिनसे पन्द्र किरणों के संसर्ग-श जन-पूर चरण होरहा था, फुख्यारों की गृह-शोभा को तिरस्कृत कर रहे थे ।॥ २१ ॥ सूर्य रथ के घोड़े, जिस नगरी के राजमहलों के अप्रमागों (शिखरों) पर स्थापित किये हुये कलशों पर सण भर विश्राम कर नेने के फलस्वरूप याच मार्ग में सुखपूर्वक (विना खेद उठाए) प्रस्थान करते है ।। २२ ॥ जिस नारी की गृह-वावड़ियों, गृहमितियों पर जड़े हुए रमों की कान्तियों से चमकती हुई सदा प्रकाशमान रहती थी, जिसके फलस्वरूप में रात्रि में भी पकवा-पकली का वियोग करने में समर्थ नहीं थी, क्योंकि पावदिनों के निकटवर्सी चकमा चकबीको रसमयी मितियों के प्रकार से रात्रि में भी दिन प्रतीत होता भा' ।।२३।। जिसमें नागरिकों की लक्ष्मी पात्रदान के लिये थी और चित्रवृत्ति धार्मिक कार्यव्य-पालन के लिये वी एवं गृह अतिमि-सत्कार के निमित्त ये सथा विद्याभ्यास आदि गुणों का उपार्जन बिनयशीत बनाने केतु बा ॥२४॥ जिस नगरी की दानशालाओं ( सदावर्त स्थानों) के मार्ग पर पानी-लोग इतनी अधिक संख्या में एकत्रित होवाते थे, जिससे कि याचक पान्थों की वित्तवृत्तियाँ, वातारों को उठकर नमस्कार 1. उपमालंकार। २. हेतूपमालंकार। 1. उपमालंकार। ४. जाति-मलकार। ५ उपमालंकार । प्रतिषस्तूएमालंधर। .. म्रान्तिमानकार। 4. दीपचकार । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वास सरस्वानि वाधनां सर्ववस्तूनि भूभृताम् । ह्रीवानां सर्वसाराणि यत्र संजग्मिरे मिथः ॥ २६ ॥ वयस्था भोगभूमीनां सधीची सुरसंपदाम् । आली व भोगभूतीनां या बभूव निजश्रिया ॥ २७ ॥ अपापविमोक्षान्तनेत्रापाङ्गशिलीमुखाः । मुधा कुन्ति कामिन्यो यत्र कामानगर्जितम् ॥ २८ ॥ अकली कान्ताभोगाः पताकितलोचनाः पृथुतरककुम्भा मदालसविभ्रमाः । स्मररिद्राः कामोद्दामा इवाश्कल्पिता त्रिभुवनजनानीसोमा विभान्ति यङ्गनाः ॥ २९ ॥ १११ यत्र व कामिनीनां चिकुरेषु मिलनिषु द्विधामात्रशेन स्वामिसेवासु केकरा लोकितेषु कुटिल्यं न विनयोपदेशेषु भूषा भङ्गसंगमो न परस्पर मैत्रीषु, लोचनेषु वर्णसंकरो म कुलाचारे वचन बोलने में किंकर्त्तव्यविमूढ ( किन-किन दाताओं को नमस्कार किया जावे ? इस प्रकार के विचार से शून्य ) होगई थीं || २५ || जिस नगरी में सातों समुद्रों की समस्त रत्न राशि (श्वेत, पीत, हरित, अरुण व श्याम रत्न समूह ) और पर्वतों की समस्त यस्तुएँ ( कपूर, कस्तूरी व चन्दनादि ) तथा द्वीपों की समस्त धनराशि परस्पर में सम्मिलित ( एकत्रित हुई सुशोभित थी' || २२ ॥ जो उज्जयिनी नगरी अपनी लक्ष्मी से भोगभूमि की सखी, देवलक्ष्मी की मित्राणी एवं कर्पूर, कस्तूरी व चन्दनादि भोग सम्पति की सहेली थी ||२७|| जिस नगरी की ऐसी कमनीय कामिनियाँ, जो कि भ्रुकुटि ( भोहें) रूपी धनुषों के विलास या नामोग्राम ( उतार-चढ़ाव से चंचल हुए नेत्रों के प्रान्तभाग रूपी षाणों से सुशोभित हैं. कामदेव का धनुष वर्ष ( ग ) निरर्थक कर रही हैं ||२८|| जिस नगरी की काम से उत्कट ऐसी कमनीय कामिनियाँ, संप्रामार्थं सजाई गई कामदेव के हाथियों की घटाओं ( समूहों ) सरीखी शोभायमान होरही हैं। कैसी हैं वे कमनीय कामिनियाँ और कामदेव की गज - ( हाथी ) घटाएँ ? जिनका विस्तार केशपाश रूपी विशाल ध्वजाओं से मनोश है, जिनके नेत्र पताकित ( छोटी ध्वजाओं से व्याप्त हैं। जिनके कठिन और ऊँचे कुच ( स्तन ) ही मनोह कलश हैं, जिनकी भुकुटियों ( भोहों ) का पिलास (क्षेप - संचालन ) यौवन- मद से मन्द उद्यमशाली हूँ एवं जिन्होंने अपने अनोखे सौन्दर्य द्वारा तीन लोक संबंधी प्राणियों के चित्रा क्षुब्ध ( चलायमान ) किये हैं ||२६|| जिस यिनी नगरी में निसर कृष्णता * नवीन युवती स्त्रियों के केशपाशों में थी । अर्थात् उनके केशपाश निसर्गेकृष्ण (स्वाभाविक कृष्ण - भँवरों व इन्द्रनील मणियों जैसे श्याम व चमकीले ) थे परन्तु यहाँ सम्यष्टि नागरिकों के चरित्रों में निसर्गकृष्णता ( स्वाभाषिक मलिनता - दुराचारता ) नहीं थी । जहाँपर द्विधाभाष ( केशपाशों को कंधी द्वारा दो तरफ दाई बाई ओर करना ) खियों के केशपाशों में था, परन्तु मानवों की स्वामी सेवाओं में द्विधाभाव ( दो प्रकार की मनोवृत्ति - कुटिल विद्वृति या दोनों प्रकार से घात करना ) नहीं था । जहाँपर कुटिलता वक्रता – टेवापन ) रमणीक रमणियों की कटाक्ष-विक्षेपवाली तिरी चितवनों में थी परन्तु मानवों के विनय करने के पतष में कुटिलवा ( मायाचार या अप्रसन्नता ) नहीं थी । जहाँपर भ्रुकुटि ( भोहें ) रूपी लताओं में भङ्ग : संगम (बिलास पूर्वक ऊपर चढ़ाना ) था, परन्तु मनुष्यों पारस्परिक मैत्री में भङ्ग-संगम ( विनाश होना) नहीं था । पर वर्णसंकरा (वेष, कृष्ण व रक्त वर्णों का सम्मिश्रण ) नेत्रों में थी, परन्तु विवाहादि कुलाचारों में वर्णसंकरता ( एक ब्राह्मणादि वर्ण का दूसरे क्षत्रियादि वर्णों में विवाह होने का सम्मिश्रण ) नहीं थी । १. अतिशयार्लकार । २ दीपकालंकार ३. दीपकालंकार । ४ उपमालंकार । ५. रूपक व उपमालंकार कृष्णसा फालता दुराचारता च । * द्विधाभावः उभयथा विभागः उभयमेवना । कुटिलता वक्ता असता + भङ्गः स्क्षेपः नाशरव । $ रकादयः ब्राह्मणादय ! Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये स्थोपरेनु विवेकविता - परिमापनेषु, मध्यदेशेषु दरिद्रता न मनीषितेषु, नितम्वेषु माता न विद्याव्यतिकरेषु, परणनलेला वृद्धिविलोपदर्शनं । विभवमहोत्सर, पादतठेषु पासुलता न वृत्तेषु । वा देवायतनमहानिरमोदतानः सतः प्रीणितपान्थसाह यक्ष्मीनिवास है। सपीमिर्जलदेवतावसतिभिर्देवोपमानर्जन स्वावासपुरीव भाति विभवेरन्यैश्च तैस्सैरपि ॥ ३०॥ तस्या पराकमकुहारातिसमस्तारातिसंतानता, सहसवर्णाभमाचारपरिपाखानाम, गुरुरिव राज्यलक्ष्मीविनयोपदेशस्थ, प्रथमयुगावतार हब सच्चरित्रस्य, धर्ममूतिरिव सस्यव्रतस्य, प्रहात्य इव सलोकाश्रयणस्य, जहाँपर युवती स्त्रियों के कुच (स्तन) कलशों में विवेकषिकलता ( परस्पर संजनवा ) थी, परन्तु परस्पर एक दूसरे के साथ पालाप करने में विवेकविकलता ( चतुराई-शून्यता) नहीं थी। जहॉपर स्त्रियों के उदरप्रदेशों में दिरिद्रता ( कृशता) थी, परन्तु मनुष्यों की वाञ्छित वस्तुओं में दरिद्रता (निर्धनता ) नही थी। जहाँपर जड़ता (गुरुता-स्थूलता )त्रियों के नितम्बों (कमर के पीछे भागों) में थी, परन्तु मनुष्यों के विद्याभ्यास-संबंधों में जड़ता ( मूर्खता ) नहीं थी। जहाँपर वृद्धि-विलोप-दर्शन (वढ़े हुओं को निहनी द्वारा काटने का दर्शन) पैरों के नाखूनों में था, परन्तु लक्ष्मी-प्राप्ति के उपायों (कृषि-व्यापारादि अद्योगों) में वृद्धि-विलोप-दर्शन ( लक्ष्मी के नष्ट होने का दर्शन ) नहीं था। जहाँपर पांसुलता (धूलि. धूसरित होना) पैरों के वलुओं में थी परन्तु नागरिकों के परित्रों में पांसुलता ( मलिनता या व्यभिचारप्रवृत्ति ) नहीं थी। जो सज्जयिनी नगरी अत्यन्त ऊँचे व विशाल जिनमन्दिरों से, देवताओं की क्रीड़ा के प्रवेशपाले बगीचों से, पथिक समूहों के हृदय संतुष्ट करनेवाली दानशालाओं (सदावर्त स्थानों ) से, धनाद 14 वैभवशाली गृहों से, देवताओं की निवासभूमि वापड़ियों से एवं देवताओं सरीखे सुन्दर व सदाचारी मानव-समूह से और इसीप्रकार की दूसरी जगप्रसिद्ध धनादि संपत्तियों से स्वर्गपुरी ( अमरावती ) सरीखी शोभायमान होरही है ॥३०॥ अहो, सजनता रूप अमूल्य माणिक्य की प्राप्ति में तत्पर और प्रसिद्ध 'धण्डमहासेन' राजा के सुपुत्र हे मारिदत्त महाराज ! उक्तप्रकार से शोभायमान उस उज्जयिनी नगरी में ऐसा 'यशोघे नाम का षि राजा था। जिसने भपने पराक्रमरूप परशु द्वारा समस्त शत्रुओं के कुलवृक्ष काट डाले थे। जो समस्त घोषि पों (ब्राह्मण-आदि) और आश्रमों (ब्रह्मचारी-आदि) में रहनेवाली प्रजा के सदाचार की उसप्रकार रता - करता था जिसपनर पिता अपनी सन्तान की रक्षा करता है। जो राजनीति-विद्याओं (बान्धीक्षिकी, रनेव जयी, वार्ता य दण्डनीति) के विचार में वृहस्पति-सरीखा पारदर्शी था। जो सदाचार के पालन में ऐसा ।। मालूम पड़ा था मानों-कृतयुग की मूर्तिमती प्रवृत्ति ही है। मथवा जो सदाचार का पालन उसप्रकार करता था जिसप्रकार कृतयुग की जनता की प्रवृत्ति सदाचार-पालन में स्वाभाविक तत्पर रहती है। ओ सत्यव्रत का पालन करने से ऐसा प्रतीत होता था, मानों-धर्म की मूर्ति ही है। जो परलोक प्रा लिए मोज़-सा था। अर्यान्-जो पारलौकिक स्थायी सुख की प्राप्ति उसप्रकार करता था जिसप्रकार मोवाई मार्ग ( सम्यग्दर्शन-शान चारित्र) के अनुष्ठान से पारलौकिक शाश्वत कल्याण प्राप्त होता है। । विषक: असंलमता चातुर्य च। शिरिद्रता कृशता अपनता । जता गुरुता मूर्खता । धिमहत आश्च श्रीब। पांमुलता पारवारिकता भूलि भूसरता च । १. श्लेष परिसंख्यालंकार। १, उपमा म समुच्चयालंकार । . Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वास निदकावास हव मनोभिलषितस्त्र, पुष्पाकर इचोलपत्रपरम्परागमनस्य, भूसर्ग व सर्वशाधिवगुणानां समवायः, प्रजापतिखि लाभवर्णानां धुरि वर्णनीयः, तारेश्वर इव चतुरुदधिमध्यवर्तिनः कुवल्यस्य प्रसाधयिता, शरस्समयाव प्रतापवधिसमिनमण हलः, हेमन्त इव पस्लविताप्रितमकन्दया, शिशिर व दृषितद्विदनापाङ्ग पहजः, वसन्त इव समानवितद्विजातिः, ग्रीष्म इव शोपितपरवाहिनीपसरः, पयोवागम इव संतपिता का सभी प्रभा गईनमा स्नानागा सकतीर विशारदमसिः क्षितिपतिः।। जो मनचाही वस्तुओं के प्राप्त करने में स्वर्गलोक जैसा समर्थ था। जिसप्रकार वसन्त ऋतु महोत्सब श्रेणियों की प्राप्ति की कारण होती है उसीप्रकार जो महोत्सव-श्रेणियों की प्राप्ति का कारण था। जो भूमि की सृष्टि सरीखा समस्त पार्थिव गुणों का समवाय (आधारभूत ) था | अर्थात्-जिसप्रकार पृथिवी-सृष्टि में समस्त पार्थिव गुण (पृथिषी के गुण-भार-बहन-श्रादि व समुद्र-पर्वताधि के धारण की सामध्य) होते हैं उसी प्रकार जिसमें समस्त पार्थिव-गुण ( राजाओं के गुण-उदारता व शूरता-आदि ) विद्यमान थे। जो कीर्तिशाली विद्वान पुरुषों के मध्य में उसप्रकार सर्वप्रथम श्लाघनीय (प्रशंसनीय) था जिसप्रकार ऋषभदेव भगवान कीतिशाली विद्वान पुरुषों के मध्य सर्वप्रथम प्रशंसनीय व पूज्य समझे जाते हैं। जो चारों समुद्रों के मध्यवर्ती कुवलय (पृथ्वीमण्डल) को उसप्रकार साधन करता था-अच्छे राज्यशासन द्वारा उल्लास-युक्त विभूषित करता था-जिसप्रकार चन्द्रमा कुवलय ( चन्द्रविकासी कमल-समूह) को अलङ्कत (प्रफुल्लित ) करता है। जिसप्रकार शरद ऋतु (आश्विन-कार्तिक मास) प्रताप-वड़ित मित्रमण्डल (विशेष ताप द्वारा सूर्यमण्डल को वृद्धिंगत करनेवाली) होती है, उसीप्रकार जो प्रवाप-बर्द्धितमित्रमण्डल (प्रताप-सनिक व कोशशक्ति द्वारा मित्र राजाओं के देश वृद्धिंगत करनेवाला ) था। जिसप्रकार हेमन्त ऋतु (मार्गशीर्ष व पौषमास) पल्लषितकुन्यकुन्दल ( अट्टहास पुष्पलवाओं को कोमल पत्तों से विभूषित करनेवाली ) होती है उसीमकार जो पल्लषित-आश्रित-कुन्दकुन्वन ( सेवकों के कुन्दकुन्दल'-यज्ञान्तस्नान-समूद-को वृद्धिंगत करनेवाला ) था । जिसप्रकार शिशिरऋतु ( माघ व फाल्गुन) दूषित-पलज ( कमलों को म्लान करनेवाली) होती है उसीप्रकार जो दुषित-विषवङ्गना-अपाङ्गपकज (शत्रु-स्त्रियों के नेत्रप्रान्तरूपी कमलों को म्लान करनेवाला) था। जिंसप्रकार चतुराज बसन्त समानन्वितद्विजाति ( कोकिलाओं को आनन्दित करनेवाली) होती है इसीप्रकार जो समानन्वितद्विजाति (मुनियों या जैनब्राह्मणों को प्रमुदित करनेवाला) धा। जिसप्रकार प्रीष्मऋतु शोषित-परवाहिनीप्रसर--कृष्ट नदियों के प्रसर-~-विस्तार-की शोषक होती है इसीप्रकार जो शोषित-परवाहिनीप्रसर (शत्रु-सेना का विस्तार अल्प करनेवाला) था। जिसप्रकार वर्षा ऋतु संतर्पितअर-नीपक-पादप (धाराकदम्म घृक्षों व दूसरे वृक्षों को चारों ओर से जलवृष्टि द्वारा सन्तर्पण करनेपाली) होती है पसीप्रकार जो संतर्पित-वनीपक पाइप ( यापकरूप वृक्षों को सन्तुष्ट करनेवाला) था। इसीप्रकार महापुण्यशाली जो समस्त धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष संबंधी शाखों में विचक्षण बुद्धिशाली था। १. तथा बाह--स्वामी समन्तमद्राचार्य:- . प्रजापतिर्यः प्रपमं जिजीविधः पाशास कृष्यादिषु गर्भसु प्रजाः । प्रबुवृत्तस्यः पुनरवतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदोवरः ॥ १ ॥ वृहत्त्वयंभूस्तोत्र से संगीत -सम्पादक अर्थ-जिस ऋषभदेव तीर्थकर ने अपसर्पिणी काल के चतुर्थकाक संबंधी राजाओं में प्रथम प्रजापति ( समाद) होकर जीवनोपाय के जानने की इच्छा रखनेवाले प्रजापनों को कृषि व ग्यापारादिषट्कों में शिक्षित किया था। पुनः तम्यज्ञानी होकर आश्चर्यजनक माल्मोनति करते हुए तत्वज्ञानियों में प्रधान होकर प्रजाजन, फुटम्योजन, शरीर ३ भोगों से विरक्त हुए ॥१॥ १. भवभूमा यत्र तत्र फुदी प्रजति अन्मेजयः, इतिः श्रुतिः- यशस्तिलक की संस्कृत टीका प• २१. से समुदत - सम्पादक Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मशक्तिरूपकाव्ये मानना प्रपितामहः पूर्वेण तु पिता । त्रिवेदीदिविशिविममरामः त्रिदिवातरत्कीर्ति कोकीपतिभिः समः ॥ ३१ ॥ चतुर्थनै समासम्म दुर्विद्याममपत्नीः । चतुःसमपसारतुरम्भोभवतः ॥ ३२ ॥ परिवसे करे त्यागः सस्य वक्त्रे कुतं सुतौ स्यानन्यवनाचेवमेतद्रूपतां गा ॥ ३३ मेनाजितोऽत्यर्थ कामं पुरपता कृताः । सकामधेनवो व्यर्थाश्चिन्तामणिरमः ॥ ३४ ॥ धर्मस्यामा बाणो नुर्पु चे पराक्मुखम्। ततो यथा भवरिविजयाय भुजद्वयम् ॥ ३१ ॥ परणे मत्स्य प्रीतिः शत्रुगम | दोर्दण्ड एव यस्यासतो विद्वानः ॥ ३६ ॥ जो इस जन्म की अपेक्षा से मेरा प्रपितामह ( पिता का पितामह ) था । अर्थात् - वर्तमान में मेरे पिता यशोमति राजा और उसके पिता यशोधर राजा और उसके पिता राजा यशोर्ष था । और पूर्वजन्म ( यशोधर पर्याय ) की अपेक्षा से मेरा पिता था' | ११४ नहीं सोचना जो त्रिवेदी (ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद अथवा सर्क, व्याकरण व सिद्धान्त ) वेत्ता विद्वानों द्वारा सम्माननीय और नारायण-सरीखा पराक्रमी था एवं जिसकी कीर्ति स्वर्गलोक की इन्द्रसभा में प्रवेश कर रही थी और जो इन्द्र, घरणेन्द्र व चकवर्ची-सा प्रतापी था ॥ ३१ ॥ जिसकी प्रवृत्ति चारों पुरुर्थी ( धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष ) के परिपालन में तत्पर थी। जो आन्वीक्षिकी ( दर्शनशास्त्र), त्रयी (वर्णामों के कर्तव्यों को बतानेवाली विद्या ), वार्ता ( कृषि व व्यापारादि जीविकोपयोगी कर्तव्यों का निरूपण करनेवाली विद्या) और दण्डनीति ( राजनीति ) इन चारों विद्याओं के पारदर्शी विद्वानों में श्रेष्ठ था। जो चार सिद्धान्तों (जैन, शैव, वैदिक व बौद्धदर्शन ) के रहस्य का ज्ञाता था और जिसकी कीर्ति चारों समुद्रों में विख्यात थीं ॥ ३२ ॥ जो अनोखे निम्नप्रकार धर्मादि प्रशस्त गुणरूप आभूषणों से अशक्त था । उदाहरणार्थ - जिसका चिन्त धर्म (अहिंसा) रूप आभूषण से, करकमल वानरूप आभूषण से, मुख सत्यभाषणरूप अलङ्कार से और कर्णयुगल शास्त्र -श्रवणरूप आभूषण से विभूषित थे* ॥ ३३ ॥ वाचक-लोक के मनोरथ विशेषरूप से पूर्ण करनेवाले जिसने अभिलषित वस्तु देनेवाली कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृद्ध आदि वस्तुएँ स्यर्थ कर दी थीं ॥ ३४ ॥ जिस यशोर्घराजा की दोनों भुजाएँ शत्रुषों को पराजित करने के लिये इसलिये समर्थ थीं, क्योंकि बाज तो धर्मस्याग से (धनुष द्वारा छोड़े जाने के कारण और दूसरे पक्ष में न्यायमार्ग का उलन करने के कारण ) विजयश्री प्राप्त करता है एवं मनुष युद्ध के अवसर पर पराङ्मुख ( डोरीवाले भाग को पीछा करनेवाला और दूसरे पक्ष में कायरतावश पीठ फेरनेवाला) होकर विजयश्री प्राप्त करनेवाला होता है ॥ ३५ ॥ उस खन को विकार है, जो बुद्धभूमि पर शत्रु कष्ठों को छिन्न-भिन्न करने में अनुरक्त नहीं है, इसीकारण (देना होने के मित्र से प्रत्युपकारशून्यतारूपी दोष होने के कारण) जिसका भुजरूपी दएड ही शत्रुओं का क्षय करनेवाला हुच्चा - " ।। ३६ ॥ उक्त पाठ इ. लि० सटि- क ध से संकलित । मु० प्रतौ तु 'जमतो' इति पाठः । १. मालंकार । उपमा - अतिशयालंकार । ३. अतिश वालंकार | समुकारुङ्कार | ५. उपमालङ्कार । ६. श्लेषालङ्कार। ७. रूपक - स्लेवालङ्कार । ८. तथा चोच कृतकार्येषु भृत्येषु नोपकुर्वन्ति ये नृपाः । जन्मान्तरेऽधिनां ते स्युस्तद्ग्रहहिराः ॥ १ ॥ वर्षात् जो राजालोग, उनकी कार्य-सिद्धि करनेवाले सेवकों का प्रत्युपकार नहीं करते, वे भविष्य जन्म में उन सेवकों के जो कि अन्मान्तर में अधिक ऐश्वर्य प्राप्त करनेवाले होते हैं, ग्रह-किडर ( गृह-सेवक ) होते हैं। – यशस्तिलककी संस्कृत ट्रीका पृ० ११२ से समुद्धृत–सम्पादक । ४. दीपक, उपमा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . द्वितीय भाषासः ११५ मेमानमर्यग्रौण्डीमयोपैः कुबेरायः । प्रस्थापित विश्पालकाभूषणनिमः ॥ ६ ॥ . ममवत्कोऽपि नाभाग यस्य लक्ष्मी भभुजः । नाभाग इति तेनाली पाये जगतो REM. निष्पकमहीभागो निर्विपक्षमहोदयः । नित्यायाधमनः माप पः परं माहबोत्सवम् ॥ १९ ॥ भूपतेर्यस्प माकन्दमयंगमाः । बभूर्भुवनेशाना: कर्मराम कीपा .. गुणारवामपेर्यस्य महास्वम्बनितने । सा अवकनारम्ब सभाकुम्मायने यया ॥४१॥ या सर्वलोकानां यो क्ष शितिरक्षण । यः स्वयंभूर्जगवादे श्रिया पुस्मोपमः ॥ ४२ ॥ प्रागनिमन्दरहिमाचलसेतुबन्धमयावमस्पकमिदं भुवन विलोक्म ।। स्वीयं पायः पूवरे यमनस्किातीवमलादुपरि पोषमिवावरतार ॥ ४३ प्रतापकम्पिलासुरासुरजोधपरिसम्मनगरसोदितोषिषविजयामास्वनविसस्तकविक्पालसेवासमपराधमुपायनीकृतायावमवमपिरम्मोहास्वादोन्मबमधुकरकुलकोलाहललमहकरिण्डिमाबम्बरकरिघटा। जिस यशोधराजा ने इस संसार में अद्भुत त्यांग, विक्रम और यशरूपी कमजों द्वारा दिपाल नरेन्द्रों अथवा इन्द्रादिकों के कर्णाभूषणों की शोभा निराकृत (तिरस्कृत ) की थी' ॥३७ ।। जिस राजा की लक्ष्मियों ( धनों) में कोई भी प्रभाग (धनाश ग्रहण न करने वाला) नहीं हुआ । अर्था-सभी लोग इसके धन से लाभ उगते थे; क्योंकि यह विशेष उदार था। अतः जगत के प्राणियों द्वारा माना हुआ यह "नामाग' ( विमोष पुण्यशाली ) यह दूसरा नाम प्राप्त करके लोक में विष्यात मा १३८॥ जो यशोधराजा केवल आहष-उत्सयों (ईश्वरपजा-महोत्सवों) से विभूषित था, परन्तु बह निश्चय से कवापि बाहय उत्सव (युद्ध संबंधी उत्सव ) को प्राप्त नहीं हुआ ; क्योंकि यह, क्षुद्रशत्रु-रहित देशवाला, शनु-रहित उदयशाली और उपद्रवों से शून्य प्रजावाला मा ॥३६जिस यशोधराजा की आम्रवृक्ष की मारियों ( बालरियों) सरीखी कीनियाँ, इन्द्र, धरणेन्द्र पारुषी-मादि के कानों के आभूषण-निमित्त हुई ॥४०॥ गुणरूपी रत्नों के समुद्र जिस कोर्षमहाराज का उज्वलीकरण-व्यापारशाली यश मझाएडमन्दिर में सदा अमृत से भरे हुए पट के समान भाचरण करता है ॥४शा जो यशोर्घमहाराज सन्मार्ग-प्रदर्शक होने के फलस्वरूप समस्त प्रचाजनों के नेत्र अथवा प्रक्षुष्मान कुलकर थे। जो पृथ्वीपालन में विपक्षण अथवा प्रजापति थे। इसीप्रकार जो प्रजाति में श्रीब्रह्मा या श्री ऋषभदेव थे एवं लक्ष्मी से अलत होने के फलस्वस्थ माप्रपण या श्रीकृष्ण थे ।।१२।। जिस यशोधमहाराज ने अपने शुभ्र यश को विशाल (महान ) और दबाज, अस्ताचल, हिमाचल (हिमालय ) और सेतुबन्ध (दक्षिण पर्षत ) की सीमावाले मनुष्य क को भसि अस्प (विशेष छोटस) जानकर, उसे अपने शुभ्र यश को) पन्द्र के बहाने से भामाश में और शेषनाग के बहाने से अधोलोक में विभक्त कर दिया था। अाम्-जन उसका विस्तृत शुन मारक सीमावाले कोटे से मनुष्य लोफ में नहीं समाया तो उसने उसे चन्द्र व शोषनाग के बहाने से समसः भाकाश. में म अधोलोक में पहुँचा दिया । अर्थात् उसकी कद्र ब शेषनाग-सी उज्वल पसोराशिबीन लोक में व्याप्त थी ॥४३॥ . ऐसे समस्व राजा लोग, ऐसे जिस 'यशो' राजा की सेवा करते थे। जिन्होंने (जिन १. उपमालद्वार। १. श्लेषोपमालार। * भाइवस्तु पुमान्यागे सारेऽप्याहवस्तथा इति विश्वः । अर्थात्माइप चन्द यशप युवनि पो पर्यों में प्रयुक्त होता है। ३. तु-अलाहार । ४. उपमालहार । ५. रूपक व उपमालंकार । ६. सह-अलंकार । ५.उफमासकार । भनकरतोदितविजयामास्वमसेषोत्साहितसकलाहिमालपताकिमीराखम्' इति का । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्विलकनाम्यूकाव्ये समसिकमावशेषकदनादुरुविनोददिनीसाजामेषजराणनिवदाः समुपानीतलधनावधिविविधरनखचितवघकाबनसिचयनिस्याः प्रदर्शित निजाम्बयपरम्परायातापहसितमुरसुन्दरीविभ्रमाम्भोल्संदी: सिषेविरे धरणिपतयः ।। मौणीयधैर्यविजयार्जनसंकयां यं वर्गन्ति गुणिमो सुगरवराशिम् । भौदार्यनिजितसुरामकामधेनुं च स्तुवन्ति अगतां पतयो माप ॥ ४४ ॥ येन निःशेषविष्टपनिविष्टविष्टकण्टकोत्पाटमार्पित करकपागंन निजभुजविजपार्जनजनितजगत्कल्याणपरम्परण च नितान्तखातपर्यस्तपुरपर्यन्तधरगया समइमातङ्गसंगतगेहगोचराः प्रहरिविहाराकुलितनिकेतनवीधयः । राजाओं ने ) ऐसे हाधियों के समूह, यशोई गाराज के तिटक में उपधित वि थे, जो कि अकुश की मर्यादा से संचालित किये जाते थे और जिन्होंने मद ( गएहस्थल-आदि स्थानों से बहनेवाला मदजल ) रूप मद्य की सुगान्ध के पास्वाद-यश इषित हुए अथवा मत्त हुए भँवर-समूहों के महार शब्दों से बाजों के विस्तार द्वगुणत किये थे। इसीप्रकार जिन्होंने ऐसे कुलीन घोड़ों के समह, भैंट में उपास्थत किये थे, जो कोड़ों का मर्यादा से संचालित किये जाते थे और संग्राम ही जिनकी गैव कीड़ा थी एवं जो अच्छी तरह शिक्षित किये गए थे। एव जिन्होंने पूर्व पुरुषों से सोचत की हुई घनराशि और नाना प्रकार के रनर्जाडत कवच (बस्तर) और सुवर्णमयी बसों के समूह भेंट किये थे और जिन्होंने अपनी कुल-श्रेणी में उत्पन्न हुई और अनीखे लावण्य-चश देवियों के विलास को तिरस्कृत करनेवाली उत्तम कन्याओं की श्रेणी मैंट की थी। कैसे हैं यशोर्घ राजा ? जिसने प्रताप (दुःसह तेज) द्वारा समस्त सुरासुर लोकों (कल्पवासी, भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी देवों) के स्वामी कम्पित किये थे। जिसकी समस्त राजामों की सेवा-समय { उत्सव संबंधी लग्न-समय ) की शोमा, निरन्तर अत्यन्त उत्कृष्ट प्रदाग्वजय सम्बन्धी नगाड़ों के शब्दों द्वारा सूचित की जाती थी। गुणवान् तीनलोक के स्वामी (इन्द्रादि), इस समय भी स्याग व विक्रम की ख्याति, धैर्य और ।। दिम्बिजय संबंधी कथानकों में जिस यशोर्घ महाराज का, जो कि गुणरूपरसों की राशि है और जिन्होंने अपनी उदारता द्वारा कल्पवृक्ष और कामधेनु को सिरस्कृत किया है, वर्णन व स्तवन करते हैं | समस्त पृथिवीमण्डल पर वर्तमान शत्रुभूत राजारूपी कण्टकों का उन्मूलन करने के लिए इस्त पर खडधारण करनेवाने और अपना मुजाओं द्वारा सम्पादन की हुई विजयलक्ष्मी से समस्त प्रथिवीमरवल की कल्याणपरम्परा उत्पन्न करनेवाले जस 'यशोर्ष' महाराज के सापत व प्रसन्न होनेपर उसके द्वारा ऐसे राजा लोग सरशता (शब्द-समानता ) में प्राप्त किये गए। कैसे हैं वे शत्रुभूव व मित्ररूप राजा लोग? जिस यो महाराज के कापत होनेपर जो नितान्त-खात-पर्यस्त-पुर-पर्यन्तधरणिशासी हुए । अर्थात्-जिन शत्रुभूत राजाओं के नारों की वासदेशव: मूमियाँ विशेष रूप से विदीर्ण व भग्न ( मष्ट ) कर दीगई थीं और जिसके प्रसन्न होनेपर मित्रराजा, नितान्त-खाव-पर्यस्त-पुर-पर्यन्तधरणिवाले हुए। अथोत्-जिसके प्रसन्न होने पर, मित्राजाओं के नारों की समीपवर्ती पूधिषियाँ, प्रचुर स्वाईयों से वेष्टित हुई। जिसके क्रोधं प्रकट करनेपर जो शत्रुभूत राजा, समद-मातङ्ग-संगत हुए। अर्थात्-बहकारी पाण्डालों से संयुक्त हुए और जिसकी असमता होनेपर जो मित्रभूत राजालोग, समद-भावा--संगव-गृहगोचर हुए । अर्थात -जिनकी गृहसंचरभूमियाँ मदोन्मत्त हाथियों से व्याप्त हुई। जिसके रुष्ट होजाने पर जो. शनुभूत राजा, प्रहप-हरि-विहारबालित-निकेतनवीथि-शाली हुए। अर्थात्-जिन शत्रु राजाओं के गृहमार्ग, इर्षित हुए बन्दरों के पर्यटन से १. मतिभय र उपमालंकार । २. उपमालंकार। * 'मितवीथयः' इति । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - . .-AT द्वितीय भावास संचमकिप्रकासंकयुर्णद्वारदेशाः प्रशान्तसमस्तकस्यव्यायः प्रथिततीर्थोपासनाविर्भवदाश्चर्यश्वर्याः सविभ्रममाम्तमहिषीमचारभस्तिभवनभुमयः परपद्वाराधनप्रकटमहामन्त्रप्रभावाः ज्याप्त थे और जिसके प्रसन्न होनेपर जो मित्रभूव राजालोग, प्रष्ट हरि-विहार-श्राकुलित-निकेतनवीधीषाले हुए । अर्थात् -जिन मित्रराजाओं की महल-वीथियाँ ( पङ्क्तियाँ या मार्ग), हर्षित हुए घोड़ों से और विशिष्ट मोतियों की मालाओं से सुशोभित होरही थीं। जिसके कुपित होजाने पर जो शत्रुभूत राजालोग, संचरतखजिप्रकाण्ड-संकट-दुर्ग-द्वारदेशवाले हुए। अर्थात्-जिन शत्रु राजाओं के कोट के द्वारदेश, प्रवेश करते हुए गेडों के समूहों से ज्याप्त और [ऊजड़ होने के फलस्वरूप] मनुष्यों द्वारा प्रवेश करने के लिए अशक्य थे और जिसके प्रसन्न होनेपर, जो मित्रभूत राजालोग, संचरत्-खङ्गिप्रकाण्ड --संकट-दुर्ग-द्वारदेशबाले हुर। अर्थात्-जिनके कोट के दरवाजों का प्रवेश, संचार करते हुए श्रेष्ठ वीर पुरुषों के कारण संचार करने के लिए अशक्य था। जिसके कुपित होनेपर शत्रुभूत राजालोग, प्रशान्त-समस्तकृत्यभ्याप्ति-शाली हुए । अर्थात्-शान्त होचुकी हैं समस्त राजकायों की प्रवृत्तियाँ जिनकी ऐसे हुए और जिसके प्रसन्न होनेपर जो मित्रभूत राजालोग प्रशान्त समस्त-कृत्य-व्याप्तिशाली हुए । अर्थात्-मैत्रीभाष के फलस्वरूप शान्त होचुकी हैं समस्त कृत्य च्याप्ति ( भेद नीति-संबंधी ब्याप्तियाँ) जिनकी ऐसे थे। जिसके कुपित होनेपर जो शत्रुभूत राजा, प्रथित-तीर्थ- उपासन-भाषिर्भवत्आचर्य -- ऐश्वर्यशाली हुए। अर्थात्-प्रसिद्ध तीर्थस्थानों ( काशी प अयोध्या-आदि ) में निवास करने से (राब छोड़कर बपश्चर्या करने के कारण ) जिन- शत्रु पजाओं को आश्चर्यजनक ऐश्वर्य (अणिमा व महिमाप्रादि ऋद्धियाँ ) प्रकट हुए थे और जिसके प्रसन्न होनेपर मित्रभूत राजालोग, प्रथित-सीर्थोपासनभाविर्भवद्-आश्चर्य-ऐश्वर्यशाली हुए। अर्थात्-विख्यात तीर्थों (मन्त्री, पुरोहित व सेनापत्ति-आदि अठारह अल्वर की प्रकृतियों) की सेवा से जिन्ई आश्चर्यजनक ऐश्वर्य (नापत्य-नृपतिपन) प्रकट हुआ था। खिसके कुपित होनेपर शत्रुभूत राजाओं के महलों की भूमियाँ, स-वि-श्रम-भ्रान्त-महिषी-प्रचार-भरित-धी। अर्थात-काक-आदि पक्षियों के ऊपर गिरने के कारण भागी हुई भैंसों के प्रचार ( षड्-भक्षण-खानेपीने के योग्य घास-मादि के भक्षण ) से ज्याप्त थी और जिसके प्रसन्न होनेपर मित्रभूत राजाओं के महलों की पुषिवियाँ, सविभ्रम भ्रान्त-महिषी-प्रचार-भरित थी । अर्थात्-भ्रुकुटिक्षेप-( भोहों का विलास पूर्वक संचालन) सहितः पर्यटन करती हुई पट्टपनियों के प्रचार ( गमनागमन) से व्याप्त थी। जिसके कुपित होने पर शत्रभूत राजा लोग, परपद-आराधन-प्रकट-महामन्त्र-प्रभावशाली हुए। अर्थात-जिनको मोक्ष की धाराधना से महामन्त्र ( पंप नमस्कार मंत्र या ॐ नमः शिवाय-आदि मंत्रों ) का माहास्य प्रकट हुमा चा अर्यात-जिनपर यशो महाराज ने कोप प्रकट किया, वे शत्रुभूत राजा लोग राज्य को छोड़कर वन में जाकर दीक्षित होकर तपश्चर्या करने में तत्पर हुए, जिसके फलस्वरूप उनमें मोक्षमार्ग की आराधना में हेतुभूत महामन्त्र का प्रभाष (अणिमा-आदि ऋद्धि) प्रकट हुभा एवं जिसके प्रसन्न होने पर मित्रमत्त राजाकोग, पर-पवारापन-प्रकट-महामन्त्र-प्रभावशाली हुए । अर्थान-जिनके पचानमन्त्र' '.... प्राण्ड' इति का ।। १. तथा चोर्ट राशामष्टादशासीति यथा-सेनापतिर्गणको रामश्रेष्ठी दम्दाधियो मन्त्री महत्तरो बलवत्तरवरवारो वर्गाचतुरामले पुरोहितोमात्यो महामात्यश्चेयि । यशस्तिलक की संस्कृत टीका से समुदत पू. २१६-सम्पादकं । १. तथा यो सहायः साधनोपायो देशकोशयलाबलम् । यिपत्तेश्च प्रतीकारः पञ्चाङ्गों मन्त्र इस्यते ॥१॥' अथवा प्रकारान्तरेण पध्याहों मन्त्रः कर्मणामारम्मोपायः पुरुषव्यसंपत देशकालप्रविभागो विगिपात: प्रतीकारः कार्यश्चेति । सं. टी.१० २१७ से संकलित Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये सकलजनविरोधोमयोपोपाप्रसाdिaeeमीपणापः श्रीपोपयोगातिययनियमीतविश्वविरभरामस्कटका: प्रसीदमारिवामन्दाकिनीप्रवाहविनितिनिखिलसलासरावतरणः स्वस्थ रोषोपयो: समतामानिमियो भूमिभुजः। मम्मानिसका दुर्गम भाविकामोम् । स्रागार्षिका बाववर्य जनोऽथों गौण्डीक्षण क्षितिपान्तरेषु ॥ १५ ॥ ( समान । साथरोग बाविसामान्य, रामुगलों बारा कीजानेवाली चरण-कमलों की सेवा से प्रकट होगाम था। मान-अब यशोमहाराज, जिन पर प्रसन्न होते थे, तब उन मित्रराजाभों के शत्रु सन पर कमलों की सेवा करते थे, जिसके फलस्वरूप मित्र राष्ट्रों के पश्चाङ्ग मंत्र का प्रभाव प्रकट होजायमा। जिसके अपित होनेपर शत्रुभूत राजालोग, सकल-जगत्-व्यतिरिक्त उद्योग-योग-उपाय-प्रसाधितप्रक-मानीव-प्रवृश्चियली थे। अर्थात्-जिसके रुट होने पर शत्रुभूत राजाओं ने, लोकोत्तर उद्यमशाली समाधि ( धर्ममान) की प्राप्ति के उपायों (वैराग्य-आदि ) द्वारा उत्कृष्ट आत्मकल्याण की अनम्तशानादिलावण्वानी प्रवृति प्राप्त की थी और जिसके प्रसन्न होने पर भित्रभूत राजालोग सकल-जगत्-व्यतिरिक्तभयोग-योग-उपाय-प्रसाधित-प्रकट-माल्मीय-प्रवृतिशाली हुए। अर्थात्-जिसकी प्रसन्नता होने पर मित्र भूव गजामों ने खोकोचर उद्योग (शत्रुओं पर पढ़ाई-आदि) किया जिसके फलस्वरूप उन्होंने योग (गैरमौजूद राज्यादि की प्राप्ति ) के उपायों ( साम, दान, दंड व भेदरूप साधनों) से अपनी भलाई करनेवाली ऐसी प्रवृत्ति स्वीकार की, जो प्रकृष्ट ( असाधारण ) थी। जिसके कुपित होने पर शत्रुभूत राजा लोग, श्रीफलउपयोग-प्रतिशय-विशेष-वशीकृत-विश्व-विश्वभराभृत्-कटकशाली हुए। अर्थात्-जिसके रुष्ट होजानेपर शत्रुभूत राजाओं ने वेल-फलों व पचों का विशेष भक्षण करने से विशेष रूप से समस्त पर्वतों के तट स्वीकार किये थे और जिसके प्रसार होनेपर मित्रभूत यजालोग, श्री-फल-उपयोग अतिशय-विशेष-वामीकृतविश्व-विश्वभराभृत् कटकशाली थे। अर्थात्-जिन मित्रमूत राजाओं ने लक्ष्मी (राज्य लक्ष्मी व धनादि) के फलों ( समस्त इन्द्रिय सुखों ) का अधिक आस्वादन ( उपभोग ) करने के हेतु राजाओं की सेनाएँ स्वीकार की थी और जिसके कुपित होने पर शत्रुभूत राजा लोग, प्रसीवात-अनवथ-विद्या-मन्याकिनीप्रवाह-विनिर्मूलित-निखिलसुखान्तराय-तरुशाली थे। अर्थात्-प्रसमहोनेवाली निर्दोष विद्या ( कर्म-मल फज से रहित और शानावरणादि घातिया कमों के सय से सत्पन होनेवाला केवलझान) रूपी गङ्गाप्रवाह धारा, जिन्होंने सुखों के विघ्न-बाधा रूप वृष जड़ से उखाड़कर फैक दिये थे। अर्थास---यशोधराजाके कोपभाजन शत्रुभूत राजा बन में जाकर दोचित होजाते थे, जिसके फलस्वरूप वे, ज्ञानाचरण-मादि घातिया कसों देवर से उत्पन्न होनेवाली निर्दोष केवलबान रूप षिथा की गङ्गा-पूर से एन विघ्न-बाधा रूप वृक्षों को जड़ से उत्पड़कर फेंक देते थे, जो कि परमानन्द-रूप मोक्षसुख की प्राप्ति में विघ्न बाधाएँ उपस्थित करते थे। एवं जिसके प्रसा होनेपर मित्रभूव राजा लोग प्रसन्न झेनेवाली निर्दोष विद्या (भावीक्षिकी, यी, वार्वा व दंडनीति रूप राजाषिया) रूपी गंगा के प्रवाह ( निरन्तरस्मवृत्ति) हाय उन विप्ररूप वृक्षों (शत्रु-छादि) जड़ से उखादकर फेंक देते थे, जो किसनके समस्त इन्द्रिय सुखों में विनयाधाएँ उपस्थित करते थे। याचकों के लिए इच्छित वस्तु देनेवाले जिस यशोर्ष महाराज ने निम्न प्रकार दो वस्तुएँ ही दुर्लभ यी थी। १-पानियों को समस्त पृषियी-न पर पापक मनुष्य की प्राप्ति दुर्लभ थी, क्योंकि यह समस्त पविधीमी याचकों के मनोरथ पूर्ण करावेवा या । २-पान और पराक्रम में प्रसिद्ध हुए 'शौण्डीर सन्द की प्राप्ति भी दुर्लभ थी क्योंकि समस्त्र भूमण्डल पर इसके सहीला दानवीर , परामशाही कोई नदी मार ॥४॥ 1.शेखपमानकार । २.निन्दास्तति-अलार। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाषास ११९ यस्मै सचरित्रपवित्रकोटिकौमुहोसमासावितप्रीतिप्रसरः सर्वस्वमिष स्थैर्य मन्दरः, सरित्पविर्गाम्भीर्यम, मनः सौभाग्यम, अमरगुरुसिलम्, हा खेर यम., ग. काका, अनङ्गश्रीमहस्वम्, सरस्वती सिद्धि वाधि, लक्ष्मीनिवेशकर्मणि, चिन्तामणिर्ममसि, कुलदेवी पुषि, वैवस्वसः स नवश्यायाम, एवमध्येऽपि वरुणवैभवण्प्रभृतयः सपनामीण स्त्रमागधेयानि पर्शयामासुः । पमै प्रमापालामवर्ष माजे तुः सुराः स्वांशममी मुपाय। ऐश्वर्यमिन्द्रस्तपनः प्रताप कलाः कलावांत्र बलं बलालः ॥ ४ . पस्मादभूगर लोकन्धतुर्वर्गफलोत्यः । अन्यायमुनगाभोगगारूमखमणे पात् ॥ ४ ॥ ममोभूभोगिलोकाः स्रोतोमि वनत्रये । ततान भूतो यस्मात् कीति त्रिपथगापगा ॥ ४० ॥ जिसके प्रशस्त-चारित्र'-सदाचार ( परनारी के प्रति मातृ-भगिनीभाव, उदारता, न्यायमार्ग में प्रवृत्ति, अप्रियबादी के प्रति प्रिय वचनों का व्यवहार व परदोष-श्रयण में बहिरापन आवि) की पवित्र कीर्तिरूपी चन्द्रिका से विशेष प्रसन्न हुए सुमेरु पर्वत ने जिसके लिए अपना सर्वस्वधन सरीखा स्थैर्यगुण (निश्चलता-न्यायमार्ग पर निश्चल रहना ), समुद्र ने गाम्भीर्य ( गम्भीरता), काम:य ने सौभाग्य ( सव को प्रिय प्रतीत होना), बृहस्पति ने नीतिशास्त्र का रहस्य और कल्पवृक्ष ने सेव्यस्व (आश्रय किये जाने की योग्यता) प्रदान किया था। इसीप्रकार जिसके लिए भूमिदेवता ने अपना क्षमागुण, धाकाशलक्ष्मी ने महत्ता, सरस्वती (द्वादशाङ्गाषाणो) ने वचनसिद्धि, लक्ष्मी ने निदेशकर्म में सिद्धि, चिन्तामणि ने मानसिकसिद्धि, कुलदेवी ने शारीरिक सिद्धि और यमदेवता ने समस्त लोगों की वशीकरणसिद्धि प्रदान की थी एवं दूसरे भी बरुण और कुवेर-भादि देवताओं ने जिसके लिए पर्षपरुषों द्वारा संचित धनराशि सरीखे अपने अपने प्रशस्त गुण (अगम्यत्व-जिसका कोई उलाइन न कर सके ष अक्षयनिधि-श्रादि ) प्रदान किये थे। प्रजा-संरक्षण रूप यश से विभूषित जिस यशोर्ष राजा के लिए इन प्रत्यक्षीभूत निम्नप्रकार के देवताओं ने अपना-अपना अंश ( प्रशस्तगुण ) प्रदान किया था । उदाहरणार्थ--जिसके लिए इन्द्र ने अपना ऐश्वर्य, सूर्य ने प्रताप, चन्द्रमा ने कलाएँ और वायुदेषता ने शक्ति प्रदान की थी ॥४६ ।। अन्याय रूप सर्प के फणा-मण्डल के संकोचनार्थ ( नष्ट करने के लिए। गारुत्मत-मणि (विषापहार-मणि । सरीखे जिस यशोघं नरेन्द्र से यह समस्त दृष्टिगोचर मनुष्य लोक, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को सेषन करता हुआ उनके फल (लौकिक व पारलौकिक सुख ) प्राप्त करता था ॥ ४७ !जिसप्रकार भूस् (हिमालय पर्वत ) से प्रवाहित हुई मन्दाकिनी ( गंगा नदी तीनलोक द्वारा पूज्य अपने प्रयाहों से लोक में विस्तृत या प्रसिद्ध होती है, उसीप्रकार जिस भूभृत् ( यशोघेराजारूपी हिमालय ) से प्रवाहित हुई कीर्तिरूपी मन्दाकिनी, अवं, मध्य व अधोलोकपी प्राणियों द्वारा पूज्य अपने यशरूप प्रवाहों से तीन शोक में विस्तार को प्राप्त हुई || ४८।। १. तथा चोकम् 'न बूते परदूषणं परगुणं वक्त्यल्पमप्यन्वई संतोषं बहते परर्धिषु परं वार्तामु धत्ते शुचम् । स्वरूपाय न करोति मोजमति नयं नौचित्यमुशाययुक्तोऽप्यप्रियमप्रियं न रचयत्येतच्चरित्रं सताम् ॥ १॥ मर्य-ओ इसरे गोषोंपर दृष्टि न डालता हुआ उसके भल्प गुण को भी प्रति दिन प्रशंसा करता है। जो दूसरों की बढ़ती हुई सम्पति देखार अत्यन्त संतुष्ट होता हुआ दूसरे की दुश्म की बातें जानकर शोकाकुल हो जाता है। वो भोवे से भी ( हिंसा, 3, चोरों, कुचाल व परिप्रह) में प्रत्त न होकर नीति-मार्ग व धार्मिक मर्यादा का उडान नहीं करता। एवं जिसके प्रति भप्रिय-टुकवचन कहे जाने पर भी जो कमी थोडा सा भी अप्रिय वचन नहीं बोलता, यह सब सजन पुरुषों का चरित्र है॥१॥ १. दीपचालकार ।। समुपयालंकार । ४. रूपकालंकार। ५, रूपक व श्लेपाळकार । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० यशस्विलकचम्पूकाव्ये परमात् पूरे पर भूपा म गुयोरतिकिरियर । मध्यमोऽपि स्मृतस्तेषामुत्तमः प्रथम सः ॥ ४९ ॥ मम्म एसाबलः कश्रिदेष नून महीपतिः। प्रबभूव परं यस्मालक्ष्म्या सह सरस्वती ॥ ५० ॥ बस्मातशेषगुमरस्ननिधर्महीशादसे गुणा जाति पथिरे महान्तः । सौ हरायमरधेनुषु कामदत्वं गाम्भीर्थमम्बुधिषु भास्वति च प्रतापः ॥ ११ ॥ वस्य पराभ्यासावसरेषु बह मुष्टिता न वळविभाणनेशु, पस्त्रमनेषु भुजगता में पीकविलसितेषु, भूषणेषु विकृतिसनं गमयोनिम्भितेषु, मदगोधु, एरप्रणेयता न कार्यानुष्ठानेपु, विलासिनीगतिपु स्खलितता म प्रतापेषु, मिरिकणेषु चपलता भारम्भेषु । भूतपूर्व ( पूर्व में हुए। व भविष्य में होनेवाले राजा लोग, जिस यशोधमहाराज से गुणों से विशिष्ट अतिशयवान् ( अधिक गुणशाली ) नहीं हुए, इसलिए यह उनमें मध्यम ( जघन्य ) होता हुमा मी सर्वोत्कृष्ट व प्रथम (प्रमुख) स्मरण किया गया था। यहाँपर विरोध प्रतीत होता है, स्योंकि जो राजाओं में मध्यम ( जघन्य ) है, वह उत्कृष्ट किसप्रकार होसकता है ? इसका समाधान यह है कि जो उनमें मध्यम (मध्यवर्ती ) होता हुआ अपि-निश्चय से सर्वोत्कृष्ट व प्रमुख था' || ४६ !! यह शोघेराजा निश्चय से एक ऐसा अपर्व अनौखा) पर्वत था, जिससे लक्ष्मी के साथ सरस्वती रूप नदी प्रवाहित हुई। भाषार्थ-लोक में जिस पर्वत से सरस्वती नदी प्रवाहित होती है, उससे लक्ष्मी नहीं निकलती परन्तु प्रस्तुत यशोधराजा रूप पर्वत से लक्ष्मी के साथ सरस्वती रूपी नदी भी प्रवाहित हुई। भवः वास्तव में यह अनौखा पर्वत था ॥५॥ पृथिवी के स्वामी जिस राजा से, जो कि समस्त गुण रूप रखों की बरयनिधि था, निम्न प्रकार प्रत्यक्षीभूत महान् गुण संसार में विस्तृत व विख्यात हुए। उदाहरणार्थमीनारायण में अपूर्व घोरता, कामधेनुओं में अभीष्ट फल वेने की शक्ति, समुद्र में गाम्भीर्य, और सूर्य में प्रताप प्रसिद हुआ। भावार्थ-श्रीनारायण- आदि में अपूर्व वीरता-आदि महान गुण इसी राजा से ही प्राप्त किने हुए होकर लोक में विस्तृत व विख्यात हुए; क्योंकि यह समस्त गुण रूप रत्नों की अक्षयनिधि था ॥ ५ ॥ धनुष पर बाण चढ़ाने के अवसरों पर जिसकी बमुष्टिता ( हाथ की मुट्ठी बाँधना ) थी परन्तु याचकों के लिए धन देने के अवसरों पर ववमुष्टिता (कृपणता) नहीं थी। जिसकी भुजगता ( अपनी भुजाओं पर कर्पूर व चन्दनादि सुगन्धित वस्तुओं का लेप) पन्त्र रचनाओं (लेपन-क्रियाओं) में थी। परन्तु इन्द्रिय-चेष्टाओं में मुजगता (विषमता-चंचलता) नहीं थी। अर्थात्-जितेन्द्रिय था। शिसा विकृषिदर्शन (नानाभाँति के आकारों का विलोकन ) आभूषणों में था परन्तु जिसके चिप्स प्रसारों में विकृतिदर्शन (कुचेष्टा) नहीं था। अर्थात् नानाप्रकार की आकृतिवाले कर्ण-कुण्डल-आदि आभूषणों से अलंकव होते हुए भी जिसकी मनोवृत्ति कुचेष्टा-युक्त नहीं थी। जिसकी परप्रणेयता ( इस्तिपम प्रेरणवामहायतों द्वारा लेजाया जाना ) हाथियों में थी परन्तु जिसके कर्तव्यपालन में परप्रणेयता (पराधीनता) नहीं थी। अर्थात् जो कर्तव्यपालन में दूसरों की अपेक्षा न करने के कारण स्वाधीन था। जिसकी स्खलितसा (शुक्रधातु का त्याग) कमनीय कामिनियों के साथ रतिषिलास में थी। अर्थात्-जो अपनी रानियों के साथ रविविलास करने में वीर्यधातु का वरण करता था परन्तु जिसकी प्रतापशक्ति ( सैनिक शक्ति व खजाने की शक्ति) में कदापि स्खलितता-ज्ञीणवा - नहीं थी। इसीप्रकार घपलवा (चंचलता) जिसके केवल हाथियों के कानों में थी। अर्थात्-जिसके हाथियों के कान चंचल थे परन्तु जो कर्तव्य आरम्म 'चामरेप' इति का 17. उपमासंकार । २. मतिरेक प रूपकालंकार । ३. समुन्द्रयालंकार । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आधासः पातालवेलावनवारिवासविश्वभराभवभ्रमणाविराम । खिनेव कीतिः क्षितिपस्य पश्य विश्राम्यति स्म निदिवाकयेषु ॥१५॥ । पस्मिन्नियात्राकृतकृतहले वा बभूवमहावाहिन्यः संभ्याचमनकुल्या इव, पेशायनामि पुष्पारणमभूमप हम, पपोषयो जलविणीपिका प, दीपान्तराणि प्रविवेशनिवेशा.हद, कुलशिखरिणः भोगायला हव, दिपानभवनान्युपचापा कृम्भिस्तम्भाः प्रशस्तिशिहाब। पस्मिन् महीं शासति भूमिना बभूवुरहये किल परपलोकाः। मनीषितावासमनोरथाना स्वर्गाय यस्माल मनः प्रजानाम् ॥ १३ ॥ अहो महीपाल भूपस्य तस्य स्वदेशमा चम्बमतिः प्रियाली। पतियतत्वेन महीसपमा प्राप्तोपरिधात्पी पाहि 480 साभूप्रतिस्तस्य मनोभवस्य धर्मावनिर्मपरायणस्प । गुणोकधाम्नो गुणरत्नभूमिः मारिनोस्य कलाप्रसूतिः ॥ २५ करके उसे छोड़ देने में चपलता-चंचलता नहीं करता था। नीतिनिष्टों ने भी कर्तव्य-पालन के विषय में उक्त बात कही है। जिस यशोधू राजा की कीर्ति नागलोक, व्यन्तरों के निवास स्थान, असंख्यात समुद्र और कुलाचलों पर चिरकाल पर्यन्त पर्यटन करने के कारण थक चुकी थी, इसलिए ही मानों-बह दीर्घकालक देवताओं अथवा स्वा-षिमानों में विश्राम करने लगी ॥५२॥ जब यशोध महाराज ने दिग्विजय करने का कौतूहल किया तब उनके [प्रताप के प्रभाव से] गङ्गा व यमुना-श्रादि महानदियों, सामायिक समय-संबंधी आचमन करने की कृत्रिम नदियों-सरीखीं होगई एवं समुद्र के तटवर्ती बगीचे, पड चुनने की पुष्प-नाटिकानों जैसे, चारों समन जलक्रीड़ा करने की बावदियों सरीखे, दूसरे द्वीप पड़ोसियों के गृहाङ्गण सरीखे, हिमाचल व विन्ध्याचल-श्रादि कुलाचल कीड़ा-पर्वतों के सदृश, इन्द्रादिकों के भवन शिविरस्थानों के तुल्य और दिग्गजेन्द्रों के बन्धन-स्तम्भ प्रशस्ति-शिलाओं (प्रसिद्ध लेखन-पट्टों) सरीखे हुए ॥ जब यशोमहाराज पृथिवी पर शासन करते थे वय निश्चय से प्रजा के लिए स्वर्गलोक भी तुम्छतर होगए। क्योंकि मनोरथों के अनुकूल मनोवाञ्छित (मनचाही) वस्तुएँ प्राप्त करनेवाले प्रजाजनों का मन स्वर्ग-प्राप्ति के हेतु प्रवृत्त नहीं होता था ।।३।। . हे मारिदत्त महाराज ! उस 'यशोधैं' राजा की मापके वंश में उत्पन्न हुई 'चन्द्रमति' नाम की ऐसी पट्टरानी थी, जिसने निश्चय से पतिव्रत-धर्म के माहात्म्य से पृथिवीरूपी सपनी ( सौत ) से उब पर प्राप्त किया था' ।। ५४॥ बह चन्द्रमति प्रिया, उस यशोर्ष महाराज रूप कामदेव की रति थी और धर्म में वत्पर रहनेवाले महायज की धर्मभूमि थी एवं गुणों के अपूर्व गृहरूप महाराज की गुणरूप रत्नों की खानि थी तथा कलाओं की प्राप्ति का कौतूहल करनेवाले प्रस्तुत राजा की कलाओं की उत्पत्ति थी' ॥१५॥ १. परिसंख्या छ श्लेषालंकार। २, तथा चोक्तं-'नारभ्यते किमपि विप्नभयेन नीचैः संजातविनमधमाश्च परित्यजन्ति संक्षिपमान्तमगोडी समासपिना मारब्धमुसमजनास्तु परित्यजन्ति ॥ संस्कृत टीका पृ. २२१ से संकलित--संपादक ___ अर्यात्--संसार में नीच पुरुष वे है, जो विन्न आने के डर से कोई भी कार्य आरम्भ नहीं करते और अधम पुरुष वे हैं, जो कि बिन-बाधाओं के उपस्थित होने पर आरम्भ किया हुमा कार्य कोड बैठते हैं एवं उत्तम पुरुष , जिनका शरीर काटे जाने पर भी ( अनेक कठों से मलेशित होते हुए भी ) विज बाधाओं को नष्ट करते हुए भारंभ किया हुला कार्य कदापि नहीं छोड़ते। १. उत्प्रेक्षालंकार । ४. दीपक व उपमालंकार। ५. हेतु-अलंकार । ६. रूपकाबहार । ७. दीपकालहार व रूपक एवं उपमालकार । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सीलेन टाप जनानां निदर्शनत्वं पतिसुवसेन । पत्युमिदेशावसनरोपचारादाचार्यकं या च सलीवु केभे ॥ १६ ॥ रूपं भरि भावेन सौभाग्यं विनयेन च । कलाबेन भूयरमास पात्मनः ॥ ६७ ॥ अपि च सत्यपि महति शुद्धान्ते या दयेव धर्मस्य मयपद्धतिरिव स्याद्वावस्थ, नीतिवि राज्यस्य, क्षान्तिरिक तपसः, अनुत्सेकस्थितिरिव श्रुतस्य कीर्तिरिय जीवितव्यस्थ, विजयवैजयन्तीव मनसिजस्य, माकन्दमअरीष पुष्पाकरस्प कल्पतेव त्रिविमस्य, कल्याणपरम्परेव पुण्योदमदिवसस्य तस्य महीपतेर्मतिदेवतायाः प्रणश्प्रासादाधिष्ठानभूमिरासीत् । यस्वा भर्तुः श्रीविलासवपस्येव, कीर्तिः प्रसाधनललीय, सागराम्बरा मनोरथानुचरीव, सरस्वती विनोदभु विध्व मूषणलक्ष्मीर्निजरूपावलोकनादर्शकेलिरिय भवन्ती स्वेनैव सापस्म्यममा, न पुनः प्रणयप्रसरखण्डनेन । एवं तयोर्मोबीनाभिराममहाराजयोरिव परस्परानुबन्धपेशवं त्रिवर्गफमनुभवतोरेकदा पुत्रप्रार्थनमनोरथावसथस्व सीर्घकासम्मानपथस्य प्रकाशितपरस्परप्रीतिरसस्य दिवसस्य ब्राह्मसमावर्ते मुहूर्ते मिथः संभाषणकथः प्रावर्तायमुदन्तः जो चन्द्रमति महादेवी, शील ( ब्रह्मचर्य ) और पतिव्रत धर्म के पालन करने में लोगों के लिए उदाहरण-भूमि थी । अर्थात् — विद्वान् लोग महिला संसार को शील व पतिव्रत धर्म में स्थापित करने के लिए जिस चन्द्रमति महादेवी का दृष्टान्त अपनी बक्तृत्वकला व लेखनकला के अवसरों पर उल्लेख करते थे एवं जिसने पतिदेव की आज्ञा का तत्काल पालन करने में साध्वी ( पवित्रता ) स्त्रियों में आचार्य पद प्राप्त किया था । अर्थात् – जो सती व साध्वी खियों में शिरोमणि थी' ।। ५६ ।। जिसने पतिदेव में अनुराग द्वारा अपना अनोखा लावण्य ( सौन्दर्य ) विभूषित किया था, इसीप्रकार विनय द्वारा सौभाग्य और सरलता द्वारा अपना कला अलकृत किया था विशेषता यह है - यद्यपि प्रस्तुत यशोर्घ महाराज के अन्तःपुर ( रनवास में अधिक संख्या में ( हजारों ) रानियाँ थी तथापि उनमें यह चन्द्रमति महादेवी उस राजा की बुद्धि रूप देवता के प्रेमरूप प्रासाद (महल) की उसप्रकार अधिष्ठान-भूमि ( मूलभूमि ) थी जिसप्रकार दया ( प्राणिरक्षा ) धर्मरूप महल की अधिष्ठान भूमि होती है। जिसप्रकार नैगम आदि नयों की पद्धति ( मार्ग ) अनेकान्त रूप महल की मूलभूमि होती है। जिसप्रकार नीति ( न्याय मार्ग) राज्यरूप भवन की अधिष्ठान भूमि होती है। जिसप्रकार क्षमा तपश्चर्या की, विनय प्रवृति शास्त्रज्ञान की व कीर्ति जीवन की अधिष्ठान भूमि होती है। जिसप्रकार तीनों लोकों पर विजयश्री प्राप्त करने फलस्वरूप उत्पन्न हुईं कामदेव की विजयपताका, उसके भवन की अधिष्ठान भूमि होती है व जिसप्रकार आम्र-मअरी वसन्त ऋतु की अधिष्ठान भूमि होती है एवं जिसप्रकार कल्पवाली कल्पवृक्ष की और जिसप्रकार कल्याण श्रेणी ( पुख्य-समूह ) पुण्योदय पाले दिन की अधिष्ठान भूमि होती है । जिस चन्द्रमति महादेवी के पतिदेव ( यशोध महाराज की लक्ष्मी ने रविविलास में सहायता देनेवाली सखी-सी होकर, कीर्ति ने सैरन्ध्री ( षस्त्राभूषणों से सुसखिरा करनेवाली सखी ) सरीखी होती हुई, पृथिवी ने उसकी मनोरथ पूर्ति करनेवाली किङ्करी-सी होकर, सरस्वती ने कौतूहल में सहायता पहुँचानेवाली भुजिष्या ( किक्करी वेश्या ) सरीखी होकर व आभूषण लक्ष्मी ने अपने रूप-निरीक्षण में दर्पण-कीड़ा जैसी होकर, केवल स्त्रीत्व के कारण से ही उसका सपलीव ( सौत होना ) स्वीकार किया था, न कि प्रेम-प्रसार के भङ्ग द्वारा * । इसप्रकार वे दोनों दम्पती ( चन्द्रमति पट्टरानी और यशोर्घ महाराज ) जब मरुदेवी और नामिराजसरीखे धर्म, अर्थ, और काम इन तीनों पुरुषार्थो का फल परस्पर की बाधारहित सेवन कर रहे थे तब एक समय ऐसे दिन के, ब्राह्म मुहूर्त में ओ कि पुत्र प्राप्ति की याचनारूप मनोरथ का स्थान था और जिसमें चौथे दिन १. उपमा दीपकालङ्कार | २. दीपकालङ्कार । ३. दीपक व उपमालंकार। ४ 'भुजिष्या गणिका' इि देश्यात् । सं० टी० से संकलित - ५. दीपक व उपमालंकार । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . - -.. - - - द्वितीय श्राधासः १२३ साखण्डल: फिल मूतत्वमुपागतो में विद्याः प्रसाध्य सुरलोकगुरूपविशः। मस्केतने समयसम्ममहोत्सवी काम व्यापि जनैः किल मोदमानैः ॥ ५॥ इत्यं मया किमपि देव मिशावसाने स्वप्ने व्यहोकि लव संतसिहेतुभूतम् । मार्य तरपतिनिधगाव वेषी पुनोचिरात्तव भविष्पप्ति कामितश्रीः ॥ १९ ॥ aa: किल । अवधि मध्येन सहाभिताना मनोरधैश्वमः मुदस्याः । मुखारशे व बभूव कृष्णं कुचर्य वैरिबलेन सार्धम् ॥६॥ सिंहानां शौर्यटेलीषु चतुरम्भाधिषीक्षण । मसद्विपादनादेषु साववन्ध मनः किल ॥ ६१ ॥ परमाणाः पार्थिवलोकभाः प्रायेण गभिपिणो अभूवुः । सस्मारिशासीत्पूथिवीगुणेषु तस्याः पर दोहमायताक्ष्याः ॥६॥ अस्पैव काचिनेन्युलक्ष्मीरस्यैव मेत्रोस्पलकान्तिरासीत् । अवैव तस्याः कुचकुम्भशोभा मलेरिधान्त रागवः ॥ ६३ ॥ गर्भमर्मणि महीपतिरामानादिवेश मिषजः फिल तस्याः । चिसवितसरशं विधिमुनि मे सदुचितं च स देव्याः ॥ ६४ ॥ लान कोहुई चन्द्रमवि महादेवी के साथ प्रस्तुत राजा द्वारा रविषिलास किया गया था एवं पारस्परिक दाम्पत्य प्रेम का अनुभव प्रकट किया गया था, परस्पर की संभाषण कथा-युक्त निमप्रकार का वृतान्त हुआ। चन्द्रमति महादेवी ने कहा-ह पतिदेव ! मैंने पिछली रात्रि में स्वप्नावस्था में आपकी संतान का निमित (सूचित करनेवाला चिन्ह) कुछ इसप्रकार स्वप्न देखा है कि निश्चय से स्वर्ग का इन्द्र, बृहस्पति द्वारा कही हुई विद्याओं ( व्याकरण, साहित्य, न्याय, धर्मशाल प संगीत-आदि कलाओं) को पढ़कर मेरा पुत्र हुआ है और जिसके फलस्वरूप लोगों ने श्रानन्द-माम होते हुए मेरे महल में पुत्रजन्म के महोत्सव की शोभा यथेष्ट सम्पन्न की।' उक्त वात को सुनकर यशोध महाराज ने अपनी प्रिया से कहा 'हे देखी ! भविष्य में राज्यलक्ष्मी को भोगनेवाला प्रतापी पुत्र आपके शीघ्र होगा" ।।५८-५६॥ पश्चात् उक्त स्वन को सार्थक करने के लिए ही मानों-प्रस्तुत धन्द्रमति महादेवी गर्भवती हुई। सुन्दर दन्त-पतियाली उस महादेवी का उदर आश्रितों के मनोरथों के साथ वृद्धिंगत होने लगा और उसके दोनों कुचकलश ( स्तन-युगल ) चूचुकस्थानों पर शत्रुओं की सैन्यशक्ति के साथ कृष्ण वर्णवाले होगए३ ॥६०॥ उस चन्द्रमांत महादेवी का दोहला ( दो ह्रदयों से उत्पन्न हुई इच्छा-गर्भावस्था की इच्छा) निश्चय से सिंहों की शूरता-युक्त क्रीड़ाओं में और चारों समुद्रों के देखने में तथा मदोन्मत्त हाथियों के साथ क्रीड़ा करने में हुआ' ।। ६१ । इस कारण से कि पार्थिव-गुण-राजाओं में वर्तमान गुण (पूथिवी पर शासन करना-धादि) राज-पुत्रों में प्रायः करके गर्भावस्था से ही वर्तमान रहते हैं, इसलिए ही मानों उस विशाल नेत्रोंवाली चन्द्रमति महादेवी का दोहला (गर्भकालीन-इच्छा ) केवल पार्थिव-गुणों (पृथिवी-गुणों-मिट्टी का भक्षण करना ) में होता था। भावार्थप्रस्तुत महारानी चन्द्रमति का गर्भस्थ शिशु, भविष्य में पृथिवी का उपभोग करेगा, इसलिए ही मानोंइसे पृथिवी (मिट्टी) के मक्षण करने का दोहला होता था, क्योंकि राजाओं के गुण उनके पुत्रों में गर्भ से ही हुआ करते हैं ।। ६२ ।। उस गर्भिणी चन्द्रमति महादेवी के मुखचन्द्रकी कान्ति कुछ अनिर्वचनीय (कहने के लिए अशक्य ) और अपूर्व ही होगई थी एवं उसके दोनों नेत्ररूप कुपलयों (चन्द्रविकासी कमलों) की कान्ति भी कुछ अपूर्व ही होगई थी एवं उसके कुचकलशों ( स्तन-कलशों) की कान्ति भी उस प्रकार अपूर्व होगई थी जिसप्रकार मध्य में स्थापित किये हुए नीले पो-आदि श्याम पदार्थ के संयोगवाले मणि की कान्ति अपूर्व ( शुभ्र और श्याम) होजाती है ॥६३ ।। उक्त बात को जानकर यशोघं एजा ने अपनी महारानी के गर्भ-पोषणार्थ हितैषी वैद्यों को आज्ञा दी और गर्भवृद्धि के योग्य और अपनी मानसिक इच्छा व श्री के अनुकूल संस्कार विधि ( धृति संस्कार ) अत्यन्त उल्लास पूर्धक स्वयं विशेषता के साथ १. उपमालंकार । २. युग्मम्-जाति-अलंकार । ३. सहोक्ति-अलंकार । ४. दीपकास्टकार । ५. हेवअलंकार । ६. दीपक व उपमालंकार । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मशस्तिलकचम्पूकाव्ये सत्वान्मासोमालियं त्वयोसादिकं कर्म व देवि कार्यम् ॥६९ ॥ यस सूतिकाला कर भूकः । वासे उमवतीर्णे तस्याः प्रसूतेः समयः फिडासी ॥ ६६ ॥ बरामदैरधीः प्राक्तेवसरे वधूम। अथ पुरा धम्मनि चन्द्रमत्वात्मकामः परमोत्सवेन ॥ ६७ ॥ परका कामगाः केन्द्रासनकामिनीपिसुतः सामन्यात्रीकुलाः । सीमन्तकन्डानास्तूचानः समं किक बस्तुः मन्यास् ॥ ६८ ॥ १२४ सम्पन्न की। भाषार्थ - भगवखिनसेनाचार्य' ने भी गर्भाधान आदि संस्कार विधि का महत्वपूर्ण प्रभाष हुए कहा है कि जिसप्रकार विशुद्ध खानि से उत्पन्न हुआ मरिण संस्कार विधि (शाणोल्लेखन - आदि) से चन्द कान्दिशाली होजाता है उसीप्रकार यह आत्मा भी क्रिया ( गर्भाधानादि संस्कार ) व मन्त्रों के संस्कार से अत्यन्त निर्मल व विशुद्ध होजाता है एवं जिसप्रकार सुवर्ण-पाषाण उत्तम सरकार किन भेदन अग्निपुट-पाक आदि) से शुद्ध होजाता है, उसीप्रकार भव्य पुरुष भी उत्तम शिवाओं-संस्कारों को प्राप्त हुआ विशुद्ध होजाता है। वह संस्कार धार्मिक ज्ञान से उत्पन्न होता है और अन्न सर्वोचम है, इसलिए जब यह पुण्यवान् पुरुष साक्षात् सर्वशदेव के मुखचन्द्र से सम्बन्ध पर पान करता है तब वह सम्यग्ज्ञान रूप गर्भ से संस्कार रूप जन्म से उत्पन्न होकर पाँच हंसा व सत्यागुक्त-व्यादि) तथा सात शीलों (दिग्ग्रत आदि) से विभूषित होकर 'द्विजन्मा' है। प्राकरणिक प्रवचन यह है कि यशोर्ष महाराज ने अपनी रानी के गर्भस्थ शिशु में नैखिक व बीजारोपण करने के उद्देश्य से सातवें महीने में धृतिसंस्कार अत्यन्त उल्लास पूर्वक सम्पन्न किया था ||६४|| प्रस्तुत यशोर्ष राजा ने गर्भस्थ जीव की शान्ति-हेतु अपनी मानवंती प्रिया से एकान्त में इसप्रकार निकाय से कहा- हे प्रिये ! तुम्हें आठ महीने तक पहिले की तरह जोर से हँसीभव कौर नहीं करनी चाहिए। मर्यात्-तुम्हें जोर से हँसी-मजाक आदि करके गर्भस्थ शिशु के न वृद्धि होने में बाँधाएँ उपस्थित नहीं करनी चाहिए ||६५|| उस यशोर्ष महाराज ने ऐसे समुचित वचनों से, जिनमें सुस्मा से गर्मिणी व गर्भस्थ शिशु की रक्षा के उपाय पाये जाते हैं, प्रसूति गृह बनाया, त्यों महीना आने पर उस चन्द्रमति महारानी का प्रभूति का अवसर प्राप्त हुआ * ||६६|| हे मारिदन्त महाराज! केवल राहु को छोड़कर अन्य दूसरे कल्याणकारक समस्त सूर्य आणि आठ महों से प्रशस्त (समय) की शुभ लग्न में इस समयमति' से, जो कि पूर्वजन्म में चन्द्रमति महारानी थी, मेरा जन्म आनन्द के साथ हुआ" ॥६७॥ उस समय (कशोर महाराज के जन्मोत्सव के अवसर पर ) ऐसे अन्तःपुर के प्रवेश, बाजों को पकमनियों के साथ शोभायमान होरहे थे। जो ( अन्तःपुर-प्रदेश ), नृत्य करती हुई वृद्ध १. तथा च मयजिनसेनाचार्यः— भूतो मषिः संस्कारयोमतः । गात्युत्कर्षं मामेवं क्रियामन्त्रः संस्कृतः ॥ १ ॥ चारच दासाय संस्कियां यथा तथैव भव्यात्मा शुद्धायासादितक्रियः ॥ २ ॥ मनःसंस्कारः सम्यग्ज्ञानमनुत्तरं । बदाय लमते साक्षात् सर्वविन्मुखतः कृती ॥ ३परमसंस्कारजन्मना । जातो भवेद् विन्मेति नतैः शौच भूषितः ॥ ४ ॥ २. गवयनसेनाचार्य :--- "तिस्तु उसने मासि कार्यों तद्वतादरैः । मेषभरम्यन्ते मानसँगैर्भवृद्धये ॥१॥ ३. भात-हार अबवा समुरक्यालङ्कार । ४ जति अलङ्कार । ५. जाति अलङ्कार । ६. जाति अलङ्कार ! 百度花藍 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवासः १२५ आमन्दं पालबीना रतिरभसभरप्राप्त केलीविनोदाः सामोद फेरलीनां मुसाकमलवनामोल्पानप्रगलमाः । आशैत्य कुन्तलीनां कुचकालशरसावासकाराः समीराः काले वास्ति स्म तस्मिकिन मलयकतानतिनो पाक्षिणात्याः ॥६॥ ख्योम काम इवालानामगचस्वता मुहुः । समपादि प्रसादरच दियां बन्धुशामिव ॥ २० ॥ दुन्दुभिध्वनिहतस्थे मोदाय सुद्धमा दित्रि । हरिश्चनपुरीलोकवनिर्वसत्य च द्विपाम् ॥ १॥ रातः समन्वये स्वर्गाहपुष्पवृष्टिः पुरेऽपतत् । मेहे शिवखिमण्डूकवृष्टिश्च श्रीरिक द्विपः ॥ २ ॥ श्रिये निजश्रिया राशश्वारबस्तरवो बभुः । स एधारातिलोकानामुल्पासाय पुरे पुनः ॥ ३ ॥ उल्ललाल नृपतेः सदनेषु संपदे युवतिम तलाशनः । विद्विषां च नगरे विगमाव संनतं धमौकलिमादः ॥ ४ ॥ अपि च । आनन्दवायरवारिसदिनमुखानि पौराहनाजनविमोदमनोहराणि। आमुक्तकेतुरचितोत्सवतोरणानि कामं तदा शुशुभिरे नगरे गृहाणि ॥ १५ ॥ त्रियों के मन्जुल गानों से प्रीति उत्पन्न कर रहे थे। जिनमें आशीतिक (आशीर्वाद देनेवाले ) पुरुषों के मुख-कमल प्रसन्न होरहे थे। जिन नि, नृत्य करती हुई नामन! बोटे कद की कमनीय कामिनियों से मनोज्ञ प्रतीत हो रही थी। जहाँपर दूध पिलानेवाली धायों की श्रेणी हर्षित होरही थी और जिनके आंगन, पचरंगे चूर्ण-पुञ्ज के क्षेपण से क्लेशित हा वृद्ध स्त्रियों के केश-मागों से मनोज्ञ प्रतीत होरहे थे। उस अवसर पर दक्षिण देशवी ऐसी शीतल, मन्द व सुगन्धित वायुओं का संचार हो रहा था, जिन्होंने दक्षिणा देशवी स्त्रियों के रतिविलास संबंधी वेग के अतिशय से क्रीड़ा देखने का कौतूहल प्राप्त किया था, जिसके फलस्वरूप मन्द-मन्द वह रही थीं। जो केरल देश (दक्षिण देश संबंधी देश) की कमनीय कामिनियों के मुखरूप कमल-वनों की सुगन्धि का श्रास्वाद करने में विशेष निपुण होने के फलस्वरूप सुगन्धित थी। जो दक्षिण देश संबंधी कुन्तल देश की रमणीय रमणियों के कुच-कलशों (स्तनकलशों) के रसों (मैथुन क्रीडा के श्रम से उत्पन्न हुए प्रस्वेद-जलों) में कुछ समय पर्यन निवास करने के कारण शीखल थीं और जो मलयाचल पर्वत की लताओं को नचाती थीं। भावार्थ-यशोधर महाराज के जन्मोत्सव के अवसर पर शीतल, मन्द व सुगन्धि घायुओं का संचार होरहा था ॥६९|| उस समय आकाश बारम्बार उसप्रकार निर्मल होगया था जिसप्रकार हितैषियों की इच्छा निर्मल होती है और दिशाएँ उसप्रकार प्रसन्न थीं जिसप्रकार बन्धुवों के नेत्र प्रसन्न होते है |७०॥ उस अवसर पर बन्धुजनों को प्रमुदित करने के हेतु पानश में दुन्दुभि वाजों की ध्वनि हुई और शत्रुओं के नाश-हेतु उनका विनाश प्रकट करनेवाली आकाशपापी हुई !!७१।। उस समय उज्जयिनी नगरी में यशोध महाराज की लक्ष्मी वृद्धि के लिए आकाश से पुष्प-वृष्टि हुई और शत्रुओं के गृहों में उनकी लक्ष्मी के विनाश-हेतु चोटी-सहित मैंड़कों की वर्षा हुई" |७|| । उस समय यशोर्घ महाराज की लक्ष्मी-वृद्धि के हेतु, वृक्ष अपनी पुष्प व फल आदि सम्पत्ति से मनोक्ष प्रवीव होते हुए शोभायमान होरहे थे और शत्रु-गृहों में वही वृक्ष असमय में फलशाली होने के फलस्वरूप उनके विनाश-निमित्त हुए |७३।। उस समय यशोधू महाराज के महलों में लक्ष्मी के निमित्त कमनीय कामिनियों की धवल गान-ध्वनि पूँज रही थी और शत्रुओं के नगर में उनके विनाश-हेतु शुभ्र काकों का कर्ण-कटु शन 1बहुत ऊँचे स्वर से होरहा था !७४|| उस समय उज्जयिनी नगरी में प्रजाजनों के ऐसे गृह, यथेष्ट शोभायमान होरहे थे, जिन्होंने जन्मोत्सव संबंधी बाजों की ध्वनियों से विशाओं के अग्रभाग गुआयमाम किये थे। । जो नागरिक रमणी-समूह की क्रीड़ाओं से मनोज प्रतीत होरहे थे और जिनमें पोधी हुई चलाएँ फाय ही थी एर्ष जिनमें तोरण बाँदै गए थे- १७॥ १. जाति--अलंकार। २. हेतु-अलंकार । ३. समुच्चय व उपमालंकार । ४. पीपक र समुनयालंकार । ५. दीपकालंकार। ६. दीपकालकार । ५. दीपकालंकार । ८. समुच्चयासंगर । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतिशतभन्ने भारतिमपुत्रवता जुरीमः बीचोवनोत्पविकासप्रवीणः । खोपावनयाशकिरणोदन संमदवातम्यमममहोसवेन ... धर्मः पल्लवितः मिथः समिताः कामः फलैः सम्यते पंशत मितिनाथ संप्रवि परां छायर्या भितः कामपि । भूदेवी महतार्थतामुपगता मूलाम्बपामा पुनरिवते. माति म देव सान्निवरसस्वस्त्रजन्मोत्सनः ॥ ७ ॥ या। सानम बम्विादः स्वचिक्ष्वनिपतिः स्स्यते प्रार्थितान्धूनां टिवानैः क्यक्तिनुमुवः सौषिदस्वारस्वरन्ते। भाप लक्ष्मीमियमनुमवतात्पुत्रपौत्रैव सा देवील्पेवं पुरोषा: क्वचिदपि च परस्याभिषः कामितमी: ॥८॥ सर्वः कसमै : कुखधरणिधरौरवासा पयोधि र्योः पूष्णा भोगिसोको भुजगपरिपहेमाकरमेव स्नैः।। देवस्तापचिराय प्रथितप्धुपाशाः कोलिटवीतपेयं देवी , स्वात्प्रमोदामइदिवसक्सी पुत्रवन्मोस्सवेन ॥ १॥ रावापि तदा बस्तुकसाबबाहना पायेषु स वया किल सके । जसकल्पविरपिष्णिन भूयस्तेषु पापनमनो न पयासीत् ॥८॥ उसीप्रकार उस समय किसी स्थान पर सुवर्ण व वस्त्र-श्रादि वस्तुओं की याचना करनेवाले स्तुतिपाठक समूह यशो महाराजको निन्नप्रकार आनन्द-पूर्वक स्तुति कर रहे थे "हे देव! आप, इन्द्र-सरीखे पुत्रशाली पुरुषों में श्रेष्ठ है और कमनीय कामिनियों के नेत्ररूप कुवलयों (चन्द्र विकासी कमलों) के उल्लासरस में प्रवीण हैं। अतः आप ऐसे पुत्रजन्म संबंधी महोत्सव से, जो कि तीन लोक को पवित्र करनेवाली यशरूप किरणों का उत्पादक है, वृद्धिंगत होवें ॥७६।। हे देव! धर्म उल्लसित होगया, सम्पत्तियाँ पुष्पित होगई और काम स्त्री के उपभोगरूप फलों से प्रशस्त होगया। इसप्रकार पापके धर्म, अर्थ और काम ये तीनों पुरुषार्थ सफल होचुके । हे राजन् ! इस समय आपके वंश की अपूर्ष और अनिर्वचनीय (वर्णन करने के लिए अशक्य) शोभा होरही है। हे देव! पृथ्वीरूपी देवता भी कतार्थ होचुकी और माद अनुराग-शाली अापके पुत्रजन्म का महोत्सव मन्त्रियों के चित्त में अत्यधिक होने के कारण समाना नहीं है |७|| हे मारिदत्त महाराज! उस समय केवल स्तुति पाठकों ने ही थशोधमहाराज की स्तुति नहीं की किन्तु मधुकी लोग भी किसी स्थान पर राजा के कुटुम्बी-जनों को हर्षित करते हुए व विशेष प्रानन्द विभोर हुए राजा का गुणगान करने के हेतु उत्कण्ठित होरहे थे। इसीप्रकार कहींपर लक्ष्मी की चाह रखनेवाला पुरोहित निम्न प्रकार के आशीर्वाद-युक्त वचन स्पष्ट बोल रहा था यह प्रत्यक्ष प्रवीत होनेवाली पम्नमवि महादेवी चिरकाल तक पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रों (पड़पोतो) के साथ पति की लक्ष्मी का उपभोग करे Hal पुरोहित का आशीर्वाद-जिसप्रकार स्वर्ग कल्पवृक्षों से, समुद्र चन्द्रोदय से और पावावलोक परणेन्द्र से पिरफाल पर्यन्त आनन्ददायक दिनवाला होता है, एसीप्रकार तीन लोक में विख्यात ष विस्तृत हैमा जिनका ऐसे यशोघ महाराज भी पुत्रजन्म के महोत्सव से चिरकाल पर्यन्त आनन्ददायक दिनपाते रों एवं जिसप्रकार पृथ्वी कुलाचखों से, आकाशभूमि सूर्य से और खानि की भूमि रनों से चिरकाला पर्यन्त मानन्ददायक दिनवाली होती है. उसीप्रकार विस्तृत कीर्तिशालिनी चन्द्रमति महादेवी भी पुत्रजन्म संबंधी महोत्सब से पानन्द-दायक दिनमाली होवें ॥२॥ उस समय यशोध महाराज ने भी प्रसन्मता-यश, स्तुतिपाठक-आदि वाचकों के लिए उसमकार प्रचुर गृह, वन, धान्य व सवारी-आदि मनचाही वस्तुएँ वितरण की, जिसके फलस्वरूप उनका मन पुनः * भोयाना' इति । १. २. ३. समुच्चयाबार । ४ यवासंख्ख, समुच्चय व उपम्यलंकार आदि का संकरालंकार । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः जाकिया कि विधाय स भूपति बाहे पोर इति प्रथितं च मम । जीवितादपि निखाकमजन्मभागांचेवः परं स्पृहयति स्म पग्रोर्जगाम ॥ ८१ ॥ १२७ पुनम किलमात्मनमोह सुकविकुसुमसरे यमजनप्रवणभूतां नीयमानव्यवस्थाः क्रमेप्पोक्तान शाहसिनामुचङ्क्रमण एक विगद्गदाकापावस्थाः समनुबभूव । तथाहि । मुक्तः शुभ्यति मनकेषु लभते मैनाभ्यहस्ते रवि तावस्थागतत्व वक्षसि कुचावन्वेषते व्याकुलः । स्वाद निधाय पिसि स्वभ्येन शुन्याननस्तं निष्पोज्य पुनश्च शेदिति शिशोरिव विचित्र स्थितिः ॥८२॥ षु पूर्व रमते गृहीषः स्पृष्टः कपोके व सफेनहास: । पुरोधसां स्वस्थ्यमोज्वारमादाय हस्तेन मुखे दधाति ॥ ८३ ॥ कभी भी याचना करने में तत्पर नहीं हुआ क्योंकि यशोर्घ महाराज की उदारता वश वे ( याचक.) जिनके यहाँ कल्प वृक्ष उत्पन्न हुए हैं वैसे होगए थे। अर्थात् उन्हें प्रस्तुत यशोर्घ महाराज रूप कल्पवृक्ष से यथेष्ट rest वस्तुएँ प्राप्त होचुकी थी ||८|| तत्पश्चात् यशोध महाराज ने मेरी जन्म-क्रिया ( नाल काटना- धादि fafe ) करके मेरा 'यशोधर' इसप्रकार का ऐसा विख्यात नामसंस्कार किया, जिसकी प्राप्ति के लिए हमारे श में उत्पन्न हुए राजाओं की वित्तवृत्ति ऐसे यश के उपार्जन हेतु लालायित रहती थी, जो कि उन्हें अपने जीवन से भी उत्कृष्ट है * ॥८१॥ तत्पश्चात् उस यशोधर कुमार ने निश्रय से ऊपर मुख किये हुए शयन करना, कुछ हँसना, घुटनों के बल चलना, जमीन पर कुछ गिरते हुए संचार करना और अस्पष्ट बोलना इन पांच प्रकार की ऐसी अवस्थाओं का क्रमशः श्रच्छी तरह अनुभव किया (भोगा), जिनकी स्थिति (स्वरूप) बच्चे की अवस्था चरा गूँथी जाने से मनोज्ञ प्रतीत होनेवाली ऐसी प्रशस्त कवि समूह की वाणीरूपी पुष्पमालाओं द्वारा कुटुम्बीजनों के कानों के आभूषणपने को प्राप्त की जानेवाली है। भावार्य ऋषिसंसार अपनी अनोखी काव्यकला-शैली से शिशुओं की उक्त मनोश लीलाओं की मधुर कवितारूपी फूलमालाएँ गुम्फित करता है और उन्हें कुटुम्बी-जनों के भूषण बनाता है । अर्थात् — कविसंसार कुटुम्बीजनों के श्रोत्र उक्त बाल लीला रूपी फूलमालाओं से चलङ्कृत करता है, जिसके फलस्वरूप उनके मन-मयूर आनंद-विभोर होते हुए उसप्रकार नृत्य करने लगते हैं, जिसप्रकार आकाश में घुमड़ते हुए बादलों को देखकर मयूर हर्षोन्मन्त होकर नाँच उठते हैं। इसप्रकार की कुटुम्बीजनों था पाठक-पाठिकाओं को उल्लासित करनेवाली उक्त प्रकार की बाल लीलाएँ प्रस्तुत यशोधर कुमार द्वारा अनुभव की गई । यशोधर महाराज की उक्त वास-लीलाओं का निरूपण - आश्चर्य की बात है कि बच्चे की प्रकृति नानाभाँति की होती है। उदाहरणार्थ- - बचा पालने में रखने से व्याकुल होजाता है और माता के सिवाय किसी दूसरे की हथेली पर प्राप्त हुआ सन्तुष्ट नहीं होता। जब यह पिता की गोद में प्राप्त होता है तब भूख से व्याकुलित होता हुआ उसके ( पिता के) वक्षःस्थल पर कुच (स्तन) दूँ दने तस्पर होता है। पश्चात् षड् अपना अँगूठा मुख में स्थापित कर पीता है, क्योंकि वह समझता है कि इसमें कूभ है। ऐसा करने पर जब उसका मुख दूध से खाली रहता है तब अँगूठे को पीड़ित करता हुआ बार-बार रोता है ||२|| किसी के द्वारा गोदी में धारण किया हुआ बच्चा पूर्व में देखे हुए ( परिचित ) मनुष्यों में रम जाता है - क्रीड़ा करने लगता है। जब कोई उसके गाल छूता है तब वह फेन-सा शुभ्र मन्द दास्य करने लगता है । इसीप्रकार वह ब्राह्मणों द्वारा दिये हुए माङ्गलिक अक्षतों को हाथ से उठाकर अपने मुख में * 'वशानुगमनमनोहरैः” इति क० । १. उपमालंकार 1 २. जाति अलंकार 1 ३. अर्थान्तरन्यास अलंकार Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस यशस्तिलकपम्पूकाव्ये और रेल सर्व विको नव से नाम सोप सावरः । देव देवनेः समस्त्वया विमाप्ययं भूनममित्रवर्तनः ॥ ८४ ॥ पोरगाोपि विनीतचितः कृतारो बन्धषु तर चित्रम् । को नाम प्रस्म कलप्रवृद्धौ नीलोत्पलोल्लासविधौ गुरुवा ॥८६॥ स्वल्प राति बापुरतमाणः किवितासम्बन स्टोक मुरालि परिपसन्धाच्या निलम्पे धृतः । समारोहणावधीः पुमा तस्याः कशाने रालोकनकोपरमपमनास्लमनमाहुन्ति व ॥ ८ ॥ मादापालकबालकामणिविसं पत्र को पस्पति स्थाने तस्य वधानि इस्तवल वाभ्यां विहीनः पुनः । . सुनसा परिमालिको करितादम्याचा पायो निरपेटः शिशुरेष जातरुदिता दाय मोदाय च ॥ ८ ॥ सद्गेई परमेव पर शिशवः सन्ति में प्रारणे तेषां जन्म स्थैव लोचनपथ यासा न येषां सताः । तेवामाविलेपनं च नृपते पोपदेई: समं येषां लिविसरात्मजरजरचता न वक्षःस्थले ॥ ८८ . रख लेता है।३।। प्रस्तुत यशोधर महाराज की बाल-क्रीड़ाएँ देखकर कोई मनुष्य यशोर्च महाराज से कहता है कि हे स्वामिन् ! आप जिस पुरुष की ओर च्याष्टि-पूर्वक देखते हैं, उसके प्रति आपका पुत्र भी आदरबान है, इसलिए यह आपका पुत्र केवल आपके सौन्दर्य-आदि-शारीरिक गुणों से ही समानता नहीं रखता किन्तु निश्चय से भापकी बुद्धि से भी सरशता प्रकट कर रहा है | जिसप्रकार चन्द्रमा अपनी सलामों को वृद्धिंगत करने में और कुबलयों (चन्द्र-विकासी कमलों ) को प्रफुल्लित करने में किसी गुरु-आदि की अपेक्षा नहीं करता उसीप्रकार हे स्वामिन् ! आपका स्वामानिक विनयशील पुत्र, शिशु होने पर भी कानुजनों के प्रति आदर का बर्ताव करने में किसी गुरू आदि की अपेक्षा नहीं करता इसमें आश्चर्य की कोई बाव नहीं है। ॥८५| बच्चा अपने घुटनों व हाथों का श्राश्रय ( सहारा) लेकर कुछ गमनशील होता हुमायोड़ा-सा चलता है और सब कुछ अँगुलियों के पकड़ने का पालम्बन ( सहारा लेता है तब कुब चलता है, परन्तु ज्यों ही दूसरे के हाथों की अंगुलियों का पकड़ना थोड़ा छोड़ देता है स्यों ही तत्काल अमीन पर गिर जाता है, पूर्थिवी पर गिरते हुए उसे अब धात्री (धाय) अपने नितम्ब (कमर का पीछे का भाग) पर धारण करती है तब उसे उसके कन्धे पर चढ़ने की बुद्धि उत्पन्न होजाती है, पश्चात वह उस दूध पिलानेवाली पाव के केश पकड़कर खीचता है, ऐसा करने से जप धाय इसकी तरफ कुछ करष्टि से देखती है, पब यह कोष से कलुषित-चित होता हुआ उसका मुख ताड़ित कर देता है-थप्पड़ मार देता है । यह कामाता या धाय के केरापाश पकड़कर खींचता है और उनके रस-चूर्य व चन्दन-निर्मित मस्तर विखक मिटाकर उसे अपनी हथेली पर रख लेता है एवं मणि-चूर्ण के तिलक-युक्त माता के मस्तक पर इसमाय स्वापित करता है, परन्तु जब यह उक्त दोनों क्रियाओं से शून्य होता है, अर्थात्-विक्षक व इस्तकान की क्रियाएँ छोर देता है तब अपनी माता या धाय की करधोनी को उनकी कमर से खीमकर या कोसकर उससे अपने दोनों पैर बेष्टित कर लेता है लेता है। ऐसा करने से अब यह चलने में | बसमर्थ होजाता है तो रोने लगता है। ऐसी अनोस्त्री क्रियाएँ करनेवाला यह पचा मावा या धाय के दुःकामुख्य कारण होता है। अर्थात्-रोनेके कारण दुःखजनक और अपनी अनोखी. व ललित लीलाओं के दिखाने से आनापायक होता है | हे राजन् ! जिस गृह के माँगन पर बच्चे नहीं खेलते, यह गृह नहीं, किन्तु जंगल ही है। जिन पुरुषों ने अपने नेत्रों द्वारा बच्चों को टिगोचर नहीं किया, बना जन्म निरर्थक ही है और जिनका वक्षःस्थल धूलि-धूसरित वालों की धूलि से लिम्पिन नहीं हुआ, उन धुलों द्वारा अपने शरीर पर किया गया कपूर, कस्तूप व चन्दनादि सुगन्धित वस्तुओं का लेप कीचड़ के मेस्सरीमा निरर्थक है १-२. पावि-अलाहार । ३..माझेपालंकार । ४-५, जाति-मकार । ६. कमक र अपमालंकार। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः १२६ लोलालकामि बदलाम्जनलोचनानि फेलिश्रमश्वसितदुर्लम्हिताधराणि । आलिङ्गनोगतवपुःपुलकाः सुतानां चुम्बन्ति ये वदनकानि त एष धन्याः ॥ ९ ॥ अम्बा तात इति प्रत्रीति पितर चाम्येति संभाषसे धात्रीपूर्वनिवेदितानि च पदान्य|तितो अल्पति । शिक्षालापविधौ प्रकृयति तो नास्ते स्थिरोऽयं क्वचिन् न्याहूतो न भूयति धावति पुन: प्रत्युस्थितः सस्वरम् ।। ९ ।। तदनु निपतिते समस्सलोकोत्सवशर्मणि चौलकर्मणि सवय सचिसाप्तसतानुशीलनः समाचरितगुरुकुलोएनयनः, प्रजापतिरिव सर्ववांगमेधु, पारिरक्षक हा प्रसंख्यानोपदेशेषु, पूज्यपाद इव शरुपैतिशत्रु, स्याहादेश्वर प धाख्यामेषु, भकलदेव इव प्रमाणशास्त्रेषु, पणिपुत्र इव पदप्रयोगेषु, कविरिव राजराद्धान्तेषु, रोमपाव छ गजविद्यास, स्वत इव इयनयेषु, अरुण इव स्थचर्यास, परशुराम इथ शस्त्राधिगमेषु, शुकनास इव रक्षपरीक्षासु, मरत हव संगीतकमतेषु, जो पुरुष अदों के आलिङ्गन से रोमाञ्चित शरीरशाली होते हुए उनके ऐसे सुन्दर मुख चूमते हैं, जिनपर चश्नल केश समूह वर्तमान हैं, जिनके नेत्रों में प्रचुर अञ्जन आँजा गया है और जिनके ओष्ठ क्रीड़ा करने के परिश्रम से उत्पन्न हुई निःश्वास वायुओं से ललित प्रतीत नहीं होते, वे ही संसार में भागशाली है ! जोशमा भलान अशमा को पिता और पिता को माता कहता है और उपमाता (धाय) द्वारा कद्दे हुए शब्दों को आधी-तुतलाती-बोली से बोलता है और माता द्वारा दीजानेवाली शिक्षाविधि (क्यों रे! ऐसा क्यों कर रहा है ? माता के केश स्वींचता है. ऐसा मत कर-इत्यादि शिक्षा-पूर्ण उपदेश विधि) से कुपित होजाता है और रक्षित हुआ ( पकड़कर एक जगह पर बैठाया हुआ) भी किसी एक स्थान पर निश्चल होकर नहीं बैठता और माता-पिता द्वारा बुलाया हुआ यह बच्चा उनके बचन नहीं सुनता, क्योंकि खेलने की धुन में मस्त रहता है। पश्चात्-उठकर शीघ्रता से ऐसा भागता है, जिसे देखने जी चाहता है 100 बाल्यकाल के पश्चात् समस्त जनों द्वारा किये हुए महोत्सव से आनन्द-दायक मेरा मुण्डन संस्कार हुमा। तत्पश्चात् कुमारकाल में समान आयुवाले मंत्री-पुत्रों के साथ विद्याभ्यास करने में तत्पर, पुरोहितआदि गुरुजनों द्वारा भलीप्रकार सम्पन्न किये हुए यज्ञोपवीत मौरजी-वन्धन-आदि संस्कारों से सुसंस्कृत, शास्त्राभ्यास में स्थिर बुद्धि का धारक, ब्रह्मचर्यग्रत से विभूषित और गुरुजनों की सेवा में तत्पर (विनयशील) हुए मैंने, बहुश्रुत विद्वान गुरुजनों शरा सिखाई आनेवाली एवं राज-कुल को अलत करनेपाली व अनेक मत संबंधी प्रशस्त विद्याएँ ससप्रकार ग्रहण की जिसप्रकार समुद्र नाना प्रकार के नीचे-ऊँचे प्रदेशों से प्रवाहित होनेवाली नदियाँ महण करता है ||१|| जिसके फलस्वरूप मैंने समस्त विद्याओं के वेत्ता विद्वानों को आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली मिस्ता प्राप्त करती। उदाहरणार्थ-जिसप्रकार ब्रह्मा समस्त (बामणादि) के शारों में निपुण होता है इसीप्रकार में भी समस्त वणे (अक्षरों) के पढ़ने-लिखने आदि में निपुण होगया। जिसप्रकार साधु प्रसंख्यानोपदेश (ध्यान-शास) में प्रवीणता प्राप्त करता है उसीप्रकार मैंने भी प्रसंख्यानोपदेश (गरिएक्शाक) में प्रवीयता प्राप्त की। इसीप्रकार में पूज्यपाद स्वामीसरीखा व्याकरण शाला का, तीर्थर सर्वज्ञ अथवा गणधरदेव-सा अहिंसारूप धर्म की वक्तृत्व कला का, अकलाइवेव-सरीक्षा दर्शनशाब का, पाणिनी आचार्य-सरीखा सूक्तिशाली (नैतिक मधुर वचनामृत षाले) शास्त्रों का, वृहस्पति या शुक्राचार्य-जैसा राजनीतिशालों का, अंगराज-सा गजविद्या का, रषिसुत सरीखा अश्वविधा ( शालिहोत्र) का, सूर्यसारथि की तरह रथ-संचालन की कला का, परशुराम की तरह शक्षविया का, अगस्त्य के तुल्य रत्न-परीक्षा की कक्षा का, भरत चक्रवर्ती या भरत ऋषि-समान १. जाति-अलंकार। २. जाति-अलङ्कार । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पराखिसकपम्पूषव्ये सरविरिण लिचित्रमा काशिराब सरीरोपचारे, कायापारस्वास चकब सन्तुलित पाहायपी। मामास्वपि मासु, सासविद्याविदामपंपरणनैपुषपमहमाभित: परिवपक्षमोदामाबसरत विद्यारम्बा गुरूनेस्पादित्वमा नाण्यावीवियनानिमयोप्पा । कमाइ मुसम्बहेतुमूताः पोचसिनीरिय पोजिनेन्मानाः ॥ १॥ मसंपादिवसंस्कार सबातमपि रया । इतरत्न महीलाला सत्पदा म बापते ॥ ९॥ गीत (गीत, नृल व वादिन) कला स, सटकि (देषसूत्रधार) के समान चित्रकला का, धन्वन्तरिक समान वैवशासब, शुक्राचार्य के समान व्यूहरचना का और अमाल के आचार्य समान कामशाब अपारदर्शी चिनान होगया एवं विसप्रकार चन्द्र अपनी योग्य कक्षाओं का कलावित् (विज्ञान) होता है उसीमधर में भी समस्त प्रकार की पौंसठ कसानों का कतापित् (विद्वान् । होगया। तदनन्तर मेरे गोदान (अमचर्याश्रम-स्याग - विवाहसंस्कार ) अमवसर प्राप्त हुआ। __ जिसप्रकार रमों की सानि से उत्पन्न हुआ भी स (मणिक्यादि) संस्कार-(शाणोन्सान भाषि) हीन हुआ शोमन स्थान-योग्य नहीं होचा उसीप्रकार प्रशस्त (ब) फुल में उत्पन्न हुया राजपुत्र रूपी सभी राजनीवि-मादि विद्याओं के अभ्यास रूप संस्कार से शून्य हुआ राज्य पद के योग्य नहीं होता। मापाच-सोमदेवसूरि, गुरु ष हारीत आदि नीतिकारों ने भी सच बात का समर्थन करते हुए दुष्ट राजा से होनेवाली प्रजा की झनि का निरूपण किया है। अभिप्राय यह है कि राजपुत्रों मया सर्वसाधारण मानषों को प्रशस्तपद (लौकिक व पारलौकिक सुखदायक अब स्थान) प्राप्त करने के लिए मलित कलाभों का अभ्यास करना विशेष प्रावश्यक है। क्योंकि नीतिनिष्ठों ने भी कहा है कि संसार में मूर्ख मनुष्य को छोड़कर कोई दूसरा पशु नहीं है। क्योंकि जिसप्रकार गाय-भैंस-आदि पर प्रस-यादि मरण करके मल-मूत्रादि क्षेपण करता है और धर्म-अधर्म (कर्तव्य-अकर्तव्य) ही जानता उसीप्रकार मूर्स पुरुष भी खानपानादि क्रिया करके मल मूत्रादि क्षेपण करता है और धर्म-धर्व म्य सर्वव्य को नहीं जानता। नीविकार यसिष्ठ ने भी यही कहा है। नीतिकार महात्मा भर हार १. श्लेष, अपमा, दीपक व अमुच्चयालबार । २. तवा चाह सोमदेव प्रि:-संस्काररत्नमिव सुजातमपि राजपुत्रं न नायकपदायामनन्ति साथः । 1-तथा च सोमदेवमूरि-न निीताबारः प्रधानां विनाशादपरोऽस्त्युत्पातः' अर्थात् - राजा से प्रया विनास ही होता है, उसे छोदर और दूसरा कोई उपाय नहीं होसकता। ३. तथा च गुरुः-वराजनि राष्ट्राणि रक्षन्तीह परस्परं । मूलों रामा भवेषेषा तानि गरछन्ताह संक्षयं ॥ वर्षात्-विन देशों में राजा नहीं होते, वे परस्सर एक दूसरे की रक्षा करते रहते है परन्तु जिनमें मूई रागा होगा नष्ट होजाते हैं॥ ॥ ४. तपा व हारीतः--उत्सातो भूमिकम्पायः शान्तिीति सौम्यता । नृपवतः उत्सातो नम प्रनाम्यति ॥ १॥ अर्थात्-भू-कम्प से होनेवाला उपद्रव शान्ति माँ ( पूजन, जप महानादि धार्मिक कार्यों से पानी होजाता है परन्तु दुष्ट राजा से उत्सान हुआ उपद्रव विसीप्रकार मी शान्त नहीं होसकता । ५. सपा च सोमदेव सूरि:- प्रशानादन्यः पशुरस्सि' नौतिवारसामृत से संकलिस-सम्पादक) ६. तथा च पसिष्ठः- अ मर्मतमा लोकाः पशवः पर्जिताः धर्माधो न जानन्ति यतः शाकापरामुखाशा .. तथा च भर्तृहरिः-साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशः पृच्छविषाणहीनः । तृणं न खावमपि जीवन धेयं परमं पशूनाम् ॥७॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ..... द्वितीय मापासः १३१ सौधाय राज्यबन्धाय खावेतो न सतां महौ । मणक्षीणप्रम: स्तम्भः स्वातन्त्र्योपहसः सुतः ॥ १३ ॥ ने भी कहा है कि जिसे साहित्य व संगीत-आदि कलाओं का ज्ञान नहीं है (जो मूर्ख है), वह विना सींग और पूँछ का साक्षात् पशु है। इसमें कई लोग यह शङ्का करते हैं कि यदि मूर्ख मानव यथार्थ में पशु है. तो वह घास क्यों नहीं खाता ? इसका उत्तर यह है कि यह घास न खाकर के भी जीवित रहता है, इसमें पशुओं का उत्सम भाग्य ( पुण्य) ही कारण है, अन्यथा वह घास भी खाने लगता। इसलिए प्रत्येक नर-नारी को कर्तव्य-बोध द्वारा श्रेय (यथार्थ सुख)की प्राप्ति के लिए नीति व धर्मशास्त्र-श्रादि शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ॥१२॥ नीविवेत्ता विद्वानों ने निम्नप्रकार के दो पदार्थ क्रमशः राज-महल व राज्य स्थापन के अयोग्य माने हैं। १-घुण-समूह (कीड़ों की श्रेणी) द्वारा भक्षण किया हुआ होने के फलस्वरूप क्षीणशक्तियाला खम्भा और २ स्वच्छन्द पर्यटन-वश नष्ट-बुद्धि पुत्र । भावार्थ नीतिनिधों की मान्यता है कि जिसप्रकार घुण-समूह द्वारा खाये हुए खम्भे में मछल का बोझ धारण करने की शक्ति नष्ट होजाती है, इसलिए उसे राजमहल में नहीं लगाना चाहिए था महल के गिर जाने का खतरा निश्चित रहता है, उसीप्रकार अमान व दुराचार के कारण जिसकी बुद्धि न होचुकी है ऐसे राजपुत्र में भी राज्यशासन करने और उसे स्थापित रखते हुए संबर्षित करने की शक्ति नष्ट होजाती है, अत: उसे राजा नहीं बनाना चाहिए, अन्यथा राज्य के नष्ट होने की सम्भावना निश्चित रहती है। नीतिकार सोमदेवसूरि ने लिखा है कि जब मनुष्य द्रव्यप्रकृति (राज्यपद के योग्य राजनैतिक मान और सदाचार-सम्पत्ति आदि प्रशस्त गुणों) से अद्रव्य प्रकृति ( उक्त गुणों को त्यागकर मूर्खता, अनाचार व कायरता-श्रादि दोषों) को प्राप्त होजाता है तब वह पागल हाथी की तरह राज्यपद के योग्य नहीं रहता। अर्थात्-जिसप्रकार पागल हाथी जनसाधारण के लिए भयकर होता है उसीप्रकार अब मनुष्य में राजनैतिक शान, पाचारसम्पत्ति व शूरवा-आदि राज्योपयोगी प्रशस्त गुण नष्ट होकर उनके स्थान में मूर्खता, अनाचार व कायरता आदि दोष घर कर लेते हैं, तब वह पागल हाथी सरीखा भयर होजाने से राज्यपद के योग्य नहीं रहता। नौसिकार वल्लभदेव ने भी कहा है कि राजपुत्र शिष्ट व विद्वान होनेपर भी यदि उसमें द्रव्य ( राज्यपद के योग्य गुण) से अद्रव्यपना ( मूर्खता व अन्नाचार-आदि दोष ) होगया हो तो वह मित्रगुण ( पागल हाथी के सदृश) भयकर होने के कारण राज्यपद के योग्य नहीं है। नीतिकार गुरु विद्वान ने भी लिखा है कि जो मनुष्य समस्त गुणों-राजनैतिक पान प सदाचार-आदि-से अलस्कृत है, उसे 'राजद्रव्य' कहते है उसमें पंजा होने की योग्यता है, ये गुण राजाओं को समस्त सत्कार्यों में सफलता उत्पन्न करते हैं। निष्कर्ष-दे मारिदत्त महाराज ! इसीलिए मैंने राजद्रव्य के गुण उक्त विविध माँति की ललित कलाओं का अभ्यास किया । 1. उपमालार। २. तथा च सोमदेवरि:-'मतो दम्यावरूपप्रतिरपि कबित्सवः सार्णगजवात्। नीतिवाक्यामृत से समुस्त-सम्पादक १. तथा ब बलभदेवा-शिष्टात्मजोऽपि विदग्धोऽपि द्रव्यादण्यस्वभावकः । न स्मादाग्यपदार्थोऽसी गओ मिश्गुणो यपा ॥१॥ ४. सभा च गुरु:-यः स्यात्सर्वगुणोपेतो राजद्रव्यं तदुच्यते । सर्वकृत्येषु भूपाना तदई कृत्यसाधनम् ॥१॥ ५. यथासंख्य-अलहार । नौतिवाक्यामृत से संमलित-सम्पादक। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये पुनहल्लिखितला म्हनचन्द्र समवनमण्डले लक्ष्मीरूपाविजयिभुवशिरूर सैन्दर्य भाजि सपरमसंतान सम्बोपाटनपोईण्डमण्डीविडम्बित स्तम्बेरम कराकारे श्रीसरस्वती जलये जिरी बिकालाधन करणचतुरचक्षुचि मनागुद्यमानशेमल्यामिकामदरेखामसिहरुले गिजालान स्तम्भशोभमानोरुणि स्पर विलास निवासविलासिनीजनोन्मादसंपादन सिद्धये संसारसारजन्मनि मनोजननामानममभिनव मिश्रृङ्गार भीमरकरणवृतिनि समुपपैपकाधः कृतजगत्त्रये सवातजन्नस्य व परिजनस्य अनिलराज्य कण्ठिकाबन्धन मनोरथेऽवतीर्णे मोदी निम्म्या भिया व नित्यं निजात्रासमहत्त्वलांना कृतापसीमो भवते मध्यस्तदा हनुवं परमस्मदीयः ॥ ९४ ॥ को मन्त्री नृपतेर्यशोधर इति ख्यातः मृतः को रं हन्ता वैरिव यशोधर इति कपातः सुतः कः सखा । कार्यारम्भविष पयोधर इति ख्यातः मृतो यस्य में लोकमवाप तातविषये प्रश्नोत्तरस्वं स्थितिः ॥ ९५ ॥ लावण्ये, तथा : १३२ सत्पश्चात् अब मेरा ऐसा तारुण्य ( युवावस्था) सौन्दर्य प्रकट हुआ, जिसमें मेरा मुख मण्डल, लाञ्छन रहित चन्द्रमा सरीखा आनन्ददायक था। जो लक्ष्मी के कुचकलशों ( स्तन कलशों ) को लग्नित करनेवाले मनोश दोनों स्कन्धों के सौन्दर्य से सुशोभित था। जिसने शत्रु समूह रूपी वृक्ष-स्कन्ध को जड़ से उखाड़ने में समर्ध व शक्तिशालिनी भुजारुपी दंडमण्डली द्वारा हाथी के शुद्धादण्य (ड) की आकृति तिरस्कृत की थी। जिसमें मेरे दोनों नेत्र स्वर्गलक्ष्मी व सरखती की जलक्रीड़ा करने की बावड़ियों को लज्जित करने में चतुर थे। जिसमें मेरे दोनों गाल-स्थल कुछ-कुछ प्रकट हुई रोमराज की श्यामता रूपी मदरेखा (अवानी का मद वहना) से शोभायमान होरहे थे। जिसमें मेरी दोनों जताएँ दिग्गज के बाँधनेलायक खम्भों सरीखी अत्यन्त मनोज्ञ प्रतीत होती थीं। जो जवानी का सौन्दर्य ) काम की संभोग-कीड़ा की स्थानीभूत कमनीय कामिनियों के समूह को उन्मन्त (कामोद्रेक से मिल-बेचैन ) करने में सिद्धौषधि (अव्यर्थ चौषधि) के समान था | जिसकी उत्पात्त संसार में सर्वश्रेष्ठ हैं। जिसमें कामदेव रूपी नाटकाचार्य द्वारा मनरूपी नवीन नाटक -पात्र ( एक्टर ) नचाया जा रहा है। जिसमें निरङ्कुश ( बेमर्याद ) वेषभूषा (मकाभूषणादि ) रूप शृङ्गार से इच्छारूपी वरों से उछलनेवाली मानसिक विचित्रता ( विकृति ) द्वारा पंचेन्द्रियों की प्रवृत्ति पश्चल होजाती है। अर्थात् जिसमें निरङ्कुश वेष-भूषा द्वारा उद्भूत मानसिक विकार के कारण समस्त चक्षुरादि इन्द्रियाँ अपने अपने रूपादि विषयों में चञ्चलता पूर्वक प्रवृत्त होजाया करती हैं और जिसमें उत्पन्न हो रही मद की अधिकता से तीनों लोक अधःकृत किये गए हैं एवं जिसने पिता जी सहित कुटुम्बी-जनों के ह्रदय में मेरे लिए युवराज-पद की मोतियों की कष्ठी गले में पहिनाने की अभिलाषा उत्पन्न कराई थी। उसीप्रकार उस युवावस्था संबंधी सौन्दर्य के आगमन समय केबल मेरे उदर-देश ने कृशता ( क्षामता-पतलापन ) प्राप्त की थी । अतः ऐसा मालूम पड़ता था मानों - नितम्बलक्ष्मी व वक्षःस्थल- लक्ष्मी ने मेरे मनोश शरीर पर सदा अपना निवास करने की तीव्र इच्छा से ही मेरे उदर-देश की बृद्धि-सीमा अल्प (छोटी) कर दी थी, जिसके फलस्वरूप मानों - षड् कृश होगया था ||१४|| उस समय मेरे जगप्रसिद्ध [ पराक्रमशाली ] व्यक्तित्व ने पिता के समक्ष किये हुए लोगों के निम्नप्रकार प्रश्नों का समाधान करने में प्रवीणता प्राप्त की थी। जब कोई पुरुष किसी से प्रश्न करता था कि यशोर्घ राजा का बुद्धि सचिव कौन है ? तब वह उत्तर देता था, ,कि यशोधर नाम के राजकुमार ही प्रस्तुत राजा के बुद्धि-सचिव * 'कण्ठकण्ठिका' इति क० । १. प्रेक्षालंकार | 1 'नितम्बलक्ष्म्या' इत्यादिना पुरुषस्य नितम्बसंपूर्णने नायुकं त्यागेन समं प्रथिमानमाततान नितम्बभागः सॉट (०) से संकलित - सम्पादक Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवास: १३३ पुनश्च गुरुमिवान्तेवासिनि स्वामिनमिव भृत्ये परंज्योतिरिध योगवरवषि पितरमुपचरति सति, विभ्रम्भेषु च द्वितीय व हृदये, निदेशकर्मणि धनक्रीत इव वाते, विधेयतायां स्वकीय इव चेतसि निर्विकल्पतायामव्यभिचारिणीय सुवि मयि प्रतिपन्न तदाराधनैकसानमनसि अपरेषु प्य तेषु तेषु तदाशावसरेष्वेकमप्यात्मानं हर्याशाविवोदकपात्रेष्वनेकमिव वर्णयति, शमानाभ्यामन्पन्न सर्वमपि परिजनं तदादेशविधिषु विदुश्यति देवताराधनेषु च तातस्य प्रतिवारिणि, गुरुजनोपासनेषु प्रतिवपुषि, धर्म विनियोगेषु पुरोषसि चाखाभ्यासेषु विक्कण विभाग करोयरालिपि, हैं। इसीप्रकार जब कोई किसी से पूँछता था कि प्रस्तुत महाराज का युद्ध भूमि पर शत्रु सैन्य का विध्वंस करनेवाला सेनापति कौन है ? तब वह उत्तर देता था कि यशोधर नामका जगत्प्रसिद्ध राजकुमार ही प्रस्तुत महाराज का कर्मठ व बीर सेनापति है । पुनः कोई किसी से पूँछता था कि उक्त महाराज के सैम्य-संचालन आदि कार्यों के आरम्भ करने में 'मित्र' कौन है ? तब वह उत्तर देता था कि 'यशोधर' मका राजकुमार ही प्रस्तुत कार्य विधि में मित्र है ' ॥५॥ तत्पश्चात जब मैं पिठा की उसप्रकार सेवा-शुश्रूषा कर रहा था जिसप्रकार शिष्य गुरु की, सेबक स्वामी की और अध्यात्मज्ञानी योगी पुरुष, परमात्मा की सेवा-शुश्रूषा करता है। इसीप्रकार जब मेरे पिता मुझे उसप्रकार विश्वासपात्र समझते थे जिसप्रकार अपना हृदय विश्वासपात्र समझा जाता है। मैं पिता की आज्ञा-पालन प्रकार करता या जिसप्रकार वेतन देकर खरीदा हुआ ( रक्खा हुआ ) नौकर स्वामी की आज्ञा पालन करता है। जिसप्रकार शिक्षित मन समुचित कर्तव्य पालन करता है उसीप्रकार मैं भी समुचित कर्त्तव्य पालन करता था। जब मैं, आदेश के विचार न करने में अव्यभिचारी ( विपरीत न चलनेवाले — धोखा न देनेवाले ) मित्र के समान था । अर्थात् जिसप्रकार सच्चा मित्र अपने मित्र की आज्ञा पालन करने में हानि-लाभ का विचार न करता हुआ उसकी आज्ञा पालन करता है उसीप्रकार मैं भी अपने माता-पिता आदि पूज्य पुरुषों की आज्ञा-पालन में हानि-लाभ का विचार न करता हुआ उनकी आज्ञा पालन करता था । इसप्रकार जब मैंने अपने पिता की आराधना ( सेवा ) करने में अपने tant निश्चलता स्वीकार कर ली थी एवं उन उन जगत्प्रसिद्ध आज्ञा-पालन के अवसरों पर मेरे अकेले एक जीवन ने अपने को उसप्रकार अनेकपन दिखलाया था जिसप्रकार चन्द्रमा एक होनेपर भी जल से भरे हुए अनेक पात्रों में अपने को प्रतिषिम्य रूप से अनेक दिखलाता है। दान और मान को छोड़कर बाकी के समस्त पिता के प्रति किये जानेवाले शिष्टाचार-विधानों में मैंने समस्त कुटुम्बी-जन दूर कर दिये थे । अर्थात् यद्यपि याचकों को दान देना और किसी का सम्मान करना ये दोनों कार्य पिता जी द्वारा किये जाते थे अतः इनके सिवाय धन्य समस्त कार्य ( माज़ा - पालन आदि शिष्टाचार ) मैं ही करता था न कि कुटुम्बी-जम । इसीप्रकार में देवता की पूजाच्चों में पिता का सेवक था । अर्थात् पूजादि सामग्री समर्पक सेवक-सा सहायक था । इसीप्रकार अब में माता-पिता व गुरुजनों आदि की सेवाओं का प्रतिशरीर ( प्रतिविम्व ) था। इसी प्रकार जब में धर्ममार्ग में पुरोहित था । अर्थात्-जिसप्रकार राजपुरोहित राजाओं के धार्मिक कार्यों में सहायक होता है उसीप्रकार में भी पुरोहित सरीखा सहायक था। जब मैं शाखाभ्यास करने में शिष्य जैसा था । अर्थात् जिसप्रकार विद्यार्थी शास्त्राभ्यास करने में प्रवीक होता है उसीप्रकार में भी शास्त्राभ्यास में प्रवीण था। अब में विद्या-गोष्ठियों में कलाओं के सदाहरणों का साक्षी था । अर्थात् — मैं साहित्य व संगीत आदि ललित कलाओं में ऐसा पारदर्शी विद्वान या जिसके फलस्वरूप विद्वगोष्ठी में मेरा नाम कला-प्रवीणता में दृष्टान्त रूप से उपस्थित किया जाता था । १. प्रश्नोतरालंकार । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये एपश्चर्याम पन्दरि, करिविनोदषभिवादिनि, हयसीदासु पामरति, स्वैरविहारेपासपस्त्रोपकृति, भर्मासनेषु कार्यपुरश्चारिणि, समरसमय सुभासरतथा विकमिणि, परेण च सेन तेन विनयकर्मणा सकलस्यापि लोकस्य वदमारविम्वेषु स्वकीर्य पशोहसं प्रसारयति, भगाङ्गलिपुटेषु च निजकीर्तिपुधारसं प्रायति, सरसेपि मजम्ममा रत्नाकर स्वेन्दिरानुजम धर्माराम इब फलसंपदा प्रापर्धत इव मणिमण्डलेग साहिदिवस इस प्रजापतिना दीपमा इव मन्दरेणास्मान बहुमभ्यमाने, सकशापारकरपरिमहा कुलनियमिवैकमोग्यां भुवमनुलासति सति, स्तैमनोभिलासादिसंबाई: सुखसंकधादिनी मुहूर्तसमया इव समाः काश्चिद्वतीयुः ।। एवं रस्लकाधनयोरिव समसमायोगेन भमदनलवरयोरिव परस्परप्रीस्था धनंजयज पन्तयोरिव महोपयैश्वर्थरसेनापोकामनोम्पोस्वि चाम्योन्यामुवनेन निस्पमादयोसमानयोरेकदा पुरंदरपुरपताकाबलम्बनोधितमण्डले बनेजवनविकासवि जब मैं रथ-संचालन कला में प्रवीण पुरुषों में सारथि-सा निपुण और हाधियों की कीड़ा कला में महावत-जैसा प्रवीण था। इसीप्रकार जब मैं घोड़ों की भीड़ा में घुड़सवार सरीखा प्रवीण था। इसीप्रकार जब मैं बन क्रीड़ाओं में छत्रधर था। अर्थात्-जिसप्रकार छत्रधर वनक्रीड़ा के अवसर पर उष्ण व वृष्टि आदि से बचाता हुषा उपकारक होता है उसीप्रकार में भी पिताजी की वनक्रीड़ा के अवसर पर छत्रधर-सा उपकारक था- उनकी विघ्न-बाधाएँ दूर करता था। जब में राजसभा-भवन संबंधी कार्यों ( सन्धि च विग्रह-श्रादि) के निर्णय करने में अमेसर धा। जब मैं संग्राम के अवसरों पर सहसमट, लक्षभट व कोटिभट योद्धाओं के मध्य प्रमुख होने के फलस्वरूप पराकमशाली था । इसीप्रकार जब मैं उस उस जगप्रसिद्ध विनय धर्म द्वारा समस्त मानवों के मुखकमलों में अपना यशरूपी हँस प्रविष्ट कर रहा था और जब मैं कानों के अञ्जलि पुढो में समस्त लोक द्वारा अपनी कीर्तिरूपी अमृत-वृष्टि करा रहा था। इसीप्रकार जब मेरे पिता यशोमहाराज मेरे जन्म से अपने को उसप्रकार महान ( भाग्यशाली) समझते थे जिसप्रकार समुद्र चन्द्रोदय से, धर्मरूपी उद्यान स्वर्गादि फल सम्पत्ति से, उदयाचल पर्वत सूर्य विम्बोदय से, सृष्टि का प्रथम दिवस ब्रह्मा से और जम्बूद्वीप सुमेरु पर्वत से अपने को महान समझता है। इसीप्रकार जश्व मेरे पिता ऐसी पृथ्वी का शासन कर रहे थे, जो कि कुलवधू-सरीखी केवल उन्हीं के द्वारा भोगी जाने वाली धी और जिसके चारों समुद्रों के मध्य टैक्स लगाया गया था तब उनकी पूर्वोक्त प्रकार से सेवा-शुश्रूषा करते हुए मेरे कुछ वर्ष, आनन्द देनेवाले कथा-कौतूहलों से, जिनमें मानसिक अभिलाषाओं को प्राप्त करानेवाले शिष्ट वचन पाये जाते हैं, मुहूर्त (दो घड़ी ) सरीखे व्यतीत हुए। इसप्रकार जब हम दोनों पिता-पुत्र (यशोमहाराज व यशोधर कुमार ) उसप्रकार सहशसंयोग से शोभायमान होरहे थे जिसप्रकार रत्न और सुवर्ण का संयोग शोभायमान होता है। अर्थात्-मेरा पिता रम-सदृश और मैं सुवर्ण-समान था। इसीप्रकार अब हम दोनों उसप्रकार पारस्परिक प्रेम में वर्तमान थे जिसप्रकार कुवेर और उसका पुत्र नलकूपर पारस्परिक प्रेम में स्थित रहते हैं और जिसप्रकार देवताओं का इन्द्र और उसका पुत्र ( जयन्त विशेष उन्नतिशाली ऐश्वर्य (विभूति ) के अनुराग से शोभायमान होते है.उसीप्रकार हम दोनों भी विशेष चम्मतिशील एश्वर्य (विभति) के स्नेह से शोभायमान होते थे। एवं हम दोनों पारस्परिक अनुकूलता में इसप्रकार सदा वर्तमान थे जिसप्रकार श्रीनारायण (श्रीकृष्ण) और उनके पुत्र प्रयुग्मकुमार सदा परस्पर अनुकूल रहते हैं तब एक समय नीचे लिखी घटनाओं के घटने पर . विजय ( शत्रुओं का मान-मर्दन ) से उनत या अप्रतिहत (किसी के द्वारा नष्ट न किये जानेवाला) यभ्यशाली हमारे पिता (यशार्घमहाराज) ने ऐसे अवसर पर जब वे अपना मुख थी में और वर्षण में देख रहे थे, अपने शिर पर सफेद बालरूपी अङ्कर देखा। प्रस्तुत घटनाएँ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः शासाविरवारलाजनममसि मनसिजकलहविगणितकालेयपौलोमीकपोलकोमले इरिहयंभमनिर्मितकलशकान्तिविलोपिनि पुरहूतरंभिकाधरप्रसाधनजतुरसोस्कदपटल पेशळे शचीश्रवणावतंसापि पारिजासमारीजालजयिनि सुरससहचरोपचारफ्युसालतकलेएसंपलानेषु स्तुतिमुखाम्बरचीनिकुरुम्बविम्याधरपालयेषु विचमानकमलकोशप्रकाशप्रसरैः करैः पुनरपरमेव किमप्यावकाहार्य सौम्य राति सति गभस्तिमति, तपनतापसोश्चित छाये इत्र तमस्तापिकालुमा वियवच्छे, सकलदिपालधिलासिमोसीमन्तसिन्दूरसंततिसुन्दरालेखरेखासु गगनविशिलासु, स्वरकिरण केसरिश्रमाक्रान्तिभीत इवापरगिरिशिखरान्तरविदारिणि शिशिरकारकरिणि, प्रादेयललिपिषु विलीनेत्रिव लोकलोचनालोकलोपिषु नक्षत्रनिकरपु, विधुरावसर मि कशेषता मिनाणे नभसि, बीरनोश्वर इव करमात्रतन्त्रतामप्रतापप्रकाशनावसाऽदितितमये, अरुणमणिमहीभृत्प्रभापिङ्गरिसरुधिविरसनीलिके एक समय जब ऐसा सूर्य उदित होधुका था, जो कि अपनी किरणों द्वारा, जिनका प्रसार (विस्तार) प्रफुल्लित कमल कोश (मध्यभाग) के तेज सरीखी लालिमा धारण कर रहा था, स्तुति वचन बोलती हुई देवियों या विद्यावरियों के समूह संबंधी बिम्बफल-सरीखे भोपालयों में कोई अनौग्ने लानारस के साश चारों ओर से उपमा देने योग्य सौन्दर्य (मनोज्ञ लालिमा) की सृष्टि कर रहा था। कैसे हैं विद्यारियों के प्रोष्ठपल्लव ? जिनमें रतिविलास के समय मित्रता करनेवाले पतियों द्वारा कीजानेवाली पूजा (सन्मान) के अवसर पर गिरे हुए लाक्षारस. क्षेप के शोभा-लेश वर्तमान थे। कैसा है सूर्य ? जिसका विम्ब, इन्द्र-नगर ( पूदिशा में स्थित इन्द्रदिक्पालनगर) की ध्वजाओं के प्रान्तभागों के स्पर्श करने के योग्य (निकटतर ) है। जिसके उदय में विकसित कमल-समूहों के आस्वादन करने में हंसी-श्रेणी का चित्त धना ( आसक्त) होरहा था। जो इन्द्रागी के ऐसे गालस्थल-सरीखा मनोहर है जिसका काम की मथुन क्रीड़ा द्वारा कुकम गिर गया है। जो इन्द्र-भवन पर स्थित सुवर्णमयी कलश की कान्ति तिरस्कृत करता है। जो इन्द्र की घालपल्ली के ओष्ठों को 'अल-कृत करनेवाले लाक्षारस के उत्कट पटल ( समूह ) सरीखा मनोश ( लालिमा-शाली) है। इसीप्रकार जो, इन्द्राणी के कानों के कर्णपूर के लिए स्थापित की हुई दिव्यपुष्प संघधी लताश्रेणी को तिरस्कृत करता है। इसीप्रकार जब आकाशरूपी चन, अँधकाररूपी तमालवृक्ष के गुच्छों से रहित होने के फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होरहा था मानों-सूर्यरूपी तापसी द्वारा उसकी छाया नष्ट कर दोगई है। अभिप्राय यह है कि अब वृत्तों से पत्ते व पुष्प तोड़ लिये जाते हैं, तब उनमें छाया नहीं होती। जब श्राकाश-मार्ग ऐसे शोभायमान होरहे थे, जिनकी विन्यास-रेखा, समस्त दिक्पालों (इन्द्र अग्नि, यम व नैऋत्य-आदि ) की कमनीय समिनियों के केश-भागों पर स्थित सिन्दूर-श्रेणी सी मनोश होरही थी। जब चन्द्रमारूपी हाथी अस्ताचल पर्वत की शिखर के मध्यभाग पर पर्यटन करता हुआ ऐसा प्रतीत होरहा था मानों-सूर्यरूपी सिंह के पंजों के भाक्रमण से भयभीत हुआ है। इसीप्रकार जब नक्षत्र-श्रेणी, लोगों के नेत्र-प्रकाश से लुप्त ( ओझल) हो रही थी, इसलिए जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानों थोड़े से पाले की लिपियों (अक्षर-विन्यासों) में ही गल चुकी है, इसीलिए ही मानों-दृष्टिगोचर नहीं होरही थी और जब श्राकाश केवल मित्र (सूर्य) को ही धारण कर रहा था। अर्थात--जब आकाश में केवल सूर्य ही उदित होरहा था और दूसरे नक्षत्रभाषि अस्त होचुके थे, इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-वह ( आकाश ) यह बता रम था कि कष्ट के अवसर पर मित्र (मित्र व पक्ष में सूर्य ) ही समीप में रहता है और उसके सिरा दूसरे सब लोग भाग जाते हैं। जब सूर्य करमात्र-तन्त्रता अर्थात केवल किरणों को स्वीकार करने से अपना प्रताप ( उष्णता) प्रकट करने में उसप्रकार उद्यमशील होरहा था जिसप्रकार शूरवीर राजा करमावतन्त्रता-अल्प टेक्स और सैन्यशक्ति से अपना प्रताप ( राजा का तेज-खजाने की शक्ति और सैम्प-शक्ति-प्रकट करने में उद्यमशील होता है। जब समस्त आकाश का नीलापन, उदयाचल पर्वत Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ यशस्तिलफचम्पूफाये विकल्पेनीतिति निस्तरसने सागराम्भसीयोपलक्ष्यमाणे समस्तेपि विहायसि, भूवनमा साताम्समूतपोलसबकासिनि विकसकोकनदामोदसान्द्रितशरीरे विश्वंभराधरोनिझतनिर्भरशीकरासारमुक्ताफजितकषि विस्करटिकटकन्दर अपानास्वास्वादलडिने सविधप्रधानन्धमधुकरीसमाजकृजितालोकशम्दसंदर्भिणि मिएलीकामसरीस्थाषितर्सगारे सम्सीमन्तिनीः संभावयित दिवाभुजगे इस गानैः शनैः परिसरति मरुति, त्रिदिवमुनिमण्डली स्खलितजलदेववाणलोलिकुलहले पानीज, सरकामुहिश्य द्विमातिहस्ताइस्तास्तोकस्त करन.चन्दनच्छटाउपसिम्पूर्यमाणमण्डले व्योमसामनाभस्थले, पाखिनमनिरोपस्वरतरोचार्यमाणमामधमालोएकासनन्दिले नगरवतानणास्फालितविषिषवाद्योदुरवानसोहले नवसमागमापापरमिधुनकरपतापलापकाइये कमछिनीमभृमतमतालिकलकलोलाले सहचरीरतिरसिकसारसरसितसरके क्रीरामवारकामिनीमाहास्बहले की कान्तियों से पीली व लाल की हुई शोभा द्वारा अल्प कर दिया गया था इसलिए जो, ऐसेसमुद्रजल-सरीखा प्रतीत होरहा था, जिसकी फेन वृद्धि नष्ट हो चुकी है और जो तरङ्ग सङ्गम से रहित है तथा जिसका नीलापन समुद्र के मध्य में स्थित हुए उदयाचल पर्वत के तेज से थोड़ासा होगया है। इसीप्रकार जब ऐसी वायु, दिशारूपी कमनीय कामिनियों को संतुष्ट करने के लिए उसप्रकार मन्द-मन्द संचार कर रही थी, जिसप्रकार दिन में रतिपिलास करनेवाला कामी पुरुष त्रियों को संतुष्ट करने के हेतु धीरे धीरे संचार करता है। कैसा है यह वायुरूपी दिवस-कामुक १ जिसके दुकूल ( दुपट्टे) भोजपत्रवृक्षों के बक्कल है। जो लताओं के पुष्परूपी नूतन मुकुट या कर्णपूर से अलस्त है। जिसका शरीर फूले हुए लालकमलों की सुगन्धि से सान्द्रित ( घना) होरहा है। जिसका शरीर पर्वतों की गुफाओं से प्रवाहित हुए मारनों के जलप्रवाह-समूहों द्वारा मोतियों के आभरणों से विभूषित किया गया है। जो दिग्गओं के गण्डस्थल-बिद्रों से प्रवाहित हुए मद (दान जल ) रूप मद्य-पान के फलस्वरूप विज्ञलीमूत (यहाँ-वहाँ संचरणशील ) होरहा था। जिसमें ऐसी भैपरियों की श्रेणी के, जो समीप में संचार करती हुई सुगन्धि में लम्पट थी, गुंजारने रूपी जय जयकार शब्द की रचना पाई जाती है और जिसका आगमन, मिलीका ( झीगुर या मैंभीरी रूपी विजय घण्टाओं के शब्दों द्वारा सूचित किया गया था। इसीप्रकार जब ऐसी गना नदी की जलराशि. जिसमें अल-देवताओं के क्रीड़ा-कौतूहल में स्वर्ग के लौकान्तिक देवों अथवा सप्तर्षियों की श्रेणी द्वारा बिनाधाएँ उपस्थित की जाती थी, होरही थी। अभिप्राय यह है कि अलकीदा के अवसर पर आए हुए लौचन्तिक देवों या सप्तर्षियों से, लजित हुई जलदेवता अपनी जल-कीड़ा बोड़ देती थीं। इसीप्रकार जब आकाशरूपी हायी र कुम्मस्थला, जिसका प्रान्तभाग ऐसे प्रचुर पुष्प गुच्छों और खालचन्दन की छटाओं के मिष (महाने ) से, सिन्दूर-षिभूषित किया गया था. जो कि सूर्य-पूजा के हरेस्य से वासणादि द्वारा ऊपर क्षेपण किये गए थे। इसीप्रकार जब गृहों की बावड़ियों में हँसपियोंत्र ऐसा मसकलानाद (शब्द), सभी स्थानों में सत्पन्न होरहा था। जो (सभेणी का फलकल-नाद) राजमहल के मध्य में अत्यंत ऊँचे स्वर से पढ़े जानेवाले दिगम्बर ऋषियों या स्तुतिपाठकों के मालिक पाठ के मल्लास (विस्वार ) बरा वृद्धिंगत होरहा या। जो नगर-देवताओं के आँगनों (जिन मन्दिरों) पर वादित किये हुए नानाप्रकार के बाजों (देणु, धीरण, मृदा व शबादि) की उस्कट' ध्वनियों से अस्पष्ट होगमा बा । इसीप्रकार जो. नवीन समागम से उत्पन्न हुए आनन्द के कारण मन्द गमन करनेवाले पकवापस्वी के अनर्थक शब्दों से गम्भीर होगया था। जो कमलिनियों के पुष्परस-पान से सन्तुष्ट हुए एवं . मद को प्राप्त हुए मैक्रों के कोलाहल से उचाल (वृद्धिंगत ) होरहा था। जो सारसी के साथ रतिविलास करने में रसिक (अनुरक) हुए सारस पक्षी के शब्दों से सरक्षवा (अकुटिलवा ) धारण कर रहा था। जो मैथुन कीड़ा से कवार्य (सन्तुष्ट) हुई कुररकामिनी (कररपची-भार्या) के शब्द से प्रचुर होरहा था। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. - -. - .. विसीय प्राधासः विकाचपप्रचारप्रारम्भविजुम्मितकुलकमकहरुहानाहान्छाले मदनामीकहकुहरकुलायमिछीमशुक्सारिकामावराधासरले सारसमरसव इसाविकपोत्यचिदिवस इमामृतमयमकाल इव सेतुबन्धप्रबन्ध इस प्रथमयुगाचतारपुण्याह ह . सतः समुण्यात यावीपिकात मुक्षिणविषयकोलाहले, मिजमियोगमप्राङ्गामासंचरणरणम्मणिमनीरस्वरसंकराध्यक्तामासिव्यतिको राजमवनभूमि भोगावलीपाठक, प्रोटिकोटिविघटितपुटनिवेशैणालिनीपलाशैनिशानिरसनविषयका बावियनिकाय एमासमर्दछवि पौषस्यैः पयोधरास्पैसियतीवभिसारिकास्विवारवासयन्सीषु मराली, करेणुकरोस्लसितलकाकीपावापनीय. मानपरागोपदे मागनिषहे, वस्मणक्षरक्षीरप्रतीक्ष्यमाणातिथिषु यजलोफीथिषु, श्रागामिण गल्सर्वसंपावनाकामणि ममणि प्रवापाठनोपायनिरतान्याकाणे नारायणे, प्रलयकालासंभालनादिनि सपदि नि, अनेकमखाहानगमनमूहमतिको सहलाये, होमानिमामामणसमिध्यमानमहसि हुतारमसि, जो, परा-समूहों में संचार करने के उद्यम से बढ़ी हुई जलकाक-पक्षियों की शब्द विशेष की ध्वनि से शब्वायमान होरहा था । जो, ऐसी शुक-सारिकाओं ( तोता-मैनाओं ) के वनों के शब्दों से विशेष प्रचुर होगया था, जो कि राजाओं के बगीचों के वृक्षों के मध्यवर्ती घौसलों में बैठी हुई थी। इसीप्रकार जो ऐसा प्रतीत होता था-भानों-देवताओं और दैत्यों के मध्य हुना युद्ध-संगम ही है। अथवा मानो-ऋषभदेव तीर्थबर के जन्मकल्याणक फा दिवस ही है। अथवा मानों-देव और दानवों द्वारा किये हुए झीरसागर के मन्धन का अवसर ही है। अथवा--मानों-राम-लक्ष्मणादि द्वारा किये हुए सेतुबन्ध का प्रघटक ही है। अथषा मानों-ऋषभदेव के राज्य संबंधी उपदेश काल में किया हुआ पुण्याहयावन (माङ्गलिक पाठ) ही है। इसीप्रकार जब राजमहल की भूमियों पर ऐसी संगीतज्ञों की मधुर गान-ध्वनियों होरही थी, जिनमें शब्द-प्रघट्टक ( ध्वनियों का जमाव) इसलिए अस्पष्ट होरहा था, क्योंकि उनमें (गान-ध्वनियों में) अपने भपने अधिकारों में संलग्न हुई कमनीय कामिनियों के संचार-वश मन्जुल धनि करनेवाले मणिमयी नपुरों के मुनमुन शब्दों की संकरता (मिलावट) होरही थी। जय हँसिनियाँ, रात्रि में भोजन न मिलने के कारण व्याकुलित शरीरबाले अपने बच्चों के समूह को, ऐसी कमलिनी के नवीन पल्लषों से, जिनका पुटनिवेश (जुस हुआ प्रदेश) चन्चु-पुटों के अप्रभागों द्वारा तोड़ दिया गया है, उसप्रकार आश्वासन देरही थी जिसप्रकार बोधाली अभिसारिकाएँ (अपने प्रिय के द्वारा प्रवाए हुए संकेत स्थान पर जानेवाली कमनीय कामिनियाँ) अपने ऐसे कुषों (स्तनो) के अप्रभागों से, जिन्होंने रतिषिलास संबंधी समर्द ( पीड़न ) से दुग्ध उद्वान्त किया है-फैन है, अपने बडो को प्रातः काल में आश्वासन देती है। अर्थात्-जिसप्रकार अभिसारिकाएँ स्तनों के अप्रभागों द्वारा प्रातःकाल में बों को आश्वासन देती है, उसी प्रकार इंसिनियों भी अपने क्षों को कमशिनी के कोमलपत्तों से माधासन देती थीं। जब हस्ती-समह के शरीर पर स्थित हुई धूलि-राशि, हथिनियों के छुएगदण्डो (सूहों) से तो हुए साकी वृक्ष के कोमल पल्लवों द्वारा दूर को जारही थी। इसीप्रकार जब प्रबलोक-धीथियाँ ( गोकुल के ग्वालों के मार्ग), जिनपर उसौसमय (प्रात:काल में) घुड़े हुए दूध से अतिथियों की पूजा की जारही थी। जब मा भविष्यत् लोक की पूर्णरूप से सृष्टि करने में किंकर्तव्य-विमूड म्यापार-युक्त होरहे थे। जव नारायण (विष्णु) का मन ब्रमा द्वारा बनाई हुई सष्टि की रक्षा करने के अपाय (उद्यम) में तत्पर होरहा था। इसीप्रकार जब रुद्र (महेश) लोक की संहार-वेला (समय)के स्मरण-शील होरहे थे। जब इन्द्र, जिसकी बुद्धिरूपी-लता बहुत से यहों में आमन्त्रण ष गमन (स्वयं यहाँ जाना अथवा तीर्थकरों के कल्याणकों में अनेक देवों सहित जाना) में व्याकुल होरही थी। जब १. 'अगत्सर्गका । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकथम्पूकाव्ये त्रिविम्यापार९रायणावस्थे मध्यस्थे, क्षपाशयक्षीणाच्चाह्नवक्षसि रक्षसि नूत्नरश्मपरनाद्दिवमनोरथे पायोनिधिमार्थ, प्रज्वानोम्फुखरैखानसम मोविनीयमानात्मनि मातरिश्वनि, वनीपकसं तर्पणोद्धारित कोशे बनेशे, योगमिदोदेकमुदिताक्षिके विज्ञाकामे, भरोद्धरणाचीभवेतलि चक्षुःश्रवसि परस्पराचरितसमय व स्वकी पक्रियाकाण्ड हदये भुवनत्रये, पुनः कण्डमकाण्ड कचाकविकिपरिषद बन्धूकजीयेषु विद्रुमारस्मराजिषु पापरणेषु सिन्दूरवशिरः पिण्डा १३८ समालोकागतैभरि सुनिन्ता हतये दुरीहित भवद्विम्युदासाथ च । विभाजि 'दुःस्वप्नामा मूयः कल्पितः याधोवोस्पवं प्राह्म-राज्याबीक्षण मेतदस्तु भवतः सर्वेवालये ॥ १६ ॥ यो दर्शयति भुवनं समस्तं जातः समो भगवतः मधुसूदनेन । श्रीलाविलासबल विरच मृगेक्षणानां क्षोणीश मङ्गखकरी मुकुरः स तेऽस्तु ॥ ९७ ॥ अनि, होम करने में सरल ब्राह्मणों द्वारा प्रदीप्त किये जारहे तेजवाली होरही थी । जब यम तीन लोक के प्रवर्तन में तत्पर अवस्था युक्त होरहा था । जब राक्षस रात्रि-क्षय ( दिन प्रारंभ ) होजाने के फलस्वरूप निराश - हृदयवाला होरहा था । जब वरुण नवीन रत्नों की प्राप्ति करने के प्रयत्न में मनोरथ को प्रेरित करनेवाला होरही थी । इसीप्रकार जब वायु, ध्यान या जप में तत्पर हुए तपस्वियों के हृदयों में कोच किये जारहे स्वरूप युक्त होरही थी और जब कुबेर याचकों को सन्तुष्ट करने के लिए अपन्द्र खजाना प्रकट करनेवाला होरहा था एवं जब रुद्र योग-निद्राके उद्रेक ( ध्यान के पश्चात् प्रकट हुई निद्राकी अधिकता) से अपने नेत्रों के पलक मुद्रित ( बन्द करनेवाला) और जब शेषनाग पृथिषी को ऊपर उठाने में तत्पर चित्तशाली होरहा था और जब तीन लोक का प्राणी समूह, अपने-अपने चाचार - ( कर्तव्य ) समूह के पालन में उद्यत मनवाला होरहा था, इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता था - मानों - जिसने परस्पर में कर्तव्य का अवसर जान लिया है और जब सूर्य, सूर्यकान्तमणि के दर्पण सरीखा मनोज्ञ प्रतीत होता हुआ ऐसा मालूम पड़ रहा था— मानों - जिसने कमलिनी वनों, लालकमलों, चकवा चकवी पक्षि-समूहों, बन्धूकजीवों ( दुपहरी - फूलों ), प्रबाल ( मूँगा ) वनों की श्रेणियों व कबूतरपक्षियों के वरणों में और सिन्दूर - लिप्त मस्तक पिंडवाले हाथियों के पडों में अपनी लालिमा विभक्त करके दी है। इसीप्रकार यशोर्घ महाराज, जो कि शत्रुओं पर प्राप्त की हुई विजय लक्ष्मी के कारण उन्नतराज्यशाली थे, जब अपना मुख, घी में और दर्पण में देखते हुए खुतिपाठकों के समूह द्वारा कही जानेवाली निम्नप्रकार की सूक्तियाँ श्रवण कर रहे थे तब उन्होंने अपने मस्तक पर श्वेत बालरूपी अङ्कर देखा । 'हे राजन! जिनके लिए बहुत सी दक्षिणा ( सुवर्ण आदि का दान ) दी गई है ऐसे ब्राह्मणों द्व जयन के आनन्द-पूर्वक क्रिया जानेवाला यह आपका घृत-दर्शन (घी में मुख देखना), जो कि खोटे स्वप्नों की शान्ति, दु-दर्शन से उत्पन्न हुए पापों के ध्वंस और मानसिक खोटी चिन्ताओं (परधन व पर-कलत्रा की कुचेष्टा ) का नाश तथा उनसे उत्पन्न हुए विघ्न-समूह के नाश का हेतु (निमित्त ) है, आपको समय wrefva वस्तुओं के प्राप्त करने में समर्थ होवे ' ॥६॥ हे पृथिवीपति-राजाधिराज ! यह दर्पण, जो कि अपने मध्य में समस्त लोक प्रदर्शित करने के फलस्वरूप भगवान नारायण ( श्रीकृष्ण ) सरीखा प्रतीत होरहा है एवं जो मृगनयनी कमनीय कामिनियों की शृङ्गारचेष्टाओं का क्रीड़ा-मन्दिर है, आपके लिए माङ्गलिक ( कल्याण-कारक ) होवे ||६७|१ " * 'राग्यावेक्षण' इति क०, घ० । + उकं च - हेलाविलासविबोकलीला ललितविभ्रमाः । श्रीशा पर्यायवाचकाः ॥१॥ [सं० टी० पू० २५२ से संकलित — सम्पादक १. समुच्चयालंकार । २. समुच्चरालंकार । च रव भस का Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः १३९ इति वन्दिन्वोक्तीः समाकयतो विजयो जसराज्यस्याज्यापेक्षां दर्पणनिरीक्षणं च कुर्वतः तस्य यशोर्धपवितवनम संच हस्तेनावलम्ब्यलोक्य च स मे तातः किजैवमचिन्तयत्'प्रतिनिभवषिनासोर पास केतु प्रसानः सुरससुखसरोजोकोदनीहारसारः । मदनमदविनोदानन्दकन्दायम प्रशमिदण्डम्बर: केश एपः ॥ ९८ ॥ करणकरिणा पत्र प्रदारणयेणवो हृदयहरिणस्येहाभ्वंसप्रसाधनवागुराः । मनसिजमनोभङ्गासङ्ग चितामसितागमाः शुचिरुचिवशाः केशाः पुंसां यमोत्सवकेतवः ॥ ९९ ॥ इन्द्रादातिवलोकितै दुग्धच तैः स्त्रीदशनच्छदामृतैः । सक्ष सहावा सरसाधने जने मित्र चित्रं यदयं शुचिः कचः ॥१००॥ अरावलीत तुर्मनसिजचिताचक्रम सिर्त यमपालकीडासरणिसलिलं केशमिक्तः । महामहे पुंसां विरुजाजासमछ प्रियालोकप्रीतिस्थितिविश्सये पत्रकमिदम् ॥ १०१ ॥ तत्पश्चात् मेरे पिता ( यशोर्य महाराज ने ) उसे अपने करकमल पर स्थापित करते हुए देखा और मिश्रय से निम्नप्रकार प्रशस्त विचार किया 'यह श्वेत केश बुद्धि रूपी लक्ष्मी के विनाश हेतु उत्पात-केतु (नवम मह) सरीखा है । अर्थात् जिस प्रकार नवम के उदय से लक्ष्मी नष्ट होती है उसीप्रकार बृद्धावस्था में वे केश हो जाने से बुद्धिरूपी लक्ष्मी हो आती है एवं यह (श्वेत केश) स्त्रीसंभोग सुखरूप कमल को नष्ट करने हेतु स्थिर प्रालेय (पाला) जैसा है। अर्थात् — जिसप्रकार पाला पड़ने से कमल समूह नष्ट होजाते हैं उसीप्रकार वृद्धावस्था में श्वेत केश हो जाने से वृद्ध मानव का स्त्री-संभोग-संबंधी सुख भी नष्ट होजाता है। इसी प्रकार इस श्वेत केश की शोभा, उस सुखरूप वृक्ष की जड़ को घूर-चूर करने के लिए गिरते हुए विस्तृत बिजली दंड- सरीखी हैं, जो कि कामदे के वर्ष से उत्पन्न हुए स्त्रीसंभोग - कौतूहल से उत्पन्न होता है। अर्थात् जिसप्रकार बिजली गिरने से वृक्षों की जड़ें घूर-चूर होजाती हैं, उसीप्रकार सफेद बाल होजाने से चीणशक्ति बृद्ध पुरुष का स्त्री-संभोग - संबंधी सुख भी चूर-चूर ( नष्ट ) होजाता है ' ॥ ६८ ॥ चन्द्र- सरीखे शुभ्र मानवों के केश इन्द्रिय-समूह रूप हाथियों के मद की अधिकता नष्ट करने के लिए बाँस वृक्ष सरीखे हैं और मनोरूप मृग की चेष्टा नष्ट करने के हेतु बन्धन-पाश हैं । अर्थात् - जिसप्रकार बन्धन करनेवाले जाल हिरणों की चेष्टा ( यथेच्छ विहारभावि ) नष्ट कर देते हैं उसीप्रकार सफेद बालों से भी इन्द्रिय रूप हरिणों की चेष्टा ( इन्द्रियों की विषयों में यथेच्छ प्रवृति) मष्ट होजाती है एवं ये, कामदेष की इच्छा भङ्ग करने के लिए चिता भस्म है। अर्थात्--- जिसप्रकार चिता की भस्माधीन हुए ( काल का लित ) मानव में कामदेव की इच्छा नष्ट होजाती है उसीप्रकार सफेद बाल होजाने पर वृद्ध पुरुष में कामदेव की इच्छा (रतिविलास ) नष्ट होजाती है । इसीप्रकार ये श्वेत बाल, यमराज की महोत्सव - ध्वजाएँ हैं । अर्थात्-जिसप्रकार ध्वजाएँ महोत्सव की सूचक होती हैं उसीप्रकार ये श्वेत बाल भी मृत्यु के सूचक हैं ||६|| क्योंकि जब यह मानव कुन्दपुण्धसरीखी उज्वल कमनीय कामिनियों की कटाक्ष-विक्षेप पूर्वक की हुई तिरछी चितवनों के साथ और दुग्ध - जैसे शुभ रमणियों के रूप अमृत के साथ निरन्तर सहवास-रूप प्रेम की प्रार्थना करता है तब उसके केश श्वेत होजाने में आश्चर्य ही क्या है ? कोई आश्चर्य नहीं ||१००|| श्वेत केश के बहाने से मानों-यह, वृद्धावस्था रूपी लता का सन्तु सरीस्या है। अथवा नष्ट हुए कामदेव के चिता ( मृतकाग्नि ) मण्डल की भस्म - जैसा है। अथवा यह श्वेत केश के बहाने से मृत्यु-रूपी दुष्ट हाथी के कीड़ा करने की कृत्रिम नदी काल जल ही है । अथवा पुरुषों को मूर्च्छित करने के हेतु विषवृक्ष का विशाल जड़-समूह ही है । १. रूपकालंकार । २. रूपकालंकार | ३. हेतु व आपालंकार । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० यशस्तिलकपम्पूचव्ये सामना मनि सितापील प्रजाता। समावि साय गिरोहमीरवापा विपनदाता ॥१०॥ मपि भामिनीवनविकासविदुत्तारणेषु भाडादगाव, प्रज्यप्रारम्भवासाकीने सानागमनमा मारसासनिवारणेषु परागराविमागमा व लापरिकलण्डनेषु परमधारावपाता, मणमामविगमेषु सकेसमा । । स, कियोस्कने साटिकरानाकारणारा हस, भागामिमतिमहामोहाविर्भात पित्तप्रसवपरित्रमाल, ममःमरसि । मलिनिवास स्रोतु मलामोगास, मी मनुष्याणां पविताहराः । भास्-जिसप्रकार विषवृक्ष की अब भक्षण करने से मनुष्य मूर्षित होजाता है उसीप्रकार श्वेत केश मी सब मानव कब मन मूर्षियत--शानी-कर देते हैं। अथवा यह, स्त्रियों के देखने की प्रेम-व्यवस्था को विन-भिम (नष्ट ) करने के लिए फरोत की धार है। अर्थात्-जिसप्रकार करोंत की धार लकड़ी वोरह ने पीर भारती है, उसीप्रकार वृद्ध पुरुष के श्वेत केश भी खियों द्वारा कीजाने वाली प्रेम-पूर्ण चितपन को नष्ट कर देते हैं। अथवा यह, स्थिों की प्रेममयी चितपन को नष्ट करने के लिए लेखपत्र (प्रविज्ञापत्र) ही है। ।।१०।। जो केश-सक्ष्मी युवावस्था के अवसर पर मय (काम-विकार ) रूपी अन्धकार से युक्त और श्यामवर्णवाले खियों के नेत्रों द्वारा कृष्ण कान्ति-युक्त होगई थी, वह आज वृद्धावस्था रूपी धोषन द्वारा एकल (शुभ) की जारही है ।।१०।। ये मानवों के मेल बालरूपी भर, श्रीमद के लिये झालेखाने गतिविलासरूप विष्ठा को उस प्रकार दूर करते है जिसप्रकार चाएगों के दण्ड ( पशुओं की हड़ियाँ ). विष्ठा दूर करते हैं। जिसप्रकार। स्मराज-दूतों के भागमन-मार्ग, मृत्युनल की शीघ्रता का वृत्तान्त सुनते हैं उसीप्रकार सफेद बालरूपी अर मी शील होनेवाली मृत्यु का वृत्तान्त सुनते हैं। भावार्य-जिसप्रकार यमदूतों का आगमन शीध्र होनेवाली मृत्यु सपक है उसीप्रकार वृद्धों के सफेद पालादर भी उनकी शीघ्र होनेवाली मृत्यु सूचित करते हैं। इसीप्रकार प्रस्तुर खेत बालार, शाररस का विस्तार उसप्रकार निवारण (रोकना) करते है जिसमकार वि-समूह का भागमन वृद्धिंगत जल-प्रसार को निवारण कर देता है एवं जिसप्रकार फुल्दारे की धार । ऊपर गिरने से लकड़ी लिस-भिन्न (चूर-चूर ) होजाती है उसीप्रकार सफेद बालाहर भी मानसिक धानों (बाम-वासनामों) को छिम-मित्र ( घर-घर) कर देते हैं। अर्थात-वृद्धावस्था में जब सफेव पालस्य । भारों अ उगम होजाता है तब मानसिक चेधाएँ स्वयं नष्ट होजावी है एवं जिसमकार बँधकती हुई भनि की उत्पचि प्रामोंको भस्म कर देती है उसीप्रकार वृद्ध मानषों के सफेद बालापुर भी इन्द्रियरूपी प्रामों। ने मस्म (शक्तिहीन) कर देते हैं एवं जिसत्रभर स्फटिक पाषाण-घटित असविशेष या वाण । समागम भूमि सोदने में समर्थ होता है, उसीप्रकार सफेद पालारों का समागम भी शारीरिक कान्दिको सेदने-नट करने में समर्थ होता है। इसीप्रघर ये सफेद बानापुर भविष्यत् में होनेवाली बुद्धि विशेष रूप से मूचित करने में उसप्रकार समर्थ होते है जिसप्रकार विषवृक्ष के फूलों का संगम मानषों की बुद्धि के विशेषरूप से मूचित करता है। प्रकट हुए सफेद बालरूपी भकुर, श्यरूपी तालाब में खित हुए श्रमदेव रूपी ब्राह्मण ( कर्म चाण्डाल )के अयोग्यकास की सूचना उसप्रकार कर देते हैं जिसप्रकार वासाव में स्थित हुआ हड़ियों का विस्तार ब्राह्मण न अयोग्यकाल सूचित करता है। A लासोसारपेत इति क, ग, घ, च. प्रतिए पाठः । A बिलास एव जस्सार विद्या इति टिप्पणी । दिमक्षति नो पार विशेष स्पष्टः–सम्पादक ..मालंकार। २.ख-अलपर। ३. उपमाहारसमुच्चयालधार। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवास: अपि च । मशस्य जन्तोः पसितारेक्षणं भवेन्मनोभतेन धीमतः । संसारमा जगी विजृम्भणप्रसान्तिप्तीमाबिकुरा हि पाण्डुराः ॥ १०३ ॥ मुक्तिश्रियः प्रणयवीक्षणजालमाः पुंसां चतुर्थपुरुषार्थप्ररोहाः । निःश्रेयसामृतरसागमनादूताः शुक्काः कबा ननु तपश्णोपदेशाः ॥ १०४ ॥ १४१ वदनु संजातमिवैवसंवेदनहृद्वयः सविधतर मिरेक्साभ्युदयः सचरिलोकलोचनचन्द्रमाः पुमरिमाः विश्व शीकसारा सस्मार संसारसागरोचरणपोतपात्रदशा द्वासाव्यनुप्रेक्षाः । तथाहि । राज्य जीवित पहिरन्स रेशे रिक्ता विशन्ति मचतो अयन्त्रकरपाः । एको रति यूनि महस्यणौ व सर्वकषः पुनश्यं दत्तले कृतान्तः ॥ १०१ ॥ I श्रथाश्वेव केशरूप अकुरों का दर्शन, विवेकहीन आरणी को ही मानसिक कष्ट देता है न कि तत्वज्ञानी को । क्योंकि उसके मानसिक क्षेत्र में निम्न प्रकार की विचारधारा प्रवाहित होती है। "ये श्वेतकेश सांसारिक तृष्णा रूपी कालसर्पिणी के विस्तार को शान्त करनेवाली मर्यादाएँ है” || १०३|| पुरुषों के ये शुभ केश निश्चय से मुक्तिलक्ष्मी की प्रेममयो चितवन के लिए मरोखे के छिद्र हैं। अर्थात् - जिसप्रकार खियाँ, रोग्षों के छिद्रों से बाहिर के मानवों की ओर प्रेम-पूर्ण चितवन से देखती हैं उसीप्रकार वृद्धावस्था में शुत्र केश होजाने से विवेकी वृद्ध पुरुष मुक्तिरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति के उपायों में प्रवृत्त होते हैं, जिसके फलस्वरूप मुक्तिलक्ष्मी उनकी ओर प्रेमपूर्ण चितवन से देखती है । एवं ये, मोक्षरूप वृक्ष के डर हैं। क्योंकि श्वेत केश बृद्धपुरुष को मोक्ष पुरुषार्थं रूप कल्पवृक्ष की प्राप्ति के लिए प्रेरित करते हैं। इसीप्रकार ये मोक्षरूप अमृत-धारा प्रवाह संबंधी आगमन के अप्रवृत ( प्रथम संदेश लेजानेवाले दूत ) हैं तथा ये दीक्षा महया के शास्त्र हैं, क्योंकि इनके देखने से तत्वज्ञानी पुरुष दीक्षा धारण करने में तत्पर होते हैं ||१०४॥ तत्पश्चात् — श्वेत केशरूप अकुर-दर्शन के अनन्तर -- जिसके हृदय में संसार, शरीर और भोगों से fees बुद्धि उत्पन्न हुई है, और जिसका मोक्ष प्राप्ति रूप फल निकटवर्ती है एवं जो सदाचारी पुरुषों के नेत्रों को प्रमुदित करनेके लिए चन्द्र-समान है, ऐसे यशोर्घ महाराज ने ऐसी बारह भावनाओं का, ओ कि अठारह हजार शील के भेदों में प्रधान और संसार-समुद्र से पार करने के लिए जहाज की टिकाओं सरीखी हैं, चिन्तन किया। अनिस्पभावना—ये उच्छ्वास वायुएँ रिहिट की घरियों की माला सरीखी है। अर्थात्-जिसप्रकार रिहिट की परियाँ कुएँ आदि जलाशय से जलपूर खींचकर पश्चात् उसे जमीन पर फेंककर खाली होजाती हैं और पुनः जलराशि के प्रहणार्थं फिर उसी जलाशय में प्रविष्ट होजाती है उसीप्रकार ये स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से प्रतीत होने वालीं श्वासोच्छवास वायुएँ भी शरीररूपी जलाशय ( कुधा आदि) से जीवन ( आयुष्य ) रूपी जल खींचकर तदनन्तर उसे बाहिर फेंककर खाली होजाती हैं, तत्पश्चात् पुनः शरीर के मध्य संचार करने लगती है। अर्थात्- -इस प्रकार : से आयु क्षण-क्षण में क्षीण होरही है एवं दावानल अग्नि- सरीखा यह यमराज बृद्ध, जवान, धनी व निर्धन पुरुष को नष्ट करने के लिए एकसा उद्यम करता है। अर्थात् — दावानल अभि-जैसा इसका प्राणिसंहार विषयक व्यापार अद्वितीय है, यत्पूर्वक एकसा उद्यम करता है ॥१०५॥ १. रूपकालङ्कार । ६. रूपकालङ्कार । १. रूपकालङ्कार । ४. उपमालंकार | Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्विनकपम्पूछान्ये नवयौवनमनोहरणीयताया: *कायेच्चमी यदि गुणाविरमावसन्ति । साम्सो म मातु रमणीरमणीयसार संसारमेनमधारयितुं यतन्ते ॥ १०६ ॥ सन्चैः पई मति जन्तुमधः पुनस्सं वाल्मेष रेणुनिचर्य चपला विभूतिः । मायस्थतीव जनता बनितासुम्नाय ताः सतवारकागता अपि विश्वाते ॥ १० ॥ र विपीतमिव सबनवत्कुलीन विद्यामहान्तमिव धार्मिकस्सजन्सी। चिन्तावरप्रसवभूमिरियं हि लोक लक्ष्मीः सिलक्षणसखी कलुषीकरोति ॥ १० ॥ यदि मानवों की शारीरिक कान्ति, जवानी और सौन्दर्य आदि गुण उनके शरीरों में घिरस्थायी रहते तब तो सञ्जन पुरुप कमनीय कामिनियों से मनोज्ञ मध्यभाग वाले संसार को कदापि त्यागने का प्रयल न करते ॥१६॥ जिसप्रकार प्रचण्ड वायु, धूलि-राशि को उड़ाकर उसे ऊँचे स्थान (आकाश) पर लेजाती है पुनः नीचे स्थान (जमीन) पर गिरा देवी है उसीप्रकार अत्यन्त चञ्चल धनादि लक्ष्मी भी प्रारही को ऊँचे स्थान (राज्यादि-पद) पर स्थापित करके पुनः उसे नीचे स्थान (परिद्रावस्था) में प्रविष्ट कर देती है। इस संसार में समस्त लोक (मानव-समूह) उसम स्त्री-संबंधी संभोग-सुख प्राप्त करने के लिए कृषि व व्यापापवि जीविकोपयोगी उद्योगों में प्रवृत्त होता हुआ कष्ट उठाता है, परन्तु जिसप्रकार पारद (पारा) इस्व तल पर सुरक्षित रक्खा हुआ भी नष्ट होजाता है इसीप्रकार त्रियाँ भी इस्ततल पर धारण की हुई (भलीप्रकार सुरक्षित की हुई) भी नष्ट होजाती हैं ॥१७ यह धनादि लक्ष्मी, जो कि चिन्ता से उत्पन्न होनेवाले ज्वर का उत्पसि स्थान है और उसप्रकार शरिणत स्नेह करती है जिसप्रकार दुष्ट क्षणिक स्नेह करता है, यह वीर पुरुष को उसप्रकार छोड़ देती है जिसरकार विनयशील को छोड़ देवी है। अर्थात्-विनयी भौर शूरवीर दोनों को छोड़ देती है और कुलीन पुरुष को भी इसप्रकार छोड़ देती है जिसप्रकार सजन पुरुष को छोड़ देती है। एवं धार्मिक पुरुष को भी उसप्रकार ठुकरा देती है जिसप्रकार विद्वान को ठुकरा देती है। इसीप्रकार यह समस्त संसार को पापी बनाती है। भावार्थ-स संसार में प्रायः सभी पुरुष अप्राप्त धन की प्राप्ति, प्राप्त हुए की रक्षा और रक्षित किये हुए धन की वृद्धि के उद्देश्य से नाना भाँति के चिन्ता रूप पर से पीड़ित रहते हैं, अतः यह लक्ष्मी चिन्ता रूप ज्वर की उत्पत्ति भूमि है एवं लक्ष्मी बस्नेह दुध-प्रीति सरीखा चणिक होता है। नीतिकारों ने भी कहा है कि 'बौदलों की छाया, पास की अनि, दुष्ट का स्नेह, पृथ्वी पर पड़ा हुआ पानी, वैश्या का अनुराग, भौर खोटा मित्र ये पानी के पमूले के समान क्षणिक है। प्रकरण में लक्ष्मी का स्नेह दुष्ट-प्रीति-सा क्षणिक है इसीप्रकार यह लक्ष्मी सूरवीर, विनयशील, सजन, कुलीन, विद्वान और धार्मिक को छोड़ती हुई समस्त संसार को पापकालिमा से कसाहित करती है। क्योंकि 'लोभमूलानि पापानि' अर्थात् लोभ समस्त पापरूपी विषले हेरों ने उत्पन्न करने की जड़ है, अतः इसकी लालसा से प्रेरित हुमा प्राणी-समूह भनेक प्रकार के पप संचय मता ॥१८॥ *कायानभी' इति क, ख, ग, परमत अर्यभेदो नास्ति। खिल क्षणसखी' इति घ०, ०1 A प्रलयकाल समवस्तस्य साधरी इति टिप्पणी॥ १. समुच्चयोपमालंकार । २. उपमालंकार । ३. तया योफ-मनमाया नृणादग्निः सले प्रीतिः स्पले जलम् । वेश्यानुरामा फमित्रं च पोते बुददोपमाः ॥1॥ संस्कृत टीका से संकलित-सम्पादक ४. उपमालद्वार । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भावास: पाणि वह शिगतावकावलीषु पासां मनाकुटिलता तटिनी तरड़ाः । अन्तमा डष्टिपये प्रयासाः कस्ताः करोतु सरलास्तरचायताक्षीः ॥ १०९ ॥ संहारकस्य पमस्प लोके कः परपसोहर विस्वा प्रयातः । परागपुरीपरमेश्वरोऽपि सत्रादिदोषमगुणे विधुरावधानः ॥ ११० ॥ इत्थं क्षणक्षयहुतारा मुखे सभ्य वस्तूनि परेक्ष्य परिवः सुकृती पहात्मा । सत्कर्म किचिनुयतेत यस्मिन्नसौ नवमगोचरतां न प्राति ॥ १११ ॥ इत्थमित्यानुप्रेक्षा ॥ १ ॥ तोऽर्थनिये हृदये स्वकार्ये सर्वः समाहितमतिः पुरतः समाते । जाते स्वपायसमयेोपतः पोहादि ततः शरणं न तेऽस्ति ॥ ११२ ॥ भुवः सुभटकोटिभि रास वगैर्मन्त्रास्त्रतन्त्रविधिभिः परिरक्ष्यमाणः । छादतिबालोऽपि कृतान्सलेशनीयते ययवसाय वराक एकः ॥ ११३ ॥ १४३ संसार में उन चल व विशाल नेत्रोंवाली स्त्रियों को कौन सरल (निष्कपट) बना सकता है ? कोई नहीं बना सकता। जिनकी मानसिक कुटिलता रूपी नदी की तररों, उनके हृदयों में न समादी हुई हीं मानों--- बाहिर दृष्टिगोचर होरहा है। उदाहरणार्थ- जिनके बचन, त्रुटि (मोड़ें), नेत्र और गति (गमन) और केशश्रेणियों में कुटिलता दृष्टिगोचर होरही है' ।। १०६ ।। क्योंकि जब भक्षणार्थ अभ्यारोपित उद्यम - गुणवाले जिस यमराज (काल) को नष्ट करने में तीर्थकर भगवान् अथवा श्रीमहादेव का प्रयास ( प्रयत्न) भी निष्फल होगया तब जिसने समस्त संसार को तोड़ मरोड़कर खाने के उद्देश्य से अपने मुख का प्रास ( कवल – कौर) बनाया है और जो चौर सरीखा अचानक आक्रमण करनेवाला है, ऐसे यमराज का अन्द ( नाश ) संसार मैं कौन पुरुष कर सका ? अपि तु कोई नहीं कर सका ॥११०॥ पूर्वोक्त प्रकार से जीवन व योषनादि वस्तुओं को चारों तरफ से यमराज ( काल ) रूप प्रलयकालीन अभि के मुख में प्रविष्ट होती हुई देखकर इस पुण्यशाली व विवेकी पुरुष को प्रमाद-रहित होते हुए ऐसे किसी कर्त्तव्य ( ऋषियों द्वारा बताया हुआ तपश्चरणादि) के अनुशन में प्रयत्नशील होना चाहिए. जिसके फलस्वरूप उसे भविष्य में यह (यमराज) दृष्टिगोचर न होने पावे ||१११|| इति अनित्यानुप्रेक्षा ॥१॥ अशरणापेक्षा — दे जीव ! जब तेरे पास धनराशि संचित रहती है एवं उसका कार्य उदारचित्तवृत्ति दानशीलता रहती है तब समस्त प्राणी ( कुटुम्ब आदि ) सावधान चित्त होते हुए तेरे सामने बैठे रहते हैं। अर्थात् - नौकर के समान तेरी सेवा-शुश्रूषा करते रहते हैं। अभिप्राय यह है कि नीतिकारों ने भी उक्त बात का समर्धन किया है। परन्तु मृत्युकाल के उपस्थित होने पर कोई भी तेरा उसप्रकार शरण ( रक्षक ) नहीं है जिसप्रकार समुद्र में जहाज से गिरे हुए पक्षी का कोई शरण नहीं होता । अर्थात् समुद्र में जहाज से गिरा हुआ पक्षी समुद्र की अपार राशि के ऊपर उड़ता हुआ अन्त में थककर उसी समुद्र में डूबकर मर जाता है, क्योंकि उसे अभय ( ठहरने के लिए वृक्षादि स्थान ) नहीं मिलता ॥ ११२ ॥ | यह बिचारा ( दीन ) प्राणी, जो कि वास्तव दृष्टि से समस्त सैन्य की अपेक्षा विशेष पराक्रमशाली भी है, मृत्युकाल के उपस्थित होने पर कुटुम्बी अनों, करोड़ों योद्धाओं और माता, पिता व गुरुजनादि हितैषी पुरुषों द्वारा, मन्त्रतन्त्र संबंधी विधानों, खङ्गादि १. रूपक व उपमालङ्कार । २. रान्त व आक्षेपालङ्कार | ३. रूपकालङ्कार | ४. तथा व सोमदेव सूरि" पुरुषः धनश्य दासः न तु पुरुषस्य" नीतिवाक्यामृत से संकलित — सम्पादक ५. तथा बोके— 'अर्थिनमर्यो भवति संस्कृत टीका से संग्रहीत ६. उपमालङ्कार । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिकपम्पूत्रव्ये ससीयतस्तबमा समस्तिमास्ता ततः परः परमवालसमाप्रयोः । सां स्थिते स्वषि पतो दुरितोपवापसेनेएमेच सुविधे गिरानमा स्थान || ११४ ॥ स्यारणामुप्रेक्षा ॥२॥ मगतिः पुरुषः शरीरमे स्पस्पपरमाभाते भवाम्भी। समयोचिरिच संशतिरेनमेरा नाना विडम्पति चित्रकला प्रपती ॥ ११ ॥ शालेयमितेषु पटुर्न बायः काये पटौ न पुनरावरवासवित्तम् ।। मस्थात्मभिरामधमलों सदासयति कामकरः प्रबन्धः ॥ ११ ॥ गालो मान्तरविधी सविपर्ययोज्यमव जामाने अगामधरोमावः ।। जस्म पुः परपि यतोऽस्य एष स्वामी भवस्यनुपरः स सत्पदाईः ॥ ११ ॥ चिनालिस्यममुभूव भवाम्बुराशेरावादास्यविम्बितमनुवारः। को नाम चन्मविपापपुष्पकम: स्वं मोहोन्मुगहनां कृतधीः कटाः ॥ ११८ ॥ इति संसारायुप्रेक्षा ॥३॥ शयों तथा पतुरा (हामी व पोदे-आदि) सैम्य-विधानों से चारों तरफ से सुरक्षित किया हुमा भी यमराज के दूतों द्वाप उसके अधीन करने के लिए उसके पास अकेला (असहाय) लेजाया जाता है ॥११३॥ हे सपरित्र आत्मम् ! पूर्ण सम्यग्दर्शन-बान-पारित्र प्राप्त किये हुए तुम्हारे सिपाय कोई पुरुष निश्चय से मी भी दुख भोगनेवाले तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता। वास्तव में तुम ही स्वयं अपने रक्षक हो। क्योंकि जब तुम सम्यग्दर्शनशानचारित्र रूप बोधि में लक्लीन हो जाओगे तब तुम्हारा यह पाप-समूह (शानावरण-भावि कर्मराशि) और उससे होनेवाला सन्ताप (शारीरिक, मानसिक व पाण्यात्मिक दुःख) समूह स्वयं नष्ट होजायगा ॥११४॥ इति अशरणानुप्रेक्षा ॥२॥ भय संसारानुप्रेक्षा-संसार समुद्र में एकगति ( मनुष्यादि गति) भोगकर या बोरकर दूसरी गति प्राप्त करनेवाला यह आत्मा नामकर्म द्वारा दिया हुआ एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है, यही संमति ( संसार) कही जाती है, जो कि इस आत्मा को चिन्ता और आश्चर्यजनक नाना वेरों के घारण द्वारा उसप्रकार विम्बित (क्लेशित अथवा अपने स्वरूप को छिपाये हुए) परवी है जिसप्रकार नाट्य भूमि पर स्थित हुई नटी आश्चर्यजनक नाना वेष धारण करके अपने को छिपाये रखने का प्रया करती है। ।।११शा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश लक्षणवाला चार प्रकार का यह शाना परमादिकाँका पन्ध, जो कि नाना प्रकार की पर्यायों का उत्पादक है, परस्पर में एक दूसरे के द्वारा नाट कर दिया गया है स्वभाव जिनका ऐसे अपने स्वभावों द्वारा समस्त प्राणियों को निम्न प्रकार से अत्यन्त कुती पाता है। उदाहरणार्थ-यदि संसार में जब किसी को भाग्योदय ( पुण्योदय) से धन प्राप्त होजाता है तब उसे निरोगी शरीर प्राप्त नहीं होता। इसीप्रकार निरोगी शरीर मिल जाने पर भी इसका बीनाकानी होता११|| "वसरे जन्मों में प्राणियों का विपर्यास (खा से नीच व नीच से डर शेना) नहीं होता" इसप्रकार का पाद-विवाद छोड़िए। क्योंकि जब इसी जन्म में मानवों की कम से नीच और नीच से उस स्थिति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होरही है। उदाहरणार्थ-लोक में निर्धन पुरुष धनाढ्य होजाता है और धनाड्य पुरुष क्षणभर में निर्धन (परिद ) होजाता है। इसीप्रकार राजा सेवक होजावा हैऔर सेवक राज्य-पद के योग्य (राजा) होजाता है तब इस आस्मा को अन्मान्तरों में भी उत्तम प . जपन्यपद की प्राप्ति निर्विवाद स्वयं सिद्ध हुई समझनी चाहिए ॥११॥ ऐसे संसार-समुद्र की, जिसने अपनी तत्काल प्राण-घातक व्याधि रूप बदबानस अनि द्वारा समस्त प्राणी समूह रूपी जलराशि पीड़ित की है, १. दीपक उपमाकार । २. रूपकालद्वार। ३. रूपक उपमालकार । ४, माति-भलाधार । ५. दीपकालाहार । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवासः १४५ पस्त्वमापिरासि जन्ममि संक्षये , भोक स्वयं स्वतकर्मफकानुवरणम् । भाम्यो म जातु सुखदुःखविधी सहापः स्वाजीवनाथ मिलि विटपेटते ॥ ११ ॥ बायः परिग्रहविधिस्तव चूरमास्तां वेहोज्यमेति न समं सहसंभवोऽपि । कि साम्यति स्वममिर्श क्षणहटनटेदारात्मवषिणमन्क्षिमोपासः ।। १२० ॥ संशोच्य शोकषिवनो विर्स समेतमन्येशुरावरपर। स्वजनस्तवार्थे । बायोऽपि भस्म मबति प्रत्याधिताने संसारयन्त्रवटिकाटने स्वमेकः ॥ ११ ॥ त प्रकार की विचित्रता का अनुभव करके कौन विवेकी पुरुष संसाररूपी विषवृक्ष के पुष्प-सरीखे स्त्रियों के कटाक्षों द्वारा अपनी आत्मा को बिहलीभूत-व्याकुलित करेगा ? अपितु कोई नहीं करेगा' || ११८ ।। मथ एकत्वानुप्रेक्षा-हे जीव ! तू अकेला (असहाय) ही अपने द्वारा किये हुए पुण्य-पाप फर्मों के मुख-दुःख रूप फलों का सम्बन्ध भोगने के लिए स्वयं जन्म (गर्भवास) और मरण में प्रविष्ट होता है। दूसरा Tई पुरुष कभी भी तेरे सुख-दुःख रूप फल भोगने में अथवा तुझे सुखी या दुःखी बनाने में सहायक नहीं It वय क्या पुत्र-कलत्रादि-समूह तेरा सहायक हो सकता है? अपितु नहीं हो सकता। क्योंकि बहने पिटपेटक-शत्रु-समूह-सरीखा या नट-समूह-सा-अपनी प्राणरक्षा के निमित्त तेरे पास एकत्रित होरहा है। भावार्थ-शासकारों ने भी पाक बात प र हर ना है कि यह प्रात्मा स्वयं एण्य-पाप कर्मों का करती है और स्वयं ही उनके सुख-दुःख रूप फल भोगती है एवं स्वयं ही संसार में भ्रमण करती है चोर स्वयं छुटकारा पाकर मुक्तिरूपी लक्ष्मी प्राप्त कर लेती है। गीतोपनिषद में भी कहा है कि ईश्वर जगत बिस्रष्टा (का) नहीं है और न वह उसके (लोगों के) पुण्य-पापरूप कर्मों की सृष्टि करता है। यह स्वभाव-- मिति (कर्म) हो जीव को पुण्य-पाप कमों में प्रवृत्त करता है। ईश्वर किसी के पाप या पुण्य का प्राइक ही यथार्थ बात तो यह है कि ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पड़ जाने से सब जीव मोह के द्वारा बन्धन को प्राप्त होते "" || १९६॥ हे जीष ! जब जन्म के साथ ही उत्पन्न हुआ तेरा यह शरीर भी तेरे साथ जन्मान्तर ( अगले जन्म ) में नहीं जाता तब तेरा वाह्य परिग्रह (खी-पुत्रावि ) तो दूर रहे। अर्थात्-यह तो तुम से बिलकुल पृथक दृष्टिगोचर होरहा है, इसलिए वह जन्मान्तर में तेरे साथ किस प्रकार जा सकता है? नहीं जा सकता। अतः हे आत्मन् ! पूर्व में एक मुहूर्त में देखे हुए और पश्चात् दूसरे मुहूर्त में नष्ट नेपाले ऐसे इन स्त्री, पुत्र, धन और गृहरूप मोह-पाशवन्धनों से तू अपने को निरन्तर बाँधता हुमा क्यों लेशित होरहाहै ? ||१२०॥ जीव! तेरा कुटुम्ब-वर्ग शोफ से विवश हुआ केवल पसी (मरण-संबंधी) विन शोक करके सरेही दिन तेरा धन ग्रहण करने के लिए सन्मान के साथ प्रवृत्त होजावा है और तेरा यह शरीर भी भिवा-रमशान-की अमि-समूह से भस्म होजाता है, इसलिए संसार-रूपी रिहिट की दुःखरूप परियों के संगमनच्यापार में तू अकेला ही रहता है। अर्थात्-कुटुम्ब-वर्ग में से कोई भी तेरा सहायक नहीं 1. रूपकालंकार। २, तथा चोक्तं स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तस्फलमश्नुते। स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं अस्ताविमुष्टयदे ॥१॥ संस्कृत टीका पृ. २६२ से समुद्भुत-सम्पादक । तथा चोक्तं गोतोपनिषदिन कर्तृव न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोग स्वभावतु प्रति ॥१॥ मादले कस्पचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनायूतं ज्ञानं तेन मुन्ति जन्तवः ॥२॥ __५. रुपकालंकार । A विटपेटकं नाटकमिष इव शब्दोऽत्राप्यप्रयुक्तोऽपि दृष्टव्यः इति टिप्पणी का । ५. रूपकालङ्कार । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये एष: स्वयं सदशलैननु कर्मजालेलते वेष्टयति मष्टमतिः स्वमेका । पुण्यात्पुनः प्रशमतन्तुक्तावलम्बस्तद्धाम पायसि विभूतसमस्तवायम् ॥ १२१ पेकस्वानुप्रेक्षा ॥४॥ देहास्मकोऽहमिति चेतसि मायास्वं स्वसो यतोऽस्य वपुषः परमो विवेकः । स्वं धर्मशर्मवसतिः किशासाय: मारः जया महानि ११॥ आसीदति स्वयि सति प्रतमोति कायः माते तिरोभवति भूपकमाविकपः । भुतात्मकस्य मृतबन्न सुखादिमावस्तस्मास्कसी करणतः पृथगेव बीयः ॥ १॥ सानन्दमत्ययमनादिममन्सशक्तिमयोति मिरुपलेपगुरू प्रकृत्वा । कृत्वा जडानयमिमं पुरुष समृद्धाः संतापयन्ति रसरिताप्रयोऽमी ॥ ११ ॥ है ॥१२१|| हे आत्मन् ! जिसप्रकार मकड़ी अकेली ही अपने को जालों से बेष्टित करती है-बाँधती है। उसीप्रकार निश्चय से यह जीव भी अकेला ही विवेकशून्य हुआ वमलेप-सरीखे मजबूत कर्मस्प जालो से अपनी आत्मा को स्वयं बाँधता है। तत्पश्चात्-कर्मरूप जाल द्वारा बद्ध होजाने के अनन्धर-पान । उपवास त व सम्यग्दर्शन रूप पुण्योदय से कमों के उपशमरूप तन्तुओं का सहारा लेता हुया ऐसा योगी पुरुषों का स्थान ( मोक्षपद ) को उत्कण्ठित हुआ प्राप्त करता है, जिसमें समस्त प्रकार का शारीरिक, मानसिक प आध्यात्मिक दुःख-समूह जद से नष्ट हो चुका है ॥१२२|| इति-एकत्यानुप्रेशा ॥४॥ श्रय पृथक्त्वानुप्रेक्षा हे आत्मन् ! "मैं शरीर रूप हूँ इसप्रकार का विकल्प अपने चित्त में मत कर अर्थात्-इस बहिरात्मबुद्धि को छोड़। क्योंकि यह शरीर तुझ से अत्यन्त पृथक् है। क्योंकि तुम धो धर्म | (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य सहित चैतन्य स्वभाव रूप धर्म व सर्वोत्कृष्ट मुख के निवास स्थान हो एवं सर्वाङ्ग चेतनस्वभाव-शानी हो परन्तु शरीर वो जड़ है, इसलिए उसमें से पेसन स्वमारसमूह ना होचुका है। अर्यात्-उसमें ( शरीर में ) ज्ञानदर्शनरूप चेतन-स्वभाव का अत्यन्त ममा । है ॥१२शा हे आत्मन् ! तेरे विद्यमान रहने पर ही शरीर स्थित रहता है व वृद्धिंगत होता है परन्तु अन तू दूसरी गति में चला जाता है तब तेरा यह शरीर पृथिवी, वायु व अग्नि-आदि तत्वों में मिल जाने के। कारण अदृश्य ( दिखाई न देनेवाला) होजाता है एवं जिसप्रकार मृतक (मुर्दै) को सुख-दुःख का डान नहीं होता उसीप्रकार पृथिवी, जल, अग्नि और षायुरूप जड़श होता, इसलिए पुण्यशाली यह जीव शरीर ष इन्द्रियादिक से सर्वथा भिन्न हीरे ॥१२॥ जिसप्रकार प्रज्वलित अप्रियाँ ऐसे पारद (पारा)चे, जलाश्रित करके (निम्मू या भवरल आदि के रस में घोटे जाने पर ) सन्तापित ( उष्ण) करती है, जो (पारद ) भानन्द-दायक (शारीरिक स्वास्थ्य देनेवाला), अव्यय (अमि-आदि द्वारा नष्ट न होनेवाला), अनापि (सत्पन्न करनेवाली कारण-सामग्री-शून्य-उत्पन्न न होनेवाला) एवं जो अनन्त शक्तिशाली (अनन्त गुणों से अलंकृत) है। उदाहरणार्थ-मारा हुआ पारा सेवन करने के फलस्वरूप बुढ़ापा और रोग नष्ट करता है, और भूमि ! किया हुआ पारा व्याधि-विध्वंसक है एवं बाँधा हुआ पारा भाकाश में सबने की शक्ति प्रदान करता है। अतः पारे से दूसरा कौन हितकारी है? इत्यादि सीमातीत गुणशाली है। इसीप्रकार जो प्रकाशमान हुमा स्वमाक्यः मिट्टी व लोहादि धातुओं के लेप ( संबंध) से रहित है, उसीप्रकार वृद्धिंगत (उदय में माई हुई ) कर्म (ज्ञानावरादि ) रूप अमियों भी ऐसी इस पात्मा को शरीराश्रित करके-शरीर धारह १. रूपकालकार। २. तपमालंकार। ३. जाति-मर्मकार । ४. अपमालबार । ५. तया चोक्का-हतो हन्ति अराव्याधि मूच्छितो म्याधिषातकः। बा खेचरतो पते कोऽन्तः सुतार करः ॥१॥ रमेन्द्रसारसंग्रह से संकलित-सम्पादक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवास: कर्मासवानुभवमात्पुरुषः परोऽपि प्राप्नोति पातमशुभालु भषावनीषु । तस्मातयोः परमभेदविदो विधाः श्रेयस्वदादधतु यत्र न जन्मयोगः ॥ १२६ ॥ इति पृथक्स्वानुप्रेक्षा ॥ ५॥ कराकर - सन्तापित (क्लेशित ) करती हैं, जो ( आत्मा ), अनन्त सुखशाली व अविनश्वर है । अर्थात्जो शस्त्रादि द्वारा काटा नहीं जासकता और अभि द्वारा जलाया नहीं जासकता एवं वायु द्वारा सुखाया नहीं जासकता तथा जलप्रवाद्दद्वारा गीला नहीं किया जासकता इत्यादि किसी भी कारण से जो नष्ट नहीं होता । इसीप्रकार जो अनादि है । अर्थात् मौजूद होते हुए भी जिसको उत्पन्न करनेवाली कारण सामग्री नहीं है। अभिप्राय यह है कि जिसकी घटपटादि पदार्थों की तरह उत्पत्ति नहीं होती किन्तु जो आकाश की तरह अनादि है। इसी प्रकार जो अनन्त शक्तिशाली है । अर्थात् जो केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा अनन्त वस्तुओं के स्वरूप का ग्राहक होने के कारण अनन्तसामर्थ्य-शाली है एवं जो लोक व भलोक के स्वरूप का प्रकाशक है तथा स्वभाव-- निश्चय नयको अपेक्षा से कर्ममल-कल से रहित शुद्ध है ।।१२५|| यह आत्मा शास्त्रवेता व सदाचारी ब्राह्मण विद्वान सरीखा उत्कृष्ट ( पवित्र ) होनेपर भी कर्मरूप मद्यपान के फलस्वरूप चाण्डाल आदि की अपवित्र पर्यायरूप पृथिवियों में पतन प्राप्त करता है। अर्थात्अशुभ पर्यायें धारण करता है, इसलिए निश्र्चय से शरीर और आत्मा का अत्यन्त भेव जाननेवाले व देव ( छोड़ने योग्य) और उपादेय (पण करने योग्य) वस्तु के ज्ञानशाली विवेकी पुरुषों को ऐसे किसी श्रेयस्कारक ( कल्याणकारक ) कर्तव्य ( जैनेश्वरी वीक्षाधारण द्वारा सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्र रूप राय की प्राप्ति) का पालन करना चाहिए, जिससे इस आत्मा का संसार से संबंध न होने पावे । अर्थात्-जिन सत्य, शिव और सुन्दर कर्त्तव्यों के अनुष्ठान से यह सांसारिक समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर मुक्तिश्री प्राप्त कर सके । भावार्थ - वादिराज महाकवि ने भी कहा है कि "कर्म द्वारा कवलित ( लाई जाना-ब होना) किये जाने के कारण ही इस आत्मा को अनेक शुभ-अशुभ पर्यायों में जन्मधारण का कष्ट होता है, इसलिए यह जीव पापकर्म से प्रेरित हुआ चाण्डाल के मार्ग रूप पर्याय में उत्पन्न होता है। अतः कर्मरूप मादक कोदों के भक्षण से मश-मूर्च्छित हुआ यह जीव कौन-कौन से अशुभ स्थान ( खोटे जम्म ) धारण नहीं करता ? सभी धारण करता है ।" शास्त्रकारों" ने कहा है कि "अब जिसप्रकार दूध और पानी एकत्र संयुक्त होते हुए भी भिन्न भिन होते हैं उसीप्रकार शरीर और आत्मा एकत्र संयुक्त होते हुए भी भिन्न २ हैं तब प्रत्यक्ष भिन्न भिन्न प्रतीत होनेवाले श्री पुत्रादिक तो निस्सन्देह इस आत्मा से भिन्न है ही" अतः विवेकी पुरुष को शरीरादिक से मित्र आत्म य का चिंतन करते हुए मोक्षमार्ग में प्रयत्नशील होना चाहिए ।। १२६ ।। इति पृथक्त्वानुप्रेक्षा ||५|| १ तथा चोक गीतोपनिषद नैनं छिन्दन्ति चत्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ १४७ २. रूपक व उपमालङ्कार । ३. तथा च वादिराजो महाकविः -- कर्मणा कमलिता जनिता जातः पुरान्तरजन मवाडे । कर्मकोश्वरसेन हि मत्तः किं किमेत्यशुभधाम न जीवः ॥१॥ ४. तथाच श्रुतसागर सूरिः क्षीरनीरवनेत्रस्थितयो देहिनः। भेदो यदि ततोऽन्यत्र लनादिषु का कथा ॥१३॥ ५. पफालङ्कार । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये माधीपये बक्षि वस्तु गुणाय कासं काये तदेष मुहुरेत्यपवित्रभावम् । पारावारितमतिर्मयरमनवम्ब विवीध खालयसि भरमेताम् ॥ ११॥ योपिजिरारतकरं कृतमयाननीयः कामयामरविस्तव केशपाः। सोऽयं स्वयि प्रवणगोरखा प्रपाते प्रेतावनीषु वनवायसवासगोऽभूत् ॥ १८ ॥ अन्तहिदि मवपुषः शरीरं दैवात्तदानुभवन ननु एएमास्ताम् । कौदहवादपि यदीक्षितुमुत्सदेत पुर्याचदाभिरसिमत्र मवाश्यारीरे ॥ १९॥ वस्मानिसर्गमलिनापि सन्धतवाः कीनाशकेलिमनवासधियोधिराय । फायादतः किमपि तत्फलमर्जवन्तु यस्मादनन्तसुखप्तस्यविभूतिरेषा ॥ १३॥ इत्याधुचिस्यानुप्रेक्षा ॥६॥ अन्तः कषायकलुषोशुभयोगसमास्कमप्युपार्जयसि बग्धनिबन्धनानि । रम्यः करेणुवरागः करटी यथैवास्वं जीव मुत्र सदिमानि दुरीहितानि ॥ ११ ॥ बथ अशुधि-अनुपेक्षा-हे आत्मन् ! इस शरीर को सुगन्धित करने के उद्देश्य से इस पर जो भी । कपूर, अगुरु, चन्दन व पुष्प-वगैरह अत्यन्त सुन्दर व सुगन्धि वस्तु स्थापित कीजाती है, वही वस्तु इसके संबंध से अत्यन्त अपवित्र होजाती है, इसलिए गौर व श्याम-आदि शारीरिक वर्णों से ठगाई गई है बुद्धि जिसकी ऐसा त विष्ठा-छिद्रों के बंधानरूप और स्वभाव से नष्ट होनेवाले ऐसे शरीर को किस प्रयोजन से पार पार पुष्ट करता है? ॥१२॥ हे पात्मन् ! जो तेरा ऐसा केशपाश (बालों का समूह), जिसको कान्ति (छवि) कामदेष रूप राजा के चमर-सरीखी श्यामवर्ण थी और जो जीवित अवस्था में कमल-सरीखे कोमल करोंवाली कमनीय ममिनियों धारा चमेली व गुलाब-श्रादि सुगन्धि पुष्पों के सुगन्धित तेल-आदि से तेरा सन्मान करनेवाले कोमल करकमलों पूर्वक विभूषित किया जाने के फलस्वरूप शोभायमान होरहा था, वही केशपाश तेरे कामसवलित (मृत्यु का पास) होजाने पर श्मशान-भूमियों पर पर्वस-संबंधी कृष्ण काको के गले में प्राप्त होनेवाला हा।॥२८॥ हे जीव ! दैवयोग से यदि तेय भीतरी शरीर (डी व मांसाथि) इस शरीर से बाहिर निकल पाये तो उसके अनुभव करने की बात तो दूर रहे, परन्तु यदि तू केवल कौतूहल मात्र से उसे देखने का उत्साह करने लगे तब कहीं तुझे इस शरीर में सम्मुख होकर राग-बुद्धि करनी चाहिए, अन्यथा नहीं' ।।१२६)। इसलिए हेय ( छोड़ने योग्य ) व उपादेय ( ग्रहण करने लायक) के विवेक से विभूषित तत्वज्ञानी पुरुष, यमराज की क्रीड़ा करने की ओर अपनी बुद्धि को प्राप्त न करते हुए ( मृत्यु होने के पहिले ) स्वाभाविक मसिन इस शरीर से कोई ऐसा अनिर्वचनीय (जिसका माहात्म्य वचनों से अगोचर है) मोक्षफल प्राप्त करें, जिससे वह अनन्तसुख रूप फल की विभूति ( ऐश्वर्य ) उत्पन्न होती है। भावार्थ-श्रीगुणवाचार्य ने भी इस मनुष्य-वेह को धुण द्वारा भक्षण किये गए साँठ-सरीखी निस्सार, भापतिरूपी गाठों वाली, अन्त (बृद्धावस्था व पक्षान्सर में श्रम-भाग) में विरस (कष्ट-प्रद व पलान्तर में बेस्वाद) इत्यादि बताते हुए शीघ्र परलोक में श्रेयस्कर कर्तव्य-पालन द्वारा सार ( सफल ) । करने व उपदेश दिया है ॥१३०॥ इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा ॥६ १. जाति-अलंबार। २. उपमालंकार । ३. जाति-अलंकार । ४. सबा गुमभद्राचार्य : 'व्यापत्पर्वममं विरामनिरस मूलेऽप्यमाग्योचितं विश्वक् अक्षतपातकुकृषितायुप्रामवैश्छिवितम् । मानुष्यं धुणभक्षितेचसही नामैकाम्मे वरं निःसारं परलोकवीजमचिरात् फलेह सारोकुर' ५. सकालंधर। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ द्वितीय पाश्चासः संकल्पकल्पतरसश्रयणाचवी घेतो निमवति मनोरथसागरेऽस्मिन् । सत्रार्थतस्तक पकास्ति न किंचनापि पक्षे परं भवसि कल्मषसंश्रयस्थ ॥ १३ ॥ सेपर्व विभूतिषु मनीणि गाणां चहानामा निजानि भोगराउन । पापागमाय परमेव भवेशिभूठ कामारकुतः पुमदूरवता हितानि ॥ १३३ ॥ पौर्विध्यपश्मिनसोऽन्तरुपात्तभुक्तश्चितं यथोडससि ते स्फुरितोत्तरङ्गम् । धाम्नि स्फुरैयदि तथा परमात्मसंज्ञे कौतस्कृती सब भटिफशा प्रसूतिः ॥ १३४ ॥ हस्यान्नशानुप्रेक्षा ॥५॥ मागच्छतोऽभिनयकामगरेणुशदोर्जीवः करोति यदवस्खलन वितन्नः । स्वतस्वचामरधरैः प्रणिधामहस्तैः सन्तो विदुस्तमिह संघरमात्मनीनम् ॥ १३५ ॥ अथ पासवानुप्रेक्षा-हे आत्मन् ! तुम मन में स्थित हुए क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषायों से कलुषित (मलिन) हुए अशुभ मन, वचन, व काययोग का आश्रय रूप कारण-वश ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मों को, जो कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप बन्ध के कारण हैं। अर्थात् - अशुभ योगरूप कारण से पाए हुए कर्म-समूह प्रकृति व प्रदेशबन्ध उत्पन्न करते हैं और फंपायरूप कारण से गृहीत कर्म-समूह स्थिति व अनुभाग बन्ध उत्पन्न करते हैं, उसप्रकार स्वीकार करते हो जिसप्रकार हथिनी में लम्पट हुश्रा हाथी राजमहल में दृष्टिगोचर होनेवाले वन्धन स्वीकार करता है। अतः हे जीव ! तुम ये खोटे अभिप्राय (अशुभ योग ष कषाय भाव) छोड़ो' ।।१३११॥ हे आत्मम् ! मानसिक संकल्परूप कल्पवृक्ष का आश्रय करने के फलस्वरूप तेरी विकृत चित्तवृति, इस मनोरथ-रूप समुद्र में डूबदी है। उससे (संकल्प रूप कल्पवृक्ष का आश्चय करने से) वास्तव में सुमे कुछ भी इष्ट-वस्तु का अनुभव नहीं होता और इसके विपरीत तुम केवल पाप का श्राश्रय (पापबंध) स्वीकार करनेवाले होजाते हो। भाषार्थ-शासाकारों ने कहा है कि हे आस्मन् ! दूसरे की कमनीय कामिनी देखकर हषय में राग मत करो, क्योंकि ऐसा करने से पाप से लिप्त हो जाओगे। तुम तो शुद्ध-बुद्ध हो अवः पाप पेष्टा मत करो ॥१३॥ आत्मन् ! निरर्थक इच्छा करनेवाली तेरी ऐसी विकृत मनोवृत्ति, जो केवल बाह्य इष्ट वस्तुएँ माप्त करने की आकांक्षाओं में ही प्रवृत्त होती है और स्वर्गादि के सुख देनेवाली वस्तुओं (देवताओं आदि) के ऐश्वयों से ईर्ष्या (द्वेष) करती है, अतः हे विवेकहीन आत्मन् ! ऐसा करने से यह तेरी विकत मनोवृत्ति निश्चित रूप से पापोपार्जन ( पापबंध) ही करती रहती है। क्योंकि पुण्य-दीन पुरुषों को केवल इच्छामात्र से किसप्रकार सुख प्राप्त होसकते हैं? कदापि नहीं होसकते ॥ १३३ ।। हेमास्मन् ! निर्धनता (परिवता)से भस्मीभूत मनपाले तेरा ऐसा मन, जिसमें उत्कट मनोरथ खत्तम हुए हैं, जिसप्रकार संकल्पमात्र से वाप्य पदार्थों में उनसे भोग ग्रहण करने के उद्देश्य से प्रवृस होरहा है, उसीप्रकार यदि अन्तस्तत्व नामवाले तेजपदार्थ (मोक्ष-मार्ग) में प्रवृत्त होजावे तब तो तेरी मनुष्य पर्याय में । उत्पत्ति किसप्रकार निष्फल हो सकती है? अपितु नहीं होसकती ॥ १३४॥ इति पासवानुप्रेक्षा जा 'य संघपनुप्रेक्षा--यह आत्मा अमाव-( कषाय) रहित होता हुमा जम आत्मतत्स्वरूपी मर धारण जानेवाले शुमभ्यान (धर्मभ्यानादि) रूपी फरकमनों धाय मषिष्य में आनेवाले नवीन कर्मों का पुतला परमाणु-पुष ऐकवा है उसे सत्पुरुष संसार में मात्मा का कल्याणकारक 'संवरतस्य' कहते हैं ॥१३॥ 1. अपमालंकार। २. तथा चौफ-'ठूण परमजतं राग मा वहसि चियम मजम्मि। पावेण पाच लिप्पसि पा मा बहसि त्वं पशुदो दि ।। सं. टी. पू. १६८से संकलित-सम्पादक रूमकालंकार। .. लाक्षेपालंकार : ५. माशेपालंकार । १. रूपकालंधर। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. यरास्तिलकपम्पकाव्ये परस्पां विनिम्तयति संचरते विचारचाची चिनोति परिमुवति चण्डभावम् । चेता निकाति समयति वृत्तमु समावं निरुणाय सी खास १३६ नीरन्ध्रसंघिरवधीरितनीरपूरः पोतः सरित्पत्तिमपैति यथानपायः । जीवस्तथा क्षपितपूर्वतमःप्रतानः क्षीणाभव परमं पदमाश्रयत ॥ १६ ॥ इति संवरानुप्रेक्षा ॥८॥ मन्याधरचनः पयनत्रयान्तस्तुल्यः स्थितेन जधनस्थकरेग पुंसा। एकस्थितिस्तत्र निकेतनमेष लोकत्यस्वत्रिकीर्णजठरोऽमनिषग्गमोक्षः ॥ १३८ । का न तावविह कोऽपि थियेच्छया वा दृष्टोऽन्यथा कस्कृतावपि स प्रसः । कार्य किमत्र सदनादिपु तक्षकाय राहत्य पत्रिभुवनं पुरुषः करोति ॥ १३९ ॥ हे आत्मन् ! जो आत्मतत्व का ध्यान करता हुआ भेदविज्ञान द्वारा आत्मतत्व में संचार करता है- प्रविष्ट च लीन होता है एवं जो अपनी विवेक बुद्धि विस्तृत करके क्रोध का त्याग करते हुए पंचेन्द्रियों के . विषयों व कोधादि कषायों में प्रवृत्त होनेवाली अपनी चित्तवृत्ति संकुचित्र करता है। इसीप्रकार जो उचोटि का चारित्र ( सामायिक व छेदोपस्थापना-श्रादि ) धारण करता है, यही तुम ( आत्मा) पुण्यशाली । होते हुए पाप कर्म का आस्तव (आना) रोकते हो। ११३६|| जिसप्रकार ऐसी नौका, जो छिद्रों से रहित होने के कारण भविष्य में प्रविष्ट होनेवाली जलराशि से शून्य है और जिसमें से मध्य में भरी हुई जलराशि निकालकर फैंक दी गई है. निर्विघ्न (विपरीत दिशा का वायु-संचार-आदि विघ्न-बाधाओं से शून्य) होती हुई तिरकर समुद्र के पार प्राप्त होजाती है उसीप्रकार जिसने पूर्व में याँधे हुए कर्मसमूह नष्ट कर दिये हैं और जो नवीन कमों के भारष से रहित है ऐसी. विशुद्ध श्रात्मा भी मोक्ष प्राप्त करती है ।। १३७ ।। इति संघयनुप्रेक्षा ।।८।। मध लोक्यनुप्रेक्षा-ई श्रात्मन ! प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला ऐसा यह लोक, जो मध्यलोक, अधोलोक औरः । अवलोक की रचना-युक्त ( तीन प्रकार का) है। जो खीर में चारों तरफ से घनोदधिवावपलब, धनवातबलय और तनुवातबलय से वेष्टित-घिरा हुआ है। जो, पैर फैलाकर खड़े हुए और दोनों हाथों को कमर के अप्रभाग पर स्थापित किए हुए पुरुष की आकृति-सरीया है। जिसकी स्थिति एक महान स्कन्धरूप है। अर्थात्-जिसके समान कोई दूसरा महानस्कन्ध नहीं है और जिसका मध्यभाग जीवराशि से भरा हुआ है। अर्थात्-जिसके एक राजू के विस्तार में त्रसजीवों का समूह भरा हुआ है और तेरह राजू में ऊर्ध्व व मध्यलोक की रचना है एवं सप्तम नरक के नीचे एक राजू में त्रसजीव नहीं है एवं जिसके ४५ लाख योजन के विस्तारवाने ऊपर के भाग पर मोक्ष स्थान है, तेरा गृह है। ॥ १३८ ।। आत्मम् ! इस संसार में कोई भी (ब्रह्मा-आदि) ज्ञानशक्ति अथषा इच्छाशक्ति द्वारा इस लोकन कर्ता (बनानेवाला) नहीं है। अभिप्राय यह है कि यदि आप कहेंगे कि कोई अगरकर्ता है, तो उसमें निम्नप्रकार आपत्ति दोष ) आती हैं कि जब घट व कट-( चटाई ) आदि वस्तुओं को कारण सामग्री (मिट्टी पहन आदि ) वर्तमान हैं और उस अवसर पर ईश्वर की नित्य ज्ञानशक्ति व इच्छाशक्ति भी वर्तमान सब घट कट-आदि वस्तुएँ सथा उत्पन्न होती हुई दृष्टिगोचर होनी चाहिए परन्तु उसप्रकार नहीं देखा जाता। भदः | कोई ( प्रमा-आदि) भी ज्ञानशक्ति व इच्छाशक्ति द्वारा इस लोक (पृथिवीप पर्वत-आदि ) कामही है। अन्यथा-यदि कोई ( ईश्वर ) इसका कर्ता दृष्टिगोचर हुमा है-तो हार (पुष्पमाला)ी सपना में है। * 'राहत्य' इसिक। १.भनुपमानालंकार । २. शान्तालंकार। 1. उपमालंकार । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाधासः से कामयाबुतमतिमिरये तिरवि पुप्पोषितो विधि मूषु प्रयकर्मयोगात् । इत्य निवीहसि जगत्वपमन्दिरेस्मिन् स्वैर प्रचारविषये तक लोक पुषः || १४० ॥ मनास्ति जीवन वकिचिवमुकमुक्त स्थान स्वया निखिलतः परिशीलनेन । वस्केवल विगलितासिकर्ममा पूर्व कुसहसधियापि म बातु धाम ॥ ११ ॥ वि लोकानुप्रेक्षा ॥१॥ मापातरम्परचमेनिस्साबसानैर्जन्मोजवेः सुमसौः स्खलितान्तरणः । बुखानुकरमर्षितमाम्यवसाय सहस्व इतजीव नषप्रयातम् ॥ १४ ॥ उसके करने का प्रसङ्ग दृष्टिगोचर होना चाहिये, क्योंकि क्या उस समय में भी उसमें ज्ञानशक्ति और प्रकाशक्ति वर्तमान नहीं है ? अपितु अषश्य है। ऐसा होने से (हार-आदि को भी ईश्वर क क मानने पर) माली वगैरह से फिर क्या प्रयोजन रहेगा? यदि कोई पुरुष (बझा-आदि), पृथिवी-आदि द्रव्यों के परमाणु-समूह को आहृत्य (संयुक्त करके ) पृथिवी, पर्वत और वृक्ष-आदि तीनलोक की परतुएँ बनाता है वो फिर गृह-आदि के निर्माण ( रचना ) में बदई और राज-श्रादि निर्माताओं से क्या प्रयोजन रहेगा ? कोई प्रयोजन नहीं रहेगा। क्योंकि तीन लोक के निर्माता (पा ) को क्या गृह-आदि का निर्माण करना कठिन है? कोई कठिन नहीं है। अतः करी त्व-बाद की मान्यवा (ईश्वर को जगत्सष्टा मानने का सिनन्त ) युक्ति-युक्त व यथार्थ ( सही ) नहीं है। ।। १३९ ।। हे आत्मन् ! जब तुम्हारी बुद्धि केवल पाप से घिरी रहती है तब तुम नरकाति व तिर्यनगति में उत्पन्न होते हुए सदा या विशेषरूप से कष्ट सहते हो पौर जब पुण्य-शाली होते हो तब सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त स्वर्ग में जन्म धारण करते हो एवं जब पाप और पुण्यरूप दोनों प्रकार की कर्म-सामग्री के सम्बन्ध से युक्त होते हो तब मनुष्यगति में जन्म धारण करते है। इसप्रकार से तीन लोकरूपी गृह में तुम उत्पन्न होते हुए निरन्तर कष्ट सहते हो। इसप्रकार यह लोक तुम्हारी इच्छानुसार प्रचार ( परिभ्रमण-प्रकार ) के हेतु है ।। १४० ॥ हे प्रास्मन् ! इस लोक में कोई भी स्थान तुम्हारे द्वारा पूर्व में बिना भोगे छोड़ा हुआ नहीं है। अर्थात्-सभी स्थान तुम्हारे द्वारा पूर्व में भोगे जाकर पश्चात् छोड़े गए हैं। ममिप्राय यह है कि इसके सभी स्थानों ( ऊर्चा, मध्य व अधोलोक ) में तुम अनेकधार देवं ष मनुष्य-आदि की पर्या धारण करके उत्पन्न होचुके हो। क्योंकि अनादि काल से प्राणियों के अनेक जन्म हो चुके हैं। अतः अनन्त पार पसरवार के परिशीलन (अभ्यास-सेवन अथषा अनुभवन ) से तुम्हारे द्वारा इस लोक के सभी स्थान पूर्व में भोगे जाचुके हैं और पश्चात् छोड़ें आचुके हैं। परन्तु हे प्रात्मन् ! नष्ट होचुके है समस्त शानाधरणकादि फर्मसमूह जिसमें ऐसा वह जगत्प्रसिद्ध केवल मोक्ष स्थान ही ऐसा पाकी है, जो कि तुम्हारे द्वारा कदापि कौतूहल-युद्धि से भी नहीं छुआ गया। अर्थात् केवल वही मोष-स्थान तेरा अभुत पूर्व-जो कभी नहीं भोगा गया है ||१४१५॥ इति लोकानुप्रेक्षा 180 बय निर्जरानुप्रेक्षा-हे नष्ट आत्मन् ! तुम्हारी चिसधि, ऐसे सांसारिक भोग( बी-मादि) संबंधी सुखलेशों से चंचल होचुकी है, जो भोगते समय तो अच्छे भालूम पड़ते है, परन्तु जिनका अन्त (मखीर ) नीरस (महान कटुक) है। इसलिए अब तुम नवीन उदय में आए हुए कमों कर ऐसा फल ( दुःख.) तपश्चर्या द्वारा सहन करो, जिसके भोगने के फलस्वरूप तुमने शारीरिक, मानसिक व भाण्यास्मिक दुख-समूह को सत्पन्न करनेवाला पाप संचयं किया था ।।१४।। १. आक्षेपालंकार । A. 'भाहत्य' * इति क, खः । *. 'एकहेलया युगपवा, इति टिप्पणी । २. रूपकालहार । ३. जाति-कालकार । ४, जाति-अलहार । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | यस्तिककपम्पूचव्ये बासुकमेरि पनि स्वमात्मकमो बागति तन मसु फर्म पुरासन है। पोह विवर्धयति कोपि विमाभइद्धिः स्वस्योल्याप स नरः प्रपरः कर्य स्यात् ॥ १४३॥ मावाशिमा रसायमा स्वस्थे ममारमनसि ते विस्मरन्सि । बकायान्मतिबिस्फुरितामि पवाजीवाम्यथा पदि मम्ति अयोधप्रिय ॥१५४ ॥ इति निर्जरायुप्रेक्षा बदामिसंधिश्वभूतबहिःसामीहस्तलावसायसविनाहितमूलपान्धः । भारमामात्मनि तनोति प्रदूगार्गी धर्मे तमादुरोपमसस्ममाप्ताः ॥ १६ ॥ मेस्त्रीदवाइमरामागमनिचाना गा निपप्रसरवर्जितमामसानाम् । विधापमाप्रइतमोहमहामहाणां धर्मः पापरफलः मुलभो नरामाम् ॥ १४ ॥ PATE सैः कसति प्रहनदि बाधाः सटेरसाम्यविभुरभ्युक्यादिमियः । ज्योतीबि दूतपति बास्मसमीहितेषु धर्मः स धर्ममिधिरस्त ससा हिताय ॥ १४ ॥ रेभामम् ! इस संसार में तुम पंचेन्द्रियों के विषयों की लालसा (इच्छा) करते हुए स्वयं को परिणाम कलुषित ( मलिन ) करते हो, क्योंकि उस विषयों की कामना-इच्छा-से निश्चय से तेरा पूर्व में पार हुमा पाप कर्म जागृत होता है। अर्थात्-विशेषरूप से उदय में आता है। क्योंकि जो कोई महानि स पार्टी अपने कल्याण के उद्देश्य से सर्प को दूध पिलाकर पुष्ट करता है, यह किसप्रकार श्रेष्ठको है। अपितु नहीं हो सकता' ||१४॥ हे भीष ! जब तेरा मन कुछ स्वस्थ (निरोगी) होजाता है मोगी हुई रोग रूप अग्नि-ज्यालाएँ शोय तेरे स्मृति-पथ ( मार्ग ) में प्राप्त नहीं होती। अर्थात् शीच भूल जाता है। हेजीप ! यदि रोग के अवसर पर उत्पन्न हुए अपने बुद्धि-चमत्कार (यदि में लिया हो जाऊँगा तो अवश्य निश्चय से विशेष धान-पुण्यादि धर्म कलैगग-इत्यादि प्रशस्त विचार-चाप ) न भोक किसप्रकार तेग अप्रिय (अकल्याण अथवा पापोपार्जन) हो सकता है? नहीं हो सकता anal इति निर्बयनुप्रेक्षा ॥१०॥ अब धर्मानुपेक्षा–स्वर्ग व मोक्षफल का इच्छुक आत्मा जब सम्यग्दर्शन-संबंधी विशुस मभिमाया। (सम्पष्टि) व पंचेन्द्रियों के विषयों की लालसा दूर करने वाला होता है। अर्थात-समस्त पापभियान ( हिंसा, झूठ, चोरी, अशील व परिषद का त्यागरूप चारित्र धारण करता है एवं जब तत्वों ( भजीष, भासष, बंध, संवर, निर्जरा प मोक्ष इन सात वस्त्रों और पुण्य व पाप सहित नौ पदाया जीव पुरस, धर्म, अधर्म, आबश व काल इन छह द्रव्यों) के सम्यग्ज्ञान रूप जल से भूख-पन्ध (पर पृष्ठ की बद) को मारोपित करनेवाला होता है। अर्थात् अब जनदर्शन संबंधी सलामी सम्यवान व सम्पाचारित्र से अलंकृत होता है, उसे ( सन्यादर्शन-शान-बारित्र को ) सर्वज्ञ भगवान का सरीखा फल देने वाला 'धर्म' कहते हैं ।।१४।। ऐसे महापुरुषों को, जिन्होंने मैत्री (भष), प्राणि इन्द्रिय-चमन ( जितेन्द्रियक्षा) और उत्तमक्षमा इन धार्मिक प्रशस्त गुणों की प्राति से शाश्वत सुख किया है। जिनकी चित्तवृत्ति पंचेन्द्रियों के विषयों (स्पर्श-आदि) में होनेवाली इन्द्रिय-प्रवृत्ति से (शून्य) एवं जिन्होंने सर्वज्ञ-प्रणीत शास्त्र-संबंधी तत्वज्ञान के माहान्य से अपना मोह (भाग रूप महान पिशाच नष्ट कर दिया है, स्वर्गसुख व मोक्ष-सुख-दायक धर्म की प्राप्ति सुलम (स) १॥१४॥ समस्त सुखों की निधि रूप यह जगप्रसिद्ध धर्म, विद्वज्जनों को मोक्षप्राप्ति में समर्च १. बापालधार । १.स्पकरआक्षेपालार। ३.रूपका उपमालहार। ४.रुपकालाहार। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः देशोपहारकुसपैः स्वपरोक्तापैः कृस्वाध्वरेचरमिर्ष वितन्ममीयाः । चरिणो य ह मन माम्पमानास्ले बातजीवितधियो विषमापिपम्ति ॥१८॥ येऽन्यत्र मन्त्रमहिमेक्षणमुग्धयोधाः शपिणः पुनरतः शिवतां गुणन्ति । ते माविवारणरो एषदोश्वाम्य दुष्पारमम्बुधिजन परियन्ति ॥१४॥ भर्मभूतेरित परत्र च येविचाराः संदिश सामसहशः सतसं पसन्ते। पुग्धाभिधानसमसाविषयसले नूनं गवारसपानपरा मगन्तु ॥१०॥ जो धर्म, उत्तम फल (पुत्र, कलत्र, धन व आरोग्यादि ) प्रदान करता हुआ प्राणियों के मनोरथ (स्वर्गभी व मुक्तिश्री की कामना ) पूर्ण करता है और उनके समस्त दुःख ( शारीरिक, मानसिक व आगन्तुक-आदि समस्त कष्ट ) विध्वंस करता हुमा राज्यादि विभूति के देने में अपनी अनोखी शक्ति रखता है। इसीप्रकार जो धर्म मानकों के अभिलषित (चाहे हुए मनन्त झानादि रूप मोक्ष ) की प्राप्ति करने के लिए श्रुतज्ञान, भवधिज्ञान व मनःपर्ययशान-आदि को मोक्ष के प्रधान दूत बनाकर भेजता है' ॥१४॥ . इस संसार में जो कोई अज्ञानी पुरुष यज्ञ व रुद्र-पूजा का छल करके मनुष्य, स्त्री और पशुओं के जीवित शरीरों का तलधार की धार-आदि से घाव द्वारा और कुतप A ( श्राद्ध कर्म में प्रशस्त माना हुआ दिन का माठवां भाग) द्वारा, जो कि । दूसरे पुराए, येदिक पन्नों की मान्यताओं में प्रवृत्ति करते हुए धर्म के इच्छुक है, वे दुर्बुद्धि जीवित रहने के अभिप्राय से विष-पान करते है। मर्थात्-जिसप्रकार जीवित रहने के उद्देश्य से विष-पान करनेवाले का घात होता है उसीप्रकार स्वर्ग-आदि के सुखों की कामना से उक्त यहीयहिंसा-आदि रूप अधर्म करने वाले की दुर्गति निश्चित होती है ॥१४॥ जो पुरुष दूसरे मतों के मन्त्रों का माहात्म्य ( प्रभाव-दृष्टिधंध, मुष्टि-संचार व वशीकरण-मादि) देखने के फलस्वरूप अपनी बुद्धि प्रज्ञान से आच्छादित करते हुए रुद्र-मत का अनुसरण करके उसका आराधना करते हैं और उससे अपने को मुक्त हुए मानते हैं, वे नौका में पार करने की बद्धि रखते हए भी विशाल पट्टान पर चढ़कर समुद्र की अपार जलराशि को पार करने वालों के समान अमानी है। अर्थानजिसप्रकार विशाल चट्टान पर चढ़कर 'यह नौका हमें पार करेगी' यह कहनेवालों द्वारा समुद्र की अपार जलराशि पार नहीं की जासक्ती उसीप्रकार केवल रुद्र की आराधना मात्र से मुक्तिश्री की प्राप्ति नहीं होसकती ॥१४९॥ जो पुरुष धर्म का नाममात्र श्रवण करके अर्हदर्शन व दुसरे दर्शन-संबंधी तस्वों का पयार्य विचार नहीं करते और निरन्तर संदिग्ध होकर सदा धर्म करने का प्रयल करते हैं, उन मियादृष्टियों को दूष के नाममात्र की सरशता से मलिन बुद्धि काले मानों सरीखे होकर, गाय और अकौआ के दुग्धपान में तत्पर होना चाहिए। अर्थात्-गाय का दूध और अकौआ का दूध नाम और श्वेत रूपादि में समान है, परन्तु जिसप्रकार गाय के दूध को छोड़ कर अकौआ का दूध पीना हानिकारक है उसीप्रकार अहिंसा-प्रधान जैनधर्म को लोक्कर पैदिकी हिंसाप्रधान अन्य धर्म का पालन करना हानिकारक है ॥१५०il १. रूपक एसपमालहार । २. रूप में उपमालसर अथवा छान्तालकार । ३. दृष्टान्तालबार । ४. निषेधालाहार । A-तथा चो-दिवसस्थाष्टमे भागै मन्दीभवति भास्करे ।तकाल: कतपो यत्र पिनभ्यो दतमक्षयं ॥21॥ कुशे काले तिलेऽनंगे कम्बले सलिले स्थिनि । वाहिने स्वरुपात्रेग्नौ फुलपाख्या प्रकीर्तिता ॥२॥ महात्सप्तमावर्षमवस्तारुपमास्तमा । स कालः कुतपो नाम प्रशस्तः श्रावकर्मणि ॥३॥ सटिक, ग, प से संकलित-सम्पादक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिकपम्पूमध्ये मास्व सचिनसमर्थविनियोजस्तो चारविमन् तीनकिमि । भावादीमहलबालितमामसानो या न जानु दिनानिमन्तराचा ॥ १९१॥ गार्मा रुषो दुचिताचरणे को सार्थसिदिरावारिनिरणे । तस्मात्परापरसपाधर्मकामा सम्प नीतिपरा मवन्तु ॥ १५२ ॥ इति धर्मानुप्रेक्षा ॥ ११ ॥ मानहीन मानव का पारिन्धारण और चारित्रशून्य मानव समान एवं सम्यग्दर्शन-शून्य ( मिथ्याष्टि) केशन व पारित नहीं ( निष्फल ) है। अर्थात्-मिथ्या होने के कारण मोक्षप्राप्ति के उपाय नहीं हैं। सोमबार तलावों की भरच ( मिथ्यात्व)मान और चारित्र को पीड़ित करनेवाली है। म्योंकि मिथ्याल संसर्ग से शान और सरित्र दूषित ( मिथ्या ) माने गए हैं। उदाहरणार्थ-जिसप्रकार भन्थे, बैंगदे चोर मया हीन (भालसी ) पुरुलों का अभिलषित स्थान में गमन कदापि निर्षिन नहीं देखा गया। अर्थात् जिसमचार मन्या पुरुष ज्ञान के विना केवल चारित्र ( गमन) मात्र से अभिलषित स्थान पर प्राप्त नहीं हो सष्ठा और सँगडा पम्स -कोने पर भी पारिन (सन के बिना किस स्था इच्छित स्थान प्राप्त नहीं कर भता. एवं जिसप्रकार भवाहीन (आलसी) पुरुष प्रवृत्ति-शून्य होने के कारण अपना अभिलषित स्थान प्राप्त नहीं कर सकता उसीप्रकार सानी पुरुष पारित्र धारण किये विना अभिलषित वस्तु (मोक्ष) प्राप्त नहीं रसन्ना एवं चारित्रवान पुरुष झान के बिना मुक्तिश्री की प्राप्ति नहीं कर सकता. तथा भवाचीन मानव काल और चारित्र धारण करता हुमा भी मुक्तिश्री की प्राप्ति करने में समर्थ नही होसकता । अतः सम्बम्पर्शन, सम्मान और सम्यग्चारित्र इन तीनों की प्राप्ति से मोच होता है, जो कि वास्तविक धर्म है। ___ भावार्थ-प्रस्तुत ग्रंथ के संस्कृत टीकाकार (श्रुतसागर सूरि') ने भी उक्त दृष्टान्त वारा प्रस्तुव विषय बसमर्थन किया है। ॥१५॥ सम्यग्दर्शन (उत्त्यश्रद्धा), सम्यग्ज्ञान (वस्वाज्ञान) और सम्यग्धारित्र ( हिंसामादि-पाप क्रियाओं का त्याग) से पलस्त हुए पुरुषों की लोक में औषधादि के सेवन से प्रयोजन-सिद्धि (रोगादि बनारा) प्रत्यक्ष देखी मई है। अर्थात्-जिसप्रकार रोगी पुरुष जब औषधि को भलीभाँति जानता है और मडा-वश उसे (करवी श्रौषधि को भी) पीने की इच्छा करता है पधं श्रद्धावश योग्य वापरण (औषधि सेवन ) करता है तभी यह बीमारी से छुटकारा पाकर उल्लसित (आनन्दित) होता है, यह बात लोक में प्रत्यक्ष प्रवीत है। उसीप्रकार यह भम्यास्मा भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्हान और सम्यग्चारित्र रूप औषधि के सेवन से धर्मबंध रूपी रोग से छुटकाय पाकर मुक्तिश्री को प्राप्त करता हुआ वल्लसित होता. है-काश्वत् भयाण प्राप्त करता है, इसलिए जिन्हें स्वर्ग व मोक्षरूप धराम फल देनेवाले धर्म को प्राप्त करने की अभिभाष है, उन्हें सम्यग्दर्शनधान-चारिक संबंधी ज्ञान प्राप्त करने की नीति में प्रयत्नशील होना चाहिए ॥१५॥ इति धर्मानुप्रेक्षा ॥११॥ .. तवा च-श्रुतसागरपरिः-'वनधिसिनि मूतोऽन्यः संचरन माध्मविघालतमषिकलमूर्तियाँक्ष्यमागोऽपि पार मपि समयनपादोऽपानश्च तस्मादागवगमप्यरित्रः संयुसरेन सिमिः ॥१॥ मत-जापन में भीषण दाशमाल मग्नि पक रही थी उस अवसर पर प्राप्त हुए मन्या, लंगदा र भालसी सोनाकर काल कवलित हुए, क्योंकि पन्था संचार करता हबा भी हार के बिना पा से हट न सका व गया ज्ञानी गरमीकहासे प्रस्थान म कर सका। इसीप्रकार मेत्रर पेरों बाय बासीहाँ पर पड़ा राने नष्ट हुला, रिसराम, सम्बग्ज्ञान र सम्बम्बारित्र तीनों को प्रप्ति मोग प्राप्ति प-जाव है। ५ स्टाम्वन्द्यर। ३. ताम्तालद्वार । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आधासः संसारसागरमिमं अमवा नितान्त जीवन मानवमयः समवापि वा। सन्नापि मानुषममान्यकुबे प्रसूतिः सत्संगतिक विहायकवकीलम् ॥ १५ ॥ हाब्यावनस्पतिगतेश्युत पर जीका वधु बलमपान पुनः प्रयाति । देम्पः परस्परविरोधियगप्रसूतावस्याः पशुप्रतिनिभेषु कुमामोषु ॥ १५ ॥ संसारयन्त्रमुक्यास्तपटीपीत सातानतामसपुणे मृत्तमाश्खिोयः । इत्यं भर्गविसरिस्परिवर्तमध्यमाबाहयेल्वयकर्मपछामि मोक्कुम् ॥ १५५ ॥ भारतासोकभयभोगकापुत्रैः खेड्येन्मभुजबम्म मनोरयाप्तम् । नून स भस्मवधीरिह रस्मरापिासहीपयेवतनुमोहमलीमसात्मा ॥ १९ ॥ पाहाप्रपद्यविमुखस्य शमोन्मुखस्य भूतानुकम्पनरुका प्रियतत्वाचा। प्रत्याप्रतक्ष्यस्म जिवधिपस भव्पस्प बोधिरियमस्त पदाय मे ॥ १५ ॥ इति बोध्य प्रेक्षा ॥ १५ ॥ अथ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-इस चतुर्गतिस्प संसार-समुद्र में अत्यन्त भ्रमण करनेपाली मात्मा ने विशेष पुण्योदय से यह मनुष्य जन्म प्राप्त किया और उसमें भी लोक में प्रशंसनीय क्ष (बामणादि वंश) जन्म धान और सजन पुरुषों की सानि प्राप्त होना यह तो पन्धकपर्वकीय न्या' सरीखा महादुर्लभ है। अर्थात्-जिसप्रकार अन्धे पुरुष के हाथों पर घटेर ( पक्षी-विशेष) की प्राप्ति महादुर्भभो उसीप्रकार मनुष्यजन्म प्राप्त होने पर भी उवर्षश सत्संग की प्राप्ति महादुर्लभ है। ॥१५॥ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रतीत होनेवाला यह जीव महान् कष्ट-समूह से वनस्पति की पर्यायों (निगोद आणि पर्यायों) से निकला। यहाँ से निकलकर इसने पापक्रमों के वश से धारबार नरकगति को पर्याय प्रहण की। यहाँ से कष्टपूर्वक निकलकर यह परस्पर एक दूसरे से वर-विरोध करनेवाले मृग-व्यापावि तिर्यों में उत्पन्न हुआ। पुनः यहाँ से निकला हुआ यह पशु-समान निन्ध मानषों ( कुभोग भूमि-संबंधी विकराल शरीर-धारक मनुष्यों ) में उत्पन्न हुआ ॥१५४॥ इसप्रकार यह जीव षयं उपार्जन किये हुए पुण्य-पाप कर्मों का सुख-दुःख रूप फल भोगने के हेतु ऐसे संसाररूप घटीयन्त्र (रिहिट ) प्रसंचालन करता है, जो सूर्य के उदय व अस्त होनेरूप जलपूर्ण धरियों से व्याप्त है। जिसमें सातान (महान् प विस्तृत ) पाप श्रेणीरूपी घरियों की बाँधनेवाली रस्सियों है और जो मानसिक पीड़ाओंरूपी जमाराशियों से भरा हुआ है एवं जिसका मध्यभाग पारगति ( नरकगति, तिर्यक्रगति, मनुष्यगति प देवगति) रूपनदियों में चक्र जैसा घूमता है। ॥१५॥ ओ मानव रोग, शोक, भय, भोग ( कर्पूर कस्तूरी-आदि भोग सामग्री ), कमनीय कामिनी व पुत्र-आदि में उलझ कर अनेक मनोरथों से प्राश किया हुमा यह मानवीय जीवन व्यतीत कर देता है, विशेष अहान से मलिन आत्मावाला यह अज्ञानी भस्म प्राप्त करने के उद्देश्य से अपने पास की अमूल्य रन-राशि जला देखा है। अर्थात्-जिसप्रकार भस्म के निमित्त अमूल्य र राशि का जलाना महामूर्खता है उसीप्रकार भोगों के निमित्त महादुर्लभ मानवीय जीवन का व्यतीत करना भी महामूर्खता है' ।।१५६।। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रतीत होनेपाली यह रसत्य ( सम्यग्दर्शन-बान-चारित्र) की प्राप्ति, ऐसी भव्यात्मा को मोक्षपद की प्राप्ति के लिए समर्थ होवे, जो विषयकषाय के विस्तार से विमुख-दूर-होकर प्रशम (क्रोधादि कवायों की मन्दता व खत्तमझमा) की प्राप्ति में तत्पर है। प्राणिरक्षा करने में श्रद्धालु हुए जिसकी पाणियाँ कानों को अमृत-जैसी मीठी और यथार्थ है 1. उपमालङ्कार । २. अपमालद्वार। ३. समकालंकार । ४. स्टान्तालंकार । * अंतानसामसपुर्ण' इति । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये 'कृतः कीर्तिज्योत्स्नाप्रसरदमृतासार अष्टिलेरयं वह्मस्तम्वो धवलभवनाभोगसुभगः । भुजस्तम्भालानामपि रमासिन्धुरवधू वशं नीता समिभजने ॥ १६८ ॥ छताकान्तारम्यास्तरूपरिजनाकीर्णवसुधा स्टीपासाशः कम दानन्दितभुवः । अरण्यानी मीरिव मुहुरूपाभिस्य हृदयं परस्थानावातेर्विजयि भवताम्मामकमिदम् ॥ १५९ ॥ इति विचिन्त्य विदूरितसंसारसुखसंकल्पश्वेतो विनिश्चित तपश्वरणकल्पः समाहूयाविराव निवारितनिखिखनस्वस्ति रहसि मामेवमबुधत्- 'समस्तारहस्योपाप प्रायोनिविनीताचारमपि शबकुमारमभिनवयौवनाइने यति सद्वृतोपपतिषु मनसि अन्धयति सन्मार्गदर्शनेषु लोचनयो:, १५६ तथा एवं जिसका हृदय (चित्तवृत्ति ) परमात्मा के स्वरूप में स्थिर व लीन है और जिसने समस्त स्पर्शन- भाषि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की है। अर्थात् जो जितेन्द्रिय है ' ।। १५७ ।। इति बोधि- अनुप्रेक्षा ||१२|| हे मासि महाराज ! मेरे पिता यशोर्घ महाराज ने जिसप्रकार उक्तप्रकार बारह भावनाओं का विषन किया उसी प्रकार सांसारिक सुख का संकल्प छोड़ते हुए म अपने मन में तपश्चरण (दीक्षा-धारण) करने का कल्प (विधि) निश्चय करते हुए उन्होंने निम्नप्रकार प्रशस्त विचार किया मैंने इस तीन लोक को कीतिरूपी चन्द्रकान्तियों से विस्तृत होरही अमृत A ( गोरस - दुग्ध ) सरीखी वेगयुक्त वाष्टषाली जलशशि द्वारा उज्वल किये हुए गृहों की परिपूर्णता से मनोहर ( सर्वलोक को प्रीसिजनक ) कर दिया। अर्थात्-उज्वल कर दिया । इसीप्रकार युद्धाङ्गण पर अभिमानी शत्रुरूपी वृक्षों को भङ्ग करके लक्ष्मीरूपी हथिनी को अपने दक्षिण स्वरूप गजबन्धन- स्तम्भ से बाँधकर अपने वश में कर लिया || १४८ ॥ मेरा यह मन ऐसी विशाल वनस्थलियों को शर-बार प्राप्त करके परस्थान ( मोक्ष स्थान म दूसरे पक्ष शत्रु स्थान दुर्ग-आदि ) की प्राप्ति के फलस्वरूप विजयशाली होवे । जो ( बनस्थलियाँ) लतारूपी कमनीय कामिनयों से विशेष मनोहर हैं। जिनकी भूमियों वृक्षरूपी कुटुम्बी-जनों से व्याप्त है। जो पर्वतरूपी मन्दिरों से कुछ हैं। जिनकी भूमि मृगरूपी मित्रों से सुशोभित है एवं जो ऐसी राज्यलक्ष्मीसरीखी है, जो रमणीक रमाणयों से मनोश, कुटुम्बियों से व्याप्त पृथिवी वाली, पर्षत- सरीखे सुन्दर महलों से विभाषत और जिसकी भूमि मित्रों द्वारा आनन्द को प्राप्त कराई गई है ।। १५९ ।। तत्पश्चात् उन्होंने मुझे ऐसे एकान्त स्थान पर, जहाँ से समस्त लोक-समूह ( मन्त्री व पुरोहित आदि राज-कर्मचारी ) हटा दिये गये थे, शीघ्र बुलाकर निम्नप्रकार नैतिक शिक्षा दी । व समस्त शास्त्रों के मर्म ( रहस्य ) का बार-बार अभ्यास करने के फलस्वरूप प्रशस्त विचारधारा से विभूषित हुए द्दे पुत्र ! ययाप प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली यह राज्यलक्ष्मी अभिलषित फल देनेवाली है मापि यह स्वभाविक विनयशील राजकुमार को भी प्राय: करके मानसिक वृत्ति द्वारा सदाचार महण करने मैं उसप्रकार धोखा देती है- सदाचार से बचत करती है जिसप्रकार नवीन तरुणी ( युवती स्त्री ) समाचार से वंचित रखती हैं। इसी प्रकार यह ( राज्य लक्ष्मी ) धर्म-मार्ग ( कर्तव्य-पथ ) के देखने में नेत्रों को 5. जाति अलंकार व अतिशयालंकार । २. रूपकालंकार | * कल्पे विकल्प कल्पा से मवासरं । शास्त्रे न्याये विधी इत्यनैकार्थः । A अमृतं यशशेषेऽम्बुसुधा मयाचिते । अकामनयं जग्ध र स्वादुनि रसायने । इथे गोरसे वेत्मनेकार्थः । अत्र गोरसचाची कुतः अतीव श्वेतस्यात् । ३. रूपक व उपमालङ्कार । ६. लि. सदि प्रतियों से संकलित - सम्पादक Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रापासः बधिरपति दिलोपदेशेषु भवणयोः, मिपाख्यवि व नियमेन दुरन्तासू ताg *पसनसंवतिषु। पौवनाविभावः पुनः सानपुत्राणां भूतावतार व हेतुरात्मविसम्बनल्य, प्रसवागम श्व कारण मत्स्य, सम्माक्ष्योग व प्रसवभूमिवामविलसितस्य, *मदनकोरकोपयोग इव व निदानमनथपरम्परापाः। तदुभवस्थाप्युपस्थितस्यान विकमा समागमसुन धर्मसहि सथानुमब पथा म भवसि परेको सवन्तरायविषयः । st यानि पावती ने यस्मा प्रणयपरता पजाते रतिश्च । लक्ष्म्यास्तस्याः सकलनपतिस्वैरिणीचिभाजक प्रेमापो भवतु तवीलोकपिप्लाविकायाः ॥ १६॥ यस्मिन् रमः प्रसरति स्मलितादियोचैरास्यादिव प्रवक्ता समसकास्ति । अन्धा बना देती है और कल्याणकारक उपदेशों के श्रवण में कानों को अहिरा बना देती है एवं मयार परिणाम ( भविष्य ) बाले व्यसनो - ( वाक्पारुष्य-आदि अथवा दुःख-समूहों) में निश्चय से गिय देती है। इसीप्रकार राजकुमारों की प्रकट हुई युवावस्था उसप्रकार उनके दुख का कारण है जिसप्रकार शरीर में पिशाच-प्रवेश दुःख का कारण है। जिसप्रकार मद्यपान मद (दर्प-नशा) उत्पन्न करता है उसीप्रकार यह युवावस्था भी राजकुमारों के हृदय में मद (अभिमान) उत्पन्न करती है। इसीप्रकार यह उसप्रकार महानवृद्धि की उत्पत्ति भूमि है जिसप्रकार बात-रोगी की बातोल्वणता अज्ञान-वद्धि (मूळ-वृद्धि) की सपचि भूमि है और यह उसप्रकार अनर्थ-परम्परा ( कर्तव्य-नाश की श्रेणी अथवा दुःख-परम्परा ) का कारण जिसप्रकार मादक कोदों का भक्षण अनर्थ-परम्परा का कारण है। इसलिए पयक्रम से उन्नविशील हे पुत्र! तुम प्रास हुए उन दोनों का प्रेम (पज्यलक्ष्मी और युवावस्था की प्रासिरूप सुख) उसप्रकार धर्म-पूर्वक भोगों जिसके फलस्वरूप तुम उन दोनों के सुख भोगने में शत्रुओं द्वारा विघ्न-बाधाएँ सपस्थित करने योग्य न होने पाओ । क्योंकि-कौन धर्म धुरि पुरुष, समस्त राजाओं के साथ कुसटा का माचार मामय करनेवाली (व्यभिचारिणी ) व लोक को धोखा देने में असुर ऐसी लक्ष्मी के साथ प्रेमान्ध होगा ? अपि तु कोई नहीं। जिसका (लक्ष्मी का) पिता जड़निधि (श्लेषालकार में उभौर ल का अभेद होने से जलनिधि-समुद्र व पत्तान्तर मैं जदनिधि-मूर्खता की निधि ) और जिसका छोटा भाई कालकूट (विष व पक्षान्तर में कालकूट मृत्यु की कारण)है। इसीप्रकार जिसकी स्नेहतस्परता कृष्ण ( भीनारायण व दूसरे पक्ष में कृष्ण मलिन हदय) के साथ एवं जो पाजात (कमल व पक्षान्तर में पापी पुरुष) के साथ प्रेम करती है।॥१६० ।। जिस युवावस्था के प्रकट होने पर युवक पुरुष का उसप्रकार विशेष अपवाद होने लगता जिसप्रकार पाप-प्रवृत्ति से मानष का विशेष अपवाद होता है। जिसके प्रकट होने पर भज्ञान की प्रौदता उम्रप्रकार होती है जिसप्रकार अंधे होजाने से अज्ञान की प्रौढ़ता (विशेष वृद्धि होने लगती है। इसीप्रकार जिसके प्राप्त होने पर सस्व गुण (प्रसमता गुण---नैतिक प्रवृत्ति ) कामरूप पग्नि से * 'मास सासु' इति क, ग, पः। AB * प्रसकासमागम इव कारणं मवस्प, उन्मादयोग इव असम्बद्यालापासिनिवेशवित्रामस्थानं प्रसवभूमिरियाविर पाठान्तरं क, व प्रतियुगले | A. मदिरा । B. हेतुः । C. उत्पत्तिभूमिः । *. कोद्रवमोजनयत सटि• प्रति से संकलित । * पायोच पारध्यमर्थषणमेव च । पानं श्री मृगया पूतं व्यसनानि महीपतेः ॥१॥ ४. लि. सटि- प्रतियों से संकलित-सम्पादक १. ख-भलंकार । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस्विकरच पूज्यन्ये संत लिरोम्बति मीसमिाजबानेस्वयौवनं विनय समसंगमेग..११॥ विवारीभिचरित्रपवित्र पुन, स्वपि स्वमायादेव दिवासि महामागमनसि विपिशवास्ति। अवमीय हुमा सरीला ना होजाता है। अतः हे पुत्र ! इस युवावस्था को सपनों की संगति में मातीत करो। __विशद विवेचन-पन्द्रप्रभ चरित्र के रचयिता पोरनन्दि आचार्य का प्राकरणिक प्रवचन हदयान करने खायक है, जिसे भीषेण राजा ने जिनदीक्षा-धारण की प्रयाणयेला में अपने युवराज-वीर पुत्र भीषमा (चन्द्रप्रभ सीर्थहर की पूर्व पर्याय ) के लिए दिया था हे पुत्र! तुम विपत्ति-रहित या जितेन्द्रिय और शान्तशील होकर अपने तेज (सैनिक पेशशठि) से शत्रुओं का उदय मिटाते हुए समुद्रपर्यन्त पृथ्वीमण्डल का पालन करो॥१॥ जिसतय सूपादन से धक्रयाक पक्षी प्रसन्न होते हैं उसीतरह जिसमें सव प्रजा तुम्हारे अभ्युदय से खेदरहित (सुखी) हो ही गुप्तचरों (जासूसों ) सारा देख जानकर करो ।। २॥ हे पुत्र ! वैभव की इच्छा से तुम अपने हिसपी लोगों को पीड़ा मत पहुँचाना, क्योंकि नीति-विशारदों ने कहा है कि प्रज्ञा को खुश रखनाअपने पर गुर जाना धायः बजारमा अवदा परना-ही मन का मुख्य कारण है ।। ३॥ जो राजा विपत्ति-रहित होता है उसे नित्य ही संपत्ति प्राप्त होती है और जिस राजा का अपना परिवार पशवी है, उसे कभी विपत्तियों नहीं होती। परिवार के यशवर्वी न होने से भारी पिपत्ति का सामना करना पड़ता है ।। ४॥ परिवार को अपने वश करने के लिए तुम कृतज्ञता सद्गुण का सहारा लेना। Baw पुस्व में और सब गुण होने पर भी यह सब लोगों को विरोधी बना लेता है॥५॥ हे पुत्र! तुम कलि-दोष जो पापाचरण है उससे बचे रहकर 'धर्म की रक्षा करते हुए 'बई और 'काम' को बढ़ाना। इस युक्ति से जो राजा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) का मेषन । मना है, वह ऐहिक व पारलौकिक सुख प्राप्त करता है ॥ ६॥ हे पुत्र! सावधान रहकर सदा स्त्री व पुरोहित-आदि बड़े ज्ञानवृद्धों की सलाह से अपने कार्य करना। गुरु ( एक पक्ष में माय और दूसरे पक्ष में वृहस्पति ) की शिक्षा प्राप्त करके ही नरेन्द्र सुरेन्द्र की शोभा या बैमा से प्राप्त होता है॥७॥ प्रजा को पीड़ित करनेवाले कर्मचारियों को दंड देकर और प्रजा के अनुकूल कर्मचारियों को दानभानावि से तुम बढ़ाना। ऐसा करने से बन्दीजन तुम्हारी कीर्ति बार्शन करेंगे और उससे तुम्हारी कीर्षि दिम्दिगन्तर में व्याप्त होजायगी॥ | तुम सा । अपनी पिसवृत्ति (मानसिक अभिलषित कार्य) को छिपाये रखना । काम करने से पहले यह प्रष्ट हो कि तुम क्या करना पाहते थे? क्योंकि जो पुरुष अपने मन्त्र ( सलाह.) को छिपाये रखते। और अनुषों के मन्त्र को फोड़-फाड़कर जान लेते हैं, वे शत्रमों के लिए सवा अगम्य (ब जीतने योग्य). यते ॥६॥ जैसे सूर्य तेज से परिपूर्ण है और सब आशाओं (दिशाओं) को व्याप्त किये रहता। स्वा भूमृत् जो पर्वत है उनके शिर का बलकार रूप है उसके कर (किरणें ) बाधाहीन होकर पृथ्वी पर पढ़ते है, वैसे ही तुम भी तेजस्वी होकर सबकी आशाओं को परिपूर्ण करो और भूभृत् जो राजा लोगों उनके सिरताज बनो, तुम्हारा कर (टेक्स ) पृथ्वी पर बाधाहीन होकर प्राप्त हो अनिवार्य हो ॥१०॥ निक-प्रकरण में हे मारिदच महाराज! मेरे पिता ने मुझे उक्त प्रकार की नैतिक शिक्षा दी ॥१६॥ नीलिमार्ग और विनयशीलता की चतुराई के कारण विशेष मनोज चरित्र से पवित्र हुए हे पुत्र ! अर व्य स्वभाव से ही निदोष और पवित्र मनशाली हो तम भापको कुछ भी नैतिक शिक्षा पेने योग्य नहीं है। देखिए नामचरित्र सर्ग / श्लोक ३ से ।। २. उपमालद्वार । । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः प्राधासः माहालकालिपि तव प्रवृत्त्या केसरिकिशोरकस्पेव पराक्रमामातवेरिपरिविक्षारभूमपा, पयोधरलमयस्वैका मसलारमसामश्रितसपनापुरप्रासाइमेदिनीदूारमरोहाः, शरबन्द्रस्येव निखिललगामभवलनारब्धयशःप्रकाशामवाटयः, पुरफोनहेरिए संशर्पितार्षिजनहृदयमनोरथाः, प्रतिपनदीक्षिवस्येव सत्याधिवचन रचनाप्रपत्रितयः, प्रथम्भुमावतारस्येव धर्ममहोत्सवभाषणा, प्रधापयोपरस्येव प्रमोदितसकामुमनभानभुवः। तत्परमेतदेवाशास्महे-भवन्तु श्रीसरस्वतीसमागमानुपाधीनि सिम्सलिलानीय घिरमायूषि, परिपालपतु भवान् प्रभापतिरिव पूर्वावनीरवरपरम्परामातपरिपालनोपदेशमोपमिमियाकाम, विकामयतु चास्माकमरालकालमधनिमारोडरमपितमिम युगभरप्रदेशम् । अयं तु सांप्रत भवतू जगजारोपिवसमस्तसाम्राज्यभारास्चिरायपार्णितचतुर्थपुरुषार्थसमर्थनमनोरथस्गराः क्योंकि जिसप्रकार सिंह-शाषक ( बचा) की चेष्टाएँ शिशुकालीन क्रीड़ाओं में भी अपने पराक्रम से शत्रुभूत हाथियों की संचार-भूमियों को न्याप्त करनेवाली होती है उसीप्रकार आपकी चेष्टाएँ भी युवावस्था की पत सो दूर थे किन्तु शिशुकालीन क्रीड़ाओं में भी अपने पराक्रम द्वारा शत्रुओं के हाथियों की पर्यटनसंचार-भूमियों को व्याप्त करनेवाली है। जिसप्रकार वर्षाकाल की प्रवृत्तियों शरासार' (सर-बासार) अर्थात्- की बेगशाली वृष्टि के विस्तार द्वारा नगरपर्ती गृहों की भूमियों पर दूर्वाक्कुर उत्पन्न करती है इसीप्रकार भाप गेवार भी मिाशुकातीमहीना में जी पाससार अर्थात्-बाणों की वेगशाली वृष्टि द्वारा राओं के नगरवी गृहों में दुचिकुरों की उत्पत्ति स्थापित करती हैं। जिसप्रकार शरत्कालीन चन्द्र की प्रवृत्तियों, समस्त तीन लोकरूपी गृह को उज्वल करने में अमृत-वृष्टि की रचना उत्पम करती है ससीप्रकार बापकी चेष्टाएँ भी शिशुकालीन क्रीड़ाओं में भी समस्त तीन लोकरूपी गृह को उज्वल करने में पराप्र-काशरूपी अमृतवृष्टि की रचना (उत्पति) करनेवाली है एवं जिसप्रकार कल्पना यावकों के मनोरथ पूर्ण करते हैं उसीप्रकार आपकी चेष्टाएँ भी याचकों के मनोरथ पूर्ण करनेवाली हैं। जिसप्रकार अहिंसा-आदि महाप्रत धारण करनेवाले मुनियों की प्रवृत्तियों में सत्यता के कारण पवित्र पधनों का रचना-विस्वार पाया जाता है उसीप्रकार आपकी चेष्टाओं में भी सत्यता के कारण पवित्र पचनों का रचना-विस्तार पाया आता है। आपकी प्रवृत्तियाँ पूजा व पात्र-दानादि धार्मिक महोत्सों में उसप्रकार वत्पर है जिसप्रकार युग के प्रथम प्रवेश की प्रवृधियाँ धर्म महोत्सयों में तत्पर होती है। जिसप्रकार अमृत-श्रृष्टि करनेवाले मेघों की प्रवृत्तियों द्वारा दीन लोक अथवा मनुष्य लोक की भूमियों हर्ष में प्राप्त कराई जाती हैं इसीप्रकार आपकी प्रवृत्तियों द्वारा भी तीन लोक की पृथिषियों हर्ष में प्राप्त कन्यां आती है। अतः यद्यपि भापको कोई नैतिक शिक्षा देने योग्य नहीं है तथापि हम केषल यही भाव देते हैं कि है पुत्र! तुम्हारे जीवन (घायुष्य ) चिरायु हों और उनमें लक्ष्मी (राज्यविभूति) और सरस्वती (द्वादशाशवाणी) का समागम उसप्रकार होता रहे जिसप्रकार समुद्र की अलराशि में लक्ष्मी और सरस्वती अदियों का समागम होता है। तुम ऋषभदेव तीर्थकर के समान ऐसे इस पृथिवी-मंडल की रक्षा करो, जिसकी रक्षा का अपदेश (शिक्षा) पूर्वकाल के भरतचक्रवर्ती-आदि राजाधों की परम्परा से चला आरहा है। पुत्र! मेरे स्कन्ध (कन्धा) को, जो कि चिरकाल पर्यन्त पृथिवी का बोझ धारण करने के फलस्वरूप कष्ट को प्राप्त होचुका है, विभाम प्राप्त करात्रो। इस समय हम, जिन्होंने समस्त साम्राज्य प्रभार आपके नाइवएशरूपी हाथी पर स्थापित किया है और चिरकाल से प्रार्थना किये हुये मोक्ष पुरुषार्थ . * 'रचनपवितमयाः' इति का। १. तथा चोपयोईलयोस्रव रलयोः पयोस्तथा । अभेदमेव पाश्चन्ति येऽलंकारक्दिो दुगः ॥१॥ पत्र. संत टीप. १०१ सेमिय-सम्पादक Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. यरास्तिवकपम्पूमध्ये परंपरिलक्विीपिवेदितनिसर्गपणापास्तपोबमानमरमायाः समाममाणसरवस्ममिमिवात्माने कर्तुमीडामहे ।" पसोधर:-'समस्तभुवनभूपावस्तुपमानकोतिकुलदैवत सात, युक्तदेतत् । किन्तु क्षिविपतिस्तानामविलमनोरख कामयेरपी राज्यलक्ष्मीः सकलादिक्पालखरसायमानपाक्सेव देव, बातमन्तरेण किमपि समुत्पादयस्पपि पुनः अर्यमापरम्परामिर्मइनकलायुक्तिरिय भुक्तमावतमतिबाकायले मुहमपति। स्वबन्धपत्तेः शनिहरिपा सुलोत्सवोपायविधी व विति। स्वातिः केमिमनोरधानां भी: स्पादिना सायमन देवः ॥ १२ ॥ विना दिनेतारमयं पृथा स्थायथा गबाना बिनमोपदेशः। राज्य तथा राजमारकरां बिना विजेतारमिवं क्ष ॥ १५ ॥ दुधसिमभा: HNN समास तेषां दिवापि धीयोनि चिन्तामा विजम्माताम् ॥ १४ ॥ वि। पुत्रास्ते ननु पुण्यकीर्तनपद नार्वजन्मोत्सवास्ते पुवाधिनस्व वंशतिलकास्ते में मिया केतमम् । केरण (सम्यग्दर्शन-आदि उपाय ) संबन्धी मनोरथों से शक्तिशाली हैं, अपनी आत्मा को ऐसी पोबन मम्मी के समागम संबन्धी अवसर का मार्ग करना चाहते हैं, जिसका स्वाभाविक प्रेम वृद्धावस्थारूपी डूती से हम्पमा गया है। ____ रुक पात ने सुनकर यशोधर ने कहा-समस्त पृथिवीमण्डल के राजाओं द्वारा सुति की हुई र्तिरूपी कुलदेवता से अलंकृत ऐसे हे पिता जी। यह आपकी मान्यता पित। नहीं है। क्योंकि यद्यपि यह राजलक्ष्मी राजपुत्रों के समस्त मनोरथों की पूर्ति करने के लिए कामधेनुसली है तथापि समस्त राजसमूह द्वारा प्रशंसनीय परणफमल की सेवावाले ऐसे हे देव ! और इस मुख छत्सा प्रती हुई भी पश्चात् अनेक राजकीय कार्यों में पाई हुई सलमानों की परम्परा से उनके मुखने सपनर बाहिर फेंक देती है नष्ट कर गलती है जिसप्रकार राजफल का भक्षण खाये हुए भोजन को बिशेष धार्विक दुःखपूर्वक बमन करा देता है। क्योंकि पिता के बिना यह लक्ष्मी ( राज्यादि-विभूति) सप्रकार दुःख का कारण (पीड़ाजनक) होती है जिसप्रकार स्वाधीन प्रवृत्ति करनेवाले मानव को शनेश्वर नामक माह की पूर्ण दृष्टि (पवय) कम भरण होती है भीर जिसप्रकार विष्टिनाम का सप्तमकरण मानष का सुख नष्ट करता है इसीप्रधर पिता के बिना यह लक्ष्मी भी सुख-संबंधी उत्सवों के उपाय करने में सुख नाह कर देती है। सीप्रकार पिता के बिना यह लक्ष्मी क्रीड़ा करने के मनोरथ उसप्रकार भङ्ग (नष्ट) करती है जिसमबर केतु नामक नीय प्रह का उदय मानवों के कीड़ा करने के मनोरय भङ्ग कर देता है। जिसमकार महावत के बिना हाथियों के लिए दिया जानेवाला शिक्षा का उपदेश निरर्थक है उसीप्रकार पिता के बिना पासपोरे यह गभ्य भी निरर्थक है"।।१६।। जो राजपुत्र, पिता पर पृथिषी-(राज्य ) भार स्थापित करते हुए सवपूर्वक नहीं रहने, सनके बुद्धिरूपी आकाश में दिन-रात चिन्तारूपी निषित अन्धकार विस्तृत हो ।१६। उक्त पात का विशेष निरूपण-जो पिता की भाशा-पालन के अवसर पर सेवा सरीले. शामाभ्यास के समय शिष्य-सरीखे हैं और गुरु ( पिता व शिरक)के कुपित होजाने पर भी जो उससे १. शान्तासंकार । २. स्टान्तालंकार । ३. पत्रकार । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वास: आदेशावसरे गुरोरनुचराः शिष्याः हाराधने कोपे सप्रणय प्रसादसमये ये च प्रसन्नोदयाः ॥ १३१ ॥ निजप्रतापप्रभावसंभाषितभूर्भुव: स्वस्त्रयी महोभाव देव, अस्मा वै पुत्र इतेागृहीया पुराणपुरुषावगाह्यविद्यम् । इदानीं समन्तरेण को नाम मिः श्रेयस्तधाम परस्तपः प्रारम्भावसरः । स्वकीयवंशाभिवृद्धिक्षेत्रात पुत्राद मौऽपि नापराः समस्ति । यतः शास्त्रतः पुर्मासं प्रसाधितास्मीयान्ययोदयमीमांसं दुरीहितागमासम्मान्तरसंगमास्त्रायते यतं पुत्रं निर्वयन्ति । ए: 1 राज्यस्य तपसो वापि देवे भवति श्रमम् । अहं छायेद देवस्य सहघुतिपरायण: ॥ १६६ ॥ १६१ हस्येकतातिसंतानस्य प्रतिजिज्ञासमानस्य में प्रत्यादिश्य त्रिदशैरप्यनुल्लधर्मीय व्यापारेण व क्षेपेण व्याहारव्ययदारमादाय स्वकीयान्मुक्तिलक्ष्मीसमालिङ्गनाम्यासात् कण्ठदेशादखिल मही बल्यवश्यसादेशमाठामिव वारसारखमुक्ताफला मेकावली www | पौवराज्याय समादिश्य व पवन्धविवाहमहोत्सवाच खेदमोद मन्यमान सर्ग *सामन्तवर्ग विचितबहुभावन स्नेह करते हैं, एवं गुरु के प्रसाद प्रसन्नता ) के अवसर पर जिनका हृदय प्रसन्न होजाता है, वे पुत्र, प्रिय से पवित्र कीर्ति के स्थान है, उनका जन्म महोत्सव अमूल्य या दुर्लभ है और वे पुत्र की कामना करनेवाले लोगों के कुलमण्डन हैं एवं राज्यलक्ष्मी के निवास स्थान है || १६५ ।। अपने तेज ( सैनिक शक्ति व कोश-शक्ति) के माहात्म्य वश अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक महान आनन्द उत्पन्न करनेवाले ऐसे हे राजाधिराज ! 'आत्मा में पुत्रः' अर्थात्- 'निश्चय से पुत्र पिता की आत्मा है' यह वेदशास्त्र के मर्मज्ञ गृहस्थों का श्रीनारायण द्वारा माननीय ऐति' (चिरकाल से चली आनेवाली वैदिक मान्यता ) है, अतः हे तात! इस समय पुत्र के सिवाय दूसरा कौनसा मोक्ष-स्थान पर्याधारण का अवसर है ? अर्थात्-पुत्र ही मोक्ष देनेवाली तपश्चर्या है। इसलिए अपने वंशरूप बाँस वृक्ष की वृद्धि हेतु भूमिस्थान- सरीखे पुत्र को छोड़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। क्योंकि शाकारों ( व्यास, वाल्मीकि, याहवल्क्य व पाराशर आदि ने कहा है कि जो अपने कुल की उन्नति संबंधी विचार के हाता पिता की पापकर्म के आगमनवाले पुनर्भव-संगम से रक्षा करता है, उसे 'पुत्र' कहते हैं। इसलिए जब पूज्य आप राज्यलक्ष्मी व तपोलक्ष्मी का आश्रय किये हुए होंगे तब मैं उसप्रकार चापके सह- ( साथ) गमन में तत्पर रहूँगा जिसप्रकार आपके शरीर की छाया आपके सह-गमन में तत्पर रहती है ।।१६६|| इसप्रकार स्थिरमनोवृत्ति युक्त व उक्तप्रकार की प्रतिज्ञा करनेवाले मेरा पक्तप्रकार का बचनव्यापार ( कथन ) उन्होंने, वेषों द्वारा भी उल्लङ्घन न करनेयोग्य चेष्टावाली अपनी स्रुकुटी की प्रेरणा से रोका। स्पात् — उन्होंने अपने कंठदेश से, जिसके समीप मुक्तिरूपी लक्ष्मी का आलिङ्गन वर्तमान था, 'एकावली' नामकी माला ( हारविशेष) को, जिसमें उज्वल व सर्वश्रेष्ठ एवं बहुमूल्य मोती-समूह पिरोये हुए थे और जो ऐसी मालूम पड़ती थी, मानों - समस्त भूमण्डल को वशीकरण करने के निमित्त की माला ही है, निकालकर मेरे कुण्ठ पर दी --पहिना ही । तत्पश्चात् उन्होंने समस्त अधीनस्थ नृपसमूह को, जो कि दुःख व सुख श्री बुद्धिंगत सृष्टि कर रहा था । अर्थात् — मेरे पिता की दीक्षा धारण करने का समाचार श्रवण कर विशेष * 'खेदमोदमन्दायमाने' इति ग० । * 'सर्वसामन्त' इति ग० । १. रूपक ६ समुच्चयालंकार । २. उतं च उपनिषत्काण्डे - 'अथ त्रयो वा लोका मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक' इति । सोऽयं मनुष्यलोकः नाम्पेन कर्मणा पितृलोकः, विद्यमा देवलोकको क्यानां श्रेष्ठतस्माद्विद्यां प्रशंसन्ति । ३. उपमालंकार । २१ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये परिजनं च भगक्त: समस्त तस्कन्धोरणसमर्थमतिप्रसरस्य संयमवरस्य महर्षेः सनिकर्षे ममोजसामजमदमहोदधितरसंसमिष व्यनियमपहायाभिलपिसमाधविश्व । सइन्धरेगुभम महादेच्या पागनागस्थ तुरगस्य प्रधानुकलात्मन्यहनि विहितगणकाद्वान: प्रतापवर्धनः सस्थपसिः सेनापतिः परिकल्पितसकलपट्टबन्धोत्सवोपकरणसंभारः शुभसंरम्भसारः पुण्यपानीपपूतोरान्ताश्रमालमविप्रायाः सिप्रापास्तीरतमनविराजमानहरितः सरित: फूले कमनीयली पयोक्तलक्षणायां प्राप्रवणायां च भुवि समं समाचरितमहापाथीप्रचारेण साखानगरेपानेकपक्तिमेतदुचिससिविचित्रवस्त्रोभरपनीतापमभिषेकमण्डपममेकतोरणमङ्गवैदिकावासविभक्तकक्षान्त समि कार्य वित्तप्य, दिशि दिशि निवेशिताशेषनरेश्वरशिविरः सपरिवारः समाहृय गजवाशिवायोरभिट्टसर्वशमुखतासमहामा शालिहोत्रं च महासाधकम् दुःखी व मेग ( यशोधर राजकुमार) राज्याभिषेक श्रवण कर सुखी होरहा था और विशेष प्रेम प्रकट करनेवाले कुटुम्बीजनों को बुलाकर, मुझे युवराज-पद पर स्थापित करने की तथा मेरा राज्यपट्टवन्ध-महोत्सव और विवाहमहोत्सव करने की आज्ञा दी। इसके अनन्तर उन्होंने भगवान ' ( इन्द्रावि द्वारा पूज्य ) व समस्त द्वादशाह-शास के झान से प्रौढ़ प्रतिभाशाली 'संयमधर' नामक महर्षि के समीप जाकर ऐसे केश-समूह का, जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-कामदेवरूपी हाथी के मदरूप महासमुद्र की तरङ्ग पक्ति ही है, पंचमुष्टिपूर्वक लुबन करके जैनेशी दीक्षा धारण की। सत्पश्चात् ऐसे 'प्रतापवर्द्धन' नाम के सेनापति ने दूसरे दिन निम्नप्रकार कार्य सम्पन्न किया, जो वास्तुविधा के विद्वानों से सहित था। जिसने मेरी और अमृतमती महादेवी के राज्यपट्ट-( मुफुट) बन्धसंबंधी और हाथी व घोड़े के उत्सव-संबंधी अनुकूल दिन में ज्योतिषियों को बुलाया था। जिसने राज्य पट्ट बाँधने के महोत्सष-संबंधी उपकरण-समूह एकत्रित कर लिया था और जो माङ्गलिक प श्रेयस्कर कार्यो के अनुष्ठान में अत्यन्त चतुर-प्रवीण था। उसने जलपूर द्वारा तटवर्ती श्राश्रमवासी मामलों को पवित्र करनेवाली व तटवर्ती नवीन वृक्षों से शोभायमान दिशावाली सिप्रानदी के अत्यन्त रमणीक तट-संबंधी, वास्तुविद्या में कहे हुए लक्षणों पाली पूर्वदिशा की सर्वश्रेष्ठ अथवा सुसंस्कृत पृथिवी पर, ऐसा राज्याभिषेक व विवाहाभिषेक के योग्य सभामण्डप व भूमिप्रदेश वनवाया, जो निर्माण किये हुए ऐसे शासानगर (प्रतिनगर-मूलनगर से दूसरा नगर ) के साथ एक काल में वनवाया हुआ शोभायमान होरहा था, जिसमें महावीथियों (पाजारमागों) की रचना कीगई थी। जिसमें (अभिषेक-मण्डप में) नाना प्रकारफे रत्नसमूह जड़े हुए थे। अर्थात-सुवर्णमयी व रसमयी शोभा से सुशोभित था। जो राज्यपट्टाभिषेक व विवाहाभिषेक के योग्य था। जिसने अत्यंत मनोज्ञ बसों के विस्तार से सूर्य का आतप (गर्मी) रोक दिया था। जिसकी निवास-भूमियाँ, बहुत से तोरणों से मण्डित महलों, वेदिकाओं व धनाढ्यों के निवासस्थानों से पृथक पृथक निर्माण कीगई थीं। तत्पश्यात्-अपने परिवार सहित उस प्रतापपर्धन सेनापति ने समस्त दिशाओं में समस्त राजाओं की सेनाएँ स्थापित करते हुए ऐसे 'उद्धताकुश' और 'शालिहोत्र' नाम के क्रमशः हस्तिसेना व अश्व-सेना के प्रधान अमात्यों को, जिनका फुल (वंश ) क्रमशः हाथियों व घोड़ों की सेना का अधिकारी था, बुलाकर कहा * 'चानुकलेऽहनि' इति क, गः । १. 'उक्तं च-ऐश्वर्यस्य समप्रस्य तपसो नियमः श्रियः- वैराग्यस्थाप मोक्षस्य षण्णा भग इति स्मतिः ॥ एवं पर्यविशेषणविशिष्टो भगो विद्यते यस्य स भवति भगवान तस्य भगवतः। संस्कृत टीका से संकलित-सम्पादक Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः १६३ 'भविपरितमुभाभ्यामपि भवन्भ्यामु भयमयनेविष्टः स्वामिहितप्रतिष्टः सहोलीय हे अप्याथे सेनाले देवस्थ विसापनीये. त्याचात् । तावुभावपि वरचनातथाच तत्र परशुरामान्वयावकाश उद्धता कुशस्तावदेवं मां व्यजिशपत्-'देव, प्रतापपर्धनसेनापतिनिदेशाम्मयोत्साहिताभिनिवेशा गुरुराजमुख्याध्यामिभचारियाशवल्पयवाद्धलिनरनारदराजपुत्रगौतमादिमहामुनिप्रणीतमवातियाधमाइसमीझमानमनःप्रचारर मतीतपरमेश्वरप्रसादासादिषवीरामृतगणाधिपत्यसत्कारा विदितनिरषयोपनिषत्स्रिपरिषदेवस्थानी किनीतियफबई सपर्याई कलिविषयाधिपतिपहिसप्रतिवर्षदेयवेवण्डमखुलीमध्ये सिन्धुरमेकमुदयगिरिनामर्क परीक्ष्य मन्मुखेनैवं विद्यापयति-- सथाहि--कलिङ्ग बनेन, हे उद्धताश! और हे शालिहोत्र ! आप दोनों, स्वामी के हित-साधन में तत्पर रहनेवाले और हस्तिविधा और अश्वविद्या के पारदर्शी विद्वान पुरुषों की सहायता से परीक्षा करके सना के प्रधान अङ्ग ऐसे सर्वश्रेष्ठ हाथी व सर्वश्रेष्ठ घोड़ा इन दोनों के विषय में प्रस्तुत यशोधर महाराज के लिए निवेदन कीजिये। प्रसङ्ग-इसप्रकार उक्त प्रतापबर्द्धन सेनापति ने उक्त कार्य सम्पन्न किया। तत्पश्चात् उन दोनों उद्धताङ्कश (इस्तिसेना-प्रभुख) और शालिहोत्र ( अश्वसेना-प्रमुख) ने भी उक्त प्रतापर्धन सेनापति की आज्ञानुसार इस्तिथिया व अश्वविद्या के वेत्ता विद्वानों के साथ हाथी व घोहे की परीक्षा करके उनमें से परशुराम-कुल में उत्पन्न हुए उद्धताङ्कश ने मेरे ( यशोधर के ) पास आकर निम्नप्रकार निवेदन क्रिया-हे देष ! प्रतापवर्धन सेनापति की श्राजानुसार ऐसी विद्वन्मण्डली ने, कलिङ्ग देश के राजा द्वारा भेजे हुए और प्रतिवर्ष आपके लिए भेंट में देने योग्य हस्ति-समूह में से जगत्प्रसिद्ध, एक (अविधीय ) और आपकी हस्ति-सेना का मण्डन ( सर्वश्रेष्ठ) एवं पाद-प्रक्षालनरूप पूजा के योग्य ऐसे उदयगिरि नामके हाथी की परीक्षा करके मेरे मुख से आपकी सेवा में यह विज्ञापन कराया है-कहलवाया है। कसी विद्वन्मण्डली से परीक्षा करके ? जिसका परीक्षा करने का अभिप्राय, मेरे द्वारा और गुरूप्रमुख तथा राज-प्रमुख द्वारा ( धनादि देकर ) उत्साहित किया गया है। अर्थात्---उद्यम में प्राप्त कराया गया है और जिसका मानसिक व्यापार इभचारी, याज्ञवल्क्य, वाद्धलि था बाहलि, नर, नारद, राजपुत्र, एवं गौतमआदि महामुनियों द्वारा रचे हुए गज-(हाथी) परीक्षा-संबंधी शाखों के पठन-पाठन के अभ्यास-वश विशेष प्रवृत्त होरहा है, अर्थात्-विशेष उन्नतिशील है। एवं जिसने भूतपूर्व परमेश्वर ( यशोर्घमहाराज) के प्रसाद से हस्ति-शिक्षा देनेवाले वीर-समूह (विद्रान प्राप्त किये हैं। जिसको हस्तिबध द्वारा सम्मान प्राप्त हुआ है और जिसने निर्दोष उपनिषद (तदधिकृत प्रकरण-गजविद्या-संबंधी शास्त्र) का ज्ञान माल किया है। अथ उद्धताइश ( हरितसेना प्रमुख ) मेरे समक्ष उदयगिरि नाम के प्रमुख हाथी की उन महत्वपूर्ण विशेषताओं (प्रशस्त गुण, जाति व कुल-आदि) का निम्नःपकार निरूपण करता है, जिन्हें 'प्रतापवर्द्धन सेनापति ने विद्न्मण्डली द्वारा परीक्षा कराकर मेरे प्रति (प्रस्तुत यशोधर महाराज के प्रति ) कहलवाया था । हे देव ! प्रतापयर्द्धन सेनापति ने निम्नप्रकार निवेदन किया है कि वह उदयगिरि नामका हाथी मन की अपेक्षा से 'कलिङ्गज' ( कलिङ्ग देश के धन में उत्पन्न हुआ) है। अर्थात्-हे राजन् ! 'माज्ञिकजा मजाः श्रेष्ठाः इति वचनात्' अर्थात् कलिङ्ग देश के वन में उत्पन्न हुए हाथी सर्वश्रेष्ठ होते हैं, ऐसा विद्वानों ने कहा है, अतः यह सर्वश्रेष्ठ है। १. उकै च--'उत्कलानां च देशस्य दक्षिणस्यार्णवस्य च । सत्यस्य चेव विन्ध्यस्य मध्ये कालिजर्ज वनम् ॥१॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये होनेरायणय, सम प्रकारेण, देशेन साधारणम्, भद्रं जन्मना, संस्थानेन समसंबन्नम, उत्सेधामामपरिणाहै। सामसुविभक्तपर्वलायम् , मायुपा द्वादशापि दशा भुक्षामम् , अन स्वायतच्यायतविम् , भाशंसनीय बर्वप्रभाछायासंपत्तिभिः, मारमचारशीशोमादित, प्रासं प्रमाणपशमाभ्याम् , यह ऐरावण नामक सर्वश्रेष्ट इस्तिफुल का है एवं पर्वत और नदियों-आदि के मध्य में इसका गमन सम (अषकसौधा) है, अतः समप्रचार गुण की अपेक्षा से भी श्रेष्ठ है " ।। । इसीप्रकार हे राजन् ! यह समस्त देशों में साधारणगति ( न रुकनेवाली गति) से संचार करता है, श्रवः देश की अपेक्षा से यह साधारण गुणाला है। अर्थात्-विद्वानों ने कहा है कि जो, जलप्राय देशों में और निर्जल देशों में वेरोक गति से संचार करता है, उसे साधारण गुणवाना हाथी कहते हैं। अथवा इसे सभी देश रुचते हैं, अतः साधारण गुण-शाली है। हे राजन! भद्रजाति होने के फलस्वरूप यह श्रेष्ठ है। समचतुरस्त्रसंस्थान वाला इसका शरीर सुसम्बद्ध ( सुडोल)है। अर्थात-इसके शरीर का आकार ऊपर, नीचे और बीच में समानभागरूप-मुडोल-है। एवं उच्चता (ऊँचाई), लम्बाई ५ विशालता न गणों से इसके समस्त शरीर की आकृति समान रीति से-सुरोलरूप से अच्छी तरह विभक्त की गई है. अतः सुडोल गुण के कारण से भो इसमें विशेषता है। यह, दश वर्षवाली एक अवस्था ऐसी-ऐसी दो अवस्थाएँ भोगनेवाला है। अर्थात्- इसकी भायु वीस वर्ष की है, अतः इसमें विशेपता है। इसीप्रकार इसके शरीर की त्वचा वी कान्ति ऊँची-विरली वालो- हो रक्षित है। प्रति..-१३ पान हाथी है, जिसके फलस्वरूप इसकी त्वदाओं पर ऊँची ध तिरछी सलें नहीं हैं। अथवा इसका शरीर दीर्ध व पृथु है। इसीप्रकार यह रीरिक श्याम-श्रादि वर्ण, कान्ति व छायारूप संपत्तियों से प्रशस्त है और यह, शारीरिक प्राचार, शील (मानसिक प्रकृति), शोभा ( शारीरिक वृद्धि की विशेषता ) और अर्थवेदिता ( पदार्थशान ) इन गुणों से कल्याणकारक-शुभ सूचक है एवं यह लक्षणों (जन्म से उत्पन्न हुए शारीरिक शुम चिन्हों) और व्यञ्जनों ( जन्म के बाद प्रकट हुए शारीरिक चिन्हों) से अलङ्कत होने के फलस्वरूप प्रशस्त (श्रेष्ट) है। अथवा सुन्दर शुण्डादण्ड-आदि लक्षणों प पिन्दु व स्वस्तिकादिक व्यजनों से अनइस होने के सरयू प्रशस्त है। १. या चोफ-कुलजातियोल्पश्चारधर्मवलायुषाम् । सत्वप्रचारसंस्थानदेशालक्षणरंहसा ॥१॥ एषां चतुर्दशानां तु सो गुणानां समाश्रयः । स रामो यागनागः त्याभूरिभूसिसमध्ये ॥२॥ अर्थात् - वह यागनाग ( सर्वश्रेष्ट हार्थी ) राजाओं के ऐश्वर्य की विशेष वृद्धि करता है, जो कि कुल, जाति, पय, रूप, चार, वर्म ( शरीर ), वल, आयु, सत्य, प्रचार, संस्थान, देश, लक्षण व रंहस इन १४ गुणों से विभूषित होता है। २. सवा चोक--'श्वेतयों भवति स ऐरावणगडकुल उच्यते । ३. तया चो-'हरियो श्यामवर्णो वा कालो वा व्यरूवर्णकः । हरितः फुसदाभो वा कुलवर्णः समुध्यते ॥१॥ ४. तथा चोक-मिश्रो पा गिरिचारी वा कनिप्राधारजानिकः । साविको भव्रजातिश्य स तस्याकादिमिः एमः ॥९॥ इत्येतेलक्षणयुतं यामनार्ग प्रचक्षते ॥' संस्कृत दीका पृ. २९५ से समुच्यास--सम्पादक ५. तदुक्तम्-'लक्षण अन्मसंबन्धमाजीवादिति निश्चितम् । पश्चायति मजेयस्तु तव्यजनमिति स्मृतम् ॥१॥ प्रणा कररपनादिक लक्षणं विन्दुस्वस्तिकादिकं व्यम्भनम् , संस्कृत टीका पू. २९२से संकलित-संपादक Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः उत्तम पलवमंगयोगः, R_ संबन्धिलक्षणेम, भवन्तमिवानव गतिरूपसत्यस्वरानकैः प्रियालोकम्, विनायकमिव पृथुपरिपूर्णायतमुख, अशोकयुष्याभवारुण तालुने, कमरकोशांमध शाशप्रकाशमन्तास्थ, पोनोपत्रिशकायमुरोमणिविक्षोभकटककपोलवसु, अनुम्नतामपानसुप्रमाणकुम्भम्, पूर्णस्वकन्धरम्, अलिनीलघनदीपस्निग्धशपेशलम्, समस्तव्यूहमस्तकपिण्डम्, अनसपासनावकाराम, आरोपिसकामुकाकारपरिणतानुवंशम्, सजक्षिम्, अनुपक्षिधपेसकम्, पित्संवतकोन्नतभूमिदेशपशिंगोलाप्याधिम्, अभिव्यक्तोभरपुष्करम्, वराहजघनापरम्, आम्रपलाइसंकाशकोशम , अचीव सुप्रविधितैः समुहकर्माकृतिभित्रापरसबैः पाताल्सले निपतन्तीमुद्धरतमिव मेदिनीम्, उत्सन्दिरष्टमीडिया शनिभनिविधरिलष्टविशतिनामयूसरोह वनसरसि विजृम्भमाणस्य तब यशोहंसस्य मृणालजालानीच परिकल्पयन्तम्, हे देव! यह, वल (मार्ग-गमन, रोकना, मर्दनकरना य भारवाह्न की शक्ति ), शरीर, आयु ( २३ वर्ष से लेकर ६० वर्ष) और जय (येग, उदाहरणार्थ-भद्रजाति के हाथी उत्तम वेग ) इन गुणों के कारण श्रेष्ठ है। यह ब्रह्मदेवता के लक्षणोंवाला होने से ग्राम है। अर्थात्-मनोज्ञ दृष्टि मादि लक्षणोंपाले हाथी को 'ब्राह्म' कहते हैं। हे राजन् ! यह निर्दोषति (हस्ती व अश्यमादि का गमन), रूप ( देव, मनुष्य व विद्याधर-श्रादि का सौन्दर्य ), सत्वं ( मनुष्य, यक्ष व गन्धर्व-श्रादि की शक्ति) और स्वर (मेघ ष शा-आदि की ध्वनि) की समानता से उसप्रकार प्रियदर्शन-शाली है जिसप्रकार आप निर्दोष-प्रशस्त-मन, रूप ष सत्यादि से प्रियदर्शन-शाली है। जो उसप्रकार विस्तीर्ण, परिपूर्ण और पीमुख से शोभायमान है जिसप्रकार विनायक-श्रीगणेश-विस्तीर्ण, परिपूर्ण और दीर्घमुरू से विभूषित है। जिसका तालु इसप्रकार अस्पष्ट लालिमा से अलत है जिसप्रकार 'अशोक वृक्ष का प भस्सष्ठ लालिमा से अलङ्कत होता है। इसके मुख का मध्यभाग, लालकमल-सी कान्ति से शोभायमान है। जिसका शरीर, हवय, भोणिफलक ( कमर के दोनों बगल ), गएष्ठस्थल और ओठ-प्रान्तों में स्थूल और वृद्धिंगत होरहा है। जिसके दोनों मस्तक-पिण्ड न तो अधिक ऊँचे है और न अधिक नीचे झुके हुए है, फिन्तु उत्तम प्राकृति धारण कर रहे हैं। अर्थात्--युवती स्त्री के कुचकलशों जैसे विशेप ऊँचे-नीचे न होकर इचम भाकार के धारफ है। जिसकी गर्दन सरल, मांसल ( पुष्ट ) और छोटी है जो भँवरों सरोदे र. घने, दीर्ष और कान्सि-शाली केशों से मनोज्ञ है। यह सम (भव्यक्त या अवक) व विशेषोत्पल मस्तकपिण्ववाला व विशाल पीठ के अवकाश वाला है। जिसका पृष्ठभाग क्रम से होरी चढ़ाए हुए धनुषाकार को परिणत (शत) हुआ है। जिसका उदर बकरे-सरीखा दोनों पार्श्वभाग में ऊँचा है । जिसके पुरा (फूल) का मूलभाग स्थूल नहीं है। जिसकी पूँछ अपने प्रदेश में कुछ ऊँची और पृथ्वीतल का स्पर्श रनेवाली पेलकी पूँष-जैसी है। जिसकी सैंड के दोनों भाग स्पष्ट दिखाई देते हैं। जिसके शरीर का पश्चिम भाग जंगली सुअर की अपा-सरीखा है। जो आम्र-पल्लव-सरीखे 'अण्डकोशवाला है। जो ऐसे भागे और पीछे के शरीर संबंधी सलों द्वारा, जो विशेष निश्चल हैं और पिटारी व कछुए की आकृत्ति-सरीखे हैं, ऐसा मालूल पड़ता है मानों-रसासल में डूब रही पृधिषी को ऊपर की ओर उठा रहा है। जो अपने पारों पैरों के बीस नखों के ऐसे किरणारों से, जो ऊपर गमन करते हुए अष्टमी के अर्धचन्द्र खरीखे शुभ्र एवं निश्चल और परस्पर में संलग्न है, ऐसा प्रतीत होता है-मानो-बीचलोक । रूपी वासाय में विशेषरूप से व्याप्त होनेवाले आपके यशरूपी हँस के भक्षणार्थ मृणाल-समूहों को ही दिखा रहा है। १. तदुचाम्-'ननु विन्दुसदन्तेषु कुशातलनिभच्छविः। चारुदृष्टिरवमन्येक्षो प्रायः सर्वार्थसाधनः ॥१॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ यशस्वित्तकचम्पूकाव्ये माला पसारतकोमलाभोगेन भविष्कहनेकजन्यजयादेशरेखाभिरिव कसिभिश्विदलिमिरवक्तेन मुनोतसा सूदुरीविस्तालिना करेग मुहम दुरितस्ततो विनिकीमथुपायशीकरैदिक्पालपुरपुरन्त्रीणां पट्टबन्धावसस्मिन् मुक्ताफलोपापनानीव दिराम्तम्, अनवरतमुना मरूपवागुरुसरोजकेतकोस्पलकुमुवामोसनादिना मदवदनसौरभेग भवदैरवर्षदर्शनाशपाती नामम्बत्वरकुमारकामाममियोस्क्षिपन्तम् , अम्भौधरगम्भीरमधुरध्वनिना हितेन सकल्यागनागसाधनाविपरमिवात्मनि विनिवेदयन्सम, अरालपक्ष्मणः स्थिरप्रसन्नायतपतरताकृष्णदृष्टिभागस्य मणिरुको लोचनपुगकस्वातविन्दपरागपि स्वैरपाङ्गपातः अबङ्गलासु पिष्टातकचूमिव सिम्सम्, भमाग्दक्षिणोतेन ताम्राहलोपशोभिना समाजातमधुसंनियमद्विसन विधानमिव नारुलोकावलोकनकुसूहसिम्पारस्थल्कीः सोपानमार्ग, मसिरान्तसम्म मारोह्येन वर्णवालहयेनोद्याददुन्दुमीनां नादमिव पुनरुकयन्तम्, उदासया ५ मर्वयम्तमिव परविमशिखराणि जो ऐसे शुण्डा-चण्ड ( स ) द्वारा, बार-बार यहाँ वहाँ फैंके हुए उदार-संबंधी शुभ जल-कषों से ऐसा प्रतीत होरहा है, मानों-इस प्रत्यक्ष दिवाई देनेवाले राज्यपट्ट-बन्ध के अवसर पर इन्द्र-आदि दिक्पाल-नगरों की कमनीय कामिनियों के लिए मोसियों की भेंटें अर्पण कर रहा है। जिसकी (शुण्डदण्ड की) पूर्णता या विस्तार अनुक्रम से स्थूल (मोटा), गोलाकार, दीर्ष और सकमार है और जो कुछ संख्यावाली ऐसी वलियों (भूड़ पर वर्तमान सिकुड़ी हुई रेखाओं) से, जो ऐसी मालूम पड़ती थीं मानो-भविष्य में होनेवाले अनेक युद्धों में प्राप्त कीजानेवाली विजयलक्ष्मी के कयन की रेखाएँ ही हूँ-मण्डित है। एवं जिसका मद-प्रवाह शोभा जनक है वया जो, कोमल, लम्बी और विस्तृत अङ्गलियों से अलङ्कत है । जो (प्रस्तुत-उदय गिरि नामक झी ), मद-व्याप्त अपने मुख की ऐसी सुगन्धि से, जो निरन्तर आकाश में उड़ रही है और चन्दन, धूप, कमल, केतकी-पुष्प, उत्पल और कुमुदों-श्वेत चन्द्रविकासी कमलों-की सुगन्धि की सहशता धारण का रही थी, ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-आपका ऐश्वर्य देखने के अभिप्राय से आये हुए देव और विद्याधरों के पुत्रों के लिए पूजा ही छोड़ रहा है। अर्थात्-मानों-उनकी पूजा ही कर रहा है। जो, पेसी चिंधारने की ध्वनि (शब्द) से, जिसकी ध्वनि मेघों-सरीखी गम्भीर और मधुर ( कानों को अमृत प्राय) है, ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-अपने में समस्त राज्यपट्ट-अन्ध-योग्य हस्ति-सेना का स्वामित्व प्रगट कर रहा है। जो ऐसे दोनों नेत्रों के कमल-पराग-सरीखे पिङ्गल (गोरोपना-जैसे वर्णशाली) कटाक्ष-विक्षेपों। द्वारा ऐसा प्रतीत होरहा है-मानों-समस्त दिशारूपी कमनीय कामिनियों पर सुगन्धि धूर्ण ही विखेर रहा कैसे हैं दोनों नेत्र, जिनकी पलकें घनी और स्निग्ध हैं। जिनके दृष्टि-भाग, निश्चल, निर्मल, दीर्थ, पिरोस्पष्ट, लालवर्णवाले और उज्वल ष कृष्ण हैं और जिनकी कान्ति शुक्ल, कृष्ण और लालमणियों जैसी ! है। जो ऐसे दन्त ( खीसें ) युगल द्वारा, जो कि सम ( शोभनविशालना-निर्गम-शाली ), सुनात (बके। हाल सी आकृतिवाले ) और मधु-जैसे वर्णशाली हैं। जो दक्षिण पार्श्वभाग में कुछ ऊँचे हैं एवं जो मुर्गे है। परमों की पश्चात् अङ्गलि-सरीले शोभायमान हैं, ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-स्वर्गलोक के देखने । कौतूहल करनेवाली आपकी कीर्वि के स्वर्गारोहण करने के लिए सोपान-( सीदियों) मागें की रचना रहा है। जो वादपत्र सरीखे ( विशाल ) ऐसे धोनों कानों की, जो कि सिराओं से अमुष्ट नहीं है (सिराबों नसों-से व्याप्त होते हुए), लम्वे, विस्तीर्ण ( चौड़े ) और विशेष कोमल हैं, [ताइन-वश उतार दुई पनि से जो ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-आनन्दभेरी की ध्वनि द्विगुणित कर रहा है। सो विशेष ऊँचा होने के फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होरहा है-मानों-पर्वतों की शिखरों को छोटा कर रहा है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवासः १६ सरसरभिः स्वरस्वतीहासा पद्दासिभिर्देवप्रभा पटलै स्वकीयशरीरश्रिवाया बीरभियः पर्यन्तेषु सितसर सिरुहोमहारमिथ सेपाक्ष्यन्यम्, अस्तरान्तराध्वजशङ्खचक्रस्वस्तिकनभयादर्धविन्यासाभिः प्रदक्षिणावर्त वृत्तिभिः सूक्ष्ममुख स्निग्धाङ्गनराजिभिरणुअविन्दुमालाभित्र मिचिसोचितप्रतीक, आपादितोत्सवसपर्यमिव विजयलक्ष्मी निवासम् एवमन्यैरपि द्दछविपुलय्यकनिवेश मनोहारिभिर्मानोन्मान प्रमाणसमन्वितैश्चतुविधैरपि प्रदेशैरनूनामतिरिक्तम्, आचक्षाणमिव ससघास्थिवस्वेन स्वामिनः समुद्रमुद्रासनं महामहीशमहामात्राणाम्, द्वादशस्वपि क्षेत्रेषु शुमसमुदायप्रत्यङ्गकम्, विध्यन्नयोगिनमिव क्षान्तं रूपादिषु विषयेषु दिवि सर्वशम्, असिसर्तिभित्र तेजस्विनम्, अभिजातमिवोदय प्रत्ययैर्विशुद्धन जो सर्वत्र व्याप्त होनेवाले और सरस्वती का हास्य तिरस्कृत करनेवाले ( विशेष उज्वल ) शारीरिक कान्ति-समूहों से ऐसा प्रतीत होरहा है-मानों— अपने शरीर पर स्थित हुई वीरलक्ष्मी के समीप श्वेतकमलों की पूजा उत्पन्न कर रहा है । जिसके शारीरिक अवयव ( अङ्गोपाङ्ग ) हाथियों की ऐसी रोम-राजियों और अत्यन्त सूक्ष्म बिन्दुओं से पूर्ण व्याप्त और योग्य हैं, जो किं सूक्ष्म अप्रभागवाली, स्निग्ध ( सचिकण ) तथा जिनके मध्य-मध्य में ध्वजा, शङ्ख, चक्र, स्वस्तिक, और नन्या की रचना पाई जाती है और जिनकी प्रवृत्ति प्रदक्षिणारूप आवर्ती ( जल में पढ़ने वाले भ्रम) सरीखी है। जो महोत्सव पूजन किये जानेवाले सरांखा मनोश प्रतीत होता हुआ विजयलक्ष्मी का निवास स्थान है। इसीप्रकार जो दूसरे ऐसे चार प्रकार के शारीरिक अवयवों ( देशसद्भावी, मानिक, उपधानिक व लाक्षणिक रूप were ) से, न तो न्यून ( कम ) है और न अधिक है, जिनकी रचना विशेष धनी, महान और प्रकट होने के कारण अतिशय मनोश है और जो मान ( ऊंचाई का परिमाण ), उन्मान ( तिरछाई ) और विशालता से युक्त है। जो सात प्रकार के गु" ( भोज, तेज, नल, शौर्य, सत्व, संहनन और जय ) से विभूषित होने के फलस्वरूप ऐसा जान पड़ता है मानों - महान राजाओं और महान हाथियों के स्वामियों के लिए आपके सात समुद्र पर्यन्त होनेवाले शासन ( राजकीय आशा ) को ही सूचित कर रहा है। जिसके बारह प्रकार के शारीरिक अपाङ्ग (लँड, दाँत, (खींसें ), मुख, मस्तक, नेत्र, क, गर्दन, शरीर, हृदय, जङ्गा व जननेन्द्रिय-आदि) पर शुभसमूह-सूचक शारीरिक फल ( चिन्ह ) पाये जाते हैं । जिसप्रकार वीतराग मुनि चक्षुरादि इन्द्रियों के विषयों-रूपादि - से चलायमान नहीं होता प्रकार ओ चक्षु आदि इन्द्रियों के विषयों से चलायमान नहीं है । जिसप्रकार दिव्य ऋषि ( फेवलज्ञानी महात्मा मुनि ) सर्वज्ञ ( समस्त पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञाता ) होता है उसीप्रकार जो ( सर्व वस्तुओं का ज्ञाता ) है । जो उसप्रकार तेजस्त्री" ( प्रतापी - भारवहन समर्थ ) है जिसप्रकार अनि तेजस्वी होती है। जो उदयों ( शत्रु के सामने हमला करने प्रस्थान करना व पक्षान्तर में जन्म) और प्रत्यय ( समोप में गमन करना व दूसरे पक्ष में विश्वास ) से उसप्रकार विशुद्ध ( पवित्र या व्याप्त ) है जिसप्रकार कुलीन पुरुष उदय (जन्म) और धर्मनिष्ठा ( संस्कार- आदि) तथा प्रत्यय ( विश्वास - पात्रता ) से विशुद्ध होता है । १. उग्व– देशसद्भाविनं केचित् मानिका थोपधानिकाः । केचिलाक्षणिकारचेति प्रदेशाव चतुर्विधाः ॥१॥ २. ३. तथा चोक्तम्—'कमानं तु विज्ञेयमुन्मानं तिर्यगाश्रयम् । प्रमाणं परिणाहेन त्रिष्वयं लक्षणक्रमः ॥१॥ ४. तथाहि--' ओजस्तेजो यलं शौर्य सत्यसंहननं जयः । प्रशस्तैः सप्तभिश्चैतेः स गजः सप्तवा स्थितः ॥१॥ ५. तथा चोकमू--'भारस्यातीय वनं विद्यात्तेजस्विनं गजम्' Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ यशस्तितकचम्पूकाव्ये योयमिव कामवन्तम्, अवन्तिमिवासंतापम्, भापोधनासरमिव मनस्थितम्, मानमिव पुभगम्, भास्थान मिवान्वेशमपि गुमरवानाम् । मनावसरे परिकलामाभिधानो बारजीवनोऽबमीट गानासाहत्तानीमानि--- स्मानाबरमूच्चोशासकलावस्ते तादात्मभू___ELEनि सारसीयासी । मनाक्षीसिविलक्षमवलांस्ते इस्तिमस्ते नप प्रायः प्रीतिकृतो भवतु विवपश्रीकेलिकोसिप्रदाः ॥१६॥ प्रतः अभाते परमेशिनन्दनान्समय पत्यकारिणो नरेश्वरः । न केवलं तस्य रणेषु शीतयः स सार्वभौमत्व भवस्यसंशयम् ॥१६॥ सामोशवाय शुभलक्षणसहिताय विमात्मने सकलदेवनिकेतनाय । बस्याणमङ्गलमहोत्सवकारणाय तुभ्यं नमः करिवराय वराय नित्यम् ॥१६९॥ यो ससप्रकार कामयान' (समस्त प्राणियों का पातक ) है जिसप्रकार श्रीनारायण कामवान् (प्रयुन नाम के पुत्र से अतात ) होते हैं। जो उसप्रकार असंताप' ( शमादि को सहन करनेवाला) है जिलाधार चन्द्रमा पसंताप (शिशिर) होता है। जो उसप्रकार मनस्वी ( समस्त कर्म-भारा पहन-मादि सहन करनेवाला ) है जिसप्रकार युद्ध में अप्रेसर रहनेवाला पीर पुरुष मनस्वी (स्वाभिमानी) होता है। जो उसप्रकार सुभष" (अल्पाहारी) है जिसप्रकार अनायून -विजिगीषु ( विजयलक्ष्मी का इच्छुक राजा या अल्पाहारी) सुभग ( भाग्यशाली) होता है। इसीप्रकार जो दूसरे गुणरूपी रामों की पसावर सानि ( उत्पत्ति स्थान) है जिसप्रकार खानि, माणिक्यादि रनों की उत्पत्ति के लिए सामि। (समर्व) होती है। इसी अवसर पर 'करिकलाम' ( हाथियों की कला-शाली ) नाम के स्तुति पाठक ने हाथियों की प्रशंसा-सूचक निमप्रकार शोक पढ़े हे राजन् ! ब्रह्मा ने सामवेद-पदों का गान करते हुए, ऐसे जिन हाथियों को, जो कि गणेश जी के मुख-जैसी श्राकृतिशाली और पृथिवी-मंडल की रक्षा करने में समर्थ शक्तिवाले है, इस्त पर धारण किए गए उस प्रताप-शील पिण्ड-खण्ड से बनाया, जिससे सूर्य उत्पन हुधा है। वे आपके हाथी, जो कि विजयलक्ष्मी की कीदा से उत्पन्न होनेवाली कीर्ति को देनेवाले हैं, आपको विशेष हर्ष-जनक होवें ॥ १६॥ इसलिए जो राजा प्रातःकाल के अवसर पर ब्रह्मा के पुत्र झाथियों की पूजा करके दर्शन करता है, वह केवल युद्धों में ही विजयश्री प्राप्त करके कीनिभाजन नहीं होता किन्तु साथ में निस्सन्देह चक्रवर्ती भी होजाता है। ॥ १६ ॥ तुझ ऐसे श्रेष्ठ हाथी के लिए वरदान के निमित्त सर्वदा नमस्कार हो, जो कि सामवेद से उत्पन्न हुआ, कल्याणकारक चिन्हों से विभूपित, अत्यन्त मनोह, समस्त इन्द्रादिक देवों का निवास स्थान एवं शुभ, माल (सुख देना और पापध्वंस करना) महाम् मानन्द की उत्पत्ति का कारण है ॥ १६६॥ १. विर्घा सर्वसत्वाना कामवन्तं प्रचक्षते । २, तथा चोकर-'अमादीनां च सहनादसंतापं विदुर्घ पाः । ३. 'सर्वधर्मसहत्वाच्च विद्यावायं मनस्विनम्'। ४. तदुकम्'अल्याहारेण यस्तृप्तः सुभगः स गजोत्तमः'। ५. पायनः स्यादोदारको विजगीषाविवर्जिते'। सं. टी. पृ. १९८-२९९ से संकलित-सम्पादक ६. उपमालंकार। ५. समुच्चयालंकार । ८. अतिशयालंकार । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आधासः १६९ स्वेरिकास्मातुपसि प्रबुवाष्टात्मसम्मेन्द्रियहरयमूर्तेः । दुःस्वप्रदुष्टप्रदुष्टचेष्टाः प्रयान्ति मार्फ सहसा नृपस्थ ॥१०॥ ये पूजयन्ति करिणं तयशदीझ मन्त्राक्षरैपितकर्णयुगं मोन्त्राः । तेषां शुभानि म हितकान्तिचेष्टाछायादिभिः स फययेदहितक्षयं ॥१॥ वृत्तानुपर्षपृथुकोमलदीर्घहस्तः पनाभपुष्करमुखः करूविकनेत्रः। पष्टीरदो बहादुन्दुभिधोकाश्चन्द्रार्धविशसिनखः करटी जयाय ॥१२॥ वीरः प्रधारनिरितस्ततः पुरः करेगुभिर्मासैनिकायबन्धनैः । आवोधी कविगो पलागी पनाम इमिनाम : १३ इत्य सिन्धुरधिमामि वस्तः शुस्वा रिपूर्णा गण: त्रासादस्तसमस्तविग्रहमर स्थाभृत्य इस्यापरन् । एते हस्तिन एम बाजिनियहः झोणीयमेते वयं देव ब्रूहि यत्र भाप्ति मयतः सर्वत्र सम्मा परम् ॥१७॥ जिसप्रकार प्रात:काल में उवित हुए और प्रसन्न चक्षुरादि इन्द्रियों से दर्शनीय मूर्तिवाले सूर्य के दर्शन से दुष्टस्वप्न, दुष्टपह और पापचेष्टाओं के फल ( दुःख ) शीघ्र नष्ट होजाते हैं उसीप्रकार प्रातःकाल में जागे हुए और प्रसन्न चक्षुरादि इन्द्रियों से दर्शन करने योग्य शरीरवाले हाथी के वर्शन से भी राजा के दुष्टस्वप्न, दुष्टप्रद और पापचेष्टाओं के फल (दुःख) शीघ्र (तल्काल) नष्ट होजाते हैं। ॥ १७ ॥ जो राजा लोग ऐसे हाथी की पूजा करते है, जिसकी यम-वीक्षा कीगई है। अर्थात् राज्यपट्ट-बन्ध-मादि के अवसरों पर राजा द्वारा जिसकी यशदीक्षा (पूजा) कीगई है और जिसके दोनों कानों में मन्त्राक्षर जपे गये हैं ( स्थापित-उचारण-किए गए है), वइ हाथी, मद (गण्डस्थलआदि स्थानों से बहनेवाला दानजल ), गर्जना (चिंघारना), कान्ति ( प्रभा ) और चेष्टा ( कर्ण और सूंडआदि अङ्गोपाङ्गों का संचालन आदि व्यापार ) एवं छाया ( तेजस्विता ) इत्यादि गुणों द्वारा उन राजाओं के कल्याण सूचित करता हुआ शत्रु-विनाश को भी मूधित करता है ।। १७१ ॥ ऐसा हाथी शत्रुओं के ध्वंस हेतु है, जिसकी सूंड, बर्तलाकार (गोल श्राकारवाली ), अनुक्रम से स्थूल ( मोटी), कोमल ( मृदु) और लम्बी होती है। जिसकी सूंह का अप्रभाग रक्तकमल-सरीखा अरुण (लाल) है। जिसके दोनों नेत्र चटक पक्षी-सरीखे और दन्त ( खीसे ) यष्टी( फल-भार से मुकी हुई उन्नत वृक्ष-शाखा ) जैसे एवं दोनों कर्ण विस्तृत और दुन्दुभि (भेरी) की ध्वनि सरीखे शब्द करनेवाले हैं एवं जिसके पैरों के वीसों नख अर्द्धचन्द्र-सदृश है। ।। १७२ ।। राजा को उस यागइस्ती (राज्यपट्ट-वध की शोभा वृद्धिंगत करनेवाला सर्व श्रेष्ठ हाथी) की निम्नप्रफार उपायों द्वारा प्रसिद्धि करानी चाहिए। उदाहरणार्थ-प्रस्तुत हाथी के सामने व यहाँ यहाँ दौड़ते हुए सुभट (धीर) योद्धाओं द्वारा, उसे दूसरे हाथियों से लड़ाकर, मार्ग पर अर्गलाओं (वेदानों ) के बन्धनों द्वारा, षजवाए हुए बाजों की ध्वनियों से नथा दूसरे हाथियों के भागने द्वारा ॥१७३।। हे राजन् ! जब शत्रु-समूह, इसप्रकार आपकी इस्ती-चेष्टाएँ ( व्यापार ) गुप्तचर द्वारा श्रषण कर लेता है तब यह भयषश समस्त युद्ध के अतिशय छोड़कर निसप्रकार आचरण ( कहना ) करता हुआ शरण में आकर सेवक होजाता है। हे राजन् ! ये हाथी और घोड़ों का समूह आपकी भैंट-हेतु वर्तमान है एवं यह पृथिवी पापकी सेवा में मौजूद है और ये सभी हम लोग सेधक हुए आपके समक्ष उपस्थित है। अतः इनमें से जो १. पालद्वार। २. अतिशयालाहार । 'वचिद् इस्वस्य दीर्यता' इति टिप्पणीकारः प० । ३. तथा चोक्तम्--फलभारमता शाखा यष्टिरियुध्यते पुरैः। ४. उपमालबार । ५. दीपकालाहार । सं०टी०पू० ३.१ से साइलित-सम्पादक २२ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सुभट इव विशस्त्र: स्वामिहोनेव सेना जनपद इव दुर्गेः क्षीणरक्षाविधानः । पतीनां धारयैनं शमवशमवश्यं वैरिवः क्रियेत ॥ १७५॥ भयेषु दुर्गाणि जलेषु सेतो गृहाणि मार्गेषु रणेषु राक्षसाः । मनःप्रसादेषु विनोद देवो गजा इवान्यस्किमिहारिन चाहन ४१०६ ॥ परिनगरकपाटस्फोटने बचदण्डादवनिपाताः शत्रुसैन्याधमदें । गुरुभरविनियोगे स्वामिनः कामितार्था: प्रसिकरिभयकाले सिन्दुराः सेतुबन्धाः ॥ १७७॥ परं प्रधानस्तुरगो रथो नरः काचिदेकं प्रहरेन वा युधि । स्वरभराकरी तु हन्यादखिलं रिपोर्बटम् ॥ १७८ ॥ पदार्थ आपके लिए रुचिकर है, उसके लिए आप आशा दीजिए हम सब ( हाथी, घोड़े, पृथिवी व धनादि Test) देने तैयार है ॥१७४॥ जय राजाओं की सेना क्षेत्र हाथियों से रहित होती है तब वह पराधीन शेती हुई शत्रु वर्गों द्वारा उसीभाँति निस्सन्देह जीत ली जाती है जिसभाँति शस्त्र- हीन योद्धा जीत लिया जाता है अथवा जिसप्रकार नायक-हीन सेना जीत लीजाती है एवं जिसप्रकार रक्षा के उपायरूप दुर्गं (किला) से शून्य हुआ रक्षा के अयोग्य देश जीत लिया जाता है || १७५|| इस संसार में हाथी सरीखा क्या दूसरा युद्धोयोगी वाहन (सवारी ) है ? अपि तु नहीं है। क्योंकि जो (हाथी) शत्रु-कृत आतकों (भय) के उपस्थित होने पर किले हैं। अर्थात् जो किले- सरीखे विजिगीषु राजा की रक्षा करते हैं। जो नदी व तालाव आदि जलराशि के उपस्थित होने पर पुल हैं। अर्थात् - हाथीरूपी पुलों द्वारा विशाल जलराशि सुगमता पूर्वक पार की जासकती है। जो मार्गों पर प्रस्थान करने के अवसरों पर गृह हैं। अर्थात् हाथीरूपी विश्राम गृहों के कारण मार्ग तय करने में कष्ट नहीं होता । जो युद्धों के अवसर पर राक्षस हैं । अर्थात् जिसप्रकार राक्षस शत्रुओं को नष्ट भ्रष्ट कर डालते हैं उसीप्रकार विजिगीषु राजा के हाथीरूपी राक्षस भी शत्रुओं को नष्ट कर डालते हैं और चित्त को प्रसन्न करने के अवसर पर जो कौतुक (विनोद) करने में निपुण हैं । अर्थात् - जिसप्रकार कौतुक करने में चतुर पुरुष चित्त प्रसन्न करता है उसीप्रकार हाथी रूपी कौतुकनिपुण वाइन भी चित्त प्रसन्न करते हैं || १७६ || जो हाथी, शत्रु-नगरों के किवाड़ विदीर्ण करने के लिए दण्ड है। अर्थात्-जिसप्रकार वञ्चदण्ड ( शख विशेष) के प्रहार द्वारा किवाड़ तोड़ दिए जाते हैं। उसीप्रकार इस्विरूप वजदण्डों द्वारा भी शत्रु नगरों के किवाड़ तोड़ दिये जाते हैं। जो शत्रु सेना को चूर-चूर करके लिए गमन-शील पर्वतों के पतन ( गिरना ) सरीखे हैं । अर्थात् जिसप्रकार पर्वतों के गिरने से सेना चूर चूर होजाती है उसीप्रकार हाथी रूपी पर्वतों के पतन से शत्रु सेना भी चूर-चूर होजाती है और जो महान भार वहन कार्य में स्वामी के लिए अभिलषित वस्तु देनेवाले हैं। अर्थात् जिसप्रकार अभिलषित भार उठानेवाले यन्त्र आदि द्वारा महान भार उठाया जासकता है उसी प्रकार हाथीरूपी अभिलषित वस्तु देनेवाले यन्त्रों द्वारा भी महान भार उठाया जासकता है। इसीप्रकार जो, शत्रुचों के हाथियों द्वारा उपस्थित किये गए भय के अवसर पर पुलबन्ध ( तरणोपाय ) सरीखे भय दूर करते ४ ||१७|| जब कि प्रधान घोड़ा, रथ व पैदल सेना का सैनिक वीर पुरुष, युद्धभूमि पर कभी एक शत्रु का घात कर सकता है अथवा नहीं भी कर सकता परन्तु हाथी में महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह अपने शरीर से उत्पन्न हुए आठों शखों ( १ सूँड, २ दाँत ( खीसें), ४ पैर और १ पूँछ इन भाठ हथियारों ) द्वारा शत्रुओं का समस्त सैन्य नष्ट कर देता है* ॥१७८॥ *विनोदपण्डिता छ । १. रूपकालंकार | १. प्राचुर्योपमालंकार । ३. रूपकालंकार | ४. रूपकालंकार । ५. अतिशयालंकार । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्राधासः मणिरणितमिनादादप्रभाव: परेपो भवति नमसि केवप्रेक्षणादेहसादः । प्रवति च सहसा थे. प्राणि प्राप्तमात्रैः क्षितिप युधि सम सेवाहन नाभ्यदस्ति ॥१७॥ पुरः प्रत्यक्पयनमिभिरभिहन्तुं व्यवसिसे गौः सर्वैर्गास्समरसमये सिन्धरपतौ। विदीयों मासङ्गैस्तुरगनिश्चिापि वरिसं रथी प्रास्तं पदैः पिशितकबलीभूतमचिरात् ॥१८॥ दण्डासंहतभोगमण्डलविधीन् व्यूहान्रणप्राङ्गणे देव विष्टजनश्चिरेण रचिसान् स्वप्न अध्यभेयान् परैः। कोऽभेत्स्यविनाभविष्यदवनीपास्य दानवद्रोणीसोरनिषष्णषट्पदततिरिणो वारणः ॥१८॥ अभिजनकुलवास्याचारदेहप्रशस्त पुविहितधिनयरवेद्यस्य A घेत्कोपि हस्ती।। सपति सपनबिम्बे पानवानामिवैतत्प्रभवति न परेषां चेष्टिस सस्य रामः ॥१८॥ हे राजन् ! युद्ध भूमि पर उन जगत्प्रसिद्ध हाथियों सरीखा दूसरा कोई युद्धोपयोगी वाहन (सवारी) नहीं है। क्योंकि जो पैरों पर धारण किये हुए चक्रों (रत्नमयी आभूषणों) की झनकार-ध्वनि से शत्रुधो का प्रभाव (माहात्म्य) नष्ट करते है और (जिनपर अंधी हुई) आकाश में फहराई जानेपाली पजाओं के दर्शन से शत्रुओं का शरीर भङ्ग होता है। अर्थात्-ऊँचे हाथियों पर भारूड हुए सैनिकों द्वारा जब गगनचुम्बी अवजाएँ फहराई जाती हैं तो उन्हें देखकर शत्रुओं का शरीर सत्काल क्षीण होजाता है और जिनके समीप में श्रानेमात्र से शीघ्र जीवन नष्ट होता है। ॥१७६|| जब विजिगीषु ( विजय के इच्छुक ) राजा के इस श्रेष्ठ हाथी ने युद्ध के अवसर पर आगे और पीछे के शारीरिक भागों से किये हुए दाए बाए भाग के भ्रमणों द्वारा और समस्त प्रकार की वेगशाली गतियों पूर्वक गर्व से मारने के लिए उद्यम किया तब उसके फलस्वरूप शत्रुभूत राजाओं के हाथी शीघ्र विदीर्ण हुए, घोड़ों के समूह भी तत्काल नष्ट हुए एवं रथ भी शीघ्र चूर-चूर हुए तथा पैदल सेना के लोग भी तत्काल मांस-पिण्ड होगए ॥१०॥ हे राजन् ! यदि विजय के इच्छुक राजा के पास ऐसा श्रेष्ठ हाथी, जिसके ऊपर गण्डस्थल-आदि स्थानों से प्रवाहित हुए मद की पर्वतीय नदी के तट पर भँवर-श्रेणियाँ स्थित है और जो महान् कष्ट से भी रोका नहीं जा सकतान होता तो युद्धाङ्गण पर ऐसे सेना-व्यूह ! सेना-विन्यास-भेद ), कौन भेदन ( नष्ट) कर सकता ? अर्थात् कोई भी नष्ट नहीं कर सकता । जो कि तगडब्यूह ( दंडाकार सैन्य-विन्यास), असंहतज्यूह (यहाँ यहाँ फेला हुआ सैन्य-विन्यास), भोग व्यूह ( सर्प-शरीर के आकार सेना-विन्यास) और मण्डलम्यूह (पर्तुलाकार-गोलाकार-सैन्य-विन्यास ) के भेद से चार प्रकार के हैं, * जो युद्धाङ्गण पर शत्रु-समूहों द्वारा चिरकाल से रचे गए हैं तथा जो विजिगीषु राजाओं द्वारा स्वप्न में भी भेदन नहीं किये जा सकते ॥१८१।। जिस राजा के पास कोई भी अथवा पाठान्तर में एक भी ऐसा श्रेष्ठ हाथी समान होता है, जो कि बभिजनA (मन), कुल ( पितृपक्ष ), जाति (मातृपक्ष ), आधार (अपने स्वामी की अप्रतिकूलताविरुख न होना) और शरीर (ऊँचा सुडौल शरीर ) इन गुणों से प्रशस्त ( श्रेष्ठ) एर्ष सुशिक्षित किया गया है, उस राजा पर शत्रु-चेष्टा (आक्रमण-व्यापार ) उसप्रकार समर्थ नहीं होती जिसप्रकार सूर्य के उवर्ष होने पर दानवों की चेष्टा (संचार) प्रवृत्त नहीं होती, क्योंकि हानष चेष्टाएँ रात्रि में ही प्रवृत्त होती है या A. 'चैकोऽपि' क० । १. दीपकालंकार। २. समुच्चयालंकार । * तदुक्त-'दण्डों दाडोपमव्यूहो विक्षिप्तवायरहतः । स्यानोगिभोगवद्गोगो मण्डलो मण्डलाकृतिः 1॥॥ इति क०। ३, आक्षेपालंकार । A अभिजन मन इति श्रीदेव नामा पलिकाकारः। संकटी पृ. ३.५ से संकलित-सम्पादक ४, कियोपमालंकार। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अविनीते स्था राशि न रिं नन्दति क्षितिः । तथाविनीतशुण्मास पलं नारिवो जयेत् ॥१८॥ गस्पिोर्नुप एक एव जेल सहलस्म भरल्पाषाम् । भासीनसिंह नगमायतन्तमस्तारमय प्रसहेत को हि ॥१८॥ छन्ता सहसोऽन्येषां लोकारवाला सहनराः । रणे फरिसमो नास्ति रथेषु नूषु पाजियु ॥१८॥ भुषणशिरसि रस्न वारिधी झोपलो स्फुरदुरगसमन्ते भूमिदेशे निधानम् । अभाविप एवं यवदेषाम्पसत्ववपतिमधिस्वस्तदेव क्षितीशः ॥१८॥ हयः प्रमाये हनने कृताम्सः सहनिदेशेस्त्रविधौ प्रहरू । विष्यसिमी नर्तनधर्मका पिाध्योऽपि चान्यत्र गिरः करीन्द्रः ॥१७॥ माघे मरेवस्य ववमेतत् करिष्षयम् । अस्नानपानमुक्तेषु तरिक्रय: स्यान्न यत्स्वयम् ॥१८॥ जिसप्रचार प्रशिक्षित राजा की पृथिवी चिरकाल तक समृद्धिशालिनी ( उन्नतिशील ) नहीं होसकती उसीप्रकार प्रशिक्षित हाथीवाली सज-सेना भी शत्रु सेना पर विजयश्री प्राप्त नहीं कर सकती' ||१८३॥ हाथी पर मारूद ( चढ़ा हुआ) हुआ राजा अकेला ( असहाय ) होने पर भी शकों द्वारा हजारों शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकता है। उदाहरणार्थ-स्पष्ट है कि जब ऐसा पर्यंत, जिसमें सिंह स्थित है और जिसने पाषाणों की वृष्टि प्रारम्भ या प्रेरित की है शिर पर टूट रहा है, तो उसे कौन पुरुष सहन कर सकता है? अपितु कोई नहीं सहन कर सकता। भाषार्थ-जिसप्रकार सिंह की मौजूदगीषाले और पाषाण-वृष्टि करनेवाले पर्वत को शिर पर टूटते हुए कोई सहन नहीं कर सकता उसीप्रकार हाथी पर आरूढ़ होकर शस्रों द्वारा युद्ध करते हुए राजा को भी जीतने के लिए कोई समर्थ नहीं होसकता। किन्तु इसके विपरीत यह राजा हजारों शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करता है ।।१८।। क्योंकि हाथी हजारों शत्रुओं को नष्ट करता है और शत्रु द्वारा प्रेरित किये हुए हजारों शरा-प्रहार सहन करता है, इसलिए रथों, घोड़ों और पैदल सेनाओं में से कोई भी सेना युद्ध-भूमि पर हाथी की तुलना नहीं कर सकती ॥१८॥ हे राजन् ! जिसप्रकार सर्प के मस्तक (फया ) में स्थित हुआ रत्न दूसरे प्राणियों द्वारा प्रहण नहीं किया जा सकता और जिसप्रकार समुद्र-मध्य में स्थित हुप लङ्कादि द्वीपों का निवासी मनुष्य दूसरे प्राणियों द्वारा प्रहण नहीं किया जा सकता एवं जिसप्रकार जिसके समीप में सर्प फैल रहे हैं ऐसे पृथिवी-देश के मध्य स्थित हुई निधि ( पनावि । दूसरे मनुष्यों द्वारा ग्रहण नहीं की जा सकती उसीप्रकार हाथी पर चढ़ा हुआ राजा भी दूसरे मानवों (शत्रुओं) द्वारा ग्रहण (परास्त) नहीं किया जा सकता ॥१८६।। हे राजन् ! श्रेष्ठ हाथी घोड़ा-सा तेज दौड़ता है, यमराज सरखा शत्रु-घात करता है नौकर-साशाहा-पालन करता है एवं शक संचालन विधि में प्रहार करनेवाला । अर्थात-जसप्रकार प्रहार करनेवाला शरू-संचालन हा करता हुआ शत्रु-घात करता है उसीप्रकार हाथी भी लँड, खींसें, 'पारों पैर व पूंछ-आदि अपने शारीरिक महोपाङ्गरूप शत्रों द्वारा शत्रु पर प्रहार करता हुआ उनका घात करता है और नृत्य के अषसर पर बेश्या (वेश्या-सरीखा नृत्य करनेवाला ) है एवं यह अक्षर रूप बोलना छोड़कर शिष्य है। पर्यात्-केवल अक्षर रूप बचनों का बोलना छोड़कर बाकी सब कार्य (आझापालन यादि) शिष्य-सरीखा करता है । जानता है ॥ १८७॥ इस्ती संग्रह करने के अवसर पर राजा का यह नियम होता है कि यह इस्तियों के स्नान, पान और भोजन किए बिना स्वयं स्नान, पान व भोजन करनेवाला नहीं होता ।। १८८ ।। *. 'अस्नानपा-भुक्कषु' क. .. स्यान्नालंकार । १. आक्षेपालंकार । ३. उपमालधार । ४. रटान्तालार। ५. असमस्तरूपकालंकार। जाति-अलंकार। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः न काम जवेन कर्मणा परैरतुल्याः परमेण वायुषा । महीभुवां भाग्यवान्महीतले कृता बसरास्त्रिविधा मतः ॥ १८९ ॥ महाभ्योऽमी सन्तोऽयमितबलसंपन्न वपुषो यदेवं तिष्ठन्ति क्षितिपशरणे शान्तमतयः । सदन श्रद्धेयं गजनयधैः कारणमिवं मुनीन्द्रार्णा शापः सुरपतिनिदेशश्च नियसम् ॥ १९०॥ {w? अनेकसमरसंप्रहास्थ विजय प्रशस्तिशृङ्गारितगात्रः शालिहोत्रः कटिकाछबृहस्पते कुम्भिनीपते, तथैव मन्मुखेनापि साथ शौर्यनिर्जिताशेषद्विषदाचार्य परिषदेव स्थाईणावन्तमर्वन्यं विज्ञापयति तथाहि । देव मित्र महात्यमन, ऐसे हाथी, जो कि पराक्रम, शरीर, वेग और क्रिया ( व्यापार ) तथा उत्कृष्ट आयु इन गुणों में दूसरे प्राणियों से अनोखे हैं । अर्थात् जैसे विशेष पराक्रम, विशेष स्थूलता व विशाल शरीर आदि गुण हाथियों में पाये जाते हैं वैसे किन्हीं प्राणियों में नहीं पाये जाते, इसलिए हाथियों ने राजाओं के विशेष पुण्योदय के कारण ही स्वर्ग से अवतीर्ण होकर इस पृथिवी मण्डल पर जन्मधारण किया है' ।। १८८६ ॥ ये हस्ती महान ( गुरुतर) और सीमातीत ( वेमर्याद ) पराक्रम-युक्त शरीर धारक होते हुए भी जो राजमन्दिर में अपना चित्त क्रूर न करते हुए शान्त रहते हैं, इस संसार में इसका कारण गजशास्त्र नीतिशास्त्र के विद्वानों को यह जानना चाहिये कि इसमें मुनीन्द्रों द्वारा दिया हुआ शाप और इन्द्र की याही कारण है। भावार्थ - लोक में प्रचुर शक्तिशाली ( पराक्रमी ) योद्धा क्रूर चिन्तवाले देखे जाते हैं परन्तु हाथियों में इसका अपवाद पाया जाता है । अर्थात् ये महान और निस्सीम पराक्रमशाली होने पर भी राजमहल में स्थित होते हुए शान्त रहते हैं -- कुपित नहीं होते। इसमें गजशास्त्रज्ञ व नीतिनिष्ठों को यह कारण जानना चाहिये कि मुनीन्द्रों ने हाथियों को यह शाप दिया है कि तुम्हें राजमन्दिर में शान्त रहना होगा और इन्द्र की श्राशा पालन करनी होगी ।। १६० ।। See (इस्तिसेना प्रमुख 'उद्धताश' के निवेदन करने के पश्चात् ) शालिहोत्र ( अश्वधोड़ा --- सेना प्रमुख ) मेरे ( यशोधर महाराज के ) समक्ष 'विजयवैनतेय' नामक श्रेष्ठ घोड़े की उन महत्वपूर्ण विशेषताओं ( प्रशस्तगुण, जाति व कुल आदि ) का निरूपण करता है, जिन्हें 'प्रतापवर्द्धन' सेनापति ने अश्वपरीक्षा-निपुण विद्वन्मण्डली द्वारा परीक्षा कराकर प्रस्तुत यशोधर महाराज के प्रति कहलवाया था- _ युद्ध के अवसर पर किए गए निष्ठुर प्रहार सम्बन्धी आघातरूपी विजय प्रशस्तियों (प्रसिद्धियों) से सुशोभित शरीरणाले 'शालिहोत्र' नाम के अश्वसेना प्रमुख ने प्रस्तुत यशोधर महाराज से निम्न प्रकार निवेदन किया- कलिकाल में बृहस्पति सरीखे महाबुद्धिशाली, पृथिवीनाथ हे राजाधिराज ! आश्चर्यजनक पराक्रम द्वारा समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाली व अश्व (घोड़ों) परीक्षा- निपुण विद्वत्परिषत् ने, प्रतापवर्द्धन सेनापति की आज्ञानुसार परीक्षा करके उद्धताङ्कुश की तरह मेरे मुख से भी पाद- प्रक्षालनादि पूजा-योग्य 'विजयवैनतय' नामक अश्वरत्न के विषय में आपके प्रति निम्नप्रकार विज्ञापन कराया है हे राजन! वह 'विजयवैनतय' नाम का अश्वरत्न ( श्रेष्ठ घोड़ा ) शारीरिक उत्पत्ति की अपेक्षा उस प्रकार भद्रजाति ( सुन्दर व सचिक्षण रोम व त्वचा युक्त, आनन्दजनक शरीर व संघारशाली, बुद्धिमान, विषादशून्य एवं भयभीत न करनेवाला ) का है जिसप्रकार श्राप का सुन्दर शरीर भद्रजाति ( श्रेष्ठ क्षत्रिय-जावि ) १. जाति - अलंकार । १. अनुपमालंकार । ३. उर्फ साविक श्लक्ष्णं रोम स्वक्लुखसंचारविमदः । मुद्धिमानविषादी च भद्रः स्यात्त्रासवर्जितः ॥ १ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ यशस्लिलामभव्ये र देवमिव गाव सोन, देव देवमिम सुभगालो समस्या , देव देवमिव सर्व संस्थान, देव देवमिवावना वयसा दितीया स्तन्तस्, देव देवमिवानुमारितारमायुषण तारिकमाः, देव देवमिव पावि गवा, देव देवमिव शीयांस बलेन, देव देवमिव भरडोरक्मानकेन, है। हे राजन् ! सत्वगुण (प्रशस्त मनोवृत्ति ) से विभूषित होने के कारण वह उसप्रकार वासव ( इन्द्र) है जिसप्रकार भाप सत्वगुण' (प्रताप, ऐश्वर्य व पराक्रम) से अलंकृत होने के कारण पासव ( इन्द्र) हैं। हे राजन् ! समप्रकृति (प्रशस्त स्वभाव) से मखित होने के कारण जिसका दर्शन दूसरों को उसप्रकार प्रीविजनक है जिसप्रकार बाप का दर्शन समप्रकृति ( सज्जन प्रकृति ) के कारण दूसरों को प्रीतिजनक है। राजन् ! उसकी शारीरिक आकृति उसप्रकार सम ( समान, सुन्दर और सुडौल ) है जिसप्रकार आपकी शारीरिक माकति सम ( समान, सुन्दर और सुडौल ) है। हे देव ! वह घोड़ारत्न युवावस्था संबंधी मर क्सा-भाग में उसप्रकार आरूढ़ है जिसप्रकार श्राप युवावस्था संबंधी दूसरी दशा में प्रारून ..। भावार्थ-शास्त्रकारों ने घोड़े की आयु ३२ वर्ष की निरूपण की है, उसके भीतर उसको दश दशाएँ (अपत्याएँ-माग) होती हैं, जिनमें से एक दशा की आयु ३ वर्ष, २ माद और १० दिन की होती है। प्रति-३२ वर्ष में १० का भाग देने से प्रायः उक्त दशा की आयु निकलती है। प्रकरण में ध्यान देने पोग्य यह है कि 'शालिहोत्रं नाम का अध( घोड़े) सेना का अध्यक्ष यशोधर महाराज से प्रस्तुत 'विजस्वैनतेय' नामक प्रमुख घोड़े के प्रशस्त गुणों का निरूपण करता हुआ उसकी जवानी का निरूपण कर रहा है कि हे राजन् ! वह मेष्ठ घोड़ा तीन वर्ष, दो माह और वश दिनवाली पहली अवस्था (किशोरावस्था) पर सरके का दूसरः जनाबी लपता रद हो चुका है, जिसके फलस्वरूप यह समस्त कर्म (मारवाहन व युद्ध करना-आदि) को सहन करने में समर्थ, विशेष शक्तिशाली, बुद्धि-सम्पन्न और सवारी के योग्य होचुका है, अतः श्रेष्ठ घोड़ा है। इसीप्रकार हे राजन् ! वह अपनी श्रायु (३२ वर्ष) की उक्त दशों पशाएँ उसप्रकार भोगेगा (दीर्घायु होगा जिसप्रकार आप अपनी आयु की दशों दशाएँ भोगोगे (तीय होंगे)। हे राजन् ! वह पार्थिवी छाया ( मन व नेत्रों को भानन्य उत्पन्न करनेवाली, सचिमण, गम्भीर, महान, निपल वं अनेक वर्णयुक्त प्रशस्त कान्ति) से उसप्रकार अलंकृत है जिसप्रकार आप पार्थिवी छाया (राजकीय तेज अथवा शारीरिक प्रशस्त कान्ति ) से विभूषित हैं। हे राजाधिराज ! यह अथरत विशेष क्ल ( भारवहन आदि की सामर्थ्य ) शाली होने के फलस्वरूप उसप्रकार विशेष महान् (गुस्वर) है जिसप्रकार आप बल (पराक्रम, सैन्य अथवा शारीरिक शक्ति) शाली होने से विशेष महान हैं। हे देव ! वह अश्वरत्न आनूक’ (विशेष शारीरिक शक्ति ) से सम्पन्न होने के कारण उसप्रकार कठौरव (सिंह) है जिसप्रकार आप अनूक (प्रशस्त कुलशाली ) होने के कारण कण्ठीरव (राज-सिंहसमस्त राजाओं में श्रेष्ठ है। १. उच-'तेजोविभूतिविकान्तः सत्वमन्दं विनिर्दिशेत् ॥ सं.टी.पू. ३०७ से संकलित-सम्पादक १. तथा चोक्तम्-अथ कासी दशा । तत्रोच्यते-- 'आयु निश्तं वेषां दशा दश दीर्तिताः । योऽन्दाष दशान्ति हो चलो एक सतार ४९ ३. उच-'सर्वकर्मसको हप्तः परां बुनिमुपागतः। द्वितीयस्यो दशायां स्यामा प्राप्तघाहनः ॥१॥ ४. उच-अनेकवर्णा सुस्निग्धा गम्भीरा महती स्थिरा। प्रशस्ता पार्थिव छाया मनोदृष्टिप्रसादिनी ॥१॥ ., उलंक आनन-'अन्वयेन बलेन ५. तथा चोप-अनूपं शौलकुलयो' इति विश्वः ।। Raag. ३० से संक्रमित–सम्मान Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाभारः देव देवमिव सम्मलोस्वरेण, देष [ देवमिव कुन काम्बोजा, वाजिब बोल, देव देवस्य पोराणिमिव क्षेत्रमा वर्णन, देव देवस्व चित्तमिव सूक्ष्मदर्शन सनूरेषु, देव देवस्पारिबर्गमिव मभवंशं पृष्ठप्रदेवो, देव देवस्य वीरश्रीविलासपामरमिव रमणीचं वाधी, देव देवस्य कीर्तिकुलदेवताकुरतालकलापमिव ममोहरं सरेषु, देव देवस्य प्रतापमिव विशाल सखारसबसवमवस्लिादेषु, देव शिखण्डिकपडाभोगमिव कान्त कन्धराधाम्, भाभार्धमिव पराध्य शिरसि, प्लक्षातपरिवतितपृष्ठमिष कानीय कर्मयोः, उल्लिखितमिव निर्मोसं हनुमानुजनावदमीणा, टिकमणिविनिर्मितमिल सुप्रकाा कोधनयो, हे नरेन्द्र ! यह ध्वनि (हिनहिनाने का शब्द ) से उसप्रकार समुद्रधोगः । समुद्र के समान गम्भीर ध्यान करमेषाला) है जिसप्रकार आप प्रशस्त (कर्णप्रिय ) ध्वनि (पाणी) बोलने के कारण समुद्रघोष ( सामुद्रिकशास्त्र-ज्योतिर्विद्या-में बताई हुई माङ्गलिक वाणी बोलनेवाले ) है। हे राजन् ! जिसप्रकार श्राप प्रशस्तफुल (क्षत्रिय बंश) में अत्पन्न हुए हूँ इसीप्रकार यह घोडारल भी बेष्ट बाल्होक देश में उत्पन्न हुआ है। हे राजन् ! यह वेग ( तेजी ) से संचार करने में गरुक या अश्वराज (उचैःश्रवाः-न्द्र का घोड़ा) सरीखा बेगशाली है। हे देव ! वह प्रशस्त श्वेत रूप से वस्तुओं को इसप्रकार उज्वल करता है जिसप्रकार आपका शुभ्र कीर्ति-पुन वस्तुओं को उज्वल कर रहा है। भावार्ध-शाखकारों ने समस्त बों में श्वेनवर्ण को प्रधान माना है, अतः यह इन्द्र के उत्रावा' नाम के सर्वश्रेष्ठ घोड़ेरत्न के समान शुभ्र है, इसलिए वह आपकी शुभ्र यशोराशि-सरीखा बस्तुओं को शुभ कर रहा है। हे राजन् ! उसके रोम उसप्रकार सूक्ष्मदर्शन-शाली ( स्पष्ट दिखाई न देनेवाले ) है जिसप्रकार आपका चित्त सूक्ष्मदर्शन-शाली (सूक्ष्म पदार्थों को देखने व जाननेवाला) है। हे स्वामिन् ! जिसप्रकार आपके शत्रुओं का कुल-वंश-आपके प्रतापके कारण भग्नवंश ( नष्ट ) होधुका है उसीप्रकार उसका पृष्ठप्रदेश ( बैठने योग्य पीठ का स्थान ) भी मग्मवंश ( दिखाई न देनेवाले स्थल-युक्त) है। अर्थात्-पिशेष पुष्ट होने के कारण उसके पीठ के स्थान का स्थल दिखाई नहीं देता। हे देव ! जिसप्रकार आपकी वीर लक्ष्मी का श्वेत क्रीड़ा-चभर मनोहर होता है उसीप्रकार उसकी पूँछ भी मनोहर है ! हे राजन् । जिसप्रकार श्रापकी कीर्तिरूपी कुलदेवता का श्वेत केशपाश रमणीक है उसीप्रकार उसकी केसर (स्कन्ध-वेश के केशों की शुभ्र झालर ) भी रमणीक है। हे वेव ! जिसप्रकार आपका प्रताप (सैनिक व खजाने की शक्ति) विशाल ( विस्तृत ) है उसीप्रकार उसका मस्तक, पीठ का भाग, जघन (फमर का अप्रभाग), हृदयस्थल और त्रिक (पृष्ठ-पीठ के नीचे का भाग) भी विशाल (विस्तृत) है। हे स्वामिन् ! जिसप्रकार मयूर के कएठ का विस्तार (भाकार ) चित्त को आनन्दित करता है उसीप्रकार उसकी गर्दन भी चित्त को आनन्दित करती हैं। हेदेव ! जिसप्रकार हाथी के गण्डस्थल का अर्धभाग शुभ या प्रधान होता है उसीप्रकार उसका मस्तक भी शुभ था प्रधान है। हे देव ! जिसप्रकार वटवृक्ष और पाकरवृक्ष के उद्वेलित (सिकुडे हुए) पत्र-पृष्ठभाग मनोहर होते हैं उसीप्रकार उसके दोनों कर्ण मनोहर है। हे देव ! उसके हनु (चिबुक---कपोनों के नीचे का भाग-ठोढ़ी), जानु, जङ्का (पीडी-जानुओं के नीचे के भाग), मुख प नासिका का स्थान मांस-रहित है, इससे पह ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-पुक्त स्थान काँटों से विदीर्ण किये गये है, इसीलिए ही उनमें मांस नहीं है। हे स्वामिन ! उसके दोनों नेत्र विशेष प्रकाश शाली (अत्यधिक तेजस्वीचमकीले) होने के कारण ऐसे मालूम पड़ते हैं-मानों-स्फटिक मणियों द्वारा ही रचे गये है। * कोटाक्तिपाठः सर्टि- (क., स., ग) प्रतिषु नास्ति । १. तथा चोक्तम्-श्वेतः प्रधानो वर्णमाम्' इति वचनात् । यतः इन्द्रस्य भय उच्चैःश्रवाः श्वेतवर्षों भवति । संस्कृत टीका पू. ३०८ से संकलित-सम्पादक Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्सिलकपम्पूकाव्ये मोररूहबईमिव तहिन समोठविलास, देव देवस्य पक्ष्यमित गम्भीर तालुनि, कमलकोशामिव शुभयुमन्तरास्य, चन्द्रकलाशकलसंपादितमित्र सुन्दरं दशनेषु, समीकुखकालरामिद पीवरं स्कम्भे, भटजूदमियोद्धं कृपीटदिशि, अजर जवाभ्यासादित मुविभनवनगानम्, अमलीकैः खरखुराकृतिभिः शऊर्गतिप्रारम्भेषु रजस्वलत्यादिव भुवमस्टशन्तम्, अमृतबारधिप्रतिबिम्बितेन्दुसंवादिना निटिलपुण्डकेग कश्यन्तमिव सकलायामिलायामनिपालस्यैकात पनवर्य*मैम्बर्षस्वम्, अहीनाविचिजनाविचलितप्रदक्षिणतिभिर्देवमणिनिःश्रेणिश्रीवृक्षरोधमानादिनामभिरावः शुक्तिमुकुलावलीउकादिभित्व तद्विमे देशभितोचितप्रदेशमुदाहरन्तमिव देवस्य कल्याणपरम्पराम्, परमपरैरपि लक्षणैर्दशस्वपि क्षेत्रेषु प्रशस्त विजयवैनतेयनामधेयमत्र हे देव! जिसप्रकार कमल-पत्र कृश (पतला) होता है उसीप्रकार उसके श्रोष्ट-प्रान्तभाग, पोष्ट और जिल्ला भी कृश (पतली है। हे राजन् ! उसके तालु आपके हृदय सरीखे गम्भीर हैं। हे राजन् ! उसके मुख का मध्यभाग कमल के मध्यभाग-जैसा शोभायमान है। हे राजन् ! उसकी विशेष मनोझ दन्तपक्ति ऐसी प्रतीत होरही है.-मानों-द्वितीया संबंधी चन्द्र-स्वप्डों से ही रची गई है। हे देव ! उसका स्कन्ध लक्ष्मी के कुच (स्तन) कलश-सरीखा स्थूल है। हे देव ! जिसप्रकार वीर पुरुष का केशपाश तनूदर (वीच में पतला या विरला ) तथा बैंधा हुआ होता है उसीप्रकार उस घोड़े रत्न का उदरभाग भी तनु (कृश और बंधा हुआ (पुष्ट, राजन नि प्रयास करने से ही मानों-जिसका निविड (घना) शरीर अच्छी तरह पृथक पृथक् 'अलोपालों में विभक्त किया गया है। हे देव ! बह घोड़ा रल जब दौड़ना प्रारम्भ करता है तब रेखाओं से शून्य और गधे के खुरों-सरीखी आकृतिवाली अपनी टापों द्वारा पृथिवीरुपी स्त्री का इसीलिए ही मानों-स्पर्श नहीं करता, क्योंकि वह रजस्वला (धूलि से व्याप्त और स्त्रीपक्ष में समती-मासिकधर्मवाली ) होचुकी है। यह ऐसे मस्तक-तिलक द्वारा, जो कि क्षीरसागर में प्रतिविम्बित हुए पूर्ण चन्द्र का अनुकरण ( तुलना ) करता है, अपने राजा का समस्त पृधिवी मण्डल पर एकच्छत्र की मुख्यतावाले ऐश्वर्य का स्वामित्व ही मानों-प्रकट कर रहा है। हे राजन् । वह अश्वरत्न, ऐसे रोमों के आवतो ( जल में पड़नेवाले गोलाकार भँवरों सरीखे रोम कूपों) से योग्य स्थानों (मुख, नासिका व गर्दनआदि शारीरिक अङ्गोपाङ्गों) का आश्रय कर रहा है। अर्थात् --उसके मुख व मस्तक आदि शारीरिक अनो पाङ्गों पर ऐसे रोमकूप पाए जाते हैं, जिनसे वह ऐसा प्रतीत हो रहा है-मानों-आपकी कल्याएपरम्परा को ही सूचित कर रहा है। फैसे हैं वे रोमावत ? जिनकी दाहिनी ओर की प्रवृत्ति (रचना) न्यूनता-रहित, विशेषकान्ति-शाली तथा नष्ट न होनेवाली है एवं जिनके देवमणि (गर्दन के नीचे माग पर स्थित हुए रोमकूपों की 'देवमणि' संज्ञा है) निःश्रेणि (मस्तक के ऊपर स्थित हुए तीन रोम-कूपों की 'निःश्रेणि महा है), श्रीवृक्ष ( पर्याण-प्रदेश के रोमकूपों की श्रीवृक्ष संज्ञा है) और रोचमाल ( कण्ठ-प्रदेश संबंधी रोमकूपों ) नाम है। इसीप्रकार उनके दूसरे विशेष भेदवाले ऐसे रोम-श्रावों से भी शोभायमान होता हश्रा वह अश्वरल आपकी कल्याणपरम्परा को सूचित कर रहा है, जो कि शुक्ति (सीप की आकृतिसरीखे रोमकूप ) मुकुल ( कुडमल-अधखिली पुष्पकली-समान रोमकूप) और अवलीढक( गवालीढ-समान प्राकार वाले ) आदि के भेद से अनेक भेदवाले हैं। इसीप्रकार हे राजन् ! जो प्रस्तुत 'विजयवैनतेय' नामका पोहारत्न दश प्रकार के शारीरिक अङ्गोपाङ्गों (मुख, मस्तक, गर्दन, पीठ, हृदय, हृदयासनकक्षा, नाभि, कुनि, खुर और जानु ) पर वर्तमान अन्य दूसरे प्रशस्त चिन्हों से अलकृत होने के कारण श्रेष्ठ है। *, 'ऐश्व स.। १.-तथा चोचम्—'तानि वक्त्रतिरोपीवावंशोवक्षश्च पश्चमम् । इदयासनकक्षाश्च नाभिः सप्तममेव च। क्यारम पुरे जानु नाच दशमं मतम् ।' Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । द्वितीय आवास: प्रस्तावे वाजिविनोदमकरन्देन वन्दिना सलीलमभ्यधायि तुरङ्गमगुणसंकीर्तनानीमानि तानि - गिरयो गिरिकप्रख्याः सरितः सारिणीसमाः । भवन्धि कुने यस्य कासारा देव सागराः ॥ १९९ ॥ एता दिशश्वतखोऽपि चतुश्चरणगोचराः । स्यदे यस्य प्रजायन्ते गोपुराङ्गणसन्निभाः ॥ ११२ ॥ प्राप्नुवन्ति जये यस्य भूमावपतिया अपि । निपादिनां रक्षिताः शस्यवालाः करमद्दन् ॥ १९३॥ यस्य प्रदेशला सकाननधराधरा धरणात १९ । किं च । वामाचिद्दपृष्ठे वंशकेसर शिरःश्रवणेषु । वस्त्रनेत्रहृदयोदरदेशे कण्ठको स्तुर जानुभयेषु ॥ १९५॥ अन्यत्र स्वल्पदोषोऽपि यद्येतेषु न दोषवान् । शुभात्रविद्वायो यः स्थानियदः ॥ १९६॥ मुक्ताफलेन्दीवर काञ्चनाभाः किंजल्कभिन्नानङ्गशोभाः । कारण शोकशुकप्रकाशास्तुरङ्गमा भूमिभुजां । वयेाः ॥ १९७ ॥ 3 fuu इसी अवसर पर 'बाजिविनोदमकरन्द' नाम के स्तुतिपाठक ने अश्व-गुणों को प्रकट करनेवाले निम्नप्रकार श्लोक विद्वत्तापूर्वक पढ़े जिस श्रेष्ठ घोड़े में लाँघने ( उलने ) की ऐसी अद्भुत शक्ति होती है, जिसके फलस्वरूप पर्वत क्रीड़ा कन्दुक (गेंद) सरीखे और नदियाँ सारिणी - ( तलैया ) जैसी एवं समुद्र तडाग-सदश लाँघने योग्य होजाते हैं ||१६|| जब यह वेगपूर्वक दौड़ना आरम्भ करता है तब चारों दिशाएँ ( पूर्व व पश्चिमआदि ) इसके चारों पैरों द्वारा प्राप्त करने योग्य होती हुई नगर द्वार की अमभूमि सरीखी सरलता से प्राप्त करने योग्य होजाती है ||१२|| जिसके (घोड़े के) वेगपूर्वक दौड़ने के अवसर पर अश्वारोहियों (घुड़सवारों) द्वारा आगे पृथिवी पर फेंके हुए पुलसहित माण पृथिवी पर न गिरकर उन्हीं घुड़सवारों के हस्त से महण करने की योग्यता प्राप्त करते हैं। भावार्थ- विशेष वेगपूर्वक दौड़नेवाले घोड़ों पर आरूढ़ हुए घुड़सवार घोड़ों को तेजी से दौड़ाने के पूर्व सामने पृथिवी की ओर बाण फेंककर वाद में घोड़े को तेजी से दौड़ाते हैं, उस समय बाणों को पृथी पर पहुँचने के पूर्व ही घोड़ा पहुँच जाता है, इसलिए घुड़सवार उन बाणों को पृथिवी पर न गिरते हुए भी प्रहण कर लेता है। निष्कर्ष - प्रस्तुत श्लोक में 'अतिशयोक्ति अलंकार पद्धति से घोड़े की वेगपूर्ण गति का वर्णन किया गया है ||१६|| जिसके विशेष वेगपूर्वक दौड़ने के अवसर पर बन और पर्वतों सहित यह पृथिवी ऐसी मालूम पड़ती है-मानों-घोड़े की टापों से चिपटी हुई हो मार्ग पर उसके साथ दौड़ रही सी दृष्टिगोचर होती है ॥१६४॥ ऐसा घोड़ा, जिसके आवर्त ( भँवर या घुंघराले बाल ), छवि (रोमतेज ) और कान्ति ये तीनों गुण शुभ सूचक हैं । इसीप्रकार जो केश सहित पूँछ, रोमश्रेणी, पीठ, पीठ की हड्डी, स्वन्ध केशों की झालर, Here, दोनों कान, मुख, दोनों नेत्र, वक्षःस्थल, उदर-स्थान, गर्दन, कोश ( जननेन्द्रिय), खुर ( टाप ) और जाओं की सन्धि ( जोड़ ) एवं वेगपूर्वक दौड़ना इन स्थानों में दोष-युक्त ( उदाहरणार्थ - केश - शून्य पूँ, रोम-शून्यता और ऊबड़-खाबड़ पीठ आदि ) नहीं (गुणवान ) है। इसीतरह जो उक्त स्थानों को steer यदि अल्प दोष युक्त भी है तथापि शत्रुओं को पराजित करता हुआ विजयश्री उत्पन्न करनेवाला होता है ।।१६५ - १६६ युग्मम् ।। राजाओं के ऐसे अश्व (घोड़े ) शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, जिनकी कास्ति मोतियों की श्रेणी, नीलकमल और सुवर्ण-सहश है । अर्थात् — जो शुक्ल श्याम व रक्तवर्ण-शाली हैं एवं जिनका वर्ण पुष्प- पराग, मर्दन किया हुआ अञ्जन और भँवरों सरीखा है। * 'स्याद्विजयावहः' 1 ' जयाय रु घ०, य० । १. उपमामभ्यदीपकालंकार । २. उपमालङ्कार । ३. अतिशयालङ्कार । ४. क्षालङ्कार ५. समुच्मालङ्कार Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास्तिकपम्पूमध्ये मजेनाकीस्ववानकानां सीसतानानासानाम् । समस्राः स्वामिनि भोषिशेन मवनित पाहाः पिरमरोहा १९ सोरेजनोमोसमाती समिक्षीरमदै समानाः । देव सुख भोगांशु या धाविनः कामदा सूपेषु १९९५ ईसप्याप स्परिपसासनिमः । मिलम क्षितीमानामानूविजयप्रदाः ॥२०॥ महकानुशेमयकृषिशासणाचनसमा। बोलावारिनिमावसोनाम ॥२१॥ पक्षसि बाहोरलिके सफदेने वर्गमूल्योरक्षेत्र । मावास्तुरगाणां सस्ता केशान्तयोस्तया शुक्तिः २०॥ विवाहमाला पहिरानसस्थाः सूक्ष्मत्वयः पीवरवदेशाः । सुदीपबहाः पृथुपृष्ठमध्यास्सन्दराः कामकृतस्तुरङ्गाः ॥२०॥ अर्थात-गोरोचना-जैसे वर्णशाली व इन्द्रनील मणि-जैसे श्याम है एवं जिनका प्रकाश ( वर्ण ) उदय होते हए सूर्य, अशोकवृक्ष और शुक-सरीखा है। अर्थात्-जो अव्यक्त लालिमा-युक्त, रक्तवर्ष व हरितवर्णशासी ॥१९७|| ऐसे घोड़े अपनी ध्वनि (हिनहिनाने का शब्द ) द्वारा निश्चय से राजा का महोत्सव प्रकट करनेवाली चेष्टा-युक्त होते हैं, जिनके शब्द श्रेष्ठ हाथी, सिंह और वृषभ-सरीखे हैं एवं जो मेरी, सदा, पटह और मेघ जैसी गम्भीर ध्वनि (शब्द) करते है ।।१४।। जिन घोड़ों के स्वेद, मुस्त्र और दोनों कानों में, कमल, नीलकमल और मालती पुष्प-जैसी सुगन्धि होती है और जिनकी घी, मधु, दूध व झायियों के मद (गण्डस्थल-आदि स्थानों से झरनेवाले मदजल) सरीखी गन्ध है, ऐसे घोरे राजाओं के लिए इच्छित वस्तु (विजय-खाभ आदि ) प्रदान करनेवाले होते है ।।१६। जिन घोड़ों के नितम्ब : (कमर के पीछे का भाग), इंस, बन्दर, सिंह, हाथी और व्याघ्र-जैसे शक्तिशाली होते हैं, वे राजाओं के लिए विजयलक्ष्मी प्रदान करते हैं ॥२०॥ घोड़ों के ऐसे रोमों के बावत ( भंवर ) श्रेष्ठ (प्रशंसनीय व गुमसूचक) होते है, जो वजा ( पताका ), हल, घट, कमल, घन, अर्धचन्द्र, चन्द्र और पृषिषीवल-सरीखे होते हैं एवं ओ धोरण ( द्वादशस्तम्म-विन्यास-गृह के बाहर का फाटक) और वन-जैसे होते है ॥२०१।। पोड़ों के हदयस्थल, पाडू, मस्तक और चारों खुरों (टापों) के ऊपरी भागों पर सथा कानों के दोनों मुखभागों पर वर्तमान एवं गर्दन के दोनों भागों पर स्थित सीप-जैसे आकारयाले पाषर्त (केश-भैर या अपयलेबाल) भेष्ट होते हैं ॥२०२| ऐसे घोरे अपने स्वामियों के लिए इष्टफल (विजयलाम-आदि ) देनेवाले होते है, जिनका मस्तकस्यान विस्तृत और बायप्रदेश संबंधी मुख नम्र ( भुका हुभा ) होता है। जिनका धर्म सम्म और माहु-वेश आगे के पैर की जगह) स्थूल होते हैं। जिनकी जाएँ लग्बी और पीठ (बैठने का स्थान) विस्तीर्ण होती है और जिनका उदरभाग (पेट) कश ( पतला) होता है: ।।२०३६॥ हपितेम । "परमुत्सवाय' क०, प०, २०,। उक्त शुरूपाठ: स. प्रतितः संकलितः । मु. प्रतोद साहाकारमा' पाठः । विमर्श:-मु. प्रतिस्थपाठेऽष्टादशमात्रामभावेन छन्द(आर्य भङ्गदोषः-सम्पादकः । लिपदेखे (बसाटे) क.। 'शुतो. १. उपमालहार।. २. समुषयालबार । ३. उपमालकार। ४. उपमालाहार । ५. उपमालाहार । सामर । मारियांकार । - - - Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुतीय भामा बीमूलकान्तिपनपोपहर करीन्द्रलीलागविराज्यगन्धः । प्रिया पर माल्मविवेपनानाम्गरोहणाईस्मुरुगो सुपस्य ॥२०॥ कदनकम्वुलकेविविवासिनः परवलसने परिधा हयाः । सकलभूवक्ष्येक्षणहत्या समरकालमनोरथसिद्धयः ॥२०॥ भन्यूनाधिकदेवा समविभक्कारच वर्मभिः सवः । संहब्धनागवाया। सतविन्याः कामदास्तुरमाः ॥२०६॥ जयः फेरे तस्य रणेषु राक्षः काके पर पति वासवश्व । धर्मार्थकामाभ्युक्यः प्रजानामेफोऽपि पस्यास्ति यः प्रशस्तः ॥२०॥ कुलाचालकुवाम्मोधिनितम्बा पाहिनीभुजा। घरा पुरानना बीब तस्य पस्य तुरङ्गमाः ॥२८॥ इति पन्विभ्यां ताभ्यामुत विझसी निशम्य विभाण्य च पचालयमाधिकमास्पृष्टकमुत्तरीयदुकुहासपिहितबिम्बिना सिद्धादेशप्रमुखेन मौतुतिकसमाजेन, 'देव, प्रासादं संपाद्य प्रतिमा निवेशयेत् , प्रसिमां धा निघेश्य प्रासाद संपायर, __ऐसा घोड़ा राजा के आरोहरण-योग्य (सवारी-नायक) है, जो मेध-जैसा श्याम है। जिसकी हिनहिनाने की ध्वनि मेघगर्जन की ध्यनि-साश गम्भीर है एवं श्रेष्ट हाथी-सरीमा विना खेद के मन्दगमन करनेवाले जिसका शरीर घीसा सुगन्धित है तथा जो फूलों व चन्दनादि से विशेष अनुराग रखता है। अर्थात्-ओ • पुष्पमालाओं से अलंकृत होता हुआ चन्दनादि सुगन्धि द्रव्यों से लिप्त किया गया है। ॥२०४। ऐसे घोड़े श्रेष्ठ समझ जाते हैं, जो युद्ध रूपी गेंद से क्रीड़ा करने में आसक्त हुए शत्रु-सेना को रोकने में अर्गला ( वेड़ा)। अषोत-जो शत्रु-सेना को उसप्रकार रोकते हैं जिसप्रकार बेड़ा दूसरे का आगमन रोकता है। जिसके नेत्र समस्त पृथिवीमण्डल को देखने में समर्थ है और जो संग्राम के अवसर पर विजिगीषु के मनोरम (विजयलाभ आदि) सिद्ध (पूर्ण) करते है ॥२०।। ऐसे घोड़े अभिलषित फल देनेवाले होते है, जिनके शारीरिक अङ्गोपाङ्ग (पेर छ पीठ-आदि) न हीन हैं और न अधिक है। जो समस्त ऊँचाई, पौधाई व विशालता से समान व सुडौल विभक्त हैं एवं जिनकी शारीरिक रचना समुचित था हद और निषिक ( घनी)? और जो सूर्यमण्डल व चन्द्रमण्डल-आदि अनेक प्रकार की पतियों में शिक्षित किये गये ॥२०६॥ जिस पजा के पास एक भी उक्लदाण-युक्त प्रशंसनीय थोड़ा होता है, उसके करकमलों पर विजयलक्ष्मी रहती है। उसके राज्य में मेघों से अलवृष्टि समय पर होती है और उसकी प्रजा के धर्म (अहिंसा व परोपकार-आदि), भर्य (धन-धान्यादि) एवं काम ( पुष्पमाला प सी-सुख एवं पंचेन्द्रिय के सुख) इन तीनों पुरुषार्थों की उत्पत्ति होती है ॥२०७|| जिस राजा के पास प्रशस्त घोड़े होते हैं, यह पृथिवी ऐसी बीन्सरीखी उसके बरा में होजाती है, उदयाचल और अस्ताचल ही जिसके कुच (स्तन) कलश , समुद्र ही जिसके नितम्ब है और गाव सिन्धु नदियाँ हो जिसकी दोनों भुजाएँ हैं एवं राजधानी ही जिसका मुख है" ।।२०।। इसप्रकार उक्त 'करिकलाभ' और 'काजिविनोदमकरन्द' नामके स्तुतिपाठकों द्वारा कहीं हुई विवासियों (विज्ञापन) श्रवण कर मैंने पर्ने अपने शरीर पर धारण की हुई ऐसी वस्त्राभूषण-आवि बस्तुएँ प्रदान की, जो कि मेरे शारीरिक पांचों भको ( कमर, उसके ऊपर का भाग (पक्ष स्थल), दोनों हाथ और मस्तक) पर धारण किये हुए पस्त्राभूषणों से भी विशेष उत्कृष्ट ( बहुमूल्य ) थीं। तत्पश्चात् रेशमी दुपट्टे के प्रान्त-भाग से अपना मुख आच्छादित किये हुए और "सिखाया 1. उपमालङ्कार । २. रूपकालंकार । ३. समुसयालदार । ४, समुच्चयालद्वार। ५. रूपकालाहार । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये सति साम प्रासादसंपादनं प्रतिमानिवेशनं च युगपत्कुत इति बधा—यथा समावश्विदारकर्मणः पबन्धोत्सवः, कृतपट्टबन्धोत्सवस्य वा दारकर्म, सत्यनुगुणमायुक्ते हाने दारकर्म पथम्पोत्सवं च सह समाचरेदित्यत्र बीचारयोरिव न करिपूर्वापरकमनियमः । फोहस्तिनीफलपुष्पयोरिव सहमाने या न विरोधः कोऽपि समस्ति । ततः सूक्तामुभयोत्सवखानविशुद्धिः । तथाहि-- सुकविकाव्यकयाविनोददोहदमाघ माघस्तावदयं मासः सपत्नसंतान सरः शोषचे शुचिः पक्षः, दुबरवैरिकुल कामिनीवैभन्पदीक्षागुरो गुर्खारः, अनवरत बसु विश्राणनसं तर्षितसमवासिथे तिथिः पचमी, प्रणसभूपाखाङ्गनाशृङ्गारनामका ज्योतिषी विद्वान है प्रधान जिसमें ऐसे ज्योतिषवेत्ता विद्वन्मण्डल ने आकर मुझ से निम्नप्रकार निवेदन करते हुए कहा कि हे राजन्! आपके विवाहोत्सव और राज्यपट्टाभिषेक का उत्सव - समय निकटवर्ती है । हे राजन! देवमन्दिर बनवाकर मूर्ति स्थापित करनी चाहिए ? अथवा मूर्ति स्थापित करके देवमन्दिर बनवाना चाहिए ? जिसप्रकार शक्ति (विशेष धन आदि की योग्यता ) होने पर उक्त दोनों शुभ कार्यों (मन्दिर निर्माण व मूर्ति-स्थापन ) का एक साथ करना युक्ति-संगत है उसीप्रकार जिसका विवाहसंस्कार किया गया है ऐसे राजा का राज्यपट्टाभिषेक संबंधी उत्सव करना चाहिए ? अथवा जिसका राज्यपट्टाभिषेक संबंधी उत्सव किया जाचुका है ऐसे राजा का विवाहोत्सव करना चाहिए ? यहाँपर भी यही न्याय ( उचित ) है कि यदि दोनों महोत्सवों का लग्न' ( शुभ मुहूर्त, अथवा राशियों का उदय ) अनुकूल (श्रेष्ठ) है तो विवाहोत्सव और राज्यपट्टाभिषेक संबंधी उत्सव इन दोनों को एक साथ करना युक्तिसंगत है । हे राजन् ! जिसप्रकार बीज और अकुर इन दोनों में पहिले और पीछे होने का क्रम-नियम पाया जाता है । अर्थात् – पहिले बीज होता है और पश्चात् अकुर होता है । विवाहोत्सव और राज्यपट्टाभिषेक संबंधी उत्सव इन दोनों में पहिले और पीछे होने का कोई क्रम-नियम नहीं होता । अर्थात्-लग्न अनुकूल होनेपर दोनों एकसाथ होसकते हैं एवं जिसप्रकार कूष्मारडी ( वृतविशेष) के पुष्प और फलों के एकसाथ उत्पन्न होने में विरोध पाया जाता है । अर्थात्जिसप्रकार कूष्माण्ड आदि वृक्षों में पहिले पुष्प होते हैं पश्चात् फल होते हैं, दोनों पुष्प व फलों की उत्पति बिरुद्ध होने के कारण एकसाथ नहीं होसकती उसप्रकार हे राजन् ! यहाँपर विवाहोत्सव और राज्यपट्टाभिषेक संबंधी उत्सव इन दोनों को एकसाथ होने में किसीप्रकार का विरोध नहीं पाया जाता । अर्थात् अनुकूल उस प्रकार (शुद्ध भुहूर्द) में ये दोनों कार्य एक साथ किये जासकते हैं। इसलिए आप विवाहोत्सव और राज्यपट्टाभिषेक-उत्सव इन दोनों उत्सवों की लग्न-विशुद्धि ( मुहूर्त-विशुद्धि) निम्नप्रकार सुनिए १५० अथानन्तर उक्त ज्योतिषज्ञ विद्वन्मण्दल यशोधर महाराज से दोनों उत्सव ( विवाहोत्सव व राज्यपट्टाभिषेक संबंधी उत्सव ) का शुद्ध मुहूर्त निम्नप्रकार निवेदन करता है (माधव) सदृश अच्छे कवियों की काव्यकथा की क्रीड़ा मनोरथ रखनेवाले हे राजन् ! अनुक्रम से इस समय माघ का महीना है। शत्रु-समूह रूपी खालाव को निर्जल करने में शुचि ( आषाढ़ मास ) सरीखे हे राजन् ! इस समय शुचि ( शुक्लपक्ष ) है । दुःख से जीतने के लिए अशक्य ( महाप्रतापी ) शत्रु समूह की कमनीय कामिनियों के वैधव्य ( विधवा होना ) व्रत के प्रहण करने में गुरु का कार्य करनेवाले हे राजन् ! आज गुरु ( बृहस्पतिवार) नाम का शुभ दिन है । निरन्तर सुवर्ण व रत्नादि धन को दान दृष्टि द्वारा समस्त अतिथियों ( दानपात्रों ) को अच्छी तरह सन्तुष्ट करनेवाले हे राजन् ! आज यी तिथि है। १. 'राशीनामुदयो रूमम्' इति वचनात् सं० टी० ० ३१७ से संकलित - सम्पादक Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kat. द्वितीय भाभासः समागमाभरपदामोत्तर उत्तरानक्षत्रम्, प्रचण्डदोर्दपरभण्डनकादियानवयमनसंपादितजगत्प्रयोहक वर्षको योगा; भावार्थ-ज्योतिष-शास' में प्रतिपदा से लेकर क्रमशः नन्दा, भद्रा, जया, रिता और पूर्णा ये तिथियों की संज्ञाएँ है । अर्थात्-कृष्ण पक्ष व शुक्लपक्ष की प्रतिपदा ( एकम), षष्ठी (ठ) और एकादशी म्यारस ) इन तीन विथियों की 'नन्दा' संझा और द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी (पारस ) की 'भद्रा संक्षा है एवं तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी (तेरस) की 'जया' संशा और चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी को 'रिका' विधि कहते है एवं पंचमी, दशमी और अमावस्या अथवा पूर्णिमा की 'पूर्ण' संशा है। इसीप्रकार सिखियोग (शुभ कार्य में शुभ देनेपाली) तिथियाँ भी निम्नप्रकार बार के अनुफम से कही गई है। अर्थातशुक्रवार को नन्दा, बुधवार को भद्रा, शनिवार को रिक्ता, मंगलवार को जया और बृहस्पतिवार को पूर्णा सहक तिथिएँ सिद्धियोग-शुभकार्य में शुभ दायक-कही गई हैं। निष्कर्ष-उक्त निरूपण से 'पूर्णासिद्धियोग' सूचित किया गया है। . पूरा राक्षामों की सोच अभिनियों से अलाभूषणों से विभूषित करने में और उन्हें अभयदान देने में उत्तर (श्रेष्ठ) हे राजन् ! आज उत्तरा ( 'उत्तराभाद्रपद' ) नाम का नक्षत्र है। भाषार्थ-ज्योतिषशास्त्र के विधानों ने कहा है कि कमनीय कन्या के साथ पाणिग्रहण करने में वेधरहित मृगशिय, मघा, स्वाति, तीनों उसरा ( खसरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तरा भाद्रपदा), मूल, अनुराधा, हस्त, रेखवी और रोहिणी ये नक्षत्र शुभ-सूचक है। निष्कर्ष-प्रत प्रमाण से पूर्ण विधि का सिद्धियोग ष 'उत्तराभाद्रपद नक्षत्र होने के फलस्वरूप आज का मुहूर्त विशेष महत्वपूर्ण ( विवाह व राज्यपट्टोपयोगी ) व प्रस्तुत पोनों महोत्सवों की निर्विघ्न पूर्ण सिद्धि प्रकट कर रहा है। ऐसे शवरूपी चैत्यों का, जो कि शक्तिशाली भुजदण्डों द्वारा किये जानेवाले युद्ध की खुजलीवाले है, वमन ( भा) करने से तीन लोक को हर्षण (आनन्दित ) करनेवाले ऐसे हे राजन् ! आज 'दर्पण' नाम का चौदहवाँ शुभ योग है। भावार्थ-ज्यौतिषविद्या-विशारदों ने विष्कम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, सोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गह, वृद्धि, ध्रुव, व्याघाव, 'हर्षेण' पका, सिसि, व्यतीपान, वरीयान्, परिघ, शिव, सिद्धि, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्मा, ऐन्द्र और वैधृति, इसप्रकार २७ योग म्मने हैं, उनमें से 'हर्षण' योग १४ वाँ है, जो कि प्रस्तुत विवाहोत्सष व राज्यपट्टाभिषेक उत्सव में विशेष शुभसूचक है। निष्कर्ष-योग' अपने नामानुसार फलदायक होते हैं, अतः 'हर्षण नामका चौवहाँ थोग आपको दोनों उत्सवों में विशेष हर्ष-प्रानन्द-प्रदान करेगा। क्षत्रिय राजपुत्रों की ऐसी चरित्र१.तथा चोत्साम्प दवकहलायक-नन्दा भट्टा जया रिता पूर्णा च तिथयः क्रमात् । पारश्रयं समावर्य गणयेत् प्रतिपन्मुखाः ॥१॥ शुके नन्दा पुर्वे भरा शनी रिका कुनै जया । गुरौ पूर्ण तिथिशैया सिद्धियोगाः शुभे शुभाः ॥२॥ २. तथा चोक्तम्-कन्याविवाहे मिषेधो मधास्वात्युत्तरामये 1 मूलानुराधाहस्तेषु रेषतौरोहिणीभूगे ॥१॥ सं० टी० पृ. ३१८ से संकलित-सम्पादक ३-तपाचोकम्-योगाः सप्तविंशतिर्भवन्ति । ते के 'विष्कम्भः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यः शोमनस्तथा । अतिगण्डः सुकर्मा च मृतिः शूलं तथैव च ॥ १ ॥ गण्डो घधिधुवचेव म्याघातो हर्षणस्तथा। बर: सिद्धिय॑तीपातो वरीयान परिवः शिवः ॥ २ ॥ सिदिः साध्यः शुभः शुलो ब्रह्मा ऐन्द्रोग्य वैधृतिः, ॥३॥ संस्कृत टीका पृष्ठ ३५८ से संगृहीत–सम्पादक --सपा धोक्तम्-'सप्तविंशस्ति योगास्ते स्वनामफलदायकाः, ॥1॥ होगचक से संकलित-सम्पादक Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये सोयाबीमारिक्षत्रिपचरिकीर्तनधाप्रथम प्रथम करणम्, निजप्रतापगुणगायनीकृतामसमिधुन मिधुनोदयः समया, सोकोचमोत्सवयम् पम्न एकाइयो समस्य, श्रीसरस्वतीप्रसाधितपूर्वपाणिग्रह प्रहगणः सर्वोऽपि सतमारमवादादेशाअक्तूम्योपावस्य, कहाणपरम्परासम्पल पम्न नमानुन मानुषो हानांशकरच, अशेषविश्वभरेश्वशतिसापितमोत्सवदिवस सितारातारेवरावस्थारच प्रकार्म प्रशस्साः, विशेषेण तु गुरुवर महादेव्या, देवस्य पावित्पमतम् । तदुसित देवाः' इति मजन की वार्ता में, जिसमें उनकी शूरता, धीरता, उदारता और शक्ति-आदि प्रशस्त गुण पाये जाते है, प्रयम (प्रधान ) ऐसे हे राजन् ! आज 'वष' नामका प्रथम करण है। भावार्थ-ज्योतिषशास्त्र के प्राचार्यों ने अब, बालय, कौलष, तैत्तिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, पतुष्पाद, नाग, व किंस्तुघ्न करण, इसप्रकार ११ करण माने है। उनमें से शुरू से लेकर सात करण-नाव से लेकर पिष्टिकरणपर्यन्त-चल बदलनेषाले) है और अन्त के चार (शकुनि, चतुष्पाद, नाग 4 किंस्तुन) स्थिर-अचल ( प्रतिनियत तिथि में होनेवाले और न बदलने वाले) होते है। हवाहरणार्य-कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन अन्त्य दल में 'शकुनि' करण होता है, अमावस्या के पहले दल में चतुष्पाद और पिछले दल में नागकरण होता है, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथम पक्ष में किस्सुन' करण होता है। अतः ये चार करण स्थिर-अचल-कहे जाते हैं। प्रकरण में शुक्लपक्ष के करण कोष्टक से, जो कि छोडाचक्र पृ. १२ में उल्लिखित है, विदित होता है कि शुपाकी पनामी तिथि में दिन में वष (प्रथम) और रात्रि में बालय ( दूसरा) करण है। निष्कर्ष-हे राजम् ! आज प्रथमकरण मुहूर्त-शुद्धि में विशेष महत्वपूर्ण (शुभ-सृषक ) है देवी व देवता-युगलों को अपने प्रतापगुण का गान करने में तत्पर करनेवाले हे देव! प्रस्तुत समय मिथुन हामोदय से सुशोभित है। समस्त लोकों के नेत्रों को चन्द्र-सरीखे आनन्दित करनेवाले हे राजाधिराज! इस समय मिथुनलग्न के ग्यारह में चन्द्र का पक्ष्य है। लक्ष्मी और सरस्वती के साथ सबसे प्रथम विवाह किये हुए हे स्वामिन् ! इससमय मिथुनलम के सातवें, माठवें और बाद में स्थान में कोई भी अशुभ प्रह नहीं है। कल्याण-शुभ) श्रेणीरूप सम्पत्ति से परिपूर्ण होने के कारण दिव्य (स्वर्गीय) मानवता को प्राप्त हुए हे नरेन्द्र ! आज वृषसम का मिथुनांश लिपद होने के फलस्वरूप मानुष होने से शुभसूचक है। समस्त पृथिवीमण्डल के राजाओं से विशेषतापूर्ण जन्म व उत्सवदिवस-शाली हे देव.! प्रवास, नष्ट, हास्य, रति, क्रीडित, सप्तमुक्त, फर, कम्पित व सुस्थित इनके मध्य में दिवसावस्था विशेष प्रशस्त है एवं ताराषस्था भी प्रशस्त है। भावार्थ-छह वाराएं शुभ होती है। अर्थात्-जन्मतारा, दूसरी, छठी, चौथी, आठमी और नेपमी वारा ये छह ताराएँ शुभ होती है और तीसरी, पाँचवी और साती सारा अशुभ होती है, जिस नक्षत्र में जन्म होता है, वहाँ से लेकर तारा की गणना की जाती है। अतः हे राजन् ! सारा भी प्रशस्त है .एवं चन्द्र की अवस्था (प्रथम) भी प्रशस्त है । हे देव ! विशेषरूप से अमृतमती महादेवी का 1-तथा चोकम्-'प्रवासनामयमृतंजयारल्या हास्या रतिकोडितसप्तमका कराया कम्पितमस्थिताय ।' तेषु मध्ये दिवस्रावस्था अतिशयेन प्रशस्ता वर्तते । २ सदुका अन्मतारा द्वितीया च पछी चैन चतुर्षिका 1 अध्मौ नवमी वैव षद् ताराच शुभाषहाः ॥१॥" एतापता वृतथा, पवर्मा सप्तमी च तारा भयभा इत्यर्थः । पस्मिन् नक्षत्रे अन्म भवसि सरभादगण्यते । संस्कृत ठीका पृष्ठ ११९ से संगृहीत–सम्पादक Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भावासः विनिवेदितसविधतरोल्सवसमयः स्मुपसृत्य विलासिनीजनजन्यमानमालालापं समभिषेकमण्डपममराठयमिव सरस्नरखतकार्सस्वरकलशम्, ईश्वरस्यशुरमिब विविधौषधिसमाथम्, अपारमिव समुद्गापामासुभगम्, आहे निवासमिव प्रसाधितसिसातपस्वसामरसिंहासनम्, अम्बुजासनशयमिव पुसकुरालंकृतमध्यम, एवमपरेष्यपि तेषु तेवभिलषितेपु वस्तषु करुपमाममिव परिपूरितकामम् , मन्वागतकुलदेवतोपकण्ठपरिकल्पितसकलकुलधनायुधम्, आमलोकापनीयमानमामवसपाधम्, __ पल्पाकोन्मुसमुकशुक्तिएटोर्मुक्ताफलैः स्फारिख यत्समाप्रविस्टकम्बलखैरप्लासितं विद्रुमैः । पवारापणनामिपमरजोराजीभिरापिञ्जर तक्ष्मीरमणीत्रिभोट जलधे पायोस्तु ते प्रीतये ॥२०१८ गुरुवल है और आपका आवित्य ( सूर्य) बल है, अतः हे राजन् ! आप विषादीक्षा व राज्याभिषेक महोत्सव-सम्बन्धी ऐसे अभिषेक मण्डप में, प्राप्त होकर शोभायमान होइए । ___तत्पश्चात्-उतप्रकार से ज्योतिर्वित् विन्मण्डली द्वारा प्रस्तुठ दोनों उत्सवों की लपशुद्धि निवेदन करने के अनन्तर-मैं (यशोधर ) उस ऐसे विवाहोत्सव य राज्याभिषेक महोत्सव-मण्डप में प्रास हुआ, जिसमें कमनीय कामिनियों द्वारा माङ्गलिक गान-ध्वनि की जारही थी । वह ( अभिषेक-मंडप) चाँदी के और रत्नजडित सुवर्णमयी पूर्ण कलशों से उसप्रकार अलंकृत होरहा था जिसप्रकार सुमेरु पर्वत रत्नमयी पसुवर्णमयी कमों से अलकत होता है। उसमें नाना माँति की औषधियाँ उसप्रकार वर्तमान थी जिसप्रकार हिमालय पर्वत में नाना प्रकार की पौषधियाँ वर्तमान रहती है। वह अभिषेक मण्डप समुद्र में जानेवाली गमा-मादि नदियों की जलराशि से ऐसा विशेष रमणीक प्रतीत होता था जिसप्रकार समद्र अपनी ओर आनेवाली ( प्रविष्ट होनेवाली ) -आदि नदियों के अलप्रवाह से मनोज्ञ प्रतीत होता है। यह तच्छत्रों, पमरों व सिंहासन से उसप्रकार घिभूषित था जिसप्रकार तीर्थकर सर्पज्ञ भगवान का समवसरण श्वतखत्रों, चमरों व सिंहासन से विभूषित होता है। उसका मध्यभाग कुशांकुरों से उसप्रकार अलंकृत होरहा था जिसप्रकार ब्रह्मा के हस्त फा मध्यभाग कुशांकुरों से अलंकृत होता है। इसीप्रकार बाह उन-उन जगप्रसिद्ध, अभिलषित व माङ्गलिक वस्तुओं से उसप्रकार लोगों के मनोरथ पूर्ण करता था जिसप्रकार स्वर्गलोक अभिलषित व माङ्गलिक प्रस्तुओं से देवताओं के मनोरथ पूर्ण करता है। जहाँपर बैश-परम्परा की कुलदेवता (अम्बिका ) के सभीप पूर्व पुरुषों द्वारा उपार्जित की हुई धनराशि य शत्रश्रेणी स्थापित की गई थी और जिसमें मनुष्यों की संकीर्णता (भी) हितैषी कुटुम्बी-वर्गों द्वारा दूर की जारही थी। तत्पश्चात् -जललिबिलास नामक सालिक (स्तुतिपाठक) से निम्नप्रकार विवाह-दीक्षाभिषेक व राज्याभिषेक सम्बन्धी माङ्गलिक कविताओं को श्रवण करता हुआ मैं गृहस्थाश्रम ( विवाह-संस्कार ) संबंधी दीक्षाभिषेक व राज्याभिषेक के मङ्गल मान से अभिषिक्त हुआ। लक्ष्मीलप रमणी के साथ फ्रीड़ा करनेवाले हे राजन् ! यह जगप्रसिद्ध ऐसा समुद्र जल, आपको विशेष आनन्दित ( उल्लासित ) करे, जो ऐसे मोक्तिकों ( मोती-श्रेणियों ) से प्रचुरीकृत (महान) है, जिन्होंने पाकोन्मुखता-वश (पके हुए होजाने के कारण) अपना (आधारभूत) शुचिपटल (सीपों का समूह) छोड़ दिया है। जो ऐसे समुद्र-संबंधी प्रवाल (मूंगा) मणियों से शोभायमान होरहा है, जिनमें तत्काल कन्वलदल ( अंकुर-समूह ) उत्पन्न हुए है एवं जो श्रीकृष्ण की नाभि से सस्पम हुए कमल की पराग-समूह से चारों तरफ या कुछ पीतवर्णशाली होरहा है। ।। २०६।। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलिलामपूत्रव्ये पनाम्पसमात्यः पुरकरी ल्पामः कौस्तुमो वक्ष्मीरसासा गणरच सुमया साधु घुभाना सुने । कागो भवनोएकमरिचरित रासेष्यमान पनस्तबलावरपारि मबनविधौ भूपात भपक्षे ॥१०॥ मजाललोकमुनिमानसकसममाणो कार्य मोति सहदेव कृताभिषेकन् । प्रायशिवाश्रमसापसानो सेव्यं च यत्तत्र सक्षम मुदेऽमा गाइए ॥११॥ पानीमाामिनासतो मधवाविधातुबमा सेव्यन्ते प्रतिवासा सुगावाः पुण्यपानापमाः समन्ते शशिमौलिना शिरसा स्वम्म बनायेव पास्ता र स्वमाल सन्तु महतो भागीरपीसमवाः ॥२१॥ यमुनानमागोदा चन्द्रभागासरस्वती । सरयूसिन्धुशोणोल्यै सौदेवोऽभिषिच्यताम् ॥२१३॥ इति उलोनिविलासा तालिबाग्मध्वनावसरवृत्तान्यायिन् , उहोखालकनीपिमिविचलितापाडोल्पलभेणिभिः प्रक्षुभ्यरचयाकमिथुमैन्यालोलनाभीहवैः । बारसीमिवहः सतूर्यनिन यासामिपेकोत्सवः कार्म स्कारितकाशिदेवापुतिनैः सिन्धुप्राईरिव ॥१४॥ वह प्रसिद्ध क्षीरसागर का ऐसा जल, जिसमें से चन्द्रमा, ऐरावत हाथी. कल्पवृक्ष, कौस्तुभमणि. लक्ष्मी. रम्भा, तिलोत्तमा, उर्वशी और मेनका-बादि स्वर्ग की चप्सरा-समूह विजनों के प्रमुदित करने के हेतु असूत्र के साथ-साथ उत्पन हुआ था एवं जो मनुष्य लोक का उपकार करनेबने मेघों द्वारा भास्वादन किया गया है, इस माङ्गलिक खानविधि में धापका कल्याणकारक होवे । भावार्थ-महाकवि कालिदास' ने भी क्षीरसागर सम्बन्धी जलपूर के विषय में ललित काव्य-रचना-द्वास प्रस्तुत विषय का निरूपण किया है ।। २१० ।। यह प्रसिद्ध ऐसा गङ्गा-जल आपके हनिमित्त होवे, जो एक बार भी सान विधि में प्रयुक्त किया हुआ स्वर्ग के मरीचि व अत्रि-आदि ऋषियों के मानसिक पापसमूह क्षीण ( नष्ट ) करता है एवं जो हिमालय की शिखर पर स्थित हुए उपस्त्रियों के स्नान घ पानादि के योग्य है ॥२११ ॥ वह ऐसा भागीरथी-(गंगगा) उत्पन्न जल-पूर, आपके कान-निमित्त होवे। जो गंगा के वटवर्ती आममौ में निवास करनेवाले मुनि-समूह व देवता गणों द्वारा प्रतिदिन सेवन किया जाता है व सन्ध्या वन्दन-विधि में उद्रिक ( समर्थ ) है । जो पुण्यरूप क्रय (खरीदने योग्य ) वस्तु का मार्ग (वाजार की दुकान ) सरीखा है। अर्थान-जिसप्रकार हमार्ग से ऋय वस्तु खरीदी जाती है एसीप्रकार जिस गंगा-जल से पुण्यरूप क्रय वस्तु खरीदी जाती है और जो ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों-आपके सानिमित्त ही श्रीमहादेव ने जिसे अपने मस्तक पर स्थापित किया है ।। २१२॥ यमुना, नर्मवा, गोदा, चन्द्रभागा, सरस्वती, सरयू, सिन्धु मौर. शोण ( तालाव-विशेष) इन नदियों प वालाप से उत्पन्न हुए जलपूर द्वारा श्रीयशोधर महाराज मान कराए जावें ॥ २१३ ॥ ___ इसप्रकार मेरा विवाहदीक्षाभिषेक व राज्याभिषेक का सत्सब ऐसी घेश्या-श्रेणियों द्वारा अनेक वादिन ध्वनिपूर्वक सम्पन्न हुआ, जो विशेष चञ्चल केशपाशरूपी तरङ्गों से ज्याप्त थीं। जिनके नेत्रप्रान्तरूपी कमल-समूह चन्चलता अथवा नानाप्रकार की चेष्टाओं से शोभायमान थे। जिनके कुच (स्तन) रूपी चक्रवाक ( चकवा-चवी ) युगल कम्पित हो रहे थे। जिनके नाभिरूपी वियर विशेष 'चान्द्रभागा' । ख.। .. सपा धोक्तं कालिवासेन महाकविना'लक्ष्मीकस्तुभशारिजातकमुराधन्वन्तरिश्चन्यमा गावः कामवुधाः सुरेश्वरगंशी रम्मादिदेवाहनाः। अश्वः सप्तमसः सुपा हरिधनुः शंखो विषं चाम्बुधे रत्नानीति चतुर्दश प्रतिदिन कुर्वन्तु वो मंगलम् ॥ १॥ . २. समुच्चयालंकार । ३. अतिशयालंकार । ४. उत्प्रेक्षालंकार । ५. समुच्चयाधर । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आधासः पुना सारस्वतसर्ग इव धृतधवाल्माल्यविलेपनाचारः, समारक्षणदक्षागरमसारः, समाश्रित्य *मार्जनीयं देशमाचरितोपानः, कुशपूलपानीयपरिकरियससककोपकरणप्रोक्षणः, पर्युपास्यासुतोवलद्वितीयः पृषदाज्येनामिक्षया । समेधितमहसं द्रविणोदशमनेकविश्ववस्तुव्यस्वहस्तैर्निवर्तितमज नकर्मभिर्यायजूफलोनित वातृकमन्त्राशीवाइविधिभिर्यधाविधानम्. 'अहो लक्ष्मीनिवासमय, विलासिनीविनोदचन्द्रोदय, श्रीमतीपसिश्रीवर्मनुपमन्दनामृतमशीमहादेषीपुर:समामिमहामण्डलेश्वरपसिवराभिः शतनन्द हय अतिभिः, साण्डबोधानदेश इथ मामिः, समुवीयोदकाभोग इव वेलानदीमिः, प्रथमतीकरावधारसमय इन रक्षवृष्टिमिः, निविपर्यत व नक्षत्रपक्तिभिः, पार्वणेन्दुरिव कलामिः, सरोवकाश इव कमसिनोमिः, माधव इव बनलक्ष्मीमिः समम् चहल थे और जिन्होंने कमर के अप्रभागरूपी वालुकामय प्रदेश विशेष रूप से ऊँचे किये थे ; इसलिये जो उसप्रकार शोभायमान होरही थी जिसप्रकार नदी-प्रवाह उक्त गुणों से शोभायमान होते हैं। अर्थात्-जिसप्रकार नदी-प्रवाह पश्चन तरङ्ग-शाली, हिलनेवाले कमल-समूह से व्याप्त, चकवा-चकवी युगल के संवार से सुशोभित, चश्चल मध्यभागों से युक्त और ऊँचे बालुकामय प्रदेशों से अलत होते हैं' ।।२१४॥ दोनों ऑभषक-उत्सवों के पश्चात --उज्वल पट्टदुकूल ( रेशमी शुभ्र दुपट्टा), पुष्पमालाओं, कस्तूरी व चन्दन-आदि सुगन्धि द्रव्य-लेपों व आभूषणों से अलकत हुश्रा मैं उसप्रकार शोभायमान हो रहा था जिसप्रकार सरस्वती-सृष्टि शुभ वल, पुष्प-मालानों व चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों के लेप और आभूषणों से अलङ्कत हुई शोभायमान होती है। चारों तरफ से रक्षा करने में समर्थ शक्तिशाली सेनावाने मैंने हस्ता-पादप्रक्षालन-योग्य स्थान पर आकर आचमन-(कुरला ) विधि की। वत्पश्चात्-मैंने हाभ से पषित्र जल द्वारा समस्त पूजनादि के उपकरण पात्रों की प्रोक्षण ( अभिषेचन ) षिधि की और यज्वा ( पुरोहित). से सहित हुए मैंने दधि-मिश्रित घृत से बदधिमिश्रित अविच्छिन्न दुग्ध-धाराओं से घृत द्वारा प्रज्वालित को गई. अग्नि की, ऐसे अनेक इवन करनेवाले लोगों के साथ, जिनके करकमलों पर नानाप्रकार की माङ्गलिक वस्तुएँ ( नारियल, खजूर व केला-आदि ) विद्यमान थीं, जिन्होंने अग्रिहोत्र ( हवन ) विधि सम्पन्न की थी और जिन्होंने घायुवक पुण्य मन्त्रों द्वारा [वर-वधू को ] आशीर्वाद दिया था, पूजा की। अर्थात्-विवाइहोम किया। तत्पश्चात् 'मनोजकुअर नाम के ऐसे स्तुतिपाठक से, जो कि मेरी ब मेरी प्रिया अमृतमति महादेवी के गुणगान कर रहा या, निम्नप्रकार गद्य-पवरूप पचन अषण करता हुआ मैं विवाह-दीज्ञापूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुधा और राज्यमुकुट से अलङ्कृत हुआ। 'लक्ष्मी के निवासभूत हृदययुक्त व कमनीय कामिनियों की क्रीड़ा-हेतु चन्द्रोदय-सरीखे हे यशोधर महाराज! आप ऐसी महामण्डलेश्वर राजाओं की कन्याओं के साथ, जिनमें श्रीमती नामकी पट्टरानी के पति श्रीवर्मा राजा की पुत्री अमृतमति महादेवी प्रधान है, उसप्रकार प्रीतिमान होवें जिसप्रकार ब्रह्मा येदिक पाणियों से, स्वर्गलोक का उद्यान-प्रदेश कल्पयल्लियों से, समुद्र-संबंधी जखराशि का विस्तार समुद्र-समीपवर्ती या तटवर्ती नदियों से प्रोतिमान होता है एवं जिसमकार ऋषभदेव तीर्थकर का जन्मकल्याणक महोत्सव रत्नवृष्टि से और सुमेरुपर्वत नइत्रपक्तियों से, पूर्णिमासी का चन्द्र कलाओं से य जिसप्रकार वालाव-प्रदेश कमलिनियों से एवं जिसप्रकार वैसाखमास या षसन्त वन की पुष्प-फलादिरूप लक्ष्मी से प्रीतिमान या शोभायमान होता है। * 'भाजलीय (हस्तपादप्रक्षालनोचित स्थानं ) १०, ख०, ग०,। १. रूपक व उपमालाहार। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिनकचम्पूछान्ये लक्ष्मीरिय स्वमपि माधव पर साक्षादेश शची सुरपतिस्त्वमपि प्रतीतः । आमास्यते तविह किं भवबोरिवानी प्रीतिः परं रखिमनोमायोरिखास्तु ॥२१॥ एषा हिमांशुमणिनिर्मितयेहपहिस्स्वं पूरचितावरच साक्षात् । एवं न बेत् कयमियं सर संगमेज प्रत्यङ्गमिर्गतका मुसमुस्कासि ॥११॥ स्वं चन्द्ररुचिरा सत्य कमललोचना । स्वपाम्यया रहा भोल्कुलमखितेक्षणा ॥२१॥ उक्का कि म किंचियुमियं नालोरितालोको सम्या विहिवाममा च विद्यशश्वासोल्न पठे। नौलापविधौ सकोपादा गम्तुं पुनर्याश्यति प्रीवि कस्म तथापि मो बिसनु बाला म संगमे ॥२१॥ किंचिकेकरवीक्षितं किमपि च भूभालीलावित किंचिन्मम्मनभाषित किमपि प रषाभिलाषेहिसम् । इथं मुग्धतया बहिलिसितं वध्या नवे संगमे चिचस्पेन मनोभुवा बलवता नीही खलत्वं कृतम् ॥१९॥ हे राजन् ! यह 'अमृतमति' महादेवी लक्ष्मी है और आप भी साक्षात् श्रीनारायण ही हैं। यह इन्द्राणी है और आप साक्षान् विख्यात इन्द्र ही हैं। अतः आप दोनों को इस प्रसङ्ग में क्या आशीर्वाद विया जाय ? मेरे द्वारा केवल यही आशा की जाती है कि आप दोनों दम्पति का ऐसा उत्कृष्ट डेम हो जैसा रति और कामदेव में होता है ।।२१५ ।। हे पजन ! इस अमृतमती महादेवी का उत्तम शरीर चन्द्रमन्त मणियों से निर्मित हुआ है और आपका सुन्दर शरीर चन्द्र-चूर्ण से रचा गया है। हे देव ! यदि ऐसा नहीं है तो यह सुन्दर शरीरवाली अमृतमति महादेवी आपके संगम से समस्त अंगों से प्रकट हुए बलों ( स्वेद-जल ) से व्याप्त हुई किसप्रकार शोभायमान हो सकती है? ॥२१॥ हे राजन् ! आप चन्द्र के समान कान्तिशाली हैं और यह देवी निश्चय से कमल के समान सुन्दर नेत्रोंवाली है, धन्यथायदि ऐसा नहीं है तो आपके द्वारा दर्शन की हुई यह संकृषिस नेत्रोंवाली क्यों होजाती है? ___भावार्थ-जिसप्रकार चन्द्रोदय से कमल संकुचित होजाते हैं उसीप्रकार इसके नेत्रकमल भी चन्द्रजैसे आपके संसर्ग से संकुचित होजाते हैं, अतः निस्सन्देह बाप चन्द्र हो और इस महादेवी के नेत्र कमल सरीखे मनोक है ।। २१७ ॥ हे राजन् ! यह महादेवी आपके द्वारा वार्तालाप की हुई लाश कुछ भी उच्चर नहीं देवी । आपके द्वारा निरोक्षित ( प्रेमपूर्वक देखी ) हुई यह अापकी ओर नहीं देखती और रतिविलास के अवसर पर पलंग पर प्राप्त हुई यह पराधीन श्वासोच्छवासों की व्याप्तिपूर्वक कम्पित होती है एवं आपके द्वारा हँसी-मजाक किये जाने पर कुपित चित्त होती हुई वहाँ से भागना चाहती है। तथापि प्रथम मिसन के अवसर पर पाला (नव वधू ) किस पुरुष के हृदय में प्रेम विस्तारित नहीं करती? अर्थात्-सभी के हृदय में प्रेम विस्तारित करती है। ॥ २८ ॥ नई बहू के साथ प्रथम मिलन के अवसर पर उसकी मुग्धवा ( कोमलता ) षश निम्रप्रकार वाम विलास ( श्रृंगाररस-पूर्ण हाव-भाष-श्रादि चेष्टाएँ ) होता है। उदाहरणार्थ-उसकी चितवन कुछ थोड़ी कटाक्ष-लोला-युक्त व भ्रुकुटियों ( भोंहों ) की उपक्षेप शोभा से सहित होती है और उसकी वाणी लज्जावश कुछ अस्पष्ट होती है तथा येष्टा [अपने प्रियतम करे ] प्रेमपूर्वक आलिङ्गन करने की ऐसी इच्छा-युक्त होती है, जो कि वचनों द्वारा निरूपण करने के लिए अशक्य है। इसी अवसर पर मनमें स्थित हुए प्रौढवर ( विशेष शक्तिशाली ) कामदेष द्वारा कुछ समय तक कटि (कमर) वरुवन्धन की दुष्टता रची गई। अर्थात् कटिबन्धन-बल कुछ समय तक अर्मला (वेदा) सरीखा होकर रतिविलास मुख में बाधा-जनक हुआ ॥२१६ ।। 1'दिवा ' १ अनुमानालंकार । २ अनुमानालंकार । ३ अर्थान्तरन्यासालङ्कार । ४. उपमालहार । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः दिवसे छोडीजावर्तसे भवनधनविकासे मन्यमाखापहासे । शिविरमण तव स्वात् स्फार माङ्गारष्टास्ये सरभसम्मका कामडी रहस्ये ॥ २२० ॥ इठि मामतमचिमहादेव च प्रतिपडतो मनोजकुञ्जराद्वन्दिनो वचांसि निरमपन, किल साई संजग्मे संपादिवाश्रमदीक्षाभिषेकरच करमपुरोधसां वदनु दक्षिणवृत्तिभिरिनिवैः । धरानस्विनैः विपुलैर्ध्वनिभिश्च जयावहैः ॥ २२१ ॥३ समानन्दितमतिविधायात्मनस्तचरित्रतयस्य च पबन्धोत्प्रवमिति मनेकविद्दिवमायुपचर्य राज्यलक्ष्मी चिकानि संभाव्य च । १८८७ अपहरित पुष्पमयकमावयोधनाद्देव | अधरितसकलमहीधरमरभाति वडापत्रमिमेकम् ॥ २२३ ॥ द्वारिस स्थितः । आरोहतां क्षितीशानां सिंहः सिंहासनं नृपः ॥२२३॥ पृथिवीनाथ ! एकान्त स्थान में नई बहू के ऐसे मुख पर यापकी कामक्रीड़ा उत्कण्ठा के साथ वेगपूर्वक हो, जिसमें केशपाश की स्थिति रतिविलास के कारण शिथिल हो रही है। जिसमें काम कीड़ा के अवसर पर कर्णपूर ( कानों के आभूषण ) चंचल होरहे हैं। जिसमें नेत्रों के चेष्टित ( शृङ्गाररस- पूर्ण तिरछी चितवन- यदि विलास ) नवीन हैं और जिसमें अस्पष्ट शब्द-युक्त हास्य वर्तमान है एवं जिसमें प्रचुरतर ( अत्यधिक ) शृङ्गाररस का नृत्य होरहा है ।। २२० ॥ हे मारिवस महाराज ! तदनन्तर इस्वी, अन्ध ( घोड़े ), अग्नि और पुरोहित के दक्षिण पार्श्वभाग पर संचार करने के फलस्वरूप एवं कर्णामृतप्राय सुखद, मेघ ध्वनि सरीखीं नगाड़ों, शलों व कोकिलाओं की ध्वनियों के श्रवण द्वारा तथा 'जय हो', 'चिरञ्जीवी हो', 'आनन्दित होओ' व 'वृद्धिंगत हो' इत्यादि जयकारी शब्दों के श्रवण से मेरा मन विशेष आल्हादित हुआ ।। २२९ ॥ तत्पश्चात् मैंने अपना और हाथी-घोड़े का तथा असमती महादेवी का पट्टमन्धोत्सव सम्पन्न ( पूर्ण ) किया । तदनन्तर छत्र व चमर-ध्याषि राज्यलक्ष्मी चिह्न स्वीकार करते हुए मैंने बन्दीजनों ( खुतिपाठकों ) द्वारा कहे हुए निम्रप्रकार माङ्गलिक श्लोक श्रवण किये- हे राजन् ! यह प्रत्यक्षीभूत आपका अद्वितीय छत्र, जो कि कुवलय ( पृथिवी मण्डल और चन्द्रपक्ष में चन्द्रविकासी कमज्ञ समूह ) को अवशोधन ( आनन्दित व प्रफुल्लित ) करने के फलस्वरूप चन्द्र को तिरस्कृत करता है एवं कमला ( राज्यलक्ष्मी व सूर्यपक्ष में कमल समूह ) को अवबोधन ( वृद्धिंगत व प्रफुलित करने से सूर्य को जिस करता है। इसी प्रकार जिसने समस्त सद्दीवर (राजा और द्वितीय पक्ष में पर्वत) अघः स्थापित ( तिरस्कृत) किये है। अर्थात् जिसप्रकार चन्द्र व सूर्य उदयाचल के शिखर पर आरूढ़ हुए अन्य पर्वतों को अधः कृत करते हैं उसीप्रकार आपके छत्र द्वारा भी समस्त राज-समूह अधः स्थापित ( सिरस्कृत ) किये जाते हैं ।। २२२ | ऐसे यशोधर महाराज, जो कि समस्त राजाओं में सिंह सरीखे ( महा प्रतापी ) हैं क्योंकि जिन्होंने शत्रुरूपी हाथियों का मव धूर-दूर किया है और समस्त भूभ्रुवों ( राजाओं और द्वितीय पक्ष में पर्वतों ) के मस्तकों व शिखरों पर अधिष्ठान किया है राजसिंहासन पर आरूद होवें ॥ २२३ ॥ १. अत्र शृङ्गाररस: ( माररस-प्रधानं पयमिदं ) । २. जाति अलंकार । ३. रिलष्टोपमालंकार | ४ हेतूपमालंकार । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर स्तिवकपम्पूचव्ये स्मासिस्मानाबमा निभिरसनो भाजनैश्वर्यव। बनिवलपबोकानस्पम्पप्रमोषः क्षितिक्ष्मण सम्हारे पापस्तवास्तु ॥१४॥ विवियपानिदनानिरूपमः । चामः सेव्यतां देवः पीकतामोपदासिमिः ॥२२॥ स वायम्-क्ष्मीविनोदासदाकरचन्द्रहासः संप्रामकेसिनसिनीवनसूहासः । विशिष्टदैत्यममाम्बहराहासः कीतिस्पिानिनवनोदयमोदहासः ॥२२॥ मम्मे भुजामनेस्मिशास्त्री विश्ति कृपाणे। स्मिक स्थिति कम्पित एच कम्पं कुयोग्यथा ना करोति तस्याः ॥२२॥ एकमही सब कोमाधि पापे पान्तसलिनि गुणे स्वपि सङ्गता श्री।। दखानुवर्तिनि गरे तब देव जाते माता न के स्वादलिपरामरेखाः ॥ २१८ ॥ है पृथिवीनाय ! आपके ऐसे मस्तक पर, जो कस्तूरि-तिलक से विभूषित और अष्टमी-चन्द्रसमान उन्मल तथा समुद्ररूप मेख्ला (करधोनी) चाली पृथिवी के स्थान का स्वामी होने के कारण श्रेष्ठ है, ऐसा पट्टबन्ध ( राजमुकुट ) मस्तकालङ्कार हुआ सुशोभित होचे, जिसने समस्त लोकों को बहुत से करोड़ों वर्ष बक श्रानन्द उत्पन्न किया है। ॥२२४ ।। प्रस्तुत यशोधर महाराज के ऊपर ऐसे कमर डोरे जावे, जो कि शत्रुओं को उत्कटतारूपी निघूम दीपक ज्यालाओं को बुझानेवाली वायु से मनोहर है एवं लस्मी के कटाक्षों का उपहास करनेवाले हैं। अर्थात्-जो लक्ष्मी के कटाक्ष-जैसे शुभ्र हैं ॥ २२५ ।। राजन् ! यह आपका ऐसा खड्ग, जो कि लक्ष्मी की क्रीडारूप कुमुद (चन्द्र-विकासी कमल) समूह को विकसित-अफुस्तित-करने के लिए चन्द्र-ज्योत्स्ना के सदृश है। अर्थात्--जिसप्रकार चन्द्र-किरणों द्वारा करव पुष्पसमाह प्रफुल्लित होते हैं उसीप्रकार आपके खङ्ग से राज्यलक्ष्मी की कीड़ारूप कुमुद-वन विकसित व बुद्धिंगत होता है और जो युद्ध की कीदारूप कमलिनियों के वन को प्रफुल्लित करने के हेतु सूर्य-तेज है। अर्थात्जिसपर सूर्य की किरणों से कमलिनी-समूह प्रफुल्लित होता है उसीप्रकार आपके सूर्य-सएश खडसे युद्ध करने कोहारूप काखिनियों का समूह प्रफुल्लित होता है एवं जो शत्रुरूप दानवों के मद की मन्दता (हीनता)के प्रलय (नाश) करने में रुद्र का अट्टहास है। अर्थात्-जिसप्रकार रुद्र के अहास से दानवों का दर्प घर-चूर शेजाता है उसीप्रकार अापके खङ्ग के दर्शन-मान से शत्रुरूप दानषों का मद चूर-चूर होजावा है। इसीप्रकार जो आपको कीर्तिरूपी स्त्री का तीन लोक में प्रसार होने के कारण उत्पन्न हुए हर का हास्य ही है। ॥२२६ ।। हे राजन् ! प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाले आपके ऐसे इस खा (तलवार ) पर, जो कि आपके बाहु-प्रदेश का आभूषण है, ऐसा मालूम पड़ता है मानो-तीन लोक निवास करते हैं। भन्यवा-यदि ऐसा नहीं है। अर्थात् यदि इस पर तीन लोक निवास नहीं करते तो भापकी भुजाओं पर स्विट हुया यह खा) तीन लोक की स्थिति ( मर्यादा) पालन क्यों करता है? एवं कम्पित किया हमा यह तीन लोक को कम्पित ( भयभीत ) क्यों करता है? ॥ २२४ ! हे राजन् ! जब पाप धनुष हस्त पर धारण करते हैं तम यह पृथिवी आपके अधीन होजाती है और जब आप धनुष की डोरी कानों तक सोचते हैं तब तरमी ( राज्यविभूति) का आपसे मिलन होजाता है। इसीप्रकार जब बाप बाण को बस (बीपने योग्ब शत्रु-यादि) के सन्मुख प्रेरित करते हो सब कौन से राजा लोग आपके सेबक नही होते? अपि तु समस्त राज-समूह आपका सेवक होजाता है ॥२२८ ।। १. हेतूएमालंकार । २. रूपक व उपमालंकार । ३. समकालंकार । ४. भमानासकार । सोधिन्पाकार। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाश्वासः . मन्त्रिपुरोहितमहामात्यसेनाधिपतिसम्मः पूर्णपात्रदायनकप्रसादसंप्रदायैः समस्तमनुरागरहोत्सर्पलप्रमोदोत्सर्ग विवातिपरिजनसामन्तवर्गमाचरितगजवाजिनीराजना समरसकथावरीयोभिर्विहितसर्वसनहनपोषणैरनम्यसामान्यजन्याजित कीर्तिप्रसाधनपुनरुक्तासंकारविधिभिः सकललोकविधीयमानयशश्चन्दनवन्तनैनिवासकवचनिचितादयष्टिभिः परशराप्त पुरूपरपरेवास्मसमसंभावनेः कृपाणपाणिभिरप्रेसर रैः परिवृतः, समन्तादिस्वरैरनवरतमशेषसत्त्वापदारव्यवहारघरध्वनिभिवातदीर्घदण्डविम्बितदोर्दण्डमण्डलैः प्रशास्तृमिरप्रेगूमिश्च गोलधनुर्धरगोनाधिष्टितवृत्तिभिर्वातारवैरुखस्याण्डकपोगण्डबादिकाचोकसमुत्पारणशधियोधितमार्गः संजातपरमोत्ससंसर्ग 'इति पुण्यश्लोकालापहवामुभिः कुन्दराघोषितपुण्याहएसम्पर। तत्पश्रात्-मंत्री, पुरोहित, प्रधानमंत्री और सेनापतिरूप मित्रों (अभीष्ट निकटवर्तियों) से विभूषित हुए मैंने समस्त ब्राह्मणवर्ग के लिए दक्षिणा देकर थानन्दित किया और कुटुम्ब वर्ग को वस्मादि लाइनक से सन्मानित कर इषित किया एवं सामन्तों ( अधीनस्थ राजाओं) को प्रसन्नता के दान द्वाप सन्तुष्ट किया। तदनन्तर अकृत्रिम ( स्वाभाविक ) स्नेह की भावना से उत्पन्न हुए हर्ष के उत्साह पूर्वक वहाँ से (महोत्सव मंडप से ) राजधानी ( उचयिनी) की ओर प्रस्थान किया। __ उस समय मैं ऐसे आप्त (भरक्षा में हितैषी ) पुरुषों से बेष्टित था, जिन्होंने याग हाथी ( राज्याभिषेक व विवाह-दीक्षोपयोगी प्रधान हाथी ) और "विजयवैनतेय' नाम के प्रधान घोड़े की नीराजना ( भारती-पूजाविशेष ) विधि की थी। जो युद्ध के समीचीन वृत्तान्तों से विशेष महान हैं। जिन्होंने समस्त सैनिकों को कवच व श्रम-शक्षादि से सुसज्जित होने की घोषण की थी। जिन्होंने अनोखे संग्राम में प्राप्त किये हुए कीतिरूप आभूषण से अपना आभूषण-विधान द्विगुणित किया था। जो समस्त लोक ( बालगोपाल-आदि ) द्वारा गान किये जारहे यरारूप तरल चन्दन के तिलक से अलंकृत थे । अर्थात्-जिन्होंने यश को मस्तकारोपित किया था। जिनकी उत्तम शरीररूपी वष्टियाँ निविह ऋवचों (वस्तरों) से सुसज्जित थीं एवं जो १०० से भी अधिक थे। इसीप्रकार उस समय में, उत्थापित स्वज को हस्त पर धारण करनेवाले और मेरे समान ( यशोधर महाराज के सरश) बीर ऐसे दूसरे विजयशाली पुरुषों से भी वेष्टित था। इसीप्रकार उस समय मैं ऐसे प्रशास्त ( शिक्षादायक ) पुरुषों से अलंकृत था, जो चारों ओर से यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे और निरन्तर समस्त प्राणियों के दूरीकरण-व्यापार में प्रवृत्त हुए कराठाभ्यन्तर-आवर्ती शब्द कर रहे थे। जिनके बाझुदण्ड-मण्डल उन्नत व दीर्घ ( विस्तृत ) दण्डों से तिरस्कृत हुए थे, अर्थात्-दीर्घ दण्डों की सहशता रखते थे एवं उस समय मैं ऐसे अप्रगामी पुरुषों से भी वेष्टित था, जो अपने इस्तों पर गोफरण और धनुष धारण किये हुए सैनिक पुरुषों से वेष्टित ये और जो कपटपूर्ण भाषण करनेवाले थे एवं जो रजस्वला स्त्रियों, नपुंसकों, विकल (हीन) अजवानों व चाण्डाल-आदि देखने के अयोग्य व्यक्तियों को दूर करने में प्रवीण-कुशल थे। उस समय उक्त पुरुषों द्वारा मेरा संचार करने का मार्ग शुद्ध किया गया था। जिस समय मेरे महोत्सव का संगम पूर्ण हुआ उस समय पवित्र श्लोकों के कथन करने में सहदयता रखनेवाले फुलवृद्धों द्वारा मेरी निन्नप्रकार पुण्याह-परम्परा ( पवित्र दिन की श्रेणी) उष खर से चारण कीगई थी।' ।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्विकचाम्पूकाम्ये रणिपुरमालारसमोरोमागणदीपचनासपत्नाकररापूर्वमोस्। निसान महोत्सवामगीतप्रसा(मै-मारपि मातमङ्गारवा पापारिक मेदिनीम् । ३२९६ पाचौरवारिकापनिमून पर पयोरासपः सूर्यः शीतचिदियः पुरपति का च सग सह। पतेचा हिगुणीतोपास्तासाम्पभावात्मना तत्वत्वं वितिपाल पालय महीं बावोत्सवः कामिनः ॥ १३ ॥ पोषाः मुभूषार करिणः प्रशस्वा मरास्व रत्नाम्परहेमहस्ताः । सप प्रपाने मप संमुखाः स्युः प्रादेशमानीव महीपतीनाम् ॥ १३१॥ भूमालूमम्मबाहेसामसुकोमोर्थन शवों समै नन्याइमिया मालस्वनः ॥ ३२ ॥ मलामेव गौपडीरवदाम्पदिषतामपि । मियातु पद भूनि देवः सर्वजगत्पतिः ॥ २३३ ॥ अपि ममबहामन्त्रसुमगास्तूर्ण कुरु मातीनागिन्द्र प्रदिणु द्विषो विजितये विश्वासमतन्न रथम् । स्पिा युबरेत सत्वरममी देवरुष सेवाविधावित्यं पार्थिधनाथ स्पनरः शङ्खध्वनिम्भिताम् ॥ २३४ ॥ हे राजन् ! दही, दूध, अक्षत, पुष्प, चन्दनरस, गोरोचना की लालसा-युक्त (गोरोचनायुच) पदार्थ, बजार, दीपक की लौ, पंखे, छत्र, दर्पण और जल से भरे हुए घट-समूह, इन शुभ (मालिक) वस्तुओं द्वारा किये हुए आनन्द महोत्सव-शासी आप मुलबधुभों की गान-ध्वनियों सस्य प्रसनीभूत वावित्रों से माङ्गलिक ध्वनि उत्पन किये गए चिरकाक्ष पर्यन्व पृथ्वी का पालन करें। ॥ २२६ ।। हे पृथिवी-पालक यशोधर महाराज ! बार मनोवाला पदामों ही पाटि से नन्द सन्न करते हुए एवं स्वर्ग सरीखी अपनी मामा के साथ इन स्वर्गादि के जयोषय से विगुणीभूत अबोदक-शानी हुए वब तक इस प्रविषो मण्डल को रक्षा करो जब तक स्वर्ग, पूथिषी, फुलापल, शेष नाग (परणेन्द्र), समुद्र, सूर्य, चन्द्र, पूर्व व पश्चिम दिशाएँ, इन्द्र एवं तीनों लोक के साथ ब्रह्मा की लिवि वर्तमान है' २३॥ हे राजन् ! राजधानी के प्रति आप के गमन-प्रारम्भ के अवसर पर मिनप्रकार की वस्तुएँ आपके सम्मुख उसप्रकार प्राप्त हों जिसप्रकार राजाओं की भेंट आपके सम्मुख प्राप्त होती हैं। बबाहरणार्य-सुन्दर बाभूषणों से सुसज्जित हुई कियाँ, प्रशस्त-सर्वश्रेष्ठ (इस्ति-शाम में कहे हुए जक्षणों से विशिष्ट) हाबी, रम, वल और सुवर्ण को हत्वों पर धारण करनेवाले ममुख्य ॥२३॥ हे राजन् ! अब भाप राजधानी के प्रति प्रयाण कर तब काक वायुकों के साथ अनुलोम (भजन-मापके शरीर के पीछे गमन करनेवाला ) हो एवं गर्दभ भी इस्त-पाचों (वीणा-आदि) के साथ मधुर शब्द करनेवाला होकर भापकी समृद्धि करनेवाला हो ॥२३२॥ यशोधर महाराज भासमुद्रान्त पृथिवी के स्वामी होते हुए ऐसे शत्रुओं के, जो कि शौण्डीर ( त्याग और पराक्रम के अरय स्वाति-प्राप्त) और मधुर वचन बोलनेषाले है, मस्तक पर अपना परण सप्रकार स्थापित करें जिसप्रकार हाथी के मस्तक पर परण स्थापित करते हैं ॥५३३ ।। हे राजाधिराज श्रीयशोधरमहायज! प्रस्तुत अवसर पर ऐसी शकपनि (शानाद) विस्तृत हो, बो कि ऐसी माराम पड़ती है-मानों-निम्नप्रकार सूचना देने में तत्पर हुई है 'हे विधावा ( अक्षा )! तुम शीघ्र ही ऐसी वेदध्वनियाँ करो, जो कि संग्राम-भूमि पर सपनशील मन्त्रों से इवय-प्रिय हैं। हे इन्! तुम शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने के हेतु अब कोठारितपाऽस्माभिः परिवर्तितः । मु. प्रो 'इमअशुदपाः। हिमव सटि प्रति मुद्रितप्रतिवत्पाठः-सम्पादक १. समुच्चयालंकार । २. दोपकालंकार। 1. उपमालंकार। ४. सहोषि-मकार । ५. तपमासकार । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाषासः १९१ इचानः मताः किमिवमिवि मनोज्याकुज विक्करीमी प्रत्याक्षिसावंगर्वस्खलितकरयुग साविना भास्करण। समः संत्रस्तहातापरिवपयनुलैः श्रुता सिरसा स स्वादिकपाकवावसरविधिकरस्थरपोपस्तदायम् ॥१३॥ पुलोमात्मवानुगतः मुरपतिस्वैिरावणं तपासतमतिमहादेव्या महासस तं कारेवरम्मरतप्रसनमलसमिरिपोमयः शामिनोकरवयमणिमरीचिमेसकरुविमिवामरपरम्पामिरुपसेव्यमाना फौमुदीबन्दमालविकासिनावपEntभोगेनाम्बरसरसि परिकल्पितापशपरप्रदेशोपण्डपुण्डरीकानीका सेवागवानेकमहासामन्तमुकुटमाणिस्योन्मुखमपूलशेकरिताकशीघ्र ही ऐसा रथ प्रेषित करो, जिसमें दिव्य ( वेवताधिष्ठित ) आयुधों का * तन्त्र ( साधन ) वर्तमान है। हे प्रत्यक्षीभूत विक्पालो! तुम सब श्रीयशोधरमहाराज की सेवा विधि के हेतु पारम्बार शीघ्र आओ' ।। २३४ ॥ हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध व प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली आपकी ऐसी बाध-( पाजों) ध्वनि राजाओं की सेवा का अबसर-विधान सूचित करनेवाली होवे, जो दिमाजेन्द्रों द्वाय उत्कण्ठित हुए कर्णरूप तालपत्रों से 'यह क्या गरज रहा है? इसप्रकार व्याकुल (विल) मनपूर्धक श्रवण की गई है। इसीप्रकार जो सूर्य-सारथि द्वारा पूर्व में ) विध्वंस किये हुये सतायों सूर्य धोवों) के गर्व से स्खलित (लगाम न खीचनेवाले ) हस्तयुगल पूर्वक श्रवण की गई थी। भावार्थ-पूर्ष में सूर्य-भारथि ने सूर्य के घोड़ों की लगाम दोनों हाथों द्वारा खीची थी और बार-बार ऐसा करने से उसने उनका तेजी से.मागने का मद चूर-चूर कर दिया था, अतः उक्त बात (अब ये तेजी से नहीं भागेंगे) आनकर उसने प्रस्तुत यशोधर महाराज की वादित्र-ध्वनि के श्रवण के अवसर पर सूर्य के घोड़ों की लगाम दोनों हाथों द्वारा नहीं खींची, क्योंकि उसका मन प्रस्तुत बाथ-ध्वनि के अषण में आसक्त हो रहा था। निष्कर्ष-उक्त बाध-अनि के श्रवण के अवसर पर सूर्य-सारथि भागनेवाले सूर्य के घोड़ों को अपने दोनों हाथों से रोकने में समर्थ न होकर उस वाद्य-ध्वनि को निश्चल मनपूर्वक श्रवण कर रहा था। इसीप्रकार जो ( बाध-ध्वनि ) ऐसे विद्याधर-समूहों द्वारा श्रयण की गई थी, जो कि तत्काल भयभीत हुई देवियों का संगम हो जाने के कारण भागने के लिये चालता कर रहे थे ।। २३५ ॥ अथानन्तर उक्त अभिषेक मण्डप से राजधानी की ओर वापिस लौटते समय में इस असूपमति महादेवी के साथ, जो कि 'श्रीमती' नाम की रानी के पति 'श्री वर्मा' राजा की सुपुत्री थी, उस 'उदयगिरि नाम के श्रेष्ठ हाथी पर उसप्रकार आरूढ़ था जिसप्रकार इन्द्र इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर मारूब होता है। उस समय मैं इस्वी पर आरूढ़ हुई कमनीय कामिनियों द्वारा दोनों पाव-भागों (पाईप बाई भोर ) से ऐसे चैमर-समूहों से ढोरा जारहा था। अर्थात्-कमनीय कामिनियों मेरे शिर पर ऐसी चमर-श्रेणियों ढोर रही थीं, जो कि कल्पवृक्ष की पुष्प-मारियों सरीखी शुभ्र व मनोज थी एवं जिनकी अन्ति कमनीय कामिनियों के इस्त-करणों की रत्न-किरणों से मेचक ( श्याम ) होरही थी। इसीप्रकार इस अवसर पर मेरे शिर पर शोभायमान होनेवाखे छत्र-विस्तार से ऐसा मालूम पड़वा था-मानों-मेने आकाशरूपी तालाब में सर्वत्र उन्नत घेत कमल-समूह की रचना की है और जो (विस्तृत छत्र) उसप्रकार शोभायमान हो रहा था जिसप्रकार चाँदनी सहित चन्द्रमण्डल शोभायमान होता है। * उकं च–'तन्त्रं शास्त्र कुर्म सन्त्रं तन्त्रं सिद्धौषधिकिया । सन्नं सुझ पलं - तन्वं तन्वं पानसागम् ॥' १. उप्रेक्षालहार । म सं. टी० पू० ३३४ से सङ्कलित-सम्पादक २. हेतु-अलंकार । ३. उक्तं च-'कृष्णेऽधकारे मायूरचन्द्रके श्यामलेऽपि च । भैसकः कय्यते विदिश्चतुर्धर्षेषु गोजितः ॥१॥ सं० टी० पृ. ३१५ से संकलित-सम्पादक Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिचम्पूकान्ये पशुचैर्विचिचरान्तरचिकान्डकोटिभिः विविधाकृतिपताकानुरपरामिव दिवं सूर्य बारा मिविवशुमोचानश्रियं शिलाज और गन्दगर्भत्वेगुवीणानुगताङ्गनागीतपक्षविवचिमा स्व स्वाननइयह बाघोर स्मरेण मद्दमन्दिमोडूमरगण्डमण्डल डालनाल नासान्मुतिना विपरपुर प्रासादशी प्रवेशमांसवेन खाचास जात मन परिम्मा प्रशाभिताम्भोभिना मोनां तुन्दुभीनां स्वनेनानन्दितनिखिकभुवनस्त दामिरावतीरमणीयको राजधानीमनु कि ताई प्राकृते । तसः सैन्यसीमन्तिनी परणप्रणिपातप्रणयिमानसा प्रणीतता संवाहून विनोदकर्माणः कृतमितम्यस्थळी वेठाः १६२ उस समय फहराई जानेवाली नाना-भाँति की ध्वजाओं के ऐसे वस्त्रों से में ऐसा प्रतीत रहा था - मानों- मैंने आकाश और पृथिवी मण्डल के मध्य अनोखे कल्पवृक्ष-वन की लक्ष्मी ( शोभा ) हो विस्तारित की है और जिनके वस्त्र प्रान्तभागरूप पल्लव ( प्रवाल ), मेरी सेवा के लिए आये हुए अनेक महासामन्तों ( अधीन में रहनेवाले राजाओं) के मुकुटों में जड़े हुए रत्नों की ऊपर फैलनेवाली किरणों से मुकुट-शाली किये गये थे एवं जिनके ( सुवर्णमयी ) दंडों के अमभागों पर श्वेत, पीत, हरित, लाल और श्याम आदि नाना प्रकार के रत्न जड़े हुए थे । उक्त अवसर पर मैंने समुद्र का मध्य प्रदेश संचालित करनेवाली दुन्दुभियों ( भेरियों ) की ऐसी ध्वनि से समस्त पृथिवी मण्डलवर्ती जनसमूह आनन्दित किया था, जिसका ( ध्वनि का ) मूल ( प्रथम आरम्भ ), स्तुतिपाठक-समूहों के निम्नप्रकार आशीर्वाद युक्त वचनों से, “हे राजन् ! आपकी जय हो, राजाधिराज ! आप दीर्घायु और दीप्तिमान् द्दों एवं समृद्धि-शाली होते हुए पुत्र-पौत्रादि कुटुम्बियों से और घन व धान्यादि से वृद्धिंगत हो”, स्थूल होरहा था। जिसकी मूर्च्छना वेगु ( बॉसरी ) और वीणाओं की ध्वनियों से मिश्रित हुए स्त्रियों के गीतों से वृद्धिंगत होरही श्री । जो क्षुब्ध ( हिलनेवाली वा खींची जानेवालों ) लगामों से व्याप्त सुखवाले घोड़ों की हिनहिनाने की ध्वनियाँ ( शब्द ) भक्षण ( लुम) करता है। जिनका ( दुन्दुभि बाओ भेरियों का ) शब्द प्रवाहित हुए मद ( दानजल ) की अधिकता से व्याप्त उत्कट गण्डस्थलवाले हाथियों के गले की नाल ( नाड़ी) अथवा गलरूपी नाल ( कमल की डांडी ) से उत्पन्न हुई चिंधारने की ध्वनियों द्वारा द्विगुणित होगया था और जो इन्द्रादिकों के are (स्वर्ग) वर्ती मन्दिरों की वेदियों के मध्य में प्रवेश करने से स्थूल श्रा एवं समुद्र के तटवर्ती समूह की गुफाओं के मध्य देश से उत्पन्न हुई अधिकता से व्यास था । उक्त भेरी आदि के शब्दों से समस्त पृथिवी मण्डल को आनन्दित करता हुआ में उक अभिषेक मंडप से इन्द्रनगरी अमरावती की मनोज्ञता को लखित करनेवाली रमणीयता-युक्त राजधानी (उज्जयिनी ) की ओर वापिस लौटा। वनन्तर मेरी सेना के प्रस्थान करने से उत्पन्न हुई ऐसी धूलियाँ प्रसूत हुई ( फैली ), जिन्होंने ऐसा पाद-संमर्वनरूप कीड़ाकर्म किया था, जो सेनारूप कमनीय कामिनियों के पाद-स्पर्श करने पर स्नेह-युक्त चिवों से किया जाकर वृद्धिंगत होरहा था । इसलिये जो ( धूलियाँ ) संभोग-कीड़ा के अवसर को सूचित करनेवाले स्त्रियों के पति सरीखीं थीं । अर्थात् — जिसप्रकार रविविलास के अवसर पर स्त्रियों के पति शुरु में उनका पादस्पर्श करते हैं उसीप्रकार धूलियाँ भी सेना का पाद-स्पर्श करती हैं-उड़ती हुई पैरों पर लगती है। अथवा पाठान्तर में जो ( सैन्य-संचारोत्पन्न धूलियाँ ) सेनारूप कमनीय कामिनियों के पाद-पतन में स्नेहयुक्त और जङ्गामर्दन का कोढ़ा कर्म करनेवाली हैं। जिन्होंने नितम्ब स्थतियों ( कमर के पश्चात् 'सैन्यसीमन्तिनीनां चरणिपातप्रणयिनः प्रणीतप्रभूतासंवाहन विनोदकर्माणः ० ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवास: जनितनाभित्र कुदरत्रहरणाः प्रतिपद्रवतित्राहिनी जलक्रीडाः परिमलितस्तनस्तम्बाम्बराः परिपीसाधरामृतठावण्याः परिविष्टपन कमलकाभ्यः समावरित लोमन्तप्रान्तचुम्बनाः सूरितसुरतसमागमाः प्रियतमा इव पुनश्मरसुन्दरीवदन चन्द्रकाः ककुबङ्गमालकप्रसाधनपिष्टातकचूर्णरि चतुरधि ळावनदेवता पटवासाः पुनरुक्तदिक्क र टिपांशुप्रमाथाः परिकल्पितधूर्जटिजटोबुलनारम्भाः कुशखण्डिनकदम्बमकरन्द्राः पलिताङ्कुरिवाम्बरवरकामिनी कुरवलापाः प्रधूसरित रविरधनुरगकेसराः स्विमित गनापगापयःप्रत्राद्दाः सकलदिकपालमौलिमणिमयूखप्रसर निरसननीहाराः पाण्डुरिताराति मुलाखतीमंडलाः प्रदर्शितागामिविरहानल* भूमकापा व निखितशेशेन्त ((समत्र निम यस सुष्टमिव कर्तुमर वृषा भन् केकीप्रस परागस्पर्धिनो बलसंचरण रेणवः । भाग- प्रदेश ) पर क्रीड़ाओं द्वारा उसप्रकार वेद उत्पन्न किया था जिसप्रकार संभोग कीड़ा के अवसर पर त्रियों के पति उनकी नितम्ब स्थलियों से कीड़ा करके उनको खेद उत्पन्न करते हैं। जिन्होंने नाभिविवर (छिद्र ) रूप गुफाओं पर उसप्रकार विहार उत्पन्न किया था जिसप्रकार रविविलास के इच्छुक भर्ता लोग स्त्रियों की नाभि विवररूप गुफाओं पर विहार करते हैं। जिन्होंने त्रिबलीरूपी नदियों में उस प्रकार जलकीड़ा की है जिसप्रकार रतिविलास के अवसर पर स्त्रियों के पति त्रिवलीरूपी नदियों में जलक्रीड़ा करते हैं । जिन्होंने कुच ( स्तन ) तदों के आडम्बर ( विस्तार ) अर्थात् — विस्तृत स्तनतट उसप्रकार मर्दन ( धूल धूसरित ) किये है जिसप्रकार संभोगकोड़ा का अवसर सूचित करनेवाले भर्ता लोग कमनीय कामिनियों के विस्तृत - पीन ( कठिन ) स्तन वटों का मर्दन करते हैं। जिन्होंने ओष्ठरूप अमृत कान्ति का उसप्रकार श्रास्वादन किया है जिसप्रकार रतिविलासी भर्ता लोग का मैनियों के श्रोष्ठामृत की कान्ति का पान करते हैं। जिन्होंने नेत्ररूप कमलों की कान्ति उसप्रकार मलिन की है जिसप्रकार संभोग के इच्छुक विलासी पति स्त्रियों के नेत्ररूप कमलों की कान्ति नेत्र-चुम्बन द्वारा मलिन करते हैं। जिन्होंने केशपार्शो का चुम्बन (स्पर्श) उसका अच्छी तरह से किया था जिसप्रकार संभोग-कीड़ा के अवसर पर भर्ती लोग रमणियों के केशपाशों का चुम्बन ( स्पर्श या मुख-संयोग ) करते हैं । फिर कैसी हैं वे सैन्य-संचार से उत्पन्न हुई धूलियाँ ? जो बार-बार देवियों के मुखचन्द्र को [ रोली- सरीखी ] विभूषित करती हैं। जो दिशारूपी कमनीय कामिनी के केशपाशों को सुगन्धित करने के लिए सुगन्धि चूर्ण सरीखी हैं एवं जिसप्रकार पटवास ( वस्त्रों को सुगन्धि करनेवाला चूर्ण ) वस्त्रों को सुगन्धित करता है उसीप्रकार प्रस्तुत धूलियाँ भी चारों समुद्रों के तटवर्ती घनों में निवास करनेवाली देवियों को सुगन्धित करती थीं । जिन्होंने हिमाजों का धूलि - उत्क्षेपण ( फेंकना) द्विगुणित किया है। जिन्होंने श्रीमहादेव की जटाओं को धूलिधूसरित करने का प्रारम्भ चारों ओर से किया है। जो कुन्दपुष्परस - सरीखी कुलाचलों के शिखर मण्डित ( विभूषित ) करती है। जिन्होंने देवियों और विद्याधरियों के केश समूह शुत्र किये हैं । घोड़ों के केसर ( स्कन्ध- केश ) प्रधूसरित ( कुछ शुभ्र ) किये है। जिन्होंने अरूप किये हैं । जो समस्त इन्द्रादिकों के मुकुट-रत्नों की किरण प्रवृत्ति को निराकरण करने में वर्फ सरीखी हैं । अर्थात्-जिसप्रकार वर्फ वस्तुओं को उज्वल ( शुभ्र ) करता है उसीप्रकार धूलियाँ भी इन्द्रादि के मुकुट -रत्नों का किरण-विस्तार शुभ्र करती हैं। जिनके द्वारा शत्रु-समूहों एवं कमनीय कामिनियों के गालों के स्थल जिन्होंने सूर्य रथ के आकाशनदी के जलपुर 1. 'वेलाचलवनदेवता क० AB १६३ * धूमोहमकला इव ६० । A 'उत्थान' । B'रेखा' टिप्पण्यां । २५ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ यशस्विनकपम्पूफाव्ये पुनः रिमालकानिहानिरस्सासरप्रसराः परस्परमिलापताकापटप्रसामविहितवितामारा: सतरंभापाइप लोइमरपासवः परतिस्पन्दमाममदजवनिसकमास्तुरगवेगखरखुरक्षोनिविभनय कामयसपासमहमला पदमातसीमन्तिनीषणधर्मबहसुसजसप्रसापितसंमार्जना सेनालनास्सनक्षोमविश्यम्भुक्तमानमणिरचित करायश: पुरोचनदेवयापकी कुसुमोपहाराः समचनियस समाधिमादपि मनोहराः प्रयाणामाः । ततोऽविसविलम्बसमालोनोसालपिलासिनीसंकुलसौधनमावलितोत्सवसपालमपसितपुरमंदिरं पुरमवलोक्य हो महाकविकावयास सरस्वतीविलासमानसोतसहस प्रादुरासन् किस सदा मम्मतिलतापास्वाइजनप्रवचभूषणोचितविषयः 1 सक्तिमञ्जयः। तथाहिशुभ्र किये गये हैं। जो ऐसी प्रतीत होती थी—मानों-जिन्होंने भविष्य में होनेवाली विस्ह रूप अग्नि की घूमोत्पत्ति के समूह ही प्रकट किये हैं और जो ऐसी मालूम पड़ती थीं-मानों समस्त प्राकाश और कृषियी के मध्यभाग में पृथिवी मण्डलमयी सृष्टि की रचना करने के लिए प्रवृत्त हुई हैं। अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! राजधानी ( उज्ञयिनी) की ओर प्रस्थान करने के अवसर पर मेरे ऐसे गमन-मार्ग उस सभा-मण्डप की कृत्रिम ( बनी हुई ) बद्धभूमि से भी अधिक मनोहर हुए, जिनमें हाथियों के ऊपर स्थित हुए नगर-पिच्छों के हवनामूहों में गर्मी पति जा कर दी गई थी। परस्पर मिलनेवाली ध्वजाओं के वस्त्र-समूहों से जहाँपर विस्तृत श्रृदेवे रचे गये थे। जिनमें वेगपूर्वक मंचार करते हुये स्थ-समूहों से उत्पन्न हुई उत्कट धूलियाँ वर्तमान थीं। जहाँपर हाथियों के गण्डस्थलों से प्रवाहित होनेवाले मलजलों द्वारा कर्दम (कीचड़ ) उत्पन्न की गई थी। जिनकी भूमि घोड़ों के वेगशाली व सोइट सरीखे कठिन खुरों ( टापों ) के स्थापन या संघर्षण से निषिड़ थी। ऊँटो के पाद-पतन से जिनके तल ( उपरितन-भाग ) दर्पण-सदृश सचिकरण थे। जिन प्रयाण-भागों पर ऐसे करल कुडकुम का छिड़काव किया गया था, जो कि मार्ग चलने के परिश्रम से खेद-खिन्न हुई नवयुवतियों के घने स्वेद-जल विन्दुओं से नीचे गिर रहा है। सेना की स्त्रियों के कुच-कलशों (स्तनों) के संघटन से टूटकर नीचे गिरते हुये मोतियों व सुवर्णमयी आभूषणों के रत्न-समूहों से जहॉपर रंगावली ( चतुष्क पूरण ) की गई थी एवं नगर सम्बन्धी बगीचों के धन-देवताओं द्वारा जहाँपर पुष्प-समूह बखेरे गये थे अथवा पुष्प-राशि भेंट दी गई थी। अथानन्तर महाकवियों की काव्य-रचनारूपी कर्णपूर से विभूषित व सरस्वती की क्रीड़ारूपी मानसरोवर के दीरवी इस अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से सरस्वती की क्रीडारूपी फमल-वन को विकसित करने हेतु इस (सूर्य) सरीखे ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! जब मैंने ऐसी उज्जयिनी नगरी देनी, जिसके महलों के शिखर, अत्यन्त निकटवर्ती सेनाओं के देखने में उत्कण्ठित हुई मत: कामिनियों ( रूपवती व मुवती रमणियों) से व्याप्त थे और जिसमें ध्वजारोपण-आदि उत्सव-शोभा का संगम किया गया था एवं जिसने अपनी लक्ष्मी द्वारा इन्द्र-भषन तिरस्कृत ( लजित ) किये थे तब निश्चय से मेरी बुद्धिरूपी *. निखिल' क० | * 'रमावलयः' का। A 'चतुष्क' इति टिप्पणी। सिक्किमक्षरयः' इति क० ग.।। शारिर्मचारः लियो' इति कोशप्रामाण्यानस्वान्तोऽपि मजरिशमः। मु. प्रति से संकलित–सम्पादक । १. रूपप्राय-अलंबार । २. जाति-अलंकार । ३. उक्तंच-आत्मा पर्दा मुनिर्धर्ममुरगोसवणो रविः । हूंस इत्युच्यते विद्भिरेते कार्यविचक्षणैः ॥' ४. उच-रूपयोक्नसम्पमा नारी स्यान्मसकामिनी' । यश की सं० टी. पू. ३४१ से संकलित-सम्पादक Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्राश्वासः कभीधान काजीगुर्ण सोरणपुष्पमालाः । नितम्ब ध्वजावली भुजाः स्वयं मे पुरः पुरी भुतमिवाशनोति ॥ १३६ ॥ प्रभागेषु पुरानानां मोलोत्पलस्पधिभिरक्ष में । आनन्दमावादियमम्बरश्रीः पुष्पोपहाराय कृताक्षेत्र ॥ २३७ ॥ Tereening विलासिनीनां त्रिकोचनैसफिक विस्वकान्तैः। सिं अमी पुरंधवदनैः प्रकामं वातायनाः पूरितरन्ध्रभागाः । श्रियं वहन्तीय सरःस्थलीनां वीथीविभक्ताम्बु पण्डभाजाम् ॥ २३९ ॥ मनोभव प्रबोधसुधोपलासा र सुन्दरः कामदेवप्रासादसंपादनसूत्रपातकान्तिभिः प्रणयकलहंस कीडनमृणाल जाछेपावलो फिटोः, पुनरुक्तेनेव लाजाअलिवर्षेगात्मानं कफार्थिनो लोकव्य कुसुमितमित्र कुर्वनम्वरश्रीनृत्यहस्तैरिव पवमानचालन संगवङ्गभग उनिभिर्विविश्व वर्णविनिर्मागमनोहरा डम्बरै । तरातरा मुक्तकत्र जन्मणिकिङ्किणीजालमा लामि बल्ली से ऐसी मनोच्च वचनरूपी मअरियों उत्पन्न हुई, जो कि आप सरीखे राजाओं के कानों को विभूषित करने में योग्य कर्तव्यवाली हैं । t सूक्तिमअरियों-मनोज्ञवाणी रूप-मअरियों द्वारा उज्जयिनी का निरूपण - छज्जारूपी नितम्ब (कमर के पीछे का भाग ) शोभा धारण करनेवाली और तोरणों की पुष्पमालारूपी मेला ( करधोनी ) से अलङ्कृत हुई तथा ध्वजा श्रेणीरूपी चन्चल भुजाओं ( बाहुओं) की रचना करनेवाली वह उज्जयिनी नगरी उस अवसर पर ऐसी मालूम पड़ती थी मानों मेरे समक्ष स्वयं नृत्य विस्तारित कर रही है' ||२३६|| उस अवसर पर यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली आकाशलक्ष्मी विशेष दर्प-वश महलों के अमभागों पर स्थित हुई नगर की कमनीय कामिनियों के नील कमलों को तिरस्कृत करनेवाले नीलकमल - सरीखे - नेत्रों से ऐसी मालूम पड़ती थी - मानों वह मेरे ऊपर पुष्पवृष्टि करने के हेतु मेरा आदर कर रही है" || २३७ ॥ यह नगरी झरोखों के मार्गों से मौंकनेवाली कमनीय कामिनियों के मोतियों के प्रतिबिम्बों से मनोश प्रतीत होनेवाले नेत्रों से संयुक्त हुई उसप्रकार शोभायमान होरही थी जिसप्रकार तारामण्डल से विभूषित दुई सुमेरु पर्वत भूमि शोभायमान होती है २ ।। २३८ ॥ उस अवसर पर कमनीय कामिनियों के मुखों से यथेष्ट आच्छादित प्रदेशोंवाले झरोखों के मार्ग उलप्रकार की शोभा धारण कर रहे थे जिसप्रकार तरङ्ग श्रेणियों द्वारा स्थापित किए हुए कमल-समूहों का आश्रय करनेवाली सरोवर स्थलियाँ शोभायमान होती है || २३६ ॥ तत्पश्चात् - - में ऐसी कटाक्षपूर्ण चितवनों से, जो कि कामदेवरूपी कालसर्प को जागृत करने के लिए चन्द्रकान्त मणियों की वेगपूर्ण वर्षा - सरीखीं शुभ्र व मनोज्ञ थीं एवं जो कामदेवरूपी मंडल को उत्पन्न करने के लिए सूत्रारोपरा - सरीखी ( कामोत्पादक व सूत-सी शुभ्र ) थीं और जो स्नेहरूपी राजहंस की क्रीडा- हेतु सृणाल श्रेणी सरीखी थीं, द्विगुणित ( दुगुनी ) की हुई सरीखी लाजाअलियों A *''स्वष्टभाजाम्' फ= | A 'वन' इति टिप्पणी | A B 1. 'रन्तरातरामुक्तफलक्षणमणिकिंकिणीजालमालाभिः क्र० । प्रति टिप्पणी 1 १. रूपक व उत्प्रेक्षा अलंकार 1 २. उमा व उत्प्रेक्षालंकार | 'मध्ये मध्ये' । B'धारिभिर्मावद्भिर्षा' ३. उपमालंकार 1 ४. उपमालंकार । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्यै महोत्सवक्ताशुकादैः प्रत्यावर्तमानमार्तण्डकरणसरम् गगनखक्ष्मीवशोजमण्डलेरिव स्वकीयकान्तिपिश रिसनभोभोगभिचिभिः कामानसैः परिकल्पिताभ्रंलिदशित रिशिखर परम्पराशोमम, त्रिदिवदीर्घिकालर औरिवेशस्ततः प्रधावद्भिः सुधाि प्रशासनम् मद्दीश्वरवेश्म देसा विकासाभिरिव रत्नम स्तम्भवम्बित मुक्ताप्रलयमलप्रवाखानेकदिदा भिस्ति देशांतम्भितः जमान्य प्रोत भर कसरि णिरिताङ्ग र चोभमन्तकुमणिरथतुरगवेमामिरुनेचरको किमिः प्रति कुबेरपुरीरामणीयकावतारम् महामण्ढलेश्वर रनवर समुपापकृत करीन्द्रलक्ष्मीजनित( माङ्गलिक अक्षतों) की वृष्टि द्वारा फलों (आम्र आदि ) के इच्छुक लोक ( जनता ) के लिए अपने को पुष्पशाली करता हुआ ऐसे 'त्रिभुवन तिलक' नाम के राजमहल में प्राप्त हुआ, जिसमें ( राजमहल में ) महोत्सव संबंधी ऐसे ध्वजा वस्त्रों के प्रान्तभागरूपी पड़वों द्वारा सूर्य की किरण प्रवृत्ति पराङ्मुख (दूर) की जा रही है। जो ( ध्वजा वस्त्र- प्रान्तपल्लव ) ऐसे मालूम पड़ते थे- मानों- आकाशलक्ष्मी के नृत्य करते हुए इस्त ही है। जिनकी प्रवृत्ति वायु के चंचल संचारवाले अङ्गों से विशेष मनोहर है और जिनका बिस्तार पंच वर्षों ( हरित व पीत आदि ) की रचना के कारण रमणीक है एवं जिनके मध्य मध्य में मधुर शब्द करती हुई रत्नजड़ित सुवर्णमयी क्षुद्र (छोटी) घण्टियों की श्रेणी बँधी हुई थी । १६६ फिर कैसा है वह 'त्रिभुवनतिक' नाव राजन्न ? जिसकी उच्च शिखरों पर ऐसे सुवर्ण कलश, जिन्होंने अपनी कान्तियों द्वारा आकाश प्रदेश- भित्तियाँ पिञ्जरित ( पीत- रक्तवर्णवाली ) की हैं. इससे जो ऐसे पतीत होते थे मानों - आकाशलक्ष्मों के कुच - ( स्तन ) मण्डल ही है, स्थापित किये हुए थे, जिनसे वह ऐसा प्रतीत होता था मानों जहाँपर आकाश को स्पर्श करनेवाले ( अत्यन्त ऊँचे ) पर्वतों की शिखर श्रेणियों की शोभा उत्पन्न की गई है। गङ्गानदी की तरहों के सदृश शुभ्र और यहाँ वहाँ फैलनेवाले चूना आदि श्वेत पदार्थों की किरणों के विस्तार-समूहों से जिसने समस्त दिशाओं के मण्डल उज्वल किये थे। जिसने ऐसी ऊँची व उत्तरङ्ग दोरण-श्रेणियों द्वारा कुवेर-संबंधी अलका नगरी की अत्यन्त मनोहर विशेष रचना प्रकट की थी। जो ( तोरण-श्रेणियाँ ) ऐसी प्रतीत होती थींमानों – शेषनाग की गृहदेवता के कोड़ा करने के झूले ही है। जिनमें रल-घटित स्तम्भों पर लटकी हुई मोतियों की विस्तृत मालाएँ तथा स्थूल प्रवाल ( मूँगे) एवं अनेक दिव्य ( अनोखे व स्वर्गीय ) वस्त्रसमूह वर्तमान थे एवं जिनके प्रान्तमार्गो पर ध्वजाएँ बँधी हुई थी और उनके प्रान्तभागों पर स्थित हुए मरकत मणियों (इरित मणियों ) रूपी दर्पणों की किरणरूप हरितांकुरों ( दूब ) के लोभ से आये हुए सूर्य-रथ के घोड़ों का वेग जिन्होंने काल्प कर दिया था । भावार्थ - क्योंकि सूर्य रथ के घोड़ों को ध्वजाओं के प्रान्तभागों पर स्थित हुए हरित मणिमयी दर्पणों की फैलनेवाली किरणों में इरिवारों ( दूब - हरीघास ) की भ्रान्ति होजाती थी, अतः व रुक जाते थे । फिर कैसा है वह 'त्रिभुवनतिलक' नाम का राजमहल ? महामण्डलेश्वर राजाओं द्वारा निरन्तर भेंट-हेतु लाये हुए श्रेष्ठ हाथियों के गण्डस्थल आदि स्थानों से प्रवाहित होनेवाली मदजल की लक्ष्मीरूप संपत्ति द्वारा अद्दाँपर छिटकाव उत्पन्न किया गया है। इसीप्रकार जहाँपर भेंट-हेतु आये हुए कुलीन घोड़ों के मुखों से उगली हुईं फेनराशिरूपी श्वेतकमलों से पूजा की गई है और दूसरे राजाओं द्वारा भेजे हुए अनेक दूतों के इस्तों पर स्थापित की हुई प्रचुर बस्तुएँ ( रल, सुवर्ण ष रेशमी वस्त्र आदि) द्वाय *. 'बभोभागमित्तिभिः ६० । १. 'मुक्ताप्रालम्बप्रवलधुभगिरथ देगलुरगवेगाभिः ॐ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विवीय आवास: १९७ समानम्, “उपाहूसाजानेरहमाननोदीई डिण्डोरपिण्डपुण्डरीकषिदिसोपहारम्, अनेकप्रहिततहस्तविन्यस्तषस्तुविरविसरका नम्, मवसर्पितवारविलासिनीसंचरणवाशालतुलाकोटिक्वणिताकुलितविनोदवारलम् । कि प्रजापतिपुरमिवाप्यनुर्वासोधिष्ठितम्, पुरंदरागारमिषाप्यपारिजासम्, चित्रमानुभव नमिवाप्पमस्यामलम, धर्मधाम इवाप्यारोहितम्याडारम्. पुण्यजनावासभिवानराक्षसभाकम्, प्रचेतःपस्स्यमिबाप्पालाश रम्, वातोवलितमिवाप्यअहॉपर अप्रभूमि या रकमण्डप की पूजा की गई है तथा जहाँपर चारों ओर फैली हुई वेश्याओं के प्रवेश से मधुर शब्द करते हुए नूपुरों के मधुर शब्दों (मनकारों) द्वारा क्रीड़ा करनेवाली राजहंसियाँ व्याकुलित की गई है। प्रस्तुत 'त्रिभुघनतिलक नाम के राजभवन में विशेषता यह थी कि वह निश्चय से ब्रझनगर के समान मनोझ होता हुआ दुर्वास (दुर्वासा आदि ऋषियों) से अधिष्ठित नहीं था। यहाँपर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो ब्रह्मनगर ( स्वर्ग ) जैसा मनोश होगा, यह दुर्वासा आदि ऋषियों से युक्त नहीं था, यह कैसे हो सकता है ? अतः इसका परिहार यह है कि जो ब्रह्मनगर (स्वर्ग) जैसा मनोज्ञ होता हुआ निश्चय से दुर्वासों ( मलिन बसोंवाले मनुष्यों ) से युक्त नहीं था। अर्थात्-दिव्य व उज्ज्वल वसोवाले मानवों से अधिष्ठित था। जो इन्द्रनगर (स्वर्ग) समान रमणीक होता हुश्रा अ-पारिजात ( कल्पवृक्षों के पुष्पों से रहित ) था। यह भी विरुद्ध मालूम पड़ता है, क्योंकि जो इन्द्रनगर-जैसा मनोम होगा, यह कल्पवृक्ष के पुष्पों से रहित किसप्रकार होसकता है ? अतः समाधान यह है कि जो इन्द्रनगर-सरीखा रमणीक व निश्चयसे अप-अरि-जात-शत्रु समूह से रहित था। इसीप्रकार जो चित्रभानुभवन--अनि स्थान-सरीस्त्रा-होता हुआ निश्चय से अधूमश्यामल (धूम से मलिन नहीं) था। यहाँ भी विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो अग्नि का निवासस्थान होगा, वह धूम की मलिनता-शून्य किसप्रकार हो सकता है? इसका समाधान यह है कि जो चित्र-भानु-भवन-अर्थात्-नानाप्रकार की रत्न-किरणों का स्थान होता हुआ निश्चय से अधूमश्यामल-- धूम-सरीखा कृष्ण नहीं था ( उज्ज्वल ) था। जो धर्मधाम ( यमराज-मन्दिर-) समान होकर के भी बदुरीहित व्यवहार-शाली था। अर्थात्-दुश्चेष्ठा-युक्त व्यवहार से रहित था। यह भी विरुद्ध है; क्योंकि जो यमराज का गृह होगा, वह दुश्चेष्टावाले व्यवहार से शून्य कसे होसकता है ? अतः परिहार यह है कि जो धर्मधाम ( दानादिधर्म का स्थान ) है और निश्चय से अदुरीहितव्यवहार ( पाप एबहार से शून्य) था। जो पुण्यजनावास ( राक्षसों का निवास स्थान ) होकर के भी अराक्षसभाव (राक्षस पदार्थ-रहित ) था। यह भी विरुद्ध मालूम पड़ता है, क्योंकि जो राक्षसों का निवास स्थान होगा, वह राक्षस-शून्य कैसे होसकता है? इसलिए इसका समाधान यह है कि जो पुण्यजनावास (पुण्य से पवित्र हुए लोगों का निवास स्थान) था और निश्चय से अराक्षसभाव-अदुष्ट परिणामवाले सझन लोगों से विभूषित था। जो प्रचेतःपस्त्य (वरुण-जल देवता के निवासस्थान-सरोया-जलरूप ) होता हुधा निश्चय से अजड़ाशय (श्लेष-अलंकार में और ल में भेद न होने के कारण अजलाशय) अर्थातजलाशय ( तालाव-आदि) नहीं था। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो जल देवता का निवास स्थान होगा, षड् जलाशय से रहित फिसप्रकार होसकता है ? अतः इसका परिझार यह है कि प्र-चेतः पस्त्य (प्रशस्त चित्तशाली सजन पुरुषों का स्थान) और निश्चय से अजड़ाशय (भूर्खता-युक्त चित्तवाले मानषों से रहित ) था। इसीप्रकार जो वातोदवसित (पवनदिक्पालगृह) सरीखा होकर के भी चपलनायक ( स्थिर स्वामी-युक्त) था। यहाँ भी विरोध प्रदीत होता है, क्योंकि जो पवनदिक्पाल का गृह होगा, वह स्थिरस्वामी-युक्त फैसे होगा? श्रतः * उपाइलाजानेयहय' क-1 A 'धानीताः फुलौनाश्याः' इति टिप्पणी । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये बायकम्, भषाधिपमिकाप्यस्थाणुपरिगतम्, शंभुशरणमिवाप्यव्यायापलीबम, प्रमसौधमिवाप्यनेकरथम् , मनमन्दिरमियाप्पसुनुप्रतापम्, रिंगेहमिवाप्यहिरण्यकशिपुनाश, नागेशानिवासमिवाप्यविजितपरिवनम्, समाधान यह है कि जो पातोदवसित ('-अतोद-अव-सित) था । अर्थात् विशिष्टों की पीड़ा रहितों-शिष्टफाल्न मुखवाले पुरुष-से चारों ओर से संयुक्तधा श्रीर निश्चय से जो अचपलनायक-शाली था। अर्थासजहाँपर स्थिरचित्तवाले ( दूसरों का धन व दूसरों की स्त्री के ग्रहण से रहित-निश्चल हृदयवाले ) नायक ( सामन्त ) क्तेमान थे। अथवा समाधान पक्ष में टिप्पणीकार के अभिप्राय से जो वात-उद-ब(पर) सित ( वायु और जल से चारों ओर से जटित-शीत वायु व शीतोदक सहित ) था और निश्चय से भचपलनावक ( परदार-पराकमुख-स्वदारसंतोषी-सामन्त पुरुषों से अधिष्ठित ) था। जो धनदधिष्ण्य (कुवेरमन्दिर ) के समान होता हुआ निश्चय से अस्थाणुपरिगत ( रुद्र-श्रीमहादेव-रहित ) था। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो कुबेर-मन्दिर होगा, वह रुद्र-रहित किसप्रकार होसकता है? क्योंकि कुवेर और सह परस्पर में मित्र होने के कारण एक स्थान पर रहते हैं। इसलिए इसका परिहार यह है कि जो घनदधिष्ण्य–दाताओं का गृह-होता हुआ अस्थागुपरिगत ( शाखा हीन वृक्षों से रहित ) था। जो शंभुशरण-रुद्रमन्दिर-समान होता हुआ निश्चय से अव्याल अवलीढ था । अर्थात्-सपा से युक्त नहीं था । यहाँपर विरोध मालूम पड़ता है ; क्योंकि जो रुद्र-मन्दिर होगा, यह सों से शून्य किसप्रकार होसकता है ? अवः परिहार यह है कि जो शंभु-शरण-सुख उत्पन्न करनेवालों का गृह होकर के भी अ च्याल अवलीद था। अर्थान-दुष्ट पुरुषों से युक्त नहीं था। जो अध्न-सौध ( सूर्य-मन्दिर ) सरीखा होकर के भी अनेकरथ ( अनेक रथों से विभूषित ) था। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो सूर्यमन्दिर होगा, मह भनेक रथमाला कसे होसकता है ? क्योंकि सूर्य के केवल एक ही रथ होता है। अतः परिहार यह है कि जो वृधन सौध-विशेष ऊँचे होने के कारण सूर्य के समीपवर्ती व सुधा (चूना) से उज्वल गृहों से युक्त था और निश्चय से अनेक रयों से विभूषित था। अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से अर्थात्-जहाँपर प्रश्नानां (सूर्यकान्त मणियों का सुधा यत्र (श्वेतद्रव्यविकार) पाया जाता है, ऐसा था और निश्चय से जो अनेक रथों से व्याप्त था। जो चन्द्रमन्दिर-सा होकर के भी अमृदु-प्रताप ( तीव्रप्रताप-युक्त ) था। यहाँपर भी विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो चन्द्रमन्दिर होगा, वह तीव्रप्रताप-युक्त किसप्रकार होसकता है? अतः परिहार यह है कि जो चन्नमन्दिर । प्रचुर सुवर्ण युक्त ) है और निश्रय से जहाँपर अमृदु-प्रताप-शालियों (वीणों-हिंसकों ) का प्रकृष्ट सन्ताप ( पीड़ा ) पाया जाता है. ऐसा था। जो हरि-नोह (नारायण-विष्णु के गृह-समान ) होता हुआ भी अ-हिरण्यकशिपुनाश-हिरण्यकशिपु' नामक दैत्य के नाश से रहित था। यह भी विरुद्ध है। क्योंकि जो नारायण-गृह होगा वह हिरण्यकशिपु नामक दैत्य के नाश से रहित किसप्रकार होसकता है। अतः परिहार यह है कि जो नारायण-गह सरीखा था और निश्चय से अ-हिरण्य-कशिप-नाशथा। अर्था-सुवर्ण व कशिपु ( भोजन व वन दोनों) के नाश से रहित था। अर्थात्-जहाँपर सुवर्ण, भोजन व वस्त्रों की प्रचुरता थी। ह-व' हाब्देन विशिष् कथं सभ्य ने-इति चेत् , सदु-विश्वप्रकाश-'बो दन्त्योय'ऽपि वरुणे वाणे पारे परे । शोषणे पचने सन्धे वामै वृन्दे च वारिधी । चनने बनने वादे बंदगयां च क्रीनित: ।' संशोधित संकटी पृ. ३४६ से संगृहीत - सम्पादक २- उच-अप कोमलं मूठु' । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनदेवतानिवासमिवाप्यकुरङ्गम्, द्वितीय आश्वासः १९९ पाक्तिः स्मितसोधकान्तिरालोकनेत्राम्बुसोपहारा एषामनाविभागीयागावनेः संवदतोव लक्ष्मीम् ॥२४०॥ विलोलाकार श्रीनितम्ब सिंहासनम मम द्वितीय कुचकुम्भशोभा सौभाग्यसाम्राज्यभिश्रादधाति ॥ २४१ ॥ जो नागेशनिवास ( नागराज के भवन ) समान होता हुआ भी अ-द्विजिल्हपरिजनसर्पों के कुटुम्ब से रहित था । यह भी बिरुद्ध है; क्योंकि जो नागराज ( शेषनाग ) का भवन होगा, वह सर्पों के कुटुम्ब से शून्य किलप्रकार होसकता है ? अतः समाधान यह है कि लो नागेशों ( हाथियों) का गृह था और निश्चय से जो अ-द्विजिह-परिजनों (बुर्जनों - घूँसखोर व लुटेरे - आदि दुष्टों --- के कुटुम्ब समूहों से रहित था एवं जो वनदेवता निवास ( धनदेवता का निवास स्थान ) होता हुआ भी अर ( मृग-रहित ) था। यह भी विरुद्ध है; क्योंकि जो वनदेवता का निवास स्थान होगा, वह मृग-हीन किस प्रकार हो सकता है ? अतः समाधान यह है कि जो वन देवता निवास है । अर्थात् जी अमृत और जलदेवता या स्वर्ग देवता की लक्ष्मी का निवास स्थान है और निश्चय से जो अ-कु-रनकुत्सित रङ्ग से शून्य है' । हे मासि महाराज ! उस अवसर पर ऐसी यह उज्जयिनी नगरी यज्ञभूमि सरीखी लक्ष्मी (शोभा) प्रकट कर रही है, जिसमें कमनीय कामिनियों की भ्रुकुटिरूप पताकाएँ ( ध्वजाएँ ) वर्तमान हैं । अर्थात् - जिसप्रकार यज्ञभूमि पताकाओं ( ध्वजाओं ) से विभूषित होती है उसीप्रकार यह नगरी भी स्त्रियों की भ्रुकुटिरूपी ध्वजाओं से अलंकृत थी। जिसमें मन्दहास्वरूपी यज्ञमण्डप की शोभा पाई जाती है । अर्थात् -- जिसप्रकार थज्ञमण्डप - भूमि सौध - कान्ति ( यज्ञमण्डप - शोभा - चूर्ण) से शुभ्र होती है उसीप्रकार प्रस्तुत नगरी भी मन्द हास्यरूपी यज्ञमरहप -शोभा से विभूषित थी एवं जिसमें स्त्रियों के चल नेत्ररूप कमलों की पूजा पाई जाती है। अर्थात् जिसप्रकार यज्ञभूमि कमलों से सुशोभित होती है उसीप्रकार इस नगरी में भी कमनीय कामिनियों के चहल नेत्ररूप कमलों की पूजाएँ ( मैंदें ) वर्तमान थीं और जिसका शरीर कमनीय कामिनियों के भ्रुकुटिक्षेप ( उल्लासपूर्वक भौहों का बढ़ाना ) रूपी दर्भ ( डाभ ) से संयुक्त है। अर्थात् जिसप्रकार यज्ञभूमि दर्भे ( डाभ ) से विभूषित होती हैं उसीप्रकार प्रस्तुत नगरी भी कियों के भ्रुकुटि दक्षेपरूपी दर्भ (लाभ) से विभूषित थी' || २४२ || ऐसी गह उज्जयिनी नगरी मेरे ( यशोधर महाराज के दूसरे सौभाग्य साम्राज्य की धारण करती हुई सरीखी मालूम पड़ती है। जो कमनीय कामिनियों के चल केशपाशरूपी चॅमरों की लक्ष्मी -शोभा से विभूषित है। अर्थात् जिसप्रकार साम्राज्यलक्ष्मी चल केशोंवाले चँमरों की शोभा से अलंकृत होती है उसीप्रकार प्रस्तुत नगरी भी कमनीय कामिनियों के चल केशपाशरूपी चँमरों से अलंकृत थी। जो कमनीय कामिनियों के नितम्ब ( कमर के पीछे के भाग) रूप सिंहासनों से सुशोभित थी । अर्थात् -- जिसप्रकार साम्राज्य लक्ष्मी सिंहासन से मण्डित होती है उसी प्रकार वह नगरी भी स्त्रियों के नितम्वरूप सिंहासनों से अलंकृत थी और जिसमें शियों के कुछ ( स्तन ) कलशों की शोभा पाई जाती थी । अर्थात् जिसप्रकार साम्राज्य लक्ष्मी पूर्ण कलशों से सुशोभित होती है उसीप्रकार प्रस्तुत नगरी भी रमणीक रमणियों के कुंच (स्तन) फलशों से अलंकृत थी * ॥ २४१ || * 'सिंहासनचारुमूर्तिः' क० । १. उपमालङ्कार व विरोधाभास - अलङ्कार | २. उपमालङ्कार | १. उपमालङ्कार | Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० यशस्तिलकचम्पूभन्मे एममपरासामपि मदाखोकनोस्सुम्ममसो निजविभमापहसितवासीयावालवासितविजासामामनाममकामधेनूमामिव मत्तकामिमीना स्मरसरनिधितफरकाशिमिः, अपि च स्यचिदम्पनिश्चितशास्त्रशेमुवीश्वर विचारगोकरीकिपमाणसकलयगइयवहारं भर्मराजनगरमित्र, मचिमिन्मजनोदारियमाणनिगमार्थे ब्रह्मालपमिन, इविदरतसुतामिमीयमानेतिवृत्तं तदुभवनमिव स्वचिदाभप्रधानविधीमानसरकोपदेश समवसरणमित्र, समिरम्मानसागरगणमरुगकर स्पन्दनमित्र, + क्वचिदिनीयमानसारङ्गसहमराजवितवमिर, सविनासबास्मती पदर्शनक्षुभिताको गपरिरमनङ्गमित्रोदय : प्रमोद रत्ताकरमिव, हे मारिदत्त महाराज ! इसप्रकार मैं दूसरी ऐसी मत्तकामिनियों ( रूपवती व युवती रमणियों ) की ऐसी कटाक्षपूर्ण चितवनों से, जो कि कामदेव के वामों ( पुष्पों) की तीक्ष्ण भल्लिन्धों (अमभागों ?) के समान प्रकाशित होरही थी। अर्थान्-जरे कपूर के समान शुभ्र थीं, से द्विगुणित ( दुगुनी) की हुई लाजालियों (माङ्गलिक अक्षतों ) की वर्षा द्वारा अपने को आत्रादि फल चाहनेषाले लोक के लिए. पुष्पशाली करता हुआ ऐसे 'त्रिभुवन तिलक' नाम के राजभवन में प्राप्त हुआ। कैसी हैं ये रूप व यौवन-सम्पन्न कामिनियाँ ? जिनम्र चित्त मेरे दर्शनार्थ उत्कण्ठित होरहा था, जिन्होंने अपनी भ्रुकुटि-विक्षेपों द्वारा स्वर्गलोक की देवियों की नेत्र शोभा तिरस्कृत-लज्जित-की थी एवं जो कन्दर्प-( कामदेष) गृह की कामधेनु-सरीखी ( कामदेव को उद्दीपित करनेवाली ) थीं। सुस 'त्रिभुवनविलक' नाम के राजभवन में विशेषता यह थी-कि जिसमें किसी स्थान पर समस्त संसार का ऐसा व्यवहार, जो कि निशित ( सूक्ष्म तत्व का निरूपक ) शासों के वेत्ता विद्वानों द्वारा जानने योग्य था, उसप्रकार पाया जाता था जिसप्रकार यमराज के नगर में समस्त संसार का ऐसा व्यवहार (यह मर चुका, यह मारा जारहा है और यह मरेगा इसप्रकार का वर्ताव ), जो कि निशित ( तीक्ष्ण-जीवों को प्रहण करनेवाले) शाखों के वेत्ता विद्वान ऋषियों द्वारा जानने योग्य था। जिसमें किसी स्थल पर ब्रामण लोगों द्वारा निगमार्थ-नगरों व ग्रामों का उदग्रहीत धन वसप्रकार निरूपण किया जारहा था जिसप्रकार ब्रह्म-मन्दिर में विद्वान ब्राह्मणों द्वारा निगमार्थ (वेद-रहस्य) निरूपण किया जाता है। जहाँ किसी स्थान पर नाचायों द्वारा भरत-शास (नाट्य-शास्त्र) का निरूपण उसप्रकार किया जारहा था जिसपर तण्डु-(शंकरजी द्वारा दिये हुये ताण्डवनृत्य के उपदेश को ग्रहण करनेवाले प्रथम शिष्य भरतमुत-नाटकाचार्य) के महल में नाट्य शास्त्र के आचार्यों द्वारा भरत-शास्त्र-नाट्य-शास्त्र का अभिनय किया जाता है। जो किसी स्थान पर विद्वानों में प्रधान विद्वानों द्वारा दिये जानेवाले तत्वोपदेश ( नानाभाँति को वीणा-श्रादि वादिन-कला ) से उसप्रकार विभूषित था जिसप्रकार समवसरणभूमि तत्वोपदेश ( मोझोपयोगी जीव व अजीव-आदि तत्वों के उपदेश-दिव्यध्वनि) से विभूषित होती है। जिसमें किसी स्थान पर सागर-गरण ( घोड़ों की जेणी ) उसप्रकार खेद-खिन्न किया जारहा था जिसप्रकार सूर्यस्य में सागर-गरण ( उसके घोड़ों का समूह ) खेद-खिन्न किया जाता है। जहाँपर किसी स्थल पर हस्ति-समूह उसप्रकार शिक्षित किया जारहा था जिसप्रकार गज (हाथी) शास्त्र के प्राचार्य-गृह पर हस्ति-समूह शिक्षित किया जाता है। जहाँ किसी स्थान पर समीपवर्ती इम लोगों ( यशोधर महाराज व अमृतमती महादेवी तथा चतुरनिगो सेना-आदि ) के दर्शन से समस्त कार्य करनेवालों का कुटुम्ब उसप्रकार क्षध (संचलित ) होरहा था जिसप्रकार चन्द्र के उदय से प्रमुदिव (वृद्धिंगत-उछलनेवाली तरकोंवाला) होनेवाला समुद्र क्षुब्ध ( उत्कल्लोल) होता है। * 'बशेषशास्तनिधितशेमुषीश्वर, इ. । । 'क्वचिद्विघीयमान' का। + 'प्रमदं का। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवास: क्वचिव 'हळे व्यक्तीकविका सव्यसनिनि वसन्त्रिके, किसचकिंवदन्तीभिः । अदिल पतस्व अकुमुकुलावलीवर धनेषु । अङ्गो मिर्गसे छबङ्गि मा गाः सखीभिः सह सङ्गम् । अकालक्षेप cred चिप्रदामेषु । अयि प्रमादिनि मदने, किमद्यापि निहायसि । द्रुतमादियस्थारतीयप्रगुणतायाम् । अणि कुरभि, किमकाण्डमितस्ततो हिण्वसे । अचिराम स्वरस्य देवस्याङ्गरागसंपादनेषु । अयि बाधापने मासि एष खलु समीपवर्ती देवः । तषु [लहृत्स्व भद्रासनप्रसाधनेषु । अये हसियदोहदये सि किं माकर्णयसि सविषय तुरशब्दम्, यतो न तुई सबसे ताम्बूलकपिलिकायाम् । अहे अलकबाहरीमङ्गदुर्विधे मधुकरि, किं सुधा विधमस्थात्मानम् । अद्धा प्रसाधय प्रकीकानि । वर्दधर, उपसर प्रदूर्गमेकसः। किरात, निकेल निजनिवासे निभृतम् । कुरुय म्युरुज जहाँपर सर्वत्र उपरितन भूमिका - शिखर के प्रान्त भागों पर एकत्रित हुई नवयुवती रमणियों के [ शुभ ] कटाक्षों के प्रसार ( वितरण ) द्वारा उज्वल ध्वजाओं के वस्त्र द्विगुणित शुभ्र किए गए थे एवं जहाँ किसी स्थान पर पचास वर्ष से ऊपर की आयुवाली वृद्ध स्त्रियों द्वारा समस्त परिवार चारों ओर से निम्नप्रकार व्याकुलित किया गया था। उदाहरणार्थ – 'हे वसन्तिका नाम की सखि ! तू निरर्थक शृङ्गार करने में आसक है, तुझे जुआरियों की बातचीत करने से क्या लाभ है ? कोई लाभ नहीं । अब मञ्जुल पुष्प कलियों की श्रेणी-रचना ( मालाओं का गूँथना ) में यत्न करें। हे अनिषिद्ध गमनवाली ( स्वच्छन्द गमन- शालिनी) लवङ्गिका नाम की अन्तःपुर-सुन्दरी सखी! तुम सखियों के साथ सङ्गम ( मिलना-जुलना ) मत करो और अविलम्ब ( शीघ्र ही ) हि (चतुष्क-चौक पूरण) में दक्ष होत्रो - शीघ्रता करो। हे प्रमाद करनेवाली 'मदन' नाम की अन्तःपुर-सुन्दरी ! तुम इस समय में भी क्यों अधिक निद्रा" ले रही हो ? भारती के सजाने की क्रिया में शीघ्र ही आदर करो । अयि कुरङ्गि नाम की संस्त्री ! बिना अवसर यहाँ-वहाँ क्यों घूम रही हो? तुम यशोधर महाराज के अङ्गरोग ( कपूर, अगुरु, कस्तूरी, कुङ्कम व कडोल-आदि सुगन्धित व तरल वस्तुओं का विलेपन ) करने में शीघ्र ही वेग-शालिनी (शीघ्रता करनेवाली ) होओ। अयि विशेष वार्तालाप युक्त मुखवाली अन्त:पुर-सुन्दरी मालती नाम की सखी! यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले यशोधर महाराज निकटवर्ती हो रहे हैं। अतः सिंहासन की प्रसाधन-विधि ( अलङ्कृत करने की लक्ष्मी -- शोभा ) में शीघ्र ही समर्थ होओ। हे प्रफुलित व मनोरथों से व्याप्त मनवाली 'राजहंसी' नाम की सखी! तुम अत्यन्त निकटवर्ती वादित्र-ध्वनि क्यों नहीं श्रवण करती ? जिससे ताम्बूल स्थगिका ( पान लगाने का व्यापार ) में शीघ्र प्रगुणा ( सरल या समर्थ ) नहीं हो रही हो ? केशमञ्जरी की मार्ग-रचना (सजावट) में विशेष निपुणता युक्त हे मधुकरी नाम की सखी! तुम अपना स्वरूप निरर्थक क्यों विडम्बित - विडम्बना युक्त करती हो ? अब शीघ्र चँमर ( ढोरने के लिए ) सुसज्जित करो। हे नपुंसक ! तू शीघ्र ही एक पार्श्वभाग पर दूर चला जा ( क्योंकि तेरे दर्शन से प्रस्तुत यशोधर महाराज को अपशकुन हो जायगा ) 1 हे भिल्ल ! तुम अपने गृह पर नम्रतापूर्वक निवास करो । क्योंकि तेरे देखने से प्रस्तुत राजा को अपशकुन होगा। अरे कुबड़े ! तू शुभ परिणामों से शोभायमान होनेवाली चेष्टाश्रों में सरल हो जा। भरे बोने ! तू ऐसी क्रीड़ाएँ रच ( भाग जा ), जिनमें उत्कण्ठा रूप रस प्रधानता से पाया जाता है, क्योंकि तेरे दर्शन से राजा सा= को अपशकुन होगा। हे चुकी (अन्तःपुर रक्षक ) ! तू अपने अधिकारों (अन्तःपुर-रक्षा- आदि) में चेष्टा रक्षा कर- प्रयत्नशील हो । अर्थात् २०१ A *. 'रङ्गावलि प्रदानेषु' क० X 'अभि' ० । 1' रंघस्य' इति ६० । दक्षस्व - शीघ्रा भव । 'दक्ष शीघ्राच' इति धातोः रूपं । १. 'श स्वप्ने' इति धातोः रूपं । ३. बावियल - 'दि बादरे' तुदादेर्धातोः रूपं । २६ . रधि लधि सामर्थ्य - समयभन २. निशयसि निद्रां करोषि । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये शुभाशयविशिष्टासु चेष्ठासु । म सामन, Aii ster। सोलि , लोक्षासमीहस्व निपनियोगेषु । *शुकपाक, मोत्कण्ठमुत्कण्ठस्व भोगावलीपापु । सारिके, प्रमोदाधिक कीर्तय मङ्गलानि । हसि, कुसो न हसि रसितुं निरावाधावकाश देश । सारस, कस तारस्वरः प्रदक्षिणप्रचारः । कुरङ्ग, रतापसव्यं वीपिनां स्थाने, विजयकुझर, उदग्दर शुभौचितानीक्षितानि । जयहय, सोपं हषस्व ।' इति मातृव्यञ्जनाभिर्जरतीभिमाकुलितनिखिलपरिजनं चरित्रभुवनतिम नाम समन्सतस्नु समकशशास्ससंगतानापानसरपुमरुक्तसितपताकाबसनं रामसदनमासादयांबभूव कीर्तिसाहारनामा चैतालिकालक्ष्मी विश्रध्वजौधः क्चधिनिलयलोलोलवीषे नधा श्शायां पुष्यस्सुमेरोः क्वचिदरुणतः स्वर्णकुम्भाशुजालैः । कान्ति कुस्सुधाब्वेः क्वचिदतिसिसिमयोतिभिभितिभाग:: शोभा श्लिष्यद्धिमानः क्वचिदिव गगनाभोगभाम्भिश्च कूटैः ॥२४॥ अन्तःपुर के मध्य में प्रविष्ट होजा। प्रस्तुत नरेश को अपना दर्शन न होने दें, क्योंकि तेरे दर्शन से उन्हें अपशकुन हो जायगा। हे शुक-शिशु ! तू सुरत-क्रीडा संबंधी वाक्यों के उच्चारण करने में उल्लासपूर्वक उत्कण्ठित होओ। हे मेना ! विशेष हर्षपूर्वक सुतिवचनों का पाठ कर। अयि राजाहसी ! तू किस कारण मधुर शब्द उच्चारण करने के लिए बाधा-शून्य स्थान पर नहीं जाती? हे सारस पक्षी ! तुम विशेष उच्चस्वरवाले शब्दों का उच्चारण करते हुए राजा सा० के दक्षिण पार्श्वभाग में संचार करनेवाले होकर गमन करो। हे हरिण ! प्रस्तुत राजाधिराज के याएँ पार्श्वभाग पर संचार करते हुए होकर शिकार योग्य हिरणों के स्थान (वन) में जाओ। भावार्थ- क्योंकि ज्योतिषज्ञों ने कहा है कि "यदि एक भी अथवा तीन, पाँच, सात और नव हरिण वामपार्श्व भाग पर संचार करते हुए बन की ओर जावें तो माङ्गलिक होते हैं। अत: प्रकरण में वृद्ध स्त्रियाँ प्रस्तुत यशोधर महाराज के शुभ शकुन के लिए उक्त यात मृगों के प्रति कह रही हैं। हे हाथियों के झुण्ड के स्वामी श्रेष्ठ हाथी ! तुम शुभ शकुन-योग्य चेष्टाएँ दिखाओ। हे उत्तमजाति-विभूषित घोड़े ! अच्छी ध्वनि-पूर्वक ( जलसहित मेघ-सरीखी व समुद्र-ध्वनि-सी ) ध्वनि (हिनहिनाने का शब्द ) फरो। इसी अवसर पर 'कीर्तिसाहार' नाम के स्तुतिपाठक ने निम्नप्रकार तीन श्लोक पढ़े : हे राजन् ! यह आपका ऐसा महल विशेषरूप से शोभायमान हो रहा है, जो किसी स्थान पर अपनी शुभ्र ध्वजा-श्रेणियों द्वारा ऐसी गङ्गा की लक्ष्मी ( शोभा ) धारण कर रहा है (गङ्गा नदी-सरीखा प्रतीत होरहा है ), जिसकी तरङ्गे वायु-पल से ऊपर उछल रही हैं। इसीप्रकार जो किसी स्थान पर अस्पष्ट लालिमा-युक्त सुवर्ण-कलशों की किरणों के समूह द्वारा सुमेरु पर्वत की शोभा वृद्धिंगत कर रहा है-सुमेरु-जसर प्रतीत हो रहा है एवं जो अत्यन्त उज्वल कान्तिशाली भित्ति प्रदेशों द्वारा क्षीरसमुद्र की शोभा रच रहा है और जो किसी स्थान पर आकारा में विशेषरूप से विस्तृत होनेवाली शिखरों से हिमालय की शोभा ( उपमा-सहशता ) धारण कर रहा है ॥ २४२ ।। * पाका शिशुः इत्यर्थः इति का। १. तथा गो-मम्-एवोऽसि यदि वा त्रीणि पन संभ नवापि या । वामपाधु गच्छन्तो मृगाः सर्वे शुभावहाः ॥ १ ॥ सं०.टी. पू. ३५२ से संकलित- सम्पादक २. उपमा वरामुच्चयालंकार । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवास: श्री लीलाकमवावनिपते साम्राज्यचिद्धं मह की पति निकेतनं क्षिमित्रधूविश्रामधाम स्वयम् । लक्ष्मीविभ्रमदर्पणं कुछगृहं राज्याधिरेष्याः पुनः श्रीङ्गास्थानमिदं विभाति भवनं वाग्देवताया इव ॥ २९३ ।। वशीकृतमहीपालः श्रोहीला मकरः । चिरमत्र स्थितः मधे चतुरतामक क्षितिम् ॥२४५॥ विदेश स्वरों पुरः सुरतख्धानैः समं मात के सूर्य समय सामजं कुरु गुरी पानोचितां वाहिनीम् 1 समशेकमपि प्रादुर्भवस्वके यस्मिन् स्वर्गेपशेर्महोत्सवविधिः सोऽयास्त्रिलोकजिनः ॥ २४५ ॥ कर्णाञ्जलिपुटैः पातु चेतः सूक्तामृते यदि । श्रयतां सोमदेवस्य नश्याः काव्योतियुक्तयः ॥ २४६ ॥ इति सकलतार्किकचूडामणेः श्रीमन्नेमिदेव भगवतः शिष्वंग सोनवद्यगद्यपद्यविद्यारक्रतिशिवमण्डनीभवच्चरणकमलेन श्री सोमदेवसूरिणा विरचिते यशोधरमहाराजचरिते यशस्तिलकापरनाम्नि महाकाव्ये पबन्धोत्सवो नाम द्वितीय आश्वासः समाप्तः । है हे राजन् ! आपका ऐसा यह विशाल भवन, जो कि लक्ष्मी का कीड़ा कमल, महान् साम्राज्य-चिह्न एवं ऋति का उत्पति गृह है । अर्थात् इससे आपकी कीर्ति उत्पन्न होती है। इसीप्रकार जो पृथिवी की का स्वाभाविक निवास गृह, लक्ष्मी के विलास का मुकुर ( दर्पण ) व राज्य की अधिष्ठात्री देवता का कुलमन्दिर सरीखा और सरस्वती के क्रीड़ा स्थान सदृश है, विशेषरूप से सुशोभित ! ऐसे अप, जिन्होंने राजाओं को वशीकृत किया है ( अपनी आज्ञापालन में प्राप्त कराया है) और जिसप्रकार कम-वनों में लक्ष्मी ( शोभा ) क्रीड़ा करती है उसीप्रकार आप में भी लक्ष्मी ( राज्य लक्ष्मी या शोभा ) कीड़ा करती है, 'इस त्रिभुवनतिलक' नामके राजमहल में स्थिति हुए चार समुद्र पर्यन्त इस पृथिवी का चिरकाल तक पालन करो ||२४४|| वह जगत्प्रसिद्ध ऐसा जिनेन्द्र ( ऋषभदेव आदि तीर्थङ्कर भगवान् ) तीन लोक की रक्षा करे । अर्थात् विघ्न विनाश करता हुआ मोक्ष प्राप्ति करे, जिसके ऐसे केवलज्ञान कल्याणक के अवसर पर, जिसमें समस्त पाप प्रकृतियों (समस्त घातिया कर्म व १६ नाम कर्म की प्रकृतियाँ) को त सेन (क्षय) किया गया है, सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की महोत्सव विधि इसप्रकार निम्नप्रकार सम्पन्न हुई । उदाहरणार्थ – हे कुवेर ! तुम कल्पवृक्षों के वनों के साथ-साथ आगे-आगे शीघ्र ही प्रस्थान करो। इन्द्र-सारथि ! तुम ऐरावत हाथी को शीघ्र ही सुसज्जित करो -- प्रस्थान-योग्य बनाओ । हे बृहस्पति नामक मंत्री ! तुम देवताओं की सेना को शीघ्र ही प्रस्थान के योग्य करो || २४५ || हे विद्वानो ! यदि आपका मन काव्यरूप अमृत को कानरूपी अञ्जलिपुटों (पात्रों ) द्वारा पीने का उत्सुक - उत्कण्ठित है तो सोमदेवाचार्य को 'यशस्तिल कचम्पू महाकाव्य' के मधुर वचनों की गद्यपद्यात्मक रचनाएँ आपके द्वारा श्रवण की जावें ||२४३ ।। इसप्रकार समस्त तार्किक ( पडदर्शन - वेत्ता ) चक्रवतियों के चूड़ामणि ( शिरोरन या सर्वश्रेष्ठ ) श्रीमदाचार्य 'नेमिदेव' के शिष्य श्रीमत्सोमदेवसूरि द्वारा, जिसके चरण कमल तत्काल निर्दोष गद्य-पद्य विद्याधरों के चक्रवर्तियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रचे हुए 'यशोधरमहाराजचरित' में, जिसका दूसरा नाम ' यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य' है. 'पट्टबन्धोत्सव' नामका द्वितीय आश्वास पूर्ण हुआ । * दानोचित' क० । १. रूपक च उपमालंकार । २. रूपक व अतियालंकार । ३. २०३ अतिशयालंकार । ४. रूपक व उपमालंकार । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये इसप्रकार दार्शनिक-चूड़ामणि श्रीमदम्बादास जी शास्त्री व श्रीमत्पूज्यपाद आध्यात्मिक सन्त श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी न्यायाचार्य के प्रधानशिष्य, जैनन्यायतीर्थ, प्राचीनन्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ व आयुर्वेद विशारद एवं महोपदेशक-आदि अनेक उपाधि-विभूषित सागरनिवासी श्रीमत्सुन्दरलाल जी शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेवसरि-विरचित यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य की 'यशस्तिलकदीपिका' नाम की भाषाटीका में 'पटुबन्धोत्सव' नाम का द्वितीय आश्वास (सर्ग) पूर्ण हुआ। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः । श्रीमतीलाम्बुजगर्भसंमवतनुः स्वर्णाचलस्नानभूसंक्ष्मीप्राधितसंगमोऽपि तपसः स्थान परस्याभवत् । ध्यानामपविधिः समस्वविषयं ज्योतिः परं प्रास्वाभ्यस्तवामध्वोदयस्य स जगपायादपायाजिनः ॥१॥ लक्ष्मीपतिप्रभृतिभिः कृतपासेवः पायाजान्ति सजयी जिनयन्यदेवः। साम्पं विषिष्टपतिस्थितविक्रमस्य दंधारवामितलस्य हरेनं यस्य ॥२॥ जिसका शरीर लक्ष्मी के क्रोढ़ाकमल की कणिका (मध्यमाग ) में उत्पन्न हुआ है। भाषार्थ- अब भगवान् स्वर्ग से अबतरण करते हैं. तब माता के गर्भाशय में कमल बनाफर उसकी कर्णिका (मध्यभाग) में स्थित होते हुए वृद्धिंगत होते रहते हैं। पश्चात्-जन्म के अवसर पर माता को बाधा (पोदा) न देते हुए जन्म धारण करते हैं, अतः आचार्यश्री ने कहा है कि भगवान का शरीर लक्ष्मी के क्रीड़ा-कमल की कर्णिका में उत्पमा है। इसीप्रकार जिसके जन्माभिषेक की भूमि सुमेरुपर्वत है। अर्थात-जिसका जन्मकल्याणक महोत्सव सुमेरुपर्वत पर देवा द्वारा उल्लासपूर्वक सम्पन्न किया गया था। जिसका संगम साम्राज्य लक्ष्मी (राज्यविभूति) द्वारा प्रार्थना किया गया था। अभिप्राय यह है कि जिन्होंने युवावस्था में साम्राज्य-सम्मी से अलंकृत होते हुए रामवत् राज्यशासन करते हुए प्रजा का पुत्रवत् पालन किया था एवं जिनमें से कुछ तीर्थकरों ने कुमारकाल में भी राज्यलक्ष्मी को रणवत् तुच्छ समझकर तपश्चर्या धारण की श्री। जो भगवान् उत्कृष्ट पीक्षा के स्थान हुए। अर्थात्-जिन्होंने साम्राज्य लक्ष्मी को छोड़कर उस्कृष्ट दिगम्बर दीक्षा धारण कर बनस्थलियों में प्राप्त होकर महान तपश्चर्या की, जिसके फलस्वरूप जिन्होंने ऐसा सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त किया था, जो कि लोकाकाश मौर अलोकाकास को प्रत्यक्ष आनता है। अर्थात्-जिसके केवलज्ञानरूपी दर्पण में प्रलोकाकाश के साथ तीन लोक के समस्त पदार्थ अपनी त्रिकालवर्ती भनन्त पर्यायों सहित एककाल में प्रतिबिम्बित होते हैं। जिसका कर्तव्य धर्मभ्यान व शुक्लध्यान द्वारा सफलीभूत हुआ है। अर्थात्-जिन्होंने धर्मध्यान व शुक्लभ्यानरूपी भमिसे घातिया नर्म (जानाधरण, दर्शनावरण मोहनीय व अन्तराय कर्म ) रूपी इन्धन को भस्मसात् करते हुए अन्य देवताओं में न पाया जानेवाला अनोखा केवलहान प्राप्त करके अपना करव्य सफल किया था एम जिसने अपना उदय ( उत्कृष्ट-शुभजनक-अय-कर्तव्य) उस जगप्रसिद्ध स्थान ( समस्त कमों के श्यरूप लथापाले मोक्ष स्थान ) में आरोपित ( स्थापित ) किया था तथा जो अनन्तचतुष्टय (अनन्तदर्शन, अनंतवान, अनन्तसुख व अनन्तषीर्य ) और नष केपललब्धियों से विभूषित है, ऐसा वह जगप्रसिद्ध अषमदेव-श्रावि से लेकर महावीर पर्यन्त तीर्थकर परमदेष तीनलोक के प्राणियों की अपाय (चतुर्गति के दुःख-समूह) से रक्षा करे ॥१॥ वह जगप्रसिद्ध ऐसा जिनचन्द्रदेव ( गणपरदेष-आदि को चन्द्र-सरीखा आल्हादित-उल्लसितकरनेवाला वीर्थकर सर्वक परमदेव ) तीन लोक की रक्षा करे, जिसके परएकमलों की भक्ति श्रीनारायण की प्रमलतापाले रुद्र व अमा-आदि द्वारा की गई है, जो कर्मशत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने के कारण विजयलक्ष्मी से विभूषित है और जिसकी तुलना श्रीनारामण (विष्णु) के साय नहीं होसकती। १. रूपमा, अम्तिक्षम र समुच्चयालंधर एवं शार्दूलविक्रीडितमान। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पुनस्तदध्यास्य श्रीसरस्वती विकासकमलाकरं राजमन्दिरमहो असमासारम्भ, त्रिभुवन भवनस्तम्भ, कदाचित्समोपसमस्त लोकोमेषेषु निशोधिनीशेपेषु । २०६ हिमरुचिरस्तमेति निशि निगदित निविनियोग संगरः । रविरपि भयन विषयमयमावति जगति निजाय कर्मणे तस्कलहं विद्वाय संविशत पुननैनु दूरमन्तरम्। प्रातः कथयतीव मिधुनेषु रसस्थाकुमण्डलम् ॥३॥ निद्राशेपनिमीलितार्चनयनं किचिद्वियम्बाक्षरं पर्यस्तालकजालकं प्रविलसद्ध मम्मु फटन् । भ्रूभङ्कालसमल्पजृम्भणवशादपत्प्रकम्पाघरं चुम्बाष्ट्रिय सखीमुखं ननु श्वेरेषा प्रभा दृश्यते ॥ ४॥ अर्थात्--जो अनोखे हैं, क्योंकि जिनचन्द्र देव की शक्ति तीन लोक के उद्धार करने में स्थित है, जब कि विष्णु ने वराह अवतार के समय दंष्ट्राओं ( खीसों) द्वारा केवल पृथिवीमण्डल को उठाया था । अर्थात्जब विष्णु ने वराह अवतार धारण किया था तब प्रलयकाल के भय से उन्होंने पृथिवीमण्डल को अपनी खीसों द्वारा उठाया था, जब कि तीर्थंकर भगवान् मोक्षमार्ग के नेतृत्व द्वारा तीनलोक के प्राणी समूह का उद्धार करते हैं - ३ (२|| अनोखे साहस का प्रारंभ करनेवाले और तीनोकरूपी महल के आधार स्तम्भ ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! मेरा राज्याभिषेक व विवाह दीक्षाभिषेक होने के पश्चात् — अथानन्तर— मैं लक्ष्मी और सरस्वती के कीड़ा कमलों के वन सरीखे उस 'त्रिभुवनतिलक' नाम के राजमहल में स्थित हुआ। किसी अवसर पर जब समस्त प्राणियों के नेत्रोद्घाटनों को समीपवर्ती करनेवाले रात्रिशेष ( प्रातःकाल ) हो रहे थे तब मैंने ( यशोधर मद्दाराज ने ) प्रात:कालीन सूक्तियों (सुवचन सुभाषितों ) के पाठ से कठोर ( महान् शब्द करनेवाले) कण्ठशाली स्तुतिपाठकों के अवसर की सूचना देने से अत्यन्त मनोहर उक्तियों (वचनों ) वाले निम्नप्रकार के सुभाषित गीत श्रवण करते हुए ऐसा शय्यातल ( पलंग ), जिसमें कस्तूरी से व्याप्त शारीरिक लेप वश विशेष मर्दन से उत्पन्न हुई सुगन्धि वर्तमान थी, उसप्रकार छोड़ा जिसप्रकार राजहंस गङ्गानदी का वालुकामय प्रदेश, जिसपर नवीन विकास के कारण मनोहर स्थली-युक्त कमलवन वर्तमान है, छोड़ता है । हे राजन् ! शब्द करनेवाले मुर्गों का समूह प्रातःकालीन अवसर पर ऐसा प्रतीत हो रहा है-मानों – वह स्त्री-पुरुषों के युगलों को निप्रकार सूचित कर रहा है- अहो ! स्त्री-पुरुषों के युगलो ! वह प्रसिद्ध चन्द्र, जिसने रात्रि में अपनी कर्तव्य प्रतिक्षा सूचित की है, अस्त हो रहा है और यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ सूर्य भी अपने योग्य कर्तव्य करने के लिए लोक में चारों ओर से नेत्रों द्वारा दृष्टिगोचर हो रहा है। इसलिए हे स्त्रीपुरूषों के युगल ! पारस्परिक कलाह छोड़कर संभोग कथे क्योंकि फिर तो रात्रि विशेष दूरवर्ती हो जायगी ॥ ३ ॥ हे राजन् ! श्रालिङ्गन करके अपनी प्रियतमा का ऐसा मुख चुम्बन कीजिए, क्योंकि निश्चय से यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली सूर्य-दीप्ति दृष्टिगोचर हो रही है---प्रभात हो चुका है। जिसमें अल्प निन्दा-यश निमीलित ( मुद्रित ) हैं । जिसमें अक्षरों का उच्चारण कुछ विलम्ब से हो रहा है। जिसकी केशहरियाँ यहाँ वहाँ बिखरी हुई हैं। जिसपर स्वेदजल-बिन्दुरूपी मोतियों की श्रेणी सुशोभित हो रही है । जिसमें भ्रुकुटि -क्षेप ( मोहों का संचालन ) का उग्रम मन्द है एवं थोड़ी जैभाई आने के कारण जिसमें ' विषय मुपधावति' क० । १० प्रति के आधार से पद्मरूप में परिवर्तित - सम्पादक १. उत्प्रेक्षालंकार एवं दुवई ( द्विपदी - प्रत्येक चरण में २८ मात्रा-युक्त मात्राच्छन्द ) २. व्यतिरेकालंकार । ३. उकं च वाग्भट्टेन महाकविना - 'केनचिद्यत्र धर्मेण द्वयोः संसिद्धसाम्ययोः । भवत्यैकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते ॥१॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ सृतीय भावासः विकिरमिकिर एष व्याकुलः पावपानां विस्यति शिखराणि प्रेलितो बराब्दः । हद च युगनिसा: सनकर्मप्रवधासरलितकुचकुम्भः संवरस्यङ्गणेषु ॥४॥ गलवि सम हवायं चक्रनाम्नां वियोगः स्फुटति नलिनराभिः संध्यमा सार्धमेषा । अगणितपतिगर्मा ऋणिसभूलतान्तरत्यजति कुलवधूना वासगेहानि सार्थ : अविरलपुलकालीपांशुलास्याम्मुजानां नवनवनखरेखालेखलोसस्तनीमाम् । स्मरनरपतिवृतीविभ्रमः कामिनीनामिह विहरति यूयः प्रक्वणन्नपुराणाम् ॥७॥ भलकवलयवृत्ताः किच्चिदाकुचितामताः सरसकरजरेखाः कामिनीना कपोले। प्रविधति पलाशस्यामशास्त्राशिखायामवनतमुकुलाना मसरीणामभिस्याम् ॥६॥ द्वीपान्तरेषु नलिनीवनवतिवृत्ते भानौ क्रिया नृप न कापि यथेह भाति । एवं स्वयि प्रियतमाधरपानलोले लोके कुतः फलति कर्मवसा प्रयासः ॥९॥ ओटो गर ना कुछ कमान है । यह पनियों का समूह व्याकुलित हुआ वृक्षों के शिखर आच्छादित कर रहा है। नर-माँदा पक्षियों के जोड़ों की ध्वनि चञ्चल होरही है। यह कमनीय कामिनियों की श्रेणी, जिसके कुच ( स्तन ) कलश गृहसंबंधी व्यापार-संबंध से शिथिलित हो रहे हैं, अगों पर संचार कर रही है ॥५॥ हे राजन् ! इस प्रभात वेला में यह चकवा-बकवी का वियोग उसपनर विघटित होरहा है जिसप्रकार रात्रि का अन्धकार विघटित (नष्ट) होरहा है एवं यह कमल समूह संध्या (प्रभातकाल) के साथ विकसित हो रहा है। अर्थात्-जिसप्रकार संध्या (प्रभातकाल } विकसित (प्रकट ) होरही है उसीप्रकार कमल-समृह भी विकसित होरक्षा है और कुल वधुओं । कुलत्रियों ) का समूह, जिसने पतियों द्वारा किये जानेवाले परिहास की ओर ध्यान नहीं दिया है और जिसने झुकुटि ( भोहें ) रूपी लताओं के प्रान्त भाग क्रोध-वश कुटिलित किये हैं, अपने विलास-मन्दिर छोड़ रहा है । हे राजन् ! [इस प्रभातवेला के अवसर पर ] इस स्थान पर ऐसी कमनीय कामिनियों की श्रेणी, जो कि कामदेवरूपी राजा की दूतियों-सी शोभा-शालिनी है, जिनके मुखकमल पनी रोमाञ्च-श्रेणी से व्याप्त है, जिनके स्तन नस्यों की नवीन राजियों ( रेखाओं) के मिलेखनों से चञ्चल होरहे हैं और जिनके नपुर कानों के लिए मधुर शब्द कर रहे हैं, विहार ( संचार-पर्यटन) कर रही है। हे राजन् ! कमनीय कामिनियों के केशपाश-वलयों ( समूहों या बन्धनों) पर प्रवृत्त ( उत्सम) और आकुचित (सिकुड़े हुए) प्रान्तभागमाले तत्काल में प्रियतमों द्वारा किये हुए नखचिह जब कमनीय कामिनियों की गालस्थली पर किये जाते हैं तब वे (नखचिह्न) उसप्रकार की शोभा धारण करते हैं जिसप्रकार पलाश वृक्ष की उपरितन शाखा के ऊपरी भाग पर उत्पन्न हुई व मुकी हुई कलियोंवाली मअरियों शोभा धारण करती है ।।। हे राजन् ! इस लोक में जिसप्रकार से जब सूर्य पूर्व व पश्चिम-श्रादि विदेहक्षेत्रों में स्थित हुए कमलिनियों के वन में वर्तन-शील आचारवान् है। अर्थात्-कमलिनियों के पनों को प्रफुल्लित करने में प्रवृत्त होता है तब उसके समक्ष दूसरे क्रियावानों की श्रेष्टा शोभायमान नहीं होसकती अथवा चित्त में चमत्कार उत्पन्न नहीं कर सकती, इसोप्रकार से जब आप अपनी प्रियतमा के पोधामृत के आस्वादन करने में लम्पट हैं तब आपके समक्ष दूसरे क्रियावान् पुरुषों का उद्यम किसप्रकार सफल हो सकता है? अपि तु नहीं होसकता १. रूपक व अनुमानालंकार । २. जाति-अलंकार । ३. उपमा च सदोषि-अलंकार । ४. रूपक उपमालंकार । ५. उपमालंकार । ६. रसान्त व आक्षेपालकार। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ यशस्विनकचम्यूकाव्ये स्मरभरकसहकेमिस्निातकविदलिततिलकमण्डने नवनातलिखितगणस्थलमायनिपीडिताधरम् । निघोडमरनयनमालामुखभुषसि समन्मनाक्षरं सुरतविलासहस तब कथयति निखिलनिवास जागरम् ॥१०॥ विविधपहर मध्यम कोकपाल कसका प्रयोगयतु सर्वजगत्प्रकोषम् । किया पानि भवति नाय भवाइसेषु ॥१॥ मध्यष राम्पसमसारपिरागठस्ते नीरोगसावहिसवाप्रवणो भिषश्च । पौरोगबोमिमवापरः समास्ते बारे बोत्सवमविरच पुरोहितोप ॥१२॥ प्राभातिकानकरवानप्रदोषारी रसन्ति गृहवापिषु राजहंसाः । उति देव भव संपति शमीसंपादित विमानमिति मुवाणाः ॥१३॥ संभोग-क्रीड़ा की कीड़ा करने में राजईस हे राजन् ! प्रातःकाल के अवसर पर दिखाई देनेवाला आपकी प्रिया का ऐसा मुख समस्त पूर्व, मध्य व अपर रात्रियों में कामोद्रेकवश होनेवाले आपके आगरण को प्रकटरूप से कह रहा है, जिसका कुलम-विलक और कजल-आदि मण्डन कामदेव की अधिकता से की हुई कलहकीड़ा से विखरे हुए केशपाशों द्वारा लुप्त (मिटाया हुआ) किया गया है। जिसन गाल-स्थल नवों द्वारा रचे गए नवीन लेखों (लिपि-विशेषों) से व्याप्त है। जिसके ओष्ठ निर्दयतापूर्वक चुम्बन किये गए हैं। जिसके नेत्र रात्रिजागरण-वश आनेवाली निद्रा से उत्कट है एवं जिसमें गद्द शब्दवाले अक्षर वर्तमान हैं। ___ भावार्थ स्तुतिपाठक प्रस्तुत यशोधर महाराज से कह रहे हैं कि हे राजन् ! आपकी प्रियतमा का मनोहर मुख इस प्रभातवेला में कुङ्कम-तिलक और कजलादि मण्डन की शून्यता तथा ओष्ठचुम्बन आदि रतिविलास-चिह्नों से व्याप्त हुया आपके कामोद्रेक-वश होनेवाले सर्वरात्रि-संबंधी जागरण को प्रकट कर रहा है' ॥१०॥ शत्रुओं का मद चूर-चूर करनेवाले हे राजन् ! आप सरीखे महापुरुषों में, जो कि तीनलोकको प्रकाशित करनेवाले तेज के गृह है, निद्रा किसप्रकार हो सकती है? अपि तु नहीं हो सकती। प्रथिवीमण्डल के स्वामी आपको, जिनसे समस्त पुथिवीमण्डल को प्रयोष ( सावधानता) प्राप्त होता है, कौन पुरुष जगा सकता है? अपितु कोई नहीं जगा सकता ।। ११ ।। हे राजन् ! यह प्रत्यक्ष प्रवीत होनेवाला श्राप का मंत्री आया है, जो कि राज्यरूपी रथ का सारथि है। अर्थात्-जिसप्रकार सारथि रथ का मली-भाँति संचालन करता है उसीप्रकार यह मंत्री भी आप के राज्यरूप रथ का सुचारुरूपेण संचालन करता है। इसीप्रकार 'वैद्यविद्याविलास' दूसरे नाम वाला 'सज्जनद्य' भी भाया है, जो ऐसे आयुर्वेद शानों का, जो निदान व चिकित्सा-आदि उपायों द्वारा नीरोग करने में सावधान है, विद्वान है और यह महानस-मध्यज्ञ ( भोजनशाला का स्वामी ) भी तैयार बैठा है, जो कि नवीन पाकक्रिया में तत्पर है। अर्थात-ओ ६३ प्रकार के भोज्य व्यञ्जन पदार्थों की पाकक्रिया में तत्पर व कुशल है एवं हे राजन् ! यह पुरोहित भी आपके दरवाजे पर बैठा है, जिसकी बुद्धि शान्तिकर्म महोत्सव के करने में समर्थ है। ॥ १२ ॥ हे राजाधिराज ! राजमहल की वावड़ियों या सरोवरों में स्थित हुए राजहंस प्रातःकालीन भेरियों की ध्वनि-श्रवण से जागने के कारण महान् शब्द करते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे हैं-मानों-वे यह सूचित कर रहे हैं कि "हे राजन् ! उठो, इस समय राजलक्ष्मी से उत्पन्न हुआ यह ऐश्वर्य भोगो"४ ॥१३॥ *'नवनदलिखितरेखगण्डस्पल' ।* पंचमलोकपालं! ग. | A 'जन' इति टिप्पण्यां। १. अनुमानालंकार । २, अतिशय व आक्षेपालंकार। ३. समुच्चयालंकार । ४. उत्प्रेक्षालंकार । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवासः सुमेषु येषु रविरेच शुभावोक यावरूनो कति सल्किक शेषु धंसे । मोक्षं पुनर्दवति येस्य पुरो विश्वभ्वास्तेयांसि नाम निखनोति मिलानि तेषु ॥ १४ ॥ इति वै भाविक सूक्तपाठकठोरकण्ठकानां प्रबोधमङ्गरूपाठकानामवसरावेदनसुन्दरोळी: सूफीकोलासभांसक सरोजकाननं मन्दाकिनीनं हंस इव या चिकाई मृगमदाङ्गरागबहुलपरिमां पष्यसम्मुखांचकार । कदाचिदासनोमणिमहसि प्रत्यूषादसि । २०६ विनों के नेत्र हे राजन् ! यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला सूर्य जितना अन्धकार नष्ट करता है उतना अन्धकार सोते हुए पुरुषों में स्थापितकर देता है और यह (सूर्य) उन पुरुषों में, जो निद्रा - शून्य ( निरालसी ) होते हुए इसके पूर्व में ही जागते रहते हैं, अपने तेज ( प्रकाश ) विस्तारित करता रहता है' । १४ ॥ अथानन्तर किसी अवसर पर जब उदयाचलवर्ती सूर्य का निकटवर्ती महान तेजशाली प्रातः काल हो रहा था तब सुखशयन पूँछनेवाले ( स्तुतिपाठकों ) के निम्नप्रकार सुभाषित गीतरूपी अमृतरस को कर्णाभूषण बनाते हुए ( श्रवण करते हुए ) ऐसे मैंने ( यशोधर महाराज ने ) ऐसे सभामण्डप में प्रवेश किया, जिसने ( यशोधर महाराज ने ) गुरुओं ( विद्यागुरु व माता-पिता आदि हितैषियों ) तथा ऋषभादि तीर्थङ्कर देवों की सेवावधि ( पूजा-विधान ) भलीप्रकार सम्पन्न की थी। जो प्रतापनिधि ( सैनिकशक्ति व कोशशक्ति का खजाना ) था । जो समस्त लोक के व्यवहारों (मर्यादापालन आदि सदाचारों) में उसप्रकार अग्रेसर (प्रमुख) या जिसप्रकार सूर्य समस्त लोक व्यवहारों (मार्ग-प्रदर्शन आदि प्रवृत्तियों) में अग्रेसर ( प्रमुख ) होता है । जो पुरोहितों अथवा जन्मान्तर हितैषियों द्वारा दिये गए माङ्गलिक आशीर्वाद सम्मान पूर्वक ग्रहण कर रहा था | जो कामदेव के धनुष (पुष्पों) से विभूषित वाहुयष्टि-मण्डल ( समूह ) वाली कमनीय कामिनियों से उसप्रकार वेष्टित था जिसप्रकार समुद्र-तटवर्ती पर्वत ऐसी समुद्र-तरकों से, जिनमें सर्पों की फारूप श्राभूषणोंवाली तरों की कान्ति पाई जाती है, वेष्टित होता है। जिसने प्रातः काल संबंधी क्रियाएँ (शौच, दन्तधावन स्नान आदि शारीरिक क्रियाएँ तथा ईश्वर भक्ति स्वाध्याय व दान-पुण्य आदि आत्मिक क्रियाएँ) पूर्ण कीं थीं। जिसने सामने स्थित सुमेरु- शालिनी पसति सरीखी (पवित्र) बछड़े सहित गाय की प्रदक्षिणा की थी एवं जिसका मस्तक देश ऐसे कुछ पुष्पों से अलकृत था, जो कि प्रकट दर्शन की प्रमुखताश्राले और कल्पवृक्ष- सरीखे हैं। इसीप्रकार जो उसप्रकार धवल-अम्बर- शाली ( उज्वल पत्र धारक ) होने से शोभायमान हो रहा था जिसप्रकार शुक्लपक्ष, धवल- अम्बर-शाली (शुभ्र आकाश को धारण करनेवाला) हुआ शोभायमान होता है। जो रत्नजड़ित सुवर्णमयी ऊर्मिका ( मुद्रिका ) आभूषण से अलङ्कृत हुआ उसप्रकार शोभायमान होरहा था जिसप्रकार ऊर्मिका ( तरङ्ग-पक्ति ) रूप आभूषण से अलङ्कृर्त हुआ समुद्र शोभायमान होता है। जिसके दोनों धोत्र (कान) ऐसे चन्द्रकान्त मणियों के कुण्डलों से अनहृत थे, जो (कुण्डल) ऐसे मालूम पड़ रहे थे - मानों -- शुक्र और बृहस्पति ही मेरे लिए लक्ष्मी और सरस्वती के साथ की जानेवाली संभोगकीड़ा संबंधी रहस्य (गोप्यतत्व ) की शिक्षा देने की इच्छा से ही मेरे दोनों कानों में लगे हुए थे । अर्थात् मानों-शुक्र मुझे लक्ष्मी के साथ संभोग क्रीड़ा के रहस्य तत्व की शिक्षा देने के लिए मेरे एक कान में लगा हुआ शोभायमान हो रहा था और बृहस्पति मुझे सरस्वती के साथ रतिबिलास के रहस्य तत्व का उपदेश देने के लिए मेरे दूसरे कान में लगा हुआ शोभायमान हो रहा था। जो (मैं) केवल ऊपर कहे हुए आभूषणों से ही अलङ्कृत नहीं था किन्तु इनके सिवाय मेरा शरीर दूसरे कुलीन लोगों के योग्य वेष (कण्ठाभरण, यज्ञोपवीत कटिसूत्र आदि) से मण्डित - विभूषित था । उत्प्रेक्षालंकार । १. जाति अलङ्कार | २. २७ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० यशस्तिलकचम्पूफान्ये योमामा विद्यमकामनभीवियाने पिकान्सि: भाभाति रागः प्रथमं प्रभाते पुरेभसिन्धारिसकुम्भशोभः ॥१९॥ नि विहायापि निशीथिनीशं रतिस्तवात्पन्तमिह प्रसिद्धा । इयं वहनीनं विना दिनेशमास्ते निमेपार्धमपि स्वतन्त्रा ॥१॥ भतो निसर्गानिशि पांशुषस्व अवस्थितिवं विसभियरच।। मत्वैव संसर्गमयात्पुरैव संध्या वयोः सीम्नि विधि: ससर्ज ॥१॥ पूर्व सरसकरजरेसाकृतिरभररुचिस्ततो रविस्तहनु प घुमपिण्डखण्डयुखिरम्पयाडविस्ततः । पुनरयमणरसमुकुरमोरुदपति रागनिर्भरैः कुर्मक कुभि ककुभि बम्यूकमयीमित मष्टिमंशुभिः ॥१८॥ पातमधामहेमकुम्मायतिरिन्द्रसमुचिमत्तम्पस्तिमितकान्तिरहस्स्सवासमयसुवर्णदर्पणः । सक्ष्यति रविरुधारहरिरोहणविरुधिरोस्करैः परदिग्दमितामुखानि पिजरपन्नरुणितमधिमण्डलः ॥१९॥ मेरे द्वारा श्रवण किए हुए स्तुतिपाठकों के सुभाषित गीत हे राजन् ! प्रभातकाल के अवसर पर पूर्व में सूर्य की ऐसी लालिमा शोभायमान होरही है, जिसकी कान्ति आकाशरूपी समुद्र में विद्रुम-(मूंगा) वन की शोभा-सरीखी है और जिसकी फान्ति आकाशरूपी बन में पलास (देस ) वृक्षों के पुष्पों के सहश है एवं जिसकी शोभा ऐरावत हाथी के सिन्दूर से लाल किये गए गण्डस्थल जैसी है। ॥ १५॥ हे रात्रि! चन्द्र को छोड़कर के भी अन्धकार के साथ तेरी अत्यन्त रति इस संसार में प्रसिद्ध है परन्तु यह दिवस-लक्ष्मी तो सूर्य के बिना आधे पल पर्यन्त भी वचन्द पारिणी होकर नहीं ठहर सक्ती अतः तू पांशुला-कुलटा-है॥१६॥ अतः स्वभाव से ही रात्रि में पांगुलव-कुलटाव है और दिवसभी में शुद्धस्थितित्व-पातिबल्य पाया जाता है, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है-मानों-ज्यभिचारिणी और पवित्रता के सम्पर्क भय से ही विधाता ने दोनों (रात्रि और दिषसमी) के मध्य पूर्व में ही संध्या की रचना की ॥ १७ ॥ यह प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ ऐसा सूर्य उदित हो रहा है, पूर्ष में जिसकी प्राकृति तत्काल में [ पति द्वारा ] की हुई नख-रेखा-सरीखी अरुण ( रक्त) है। पश्चात् जिसका आकार स्त्रियों के मोठ-सा है। तदनन्तर जिसकी कान्ति फुकुम के अर्धपिण्ड-सी है। तत्पश्चातजो रक्तकमल-समूह-सरीखा है। पुनः जिसकी कान्ति पपरागमणि के दर्पण-सी है एवं जो विशेष सालिमा-युक किरणों द्वारा प्रत्येक दिशा में पन्धूक पुष्पमयी रचना उत्पन्न करता हुवा-जैसा शोभायमान झरहा है॥१८॥ हे राजन् ! ऐसा सूर्य उदित होरहा है, जिसकी आकृति पूर्वविक्पाल के महल पर स्थित हुए सुवर्ण-कलश सरीखी है। जिसकी कान्ति पूर्वसमुद्र के प्रषाल (मूंगा) समूह-सी निश्चल है। बो दिन के महोत्सव कालसंबंधी सुवर्ण-दर्पण-सरीखा है। जो अपनी ऐसी किरणों द्वारा, जिनका समूह अत्यन्त मनोहर हरिचन्दन दीप्ति-सरीखा मनोझ है, विशारूपी वधू के मुख ररुपीत करता हुआ सुशोमिव होरहा है और जिसने समुद्र का विस्तार अरणित (श्वेत रक्त-मन्यत वालिमा-युक) किया है ॥१६॥ *'कलशविलासपझवः कः । १. १ उपमालंकार । १. जाति-बलकार। 1. उत्कालहार। , अपमालंकार दुई छन्द ५. सकालंधर एवं दुवई छन्द ( प्रत्येक चरण में १८ मात्रा-युक पिंपदी नामक मात्राच्छन्य)। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृवीय भाषासः २११ अकाल्पविः-मणफिरणमध्ये विद्रुमसम्बपिम्नः क्षितिप किमिव शोभा भानुरिमिति । राजा- पुष युधि मम शत्रोः शोणितास्तिायां प्रतरदुपरि कोपाल्पाटर्स यहदास्यम् ॥२०॥ निशि मदनविनोदातासरे च प्रजानामुश्यनयनियोगाद्वाहमुदिक्तनिद्रः । इति वपुषि नितान्त बिम्रदम्भोजलक्ष्मीमष्यसि तपनरते देष सामान्यवृत्तिः ॥२१॥ भलकवास्थयमध्ये परामप्रसूति नवकिसलयशोभा कर्णपालीप्रदेशे। कृषकलशतटानो कुकुमस्येव रार्ग दधति रविमयूखाः प्रासरेतेऽवलास १२२॥ काश्मीरकेसररुनः करजक्षतामाः कान्ताधरतियतः शुकवस्नकल्पाः । सिन्दूरितारणतलास्सष देव चिर्त भानोः करा विविधघाटुतयाभयन्ते ॥२३॥ वि सौसशायनिकाना सूरूगीतामृतरसं का पूरा नयन् समाचरितगुरुदेववोपासनविधिः प्रसापनिधिः सकलजगम्यवहारामणीमंहग्रामणीरिख संभावयन् पुरोहितरुपनीतानि स्त्रस्त्ययममङ्गलानि भुणभोगभूषणाप्रतरगचिमिरम्मोपिवोरिभिःखाचल हब कामकोदामपितकोषिकामखलाभिरबलाभिः परिवृतः संपादितप्रभाववृत्तः पुरस्कृतमम्रो वसतिमिव प्रदक्षिणीकृत्य सवल्या धेनुं प्रथमतराषिर्भूतदर्शनै: कल्पतरुरिव कतिनिश्चित् प्रसूमैरुत्तसितशिखण्यदेवाः भूचिएका वि धवलाम्बरधरः समुद्र व सरस्नोमिकामरणः पीसरस्वतीरतिरहस्योपदेशविरसया बर्णमामाभ्यासमोरहस्पतिभ्यामिष पन्द्रकान्तकुण्डलाम्यामलतश्रवणः परेण पानिमाबिनोषितवाकल्पेनाध्यासिसस्तारी।। समस्या-कारक कोई कषि पूँजता है-अस्पष्ट लालिमा-युक्त किरणों के मध्यवर्ती प्रवालों (मूंगों) सरीखा मण्डलशाली उदिव होगा हुमा सूर्य फैसी शोभा धारण कर रहा है? रामा-रेषिन ! रक्त से भरी हुई संग्राम-भूमि के कपर तैरता हुआ मेरे शत्रु का मुख कोप से पाटल (रक्त ) तुआ जैसी शोभा पारण प्रवासी शेमा सूर्य धारण कर रहा है। ॥२०॥ हे वेष! आप रात्रि में कामकीड़ा करने के परण और दिन में प्रवाभों की वृद्धि करने के अधिकार में संलग्न रहने से निद्रा-शून्य हो रहे हैं और पारीर में श्मयकार अधिकतप से रतनमल की शोभा धारण कर रहे हैं, अतः सूर्य सादृश्य प्रवृश्चि-युज हुवा दिव शेगा। अर्थात-बापकी सरावा धारण करता हुआ उदित हो रहा है ।। २१॥ ये प्रत्याष्टिगोचर होनेवाली सूर्यकिरणे प्रभाव पेक्षा में स्त्रियों के केशपाश-समूह के मध्यप्रविष्ट हुई पायग मणियों की उत्पत्ति धारण करती रोपांत-पपराग मषि-मी रक प्रतीत हो रही है और नियों के श्रमों के उपरिक्षन भाग में प्रविनवीन पक्ष्य की कान्ति धारण कर रही है एवं कमनीय कामिनियों के कुष (स्तन) काश-प्रदेशों पर प्राप्त हुई केसर की लालिमा-जैसी यन्ति धारण कर रही है ॥२२॥ हे राजन् ! ऐसी सूर्य-किरणें आपके चित्त में मान्त-प्रकार चाटुकारता (प्रेमस्तुति) पूर्वक प्रविष्ट होरही हैं। पर्वात -मापके चित्त में उल्लास-आनन्द-सा कर रही हैं। जो कुछकुम-पराग (केसर) जैसी है। जिनकी कान्ति नव चिहों-सरीखी है। जो सियों के नोटों की कान्ति (शोमा) धारण कर रही हैं और जो तोते की घोच-सी हैं ता जिन द्वारा गृहों की भमभूमियाँ ( आँगन) रतवर्ण-शाली की ॥२३॥ 1'स्पन्विति' कसा। 1. प्रश्नोत्तर उपमालंकार । २. पतिरेक र तुल्योगिता-अलंकार। ३. अपमानकार । ४. उपमालंकार। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये समतादाखानितानामपरोत्सर्ग दिग्गजसर्गमिव दर्शयता दयनकोशावणमणिमयूशोन्मुसरेखा केसपुगतापमान कुम्भस्थानोभानामनेगानाममायामसोनभाष्प्रमाणेन्दिन्दिरसम्परीकुलपलयिता गगमापगाभागम्,. तस्ततः सासरलचलस्थानो मेयीन चित्रपटीपटोलरविकाधातदेवानां प्रतियवसपासचल चामरधुम्म्ममामलोचनातामा मुहर्मुहुर्विजयपरम्पराप्रतिपादनपरेणेव दक्षिणचरणेन महीसामुछिखतामुप्तालसालधिकझोलीमानो वाजिनामनिमेष पामोन्मुख स्तिसविधासौधोत्साम, अविरतामानकालागुरुधूपधूमोगमारभ्यमाणदिग्विलासिनीकम्तलमाणम, उत्तरकतरपनाकामनानातन्यमानाम्परसरोइंसमालम्, उसमङ्गभङ्गसंगतानेकमाणिक्योत्कीर्णकलशरुचिरन्यमानखेवारी विचित्रपत्रमाम्, अभि. नबोल्पुलछितपत्रान्तरामविलसत्कीरकामिनीपुनरुपन्दननकप्रसङ्गम, अन्तरारतरावलम्पिटोत्तरकतारहारमरीचिवी पिचयप्रचाराचर्यमाणसुरसरित्सलिलसेकम्, असिमहलकायकर्दमोन्मृष्टस्फटिककुद्धिमतरूपवेकम्, भनल्पकर्पूरपरागपरिकल्पिारणा कैसा है वह सभामण्डप ? जिसने आकाश-गङ्गा का प्रदेश या पाठान्तर में विस्तार उसके (सभामण्डप के) चारों ओर बँधे हुए ऐसे श्रेष्ठ हाथियों के गण्डस्थलों से निरन्तर प्रवाहित होनेवाले मजल की सुगन्धि से खीची जानेवाली अवारयों की श्रेणी द्वारा नीलकमलों से ज्याप्त किया है, जिनके गण्डस्थलों की सिन्दूर-कान्ति दन्तमुँसलों ( खींसों ) के कोशों ( वेष्टन-खोलकों ) में जड़े हुए पनरागमणियों की किरणों की ऊपर फैली हुई पंक्तियों के विन्यासो (स्थापन ) से द्विगुणित की जारही थी और जो ऐसे मालम पडते थे-मानों-ब्रह्मा की दिग्गज सृष्टि में लोगों को दूसरी दिगाज-सृष्टि-सरीखी सृष्टि का दर्शन ही करा रहे। हैं। अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार दिग्गज प्रत्येक दिशा में स्थित होते है उसीप्रकार प्रस्तुत गज (हाथी) भी चारों ओर स्थित होने के फलस्वरूप दिगाज सरीखे दिखाई देते हैं। जिसने ऐसे घोड़ों को निरन्तर होनेवाली उषाध्यनि (हिनहिनाने के शब्द) से निकपतो महलों का मध्यभाग शब्दायमान किया था, जिनकी पंक्ति ( श्रेणी ) वेमयोद या पाठान्तर में प्रचुर-बहुलरूप से यहाँ यहाँ की गई थी। जिनका शरीर सक्ष्म रेशमी घरों की व चीनदेशोत्पन्न वनों की नानाप्रकार की पटी ( पछेषड़ी) ष दुक्ख एवं एक कम्बलआदि से वेष्टिव था। जिनके नेत्र-प्रान्तभाग प्रत्येक तृण मास ( कौर ) के वर्षण से कम्पित होरहे मस्तक स्थित चमरों द्वारा स्पर्श किये जारहे हैं। जो अपने ऐसे दाहिने मम पैर से, जो ऐसा प्रतीत होरहा था-मानोंबार बार शत्रुओं पर विजयश्री श्रेणियों की सूचना देने में ही तत्पर है, पृथिषी-तल खोद रहे हैं और जो उसप्रकार शोभायमान होरहे थे जिसप्रकार उछलती हुई समुद्र की विशाल तरङ्गपंक्ति शोभायमान होती है। जहॉपर निरन्तर जलाई जा रही कालागुरु धूप की धूमोत्पत्ति द्वारा दिशारूपी कमनीय कामिनियों के केशपाश रचे जारहे है। जहाँपर विशेष चश्छल फहराती हुई शुभ्र ध्वजा-श्रेणियों द्वारा आकाशरूपी तालाब में इस श्रेणी ही विस्तारित की जारही है। जहॉपर उन्नत महलों के शिखरों पर आरोपित ( स्थापित) किये हुए रत्न-जरित सुवर्णमयी कलशों की कान्ति द्वारा देषियों व विद्याधरियों के कुथ (स्तन) कलशों पर मनोड पत्न-रचना की जारही है। जहाँपर पुष्प व फलों से व्याप्त नवीन पल्लवों ( शाखामों) के मध्यभाग पर क्रीड़ा करती हुई मेनाओं द्वारा वन्वनमाला-श्रेणी द्विगुणित की गई है। जहाँपर बीच-बीच में चनस अथवा महामध्यमरिण सहित का विशेष उज्वल मोतियों की मालाएँ आरोपित की गई थीं लटकाई गई थी, जिससे उनकी किरणों के लहरी-समूह के प्रसारों (विस्तारों) से जहाँपर गङ्गाजल का सिंचाव किया जारहा है। अत्यधिक काश्मीर की तरल केसर के छीटों से व्याप्त हुए स्फटिक मणिमयी कृत्रिम भूमियत 13 * 'रेखालेखातिरिय्यमान' क• I 'गगनापगामोगा' क- ग.। 'कृतासरालयलस्थाना क० ख० प.।। A 'बहुल' । B 'पसीना' इति टिप्पणी । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवीय बाधासः पलिविधानम्, दीरन्मिषल्कमलमालतीबकुलसिलामछिकामोकारिकसुमोपहारामोदमन्दमधुलिहापाप्रमानापरमरकतमयवितपिकापतानम्, अवक्षगमागचगण्यपण्यागनास्तनतुष्मिोत्सार्यमाणमार्गपरिजनबलम्, स्तरोबार्यमालवयजीवितमसः प्रकासमाशोनादविदाधवन्धिवृन्दवनोपरकरलकोलाइए, उदीमालिसिपिसिंहासनक, अमरवरूपरिकर मेरुशिखरमिय, अक्ष्मीकटाक्षवलक्षोभयपक्षविक्षिप्यमाणचामराम्परम्, अमृसोवधिदेवतापासहिगुणतरप्रसराकुवं कुलशैलमिव, उपरिवितवसिमालवितानम्, उदितेन्दुमण्डलमुदयाचलमित्र, अध अर्ध्व मिसीनां च रस्नफलकभागेषु प्रतिबिम्बिसोपासनागतसमस्तसामन्वसमाजम्, अनुरामरदिक्पाल दत्त यात्रामा मित्र, विविधमणिविन्यासत्रिहितबहुरूपाकृते रङ्गस्यावलोकनानीसभूपालबालकाकुखितौविपक्षम्, भाखण्डलसभाप्रतिमल्सम्, 'मा भनत वैकृतमाकसम्, बिनहीत धनयौवनमदोलासितानि से जिसका विभाग किया गया था। जहाँपर प्रचुर कपूर-चूर्ण द्वारा चारों ओर चौक पूरा गया था। जहाँपर कुछ कुछ खिले हुए कमल, मालती (चमेली), बकुल, तिलक, मलिका और अशोक-आदि विविध भाँति के पुष्पों से पूजा होरही थी, जिनकी सुगन्धि-वश उनमें लीन हुए भँवरों से जहाँपर दूसरी मरकत मणिमयी विस्तृत वेदिका रची गई थी। अर्थात्-पुष्प-परागों से उलित हुए भ्रमर बसे होगए थे। जहाँपर मार्ग पर स्थित हुए कुटुम्बी-जन व सेना के लोग सेवा में प्राप्त हुई अनगिनती वेश्याओं के कुचकलशों की ऊँचाई से प्रेरित किये आरहे थे। जहाँपर उसस्वर से पड़े जारहे ऐसे आशीर्वाद-युक्त वचनों में, जो कि जयकार, दीर्घायु और यश प्रकट कर रहे थे, निपुण स्तुतिपाठक समूहों के मुखों से मधुर (कर्णामृतप्राय) कलकल-ध्वनि प्रकट की जारही थी। जहाँपर ॐ रत्नमयी छोटे छोटे खम्भों के मध्य सिंहासन शृङ्गारित (सुसज्जित ) किया गया भा; इसलिए जो (सभामण्डप) कल्पवृक्षों से वेष्टित हुए सुमेरु पर्वत की शिखर-सरीखा सुशोभित हो रहा था। जहाँपर लक्ष्मी के कटाक्ष-सरीखी उज्वल चॅमर-श्रेणी दोनों (दाहिने व बाएँ) पार्श्वभागों पर ढोरी जारही थी। जो ऐसे फुलपर्वत-सरीखा शोभायमान होरहा था, जो कि क्षीरसागर संबंधी देवताबों के नेत्र-प्रान्तभागों से द्विगुरिणत हुए तरङ्ग विस्तारों से व्याप्त था। जहाँपर राजा साहिब के मस्तक के ऊपरी भाग पर उज्वल रेशमी वन का चैदेवा विस्तारित किया गया था। जिसके फलस्वरूप जो चन्द्रमण्डल के उदयवाले उदयाचल पर्वत-सरीखा शोभायमान होरहा था। जिसके अधोभाग के ऊपरीभाग की मित्तियों के माणिक्य-पट्टक देशों में सेवार्थ श्राया हुआ समस्त राज-समूह प्रतिबिम्बित होरहा था ; इसखिए जो ऐसा प्रतीत होरहा था मानों-जहाँपर अधोभाग में प्रतिबिम्बित हुए दिक्पाल स्थानीय देवताओं द्वारा किये हुए संचार का आश्रय करनेवाला-सा सुशोभित होरहा है। जहाँपर ऐसी अमभूमि के देखने से, जहाँपर विविध भाँति के रत्नों से निर्मित हुए सिंह व व्यायादिकों के अनेक आकार वर्तमान थे, सामन्त-बालक भयभीत होजाते थे, जिसके फलस्वरूप जहाँपर सौविदल-काबुकी ( अन्तःपुररक्षक) खेन खिन्न किये गए थे। जो सीधर्म-इन्द्र की सभा के सदृश सुशोभित होरहा था। जहाँपर यहाँ वहाँ संचार करते हुए द्वारपालों द्वारा समीपवर्ती सेवक लोग निम्नप्रकार शिक्षा दिये जारहे थे "आप लोग विकार-जनक वेप मत धारण करो। धन व यौवन-मद द्वारा उपम कराये गए अपने अनुचित व्यवहार छोड़ो। अधिकार-शून्य बुद्धिवाले पुरुषो ! यहाँपर प्रविष्ट मत होत्रो। आप लोग अपने अपने स्थानों पर अवकाश पूर्वक या वाधारहित बैठो। आप लोग परस्पर में संभाषण-युक्त और कुत्सित मार्ग का अनुसरण करनेवाली कथाएँ (वार्ताएँ) मत कहो। अपने चित्तरूपी मन्दर की A x'विगुणीकृततरह का। * 'वतयात्राभाजनमिद कI A सेवा । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराविकपम्पूचम्ये विरिशितानि, मा प्रविमानविकतमनीः पुरुषः, समाजमर्सवाममात्मभूमिकायाम् , मा कम मियः प्रचल्योल्पकार मा, श्वस पाप मनोमटला, मा अरुत पारिप्लवप्नुवानिमानिन्नियहवान् , केवलं किं प्रक्ष्यसि, प्रियापति, मिमाथिति, किंवा पक्ष्यति विभियोगवात देव इत्येकायनमनो निरीक्ष देवस्य पवन इसीतस्तताहीकमा बीचमानानुसेवकम्, अतिविधीयमानागम्तुम, अखिललोकलोचनेन्दीवरानन्दचन्द्रमसं लक्ष्मीविलासतामरसं माम पुण्यकामागोनिटीकमानानास पात्यामाद मिशीतबारदेशः स्वयमेव पथादेशरूपमनुत्पिालानाः पपलता विशेषरूप से दूर करो। भाप लोग इन इन्द्रिय ( स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु व पोत्र इन शानेन्द्रियों प वाणी, हस्त, पाद-आदि कर्मेन्द्रियों ) रूपी घोड़ों को चञ्चलता से उछनेवाले मत करो।" सेवक लोग कहते -कि यदि हम लोग उक्त वाव न करें तो क्या करें? इस प्रश्न के समाधान में द्वारपाल उन्हें यह शिक्षा देते थे कि आप लोग केवल यशोधर महाराज का मुख एकाग्रचित्त होते हुए देखो कि प्रस्तुत राजाधिराज कौन से अधिकार-समूह के बारे में प्रश्न करेंगे? और कौन सा अधिकार-समूह कहेंगे? और क्या आशा देंगे? एवं कौन से मधिभर की सृष्टि करेंगे ?" जहाँपर आगन्तुक लोग अन्वेषण किए जारहे या देखे जारहे थे। जो समस्त लोगों के नेवरूप नील कमलों को प्रफुल्लित (आनन्दित) करने के लिए चन्द्रमा-सरीखा था एवं 'लक्ष्मीविलास बानरस' नामयाले जहाँपर श्रेष्ठ विन्मण्डली द्वारा स्मृतिशास्त्रों (धर्मशास्त्रों) के प्रवचन किये जारहे थे। अथानन्तर ( उक्तप्रकार के राज-सभामण्डप में प्रविष्ट होने के पश्चात् ) निराकुल पित्तशाशी मैने मनुष्यों त्र प्रवेश निषिद्ध न करते हुए ऐसे न्यायाधिकारी पुरुषों के साथ, जो कि समस्त चौदह प्रघर की विद्याओं की प्रवृत्ति के शाता थे, जिनका समस्त मागों का अनुसरण करनेवालों का न्याय (व्यवहार) संबंधी सन्देह नष्ट हो चुका था, जिन्होंने अनेक आचारों (व्यवहारों ) के विचारक वृद्ध विद्वानों को १. तदुक्तं-'पानि चतुर्वेदा मीमांसा न्यायविस्तरः । पर्मशास्त्र पुरापं च विद्याश्चैताश्चतुर्दशा ॥१॥ शिक्षा इत्यो व्याकरणं ज्योतिष छन्दो निरुकं चेति वेदानां अगानि षट् । अर्थात्-चार वेद है,-१ ऋग्वेद २ यजुर्वेद ३ सामवेद व ४ अथर्ववेद । उक्त वेदों के निम्न प्रकार ६ मार है। क्योरि निम्न प्रकार : अडों के शानसे उस चारों प्रकार के वेदों का ज्ञान हो सकता है। -शिक्षा, २-कल्प, व्याकरण, 1. निस्क, ५-छन्द और ६-ज्योतिष । 1. शिक्षा-स्वर और ध्यानादि वर्गों का शुद्ध उच्चारण और शुद्ध लेखन को बनानेपाली विद्या को रहते है। २. कल्प-धार्मिक आधार विचार मा क्रियाकाण्डों-गर्माधान-आदि संस्कारों के निरूपण करनेवाले शान को 'इल्प' कहते हैं। ३. व्यारक-जिससे भाषा का शुद्ध लिखना, पढ़ना और बोलने का बोध हो। ४. निश्क-चौगिक, साद और योगदि शब्दों के प्रति में प्रत्यय आदि का विश्लेषण करके प्राकरमिक रम्य पर्यायात्मक या अनेक पर्मात्मक पदार्य के निरूपण करने वाले शाहको निस्क' कहते हैं। ५. छन्द-पदों-वर्णकृत्त और मात्रारत छन्दों के लक्ष्य समान के निर्देश करने वाले शाम को 'छन्द शास' कहते हैं। ६. ज्योतिष-ग्रहों की पति भौर उससे विश्व के ऊपर होने वाले एम व अशुभ फलों को तथा प्रत्येक कार्य के सम्पादन के योग्य शुभ समय को बनाने वाली विद्या को 'ज्योतिर्षिया' कहते हैं इसप्रकार दे वेदार। इतिहास, पुराण, मीमांसा (ध्वनिम्न व मौलिक सिद्धान्त पोषक वाक्यों पर शास्त्राविण्य युक्तियों धरा बिचार घरके समीकरण करने वाली विद्या), न्याय ( प्रमाण व नयों का विवेचन करनेवाला शास्त्र) और धर्मशाब (पहिया में के पूर्ण तथा व्यपहारिक रूप को विवेचन करनेवाला शास) तक प्रकार से १४ प्रकार की रियाएँ है-नौतिवायचायत पु. १२. से स्मुस-सम्पादक Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवीय भासः २११ समाधानबारविनिर्षिगतसपथीमन्यायापरभुतानेकाचारविचारिलोक सित्पपारिभिस्तमोपहायोरिव पदार्थदर्शनस्थैर्धर्मस्यैः सह सर्वेषामाश्रमिणामितर व्यवसार विश्वामिणां च कार्याण्यपश्यम् । दुदणे हि राणा कार्याकार्यविपर्यास्माखन्नः कार्यतेऽतिसंघीयते व द्विषद्धिः । नेत्रों द्वारा प्रत्यक्ष किया था और कानों द्वारा सुना था एवं जो सत्यवादी होते हुए उसप्रकार यथार्थ दृष्टि रखते थे। अर्थात्-वस्तुतत्व (न्याय-अन्याय, प्र उसकार यथार्थ स करते थे जिसप्रकार सूर्य का प्रकाश वस्तुओं को यथार्थ प्रकाशित करता है, समस्त श्राश्रमवासियों ( अपचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ व यदि आश्रमों में रहनेवाले) व समस्त बों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, पैश्य व शूद्रपर्ण) में स्थित हुए प्रजाजनों के कार्य स्वये देखे-उन पर न्यायानुकूल अथवा मण्डल ( देश ) धर्मानुसार विचार किया । मैंने इसलिए समस्त प्रजाजनों की देख-रेख स्वयं की। अर्थात् --उनके कर्तव्यों पर न्यायानुसार या मण्डल धर्मानुसार स्वयं विचार इसलिए किया, क्योंकि जो राजा प्रजा को अपना दर्शन नहीं देवा। अर्थात्-सार्व प्रजा के कार्यों पर न्यायानुसार विचार नहीं करता और उन्हें अधिकारी वर्ग पर छोड़ देता है, उसका कार्य अधिकारी लोग स्वार्थवश विगाड़ देते हैं और शत्रुगण भी उससे बगावत करने तत्पर हो जाते हैं अथवा परास्त कर देते हैं, अतः प्रजा को राजकीय दर्शन सरलता से होना चाहिए। भाषार्थराजपुत्र' वगरनीविकारों ने भी इस बात का समर्थन करते हुए क्रमशः कहा है कि "जो राजा अपने द्वार पर आए हुए विद्वान, धनान, दीन, साधु व पीड़ित पुरुष की उपेक्षा करता है, इसे लक्ष्मी छोड़ देती है। “लियों में आसक्त रहनेवाले राजा का कार्य मंत्रियों द्वारा विगाद दिया जाता है और शत्रुलोग भी उससे युद्ध करने तत्पर हो जाते है ॥ निष्कर्ष-हे मारिदत्त महायज! इसलिए मैंने समस्त प्रजा के कार्यों ( शिष्टपालन व दुष्टनिप्रह-आदि) पर स्वयं न्यायानुकूल विचार किया। क्योंकि राजा को व्यसनों (जुमा खेलना व परखी-सेवन-आदि) में फंसाने के सिवाय मंत्री-आदि अधिकारियों की जीविका का कोई दूसरा उपाय प्रायः उसप्रकार नहीं है जिसप्रकार पति को ध्यसनों में फँसाने के सिवाय व्यभिचारिणी स्त्रियों की जीविका का दूसरा उपाय प्रायः नही है। अर्थात-जिसप्रकार पति को व्यसनों में फंसा देने से व्यभिचारिणी त्रियों का यथेच्छ पर्यटन होता है उसीप्रकार राजा करे व्यसनों में फँसा देने से मन्त्रियों की भी यथेच्छ प्रवृत्ति होती है, अर्थात्-वे निरङकुश होकर लौंप-घूसश्रादि द्वारा प्रजा से यथेष्ट धन-संग्रह करते हैं। भावार्थ-नीतिकार प्रस्तुत आचार्य रैभ्य' विद्वान् ने भी उक्त बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि जिसप्रकार धनान्यों की रोग-वृद्धि छोड़कर प्रायः वैद्यों की जीविका का कोई दूसरा उपाय नहीं है उसीप्रकार राजा को व्यसनों में फंसाने के सिवाय मंत्री-आदि अधिकारियों की जीविका का भी कोई दूसरा उपाय प्रायः नहीं है।" "जिसप्रकार धनिकों की बीमारी का इलाज करने में वैचों को विशेष सम्पत्ति प्राप्त होती है उसीप्रकार स्वामी (राजा) को व्यसनों में फंसा देने से मंत्री-मावि 1 'सत्यमादिभिः' स. प्रती नास्ति, अन्यत्र प्रतिषु वरांचति-सम्पादकः। । 'इतरव्यवहार विश्रमिणा । १. तथा वं राजपुत्रः-शानिन पनि दीनं योगिनं बार्तिसंयुतं । धारस्थं य उपेक्षेत स श्यिा सहपेक्ष्यते ॥३॥ १. तयार गर्गः-श्रीसमासफधित्तो या शितिपः संप्रजायते । बामतो सर्ववस्येच सचिर्नीयतेऽरिभिः ॥1॥ ३. समान सोमदेव परि:-"वषेषु श्रीमता व्याधिवर्धनादिव नियोगिषु भतृ व्यसनादपरो नास्ति जीवनोपायः" ४. तावरेभ्यः-खरापो रया भ्याधियाना निधिरतमः । नियोगिनां तपा केवः स्वामिश्यससंमक ॥१॥ नीतिमाक्यामृत (भाषा कायमैत) पू. २५६-२५५ से संग्रहात-सम्पादक Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ यशस्विलकपम्पूकाव्ये न हि नियोगिनामसतीजनामामिष भतु यसनाइपरः प्रायेणास्ति जीवनोपापः । स्वामिनो वा नियुक्तानां बीणामिति. प्रसरणनिवारणात् । भवन्ति बार रकोका नियुकहस्तापितराज्यमारास्तिन्ति ये स्वैरविहारसाराः । बिरालपम्दादितदुग्धमुद्राः स्वपति से मूधिमः क्षितीयाः ॥२४॥ गायेत मार्गः सलिले सिमीना पसरित्रणां व्योम्नि कदाचिदेषः । अध्यक्षसिवेऽपि स्वावलेपा न जायतेऽमात्यजनस्य वृत्तिः ॥२५॥ ध्याभिदौ पथा वैद्यः श्रीमतामाहितीचमः । व्यसनेषु तथा रोशः कुत्यस्ना नियोगिन। ॥२६॥ नियोगिभिविना नास्ति राज्य भूपे हि केवले । तस्मादमी विधातम्या रक्षितम्याश्च यस्मतः ॥२७॥ अधिकारियों को भी विशेष सम्पन्ति मिलती है ॥ १॥" जिस कार मंत्री-आदि अधिकारीवर्ग की। यथेच्छ प्रवृत्ति (रिश्वतखोरी आदि) के सिपाग रागनीसीमिया गागा कोई उपाय प्रायः उसप्रकार नहीं है जिसप्रकार नियों की यथेच्छ प्रवृत्ति रोकने के सिवाय उनके स्वामियों की जीविका का प्रायः कोई दूसरा उपाय नहीं है। प्रस्तुत विषय-समर्थक श्लोक जो राजालोग मन्त्रियों के हाथों पर राज्य-भार समर्पित करते हुए स्वेच्छाचार प्रवृत्ति को मनोरसन मानकर बैठते हैं और निश्चिन्त हुए निद्रा लेते हैं, वे उसप्रकार विवेकहीन ( मूर्ख ) समझे जाते हैं जिसप्रकार ऐसे मानव, जिन्होंने दूध रक्षासंबंधी अपने अक्षरोंषाली मुद्रिका (अलि-भूषण) मार्जार ( विलाव) समूह में आरोपित की है। अर्थात-पिलाव-समूह के लिए दुग्ध-रक्षा का पूर्ण अधिकार दे दिया है, विवेकहीन (मूर्ख) समझे जाते है ॥ २४॥ मछलियों का गमनादि-भार्ग किसी समय जल में जाना जा सकता है और पक्षियों का संचार मार्ग कमी आकाश में जाना जा सकता है परन्तु मन्त्री लोगों का ऐसा आचार ( दाव पैंच-युक्त बर्वाव), जिसमें प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध हुए कर्तव्य में भी चारों ओर से अवलेप (कमक्रिया-धोखेवाजी अथवा अदर्शन) किया गया है, नहीं आना जा सकता* ॥ २५ ॥ जिसप्रकार वैद्य धनाज्यों के रोग को वृद्धिंगत करने में प्रयत्नशील होता है उसीप्रकार मंत्री लोग भी राजा को व्यसनों में फंसा देने में प्रयत्नशील उपाय रचनेवाले होते है ॥२६|| निश्चय से मन्त्रियों के विना केवल राजा द्वारा राज्य-संचालन नहीं हो सकता, अतः राजा को राज्य संचालनार्थ मन्त्री नियुक्त करना चाहिए और उनकी सावधानता पूर्वक रक्षा करनी चाहिए' ॥२७॥ प्रसङ्गानुवाद-हे मारिदत्त महाराज ! किसी समय मन्त्रियों के पाराधना-काल की अनुकूलता. युक्त पाँच प्रकार के मन्त्र ( राजनैतिक ज्ञान से होनेवाली सलाह ) के अवसरों पर धर्मविजयी (शत्रु के पादपतन मात्र से संतुष्ट होनेवाला) राजा का अभिप्राय उसप्रकार स्वीकार करनेवाले मैंने जिसप्रकार सत्यवादी (मुनि), धर्मविजय का अद्वितीय अभिप्राय स्वीकार करता है, देष (भाग्य-पुण्यकर्म) की स्थापना करनेवाले 'विद्यामहोदधि' नाम के मंत्री से निम्नप्रकार मंत्र-रक्षा व भाग्य-मुख्यता और पुरुषार्थ उद्योग सिद्धान्त माननेवाले 'चार्वाक अवलोकन' (नास्तिक दर्शन के अनुयायी) नामके मंत्री से निग्नप्रकार १. दृष्टान्तालंकार अयचा आक्षेपालंकार । २. स्वभाषोफिजाति-अलंकार । ३. दृष्टान्तालंकार अथवा उपमा. लंकार। ४. जाति-अलंकार । ५. विजिगीषवस्तापत्रयो वर्तन्ते-धर्मविषयी लोभविजयी असुरविजयौ चेति । तत्र धर्मविजयी शत्रोः पादपतनमात्रेण तुष्यति, लोभविजयी शत्रोः सर्वस्वं गृहीरवा दध्याति....--संस्कृत टीका से संझलित-सम्पादक Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवीय आधाघः कदाचिसचिवसेवावसरामुले मनाला विशोषय महीपाल मन्त्रकायामशेषतः । अवुकोहति न स्मातुमस्का रसिरक्षस्थात् ॥२८॥ पत:-एक विपरसो हन्ति अस्पोका हन्यते । सबन्धुराष्ट्र राजाने इन्स्येको मन्त्रविष्तषः ॥२९॥ सब तेजोनिदेव सर्वसामानः । को नाम पयिन्मन्त्र प्रदीप मुममेरिव ॥३०॥ चन्द्रादिवाम्य तत्कान्ते सूर्यात्तेजस्वदस्मनि । स्वो गुणनिषेनधि मतिमांडशि वायते ॥३१॥ पुरुषार्थ की श्रेष्ठता एवं देष और पुरुषार्थ दोनों की स्थापना करनेवाले 'कविकुलशेखर' नाम के मंत्री से निम्नप्रकार देव व भाग्य दोनों की मुख्यता तथा 'पायसर्वज्ञ' नाम के नवीन मन्त्री से, उक्त मन्त्रियों के निम्नप्रकार अप्राकरणिक कथन का खंडन तथा राजनैतिक प्राकरणिक सिद्धान्त और ऐसे 'नीतिबृहस्पति नाम के मंत्री से, जिसने समस्त मन्त्रियों में अपनी मुख्य स्थिति प्राप्त की थी, [ निम्नप्रकार राजनैतिक सिद्धान्तों की विशेषता ] भषण करते हुए, लक्ष्मी मुद्रा के चिधुवाली ( लक्ष्मी देनेवाली) इति कर्तव्यता क्रिया ( कर्तव्य-निश्चय) को उसपर इस्तगत (स्वीकार ) किया जिसप्रकार लक्ष्मी की मुद्रा (छाप) वाली सुवर्ण-मुद्रिका (अँगूठी ) हस्तगत (स्वीकार ) की जाती है। अर्थात्-अँगुलि में धारण की जानी है। तत्पश्चात् मैंने यथावसर सन्धि (मैत्री करना), विग्रह (युद्ध करना ), यान (शत्रु पर पढ़ाई करना), आसन (शत्रु की उपेक्षा करना ), संश्रय (भात्मसमर्पण करना ) व धौभाष ( भेद करना अर्थात् बलिष्ठ शत्रु के साथ सन्धि कस्ना और निर्थल के साथ युद्ध करना अयषा बलिष्ठ शत्रु के साय सन्धि पूर्वक युद्ध करना ) इन छह राजाओं के गुणों (राज्यवृद्धि के उपायों ) का अनुष्ठान किया। देव ( भाग्य ) सिद्धान्त के समर्थक मामोदधि नाम के मंत्री का कथन-- हे राजन् ! मन्त्र-गृह को समस्त प्रकार से विशुद्ध कीजिए। अर्थात्-मन्त्रशाला में अधिकार न रखनेवाले पुरुष को यहाँ से निकालिए । क्योंकि मन्त्र-भेद करनेवाला पुरुष उसप्रकार मन्त्रशाला में ठहरने के योग्य नहीं होता जिसप्रकार संभोग क्रीमा में अयोग्य पुरुष ठहरने के योग्य नहीं होता ॥२॥ क्योंकि विषरस (तरल जहर) एक पुरुष का घात करता है और शस्त्र द्वारा भी एक पुरुष मारा जाता है, जब कि केवल मन्त्र-भेद राआ को कुटुम्ब प राष्ट्र समेत मार देता है Rell हे राजन् ! जिसप्रकार समस्त लोक के पदार्थों को प्रकाशित करने के लिए अद्वितीय नेत्र सरीखे और प्रकाश-निधि ( खजाने ) सूर्य के लिए कोई पुरुष दीपक नहीं दिखा सकता उसीप्रकार ज्ञान-निधि (खजाने ) और समस्त लोक के पदार्थों को जानने के लिए अद्वितीय नेत्रशाली ऐसे आपके लिए भी कोई पुरुष मन्त्र (राजनैतिक झानराली सलाह) बोध नहीं करा सकता। अभिशय यह है कि जिसप्रकार तेजोनिधि व सर्वतोक-लोचन-प्राय सूर्य को दीपक दिखाना निरर्थक है उसीप्रकार शानिषि आपको भी मन्त्र का बोध कपना निरर्थक है'।३॥ हे पजन् ! जिसप्रकार चन्द्रमा के उदय से चन्द्रकान्त मणि से जल प्रवाहित ( मरना) होता है और सूर्य-किरणें से सूर्यकान्त मरिण से अमि उत्पन्न होती है पसीप्रकार ज्ञान-निधि पाप से हम सरीखे १. सथा थाह सोमदेवहि-सन्धिविग्रहराचासनसंश्रया धौभाषाः पागुम्यं ॥ १॥ पनन्भः सन्धिः ॥२॥ अपरामो विमहः ॥३॥ अभ्युदयो सनं ॥४॥ उपेक्षचमातलम् ॥५॥ परस्पास्मार्पण संभवः ॥६॥ एकेन सह सन्यायान्यन सह विप्रहकरणमेहत्र वा क्षत्री सन्धानपूर्व विप्रो घोभावः ॥णा प्रथमपले सन्धीयमानो विग्रहमाणे विजिगीषुरिति हूँधीभाषो मुस्थाश्रयः ॥४॥ देखिए हमारे द्वारा हिन्दी अनुवाद किया दुभा नौतितक्यास्त पृष्ठ ३७४ (ममहार समुद्देश )-सम्पादक १. उपमालंकार। ३. क्यतिरेललंकार। ४. रयान्सालंधर । २ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये स्वस्य बुद्धिशुद्ध किंतु किंचिनिगद्यते । निकषाश्मोपकाराय न सुवर्णपरीक्षणम् ॥१३२॥ स्वयं नयामभिशस्य निसर्गास्मद्विषः । पुरः क्षितिपतेनाम मौनं मान्यविधीयते ॥ ३३ ॥ समस्तशास्त्रसंदर्भप्रगल्भ प्रतिभे स्वषि । सल्लोकलोचनानन्दे को हि वाचंयमक्रियः || ३४११ किं युक्तेऽपि यः स्वामी विपर्यस्येहुरा०द्वात् । प्रस्यधियेदिवेसण्डसमे सत्र के ईश्वरः ॥ ३२ ॥ arriadishti माणामनुकूलताम् । स्वं च धर्मानुबन्धं च विचिन्त्योत्सहसां नृपः ॥ ३६ ॥ मानव में बुद्धि उत्पन्न होती है' ॥ ३१ ॥ हे राजन! अपनी बुद्धि विज्ञापित ( प्रदर्शित ) करने के हेतु ही मेरे द्वारा आपके प्रति कुल विलापन किया जाता है की (कसौटी पत्थर पर सुवर्ण से घिसना ) सुवर्ण के उपकार हेतु होता है, न कि कसौटी के उपकार के लिए ||३२|| नीतिशास्त्र - वेताचों ने ऐसे राजा के समक्ष मौन रखने का विधान किया है, जो कि स्वयं नीतिशास्त्र का ज्ञाता नहीं है और जनों (विद्वानों) से स्वभावतः द्वेष करता है ||३३|| हे राजन् ! यह स्पष्ट है कि ऐसे आपके समक्ष, कौन बुद्धिमान् पुरुप मौन धारण करनेवाला हो सकता है ? अपितु कोई नहीं हो सकता। जिसकी प्रतिभा ( बुद्धि-विशेषता ) समस्त शास्त्र ( धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चारों पुरुषार्थो का ज्ञान करानेवाले ग्रन्थ ) समूह के जानने में मौड़ ( तीक्ष्णा ) है और जो विद्वानों के नेत्रों को आनन्दित करनेवाला है ४ ॥ ३४ ॥ जो राजा हिंद की बात कही जाने पर भी उसे दुष्ट अभिप्रायवश विपरीत (अहितकारक ) मानता है, वह हिंत की शिक्षा देनेवाले को शत्रु माननेवाले हाथी - सरीखा दुष्ट है, उसे समझाने के लिए कौन पुरुष समर्थ है ? अपि तु कोई समर्थ नहीं है। भावार्थ - जिसप्रकार पागल हाथी हित-शिक्षा देनेवाले महावत आदि को शत्रु समझकर मार देता है उसीप्रकार दुष्ट राजा भी दुष्ट अभिप्राय के कारण हितैषी के साथ शत्रुता करता हुआ उसे मारदेता है, अतः दुष्ट हाथी के समान दुष्ट राजा को समझाने के लिए कौन समर्थ हो सकता है" ।। ३५ ।। प्रस्तुत मंत्री द्वारा दैव ( भाग्य ) सिद्धान्त का समर्थन दे राजन ! राजा को सब से पहिले देव ( भाग्य पूर्व जन्म में किये हुए पुण्यकर्म ) की शक्ति का विचार करना चाहिए। सदनन्तर इन प्रत्यक्षीभूत सूर्य आदि महों की अनुकूलता ( उच्चता ) का विचार करते हुए अपनी शक्ति या धन और धर्म के अनुबन्ध ( विरोध-रहितपने ) का भलीप्रकार चितवन करके [ शिष्टपालन, दुष्टनिमह-आदि कर्त्तव्य कर्म करने के लिए ] उत्साहित होना चाहिए । भावार्थ - प्राणियों द्वारा पूर्वजन्म में किये हुए पुण्य व पापकर्म को 'देव' कहते हैं, जिसके फलस्वरूप उन्हें क्रमश: सुख-सामग्री ( धनादि लक्ष्मी ) व दुखसामग्री ( दरिद्रता व मूर्खता आदि ) आहे होती हैं। अर्थात् - पूर्वजन्म में किये हुए पुण्य से इस जन्म में सुखसामग्री व राप से दुःखसामग्री प्र होती है | व्यास नीतिकार ने कहा है कि 'जिसने पूर्वजन्म में दान, अध्ययन व तपश्चर्या की है, पूर्वकालीन अभ्यास वरा इस जन्म में भी उसीप्रकार दान आदि पुण्यकर्म में प्रवृत्ति करता है।' यहाँपर प्रकरण में उक्त मंत्री यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! आपको देवशक्ति- ध्यादि का इस विचार करना चाहिए कि मैंने पूर्वजन्म में दान आदि पुण्य संचय किया था जिसके फलस्वरूप मुझे राज्याधि लक्ष्मी प्राप्त हुई और इसी कारण मेरे सूर्य आदि ग्रह भी अनुकूल हैं और कोश ( खजाने ) भी पर्याप्त है १. उपमालंकार अथवा दृष्टान्तालंकार । २. अर्थान्तरन्यास - अलङ्कार । ३. जाति - अलङ्कार 1 ४. आक्षे ५. उपमा व आपालंकार । ६. तथा च व्यासः -- येन यच्च कृतं पूर्वं दानमध्ययनं तपः । तेनैवाभ्यासयोगेन तच्चैवाभ्यस्यते पुनः ॥१॥ नीतिवाक्यामृत (भाषाटीका समेत) पृ० ३६७ से संगृहीतसम्पादक लड्डार Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः २१६ आगांचङ्गीरियं यावयेन चिन्ता कुसा पुरा । तदैवमुत्तरत्रापि जागरिष्यति धेहिनाम् ॥३०॥ एवमेव परं लोक क्लिश्नात्यात्मानमात्मना । यदन्न लिखित भाले तस्थितस्यापि जापते ॥३०॥ मधोनत्रिदिवैश्वये शेषस्योधरणे भुः । को नाम पौरुषारम्भस्सदन शरणं विधिः ॥३१॥ तस्मायथासुख देवः श्रियमानयतामिमाम् । रिक्तः सुखर्गतः कालः पुमन याति जन्तुपु ॥४॥ वार्सयापि हि शत्रूणां प्रक्षुभ्यसि ममोन्थुधिः । कस्तादृष्टिपणं कुर्यानरः कुम्भीनसानिव ॥४१॥ दुर्ग मन्दरकन्दराणि परिधिरते गोवधात्रीधराः नेयं ससपोधया स्त्रविश्यः स्वर्गः सुराः सैनिकाः । मन्त्री चास्य गुहस्तथाप्ययमगात्प्रायः परेषां वशं देवावपतिस्तत्र नूप किं सम्म मन्त्रेण वा ॥४॥ था नैव लभ्या त्रिदशानुवृत्या मनोरथैरप्यनवापनीया। सा देव लक्ष्मी यायं हिनानाम सुन सौधे ॥५३॥ अतः मुझे दान-पुण्य-आदि धर्म का निरन्तर पालन करते हुए शिष्टपालन व दुष्टनिमहरूप राजकर्तव्य में प्रवृत्ति करनी चाहिए ॥ ३६॥ हे देव ! गर्भ से लेकर चली आनेवाली यह प्रत्यक्ष प्रतीत राज्यलक्ष्मी जिस पूर्वोपार्जित पुण्य द्वारा उपस्थित की गई है, वही पुण्य ( दैव) आगामी काल में भी प्राणियों के लिए लक्ष्मी उत्पन्न करने के लिए जाप्रत ( सावधान) होगा ॥३७॥ हे राजन् ! यह लोक (मानव-वगैरह प्राणी) [नाना प्रकार के पुरुषार्थ उद्योग द्वारा केवल अपनी आत्मा को स्वयं व्यर्थ ही क्लेशित (दुःखी) करता है, क्योंकि इस संसार में जो प्राणियों के मस्तक पर लिखा गया है ( जो सुखसामग्री भाग्य द्वारा प्राप्त होने योग्य है) वह उद्यम-हीन मानव को भी प्राप्त होजाती है। १३ हे राजन् ! इन्द्र को स्वर्ग का राज्य करने में और धरणेन्द्र को पृथिवी को मस्तक पर धारण करने में कौन से पुरुषार्थ (उद्योग) का आरम्भ करना पड़ता है ? अपि तु किसी पुरुषार्थ का आरम्भ नहीं करना पड़ता। अतः इस संसार में प्राणियों के लिए देव ( भाग्य) ही शरण ( दुःख दूर करने में समर्थ ) है' ॥३६॥ इसलिए हे राजन् ! प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली इस राज्यलक्ष्मी को सुख का उल्लन न करके भोगिए। क्योंकि जो सुख भोगने का समय (युवावस्था-आदि) सुखों के विना निकल जाता है, वह प्राणियों को पुनः प्राप्त नहीं होता" |४|| हे राजन् ! जब शत्रुओं के केवल वृत्तान्त मात्र से भी मनरूपी समुद्र क्षुब्ध (व्याकुलित ) हो जाता है तब सर्पो के समान महाभयङ्कर उन शत्रुओं को कौन पुरुष नेत्रों द्वारा दृष्टिगोचर करेगा ? 'अपितु कोई नहीं करेगा ॥४१॥ हे राजन् ! जब कि यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाला ऐसा देवताओं का इन्द्र देव से (पाप कर्म के उदय से) प्रायः करके पराधीन होगया, यद्यपि उसके पास महान सैन्य-आदि शक्ति वर्तमान है। हवाहरणार्थ-सुमेरुपर्वत के मध्यभाग या गुफाएँ हो जिसका [ अभेन] दुर्ग (किला) है। वे जगत्प्रसिद्ध इसापल दी जिसकी परिधि ( कोट) है। सात समुद्र ही जिसकी खातिका (साई) है । स्वर्गलोक ही जिसका निजी राष्ट्र है। देवता जिसके सैनिक हैं और बृहस्पति ही जिसका बुद्धिसचिष है, इसलिए इस संसार में [ भाग्य के प्रतिकूल होने पर ] सैन्य-शक्ति से क्या लाभ है ? अथवा पञ्चाङ्ग मन्त्र से भी कौन सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? थपिनु कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। श्रतः संसार में देव (पूर्वजन्म-कृव पुण्य ) ही प्रधान है॥४२॥ हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध प प्रत्यक्षप्रतीत होनेवाली ऐसी राज्यलक्ष्मी, जो कि न तो देवताओं की सेवा द्वारा प्राप्त हो सकती है. और न मनोरथों द्वारा प्राप्त होने योग्य है, जब भापको स्वयं *"क्लिश्यस्यात्मानमात्मना' का। श्रियं मानयतामिमा का। १. समुदयालंकार । २, अनुमानालंकार । ३. अनुमानालंकार ! ४, आक्षेपालंकार । ५. अनुमानालंकार । ६, भाक्षेप व उपमालंकार । ५. समुख्यालंकार । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये यस्तत्प्रसाबाधिगम्य लक्ष्मी धर्मे पुनर्मन्दारादरः स्यात् । सस्मारकृतघ्नः किमिहापरोऽस्ति रिक पुरोजन्मनि वा मनुष्यः ॥४४॥ भनं धर्मविक्षोपेम परभोगाय भूपतेः । पापं स्वात्मनि खायेत रेपिवधादिव ॥४९॥ पति देवदाविमो विद्यामहोदधेः सचिवात , घेष्टमानः । क्रियाः सर्वाः प्राप्नोति न पुनः स्थितः । दृष्ट्वैवं पौरुषर्षी शक्ति को दृष्टानहे महः ॥४॥ प्राप्त हुई है। अर्थात्-भाग्योदय से स्वये मिली है तब इस त्रिभुवनतिलक' नामके राजमहल में स्थित हुए श्राप के द्वारा निश्चिन्त रूप से भोगी जावे। ॥४३॥ हे राजन् ! जो मानष पुण्य-प्रसाद से लक्ष्मी प्राप्त करके भी पुनः पुण्यकर्म ( दानादि ) के संचय करने में शिथिल { आलसी) होता है, उससे दूसरा कौन पुरुष कृतघ्न है ? अपि तु यही कृतघ्न है एवं उससे दूसरा कौन पुरुष भविष्य जन्म में रिक्त (खाली–दरिद्र) होगा? अपितु कोई नहीं ॥४४॥ धर्म नष्ट करके ( अन्याय द्वारा प्राप्त किया हुआ राजा का धन दूसरे ( कुटुम्बी-आदि) द्वारा भोगा जाता है और राजा उसप्रकार पाप का भाजन होता है जिसप्रकार हाथी की शिकार करने से सिंह स्वयं पाप का भाजन ( पात्र)होता है। क्योंकि उसका मांस गीदड़-वगैरह जंगली जानवर खाते हैं। भावार्थ-नीतिकारों के ३.' उद्धरणों का भी यही अभिप्राय है ' ॥४५॥ पुरुषार्थ (उद्योग) वादी 'चार्याक अवलोकन' ( नास्तिक दर्शन का अनुयायी) नामक मंत्री का कथन-हे राजन् ! लोक में यह बात प्रत्यक्ष है कि उदामशील पुरुष समस्त भोजनादि कार्य प्राप्त करता है ( समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त करता है) और निश्चल ( भाग्य भरोसे बैठा हुआ उद्यम-हीनआलसी पुरुष) किसी भी भोजनादि कार्य में सफलता प्राप्त नहीं करता। इस प्रकार उद्योग-गुण देखकर कौन पुरुष दैववाद (भाग्य सिद्धान्त ) के विषय में दुष्ट अभिप्राय-युक्त होगा ? अपितु कोई नहीं। भावार्थ-नीतिनिष्टों में भी कहा है कि 'भाग्य अनुकूल होने पर भी उद्योग-हीन मनुष्य का कल्याण नहीं होसकता'। वल्लभदेव ( नीतिकार) ने भी कहा है कि 'उद्योग करने से कार्य सिद्ध होते है न कि मनोरथों से। सोते हुए सिंह के मुख में हिरण स्वयं प्रविष्ट नहीं होते किन्तु पुरुषार्थ उद्यम द्वारा ही प्रविष्ट होते है। प्रकरण में पुरुषार्थवादी उक्त मंत्री यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! उद्योगी पुरुष कार्य सिद्धि करता है न कि भाग्य-भरोसे बैठा रहनेवाला बालसी। इसलिए पुरुषार्थ की ऐसी अनोखी शक्ति देखते हुए आपको राज्य की श्रीवृद्धि के लिए सतत् उद्योगशील होना चाहिए और भान्यवाद १. अतिशयालंकार । २. भाशेपालंकार । ३. तथा च सोमदेवपूरिः-धर्मातिकमादन परेऽनुभवन्ति, स्वयं तु परं पापस्य भाजन सिंह इव सिन्धुरषषात् । ४. तथा च पितुरः-एकाकी कुरुते पापं फलं मुक्त महाजनः । भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥१॥ अर्थात्-नीतिकार विदुर ने कहा है कि 'यह जीव अकेला ही पाप करता है धीर कुटुर्मा लोग उसका धन भोगने हैं, वे तो छूट जाते हैं परन्तु कर्ता दोष-लिप्त हो जाता है-दुर्गति के दुःख भोगता है' ॥१॥ नौतिवाक्यामृत पू०३७ संकलित-सम्पादक ५. उपमालकार। ६. तया च सोमदेवमूरिः-'सत्यपि देवेऽनुकूले न निष्कर्मणो मनमस्ति' ५. तथा च पालभदेवः-उद्यमेन हि सिसयन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुतस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषाढीका-समेत) पृ० ३६६-३६९ से संकलित-संशक । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय आश्वासः २२१ पुण्यपापे नृणां देव ते च स्वाभाविक न हि । कि तुम समीक्षातस्तो सुधीर्म won नरस्य बद्धहस्तस्य पुरी भक्ते कृतेऽपि यत् । अशक्तं मखनिक्षेपे त क समामयेत ॥८॥ देवेकशरणे पुंसि वृथा कृष्यादयः क्रियाः । अकृत्वा फैघिदारम्भमाकापाकवली भवन ॥४९॥ देवावलम्बनक्सः पुरुषस्य हस्तादासाधितान्यपि धनानि भवन्ति चूरे । आनीय रत्ननिचयं पथि जातनि जागर्ति तन्न पथिके हि न जातु दैवम् ॥५॥ किं च । विहाय पौरु यो दि दैवमेवावलम्पते । प्रासादसिंहवत्तस्य मूनि तिष्ठन्ति वायसाः ॥११॥ का आग्रह छोड़ देना चाहिए ॥ ४६॥ हे राजन् ! मनुष्यों द्वारा पूर्वजन्म में किये हुए पुण्य व पापकर्म 'देव' शब्द के अर्थ हैं और वे ( पुण्य-पाप) निश्चय से स्वाभाविक (प्राकृतिक ) न होते हुए नैतिक व अनैतिक पुरुषार्थ से उत्पन्न होते हैं। अर्थात्-रामचन्द्र-आदि महापुरुषों की तरह नैतिक सत् प्रवृत्ति करने से पुण्य उत्पन्न होता है और रावण-आदि अशिष्ट पुरुषों की तरह नीति-बिरुद्ध असत् प्रवृत्ति करने से पाप उत्पन्न होता है, इसलिए कौन विद्वान पुरुप देव ( भाग्य ) का आश्चय लेगा? अपितु कोई नहीं लेगा। निष्कर्ष-भाग्य-भरोसे न बैठकर सदा उद्यमशील होना चाहिए ॥ १७॥ जो देष (भाग्य) दोनों हस्तों की मुट्ठी बाँधे हुए ( भाग्य-भरोसे बैठे हुए) मनुष्य के सामने उपस्थित हुए भोजन को उसके मुँह में लाकर स्थापित करने में समर्थ नहीं है, उस देव का कौन पुरुष अवलम्बन करेगा? अपितु कोई नहीं अवलम्बन करेगा। ___ भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार सोमदेवसूरि' और भागुरि विद्वान ने भी कहा है कि जिस प्रकार भाग्यवश प्राप्त हुआ अन्न भाग्य-भरोसे रहनेवाले व क्षुधा-पीड़ित मानव के मुख में स्वयं प्रविष्ट नहीं होता किन्तु इस्त-संचालन-आदि पुरुषार्थ द्वारा ही प्रविष्ट होता है उसीप्रकार केवल भाग्य-भरोसे रहनेवाले ( उद्यमहीन) मानव को कार्य में सफलता नहीं मिलती किन्तु पुरुषार्थ करने से ही मिलती है। इसलिए उक्त मंत्री कहता है कि हे राजन् ! कार्य-सिद्धि में असमर्थ देव को कौन स्वीकार कर सकता है ? अपितु कोई नहीं। अतः पुरुषार्थ ही प्रयोजन-सिद्धि करने के कारण श्रेष्ठ है न कि देव ॥४८॥ वैष (भाग्य) को ही शरण (प्रयोजन-सिद्धि द्वारा आपत्ति-निवारक ) माननेवाले के यहाँ विशेष धान्यादि उत्पन्न करने के उद्देश्य से कीजानेवाली प्रत्यक्ष प्रतीत हुई कृषि व व्यापारादि क्रियाएँ ( कर्त्तव्य ) निरर्थक हो जायगी इसलिये लोक में कृषि व व्यापारादि उद्यम न करके केवल भाग्य-भरोसे बैठनेपाला मानव बाकाश में ही भोजन-पास (कौर) प्राप्त करता है। अर्थात्-उसे कुछ भी सुख-सामग्री प्राप्त नहीं होती ॥६जिसप्रकार रत्नराशि लाकर मार्ग पर निद्रा लेनेवाले पथिक ( रस्तागीर) का भाग्य उसकी रनराशि की कदापि रक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि वह चोरों द्वारा अपहरण कर ली जाती है उसीप्रकार देव (भाग्य) सभाश्रय लेनेवाले पुरुष के प्राप्त हुए धन भी निश्चय उसके हाथ से दूर चले जाते हैं-अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं। अर्थात-उसीप्रकार उसका भाग्य भी उसके धन की रक्षा नहीं कर सकता ॥५॥ राजन ! उद्यम को छोड़कर केवल भाग्य का ही आश्रय करनेवाले मानव के मस्तक पर ससप्रचार काक-फौए बैठते हैं जिसप्रकार महल के कृत्रिम (बनावटी ) सिंह पर कौए बैठते हैं। अर्थात् ज्यामीन १. थापालंकार । २. आक्षेपालंकार ।। ३. तपा च सोमदेवरिः-"न खल्ल देवमौहमानस्य कृतमप्यन्न मुखे स्वयं प्रविशचि - ४. तथा च भागरिः-प्राप्तं दैववशादन्नं क्षुघातस्यापि चेच्छुभं । तावन्न प्रनिशे पत्रे यानत्प्रेषति नोकरः ॥१॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीमा समेत ) पू. ३६५-३६९ से संगीत-संपादक ५. भाक्षेपालंकार। ६. उपमालंकार। ५. दृष्टान्तालंकार । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ यशस्तिसाम्पूषव्ये तेजोडीने महीपालाः परे चविते । निःसई हिन को पते पर भस्मन्पमणि ॥५२॥ महंकारविहीनस्प कि विस्केन भूभुः । मरे कावरपिले हिस्मादमपरिग्रहः ॥१६॥ वर्षोमर्थश्व नो यस्य धनाय मिधमाप । को विशेषो भवेदाहस्सस्य चित्रगतस्य च ॥६॥ येपा बाहुबलं नास्ति येपो मास्ति मनोबलम् । तेशं चन्मयी देव कि कुबिम्परे स्थितम् ॥११॥ उदयास्समयारम्भे प्रहाणा कोऽमरो प्रहः । कोऽन्यः महा जगस्मा कपाले भैक्ष्यमरनतः ॥२६॥ (आलसी) पुरुष उसप्रकार शत्रुओं द्वारा मार दिया जाता है जिसप्रकार महलों का बनावटी सिंह कौओं-आदि द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। ।। ५१॥ हे राजन् ! जिसप्रकार निश्चय से उष्णता-शून्य ( शीतल) राख पर कौन पुरुष निर्भयता-पूर्वक पैर नहीं रखता ? अपि तु सभी रखते है पसीप्रकार उद्यम-हीन राजासे भी कुटुम्बी-गण व शत्रुलोग शत्रुता करने तत्पर होजाते हैं। ॥५२॥ जिसप्रकार भयभीत ( डरपोक ) भनवाले पुरुष का शत्र-धारण निरर्थक है उसीप्रकार उद्योग-हीन राजा का ज्ञान भी निरर्थक है३ ॥५३॥ हे राजन् ! जिस राजा का हर्ष (प्रसन्न होना) धन देने में समर्थ नहीं है। अर्थात-जो राजा किसी शिष्ट पुरुष से प्रसन्न हुश्रा उसे धन नहीं देता--शिष्टपालन नहीं करता एवं जिस राजा का क्रोध शत्रु की मृत्यु करने में समर्थ नहीं है। अर्थात्-जो शत्रुओं व आततायियों पर कुपित होकर उनका घात करने में समर्थ नहीं होता-दुष्ट-निग्रह नहीं करता। ऐसे पौरुष-शून्य राजा में और चित्र-लिखित ( फोटोवाले ) राजा मैं क्या विशेषता-भेद-है ? अपि तु कोई विशेषता नहीं है। अर्थात-पौरुष-हीन राजा फोटोवाले राजा सरीखा कुछ नहीं है। निष्कर्ष-राजा का कर्तव्य है कि वह हर्षगुण द्वारा शिष्ट-पालन और क्रोध द्वारा दुष्ट-निग्रह करता हुआ फोटो में स्थित राजा की अपेक्षा अपनी महत्वपूर्ण विशेषता स्थापित करे ॥५४॥ हे राजन् ! जिन पुरुषों में भुजा-मण्डल-संबंधी शक्ति (पराक्रम) नही पाई जाती और जिनमें मानसिक शक्ति (चित्त में उत्साह शक्ति ) जाग्रत हुई शोभायमान नहीं है, उन उद्यम हीन पुरुषों का आकाश में स्थित हुमा चन्द्र-बल (जन्म-आदि संबंधी चन्द्र प्रह की शुभ सूचक माङ्गलिक शक्ति)क्या कर सकता है? अपितु कुछ भी नहीं कर सकता ॥५॥ हे राजन् । सूर्य, चन्द्र, राहु व केतु-आदि नवमहों का समय और अस्त होना प्रारम्भ होता है। अर्थात्-अमुक व्यक्ति के चन्द्र प्रह का उदय इतने समय तक रहकर पश्चात् अस्त होजायगा, जिसके फलस्वरूप यह चन्द्र के उदयकाल में धन-आदि सुख-सामग्री प्राप्त करके पश्चात्-उक्तमाह के अस्त काल में दुःख-सामग्री प्राप्त करेगा। इसप्रकार इन शुभ व अशुभ नव ग्रहों का उदय व अस्त होना प्रारम्भ होता है परन्तु उन ग्रहों को उदित ष अस्त करनेवाला दूसरा कौन ग्रह है? अपितु कोई ग्रह नहीं है। इसीप्रकार समस्त तीन लोक की सृष्टि करनेवाले श्रीमहादेव की, जो कि कपाल (मुदों की खोपड़ी) में भिक्षा-भोजन करते हैं, सृष्टि करनेवाला दूसरा ( माग्य-मादि) कौन है? अपितु कोई नहीं है। भावार्थ---जिसप्रकार जब ग्रहों के उदित व अस्त करने में दूसरा प्रहसमर्थ नहीं है एवं श्री महादेष की सष्टि करनेवाला दूसरा कोई भाग्य-श्रादि पदार्थ नहीं है उसीप्रकार लोक को भी सखी-दुःखी करने में प्रशस्त व अप्रशस्त भाग्य मी समर्थ नहीं है। इसलिए भाग्य कुछ नहीं है, केवल पुरुषार्थ ही प्रधान है। प्रकरण में प्रस्तुत दृष्टान्तों द्वारा 'चार्वाक अवलोकन' नाम का मंत्री देवसिद्धान्त का खंडन करता हुमा पौरुषतत्व की सिद्धि यशोधर महाराज के समक्ष कर रहा है। ॥५६॥ हे राजन् ! * 'स्वे परे च'०। । 'हामो न यस्येह' का ।. १. शान्तालार। २. दृष्टान्तालद्वार। ३. आक्षेपालबार । ४. ययासंख्य-अलद्वार व माथेपालद्वार। ५. माझेपानाहार। ६. आक्षेपालशर । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पाश्चासः २२३ वविक्रम माक्रान्ससमस्तमुवनस्थितिः। विशिष्टदानवोच्छेदाद्वियी इरिखनव ॥५॥ कामपि भित्रमासान यस्त? म चेटते । तस्यायविषु म मेयो वीजमोजिकुटुम्निवत् ॥॥ सूर्य धीम्या मिका सोयोछोय स्वायत्तसम्मकम् । तथाप्यताश्चयं यत्सीदन्ति नरेश्वराः ॥६९१ सामन्यसामान्सस माय चिना । निर्ममा प्रमदेध परस्पतौ ॥१०॥ इति पौरुषमापिणः चाकावलोकनाद , दैवं च मानुष कर्म लोकस्यास्य फलाप्तिषु । कुतोऽन्यथा विचित्राणि फलानि समष्टिषु ॥३१॥ इसलिए आप अपने पराक्रमरूपी चरण द्वारा समस्त लोक के स्थान स्वाधीन किये हुए होकर शत्रुरूपी दैत्यों का गर्वोन्मूलन (नाश) करने के फलस्वरूप उसप्रकार विजयशाली होनो जिस प्रकार श्रीनारायगा अपने पराक्रमशाली चरण द्वारा समस्त लोक के स्थान स्वाधीन करते हुए दानयों के उच्छेद (नाश) से विजयशाली होते हैं। ॥१७॥ हे देव ! कुछ भी लक्ष्मी प्राप्त करके उसकी वृद्धि के लिए पुरुषार्थ न करनेवाले .(प्रयत्नशील न होनेवाले) मानव का उत्तरकाल ( भविष्य जीवन) में उसप्रकार कल्याण नहीं होता जिसप्रकार बीज खानेवाले किसान का उत्तर काल में कल्याण नहीं होता' ॥५८।। हे राजन् ! धनादि सम्पत्तियों से सुख प्राप्त होता है और सम्पत्तियाँ शूरता (वीरता) से उत्पन्न होती हैं एवं शूरता स्वाधीनता से उत्पम होनेवाली है। अर्थात् स्वाभाविक पुरुषार्थ शक्ति से उत्पन्न होती है। तथापि राजा लोग जो दरिद्रता संबंधी दुःख भोगते हैं, लोक में यही आश्चर्यजनक है' || हे राजन् ! प्राप्त हुई भी लक्ष्मी अनोखे पुरुषार्थी स्वामी के बिना अर्थात्-भाग्य-भरोसे बैठे रहनेवाले उद्यम-हीन पुरुषका उसप्रकार गाइ आलिङ्गन नहीं करती जिसप्रकार खी जरा (वृद्धावस्था) से जीर्ण-शीर्ण ( शक्तिहीन) हुम वृद्ध पुरुष का गाढ़ आलिङ्गन नहीं करती ॥६०) . अथानन्तर-भाग्य प पुरुषार्थ इन दोनों की स्थापना ( सिद्धि) करनेवाले 'कविकुलशेखर' नाम के मन्त्री का कथन हे राजन! इस लोक के प्राणियों को जो इष्टफल ( धनादि सुख सामग्री ) और अनिष्टफल (परिद्रता-आदि दुःससामग्री) प्राप्त होते हैं, उसमें भाग्य व पुरुषार्थ दोनों कारण हैं। अर्थात्भाग्य अनुकूल होने पर किये जानेवाले समुचित पुरुषार्थ द्वारा लोगों को सुख-साममी (धन-धान्यादिष्ट परतुएँ ) प्राप्त होती है और भाग्य के प्रतिकूल होने पर अयोग्य पुरुषार्थ द्वारा दुःख-सामग्री ( दरिद्रवा-भादि अनिष्ट पदार्थ) प्राप्त होती है। अभिप्राय यह है कि केवल भाग्य व केवल पुरुषार्थ कार्य सिद्धि करनेवाला नहीं है किन्तु दोनों से कार्य सिद्धि होती है, अन्यथा यदि उक्त बात न मानी जाय । अर्थात्--भाग्य व पुरुषार्थ दोनों द्वारा फल सिद्धि न मानी जाय तो एक-सरीखा उद्यम करनेवाले पुरुषों में नाना-प्रकार के उस व जघन्य फल क्यों देखे जाते हैं? अर्थात्-एक-सरीखा कृषि व व्यापार-आदि कार्य करनेवालों को अधिक धान्य व कम धान्य और विशेष धन-लाभ व अल्प धन-लाभ क्यों होता है ? नहीं होना चाहिए ॥६॥ हे राजन् ! जिस कार्य में बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ किये बिना ही-अचानक-कार्य-सिद्धि होजाती है, उस कार्य-सिद्धि में 'देव' प्रधान कारण है और जिस कार्य में बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ द्वारा कार्य-सिद्धि होती है, उसमें 'पुरुषार्थ प्रधान है। १. अपमालबार । २. उपमालझार। ३, हेव-अलाहार। ४. उपमालद्वार। ५. माशेपालंकार । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ यशस्तिलकचम्पूकान्ये अप्रेशाविका यन्त्र कार्यसिद्धिः प्रनायते । तत्र देयं नृपान्यन्न प्रधानं पौरुष भवेत् ॥३२॥ सुसस्य सर्वसंपर्के देवमायुषि कारणम् । *दृष्ट्वा नु वञ्चिते सपै पौरुष सत्र कारणम् ॥३॥ परस्परोपका जीशिौषधारियेवपौरुषयोवृत्तिः फलजन्मनि मन्यताम् ॥६५॥ तथापि पौरुषायत्ताः सत्त्वानां सकलाः क्रियाः । अतस्तश्चिन्यमन्पत्र का चिन्तातीनिमयात्मनि ॥६॥ इति यायिणः कविपुलशेखरात, भावार्थदार्शनिक-चूड़ामणि भगवान समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि "जिस समय मनुष्यों को इष्ट (सुखादि )व अनिष्ट ( दुःखादि) पदार्थ विना उद्योग किये-अचानक प्राप्त होते हैं, वहाँ उनका अनुकूल व प्रतिकूल भाग्य ही कारण समझना चाहिये, वहाँ पुरुषार्थ गौण है। इसीप्रकार पुरुषार्थ द्वारा सिद्ध होनेवाले सुख-दुःखादि में क्रमशः नीति व अनीतिपूर्ग 'पुरुषार्थ' कारण है, वहाँ 'देव' गौण है। अभिप्राय यह है कि इष्ट-अनिष्ट पदार्थ की सिद्धि में क्रमशः अनुकूल-प्रतिकूल भाग्य व नीति-नीति-गुक्त पुरुषार्थ इन दोनों की उपयोगिता है केवल एक की ही नहीं। प्रकरण में 'कविकुलशेखर' नाम का मंत्री यशोधर महाराज के समक्ष उपयुक्त सिद्धान्त का निरूपण करता है॥ २ ॥ हे राजन् ! उक्त बात का समर्थक दृष्टान्त यह है कि सोते हुए मनुष्य को सर्पका स्पर्श हो जानेपर यदि वह जीवित रह जाता है, उस समय उसको जीवन रक्षा में देव (भाग्य) प्रधान कारण है और जागृत अवस्था में जब मानव ने सर्प को देखा, पश्चात् उसने उसे परिहण कर दिया-हटा दिया (फेंक दिया ) अर्थान--पुरुषार्थ द्वारा उसने अपनी जीवन रक्षा कर ली उस समय उसकी जीवन रक्षा में पुरुषार्थ प्रधान कारण है ॥ ६३ ।। हे राजन् ! आप को यह बात जान लेनी चाहिए कि देव और पुरुषार्थ कार्य-सिद्धि में जब प्रवृत्त होते हैं तब वे आयु और औषधि के समान परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा करते हुए ही प्रवृत्त होते हैं। अर्थात-जिसप्रकार जीवित (आयुकर्म) औषधि का उपकारक है. और औषधि आयु कर्म का उपकारक है। क्योंकि आयुष्य होने पर औषधि लगती है और औषधि के होने पर जीवित स्थिर रहता है इसीप्रकार 'दैव' ( भाग्य ) होने पर पुरुषार्थ फलता है और पुरुषार्थ होने पर 'देव' फलता है' ।। ६४ ॥ हे राजन् ! यद्यपि सिद्धान्त उक्त प्रकार है तथापि कर्तव्यदृष्टि से प्राणियों की समस्त चेष्टाएँ पुरुषार्थ के अधीन होती है, इसलिए पुरुषार्थ करना चाहिए और चक्षुरादि इन्द्रियों द्वारा प्रतीत न होनेवाले भाग्य की क्यों चिन्ता करनी चाहिए? अपि तु नहीं करनी चाहिए। भावार्थ-नीतिकार प्रस्तुत सोमदेवसूरि ने कहा है कि "विवेकी पुरुष को भाग्य के भरोसे न बैठते हुए लौकिक ( कृषि-व्यापारादि ) व धार्मिक (बान-शीलादि ) कार्यों में नैतिक पुरुषार्थ करना चाहिए"। नौतिकार वल्लभदेव विद्वान् ने भी कहा है कि "उद्योगी पुरुष को धनादि लक्ष्मी, प्राप्त होती है, 'भाग्य ही सब कुछ धनादि लक्ष्मी देता है। यह फायर-श्रालसी-लोग कहते हैं, इसलिए दैव-भाग्य को * 'दृष्ट्वा तु विञ्चिते सपै ख. ग.। A परिहते' इति टिप्पणी ख. ग.। १. तथा च समन्तभद्राचार्य:-अबुद्धिपूपिक्षायामिष्टानिष्टं स्वदेवतः। युद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं सपौरुषात् ॥१॥ २. जाति-अलंकार । देवागमस्तोत्र से संकलित-सम्पादक ३. जाति-लंकार । ४. उपमालंकार । ५. तथा च सोमदेवसूरि:-'तच्चिन्त्यमचिन्त्यं वा देवं'। ६. तथा च बल्लभदेवः--उपोलिंगनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीदै धेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति । दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या यरने कृते यदि न सिद्ध्यति फोऽन दोषः ॥ १॥ नातिवाक्यामृत पृ. २६५-३६८ से संकलित--सम्पादक Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतीय आन्यासः महत्यानमिई व म पाइसमयोऽपि । किंतु मन्त्रनिष शत्प्रस्तुतमिहोज्यताम् ॥ ३ . विजिगीपुररिमित्रं पाणिग्राहोत्र मध्यमः। उदासीनोऽन्तराम्तर्विस्त्येिषा विषयस्थितिः ॥ -- हटाकर अपनी शक्ति से पुरुषार्थ करो, यल करने पर भी यदि कार्य सिद्ध नहीं होता तो इसमें क्या दोष है ? अपि तु कोई दोष नहीं। प्रकरण में भाग्य व पुरुषार्थ दोनों की कार्य सिद्धि में अपेक्षा माननेवाला 'कविकुलशेखर' नाम का मंत्री यशोधर महाराज से उक्त विषय का निरूपण कर रहा है' ।। ६५ ।। 'सपायसर्वर' नाम के नवीन मंत्री का कथन हे राजन् ! यह मठस्थान (विद्यालय) नहीं है और न प्रस्तुत समय वाद-विवाद करने का है किन्तु यह मंत्र-शाला ( राजनैतिक मान की सलाह का स्थान-राज-सभा) है, इसलिये बों राजनैतिक प्रकरण की बात कही जानी चाहिये ।। ६६॥ हे राजन् ! विजिगीषु, अरि, मित्र, पाणिपाह, मध्यम, उदासीन और अन्तर्छि ये राष्ट्र की मर्यादा है। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार सोमदेव सरि ने कहा है कि '१-विजिगीषु, २-अरिं, ३-मित्र, ४-पार्णिप्राइ, ५-मध्यम, ६-उदासीन, थाकन्द,म-आसार और ह-अन्तद्धि ये नौ प्रकार के राजा लोग यथायोग्य गुणसमूह और ऐश्वर्य के तारतम्ब से युक्त होने के कारण राज-मण्डल के अधिष्ठाता हैं। अभिप्राय यह है कि विजिगीषु राजा इन्हें अपने अनुक्त रखने का प्रयत्न करे। १-विजिगीषु-ऐसे राजा को, जो राज्याभिषेक से अभिषिक्त हुआ भाग्यशाली है एवं खजाना व अमात्य-आदि प्रकृति से सम्पन्न है तथा राजनीति-निपुण व शूरवीर-पराक्रमी है, 'विजिगीषु कहते हैं। २-अरि-जो अपने निकट सम्बन्धियों का अपराध करता हुश्रा कभी भी दुष्टवा करने से बाज नहीं आता उसे 'अरि' ( शत्रु ) कहते हैं। ३-मित्र सम्पत्तिकाल की तरह विपत्तिकाल में भी स्नोई करनेवाले को 'मित्र' कहते हैं। सारांश यह है कि जो लोग सम्पत्तिकाल में स्वार्थवश लेह करते हैं और विपत्तिकाल में धोखा देते हैं वे मित्र नहीं किन्तु शत्रु है। जैमिनि' विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है। वे दोनों व्यक्ति परस्पर में 'नित्यमित्र' हो सकते हैं, जो शत्रुक्त पीड़ा-आदि आपत्तिकाल के अवसर पर परस्पर एक दूसरे द्वारा रक्षा किये जाते हैं या एक दूसरे के रक्षक हैं। नीतिकार नारद विद्वान् के उद्धरण का भी उक्त आशय समझना चाहिये। वंश परम्परा के सम्बन्ध से युक्त पन्धु-आदि सहज मित्र है। भागरि- विद्वान ने भी 'सहजमित्र' का यही लक्षण किया है। जो व्यक्ति अपनी * 'प्राहोऽथ मध्यमः, ग। १. आक्षेपालंकार । १. जाति-अलंकार । है, तथा व सोमदेवरि:-"उदासीन मभ्यम-विजिगीषुअमित्रमित्रपारपादाकन्दासारान्तई यो यथासम्भनगुनगण विभवतारतम्यान्मण्डलानामपिघातार:"॥ राजारमदैवव्यप्रकृतिसम्पनो नयषिकमयोरविष्टानं विजिगाधुः ॥ य एवं स्वस्याहितामधानेन प्रातिकस्यमियति स एवारिः॥ मित्रलक्षणमुक्तमेव पुरस्तात्-यः सम्पदीय विषयपि मेपत्ति तन्मित्रम् ।। ४. तथा च मिनिः-सत्समृवी किमास्नेई महशतमापरि । तन्मित्रं भोच्यते सविपरीस्लेन वैरिमः ।।५।। ५. तथा च सोमदेवसूरिः-यः कारणमन्तरेण रह्यो रसको वा भनति तन्नित्यं मित्रं ॥ ६. तया च नारदः -श्यते वभ्यमानस्ल बन्दैनिकारक नराः । रमेशा पध्यमानं यत्तनित्य मित्रपुय्यते ॥१॥ ५. तथा र सोमदेवमूरिः-तसहज मित्र परपुरुषपरम्परायातः सम्बन्धः ।। ८. तथा च भागरिः-सम्बन्धः पूर्वजाना यरतेन मोऽत्र समाययौ । मित्रत्वं कवितं तरुण सांक मित्रमेव हि ॥१॥ २६ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलम्पूकान्ये स एव विजयी तेषां शौर्यं यस्य नयानुगम् । किमसाध्यं ततो देव स्वया तया ॥ ६८ ॥ सदरपूर्ति व प्राण रक्षा हेतु अपने स्वामी से वेतन आदि लेकर स्नेह करता है, वह 'कृत्रिम मित्र' है ' | नीतिकार भारद्वाज विद्वान ने भी कृत्रिम मित्र का यही लक्षण किया है । ४- पाणिग्राह- -जब विजिगीषु राजा शत्रुभूत राजा के साथ युद्ध हेतु प्रस्थान करता है तब जो बाद में क्रुद्ध हुआ विजिगीषु का देश नष्टष्ट कर डालता है उसे 'पाणिमाह' कहते हैं । ५--मध्यम — जो उदासीन की तरह मर्यादातीत मंडल का रक्षक होने से अन्य राजा की अपेक्षा प्रवल सैन्य शक्ति से युक्त होने पर भी किसी कारण वश ( यदि मैं एकाकी सहायता करूँगा तो दूसरा मुझ से बैर बाँध लेगा - इत्यादि कारण से ) विजय की कामना करनेवाले अन्य राजा के विषय में मध्यस्थ बना रहता है-उससे युद्ध नहीं करता - उसे 'मध्यस्थ' या 'मध्यम' कहते हैं" । ६ देशको का किसी अन्य विजिगीषु राजा के आगे पीछे या पार्श्वभाग पर स्थित हुआ और मध्यम आदि युद्ध करनेवालों के निग्रह करने में और उन्हें युद्ध करने से रोकने में सामर्थ्यवान होने पर भी किसी कारण वश या किसी अपेक्षा वश दूसरे विजिगीषु राजा के विषय में उपेक्षा करता है-उससे युद्ध नहीं करता - उसे 'उदासीन' कहते हैं । ७— आनन्द — जो पाष्णिमाह से बिलकुल विपरीत चलता है- जो विजिगीषु की विजय यात्रा में हर तरह सहायता पहुँचाता है, उसे 'कन्द' कहते हैं, क्योंकि प्रायः समस्त सीमाधिपति मित्रता रखते हैं, अतः वे सब 'आनन्द' हैं ' । = - आसार - जो पाणिग्राह का विरोधी और आॠन्द से मैत्री रखता है, वह 'आसार ' है"। - अन्तद्धिं - शत्रु राजा व विजिगीषु राजा इन दोनों के देश में है जीविका जिसकी तरफ से वेतन पानेवाला पर्वत या अटवी में रहनेवाला 'अन्तर्द्धि' है । दोनों की २९६ प्राकरणिक सारांश यह है कि ' उपायसर्वज्ञ' नाम का नवीन मंत्री यशोधर महाराज से प्राकरणिक राजनैतिक विषय निरूपण करता हुआ कहता है कि हे राजन् ! विजिगीषु आदि उक्त राजा लोग राष्ट्र की मर्यादा हैं ||३७|| हे राजन् ! उन विजयशाली राजाओं में वही राजा विजयश्री प्राप्त करता है, जो नय राजनैतिक ज्ञान व सदाचार सम्पत्ति ) के साथ रहने वाली पराक्रम शक्ति ( सैन्य व खजाने की शक्ति ) से विभूषित है । इसलिए हे देव ! जब आप उक्त दोनों गुणों के स्थान हैं तब आप के द्वारा लोक १. तथा च सोमदेवयुरिः यत्तिजीवितद्धेतोराश्रितं तत्कृत्रिमं मित्रम् ॥ २. तथा च भारद्वाजः वृति एकाति यः स्नेहं नरस्य कुत्ते नरः । तन्मित्रं कृत्रिमं प्राहुनीतिशास्त्रविदो जनाः ॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषादीका समेत ) पृ० ३०३ से ( मित्र प्रकरण ) व पृ० ३७१ से ( विजिगीषु आदि का स्वरूप ) संकलित – सम्पादक ३-८. तथा च सोमदेवपूरिः यो विजिगीषो प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात् होपं जनयति स पाणिप्राइः ||१|| उदासीनवदनियतमण्डलोऽपरभूपापेक्षया समधिकलोऽपि कुतश्चित्कारणदन्यस्मिन् नृपती विजिगीषुमाणे यो मध्यस्यभावमचलभ्यते स मध्यस्थः ॥ २॥ अप्रतः पृष्ठतः कोणे या निकृष्ट वा मण्डले स्थितो मध्यमादीनां विप्रीतान निग्रहे संहितानामनुप्रहे समर्थोऽपि केनचित्कारणेनान्यस्मिन् भूपतौ विजिगीषुमाणे य उदास्ते स उदासीनः ॥३॥ पार्ष्णिग्रहाद्यः पश्चिमः स आक्रन्दः ॥४॥ पाष्णिमाहाभिश्रमासार कन्दमित्रं च ॥५॥ अरिविजिगीषोर्मष्ठा विहितवृत्तिरुभयवेतनः पर्वतादवीकृताश्रयश्चान्तर्द्धिः ॥६॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीका समेत ) पृ० ३७१ से संकलित - सम्पादक ५. जाति अलंकार । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ तृतीय आश्वासः देशकालम्ययोपायसहायफलनिश्चयः । देव पत्र स मन्त्रोऽन्यत्तुपरकाविणीवनम् ॥ ६९ ॥ मैं कौन सी इष्ट वस्तु प्राप्त करने के अयोग्य हैं ? अपितु सभी इष्ट वस्तुएँ (विजयश्री-आदि) आपके द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। भावार्थ-नीतिकारों ने कहा है कि जिसप्रकार जड़-सहित वृक्ष शाखा, पुष्प व फलादि से वृद्धिंगत होता है उसीप्रकार राज्यरूपी वृक्ष भी राजनैतिक ज्ञान, सदाचार तथा पराक्रम शक्ति से समृद्धिशाली होता है। अतः राजा का कर्तव्य है कि वह अपने राज्य को सुरक्षित, वृद्धिंगत व स्थायी बनाने के लिए सदाचार लक्ष्मी से अलङ्कत हुश्रा सैनिक शक्ति व खजाने की शक्ति का संचय करता रहे, अन्यथा दुराचारी व सैन्य-हीन होने से राज्य नष्ट हो जाता है। शुक्र विद्वान के बुद्धरण का यही अभिप्राय है। प्रकरण में 'उपायसस' नाम का मंत्री मन्त्रशाला में यशोधर महाराज से कहता है कि हे देव ! उक्त दोनों गुण विजयश्री के कारण हैं और श्राप उक्त दोनों गुणों से विभूषित है अतः श्राप को विजयश्री-आदि सभी इष्ट फल प्राप्त झे सकते हैं. ॥६॥ हे राजन् ! जिस मन्त्र (सुयोग्य मन्त्रियों के साथ किया हुआ राजनैतिक विचार) में निम्न प्रकार पाँच तत्त्व (गुण) पाये जाते हैं, वहीं मंत्र कहा जाता है और जिसमें निम्रप्रकार पाँच गुण नहीं है, वह मंत्र न होकर केवल मुख की खुजली मिटाना मात्र है। १-देश व काल का विभाग, २–व्ययोपाय (विनिपात प्रतीकार), ३-उपाय ( कार्य-प्रारम्भ करने का उपाय ), ४-सहाय (पुरुष अ द्रव्य संपत्ति ) और ५–फल ( कार्यसिद्धि)। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री की मान्यता के अनुसार मन्त्र (मन्त्रियों के साथ किये ए विचार ) के पाँच अङ्ग होते हैं। १-कार्य प्रारम्भ का उपाय, २-पुरुष व द्रव्यसंपत्ति, ३-देश और काल का विभाग, ४-विनिपात प्रतीकार और ५–कार्यसिद्धि। १-कार्य-प्रारम्भ करने का उपाय-जैसे अपने राष्ट्र को शत्रुओं से सुरक्षित रखने के लिए समें साई, परकोटा ब दुर्ग-नादि निर्माण करने के साधनों पर विचार करना और दूसरे देश में शत्रुभूत | राजा के यहाँ सन्धि व विग्रह-आदि के उद्देश्य से गुप्तचर व दूत भेजना-आदि कार्यों के साधनों पर विचार | सना यह मन्त्र का पहला अङ्ग है। किसी नीतिकार ने कहा है कि 'जो पुरुष कार्य प्रारम्भ करने के । पूर्व ही उसकी पूर्णता का उपाय--साम पं दान आदि-नहीं सोचता, उसका वह कार्य कभी भी पूर्ण नहीं होता' ।। १ ।। ___२-पुरुष व द्रव्यसंपत्ति-अर्थात्-यह पुरुष अमुक कार्य करने में प्रवीण है, यह जानकर उसे उस कार्य में नियुक्त करना। इसीप्रकार द्रव्यसंपत्ति-कि इतने धन से अमुक कार्य सिद्ध होगा, यह क्रमशः पुरुषसंपत्' और 'द्रव्य-संपत्' नाम का दूसरा मन्त्राग है। अथवा स्वदेश-परदेश की अपेक्षा से प्रत्येक १. तपा च सोमदेवरि:-राज्यस्य मूलं क्रमो विकमश्च । २. तथा च शुमः-कमविझममूलस्य राज्यस्य यथा सरोः । समूलस्य भषे वृदिस्ताभ्यो हीनस्य संक्षयः ॥१॥ ३. तथा च शुकः-लौकिक व्यवहारं यः कुरुते नयवृद्धितः । तद्दया बिमायाति राग्य तत्र क्रमागतम् ।।१।। ४. आक्षेशलंकार । नीतिवाक्यामृत ( भा. टी.) पू. .७८ से संकलित-सम्पादक ५. तपा च सोमदेवरि:-"कर्मणामारम्भोपायः पुरुष व्यसंपत् देशकालविभागो विनिपातप्रतीकारः कार्यसिदिश्चेति पंचांगो मंत्रः ।। ६. तथा योक-कार्यारम्भेषु नोपायं तन्सिस्यर्थ च चिन्तयेत् । यः पूर्व तस्य नो सिद्धि तरकार्य याति कहिचित् ।।५।। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये के दो भेद होजाते हैं । उदाहरणार्थ- पुरुषसंपत्ति - अपने देश में दुर्ग आदि बनाने में विशेष चतुर बढ़ई व लुहार आदि और द्रव्यसंपत्ति-लकड़ी व पत्थर आदि । इसीप्रकार दूसरे देश में पुरुषसन्धियादि करने में कुशल दूत तथा सेनापति और द्रव्य - रत्न सुबर्ण ध्यादि । किसी नीतिकार' ने पुरुषसंपत्ति व द्रव्यसंपत्ति के विषय में कहा है कि 'जो मनुष्य अपने कार्यकुशल पुरुष को उस कार्य के करने में नियुक्त नहीं करता तथा उस कार्य के योग्य धन नहीं लगाता, उससे कार्य सिद्धि नहीं हो पाती ॥१॥ ३- देश और काल का विभाग - अमुक कार्य करने में अमुक देश व अमुक काल अनुकूल एवं अमुक देश व अमुक काल प्रतिकूल है, इसका विभाग ( बिचार ) करना मंत्र का तीसरा श्रङ्ग है । अथवा अपने देश में देश ( दुर्ग आदि बनाने के लिए जनपद के बीच का देश ) और काल - सुभिक्ष-दुर्भि ता वर्षा एवं दूसरे के देश में सन्धि आदि करने पर कोई उपजाऊ प्रवेश और काल - आक्रमण करने या न करने का समय - कहलाता है, इनका विचार करना - यह 'देशकालविभाग' नामका तीसरा मन्त्राङ्ग कहलाता है । किसी विद्वान् ने देश व काल के बारे में कहा है कि 'जिसप्रकार नमक पानी में डालने से नष्ट हो जाता है एवं जिसप्रकार मछली जमीन पर प्राप्त होने से नष्ट हो जाती है उसी प्रकार राजा भी खोटे देश को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है ॥ १ ॥ जिसप्रकार काक ( कौवा ) रात्रि के समय और उल्लू दिन के समय घूमता हुआ नष्ट हो जाता है उसीप्रकार राजा भी वर्षा काल आदि खोटे समय को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है । अर्थात्-वर्षा ऋतु आदि समय में लड़ाई करनेवाला राजा भी अपनी सेना को निस्सन्देह कष्ट में डाल देता है ॥ २ ॥ ४ – विनिपात प्रतीकार - आई हुई आपत्तियों के नाश का उपाय चिंतन करना । जैसे अपने दुर्ग आदि पर आनेवाले या आए हुए विन्नों का प्रतीकार करना यह मंत्र का 'विनिपातप्रतीकार' नाम का चौथा अङ्ग है । किसी विद्वान् ने प्रस्तुत मन्त्राङ्ग के विषय में कहा है कि 'जो मनुष्य आपति पड़ने पर मोह ( अज्ञान ) को प्राप्त नहीं होता एवं यथाशक्ति उद्योग करता है, वह उस आपत्ति को नष्ट कर देता है ॥ १ ॥ ५- कार्यसिद्धि-उन्नति, अवनति और सम अवस्था यह तीन प्रकार की कार्य-सिद्धि है। जिन धाम आदि उपायों से विजिगीषु राजा अपनी उन्नति, शत्रु की अवनति या दोनों की सम अवस्था को प्राप्त हो, यह 'कार्यसिद्धि' नामका पाँचवाँ मन्त्राङ्ग है। किसी विद्वान् ने कहा है कि 'जो मनुष्य साम, दान, दंड व भेद-आदि उपायों से कार्य सिद्धि का चितवन करता है और कहीं पर उससे विरक्त नहीं होता, इसका कार्य निश्चय से सिद्ध होजाता है । सारांश यह है कि विजिगीषु राजा को समस्त मन्त्री मण्डल के साथ उक्त पंचाङ्ग मन्त्र का विचार करते हुए तदनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिए। प्रकरण में- 'उपाय सर्वज्ञ' नामका नवीन मंत्री यशोधर महाराज से मन्त्रशाला में उक्त पश्चात मंत्र का स्वरूप निरूपण करता है और कहता है कि राजन् ! जिस मंत्र में उक्त पाँच अङ्ग या गुण पाये जायें, वही वास्तविक, मन्त्र है और १ तथा चोतं - समर्थ पुरुषं कृत्ये तदहं च तथा धनम् । योजयेत् यो न कृत्येषु तत्सिद्धिं तस्य नो भजेत् ॥ १ ॥ २. उतं च यतः यमात्र सैन्धवस्तोये स्थले मत्स्यो विनश्यति । शीघ्र तथा महीपालः कुदेशं प्राप्य सीदति ॥१॥ यथा काको निशाकाले कोशिकध दिवा चरन् । स विनश्यति कालेन तथा भूपो न संशयः ॥ २ ॥ ३. उकं च यत्तः--आपरकाले तु सम्प्रासे यो न मोहं प्रगच्छति । उद्यमं कुरुते शतया स तं नाशयति ध्रुषं ॥१॥ ४. तथा श्वो ं—सामादिभिस्पायैर्यः कार्यसिद्धि प्रचिन्तयेत् । न निवेंगं क्वचिद्याति तस्य तत् सिद्ध्यति ध्रुयं ॥१॥ नीतिवाक्यामृत मन्त्रिसमुद्देश ( भाषाटीका समेत ) ४० १६३-१६४ से संकलित - सम्पादक Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवीय आधासः २२६ मन्ना कार्यानुगो येको कार्य स्वामिहिसानुगम् । स एव मन्त्रिणो राशां न च ये गालफुल्लनाः ॥ ७० ॥ नुपस्तदर्थमुद्यच्छेदमस्या दीर्घसूत्रिताम् । मन्त्रक्रियान्यथा तस्य । निरथा कृपणेविच ॥ १ ॥ इने छोड़कर विना प्रकरण का विषय कहना यह तो अपने मुख को खुजली मिटाना मात्र है–निरर्थक है, क्योंकि उससे विजिगीषु राजा का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ॥६६॥ जिनका मन्त्र ( राजनैतिक निश्चित विचार) राजा की कार्य-सिद्धि-प्रयोजन सिद्धि-करनेवाला है एवं जो ऐसे कर्तव्य का अनुष्ठान करते है, जिससे राजा का कल्याण होता है, वे ही राजाओं के मन्त्री हैं और जो केवल वाग्जाल (वचनसमूह) बोलनेवाले हैं, के मंत्री नहीं कहे जासकते । भावार्थ प्रस्तुत श्लोक में 'उपायसर्वज्ञ' नामके नवीन मंत्री ने यशोधर महाराज के प्रति निम्न प्रकार नीतिशास्त्र में कहा हुश्रा मन्त्रियों का लक्षण प कर्तव्य निर्देश किया है।( प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री ने कहा है कि 'जो बिना प्रारम्भ किये हुए कार्य का प्रारम्भ करें, प्रारम्भ किये हुए कार्यों को पूरा करें और पूर्ण किये हुए कार्य में विशेषता लावें तथा अपने अधिकार का उचित स्थान में प्रभाव दिखाये, उन्ष्ट्र मन्त्री कहते हैं। शुक्र विज्ञान ने भी कहा है कि जो कुशल पुरुष राजा के समस्त कार्यों में विशेषता लाते हुए अपने अधिकार का प्रभाष दिखाने में प्रवीण हो, वे राजमंत्री होने के योग्य है, जिनमें उक्त कार्य सम्पन्न करने की योग्यता नहीं है, वे मंत्री पद के योग्य नहीं ॥शा इसीप्रकार मन्त्रियों के कर्तव्य के विषय में कहा है कि 'मन्त्रियों को राजा के लिए दुःख देना उत्तम है। अर्थात-यदि मंत्री भविष्य में हितकारक किन्तु तत्काल अप्रिय लगनेवाले ऐसे कठोर वचन बोलकर राजा को उस समय दुःखी करता है तो उत्तम है, परन्तु अकर्तव्य का उपदेश देकर राजा का नाश का बच्चा नहीं। अर्थात्-तत्काल प्रिय लानेवाले किन्तु भविष्य में हानिकारक वचन बोलकर अकार्य-नौति-विरुद्ध असत्कार्य का उपदेश देकर उसका नाश करना अच्छा नहीं। नारद विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है'७०हे राजन् ! राजा को काल चिलम्ब न करके (शीघ्र ही ) योग्य मन्त्रियों के साथ निश्रित किये हुए मन्त्र (राजनैतिक विचार) को कार्यरूप में परिणत करने के लिए उत्साह करना चाहिए । भन्यथा (काल-विलम्ब होजाने पर) राजा की मन्त्रक्रिया ( राजनैतिक विचार ) उसप्रकार निरर्थक होती है जिसप्रकार कृपणों ( कंजूसों ) की मन्त्रक्रिया ( वान देने का विचार ) निरर्थक होती है। अर्थात्-- कंजूस सोचते हैं कि हम इतना धन दान करेंगे परन्तु बाद में नहीं करते, अतः जिस प्रकार कंजूसों द्वारा की हुई मन्त्रकिया ( दान-विचार) कार्यरूप में परिणत न होने के कारण निरर्थक होती है उसीप्रकार + 'निरा सपणेष्टिव ह। A-'यया क्षपणः राजमन्त्रवातों करोति परन्तु संग्रामं न करोति तेन निरर्थ __ मन्त्रक्रिया तस्य' इति टिप्पणी । १. रूपकालद्वार । २. तथा च सोमदेवसूरि:-- तारम्भमारम्घस्याप्यनुष्ठानमनुछिसविशेष विनियोगसम्पदं च ये कुयुस्ते मन्त्रिणः । ३. तपा व शुक्रा--दर्शयन्ति विषं ये सर्वकर्मसु भूपतेः । खाधिकारप्रभावं च मैत्रिणस्तेऽन्यथा परे ॥१॥ ___ मोतिवाक्यामृत ( मन्त्रीसमुहश भाषाटीका-समेत ) पृ. १६३ से संकलित ४. सथा च सोमदेवसरि।-परं स्वामिनो वुःख न पुनरकार्योपदेशेन समिनाशः । ५. तथा च भारद!--वर पीकाकर वाक्यं परिणाममुस्तावह । मंत्रिणा भूमिपालस्य न मृष्टं यद्भयानकम् ।।१।। ६. जाति अलंकार नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीका-समेत ) पू. १५२-१५३ से संकलित-सम्पादक Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये स्वदेशः परदेशी वा मन्त्री भवतु भूभुजाम् । प्रारब्धकार्यनिर्वाहमुखसिद्धया प्रयोजनम् ॥ ४२ ॥ राजाओं की मंत्रक्रिया भी समय धूक जानेपर कार्यरूप में परिणत न होने के कारण निरर्थक होती है। अथवा पाठान्तर में जिसप्रकार क्षपण ( नभ दिगम्बर साधु ) राजनैतिक युद्ध-श्रादि की मन्त्रणा (विचार) करता है परन्तु युद्ध नहीं करता, अतः जिसप्रकार उसकी मन्त्रक्रिया निरर्थक होती है उसीप्रकार समय चूक जानेपर राजाओं को मन्त्रक्रिया निरर्धक होती है। भावार्थ-नीतिकार प्रस्तुत प्राचार्यश्री ने कहा है कि 'मन्त्र (विचार ) निश्चित होजाने पर विजिगीषु राजा उसे शीघ्र ही कार्यरूप में परिणत करने का यत्न करे, इसमें उसे आलस्य नहीं करना चाहिए।' नीतिकार कौटिल्य ने भी कहा है कि 'अर्ध का निश्चय करके उसे शीघ्र ही कार्यरूप में परिणत करना चाहिए समय को व्यर्थ विताना श्रेयस्कर नहीं।' शुक विद्वान्' ने भी कहा है कि 'जो मानव विचार निश्चित करके उसी समय उसका आचरण नहीं करता उसे मन्त्र का फल ( कार्यसिद्धि) प्राप्त नहीं होता' ॥१॥ प्रस्तुत आचार्य ने कहा है कि "जिसप्रकार औषधि के जान लेने मात्र से व्यरधियों का नाश नहीं होता किन्तु उसके सेवन से ही होता है उसीप्रकार विचार मात्र से राजाओं के सन्धि व चिग्रह-आदि कार्य सिद्ध नहीं हो सकते किन्तु मन्त्रणा के अनुकूल प्रवृत्ति करने से ही कार्य सिद्ध होते है"। नारद विद्वान् ने भी उक्त बात की पुष्टि की है ॥७१॥ हे राजन् ! राजाओं का प्रधान मंत्री चाहे अपने देश ( 'आर्याच-भारतवर्ष) का निवासी हो अथवा दूसरे देश का रहनेयाला हो, हो सकता है। क्योंकि राजाओं को तो प्रारम्भ किये हुए कार्य (सन्धि व विग्रह-आदि) के पूर्ण करने से उत्पन्न हुई सुख-प्राप्ति से ही प्रयोजन रहता है। अर्थात्-राजा का उक्त प्रयोजन जिससे सिद्ध होता हो, वह चाहे स्वदेशवासी हो या परदेशवासी हो, मंत्री हो सकता है। उदाहरणार्थ-हे राजन् ! अपने शरीर में उत्पन्न हुआ रोग दुःखजनक होता है और वन में उत्पन्न हुई जड़ी-बूटी-आदि औषधि सुख देती है। अर्थात- बीमारी को नष्ट करती हुई श्रारोग्यतारूप सुख उत्पन्न करती है, इसलिए पुरुषों के गुण ( सदाचार, कुलीनता, व्यसन-शून्यता, स्वामी से द्रोह न करते हुए उसके कार्य की सिद्धि करना, नीतिज्ञता, युद्धकला-प्रवीणता व निष्कपटता-आदि : कार्यकारी (प्रयोजन सिद्धि करनेवाले ) होते हैं। अपनी जाति या दूसरी जाति का विचार पक्ति भोजन के अवसर पर होता है परन्तु राजनीति के प्रकरण में तो दूसरे से भी कार्यसिद्धि करा लेनी चाहिए। क्योंकि जिसप्रकार जंगली जड़ी-बूटी-श्रादि श्रीपधि बीमारी के ध्वंस द्वारा आरोग्यतारूप सुख उत्पन्न करती है उसीप्रकार परदेश का १. तथा च सोमदेवरि:- उद्धृतमन्त्रो न दीर्घसूत्रः स्यात् ॥१॥ नीतिवाक्यामृत मानसमुश सूत्र ४२ । २. तथा च कौटिल्यः- भवामार्थः कालं नातिक्रमेत ॥१॥ कौटिल्य अर्थशास्त्र मन्त्राधिकार सूत्र ५० । ३. तथा च शुक्रः--यो मंत्र मंत्रयित्वा तु नानुष्ठानं करोति च । तत्क्षणात्तस्य मन्त्रस्य जायते नात्र संशयः ॥१॥ नौतिवाक्यामृत पृ. १६९ से संकलित-सम्पादक ४. तथा च सोमदेवसूरिः-न पौषत्रिज्ञानादेव घ्याधिप्रशमः ॥१॥नौतिवाक्यात मन्त्रिसमुहेश सूत्र ४४ ५. तथा च भारद--विज्ञायते भैषजे यात विना भक्षं न नश्यति । व्याधिस्तथा च मंत्रेऽपि न सिरः कृत्य वर्जिते ॥ नीतिवाक्यामृत पू. १६५-१७. से संगृहौल-सम्पादक ६. उपमालंकार। --.-." Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ तृतीय आश्वासः दुःखाय देहजो व्याधिः सुखाय वनौषधिः । गुणाः कार्यकृतः पुंसां भोजने स्वपरक्रियाः ॥ ७३ ॥ निवासी निष्पक्षता आदि गुणों से विभूषित हुआ गुणवान् व्यक्ति भी राज्य संचालन आदि में सहायक होता हुआ मंत्री हो सकता है । विशद विवेचन एवं विमर्श – यहाँपर 'उपायसर्वज्ञ' नामका मन्त्री राजसभा में यशोधर महाराज से कह रहा है कि राजाओं को मन्त्री की सहायता से आरम्भ किये हुए कार्य ( सन्धि व त्रिमह आदि ) पूर्ण करके सुख प्राप्तिरूप प्रयोजन सिद्ध करना पड़ता है, अतः वह प्रयोजन जिससे सिद्ध हो सके वह चाहे स्वदेशवासी हो या परदेशवासी हो, मन्त्री हो सकता है। क्योंकि अपनी जाति या परजाति का विचार पक्तिभोजन की बेला में किया जाता है न कि राजनीति के प्रकरण में। तत्पश्चात् उसने विशेष मनोज व हृदयस्पर्शी उदाहरणों ( शारीरिक व्याधि दुःखद्देतु व जंगली जड़ी-बूटी रोगध्वंस द्वारा सुखहेतु है ) द्वारा उक्त विषय का समर्थन किया है परन्तु प्रस्तुत शानकर्ता आचार्यप्रवर श्री मत्सोमदेवसूरि ने अपने ही दूसरे नीव के गुओं का निर्देश करते समय 'स्वदेशवासी' गुण का भी विशेष महत्वपूर्ण समर्थन किया है। नीतिवाक्यामृत में आचार्य श्री' ने लिखा है कि "बुद्धिमान राजा को या प्रजा को निम्नप्रकार गुणों से विभूषित प्रधान मन्त्री नियुक्त करना चाहिए । जो द्विज-- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवरण में से एक वर्ण का हो किन्तु शुद्ध न हो, अपने देश ( आर्यावर्त - भारतवर्ष ) का निवासी हो किन्तु विदेश का रहनेवाला न हो। जो सदाचारी हो- दुष्कर्मो में प्रवृत्ति करनेवाला न हो किन्तु पवित्र याचरण-शाली हो । जो कुलीन हो- जिसके माता और पिता का पक्ष ( वंश ) विशुद्ध हो ( जो कि विवाहित समान वर्णवाले माता-पिता से उत्पन्न हो ) । जो जुश्रा, मद्यपान व परस्त्री सेवन आदि व्यसनों से दूर हो। जो द्रोह करनेवाला न हो-जो दूसरे राजा से मिला हुआ न होकर, केवल अपने स्वामी में हो श्रद्धा युक्त हो । जो व्यवहार बिया में निपुण हो। जिसने समस्त व्यवहारशास्त्रों- नीतिशाओं के रहस्य का अध्ययन-मनन किया हो। जो युद्धविद्या में निपुण होता हुआ शत्रु-चेष्टा की परीक्षा में प्रवीण हो अथवा समस्त प्रकार के छल-कपट से रहित हो । जाननेवाला होने पर भी स्वयं कपट करने वाला न हो । अभिप्राय यह है नौ गुणों से विभूषित होना चाहिए । अर्थान् — दूसरे के कपट को कि प्रधान मन्त्री निम्रप्रकार १. द्विज, २. स्वदेशवासी, ३. सदाचारी, ४. कुलीन, ५, व्यसनों से रहित, ६. स्वामी से द्रोह न करनेवाला, ७ नीतिज्ञ, ८. युद्धविद्या-विशारद और ९. निष्कपट । उक्त गुणों में से 'स्वदेशवासी' गुण का समर्थन करते हुए प्रस्तुत माचार्य श्रीमत्सोमदेवसूरि * उक्त ग्रंथ में लिखा है कि 'समस्त पक्षपातों में अपने देश का पक्षपात प्रधान माना गया है' एवं हारीत विद्वान ने भी लिखा है कि 'जो राजा अपने देशवासी मन्त्री को नियुक्त करता है, वह आपत्तिकाल आने पर उससे मुक्त हो जाता है'। अभिप्राय यह है कि राज सचित्र के उक्त ९ गुणों में से 'अपने देश का निवासी गुण की महत्वपूर्ण विशेषता है; क्योंकि दूसरे देश का मन्त्री अपने देश का पक्ष करने के कारण १. सथा च सोमदेवसूरिः — 'ब्राह्मणक्षत्रियविशा मेकतमं स्वदेशजमाचाराभिजन विशुद्धमन्य सनिनमन्यभिचारिणम धौताखिलव्यबहारतन्श्रमस्त्रशमशेषोपाधिविशुद्ध च मन्त्रिणं कु ॥ १. तथा व सोमदेवसूरिः समस्तपक्षपातेषु स्वदेशपक्षपातो महान्‍ ३, तथा च हारीत: 'स्वदेशजनमास्यं यः कुरुते पृथिवीपतिः । आपत्कालेन सम्प्राप्तेन स तेन विमुच्यते ||१|| Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मन्त्राश्रित श्रीणां शत्रवुन किं फलम् । को नाम कमारोह सम्म ४४ ॥ कभी राज्य का अहित भी कर सकता है, अतएव मन्त्री को अपने देश का निवासी होना आवश्यक है । प्राकरणिक विमर्श-युक्त प्रवचन यह है कि जब एक ही आचार्य ने प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू' में प्रधान मंत्री का स्वदेशवासी गुण गौण या उपेक्षित किया और अपने नीतिवाक्याभ्रत में स्वदेशवासी गुण का समर्थन किया तब उसके कथन में परस्पर विरोध प्रतीत होता है परन्तु ऐसा नहीं है, अर्थात् इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि नीतिवाक्यामृत में आचार्यश्री की दृष्टि प्रधान मन्त्री के गुण-निरूपण की रही है और प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू' में सन्धि व विग्रह आदि प्रयोजन-सिद्धि की मुख्यता रखते हुए कहा है कि आरम्भ किये हुए सन्धि व विग्रहादि कार्यों के निर्वाह ( पूर्ण करना ) द्वारा राजाओं की सुखप्राप्ति रूप प्रयोजन सिद्धि करनेवाला मंत्री हो सकता है, चाहे वह स्वदेश का निवासी हो अथवा विदेश का रहनेवाला हो । अतः भिन्न २ दृष्टिकोणों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न प्रकार का निरुपण हुआ है, इसमें विरोध कुछ नहीं है -२ १। ७२०७३ ।। हे राजन! मन्त्र- ( राजनैतिक सलाह ) युद्ध द्वारा लक्ष्मी ( राज्य-विभूति ) प्राप्त करनेवाले राजाओं को शस्त्र युद्ध करने से क्या प्रयोजन है ? अपितु कोई प्रयोजन नहीं है । उदाहरणार्थ- मन्दार वृक्ष पर ही मधु प्राप्त करनेवाला कौन बुद्धिमान पुरुष पर्वत पर चढ़ेगा ? अपितु कोई नहीं । अर्थात्जिसप्रकार मधु का इच्छुक बुद्धिमान पुरुष जब मन्दार वृक्ष पर मधु प्राप्त कर लेता है तब उसकी प्राप्ति के लिए पर्वत पर नहीं चढ़ता उसीप्रकार लक्ष्मी के इच्छुक राजा लोग जब मन्त्र-युद्ध द्वारा लक्ष्मी प्राप्त कर लेते हैं तब वे उसकी प्राप्ति हेतु शस्त्र युद्ध में क्यों प्रवृत्त होंगे ? अपितु नहीं प्रवृत्त होंगे। भाषार्थप्रस्तुत आचार्यश्री ने अपने 'नीति वाक्यामृत' में कहा है कि 'परस्पर वैर-विरोध न करनेवाले ( प्रेम और सहानुभूति रखनेवाले ) एवं हँसी मजाक- आदि स्वच्छन्द वार्तालाप न करनेवाले सावधान मंत्रियों द्वारा जो मन्त्रणा ( राजनैतिक सलाह ) की जाती है, उससे अल्प उपाय द्वारा उपयोगी महान कार्य ( राज्यांदि लक्ष्मी) की सिद्धि होती है यही मंत्र माहात्म्य है । नारद" विद्वान् ने भी कहा है कि “सावधान (बुद्धिमान् ) राजमंत्री एकान्त में बैठकर जो षाङ्गण्य ( सन्धि व विग्रहादि ) संबंधी मन्त्ररणा करते हैं, उसके फलस्वरूप वे राजा के महान कार्य (संधि विप्रादि बाgra ) को बिना क्लेश के सिद्ध कर डालते हैं" ॥१॥ इसीप्रकार हारीत विद्वान् ने कहा है कि 'राजा जिस कार्य को शुद्ध करके अनेक कष्ट उठाकर सिद्ध करता है, उसका वह कार्य मन्त्र शक्तिरूप उपाय से सरलता से सिद्ध होजाता है, अतः उसे मन्त्रियों के साथ अवश्य मन्त्रणा करानी चाहिए' ॥ १ ॥ निष्कर्ष - प्रकरण में 'उपायसर्वश' नाम के मंत्री ने यशोधर महाराज के प्रति उक्त दृष्टान्त द्वारा शस्त्र युद्ध की अपेक्षा मन्त्र-युद्ध की महत्वपूर्ण विशेषता निरूपण की ॥१७४॥ १. अर्थान्तरन्यास अलंकार । २. दृष्टान्तालंकार । ३. तथा च सोमदेवसूरिः - अविरुद्ध रखे रैर्विहितो मंत्रो लघुनोपायेन महतः कार्यस्य सिद्धिर्मन्त्रफलम् । ४. तथा च नारदः सावधानारच ये मंत्रं च रेकान्तमाश्रिता: । साधयन्ति नरेन्द्रस्य कृत्यं क्लेशविवर्जितम् ॥ १॥ ५. तथा च हारीतः — यत्कार्यं साधयेद् राजा क्लैशैः संग्रामपूर्वकः । मन्त्रेण सुखसाच्यं तत्तस्मान्मंत्र प्रकारयेत् ॥ १ ॥ नीतिवाक्यामृत ( भा. टी.) पू. १७१ १७२ से संकलित - सम्पादक ६. आपालंकार व दृष्टान्तालंकार Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवास: अस्था निजदेशस्य रक्षां यो विजिगीषते । स नृपः परिधानेन वृत्तमौलिः पुमानिव ॥ ७५ ॥ नरस्योपायमूहस्य सुधा भुजविजृम्भितम् । शराः किं व्यस्तसंघानाः साधयन्ति मनीषितम् ॥ ७६ ॥ अयं लघुर्महानेष न चिन्ता नयवेदिनु । नद्याः पूरवाद्यान्ति समं तीरतृणद्रुमाः ॥ ७७ ॥ I २३३ हे राजन! [ सबसे पहले राजा को अपने राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए ] क्योंकि जो राजा अपने राष्ट्र की रक्षा न करके दूसरा देश ग्रहण करने की इच्छा करता है, वह उसप्रकार हँसी व निन्दा का पात्र होता है। जिसप्रकार अन्य वख ( धोती) उतारकर उसके द्वारा अपना मस्तक वेष्टित करनेवाला ( साफा बाँधनेयाला ) मानव हँसी व निन्दा का पात्र होता है। भावार्थ- नीतिकार प्रस्तुत आचार्य श्री ने कहा है कि 'जो राजा स्वदेश की रक्षा न करके शत्रुभूत राजा के राष्ट्र पर आक्रमण करता है, उसका यह कार्य नंगे को पगड़ी बाँधने सरीखा निरर्थक है । अर्थात् – जिसप्रकार नंगे को पगड़ी बाँध लेने पर भी उसके नंगेपन की निवृत्ति नहीं हो सकती उसीप्रकार अपने राज्य की रक्षा न कर शत्रु-देश पर हमला करनेवाले राजा का भी संकटों से छुटकारा नहीं हो सकता । विदुर" विद्वान् के उद्धरण का अभिप्राय यह है कि "विजिगीषु को शत्रु राष्ट्र नष्ट करने के समान स्वराष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए ॥१॥ निष्कर्ष - प्रस्तुत 'उपाय सर्वज्ञ' मंत्री उक्त उदाहरण द्वारा यशोधर महाराज को सबसे पहिले अपने राष्ट्र की रक्षा करने के लिए प्रेरित कर रहा है ३ ॥७५॥ हे राजन् ! [विजिगीषु राजा को शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने के उपायों-साम व दानआदि का ज्ञान होना आवश्यक है ] क्योंकि विजयश्री के उपायों (साम, दान, दण्ड व भेदरूप तरीकों ) को न जाननेवाले विजिगीषु राजा की भुजाओं की शक्ति निरर्थक है— विजयश्री प्राप्त करने में समर्थ नहीं होसकती । उदाहरणार्थ - धनुष पर न चढ़ाए हुए कर क्या करने में समर्थ होसकते हैं ? अपि तु नहीं होसकते । श्रर्थात् जिसप्रकार धनुष पर न चढ़ाए हुए बारा लक्ष्य भेद द्वारा मनचाही विजयश्री प्राप्त नहीं कर सकते उसीप्रकार साम व दान आदि शत्रु विनाश के उपाय को न जाननेवाले विजिगीषु राजा की भुजाओं की शक्ति भी शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त नहीं कर सकती। भावार्थ - प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री ने साम व दान आदि विजयश्री के उपायों का माहात्म्य निर्देश करते हुए कहा है कि 'साम व दान आदि नैतिक उपायों के प्रयोग में निपुण, पराक्रमी एवं जिससे अमात्य आदि राज कर्मचारीगण व प्रजा अनुरक्त है, ऐसा राजा अल्प देश का स्वामी होने पर भी चक्रवर्ती- सरीखा निर्भय माना गया है। प्रकरण में प्रस्तुत मन्त्री यशोधर महाराज के प्रति कहता है कि राजन् ! साम आदि उपाय न जाननेवाले विजिगीषु राजा की भुजाओं की शक्ति उसप्रकार निरर्थक है जिसप्रकार धनुष पर न चढ़ाए हुए बारा निरर्थक होते हैं" ।। ७३ ।। हे राजन् ! राजनीति वेत्ताओं को इसप्रकार की चिन्ता नहीं होती कि यह शत्रु हीनशक्ति युक्त है और अमुक शत्रु महाशक्तिशाली है। क्योंकि नदी का पूर ( प्रवाह ) आने से उसके तटवर्ती वृक्ष व घास एक साथ थक कर गिर जाते हैं । अर्थात् — जिसप्रकार नदी का पूर उसके तटवर्ती वृक्ष व घास को एक साथ गिरा देता है उसीप्रकार नीतिवेत्ताओं के साम व दानादि उपायों द्वारा भी हीन शक्ति व १. तथा च सामदेवसूरि :- स्वमण्डलमपरिपालयतः परदेशाभियोगो विसनस्थ शिरोवेष्टनमिव ॥१॥ २. तथा च विदुरः—य एव यत्नः कर्तव्यः परराष्ट्र विमर्धने । स एवं यत्नः कर्तव्यः स्वराष्ट्रपरिपालने ॥१५ ३. उपमालंकार | नीतिवाक्यामृत (भा. टी.) व्यवहार समुद्देश प्र. ३७५ से संग्रहीत - सम्पादक ४. तथा च सोमदेवसूरिः — उपायोपपाचिकमोऽनुरकप्रकृतिरस्पदेशोऽपि भूपतिर्भवति सार्वभौमः । नीतिवाक्यामृत व्यवद्दारसमुद्द ेश्च सूत्र ७८ ( भा. टी.) पृ. ३७८ से संकलित - सम्पादक ५. आपालंकार | ३० Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये ताह एक हम्यान वा इन्यादिषुः क्षिप्तो धनुष्मता। प्राज्ञेन तु मतिः क्षिप्ता इत्यागर्भगतानपि ।। ४८ ॥ महान शक्तिशाली शत्रु भी नष्ट कर दिये जाते हैं, अतः उन्हें हीन-शक्ति व महाशक्ति-शाली शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने की चिन्ता नहीं होती। भावार्थ उक्त विषय पर प्रस्तुत नीतिकार आचार्यश्री, शुक्र एवं गुरु विद्वानों के उद्धरणों का भी यही अभिप्राय है ॥ ७॥ धनुर्धारी पुरुष द्वारा फैका हुआ याण एक शन्न का घात करता है अथवा नहीं भी करता परन्तु नीतिवेत्ता द्वारा प्रेरित की हुई बुद्धिशक्ति तो गर्भस्थ शत्रुओं का भी घात कर देती है। पुनः सामने वर्तमान शत्रुओं के घात करने के बारे में तो कहना ही क्या है। अर्थात्- उनका बात तो अवश्य ही कर डालती है। भावार्थ-यहाँपर 'उपायसर्वज्ञ' नाम का मंत्री यशोधर महाराज के प्रति प्रस्तुत नीतिकार" द्वारा कही हुई निन्नप्रकार की विजिगीषु राजाओं की तीन शक्तियों ( मन्त्रशक्ति, प्रभुशक्ति व उत्साहशक्ति) में से मन्त्रशक्ति व प्रभुशक्ति का विवेचन करता हुआ उनमें से मन्त्रशक्ति (ज्ञानबल) की महत्वपूर्ण विशेषता का दिग्दर्शन करता है। ज्ञानबल को 'मंत्रशक्ति' कहते हैं और जिस विजिगीषु के पास विशाल खजाना व हाथी, घोड़े, रथ व पैदलरूप चतुरङ्ग सेना है, यह उसकी 'प्रभुत्वशक्ति' है तथा पराक्रम व सैन्य शक्ति को 'उत्साहशक्ति' कहते हैं एवं प्रभुशक्ति ( शारीरिक बल ) की अपेक्षा मन्त्रशक्ति (बुद्धिबल) महान सममी आती है। प्रस्तुत नीतिकार ने कहा है कि जिसप्रकार नीतिज्ञों की बुद्धियाँ शत्रु के उन्मूलन करने में समर्थ होती है उसप्रकार. वीर पुरुषों द्वारा प्रेषित किये हुए बाण समर्थ नहीं होते । गौतम विद्वान का उद्धरण भी तीक्ष्ण वारणों की अपेक्षा विद्वानों की बुद्धि को शत्रु-वध करने में विशेष उपयोगी बताता है। प्रस्तुत नीतिकार ने लिखा है कि 'धनुर्धारियों के बाण निशाना बाँधकर चलाए हुए भी प्रत्यक्ष में वर्तमान लक्ष्यभेद करने में असफल होजाते हैं परन्तु बुद्धिमान् पुरुष युद्धिबल से विना देखे हुए पदार्थ भी भलीभाँति सिद्ध कर लेता है। शुक्र" विद्वान् का उद्धरण भी बुद्धिवल को अष्टकार्य में सफलताजनक बताता है।॥ १॥ १. तथा च सोमदेवसूरि:--माल्पं महद्वापशेफोपायज्ञस्य । नदीपूरः सममैवोन्मूलयति तौरजतृणाहिपान् ।। १. तथा च शुक्रः वश्चौपायान् विजानाति शत्रूणां पृथिवीपतिः । तस्याग महान् शत्रुस्तिष्ठते न फुतो लघुः ॥५॥ ३. तथा च गुरु-पार्थिवो मृदुवाक्थैर्यः शत्रुनालापयेत् सुधीः । नाशं नयेच्छनैरतांश्च तौरजान सिन्धुपूरवत् ॥१॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीका-समेत ) पृ. २०२-२०३ से संकलित–सम्पादक ४. हष्टान्तालंकार । ५. तथा च सोमदेवरिः-ज्ञानबलं मन्त्रशक्तिः ॥१॥ कोशदण्डबलं प्रभुशक्तिः ॥२॥ विक्रमो बलं चोत्साहन शक्तिस्तत्र रामो दृष्टान्तः ।।३।। ६. तथा च सोमदेवसूरि:-बुद्धिशक्तिरात्मशोरपि गरीयसी ।।४।। ५. तथा च सोमदेवसूरि:-न तथेषधः प्रभवन्ति यथा प्रशायता प्रज्ञाः १५11 ८. तया च गौतमः-न तथात्र शसस्तीक्ष्णाः समर्थाः स्यूरिपोर्वधे। यथा बुद्धिमता प्रशा तरमात्तां सन्नियोजनेत ।।१।। नीतिवाक्यामत (भाषादीका-समेत ) पृ. ३७३-३४४ से संकलित--सम्पादक ९. तथा च सोमदेवसूरि:-दृष्टेऽप्यर्थे सम्भवन्त्यपराखेपको धनुष्मताऽष्टमर्थ साधु साधयांत प्रज्ञावान् ॥१॥ १०. तया च शुकः--धानुष्कस्य शरो व्यर्थों दृष्टे लक्ष्येऽपि याति च । अदृष्टान्यपि कार्याणि बुद्धिनान् सम्प्रसाधयेत् ॥१॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ सृतीय आधासः न्या भषि धियो यान्सि पुसा भोक्तुमजानताम् । अबदाः कुञ्जरेन्द्राणां पुलाका हव हस्तगाः ॥ ९॥ निजवंशैकदीपस्य वैरं सापस्मर्ज न ते। चतुरन्तमहीनाधे त्वयि तमिज कुतः ॥ ६ ॥ सोमदेवसूरि' लिखते हैं कि महाकवि श्रीभवभूति-विरचित 'मालतीमाधव' नामक नाटक में लिखा है कि माधब के पिता 'देवराव' ने बहुत दूर रहकर के भी 'कामन्दकी' नाम की सन्यासिनी के प्रयोग द्वारा ( उसे मालती के पास भेजकर ) अपने पुत्र 'माधव' के लिए 'मालती' प्राप्त की थी, यह देवरात की बुद्धिशक्ति का ही अनोखा माहात्म्य था । विद्वानों की बुद्धि हो शत्रु पर विजयश्री प्राप्त करने में सफल शस्त्र मानी जाती है। क्योंकि जिसप्रकार पत्र के प्रहार से ताड़ित किए हुए पर्वत पुनः उत्पन्न नहीं होते उसीप्रकार विद्वानों की बुद्धि द्वारा जीते गए शत्र भी पुनः शत्रुता करने का साहस नहीं करते। गुरु विद्वान् ने भी बुद्धिशव को शत्रु से विजयश्री प्राप्त कराने में सफल बताया है। प्रकरण में प्रस्तुत मंत्री यशोधर महाराज से बुद्धिबल का माहात्म्य निर्देश करता है ।।४।। राजन् ! धनादि सम्पत्तियों का उपभोग न जाननेवालों की प्राप्त हुई भी सम्पत्तियाँ उसप्रकार नष्ट होजाती हैं जिसप्रकार श्रेष्ठ हाथियों की सूंड पर स्थित हुई क्षुद्र घण्टिकाएँ तृण-आदि की रस्सियों के बन्धनों के बिना नष्ट होजाती है। अर्थात्-शिथिल होकर जमीन पर गिर जाती है। भाषार्थ—प्रस्तुत नीतिकार* ने कहा है कि लोभी का संचित धन राजा, कुटुम्बी या चोर इनमें से किसी एक का है। बल्लभदेव विद्वान् ने लिखा है कि पात्रों को दान देना, उपभोग करना और नाश होना, इसप्रकार धन की तीन गति होती है। अतः जो व्यक्ति न तो पात्र दान करता है और न स्वयं तथा कुटुम्ब के भरण पोषण में धन खर्च करता है, उसके धन की तीसरी गति निश्चित है। अर्थात्-उसका धन नष्ट होजाता है। प्रकरण में प्रस्तुत मत्री यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! श्रेष्ठ हाथियों को बन्धन-हीन क्षुद्र घण्टिकाओं की तरह लोभी का धन नष्ट हो जाता है' ॥७६ ।। हे राजन् ! आप अपने घंश को प्रकाशित करने के लिए अकेले दीपक हैं। अर्थात्-अपने माता-पिता ( यशोधू महाराज प चन्द्रमती रानी ) के इकलौते पुत्र हैं, इसलिए आपके पास सापत्लज वर ( दूसरी माता से उत्पन्न हुए पुत्र की शता) नहीं है। इसीप्रकार जब श्राप चारों समुद्रों पर्यन्त पृथिवी के स्वामी है सब आपमें पूथिषी संबंधी शत्रुता भो किस प्रकार हो सकती है ? अपितु नहीं हो सकती || १. तथा च सोमदेवरिः-श्रूयते हि किल दूरस्थोऽपि माधवपिता कामन्दकीयप्रयोगेण माधयाय मालती साधयामास 1 २. तथा व सोमदेवरि:-प्रशा स्वमो शस्त्रं कुशल मुखीनो ॥१॥ प्रशाहताः कलिशहता इव न प्रादुर्भवन्ति भूमिमतः ॥२॥ ३. तपा च गुरु:--प्रशासस्त्रममोघं च विज्ञानाद् बुद्धिरूपिणी । तया इता न जायन्ते पर्वता इस भूमिपाः ॥१॥ ४. दीपफाटेकार । नीतिमायामृत (भाषाटीका-समेत) पृ. ३०६-३८७ (युदसमुश) से संकलित--सम्पादक ५. तया च सोमदेवरिः--कदर्यस्यार्थसंग्रहो राजदापादतस्कराणामन्यतमस्य निधिः ॥१॥ ६. तथा च वल्लभदेवः-दानं भोगो नास्तिनो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुरके तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥१॥ नौतिवाक्यामृत ( भागटीका-समेत ) पू. ४८ से संकलित-सम्पादक ५. उपमालंकार। 4. हेतु अलवार व आक्षेपालबार । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये न स्वयि तीजमप्येतस्परनारीसहोरे । नयविक्रमसंपन्ने र नाम्प्रदापि स्वधि ॥ १ ॥ उदयः समता हानिम्त्यः कामा महीभुजाम। तत्राय एवं योद्धज्यं स्थातव्यमुभयोः पुनः ॥ ८ ॥ हे राजन् ! जब आप परस्त्री के लिए बन्धु सरीखे हैं। अर्थात्-जब श्राप दूसरों की स्त्रियों के साथ बहिन का बर्ताव करते हैं तब श्राप के प्रति कोई परस्त्री संबंधी शत्रुता भी नहीं करता एवं जब आप नीति (गजनैतिक झान व सदाचार सम्पत्ति) से अलङ्कत तथा पराक्रम-शाली है तब आप में दूसरे के धन प्रण-आदि से होने वाली दूसरी शत्रुता भी नहीं है।' भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार सोमदेवसूरि' ने कहा है कि 'सदाचार लक्ष्मी राज्यलक्ष्मी को चिरस्थायी बनाने में कारण है। शुक्रविदान' के उद्धरण का अभिप्राय है कि 'जो राजा अपने नैतिक ज्ञान की वृद्धि करता हुआ लोकव्यवहार-सदाचार में निपुण है, उसके क्रमागत राज्य की श्रीवृद्धि होती है। प्रस्तुत नातिकार ने कहा है कि 'जो राजा कम-नाति ( सदाचार व राजनैतिक ज्ञान) और पराक्रम ( सैनिकशक्ति ) इनमें से केवल एक ही गुण प्राप्त करता है उसका राज्य नष्ट होजाता है। शुक्र विद्वान् ने कहा है कि 'जो राज्य जल के समान (जिसप्रकार पाताल में स्थित हुआ जल यंत्र द्वारा खींच लिया जाता है) पराक्रम से प्राप्त कर लिया गया हो परन्तु बुद्धिमान् राजा जब उसे नष्ट होता हुआ देखे तब उसे राजनीति ( सन्धि, विग्रह, यान ष श्रासन-श्रादि एवं सामादि उपायों) से उसे पूर्व की सरह सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिए।' नारद के उद्धरण का अभिप्राय यह है कि 'जो राजा पराक्रम-हीन होने के कारण युद्ध से विमुख हो जाता है, उसका कुल परम्परा से चला आ रहा राज्य नष्ट हो जाता है। प्रकरण में प्रस्तुत मंत्री यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! जब आप उक्त नीतिशास्त्रोक्त प्रशस्त गुणों-नय (राजनैतिक ज्ञान व सदाचार सम्पत्ति ), पराक्रम एवं परस्त्री के प्रति भगिनीभाव (जितेन्द्रियता) से विभूषित है तब आप के प्रति अनीति से उत्पन्न हुई किसी प्रकार की शत्रुता कौन रख सकता है। निष्कर्ष जब आप स्वयं निष्कण्टक ( शत्रु-हीन ) हैं तब श्रापका राज्य भी निष्कण्टक है एवं उसका कारण आपका राजनैतिक झान व सदाचार सम्पत्ति तथा पराक्रम शक्ति है' ॥१॥ हे राजन् ! विजिगीषु राजाओं के सन्धि व विप्रह-आदि के सूचक तीन काल ( अवसर) होते हैं। १-उदयकाल, २-समताकाल और ३-हानिकाल । -उदयकाल-जब विजिगीषु राजा शत्रुभूत राजा की अपेक्षा प्रभुशक्ति ( सैन्यशक्ति व खजाने की शक्ति), मंत्रशक्ति ( राजनैतिक ज्ञान की सलाह ) व उत्साहशक्ति ( पराक्रम व सैन्य-संगठन ) से अधिक शक्तिशाली होता है तब उसका वह 'उदयकाल' समझा जाता है। २-समताकाल-वह १. तया च सोमदेव सूरः-आचारसम्पत्ति कमसम्पतिं करोति ॥१॥ २. तया च शुक्र:-लोचित व्यवहारं यः कुरुते नयवृदितः । तवया वृद्धिमायाति राज्यं तत्र क्रमागतम् ॥१॥ ३. तया च सोमदेवरि:-क्रमविक्रमयोरन्यत्त रपरिग्रहेण राज्यस्य दुष्करः परिणाम: ॥१॥ ४, तथा च शुक्र:-राज्य हि सलिलं यद्वयरलेन समाइतम् । भूयोपे तसतोऽभ्येति लरुश्रा कालस्य संक्षयम् । ॥१॥ ५. सपाच नारदः-पराक्रमच्युतो यस्तु राजा संग्रामकातरः । अपि क्रमागतं तस्य नाशं राज्य प्रगच्छति ॥१॥ नौतिवाक्यामृत ( भाषाका-समेत ) पृ. ७३.५४ से संकलित-सम्पादक ६. रूपकालकार व हेतु-बलकार। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवास: २३७ है जब विजिगीषु की और शत्रुराजा की उक्त तीनों शक्तियों समान होती हैं और ३--दानिकाल-वह है जब विजिगीषु शत्रुभूत राजा से उक्त तीनों शक्तियों में हीनशक्तिवाला होता है। विजिगीषु को उक्त तीनों कालों में से पहिले उदयकाल में ही शत्रुराजा से युद्ध करना चाहिए। अर्थात् — जब विजिगीषु राजा शत्रुराजा से सैन्यशक्ति, खजाने की शक्ति व पराक्रम आदि से विशेष शक्तिशाली हो तब उसे शत्रुराजा से युद्ध करना चाहिए और बाकी के दोनों कालों में समता व हानिकाल में- युद्ध नहीं करना चाहिए । भाषार्थ - - प्रस्तुत नीतिकार ने कहा है कि 'जो विजिगीषु शत्रु की अपेक्षा उक्त तीनों प्रकार को शक्तियों (प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति व उत्साहशक्ति) से अधिक शक्तिशाली है, वह उदयशाली होने के कारण श्रेष्ठ है; क्योंकि उसकी युद्ध में विजय होती है और जो उक्त तीनों शक्तियों से हीन है, वह जघन्य है, क्योंकि वह शत्रु से परास्त हो जाता है एवं जो उक्त तीनों शक्तियों में शत्रु के सदृश है, वह 'सम' है उसे भी शत्रुराजा से युद्ध नहीं करना चाहिए। गुरु विद्वान् का उद्धरण भी समान शक्तिवाले विजिगीषु को युद्ध करने का निषेध करता है। शत्रुराजा से हीनशक्तिवाले और अधिक शक्तिशाली विजिगीषु का कलस्य निर्देश करते हुए प्रस्तुत नीतिकार ने क्रमशः लिखा है कि 'हीनशक्तिवाले विजिगीषु को शत्रुराजा के लिए आर्थिक दंड देकर सन्धि कर लेनी चाहिए जब कि उसके द्वारा प्रतिज्ञा की हुई व्यवस्था में मर्यादा का उल्लंघन न हो । अर्थात् - शपथ - श्रादि खिलाकर भविष्य में विश्वासघात न करने का निश्चय करने के उपरान्त ही सन्धि करनी चाहिए अन्यथा नहीं ||१|| शुक्र * विद्वान ने भी हीनशक्तिवाले विजिगीषु को शत्रुराजा के लिए आर्थिक दंड देकर सन्धि करना बताया है || १|| यदि विजिगीषु शत्रुराजा से सैन्य य कोशशक्ति आदि में अधिक शक्तिशाली है और यदि उसकी सेना में क्षोभ नहीं है तब उसे शत्रु से युद्ध छेड़ देना चाहिए " ||१|| गुरु विज्ञान ने भी वलिष्ठ, विश्वासपात्र म विशेष सैन्यशाली विजिगीषु को युद्ध करने का निरूपण किया है। यदि विजिगीषु शत्रु द्वारा अपनी भविष्य की कुशलता का निश्चय कर ले कि शत्रु मुझे नष्ट नहीं करेगा और न मैं शत्रु को नष्ट करूँगा तब उसके साथ युद्ध न करके मित्रता कर लेनी चाहिए। जैमिनि विद्वान ने भी उदासीन शत्रुराजा के प्रति युद्ध करने का निषेध किया है। १. तथा च सोमदेवसूरिः शक्तित्रयोपचितो ज्यायान् शक्तित्रयापचितो दोनः समानशक्तित्रयः समः ॥१|| २. तथा च गुरुः---समेनापि न योद्धव्यं यद्युपायश्रमं भवेत् । अन्योन्याहति ? यो संगो द्वाभ्यां संजायते यतः ॥ १ ॥ नीतिवाक्यामृत ( भा. टी.) ४.३७२ व्यवहारसमुह देश से संगृहीतसम्पादक ३. तथा च सोमदेवसूरि :-- होयमानः पणवन्धेन सन्धिमुपेयात् यदि नास्ति परेषां विद्यतेऽर्थे मर्यादोल्लंघनम् ॥१॥ तथा च शुक्र:-- हीयमानेन दातव्यो दण्डः शत्रोजिगीषुणा । बल्युक्तेन यत्कार्यं तैः समं निधिनिर्निश्वयोः १ ॥१॥ ५. तथा च सोमदेवसूरि :- अभ्युच्चीयमानः परं विक्कीयायदि नास्त्यात्मबलेषु क्षोभः ॥१॥ ६. तथा च गुरु: यदि स्थादधिकः शत्रोर्विजिगीषुर्निजेर्वलैः । क्षोमेन रहितैः कार्यः शत्रुणा सह विभदः ॥१॥ ७. तभा व सोमदेवसूरिः--न मां परो हन्तुं नाई परं इन्हें शक इत्यासीत यद्यायत्यामस्ति कुशलम् ॥ १॥ 4. तथा च जैमिनिः न विमहं स्वयं कुर्यादासीने परे स्थिते । बलाक्येनापि यो न स्यादायस्यां चेतिं धर्मं ॥१॥ ४. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पादयुद्धमिवेभेन भूयसा सह विप्रदः । तं संघातविघातेन साधयेकनहरितवत् ॥ ३ ॥ प्रस्तुत नीतिकार ने कहा है कि विजिगीषु यदि सर्वगुण सम्पन्न प्रचुर सैन्य व कोशशक्तिशाली है एवं उसका राज्य निष्कण्टक है तथा प्रजा-आदि का उस पर कोप नहीं है तो उसे शत्रु के साथ युद्ध करना चाहिए। अर्थात्-उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि युद्ध करने से उसके राज्य को किसी तरह की हानि तो नहीं होगी। भागुरि विद्वान् ने भी गुण-युक्त व निष्कण्टक विजिगीपु को शत्रु से युद्ध करने को लिखा है ॥शा सैन्य व कोश-आदि शक्ति से क्षीण हुए विजिगीपु को उस शत्रुराजा के प्रति आत्मसमर्पण कर देना चाहिए, जो ब्यसनी नहीं है, ऐसा करने से निर्वल यिजिगीषु उसप्रकार शक्तिशाली होजाता है जिसप्रकार श्रीक तन्तुओं के आश्य सेसी मजबूत हो जाती है। गुरु ने भी शक्ति हीन राजा को शक्तिशाली शत्रु के प्रति आत्मसमर्पण करना बताया हैं ||शा प्रकरण में उक्त मंत्री यशोधर महाराज के प्रति विजिगीषु राजा की उक्त उदय, समता व हानि इन तीन अवस्थाओं का निरूपण करके शुरु की उदय अवस्था में युद्ध करने को कहता है और दूसरी व तीसरी अवस्था में युद्ध करने का निषेध करता है | हे राजन ! प्रचुर ( अधिक ) सैन्यशक्ति-शाली शत्रुभूत राजा के साथ युद्ध करने से होनशक्तिवाले विजिगीषु राजा की उसप्रकार हानि होती है जिसप्रकार हाथी के साथ युद्ध करने से पैदल सैनिक की हानि होती है। अर्थात्-जिसप्रकार हाथी के साथ युद्ध करनेवाला पैदल सैनिक उसके द्वारा मार दिया जाता है उसीप्रकार हीन शक्तिधाला विजिगीषु भी प्रचुर सैन्यशाली शत्रु के साथ युद्ध करता हुआ मार दिया जाता है, इसलिए विजिगीषु को अपने सैन्य-समूह का संगठन करके इस सैन्य द्वारा महान् शक्तिशाली शत्रु का घात करते हुए उसे उसप्रकार जीतना चाहिए जिसप्रकार अकेला जंगली हाथी बहुत से हाथियों द्वारा या पैदल सैनिकों द्वारा वश में कर लिया जाता है। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार ने कहा है कि जिसप्रकार पदाति--पैदल-सैनिक हाथी के साथ युद्ध करने से नष्ट होजाते हैं उसीप्रकार हीन शक्तिवाला विजिगीषु भी अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु के साथ युद्ध करने से नष्ट होजाता है ।। १ । भारद्वाज* विद्वान के उद्धरण द्वारा भी उक्त बात का समर्थन होता है ।। १॥ प्रकरण में उक्त मंत्री ने यशोधर महाराज के उक्त थात कही है। ८३ ॥ हे राजन् ! समान शक्तिवाले शत्रुभूत राजा के साथ युद्ध करने पर विजिगीपु और शत्रु ये दोनों उसप्रकार नए होते है जिसप्रकार कच्चे मिट्टी के घड़े से कडा मिट्टी का घड़ा ताडित किये जाने पर दोनों नष्ट होजाते हैं। अभिप्राय यह है कि यदि पक्के घड़े के साथ कथा घड़ा ताड़ित किया जावे तो कहा घड़ा ही फूटता है, इससे हीन शक्तिवाले शत्रु के साथ युद्ध करने से विजिगीषु को विजयश्री प्राप्त होती है १. तथा च सोमदेवसूरि:—गुणातिशययुक्तो याचाद्यदि न सन्ति राष्ट्रकण्टका मध्ये न भवति पश्चारक्रोधः ॥१॥ २. तथा च भागुरि:-गुणयुक्तोऽपि भूपालोऽपि मायाद्विद्विपोपरि ? यद्यतेन हि राष्ट्रस्य बहवः शवोऽपरे ॥१॥ ३. तथा च सोमदेवसूरि:-रज्जवलनमिय शक्तिहीनः संश्रयं कुर्याद्यदि न भवति परेषामा मिषम् ॥१॥ ४. तथा च गुरु: स्यायदा शक्तिहीनस्तु विजिगीषुईि वैरिणः । संश्रयीत तदा चान्यं बलाय व्यसनच्युतात् ॥१॥ ५. जाति-अलङ्कार । नौतिवाक्यागत (भाषार्टीफा-समेत) पृ. ३७५.३७६ से समुद्भुत-सम्पादक तथा च सोमदेवसूरि:- ज्यायसा सह विग्रहो हस्तिन्य पदातिबुद्धभिव ॥१॥ ५. तया च भारद्वाजः-हस्तिना सह संग्रामः पदातीना क्षयावहः । तथा बलवता नूनं बुधलस्य क्षयावहः ॥१५॥ ८. उपमालबार । नौतिषाक्यामृत ( भा. टी.) पू. ३९८ से संकलित-सम्पादक Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः २५९ आममाजमवमुदे समेनोभयतः क्षयः । एनं प्रभाधयेदम्यगंज प्रसिगजैरिक ।। ८४ ॥ हीनोऽपि सुभटानीकरतीगैरन्यैः सहाइथे। मेतष्यः क्षीपसां नो प्रेससित्वमानयत् ॥ ८ ॥ परन्तु समान शक्तिवाले शत्रु के साथ युद्ध करने से दोनों नष्ट होजाते हैं। अतः ऐसे अवसर पर विजिगीषु राजा को समान शक्तिशाली शत्रुभूत राजा के लिए दूसरे मित्रभून राजाओं की सहायता से उसप्रकार वाँध लेना चाहिए जिसप्रकार हाथी को दूसरे हाथियों द्वारा पकड़वाकर बाँध दिया जाता है। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार' ने समान शक्तिवाले शत्रुभूतराजा के साथ युद्ध करने के विषय में कहा है कि 'समान शक्तिवालों का परस्पर युद्ध होने से दोनों का मरण निश्रित रहता है और विजय प्राप्ति संदिग्ध रहती है। क्योंकि यदि कञ्चे घड़े परस्पर एक दूसरे से ताडित किये जावें तो दोनों नष्ट होजाते है॥१॥ भागुरि विद्वान ने भी उक्त पृष्टान्त देते हुए समान बलवानों को युद्ध करने का निषेध किया है। प्रकरण में उक्त मंत्री ने यशोधर महाराज के प्रति समान शक्तिशाली शत्रुभूत राजा के साथ युद्ध करने से उत्पन्न होनेवाली हानि बताते हुए उसके प्रति विजिगीषु का कर्तव्य बताया है।४।। विजिगीषु राजा को शत्रभूत राजा के योद्धाओं का समह, जो कि हीन ( थोडी) या अधिक संख्यावाला है, अपने दूसरे सीक्ष्ण (हिंसक ) योद्धाओं द्वारा युद्ध भूमि पर नष्ट कर देना चाहिए। यदि विजिगीषु के उक्त उपाय द्वारा वह नष्ट न किया जासके तो उसे राजनैतिक दाव-पेषों द्वारा अपना सेवक बना लेना चाहिए ।। ८५ ।। हे राजन् ! मैं ( विजिगीषु ) महान हूँ और शत्रु हीन है, अतः यह मेरा क्या कर सकता है ? इसप्रकार की चिन्ता (विचार) छोड़िए। क्योंकि तेजम्यी लघु होनेपर भी महान शत्रु को परास्त कर सकता है, इसका समर्थक उदाहरण यह है कि तेजस्वी सिंह शावक (शेर का बचा ) श्रेष्ठ हाथी की शिकार (मृत्यु) कर देता है। भावार्थ---इसी नीतिकार ने कहा है कि जो विजिगीषु राजा अपने जीवन की अभिलाषा नहीं करता ( मृत्यु से भी नहीं डरता) उसकी वीरता का वेग उसे शत्रु से युद्ध करने के लिए उसप्रचार प्रेरित करता है जिसप्रकार सिंह-शायक लघु होने पर भी वीरता से प्रेरित हुमा श्रेष्ठ हाथी को मार देता है। नारद' विद्वान् ने भी मृत्यु से डरनेवालों को कायर और न डरनेवालों को वीर तथा युद्ध में विजयश्री प्राप्त करनेवाले कहा है। जैमिनि विद्वान् का उद्धरण भी सिंहशावक के दृष्टान्त द्वारा ऐसे विजिगीषु की, जो कि लघु होने पर भी वीरता युक्त है, महान शत्रु पर होनेपाली विजयश्री का समर्थन करता है. ॥१॥ १. तथा च सोमदेवसूरिः-समस्य समेन सह विप्रहे निचितं मरणं जये च सन्देहः, आम हि पात्रमामैनाभिहतमुभयतः भयं करोति ॥१॥ २. तथा च भागरि:-समेनापि न योडव्यमित्युवाच बृहस्पतिः । अन्योन्याहतिमा भंगो घटाभ्यां जायते यत: ॥५॥ ३. उपमालकार । ४. उपमालकार । नीति. ( भा. टी.) पृ. १९८ :युद्धसमुदेश) से संकलित-सम्पादक ५. तथा च सोमदेव मूरि :- स्वर्जीविते हि निराशस्याचार्यो भवति वीर्य वेगः ॥१॥ लघुरपि सिंहशामो हन्स्येव दम्तिनम् ॥२॥ नौतिवाक्यामृत ( भा. टी.) युद्धसमुश सूत्र ६४-६५ पृ. ३९६ ६. तथा च नारदः-न तेषो जायते वीर्य जीवितब्यस्य दायकाः । ___न मृत्योर्ये भय कुस्ते [ मीराः स्युर्जयान्विताः ] ॥१॥ ५. तथा च मिनि: यद्यपि स्याल्लघुः सिंहस्तथापि द्विपमाइवे । एवं राजापि कार्यान्यो महारि हन्ति चाधुः ॥७॥ नातिवाद मामृत ( भा. टी. ) युद्धसमुद्देश पू. ३९४ से संकरित-सम्पापक। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० यशस्वितकाम्पूचम्ये मई महानय स्वस्पभिन्तेचे सूप मुभवास । सिहचावावीन्द्रायां सत्पुरत्र निदर्शनम् ॥ ८॥ पुष्पैरपि म गोडम्य किं पुननितिः शरैः। तामस्थां गतानां तुम विध: कि भविष्यति ॥ ८॥ क्षसारं मृतं शूरमनशमनुरागि चेत् । भपि स्वल्प विप सैम्य पूषेय मुण्ठमण्डली n८८. प्रकरण में उक्त मंत्री ने यशोधर महाराज के प्रति उक्त दृष्टान्त द्वारा इस बात का समर्थन किया कि एसा विजिगोषु. जो वि. लष होने पर भी पोरता-युक्त है, प्रचुर शक्तिशाली शत्रु पर विजयश्री प्रास कर सकता है ॥६॥ हे राजन् ! विवेकी राजाओं को पुष्पों द्वारा भी युद्ध नहीं करना चाहिए। पुनः तीक्ष्ण बाणों द्वारा युद्ध करने के बारे में तो कहना ही क्या है ? अर्थात्-तीक्ष्ण पाण-आदि शत्रों द्वारा तो कभी युद्ध करना ही नहीं चाहिए। क्योंकि युद्ध-अवस्था को प्राप्त हुए प्राणियों का क्या होगा? अर्थात्-कितनी दयनीय अवस्था होगी इसे हम नहीं जानते। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार ने कहा है कि 'नीतिशास्त्र के वेचा पुरुष जब पुष्पों द्वारा भी युद्ध करना नहीं चाहते दब शस्त्र युद्ध किस प्रकार चाहेंगे ? अपितु नहीं चाहेंगे। विदुर' विद्वान ने भी उक्त दृष्टान्त देते हुए शत्र-युद्ध का निषेध किया है। प्रकरण में उक्त मंत्री यशोधर महाराज से युद्धाङ्गण में धराशायी हुए सैनिकों की दयनीय अवस्था का निर्देश करता हुआ शस्त्र युद्ध का निषेध करता है |हे राजन! विजिगीषु की ऐसी फौज थोड़ी होने पर भी लक्ष्मी-निमित्त होती है। अर्थात्-विजिगीषु की शन से विजयश्री प्राप्त करने में कारण है, जिसमें वीर व शक्तिशाली राजपुत्र वर्तमान हो, जो अन्न व घृत-मादि भोज्य वस्तुओं द्वारा पुष्ट की गई है, जो युद्ध में निर्भयता पूर्वक कोरता दिख्मती हो एवं जो तलवार-आदि से युद्ध करने में प्रवीण हो तथा स्वामी से स्वाभाषिक स्नेह करती हो परन्तु इसके विपरीत उक्त गुणों से शून्य-सारहीन (शक्तिहीन व कर्तव्य विमुखता-बादि दोषों से ध्यान ) यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली अधिक फौज निरर्थक है। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार ने कहा है कि 'सारहीन (शक्तिहीन व कर्तव्य विमुख) बहुत सी फौज की अपेक्षा सारयुक्त (शक्तिशाली व कर्तव्यपरायण ) थोड़ी सी फौज ही उत्तम है। नारद विद्वान ने भी अच्छी तैयार थोड़ी भी फौज को उत्तम व बहुत सीधरपोंक फौज को नगण्य बताया है॥१॥ आचार्य श्री.ने • सार-हीन पल्टन से होनेवाली हानि बनाते हुए कहा है कि 'जब शत्रुकृत उपद्रव द्वारा विजिगीषु की सारहीन सेना नष्ट हो जाती है व उसकी शक्तिशाली सेना भी नष्ट हो जाती है-अधीर होजाती है, अतः विजिगगीषु को दुर्बल सैन्य न रखनी चाहिए। कौशिक ' ने भी कायर सेना का भंग विजिगीषु की वीर सेना के भङ्ग का कारण बताया है ॥१|प्राकरणिक अभिप्राय यह है कि 'उपायसर्वज्ञ' नाम का मंत्री यशोधर महाराज के प्रति उक्त प्रकार की सार-शक्तिशाली कर्वन्य परायण-फौज को विजयश्री का कारण और सार-हीन फौज को पराजय का कारण बता रहा है। १. प्रतिवस्तूपमालंकार । २. तथा च सोमदेवरिःगुष्पयुद्धमापे नौतिवेदिनो नेच्छन्ति किं पुनः शनयुद्ध ॥१॥ ३. तथा च विदुर:-पुष्पैरपि न योदव्यं किं पुनः निशितैः शरैः । उपायपतया : पूर्व सस्मायुद्ध समाचरेत् ॥ ४. जाति-अलङ्कार । नीतिघाक्यामृत ( भा. टी.) प्रकीर्णक समुहेश पृ. ४१५-४१७ से संकलित-सम्पावक ५. तथा व सोमदेवसूरिः-परमल्पमपि सारं बलं न भूयसी मुण्डमण्डली ॥१॥ ६. तथा च नारदः-घर स्वल्पापि च श्रेष्ठा नास्वल्यापि च कातरा । भूपतीनां च सपा युवाले पता किनी ॥५॥ ५. तथा च सोमदेवमरि:-असारवलभंगः सारवलमंगं करोति ॥१॥ ८. तथा च कौशिक कासराणां च यो भंगो संग्रामे स्यान्महीपतेः। स हि भंग करीत्येव सर्वेषा नात्र संशयः ॥१॥ + स्मश्चयालंकार । नौतिवाक्याभूत से समुप्त-सम्पादक Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पाश्चासः भन्योन्याशसंशोभामिकण्टकमहीतलः। वक्ष्मीपतिस्तटस्थोऽपि भिन्नमुद्रवहिनवात् ॥ ८९ ॥ हे राजन् ! जो विजयश्री का इच्छुक राजा शत्रभूव राजाओं को परस्पर में युद्ध कराने के कारण अपनी भूमि को निष्कण्टक-झुद्रशत्रुओं से रहित--बना लेता है, वह तटस्थ-दूरवर्ती होने पर भी उसप्रकार लक्ष्मी ( राज्य-सम्पत्ति) का स्वामी होजाता है जिसप्रकार दूसरे देश को प्राप्त हुआ बड़ा व्यापारी ऐसी जहाज का स्वामी होता है, जिस पर उसने अपने नाम की छाप लगा दी है। अर्थात्-जिसप्रकार माल ( पत्र-श्रादि ) से भरी हुई जहाज पर अपना नाम अङ्कित करके दूसरे देश को प्रस्थान करनेवाला व्यापारी उस जहाज का स्वामी होता है उसीप्रकार विजयश्री का इच्छुक राजा भी भेद नीति का अवलम्बन करके तटस्थ होकर के भी शत्रुभूत राजाओं को आपस में लड़ाकर अपने पृथ्वी-तल को क्षुद्र शत्रुओं से रहित करता हुआ राज्य लक्ष्मी का स्वामी होजाता है। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार' ने विजिगीषु राजा का कर्तव्य निर्देश करते हुए कहा है कि “विजिगीपु को शत्रु के कुटुम्बियों को अपने पन में मिलाना चाहिये, क्योंकि उनके मिलाने के सिवाय शत्रु सेना को नष्ट करनेवाला कोई मन्त्र नहीं है। शुक्र विद्वान् ने भी उक्त बात कही है।॥ १॥ भेदनीति के बारे में निसप्रकार लिखा है कि "विजिगीपु जिस शत्र पर चढाई करे, उसके कुटम्बियों को साम-दानादि उपाय द्वारा अपने पक्ष में मिलाकर उन्हें शत्रु से युद्ध करने के लिये प्ररित करे। विजयश्री चाहनेवाले राजा को अपनी फौज की क्षति द्वारा शत्रु को नष्ट नहीं करना चाहिये किन्तु कांटे से कांदा निकालने की तरह शत्र द्वारा शत्रु को नष्ट करने में प्रयत्नशील होना चाहिये। जिसप्रकार बेल से बेल ताड़ित किये जाने पर दोनों में से एक अथवा दोनों फूट जाते हैं उसीप्रकार जब विजिगीषु द्वारा शत्रु से शत्रु लड़ाया जाता है तब उनमें से एक का अथवा दोनों का नाश निश्चित होता है, जिसके फलस्वरूप विजिगीषु का दोनों प्रकार से लाभ होता है"। विजिगीषु का कर्तव्य है कि "शत्रु ने इसका जितना नुकसान किया है उससे ज्यादा शत्रु की हानि करके उससे सन्धि कर ले"। गौतम विद्वान ने भी “शत्रु से सन्धि करने के बारे में उक्त बाद का समर्थन किया है ।। १॥ श्राचार्यश्री ने कहा है कि "जिसप्रकार उण्डा लोहा गरम लोहे से नहीं जुड़ता किन्तु गरम लोहे ही जुड़ते हैं उसीप्रकार दोनों कुपित होने पर परस्पर सन्धि के सूत्र में बँधते है"। शुक्र विद्वान का उद्धरण भी यही कहता है ॥१॥ + 'शत्रुसंत्रासाविष्कण्टकमहीतल क० । १. तथा च सोमदेवरि:- दायादादपरः परपलस्याफ्र्षणमन्नोऽस्ति ॥1॥ यस्याभिमुखं गच्छेत्तस्यावश्यं दायादानुत्थापयेत् ॥ २॥ २. तथा च शुकः-में दायादात् परो री विद्यतेऽत्र कथंचन । अभिचारकमन्त्र शत्रुसैन्यनिषूदने ।। । । * तथा च सोमदेवपूर :-कण्ट केन कण्टकमिव परेप पर मुहरेत् ॥ १ ॥ विल्वेन हि विल्वं हन्यमानमुभयपाप्यात्मनो गभाय ॥ २ ॥ यावस्परेणापकृत तावतोऽधिकमकृत्य सन्धि कुर्यात् ॥ ३ ॥ ३. तथा च गौतमः-यावन्मानोऽपराधश्न शगुणा दि कृतो भवेत् । तावत्तस्याधिक कृत्दा सन्धिः हार्यो बालान्वितैः ॥ १ ॥ ४. तया च सोमदेवरि:-नातप्त लोई लोहेन सन्धते ।। १॥ ५. तथा व शुक्र :-क्षम्यामांपे तमाभ्यां लोहाभ्यां च यया भवेत् । भूमिपाना प विज्ञेयस्तथा सन्धिः परस्परम् ॥ ९ ॥ नौतियाक्याभूत (भाषाटीका-समेत) .५५-३९६ युद्धसमुदशा से संकलित–सम्पादक ३१. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ यशस्तिलकचम्पूत्रव्ये तन्नयानायनिक्षेपात् कुरु हस्ते हिपत्तिमीन् । दोभ्यो युद्धाधुधिक्षोभाचगृहे पुश सुतः ॥... एक बपुरुभौ हस्तौ शववश्व पदे पदे । दुःखकृत्कण्टकोऽपि स्यास्कियस्लान साध्यते ॥ १॥ साम्ना दानेन भेदेन यत्कार्य नैव सिध्यति। तत्र दण्ड प्रयोक्तन्यो नृपेण मियमिता ॥ १२ ॥ प्राचार्यश्री' ने लिखा है कि 'जब विजिगीषु को मालूम होजावे कि "आक्रमणकारी का शत्रु उसके साथ युद्ध करने तैयार है ( दोनों शत्रु परस्पर में युद्ध कर रहे हैं) तब इसे द्वैधीभाव (वलिष्ठ से सन्धि व निर्वल से युद्ध) अवश्य करना चाहिये। गर विद्वान ने भी द्वैधीभाव का यही अवसर बताया है !' १ ॥ "दोनों निजिमीयों के बीच में घिरा हुआ शत्रु दो शेरों के बीच में फँसे हुये हाथी के समान सरलता से जीता जासकता है।"। शुक ने भी दोनों विजिगीषुओं से आक्रान्त हुए सीमाधिप शत्रु को सुखसाध्य-सरलता से जीतने के योग्य बताया है" ॥ १।। प्राकरणिक निष्कर्ष-उपायसर्वज्ञ नाम का मन्त्री यशोधर महाराज के प्रति द्वैधीभाव ( दोनों शत्रुओं को लड़ाकर बलिष्ठ से सन्धि व हीन से विग्रह) का निरूपण करता है एवं उसके फलस्वरूप विजिगीषु मध्यस्थ हुआ निष्कण्टक होने से लक्ष्मी का आश्रय उक्त दृष्टान्त के समान होता है' यह निरूपण कर रहा है ॥६॥ हे राजन् ! इसलिए युद्धरूपी समुद्र में नीति ( साम, दान, पंख व भेदरूप उपाय ) रूपी जाल के निक्षेप ( डालना) से शत्ररूप मच्छों को हस्तगत कीजिए-अपना सेवक बनाइए। क्योंकि केवल दोनों भुजाओं द्वारा युद्धरूप समुद्र को पार करने से योद्धाओं के गृह में कुशलता किसप्रकार होसकती है ? अपि तु कदापि नहीं होसकती ॥ ॥ हे राजन् ! विजिगीषु राजा के शत्रु पद पद में (सब जगह ) वर्तमान हैं एवं कण्टका (बदरी-कण्टक-सरीखा क्षुद्र शत्रु) भी पीड़ा-जनक होता है जब उन पर विजय प्राप्त करने के लिए उसके पास एक शरीर और दो हस्त है तब बताइए कि विजिगीषु केवल तलषार द्वारा कितनी संख्या में शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकता है? अपि तु नहीं कर सकता। 'अभिप्राय यह है कि विजयश्री के इच्छुक राजा को साम, दान, दर व भेदरूप उपायों द्वारा शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करते हुए उन्हें वश में करना चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप उसका राज्य निष्कण्टक ( समस्त प्रकार के शत्रुओं से रहित ) होगा ॥६शा हे देव ! जो कार्य साम, दान व भेदनीति से सिद्ध ( पूर्ण ) नहीं होता उसको सिद्ध करने के हेतु विजय श्री के इच्छुक राजा को दंडनीति (शत्रु का वध करना या ससे दुःखित करना या उसके धन १. तथा च सोमदेवर्षि :-=धीभावं गच्छेद् यदन्योऽवश्यमास्मना महोत्सहते ॥ १॥ २. तथा च गर्ग :-यद्यमी सन्धिमादातु' युद्धाय करते क्षण 1 निश्चयेन तदा तेन सह सन्धिस्तया रणम् ॥ १ ॥ तथा च सोम देवर्षि :-बलयमध्यस्थितः शत्रुभय सिंहमध्यस्थितः करीव भवति सुखसाध्यः 1॥१॥ ३. तया च शुक:-सिंहयोर्मध्ये यो हस्ती सुखसाध्यो यथा भवेत् । तथा सीमाधिपोऽन्येन विगृहीतो पो भवेत् ।। ११ __ नीतिवाक्यामृत व्यवहारसमुद्देश ( भा. टी.)पृ. ३५६ व ३७८ से संगृहीत–सम्पादक ४. उपमालंकार । ५. रूपकालंकार व आक्षेपालकार। ६. चकं च-सूच्यप्रे क्षुदशत्रौ च रोमहर्षे च कण्टका संकटौ.पू. १८९ से संगृहीत-सम्पादक ५. धापालंकार। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतीय भावासः २४३ का अपहरण करना ) का आश्रय लेना चाहिए । भावार्थ प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्रीने शत्रुभूत राजा व प्रतिकूल व्यक्ति को वश करने के उक्त चार उपाय ( साम, दान, दंड व भेद ) माने हैं। उनमें से सामनीति के पाँच भेद हैं। १, गुणसंकोतन, २. सम्बन्धोपाख्यान, ३. अन्योपकारदशन, ४. आयतिप्रदर्शन और १. आत्मोपसन्धान । १. गुणसंकीर्तन-प्रतिकूल व्यक्ति को अपने वशीभूत करने के लिए उसके गुणों का उसके समक्ष कथन द्वारा उसकी प्रशंसा करना। २. सम्बन्धोपाख्यान-जिस उपाय से प्रतिफूल व्यक्ति को मित्रता दृढ़ होती हो, उसे उसके प्रति कहना। ३. अन्योपकारदर्शन–विरुद्ध व्यक्ति की भलाई करना । ४. आयतिप्रदर्शन-'म लोगों की मैत्री का परिणाम भविष्य जीवन को सुखी बनाना है' इसप्रकार प्रयोजनार्थी को प्रतिकूल व्यक्ति के लिए प्रकट करना और ५. 'आत्मोपसन्धान-'मेरा धन आप अपने कार्य में उपयोग कर सकते हैं। इसप्रकार दूसरे को वश करने के लिए कहना। शत्र को वश करने के अभिप्राय से उसे अपनी सम्पत्ति का उपभोग करने के लिए विजिगीषु द्वारा इसप्रकार का अधिकार-सा दे दिया जाता है कि 'यह सम्पत्ति मेरी है इसे आप अपनी इच्छानुसार कार्यों में लगा सकते हैं, इसे 'आत्मोपसन्धान' नाम की 'सामनीति' कहते हैं। व्यास विद्वान ने कहा है कि 'जिसप्रकार कर्कश पचनों द्वारा सज्जनों के चित्त विकृत नहीं होते उसीप्रकार सामनीति से प्रयोजनार्थी का कार्य विकृत न होकर सिद्ध होता है और जिसप्रकार शकर द्वारा शान्त होनेवाले पित्त में पटोल (औषधिषिशेष ) का प्रयोग व्यर्थ है उसीप्रकार सामनीति से सिद्ध होनेपाले कार्य में दंडनीति का प्रयोग भी व्यर्थ है' ।। २. दाननीति--यह है जहाँपर विजय का इच्छुक शत्र से अपनी प्रचुर सम्पत्ति के संरक्षणार्थ उसे थोड़ा सा धन देकर प्रसन्न कर लेता है, उसे 'दाननीति, कहते हैं। शुक्र विद्वान् ने भी 'शत्र से प्रचुर धन की रक्षार्थ उसे थोड़ा सा धन वेकर प्रसझ करने को उपप्रदान-दाननीतिकहा ॥१॥ विजिगीषु अपने सैन्यनायक, तीक्ष्ण व अन्य गुप्तचरों तथा दोनों तरफ से वेतन पानेवाले गुप्तचरों द्वारा शत्रु सेना में परस्पर एक दूसरे के प्रति सन्देह व तिरस्कार उत्पन्न कराकर भेद ( फूट) डालता है उसे 'भेइनीति' कहते हैं। गुरु ने भी उक्त उपाय द्वारा शत्रु-सेना में परस्पर भेद डालने को 'भेदनीति' कहा है। शत्रु का अध करना, उसे दुःखित करना या उसके १. तथा च सोमदेवरिः-सामोपप्रदानभेददण्डा उपायाः ॥११ तत्र पंचविधं साम, गुणसंकीर्तन सम्बन्धोपाख्यानं परोपकारदर्शनमायतिप्रदर्शनमात्मोपसन्धानमिति ॥२॥ गन्मम इम्यं तद्भयता स्वकृत्येषु प्रयुज्यतामित्यात्मोपसन्धानं ॥३॥ २. तथा च ध्यास:-साम्ना यत्सिद्विदं कृत्यं ततो नो विकृति भजेत् । सजनानां या चित्त दुरुक्कैरपि कीर्तितः ॥१॥ साम्नैव यत्र सिद्धिर्न दण्डो धुषेन विनियोज्यः । पिसं यदि शर्करया शाम्यति तत्किं पटोलेन ॥२॥ ३. तया च सोमदेव सूरि:-पार्थसंरक्षणायाल्पार्थप्रदानेन परप्रसादनमुपप्रदान ४. सभा च शुक्रा-पार्थः स्वल्पवित्तेन यदा शश्रोः प्ररक्षते । परप्रसादनं तत्र प्रोकं तच्च विचक्षणः ॥१॥ ५. तपास सोमदेवपूरि:-योगतीक्ष्णगृहपुश्योभयवेतनैः परबलस्प परस्परशंकाजननं निमर्सनं या भेदाः ।।१।। #. सपा व गुरु-सम्यं विषं तथा गुप्ताः पुरुषाः सेवकामकाः । तत्व भेदः प्रकर्तव्यो मिषः सैन्यस्य भूपते ॥१॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिनकचम्पूकाव्ये सामसाध्येषु कार्येषु को हि शस्नं प्रयोजयेत् । मृतिहेतु डो यत्र कस्सन विषदायकः ॥ १३ ॥ अकुपश्चात्मकश्मीणो संविभाग मरेश्वरः। मधुकछत्रमिवाप्नोति सर्वनाशं सहारमना ॥ ९४ ॥ धन का अपहरण करना दंडनीति है। जैमिनि' नीतिवेत्ता ने भी दंडनीति की उक्तप्रकार व्याख्या की है। प्राकरणिक अभिप्राय यह है कि उक्त मंत्री यशोधर महाराज से कहता है कि राजन् ! साम, दान व भेदनीति द्वारा सिद्ध न होनेवाले कार्य में दंडनीति की अपेक्षा होती है न कि सर्वत्र HEIR हे राजन! निश्चय से उक्त पाँचप्रकार की सामनीति द्वारा सिद्ध होनेवाले कार्यों (शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करना आदि) में कौन पुरुष शस्त्र प्रेरित करेगा ? अपि तु कोई नहीं। उदाहरणार्थ-गुड़-भक्षण जिस पुरुष के घात का हेतु है उस पुरुष के घात के लिए विप देनेवाला कौन होगा ? अपितु कोई नहीं । भाषार्थ-आचार्य श्री ने कहा है कि "विजय के इच्छुक राजा को सामनीति द्वारा सिद्ध होनेवाला इष्ट प्रयोजन (शत्रु-विजय-आदि) युद्ध द्वारा सिद्ध नहीं करना चाहिए, क्योंकि जब गुड़-भक्षण द्वारा ही अभिलषित प्रयोजन (आरोग्य लाभ ) सिद्ध होता है तब कौन बुद्धिमान् पुरुष विष-भक्षण में प्रवृत्त होगा? अपि कोई नहीं"। बल्लभदेव विद्वान् ने भी कहा कि 'जिसप्रकार जब शकर-भक्षण से पित्त शान्त होता है तब पटोल ( औषधिविशेष ) के भक्षण से कोई लाभ नहीं उसीप्रकार सामनौति द्वारा सिद्ध होनवाले शत्रुविजय आदि कार्यों में दंडनीति का प्रयोग विद्वानों को नहीं करना चाहिए ॥२॥ भौतिवेत्ता हारीत ने कहा है कि 'जब गुङ्ग-भक्षण से शारीरिक आरोग्यता शक्ति होती है तब उसके लिए विष-भक्षण में कौन प्रवृत्त होगा? अपि तु कोई नहीं ॥१॥ प्रकरण में उक्त मंत्री उक्त उदाहरण द्वारा सामनीति से सिद्ध होनेवाले कार्यों में दण्डनीति का प्रयोग निरर्थक सिद्ध कर रहा है" ॥६॥ जो राजा कुटुम्बियों-आदि के लिए अपनी संपत्ति का वितरण (दान) नहीं करता, यह अपने जीवन के साथ उसप्रकार समस्त लक्ष्मी का जय प्राप्त करता है जिसप्रकार शहद का छत्ता शहद की मक्खियों के क्षय के साथ नष्ट होता है। अर्थात-जिसप्रकार शहद की मक्खियाँ चिरकाल तक पुष्पों से राइड एकदा करती हैं और भौरों को नहीं खाने देती, इसलिए उनका शहद भीम लोग छत्ता वोड़कर लेजाते हैं उसीप्रकार कुटुम्बियों-त्रादि' को अपनी सम्पत्तियों का दान न करनेवाले राजा का धन भी उसके साथ मष्ट होजाता है..चोरों-आदि द्वारा अपहरण कर लिया जाता है। १. तथा च सोमदेवमूरि:-वधः परिक्लेशोऽर्थहरणं च दण्डः ॥१॥ २. सथा च जैमिनिः--बंधस्तु क्रियते यत्र परिक्लेशोऽथवा रिपोः । अर्थस्य प्रह भूरिदण्डः स परिकीर्तितः ॥१॥ नौतिवाक्यामृत व्यवहारसमुश ( भा, टी.) पृ. ३९.३८० से संकलित-सम्पादक ३. जाति-अलङ्कार । ४. तथा च सोमदेवपूरिः सामसाध्य युगसाध्यं न कुर्यात् । गुडादभिप्रेतसिद्धौ को नाम विर्ष भुजीत ॥ तथा च पालभदेवः--साम्नेव यत्र सिद्धिस्तत्र न दण्डो जुधैर्विनियोज्यः। पिसं यदि पार्करया शाम्यति ततः किं तत्पटोलेन ॥ १ ॥ ६. तथा च हारीतः-गुडास्वादनतः शतिर्यदि गात्रस्य जायते । आरोग्यलक्षण नाम तद्भशयति को विषं ॥१॥ नीतिवाक्यामृत (भाषाटीका-समेत) पृ. ३९० (युद्धसमद्देश ) से समुत-सम्पादक ! ७. दृष्टान्तालंकार आक्षेपार्लकार। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूतीय आश्वासः अभिस्वा शकसंघातं यः पराक्रमते भूपः। स तुङ्गस्तम्बसंझनवीरणाकर्षकायते ॥ १६ ॥ शक्तिहीने मतिः कैच का शक्तिमसिबजिसे। नपस्य * तस्य अष्टान्तः परधश्च कथ्यताम् ॥ १६ ॥ दूरस्थानपि भूपाल शेत्रेऽस्मिरिपक्षिणः । पलोपछमहाघोषैः क्षिपापणिहस्तवत् ॥ ९ ॥ भाषार्थ-प्रस्तुत नीतिकार आचार्यश्री ने कहा है कि 'पात्रदान न करनेवाले लोभी का धन शहद के छत्ते सरीखा नष्ट होजाता है। सर्गर तिदान के उद्धरण का अभिप्राय यह है कि 'पात्रों को दान न देनेवाला लोभी उसी धन के साथ राजाओं और चोरों द्वारा मार दिया जाता है ॥ १॥ निकर्ष-प्रकरण में उक्त मंत्री यशोधर महाराज के प्रति दाननोति न करनेवाले राजा की हानि उक्त दृष्टान्त द्वारा समर्थन कर रहा है ॥४॥ जो राजा शत्रुसमूह में भेद ( फोड़ना ) न करके युद्ध करने के लिए उत्साह करता है, वह ऊँचे वृक्ष के स्कन्ध-प्रदेशों पर लगे हुए बाँस वृक्ष के खींचनेवाले सरीखा आचरण करता है। श्रथोत्-जिसप्रकार ऊंचे वृक्ष के स्कन्धों पर लगे हुए बॉस-वृक्ष का खींचना असंभव होता है असीप्रकार शत्र-सम में भेद हाले बिना शक्समह पर. विजयश्री प्रास करना भी असंभव है। भावार्थ-विजयश्री. के इच्छुक राजा को शत्रुओं के कुटुम्बियों को उसप्रकार अपने पक्ष में मिजाना चाहिए जिसप्रकार श्रीरामचन्द्र ने शत्रुपक्ष (रावण) के कुटुम्बी ( भाई ) विभीषण को अपने पक्ष में मिलाया था ।। ६५॥ हे राजन् ! पराक्रम व सैन्य-शक्ति से हीन राजा का राजनैतिक ज्ञान क्या है ? अपितु कुछ नहींनिरर्थक है। इसीप्रकार राजनैतिक ज्ञान से शून्य राजा की शक्ति ( पराक्रम व सैन्य-शक्ति) भी क्या है? अपि तु कुछ नहीं है। उदाहरणार्थे-जिसप्रकार शक्तिहीन लगड़े का ज्ञान निरर्थक है और मान-हीन अन्धे की शक्ति निष्फल होती है। अर्थात्-जिसप्रकार लँगड़ा शक्ति ( चलने की योग्यवा) हीन होने के कारण मान-युक्त होता हुआ भी अभिलषित स्थान को प्राप्त नहीं हो सकता उसीप्रकार पराक्रमशक्ति से हीन हुआ राजा राजनैतिक भानशाली होने पर भी अभिलषित वस्तु (राज्य-संचालनभादि ) की प्राप्ति नहीं कर सकता एवं जिसप्रकार अन्धा पुरुष ज्ञान-शून्य होने के कारण शक्ति ( पलने को शक्ति ) सम्पन्न होता हुआ भी अभिलषित स्थान पर प्राप्त नही हो सकता उसीप्रकार राजनतिक ज्ञान से शून्य हुआ राजा भी पराक्रमशक्ति सम्पन्न होने पर भी अभिलम्ति पदार्थ ( राज्य-संचालन आदि कार्य) प्राप्त नहीं कर सकता। भावार्थ-इम प्रस्तुत विषय स स्पष्टीकरण श्लोक नं.८१ की व्याख्या में कर चुके हैं।। ६६ ।। हे राजन् ! आप इस उज्जयिनी राजधानी में स्थित हुए दूरवर्ती भी शत्रुरूप पक्षियों के सैन्य, पाषाण व महान् शब्दों के प्रेषण से उसप्रकार प्रेरित ( नष्ट) करो जिसप्रकार गोलागोफणपाषाण सहित गुँथने-को हाथों पर धारण करनेवाला मानव दूरवर्वी पक्षियों या शत्रुओं के पापाण *'तत्र' - क्षिपणिहस्तक्त्, क.। . १. तथा च सोमदेवरिः-तीर्यमनासंभावयन् मधुच्छनामिप सामना पिन्वयति । ३. तथा च वर्ग:-यो न यच्छति पात्रेभ्मः स्वधनं कृपणो जनः । तेनैव सह भूपालेचौरा र हन्यते ॥ १॥ नौतिवारवामृत पृ०४१ से समुश्त-सम्पादक ..टान्त व सहोकि भलंधर। ४, उपमाऊंकार । ५. भोपालघर र उपमानहार । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिकादपूनाको निपानीव इव स्वामिस्थिरीकृतनिशासनः । पार्क समय दिक्पालपुरमाजनसिद्धये ॥ ९८॥ नृणां परिच्छयः स्वस्य कार्यापाथ सुखाय । तदर्थमात्मामः क्वेशे कि परिष्दसंपदा ॥ १९॥ सवाई वेति संदेहो मितेयंत्रोपजायते। तवादात्र को नाम रणे प्रेरयते नृप ॥१..! पाति क्षेत्र यथा गोपः स्थित्वा तन्नाभि मञ्चुके। तथा त्वमपि राजेन्द्र चतुरन्तामर क्षितिम् ॥ १०१।। येऽनन्तरं स्थिता भूमेस्ते नृपास्तव भूपते। प्रतिहारसमें द्वारि तिष्ठन्स्याज्ञापरायणाः ॥ १२ ॥ अन्पऽपि मण्डलाधीशाः कृतलोकशासनम् | वास्त्रिो निषेवन्ते सिद्धाः कल्पनुमा इव ॥ १३ ॥ स्वानुवर्तिपु लोके यस्गु क्षोभाव चेरते। मेयांसि नचिरं तप चुप्तपाल प्रबोधिवत् ॥ १०४ ॥ आदि फेंककर मारता है ॥६७ 1 हे स्वामिन् ! आप, जिन्होंने अपना अनिश्चल श्रासन (स्थिति या सिंहासन) निश्चल किया है, चारों दिशाओं में स्थित हुए राजाओं के नगररूपी भोज्यपात्रों (वर्तनों) की प्राप्ति के लिए चक ( सैन्य) को उसप्रकार भेजिए जिसाकार कुंभार अपना आसन (पीढ़ा) निश्चल किये हुए पात्रों ( घटादि वर्तनों) की प्राप्ति के लिए चक्र घुमाता है । । हे राजन् ! मनुष्यों का परिवार इसलिए है कि उससे अपना कार्य (इष्ट प्रयोजन ) सिद्ध कराया जावे और जिससे सुख प्राप्त हो, इसलिए जो लोग परिवार द्वारा इष्ट प्रयोजन-सिद्धि न कराते हुए उसके लिए स्वयं फष्ट उठाते हैं- उद्यमशील होते हैं, उनकी परिवारलक्ष्मी से क्या लाभ ? अपितु कोई लाभ नहीं। भावाथे-प्रकरण में प्रस्तुत मंत्री यशोधर महाराज से श-देश में फौज भेजने के लिए प्रेरित करता हुआ कह रहा है कि हे राजन् ! आप का परिवार ( कुटुम्बीजन, अमात्यवर्ग ५ । सैन्य (पलटन) आदि) इष्ट प्रयोजन-सिद्धि ( शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करना-मावि ) के हेतु है, अतः उनसे इष्ट प्रयोजन सिद्ध कराना चाहिए सिजके फलस्वरूप सुख प्राप्त होता है और यदि बाप इष्ट प्रयोजनार्थ स्वयं कष्ट करेंगे रात्रु-देश पर चढ़ाई आदि करेंगे--- तो आपको परिवार-विभूति से क्या लाभ होगा ? कोई लाभ नहीं ।। ६६ || हे राजन् ! जिस युद्ध में मनुष्यों की बुद्धि में इसप्रकार सन्देह उत्पन्न होता है कि 'वह शत्रु [जिसके साथ युद्ध हो रहा है ] राजा होगा? अथषा मैं (विजयश्री का इच्छुक ) राजा होऊँगा ?" उस युद्ध में राजा को शुरू में ही भेजने के लिए कौन प्रेरित करता है ? अपि तु कोई नहीं प्रेरित करता' ।।१०।। हे राजेन्द्र ! जिसप्रकार किसान खेत के मध्यभाग में वर्तमान मञ्चक ( खाट या मड़वा ) पर स्थित हुआ खेत की रक्षा करता है उसीप्रकार आप भी [अपने राज्य के मध्यवर्ती उन्नयिनी राजधानी में स्थित हुए ] चार समुद्रपर्यन्त प्रश्रियी की रक्षा कीजिए* ॥११॥ हे राजेन्द्र ! आपके देश के निकटवर्ती राजा लोग आपकी आज्ञा पालन में तत्पर हुए आपके दरवाजे पर उसप्रकार स्थित होरहे हैं जिसप्रकार द्वारपाल आपके दरवाजे पर स्थित है। ॥ १०२ ॥ है राजन् ! उनके सिवाय दूसरे भी अन्य देश के राजा लोग हस्त-प्राप्त कल्पवृक्ष सरीखे हुए संसार में अद्वितीय शासन करनेवाले आपकी मनचाही भेटों द्वारा सेवा कर रहे है. ।।१०३ ॥ हे राजन् ! जो राजा अपने अनुकूल चलनेवाले सेवकों को कुपित करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसको उसप्रकार चिरकाल तक कल्याण नहीं होते जिसप्रकार सति हुए सर्प को जगानेवाले के कल्याण नहीं होते ॥१०४॥ हे राजन् ! तथापि * 'भ्रामय' क०। मतिर्योपजायते' का । * 'मनके का। निषेवन्ति' का । ६ 'यस्तस्क्षोभाय' । + 'प्रयोधवत्' क.1 1. दृष्टान्तालंकार । २. उपमालंकार व रूपकालंकार। ३. आक्षेपालंकार । ४. भाऊपालबार । ५. दृष्टान्तालद्वार। ६. उपमालार । ५. उपमालबार । ८. उपमालङ्कार । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतीय आश्वासः प्पलीकै पर्यपर्यासन्यस्तमात्चेतसाम। विनयाय तथाप्येषां विक्षोऽसिदिश्यसाम् ॥१०॥ इति नवफानुपायसर्वज्ञात् 'साध्वाह देव, आर्यमित्राणामग्रणी: प्राज्ञ उपायर्वशः। द्विषतापि हिते प्रोक्ते सन्तस्सदनुलोमनाः। विवदेतात्र को नाम समकार्यधुरोदिते ॥ १० ॥ केवलमिदमशेषार्थशासोपात्तसारसमुच्चयं सुभाषितत्रयं शारीरं कर्मेव प्रत्यहमवधातव्यम् । स्वस्मानिज पोऽन्यस्मात् अस्वः परस्मात् परो निजात ।। पक्ष्यः स्वस्मात् परस्माश्च मिस्यमास्मा जिगीपुणा ॥ १७ ॥ इन ऐसे उदण्ड राजाओं के शिक्षण करने के लिए ( उद्दण्डता दूर करने के हेतु) आपको समस्त दिशाओं में फौज भेजनी चाहिए, जिनके चित्त में से मैंठे ऐश्वर्य-मद के कारण मर्यादा (सदाचार ) विलकुल नष्ट होयुकी है' ॥ १०५ ॥ समस्त मन्त्रिमण्डल में प्रधान नीतिबृहस्पति' नामके मंत्री का कथन है राजन् ! यह 'उपाय सर्वज्ञ' नाम का नवीन मन्त्री उचित कह रहा है, क्योंकि यह समस्त विद्वानों में अग्रेसर (प्रधान) और विशिष्ट बुद्धिशाली विद्वान है। हे राजन् ! यदि शत्रु द्वारा भी भविष्य में कल्याणकारक बात कही जावे तो उसे भी सज्जन पुरुष स्वीकार करते हैं-मानते हैं। हे राजन् ! ऐसे विषय पर, जिसमें साधारण कार्य का निरूपण मुख्यता से किया गया है, कौन विषाद करेगा ? अपि तु कोई नहीं करेगा । १०६ ।। हे राजन् ! निम्नप्रकार कहा जानेवाला सुभाषितत्रय ( कानों को अमृतप्राय तीन श्लोकों का रहस्य ), जिसमें समस्त अर्थशाखों ( नीतिशाखों) से सार-समूह ग्रहण किया गया है, आपको उसप्रकार निरन्तर धारण (पालन) करना चाहिए जिसप्रकार शरीररक्षा के कार्य ( भोजनादि ) सदा धारण किये जाते हैं। हे राजन् ! विजयश्री के इच्छुक राजा को अपने आदमी की रक्षा स्वयं करनी चाहिए और दूसरे की रक्षा दूसरे की सहायता से करनी चाहिए। कभी अपना आदमी दूसरों के द्वारा सताया हुआ दूसरे से रक्षा करने के योग्य है और कभी दूसरा आदमी किसी से पीड़ित हुआ अपने सेवकों द्वारा रक्षा करने के योग्य होता है परन्तु अपनी आत्मा की रक्षा अपने से और दूसरों से सब प्रकार से सदा करनी चाहिए ॥१०७॥ हे राजन् ! आप बगीचे के माली-सरीखे निम्रप्रकार यथायोग्य व्यापार (साम, दान-श्रावि नीतियों का समुचित प्रयोग) में चतुर हुए पृथिवी का पालन (संरक्षण) कीजिये । अर्थात्जिसप्रकार बगीचे का माली निम्नप्रकार के कर्तव्य-पालन द्वारा अपने बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार आप भी निम्रप्रकार के कर्तव्य-पालन द्वारा पृथिवी की रक्षा कीजिए। अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार बगीचे का माली बेरी व बयूल-श्रादि कटीले वृक्षों को बगीचे से बाहिर वर्तमान वृतिस्थान (बाड़ी-विरवाई ) पर बाँधता हुआ बगीचे की रक्षा करता है। अर्थात्-उक्त कटीले वृक्षों को काटकर बजे के चारों ओर बाह (विरवाई) लगाकर बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार पजा भी क्षुद्र शत्रुओं को अपने देश से * 'परोऽन्यस्मात्परों निजात्' कः । + 'परे परेभ्यः स्वैः स्वेभ्यः स्खे परेभ्यश्व तैः। परे २६यः स्वेभ्यः परेभ्यश्च नित्यमात्मा विपश्चिता क. । अर्थात्-उक्त इलोक नं० १.७ के पचात् ह. लि. मू० प्रति क में अधिक उल्लिखित है-सम्पादक १. जाति-भलकार २. भाक्षेपालकार। ३. जाति-अलकार । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRA यशस्तिलफचम्पूकमव्ये वृक्षाकण्टफिनो अधिनियम बिरलेषयसंहिता नुस्खातान्प्रतिरोपयन्कुसुमिताश्चिन्वस्लघून वर्धपन् । उद्यान्सनमयाच कृशयन्नस्युनितान्पातय-- मालाकार इव प्रयोगनिपुणो राजन्मही पालय ॥ १० ॥ स्वल्पादपि रिपोझैजादचत्थस्थेव शानिनि । भयं जायेत कालेन तस्मात्कस्तमुपेक्षते ॥ ११ ॥ इति समासाहितसमस्तसचिवपुरःसरस्थितेनीतिवृहस्पतेश्च लमीमुद्राङ्गा गाङ्गेयोर्मिकामिव हस्ते कृत्येतिकश्यताक्रिया सत्यवागिव प्रतिपन्नधर्मविजयकभाशे यथाकालं पापि गुणानन्वतिष्टम् । बाहिर निकालकर उन्हें देश निकाले का दंड देकर-पृथ्वी का पालन करता है। जिसप्रकार धगीचे का माली परस्पर में मिले हुए आम व अनार-आदि वृक्षों को पृथक्-पृथक् करता हुआ-विरले करता हुआबगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी परस्पर में मिले हुए शत्रुभूत राजाओं को भेदनीति द्वारा पृथक्-पृथक करता हुआ पृथ्वी का पालन करता है। जिस प्रकार बगीचे का माली घायु के झकोरों-आदि द्वारा उखाड़े हुए वृक्षों व पौधों को पुनः क्यारी में आरोपित-स्थापित करता हुआ चगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी सजा पाए हुए अपराधियों को पुनः आरोपित-मन्त्री-आदि के पदों पर नियुसकरता हुआ पृथ्वी का पालन करता है। जिसप्रकार गीचे का माली फूले हुए वृक्षों से पुष्प-राशि चुनता हुश्रा बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी धनाट्य प्रजाजनों से टेक्स रूप में छठा अंश ग्रहण करता हुआ पृथ्वी का पालन करता है। जिस प्रकार घगीचे का माली छोटे वक्षों के पोधों को बढ़ाता हुआ बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी युद्ध में मरे हुए सैनिकों के पुत्रादिकों को बढ़ाता हुआधनादि देकर सहायता करता हुआ-पृथ्वी का पालन करता है। जिसप्रकार बगीचे का माली ऊँचे वृक्षों को भली प्रकार नमाता है, क्योंकि उनकी छाया गिरने से दूसरे वृक्ष नहीं बढ़ पाते, इसलिए उन्हें नमाता हुआ बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी घमण्डी शत्रुभूत राजाओं को नमाता हुआ-अपने वश करता हुआ पृथ्वी का पालन करता है। जिसप्रकार जगीचे का माली विस्तीर्ण-विशाल (विशेष लम्बे चौड़े) वृक्षों को कृश ( पतले) करता हुआ ( कलम करना हुआ) वगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी अत्यधिक सैन्यशाली शत्रुभूत राजाओं को कृश ( थोड़ी सेनावाले ) करता हुआ पृथ्वी की रक्षा करता है एवं जिसप्रकार बगीचे का माली विशाल ऊँचे वृक्षों को गिराता हुआ वगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी प्रचुर फौजवाले शत्रुभूत राजाओं को युद्धभूमि में धराशायी बनाता हुआ पृथ्वी का संरक्षण करता है' ॥ १०८ हे राजन् ! होनशक्तिशाली शत्रु के धीज (संतान) से भी विजयश्री के इच्छुक राजा को उत्तरकाल में उसप्रकार भय उत्पन्न होता है जिसप्रकार पीपल वृक्ष के छोटे से बीज से भी दूसरे वृक्षों को उत्तरकाल में भय उत्पन्न होता है। क्योंकि वह ( पीपल का पेड़) दुसरे वृक्षों को समूल नष्ट कर डालसा है। इसलिये हे राजन् ! अल्प शक्तिवाले शत्रुरूपी बीज की कौन उपेक्षा (अनादर ) करेगा? अपि तु कोई नहीं करेगा। निष्कर्ष- इसलिये हे राजन् ! शत्रुओं को उखाड़ते हुए राज्य को निष्कष्टक बनाइए ॥ १०६ ।। * "विश्लेषयन्संहता' क० । + 'पृथूथ लघयमत्युचिश्तान क.| 'शस्विनः कः । १. दृष्टान्तालंकार । २. उपमालंकार आक्षेपालंकार । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः यथा मजा यायाता प्रयोगिनि । न चिरं श्रस्तधामन्त्रे जाततन्त्रेऽपि राजनि ॥ ११० ॥ शुचयः स्वामिनि स्निग्धा राजराखान्तवेदिनः । मन्त्राधिकारिणो राज्ञामभिजातः स्वदेशजाः ॥ १११ ॥ कदाचित सन्मानानाह्लादित समस्त मित्रतन्त्रः सचित्रलोक प्रतिसमुद्र्ष्टतमभ्यः श्रीविलासिनी सूत्रितैश्वर्यवरेषु घुमतीवरं खलु दूतपूर्वाः सर्वेऽपि संध्यादयो गुणा इार्याकार्य च । दक्षः शूरः शुचिः प्राज्ञः प्रगल्भः प्रतिभानवान् । विद्वान्सी तितिक्षुभ द्विजम्मा स्थविरः प्रियः ॥ ११२ ॥ प्राकरणिक मन्त्र मन्त्री का स्वरूप - जिसप्रकार मदोन्मत्त हाथी पर आरूढ़ हुआ पुरुष यदि वचन, पाद-संचालन व अङ्कुश प्रयोग आदि हरित संचालन के साधनों का प्रयोग ( व्यवहार ) नहीं करता तो उसकी चिरकाल तक शोभा नहीं होती । अर्थात् वह हाथी द्वारा जमीन पर गिरा दिया जाता है उसी प्रकार प्रचुर सैन्यशाली राजा भी यदि मन्त्रज्ञान से शून्य है तो उसके पास भी राज्यलक्ष्मी चिरकाल तक नहीं ठहर सकती । अर्थात् नष्ट होजाती है' ॥ ११० ॥ राजाओं के मन्त्री ( बुद्धि-सचिव ) ऐसे होते हैं, जो शुचि हों। रबीन की जानला आदि नीतिवि आचरणों से रहित हो, स्वामी से स्नेह प्रकट करनेवाले हों, राजनीतिशास्त्र के वेत्ता हों एवं तो कुलीन और अपने देश के निवासी हो । भावार्थप्रस्तुत नीतिकार ने मन्त्रियों में द्विज, स्वदेशवासी, सदाचारी, कुलीन व व्यसनों से रहित आदि नौ गुणों का निरूपण किया है, जिसे हम इसी आवास के नंः ७२०७३ की व्याख्या में विशेष विवेचन कर चुके हैं, प्रस्तुत *लोक में उनमें से उक्त पाँच मुख्य गुणों का कथन है, इसप्रकार यहाँ तक मन्त्राधिकार समाप्त हुआ ।।१११।। हे मारिदत्त महाराज ! निरन्तर आदर-सत्कार के प्रदान द्वारा समस्त मित्रों व सैनिकों को आनन्दित करनेवाले और मन्त्रिमण्डल को बुद्धि से मन्त्र का निश्चय करनेवाले मैंने ऐसा निश्चय करके कि "राजाओं में, जो कि राज्यलक्ष्मी रूपी वेश्या द्वारा सूचित किये हुए ऐश्वर्य से क्षेत्र हैं, जो सन्धि विग्रह ( युद्ध ) आदि गुण पाए जाते हैं, वे दूतपूर्वक ही होते हैं। अर्थात् राजदूतों की सहायता से ही सम्पन्न होते हैं" ऐसे 'हिरण्यगर्भ' नाम के दूत को बुलाया, जिसमें निप्रकार ( नीतिशास्त्र में कड़े हुए) गुण बर्तमान थे । २४९ १ १. दक्ष ( सन्धि व विमद्द -आदि राजनैतिक कर्त्तव्यों के करने में कुशल ), २. शुरवीर ( शस्त्रसंचालन व राजनीति शास्त्र के प्रयोग करने में निपुण ), ३. शुचि, अर्थात् - पवित्र (निर्लोभी व निर्मल शरीर तथा विशुद्ध त्र-युक्त अथवा शत्रु के धर्म, अर्थ, काम और भय की जानकारी के लिए- अर्थात् - अमुक शत्रुभूत राजा धार्मिक है ? अथवा अधार्मिक ? उसके खजाने में प्रचुर सम्पत्ति है ? अथवा नहीं ? वह कामान्ध है ? अथवा जितेन्द्रिय ? यह बहादुर है ? अथवा डरपोक ? इत्यादि ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से - गुप्तचरों द्वारा छल से शत्रु-चेष्टा की परीक्षा करना इस 'उपधा' नाम के गुण से विभूषित ), ४. प्राज्ञ ( अपने व पर की विचार शक्ति से सम्पन्न - विज्ञान ) ५. प्रगल्भ ( दूसरे के चित्त को प्रसन्न करने में कुशल ), ६. प्रतिभानवान् ( शत्रु द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों के निवारणार्थ अनेक उपाय प्रकट करनेयाला ), ७. विद्वान ( अपनी व शत्रु की व्यवस्था को जानने में निपुण ), ८. वाग्मी ( वक्ता - हृदय में स्थित अभिप्राय को प्रकट करने में प्रवीण ), ६. तितिक्षु ( दूसरों के गरजने पर गम्भीर प्रकृतिवाला ), १० ड्रिजन्मा (ब्राह्मण क्षत्रिय व वैश्य में से एक ), ११. स्थविर ( नीतिशास्त्र व ऐश्वर्य आदि से जिसका *'सूत्रितस्वयंवरेषु' क० । 'इत्यवधाये च' क० | परन्तु मु. प्रती पाठ: समीचीनः -- सम्पादकः + तितिक्षा' मु. प्रती परन्तु च० प्रतितः व कोशतश्च संशोधितः - सम्पादक: १. दृष्टान्तालङ्कार | २. जाति अलङ्कार | ३२ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आचार विकृत-विकार-युक्त न हो) और १२. जो प्रिय हो। अर्थात्-जिसे देखकर नेत्र व मन में आल्हाद-उल्लास (श्रानन्द) उत्पन्न होवा हो। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार श्रीमत्सोमदेवसूरि ने निम्नप्रकार राजदूत का लक्षण, गुण व भेद निरूपण किये हैं। 'जो अधिकारी दूरदेशवर्ती सन्धि व विग्रह (युद्ध)-आदि राजकीय कार्यों की उसप्रकार सिद्धि व प्रदर्शन करता है जिसप्रकार मंत्री उक्त कार्यों की सिद्धि या प्रदर्शन करता है ॥१' राजपुत्र' विद्वान् के उद्धरण का भी यही आशय है ॥१॥ नीतिकारों ने राजदूत के गुण भी निम्न प्रकार उल्लेख किये है। १. स्वामीभक्क, २. द्यूतक्रीड़न व मद्यपानादि व्यसनों में अनासक्त, ३. चतुर, ४. पवित्र (निलोी ), विद्वान्, उदार, बुद्धिमान, सहिष्णु, शत्रु-रहस्यका ज्ञाता व कुलीन ये दूत के मुख्य गुण हैं। शुक्र विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो राजा चतुर, कुलीन, उवार एवं अन्य दूत के योग्य गुणों से अलंकृत दूत को भेजता है, उसका कार्य सिद्ध होता है ॥१॥ राजदूतों के भेद निर्देश करते हुए नीतिकार" लिखते हैं कि 'दूत तीन प्रकार के होते हैं। १. निसृष्टार्थ, २. परिमितार्थ व ३. शासनहर। १. निसृष्टार्थ-जिसके द्वारा निश्चित किये हुए सन्धि व विग्रह को उसका स्वामी प्रमाण मानता है, वह निसृष्टार्थ' हैं, जैसे पांडवों का श्री कृष्ण । अभिप्राय यह है कि श्री कृष्ण ने पाण्डषों की ओर से जाकर कौरवों के साथ युद्ध करना निश्चित किया था, उसे पाण्डवों को प्रमाण मानना पड़ा, अतः श्री कृष्ण पाण्डवों के 'निमुष्टार्थ दूत थे। इसीप्रकार राजा द्वारा भेजे हुए संदेश और शासन (लेख) को जैसे का तैसा शत्रु के पास कहने या देनेवाले को क्रमशः 'परिमितार्थ' व 'शासनहर' जानना चाहिए। भृगु विद्वान् ने कहा है कि 'जिसका निश्चित वाक्य-सन्धि-विग्रहादि-अभिलषित न होनेपर भी राजा द्वारा उल्लन न किया जासके उसे नीतिज्ञों ने 'निसृष्टार्थ' कहा है ॥शा जो राजा द्वारा कहा हुआ संदेश -वाक्य-शत्रु के प्रति यथार्थ कहता है, उससे हीनाधिक नहीं कहता उसे "परिमितार्थ' जानना चाहिए ||२|| एवं जो राजा द्वारा लिखा हुआ लेख शत्रु को यथावत् प्रदान करता है, उसे नीतिज्ञों ने 'शासनहर' कहा है ॥३, प्रकरण में यशोधर महाराज ने 'राज-दूत की सहायता से ही सन्धि व विग्रह-आदि कार्य सम्पन्न होते हैं ऐसा निश्चय करके 'हिरण्यगर्भ' नामके दूत को बुलाया, जो कि निसृष्टार्थ था अर्थात्-जिसके द्वारा किये गए सन्धि व विग्रह-आदि उन्हें प्रमाण (मान्य) थे और जिसमें नीतिशास्त्रोक्त उक्त गुण वर्तमान थे ॥११॥ १. तया च सोमदेवमूरि:- अनासभेष्वषु दूतो मन्त्री ॥१॥ २. तथा च राजपुत्रः-देशान्तरस्थित कार्य दूतद्वारेण सिद्धयति । तस्मादतो यया मंत्री तत्कार्य हि प्रयापयेत् ॥१॥ ३. तथा च सोमदेवमूरिः-स्वामिमफिरव्यसनिता दाक्ष्यं शुचित्वममूर्खता प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्वं क्षान्तिः परमर्मवैदित्वं जातिश्च प्रयमे दूसगुणाः ॥१॥ ४. तथा च शुकः--दक्ष जात्यं प्रगल्भं च, दूतं यः प्रेषयेम्नृपः । अन्यैश्च स्वगुणैर्युक्तं तस्य कूत्यं प्रसिस्थति ॥१॥ ५. तथा च सोमदेवसूरि:-स निषिधो निमुष्टार्थः परिमित्तार्थ शासनहरश्चेति ॥१॥ यत्कृतौ स्वामिनः सन्धिविग्रही प्रमाणं स निसृष्टार्थः यथा कृष्णः पाण्डवानाम् ॥२॥ ६. तथा च भृगुः—यवाक्यं नान्यथामावि प्रभोर्यशप्यनीप्सित्तम् । निसृष्टार्थः स विशेयो दूतो नीतिविवक्षणैः ॥१॥ यत्प्रोकं प्रभुणा वाक्यं तत् प्रमाणं वदेच्च यः । परिमितार्थ इति शेयो दूतो नान्यं अधीति यः ॥२॥ प्रभुणा लेखितं यच्च तत् परस्य निवेदयेत् । यः शासनहरः सोऽपि तो ज्ञेयो नयान्वितैः ।। नीतिवाक्यामृत ( भा. टी.) दूतसमुहश पू. २२४-२२५ से संकलित--सम्पादक ५. समुच्चयालंकार। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतीय आवासः इति गुणविशिष्टमशेपमनीषिपुरुषपरिषदिष्टमखिलप्रयाणसामनीसुविधेयं हिरण्यगर्भनामधेय शास्त्रवाण्याभ्यासमिणिसामरगुरुपाय निसृष्टार्थ निजप्रहासिशयापहेलितपुलहपुलामपुलस्सिपालकाप्यकास्थायनमतिजातं वृतमाक्षपालिकेन तमेव लेखा मायामास । तथाहिगर्व घबर मुश्च मा घरत रे पञ्चालकाश्चापन केलि केरस संहर प्रविश र मदेश देशान्तरम् । मिथ्यचर्यबलावलेपरमसनश्यदिवेकात्मनामित्य वष्टिरिविचितं न सहते देवः स देवाश्मयः ॥ ११ ॥ शौण्डीर्यशालिनि जगस्नयाहरुधवणे देगेगमगरिमादि। तस्याहवेषु वयसा शिरसि प्रबन्धो यद्वाभमेषु परलोकधिया जटानाम् ॥ १६४ ।। दूसस्प पुन: स्वामिमैवमुक्तस्यापीदमनुष्ठानम्--- संकीर्तयेस्साम रिपो सदर्षे नयं सनीती बलिनि प्रभेदम् । मन्त्रेण तन्त्रेण च हीमवृत्तौ दण्वाश्रयोपायविधि विधिज्ञः ।। ११५ ॥ इसीप्रकार जो 'हिरण्यगर्भ नाम का राजदूत निम्नप्रकार के गुणों से अलङ्कत था। उदाहरणार्थजो समस्त विद्वज्जनों की सभा में प्रेमपात्र था। जो समस्त प्रस्थान करने योग्य वस्तुओं में अनुराग रखता था। जो शाख (नीतिशास्त्र) के अभ्यास से बृहस्पति को जीतनेवाला और शत-संचालन के अभ्यास द्वारा अर्जुन पर विजयश्री प्राप्त करनेवाला था। जो निसृष्टार्थ था। अर्थात्-जिसका सन्धि-विमहावि व्यापार मेरे (यशोधर महाराज) द्वारा प्रमाण माना जाता था एवं जिसने अपनी बुद्धि की विशेषता द्वारा पुलह ( राजनीति का विद्वान् षिविशेष), पुलोम, पुलस्ति, पालकाप्य और कात्यायन (पररुचि) इन (राजनीति के विद्वानों) का बुद्धि-समूह तिरस्कृत किया था। तत्पश्चात्-मैंने आक्षपटलिक (लेख. पाचक अधिकारी) से निम्नप्रकार राजनैतिक लेख विषय ( रहस्य) प्रस्तुत दूत के लिए नवण कराया प्रस्तुत लेख-रे बर्बर ! (रे सवालाख पर्वतों के स्वामी ! तुम मिथ्या अभिमान छोड़ो। हे पझाल देश में उत्पन्न हुए क्षत्रिय राजाओ! तुम लोग चपलता मत करो। हे करल ! (मलयाचल-निकटयतो देश के स्वामी ! ) तुम क्रीडा संकुचित करो। रे मद्रेश ! ( मद्रदेश के स्वामी ! ) तुम दूसरे देश में प्रविष्ट होजायो। क्योंकि वे जगत्प्रसिद्ध व भाग्यशाली (विशेष पुण्यवान्) यशोधर महाराज आप लोगों का, जिनका इयोपादेयज्ञान मिथ्या (निरर्थक ) ऐश्वर्य व सैन्य-गर्व ( मद) से वेगपूर्वक नष्ट हो चुका है, अनुचित व्यवहार सहन नहीं करते ॥ ११३ ॥ त्याग और पराक्रम को ख्याति से शोभायमान एवं तीन लोक में यश प्राप्त करनेवाले यशोधर महाराज के साथ जो राजा नम्रता का वर्ताव नहीं करता-उद्दण्डता करता है उसके मस्तक पर संपाम-भूमि में काक व गांध-वगैरह पक्षियों का प्रयन्ध ( मेलापक) होवे। अर्थात्--उसका मस्तक छिन्न भिन्न किया जायगा। अथवा प्रस्तुत महाराज से भयभीत हुआ वह शत्रुभूत उदएड राजा स्वर्गादि के सुख की क्षमना बुद्धि से प्रेरित हुआ गङ्गादि नदियों के तटपर्वो आश्रमों पर तपश्चर्या करता दुआ मस्तक पर जाएँ प्रबन्ध ( धारण) करे ॥ ११४॥ राजा द्वारा उक्त प्रकार समझाए हुए ( शत्रुभूत राजा के प्रति लेख लिखवाकर समझाए हुए) राजदूत का उक्त कथन के पश्चात् निनप्रकार कर्तव्य है। राजनीति-वेत्ता ( उपाय-चतुर) राजदूत को अभिमानी शत्रुभूत राजा के समक्ष उक्त पाँचप्रकार की सामनीति का निरूपण करना चाहिए और न्यायवान शत्रु के साथ न्याय का वर्ताव करने को कहना चाहिए तथा बलिष्ठ (प्रचुर सैन्य-शाली) शत्रुभूत राजा के साथ भेदनीति का प्रयोग करना चाहिए । अर्था १. समुञ्चगालंकार । २. दीपकालंकार । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये अम्पयावागर्थकमलुब्धानां दूतानां दुःप्रवृतिभिः । श्रीः स्वामिनः प्रवृद्धापि क्रियते संशयाश्रया॥ ११६॥ कदाचिस्कृत कार्धचन्द्रचुम्बितचन्द्र कापीतविम्बित मुण्डमण्डलः, तूलिनीकुसुमकुमलाकृतिजापरोस्कर्षितर्गकुण्डलः, कार्मगानेजदाजातिवरित कण्डिकायगुण्ठनाउरकण्ठनालः, निरवेलचौरीचत्रितविधिना प्रपदीनमासप्लम्बजालः, आलीफपस्थूलत्रापुषमागविनिर्मितारस्पादिसप्रकाण्डमण्डनः, परपर्यन्तप्रकोष्ठाप्रकल्पितगत्रलवलयावरूपउना, काकनन्तिका. फलमालापरचित बैकक्षकाक्षःस्थल, दोनों शत्रुओं को लड़ाकर बलिष्ठ के हाथ सन्धि और हीन के साथ युद्ध करना चाहिए तथा उक्त पञ्चाङ्ग मन्त्र व सैन्यशक्ति से होन शत्रु के समक्ष ऐसे उपाय का विधान कहना चाहिए, जिसमें दण्ड का प्राबर ! युद्ध करने की माषाहा' !! ११५ । अन्यथा याद राजदूत उक्तप्रकार से शत्रुभूत राजा के साथ उक्त-प्रकार साम-श्रादि नीति का वर्ताव न करे तो उससे विजिगापु राजा का परिणाम जो राजदूत शत्रुभूत राजा के प्रांत कठोर वचनों का प्रयोग करते हैं और कठोर विषय का निरूपण करते हैं एवं लोभो इं। अर्थात्-शत्रुराजा से लाँच-घूस लेते हैं, उनके दुराचारों द्वारा राजा की बढ़ी हुई भी राज्यलक्ष्मी सन्देह को प्राप्त हुई की जाती है। अर्थान्-नष्ट की जाती है ॥ ११६ ।। नारदत्त महाराज ! किसी अवसर पर मैंने ( यशोधर महाराज ने । वरिष्क नाम के गुप्तचरविभाग के अधिकारी स यह प्रवरा किया कि एसाशनक' नाम का गुप्तचर अपने देश व दूसरे देश के निवासी भेद-योग्य भद करने के अयोग्य मनुष्य-समह का वृत्तान्त ग्रहण करके आया है। तत्पश्चातमैंने उसे अपने समाप चलाकर उसके साथ निम्नप्रकार सा-मजाक की बात-चीत 'शनिक नाम का गुप्तचर? जिसका मस्तकप्रदेश कृत्रिम बधेचन्द्र से व्याप्त मार-पंखों के सशोभित होरहा था। जिसने कानों पर समरवृक्ष की कुसमकालयों-सरली आकासयाले लक्षामयी ( लाख के) कुण्डल धारण किये थे। जिसका कण्ठकन्दली ( कण्ठरूपी नाल-कमल का उण्डी ) एसी कएठी के चारों तरफ बंधी हुई हाने से काठन थी, जो कि वशीकरण व उनादन-श्रादि कार्यों में उपयोगी अनेक प्रकार की जटाओं ( मूली-जड़ों)स जड़ा ( बना हुइ था। जो एसा लम्बजाल (अँगरखा) धारण किये हुए था, जो कि पुराने कपड़ों की धजियों से बना हुआ, नाना रंगोवाला तथा गुल्फ ( घोटू) पर्यन्त लम्बा था। जो बदरी (वैर ) फलो सरीखे स्थूल त्रापुषजाव के माणयों से बने हुए अङ्गद ( भुजाओं के आभूषण ) धारण किये हुए था, इसलिये जिनकी कान्ति से जिसने प्रकोष्ठ (कोहनी से नीचे का स्थान ) और मणिबन्ध (कलाई-स्थान ) के आभरण उत्पन्न किये थे। जिसने हाथ की कलाई से लेकर कोहनी-पर्यन्त मणिबन्ध स्थानों पर भंसा के सींगों की पहुँचियों का अवरुण्डन ( आभूषण या शोभा ?) धारण किया था। जिसका वक्षःस्थल घोंघचियों की दो मालाओं से सुशोभित उत्तरीय वस्त्र से ज्याप्त था। है 'मस्तरमण्डल: क. 1:! 'शू (श्रू)लिनीकुमुम' का । परन्तु मु. प्रती पाठः समीचीनः । ''आप्रपदीनप्रालम्बजाल:' का 'प्रकल्पितगवलयावरुण्डनः' क० । परन्तु मु. प्रतौ पाठः विशेषस्पष्ट राक्षश्च । A 1 'दैवशवक्षःस्थलः क. एवं वैऋक्षकवक्षःस्थल' ग.। A "तिर्यक् वक्षसि निक्षिप्तं चकशकमुदावत' इति टिप्पणी। परन्तु भर्यभेदो नास्ति-सम्पादक १. दीपालंकार । २. जाति-भलंकार । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ तृतीय आश्वासः कठोरकमठपृष्ठाडीलस्पपुटपामितला, पटवारपर्याणगोणीगुमापिहितमेहना, पुराणतस्मन्दीरमेखलालकृसनितम्बनिवेशन;, धांसहंसरसितवाचालचरणचारचातुरीक्षोभितवीप्रोजनमानस्कारः, कासरेक्षणविषाणचाणविनिवेदित व निशायलिप्रचारः, किरातवेषस्य भगवतो विश्वमूर्तेरपरमेव मध्याकल्पं बिभ्राणः, पुनभाण्ट बन्दिवृन्दारकस्य कटकाधिपतेः, जामि गावलीपाठिनः सुभदसौहार्दस्य, दौहिनः श्रोत्रियकितवनानी नर्भसचिवस्म, समाश्रयस्थानमवक्रीणिलोकानाम, + अखिलपुनर्भूविवाहकृतकशिपुर्वतनसम्बन्धः, सकलगो मुलालिखिततूबरपुरमिसरिभीदायनिवन्धः, प्रचुरप्रतिकर्मविकृतमात्रैः पत्रिपुण्डाजिकैश्च परिबाज: 'पप खलु भगवान् संजातमहायोगिनीसंगतिरतीन्द्रियज्ञानोदतिः सिद्धः सामेधिकः संवननकर्मणा करिणा केसरिणमपि संगमति विघभेषन जननीमप्यास्मऽ धेरिणीं विदधाति जिसका हस्ततल कठोर कदए की पीठ के अप्नील ( कूपर-प्रान्तभाग) सरीखा ऊँचा-नीचा था। जिसने अपनी जननेन्द्रिय पुराने जीन की गोणी (चर्ममय आच्छादन ) की लँगोटी द्वारा आच्छादित की थी-ढक रक्खी थी। जिसने अपना कमरभाग मथानी की विशेषजीर्ण रस्सी की करधोनी से अलङ्कत किया था। जो परों में काँसे केनपर पहिने ए था. इसलिए उनके मधुर शब्दों से उसके दोनों पर विशेष शब्द कर रहे थे. उन शब्द करते हए पैरों के गमन की चतराईद्वाश जिसने रस्तार लोगों के चिस का विस्तार चलायमान किया था। जिसने भैस के सींग के शब्दों द्वारा रात्रि का बलिप्रचार ( पूजा प्रवृत्ति ) प्रकट किया था। जो (शङ्खनफ) भिल्ल ( भील ) वेपधारक भगवान् श्रीमहादेव का अनोखा व अनिर्वचनीय ( कहने के लिए अशक्य) वेष धारण कर रहा था। जो स्तुतिपाठकों में प्रधान 'कटकाधिपति' नामवाले मानष का पुत्र था और 'सुभटसौहार्द' नामवाले चारणभाट का दामाद एवं 'श्रोत्रिय कितव' नामवाले नर्मसचिव ( भांड) का दोहिता ( नाती-लड़की का लड़का) था। जां प्रमचर्य से भ्रट हुए लोगों का विश्राम स्थान था। समस्त व्यभिचारिणी विधवा लिया के विवाह के अवसर पर जि 'पर जिसे भोजन वख एवं वेतन मिलने का संबंध किया गया था। जिसका समस्त गोकुलों ( ग्वालों के स्थानों) में शृङ्ग-रहित गाएँ व भैसों का दाय-संबंध ( दान-संबंध राज-पत्र में लिखा हुआ था। जिसके ज्ञान, मन्त्र व तन्त्र का प्रभाष ऐसे परिव्राजकों (शैवलिको सन्यासी-पेषधारकों) द्वारा निम्प्रकार जनाया जा रहा था, जिनके शरीर बहुतसी नेपध्य विधि ( भस्म-लेपन-श्रादि सजावट ) से विकृत होरहे थे जो ऐसे मनुष्यों के पुत्र थे, जो कि माया, योगशाला, ज्योतिष य वैद्यक-आदि लोकोपयोगी कलाओं के आधार से राजा ( यशोधर महाराज) के हित व अहित पुरुषों के जानने में चतुर थे एवं जो दएड व चर्मधारक थे। "हे लोगो ! निश्चय से यह 'शङ्खनक' नाम का योगीश्वर - ऋषियों में प्रधान ऋषि-है। जिसने महाविद्या देवताओं को प्रत्यक्ष जानना प्रत्यक्ष कर लिया है। जिसे इन्द्रिय रहित झान ( अजौकिक शान) की उत्पत्ति होचुकी है एवं जो सिद्ध है। अर्थात्-संसारी जीवों की अपेक्षा विलक्षण है-अलौकिक या जीवन्मुक्त है। इसके पचन अव्यभिचारी-यथार्थ वस्तु के निरूपण करनेवाले हैं। यह ऋषिराज निश्चय से वशीकरण विधि से सिंह का भी हाथी के साथ संगम कर देता है और वैरविरोध उत्पन्न करनेवाली औषधि के सामथ्र्य से माता को भी पुत्रों के साथ और विरोध उत्पन्न करनेवाली बना देता है। अयानन्सर मैंने (यशोधर महाराज ने ) उक्त गुप्तचर से हँसी-मजाक करते हुए पूँछा-अहो शानक ! तेरी यह उदरवृद्धि (पौष-बढ़ना ), जिसे मैंने पूर्व में देखी थी, इस समय किस कारण से नहीं होरही है ? 8 'विशावलिप्रपार' क०। A 'मामिमोगावलीपाठिन:' का 'अखिलपुनर्भूकृतकशिपुतनप्रवन्धः' क. * 'सत्रिपुत्रः कः । B'संहातमहायोगिनीसंबंधोऽतीन्द्रियशाननिधि क० । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये इत्यावेद्यमानज्ञानमन्प्रतन्त्रप्रभावः स्वपुरविषयनिवासिनः कृत्याकृत्यलोकस्य जनभुतिमादायागतः शङ्कनकनामा प्रणिधिरिति गूढपुरुषाधिष्ठायकारिष्टकादाकण्याहूय च तम् 'हंहो शङ्खनक, कुतो न खलु संप्रति सा तब तुन्वृद्धिः, इति तेन सय नालापमकरसम्। सोऽपि 'देव, कामिनीजनकटारिवासिदोविशदयविभिदिविभिः, विरहिणीहदयरिव सोरुमभिः काञ्चनच्छायापलाः सूपः, कान्ताननैखि (तत्प्राञ्जलिपेयपरिमलैः प्राज्पैराज्यः, स्त्रीकैतवैरिव जनितस्वान्तप्रीतिभिर्बहुरसवशैरषदशैः, लासिकाविलासैरिव मनोहरैः समानीतनेत्रनासारसनानन्दभावैः खाण्डवैः, प्रियसमाधरिव स्वादमानैरDविच्छिाखिने पक्वान्नैः, तरुणीपयोधरैरिव खुजाताभांगै; रसवधिधिमिई धिभिः, प्रणायिनीविलोकितरिय मधुरकान्तिमि; स्निग्धैर्दुग्य, अभिनवाङ्गनासंगमैरिबासीव स्वादुभिः शर्करासंपर्कसमासन्नै: परमान्नैः, E मेहनरसरहस्यैरिव साङ्गीणसंतापहारिमिर्वनसारपारदन्तुरैवरिपूरैः, आकण्ठमानयनमाशिखमाशिखा च प्रतिदिवसं १ दशद्वादशवारान्पसलसलानामेवंविधस्य च तत्पश्चात्-उक्त 'शङ्खनक' नाम के गुप्तचर ने मेरे साथ निम्नप्रकार वार्तालाप किया। अर्थासू-मेरे उक्त प्रश्न का निम्नप्रकार उत्तर दिया हे राजन् ! ऐसे आप सरीखों की ही, जो कि निम्नप्रकार भोज्य पदार्थों व जलपूरों से कण्ठ तक, नेत्रों तक, मस्तक तक और मस्तक के ऊपर वर्तमान जुल्फों तक दिन में दश-बारह वार भोजन करके सन्तुष्ट हैं व भोजन-भट्ट हैं और जिनके पास दुःख दूर करनेयाली प्रचुर सम्पत्ति वर्तमान है, तौद बढ़ती है। इसीप्रकार केवल आप सरीखों की ही नहीं, अपि तु ऐसे आलसी मनुष्य की, जो उक्तप्रकार का है। अर्थात्-जो दिन में १०-१२ बार निम्नप्रकार के भोज्य पदार्थों व जलपूरों के भक्षण-पान से सन्तुष्ट है व भोजन-भट्ट है एवं जिसका यथार्थदर्शन प्रचुर लक्ष्मी की शिखा (अप) के प्रकाश से मुसप्रकार नष्ट हो चुका है (जो लक्ष्मी के गर्व के कारण किसी की ओर प्रेमपूर्वक नहीं देखता ) जिसप्रकार रात्रि में दीपक को हस्तपर धारण करनेवाले पुरुष का यथोक्त दर्शन नष्ट होजाता है, तौद बढ़ती है परन्तु हम सरीखे भिक्षुकों का, जो कि आपके प्रसाद से अथवा श्रीमहादेव की कृपा से उपमान और उपमेय-रहित है। अर्थात्-जो विशेष दरिद्र हैं। अभिप्राय यह है कि हमारे समान कोई दरिद्र नहीं है, जिसकी उपमासदृशता-हमें दी जावे एवं हमारे समान उपमेय-उपमा देने योग्य हम ही है, यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाला जठर ( उदर ) किसप्रकार वृद्धिंगत होसकता है ? अपि तु नहीं होसकता। तौंद बढ़ानेवाले भोज्य पदार्थ हे राजन् ! जिन्हें ऐसे चाँवल विशेष रूप से भोजन में प्राप्त होते है, जो उसप्रकार अतिदीर्घ ( लम्बे ) और विशद ( शुभ्र ) कान्तिशाली है जिसप्रकार नवीन युवतियों के कटाक्ष-दर्शन अतिदीर्घ और विशदकान्ति-शाली ( विशेष शुभ्र ) होते हैं। इसीप्रकार जिन्हें ऐसी दालें खाने को मिलती है, जो उसप्रकार सुवर्ण की कान्ति तिरस्कृत करती हुई उष्ण होती है जिसप्रकार विरहिणी स्त्री के हृदय सुवर्ण सदृश गौरवर्ण और उपरण होते हैं। इसीप्रकार जिन्हें ऐसे घृत विशेष रूपसे खाने को मिलते हैं, जिनकी सुगन्धि नासिकारूप अञ्जलियों द्वारा उसप्रकार श्रास्वादन करने योग्य है जिसप्रकार नियों के मुखों की सुगन्धि नासिकारूप अञ्जलियों द्वारा आस्वादन कीजाती है। इसीप्रकार जिन्हें ऐसे अवदंश ( मद्यपान की रुचि उत्पन्न करने के हेतु भुजे चने व धान्य के खीले ) खाने को मिलते हैं, जो कि उसप्रकार इमली-श्रादि C मासालिपेयपरिमलैः सा० ग । A 'मासिफाजालभिः' इति ख• प्रती टिप्पणी | D अविच्छिमस्वनेः' का। B मोहनरसरहस्यैरिध' क० ख. ग. ३० । 'मोहनरसहास्यैरिव' प० । A 'सरस' इति टिप्पणी । 'प्रतिदिवस दश द्वादश या धारान् पत्सलवत्सलाना' का। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय आश्वासः २५५ मित्राय गृहीतप्रदीपस्येवो स्कोटभी शिलाप्रकाशप्रशान्तयथार्थदर्शनस्य स्वभावादेव तुन्दपरिवस्य लोकस्य शोकापनुदसंपवणानामेवायं तुम्दोऽमन्दिमानमा स्कन्दति । अस्मां तु देवखादुपमानोपमेयार्थरहितानां कथं नामां पिचड स्कायताम्' इत्याछाप । पुनः सपरिहासमेन महमेवमवोचम् -- 'अयि हुकाधिपते, किमच कवचनापि हस्तमुखसंयोगोऽभूत् ।" ' समुदामेदिनी परिवृत, बाढम् ।' 'कथय कथय ।' 'देव, भूयताम् । त्रिपुरुषोदिजखित कमण्डलुकम्बुकलावत्कलनामावली प्रशस्ते, अस्ति खल्वस्यामेव पुरि प्रकृतिपुरुषस्य * स्वरवर्ते दिवाकीर्तेर्नता, स्वस्त्रीयो पलाइकस्य संवाहकस्य मैथुनिक: के खट्टे रसों से संस्कृत किये हुए और हृदयको आनन्दित करनेवाले हैं जिसप्रकार स्त्रियों की कपटपूर्ण चेष्टाएँ हृदय को उल्लासित आनन्दित करती हुई विशेष प्रेमरस से पूर्ण होती है। जो ऐसे खाएडवों ( मिष्टान्न व्यञ्जन — वरफी - आदि) से सन्तुष्ट हैं, जो उसप्रकार मनोहर ( हृदय को आनन्द उत्पन्न करनेवाले ) और नेत्र, धारण व जिल्हा इन्द्रिय को आनन्द उत्पन्न करनेवाले हैं जिसप्रकार नृत्यकारिणी की नेत्र- चेष्टाएँ मनोहर व नेत्रादि में उल्लास - आनंद -- उत्पन्न करती है। इसीप्रकार जो ऐसे पूर्ण पचनेवाले पकवानों द्वारा सन्तुष्ट हैं, जो उसप्रकार स्वादयोग्य ( रुचिकर ) हैं जिसप्रकार प्यारी श्री के प्रोष्ठ स्वादु और रुचि उत्पन्न करते हैं। जिन्हें ऐसे दही खाने मिलते हैं, जो उसप्रकार विस्तृत व कठिन ( जमे हुए ) हैं जिसप्रकार नवयुवतियों के कुच ( स्तन ) कलश विस्तृत व कठिन होते हैं। जिन्हें ऐसे दूध पीने मिलते हैं, जो उसप्रकार स्वादु व मधुर कान्तिशाली ( शुभ्र ) और सचिकण है जिसप्रकार स्नेह करनेवाली स्त्रियों के कटाक्ष निरीक्षण स्वादु व प्रिय होते हैं। जिन्हें ऐसी दूध की खीरें खाने को मिलती हैं, जिनके समीप शकर का मिश्रण है और जो उसप्रकार स्वादु व मिष्ट है जिसप्रकार नवीन विवाहित स्त्रियों के संयोग अत्यन्त स्वादु ष मिष्ट होते हैं एवं जिन्हें ऐसे जलप्रवाह पीने को मिलते हैं, जो कपूरपालिका ( समूह ) जैसे चमत्कार उत्पन्न करते हैं और जो उसप्रकार समस्त शरीर का सन्ताप दूर करते हैं जिसप्रकार सुरतरस ( मैथुनरस ) के गोप्यतत्व सर्वाङ्गीण सखाप दूर करते हैं।' अथानन्तर फिर भी मैंने इससे ( शङ्खनक नाम के गुप्तचर से ) हँसी मजाक पूर्वक निम्नप्रकार कहा ( पूँछा ) - हे मेढो के स्वामी ( भार बाइक ) ! क्या किसी स्थान पर आज तेरा हस्त-मुख- संयोग ( भोजन ) हुआ ? शङ्खनक ने उत्तर में कहा- हे समुद्र पर्यन्त पृथ्वी के स्वामी ! विशेषरूप से हुआ । मैंने कहाकह-कह । उसने कहा- हे राजन! सुनिए, जिसकी नामावली - प्रशस्ति ( प्रसिद्धि ) ब्रह्मा द्वारा अपने मण्डलुरूपी फलक (पटिया ) पर और विष्णु द्वारा अपने पानजन्य नाम के शंख पर और मद्देश द्वारा अपने ललाट पर स्थित अर्धचरवरूपी फलक पर उकीरी गई है ऐसे हे राजन! इसी उज्जयिनी नगरी में ऐसा 'फिलिक' नाम का मनुष्य है, उसने मुझे कुछ अनिर्वचनीय ( कहने के लिए अशक्य ) भोजन कराया है, जो शिल्पि ( बढ़ई) का कार्य करनेवाले 'ईश्वरवर्ति' नाम के नाई अथवा चाण्डाल का दोहता ( लड़की का लड़का) और 'बलाहक' नाम के अङ्गमर्दक का भानेज तथा 'सवरक' नामषाले शय्या पालक का शाला है। वह अपने यश की अपेक्षा आपसे ( यशोधर महाराज से ) तीन-चार अनुल ऊपर वर्तमान है। हे राजन् ! यह (किलिअक ) आप- सरीखा अग्रेसर (प्रधान) अवश्य है परन्तु कृपणों में अप्रेसर है। यह आप सरीखा प्रथम गणनीय अवश्य है, परन्तु किंपचों ( कृपणों) के मध्य प्रथम गणनीय है। यह उसप्रकार दृष्टान्त स्थान है जिसप्रकार आप हथन्त स्थान है परन्तु + 'गृहीतप्रदीपस्येनोत्कटत्रशिखा' ग० । * 'ईश्परमतें दिवाकीर्तिर्नशा' | १. ↑ 'उपमानोपमेयार्थिरहितानां ग प्रायेण उपमालंकार । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्विकपम्पूरव्ये सवाकवास्तरकल्य, स्वकीथेन च परासा देवादपि विचातुरैरङ्गलैल्परिवर्तमानः, तथा हि-मिपचानाममेसरः, विधानो अपमगग्यः, कोकटानामुदाहरणभूमिः, कहाणां परिवर्णनीयः, शिस्त्रामणिोलुभानाम, भोजमावसानानन्सरमादेयनामा, संप्रति ज परमरमारमणीकामिनः स्वामिनः प्रसादभूमिः, दाक्षिणात्यदेशजन्मनो जापारिकनायकस्य विश्वावसो: प्रतिहरतः किलिमकनामधेयो देनेन कृतसंकेत इवापरामुखमक्षिकामुण्डमण्डलीप्रतिमतुरपरुषपाषाणाकी विषय विशी संजीर्णयावनालोदनादियारम्भम् , अतिपूतियुचितषिरसालसान्दोत्तरारम्भम् , उन्दुरमूत्रमित *थितावस्यतैलधारावपातप्रायम् , असमस्तसिदैरिकोपशनिकायम् , दरिद्रों का दृष्टान्त स्थान है। अर्थान-दरिद्रों की गणना में लोग इसका दृष्टान्त उपस्थित करते हैं। यह आप जैसा मुख्यता से वर्णन करने योग्य अवश्य है परन्तु कृपणों ( लोभियों के मध्य वर्णनीय है। भावार्थ- जैसा कृपण के विषय में शास्त्रकारों १-२ ने कहा है। हे राजन् ! जो लोभियों का शिखामणि ( शिरोरल) है। जिसका नाम भोजन करने के पश्चात् ही प्रहए किया जाता है। अर्थात्-जिसका नाम भोजन के पूर्व नहीं लिया जाता, क्योंकि कंजूस का नाम लेने से भोजन में अन्तराय ( विघ्न ) होता है। जो कि वर्तमान में साम्राज्यलक्ष्मी रूपी रमणी के इच्छुक आपकी कृपादृष्टि का पात्र है और जो कर्णाटक देशोत्पन्न व गुप्तचरों में प्रधान 'विश्वावस' का प्रतिहस्त ( दरू कलही) सरीखा है एवं जो मुझे भोजन कराते समय ऐसा मालूम पड़ता था- भानों-आपके द्वारा संकेत (शिक्षित) ही किया गया था। हे राजन ! यह भोजन कैसा था ? उसे श्रवण कीजिए जिसमें शुरू में ही छह प्रकार की धान्यों का ऐसा मात परोसने का आरम्भ किया गया था, जो कि अनी कृष्ण मुखवाली मक्खियों के मुखमण्डल सरीखा ( काला ), धान्य-भूसे से व्याप्त होने के कारण कठोर, दाँत तोड़नेवाले कंकड़ों से निला हुआ, मलिन, सैकड़ों खण्डवाला एवं चिरकाल का पुराना था। जिसके (भात के) ऊपर अत्यन्त दुर्गन्धी व परसों की राँधी हुई पुरानी उदद की दालें विशेष मात्रा में उड़ली गई थीं। जिसमें प्रायः करके चूहे के मूत्र सरीखी ( बहुत थोड़ी) व दुर्गन्धी अलसी के तेल की धारा जरासी गिराई गई थी। जिस भोजन में कुछ पके हुए और प्रायः कडुए ककड़ी के खण्डों का व्यान-समूह वर्तमान था। * धितातसतल' ख०। । 'अलसी' इति टिप्पणी 1 + 'असमस्तसिद्धपक्षस्कोपदेशनिकार्य कर। ६. तया चौक-उतानिवदमुष्टे: कोपनिषण्णस्य सहजभलिनस्य । कृपणस्य कृपाणरम च के बलमाकारतो भेदः ॥ १॥ अर्थात्-पण (लोभी) वर कृपाण (तलवार? इसमें केवल 'क्षा' की दीर्घमात्रा का ही भेद है। अर्यात-'कृपणः शम्द 'प' में हुन्छ 'भ' है और 'कृपाण' इ.ब्द के 'पा' में दाय 'आ' विद्यमान है बाकी सर्व धर्म समान है, क्योंकि कृपण अपने धन को मुष्टि में रखता है और सलवार में हाध की मुट्ठी पर धारण की जाती है। कृपण अपने कोष (खजाने ) में बैठा रहता और तलवार भी कोष म्यान ) में स्थापित की जाती है। कृपय मलिन रहता है और तलवार भी मलिन (कृष्ण) होती है, इसलिए, 'कृपण और 'कृपाण में केवल आकार का ही भेद है अन्य सर्व धर्म समान हैं। अर्थात्-जिसप्रकार तलवार धातक है उसी प्रकार लोभी का धन भी धार्मिक कायों में न लगने के कारण उसका घातक है, क्योंकि उससे उसे सुख नहीं मिन्दता और उन्हे टुाँत के दुःख प्राप्त होते है। २. तथा च वल्लभदेवः किं तया क्रियते लक्ष्या या वधूरिद केचला । या न वेश्येव सामान्या पथिकैरुपाज्यते ॥१॥ मर्थान-बालभदेव विद्वान ने भी कहा है कि 'उस लोभी को सम्पति से क्या लाभ है ! जिसे वह अपनी मी-सरीसा केवल स्वयं भोगता है तथा जिसकी सम्पत्ति वेश्या-सी सर्व साधारण पान्यों द्वारा नहीं भोगी जाती। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्राश्यासः २५७ अपरदालामूसलकालिप्रकारम् , परिस्वकारुकर्कशच्छेदसारम् , अवालमादरमूलकचक्रकोपक्रमम् , अभृष्टचिर्भटिकाभक्षणमामावक्रमोपनामम् , अपवाकोहिनदमन रिङ्गिणीकलाविरविरचनम् , अगस्तिथूतानातकरिबुमन्दकन्तुलसदनम् , नमन तरस याशिलान, जोर सानप हसवृहतीवाताम्सोभाजनकन्दसालनकापतारम्, एपबारपलामुमुशिकायम्बरम, उच्छुलोदेसिलसवल्लकराजकोकुन्दोड्डमरम्, अनपरामिकावर्जितावन्तिसोमावसानम्, + उमासलिलसमक्षारपानीयपानम् । स किमपि मामयभुजन्न चाशनाया उपशान्ति मनागप्यबापम् । केवलं तस्य पश्चितहष्टिपातया स्ववासिन्या परिविष्टो मूलाटीवरादोत्कटकालकालयविशिष्टः सर्वपात्रीणः श्यामाकमक प्राणवाणमका:दिति च क्षणमात्र बालापानन्दितचेतास्तमखण्डक्षीणे शरणे किमप्युदन्तमातमापप्रच्छे । सर्वचतोगतानान्द्रष्टुं येषां कुत्तमम् । ते भवन्तु परं पारैश्चक्षुष्मन्तः क्षितीश्वराः ॥११॥ जिसमें अर्धपक्व तूंमाफलों के प्रचुर खण्ड वर्तमान थे। जो अर्धपक्व कुम्हड़ा के कठोर खण्डों से मनोहर था। जिसमें वृहत् (महान ) बेलफलो, मूलियों और चक्रकों (खटाल पत्तों की शाक विशेषों ) का उपक्रम (जानकर किया हुआ प्रारम्भ ) था। जिसमें कुछ साक्षात् अग्नि में पके हुए चिर्भटिका-फलों ( किंधरिकाफल विशेषों) के भक्षण करने से अरुचिक्रम का उपक्रम-आरम्भ-नष्ट होगया था। जिसमें को कौआ-फलों व क्षुधा-नाशक भटकटैया फलों के विशेष वितरण की रचना की गई थी। लो अगस्तिवृक्ष, आम्रवृक्ष, आम्रातक ( कपिप्रिय वृक्ष ) व नीमवृक्ष इनके कन्दलों-खएडों का स्थान था। जिसमें ऐसी बाम्तखटक-पट्टी वस्तु-अधिक रूप से वर्तमान थी, जो कि बहुत दिनों की रक्खी हुई होने से पुरानी थी एवं मांगकर लाई गई थी। जिसमें विशेष पकी हुई मटकटैयाँ, रानकटहली के फल, शिवृक्ष व कन्द (उङ्गलिका) इनके सालनको समूहों का परिवेषण पाया जाता था। जिसमें एरण्डफाल प प्याज के भमभागों का प्राचुर्य था। जो स्थूलभूत ( मोटे) व हिलनेवाले वाँसों के समान कामी और कोकुन्दों ( अण्डरों) से उत्कट था। जिसमें अस्वीर में विशेष राई से मिश्रित कॉजी वर्तमान थी एवं जिसमें लपरणसमुद्र-सरीखा विशेष खारा जन-पान वर्तमान था। हे राजन् ! 'उस किलिञ्जक' ने मुझे उक्त प्रकार का भोजन कराया परन्तु मेरी |ल की शान्ति जरा सी भी नहीं हुई। तत्पश्चात्-उसकी बी द्वारा उसकी नजर बचाकर दिये हुए, अच्छी तरह खाये हुए ऐसे बह शन्यों के भात ने, जिसमें दही से उत्पन्न हुआ, कामदेव के सदृश शुभ्र प सट्टा भट्टा वर्तमान था और जो समस्त कौल (जुलाहा) आदि के योग्य था, मेरी प्राण-रक्षा की। इस प्रकार मार्चपर्यन्त हँसी-मजाक के वधनों द्वारा हर्षित चित्त हुए मैंने ( यशोधर महाराज ने) उस 'शान' नाम के गुप्तचर से एकान्तगृह में कुछ भी विवक्षित वृत्तान्त पूछा। जिन राजाओं को समस्त ( स्वदेश ष परदेशवासी) मानवों के हृदय में स्थित हुए कार्यों के देखने की उत्कट इच्छा है, वे ( राजालोग) निश्चय से गुप्तचररूपी नेत्रों से नेत्रशाली हो ॥११५|| • 'कन्दलोपरचनम्' का। + 'पासाम्लिताम्लखलकषिरसारं' क. 1 'वासार्पिताम्स' प०1 + 'उपनोवेल्लित' क० । +'समासलिलसमक्षार' । A B C . S 'मूलाटीवराटोत्कटकाइरलकालशेयविशिष्टः' घ• I A 'दूधिमूल' B 'आम्लाधिक 10 'सक' इति टिमपी । १जाति-मलद्वार। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ यशस्तिलकचम्पूकान्ये चारसंचारतो येषां भाध्यक्षा स्वपरस्थितिः । नियुक्ताराविसंपातातेषां नार्थो न चासवः ॥११८॥ जो राजा लोग गुप्तचरों के प्रयोग द्वारा अपने व दूसरे देश की स्थिति प्रत्यक्ष नहीं करते, उनके ऊपर नियोगियों-सेनापत्ति-आदि अधिकारियों व शत्रओं के आक्रमण होते हैं, जिसके फल स्वरूप उनके पास न तो राक्ष्यलक्ष्मी ही स्थित रहती है और न उनके प्राण ही सुरक्षित रह सकते हैं। भावार्थ-नीतिशास्त्र के वेत्ताओं ने गुप्तचरों के निम्नप्रकार लक्षण, गुण व उनके न होने से हानि म होते से लाभ-आदि का निरूपण किया है। प्रस्तुत नीतिकार सोमदेवसूर' ने कहा है कि "गुप्तचर स्वदेश व परदेश संबंधी कार्य-अकार्य का ज्ञान करने के लिए राजाओं के नेत्र है। गुरू' विद्वान ने भी कहा है कि 'राजालोग दूरदेशवर्ती होकर के भी स्वदेश-परदेश संबंधी कार्य-अकार्य गुप्तचरों द्वारा जानते हैं ||१||' उनके गुणों का निर्देश करते हुए सोमदेव सूरि ने कहा है 'सन्तोष, पालस्य का न होना ( उत्साह अथवा निरोगता), सत्यभाषण व विचार शक्ति ये गुप्तचरों के गुण है। भागुरि विद्वान ने भी कहा है कि 'जिन राजाओं के गुप्तचर श्रालस्य-रहित (उत्साही, सन्तोषी, सत्यवादी और तर्कणाशक्तिशाली होते हैं, वे अवश्य राजकीय कार्य सिद्ध करते हैं।' गुप्तचरों के न होने से होनेवाली हानि का कथन करते हुए सोमदेव सृरि' लिखते हैं कि 'निश्चय से जिस राजा के यहाँ गुप्तचर नहीं देते, सह स्वदेश र प्रदेश मंत्री लामो शागर आक्रमण किया जाता है, श्रतः विजय श्री के इच्छुक राजा को स्वदेश व परवेश में गुप्तचर भेजना चाहिए। चारायण विद्वान ने कहा है कि 'राजाओं को वैद्य, ज्योतिषी, विद्वान, खो, सपेरा, और शराबी-आदि नाना प्रकार के गुप्तचरों द्वारा अपनी तथा शत्रुओं की सैन्य-शक्ति जाननी चाहिए। जिसप्रकार द्वारपाल के विना धनाक्य पुरुष का रात्रि में कल्याण नहीं होसकता उसीप्रकार गुप्तचरों के विना राजाओं का कल्याण नहीं होसकता। वर विद्वान के उद्धरण का भी उक्त अभिप्राय है । इसीलिए प्रकरण में आचार्य श्री ने यशोधर महाराज को संकेत करते हुए गुप्तचरों से होनेवाला उक्त लाभ और न होने से उक्त हानि का निर्देश किया है ॥११॥ हे मारिदत्त महाराज ! किसी अवसर पर जम मैंने 'शंखनक' नाम के गुप्तचर के समक्ष 'पामरोदार' नामके मंत्री की निम्नप्रकार प्रशंसा की तदनन्तर मैंने ( यशोधर महाराज ने) निम्नप्रकार आवर पूर्वक पूँछे गए 'शजनक' नाम के गुप्तचर से प्रस्तुत मंत्री के विषय में निम्न प्रकार वृत्तान्त सुना। इसके पूर्व मैंने उससे निम्नप्रकार पूँछा १. तथा च सोमदेवसूरिः-स्वपरमण्डलकार्याकार्यावलोकने चाराः खलु यक्ष पि क्षितिपतीनाम् ॥१॥ १. तथा च गुरु:--स्वमण्डले परे चैव कार्याकार्य च यद्भवेत् । चरैः पश्यन्ति यद्भपा सुदूरमपि संस्थिताः ॥१॥ १. तथा च सोमदेवरि:-अलौल्यममान्यममृषाभाषित्तमभ्यूहकत्वं चारगुणाः ॥१॥ ४. तथा च भागुरि-अनालस्यमलोल्यं च सत्यवादित्वमेव च । अहकरवं भयेथेषां ते चराः कार्यसाधकाः ||१|| ५. तथा च सोमदेवमूरिः- अनवसर्पो हिं राजा स्वैः परैश्चातिसन्धीयते ॥६॥ ६. तया च 'चारायणः-वैद्यसंघरसराचादचारैज्ञेयं निर्ज बलम् । षामाहिरण्टिकोन्मत्तैः परेषामपि भूभुजाम् ॥५॥ ५. तया च धोमदेवसूरि:--किमरत्ययामिकस्य निशि कुशलम् ।।५।। ८. तथा च वर्ग:-यया प्राहरिकैर्याचं रात्री क्षेमं न जायते । चारैविना न भूपस्य तथा शेयं विचक्षणः ।।१।। " जाति-गलबार । नीतिमाक्यामृत ( भा. टी.) चारसमुद्देश.पू. २३१-२३२ से संकलित-सम्पादक Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आघासः २५६ कवापिकातलीकृतसकलसधिवतःफूटकपट काएटिक, यः स्खलु मा समन्वयागतप्रजाप्रणये खानपदविण्ये सचिसमृद्धोऽपि प्रसप्रश्रिताशयतया विविधास्वपि खीषु महर्षिरिषासंबातस्मरशरमारण्यहदयः, संसारसिमिरावसरावेशोऽपि र मनागपि प्रभाछेपीमणिरित्र संपन्नमहिनाभिनिवेशः, पयःपातीच्यसितस्य महीतलस्य गर्भिणीजठरसमस्यादतिकारुणिकत मन्त्री के मन में स्थित हुए समस्त झूठे पाखण्ड को हथेली पर रक्खे हुए आँवले की तरह स्पष्ट जाननेवाले ऐसे है शङ्खनक ! जिस देश की प्रजा के साथ मेरा वंशपरम्परा से स्नेह चला आरहा है, उस अवन्ति देश के मध्य निश्चय से मेरे द्वारा जो 'पामरोदार' नाम का मंत्री नियुक्त किया गया है, जो कि अपने योग्य किंकरों की सेना सहित है एवं जिसने बुद्धि ( राजनैतिक बान) के प्रभाव से बृहस्पति भण्डल को नजित किया है तथा [जो निम्नप्रकार कहे जानेवाले प्रशस्त गुणों से अलंकृत है ], उसका इस समय प्रजा के साथ फैसा आचार ( वर्ताव ) है? कैसा है वह 'पामरोदार' नाम का मंत्री ? परिपूर्ण ऋद्धि ( लक्ष्मी) से अलंकृत होनेपर भी ब्रह्मचर्यव्रत से विनीत अभिप्राय यश जिसका हृदय तीनों प्रकार की ( वाला, युवती व मध्यम अवस्थावाली) दूसरों की कमनीय कामिनियों में उसप्रकार काम-बाणों द्वारा चींधने योग्य नहीं है जिसप्रकार परिपूर्ण ऋद्धियों ( अणिमा-व महिमा-श्रादि ऋद्धियों) से अलंकृत हुश्रा महर्षि थहिंसादि व्रतों से विभूषित होने के कारण खियों में चित्तवृत्ति नहीं करता। भावार्थ-नीतिकार सोमदेयमूरि ने कहा है कि दूसरे की त्री की ओर दृष्टिपात करने के अवसर पर भाग्यशाली पुरुष अन्ये-जैसे होते है। अर्थात्-उनपर कुदृष्टि नहीं डालते । अभिप्राय यह है कि उनका अपनी पल्ली के सिवाय अन्य स्त्रीजाति पर मान-भगिनीमाव होता है। हारीत विद्वान् के उद्धरण का भी अभिप्राय यह है कि जिन्होंने पूर्वजन्म में विशेष पुण्य संचय किया है-भाग्यशाली हैं-वे दूसरे बने स्त्री की ओर कुदृष्टि-पूर्वक नहीं देखते ।।१।। प्रस्तुत नीतिकार लिखते है कि 'शील (नेठिक प्रवृत्ति-सदाचार) ही पुरुषों का श्राभूषण है, ऊपरी कटक कुण्डल-आदि-श्राभूषण शरीर को कष्ट पहुँचानेवाले हैं, अत:चे धास्तविक आभूषण नहीं। नीतिकार भरी हरि मे भी है कि "कानों की शोभा शास्त्र-श्रवण से है न कि कुण्डल धारण से, हाथों की शोभा पात्र-दान से है न कि कण-धारण से एवं दयालु पुरुषों के शरीर की शोभा परोपकार करने से होती है न कि चन्दनादि के लेप से ||शा" प्रकरण में यशोधर महाराज प्रस्तुत मन्त्री की प्रशंसा करते हुए उक्त गुमचर से कह रहे है कि उक्त मंत्री भाग्यशाली है; क्योंकि यह धनाढ्य होनेपर भी दूसरों की कमनीय कामिनियों के प्रति मद्दर्षि के समान मातृ-भगिनीभाव रखता है। हे शजनक ! जो मंत्री [प्रथम युवावस्था में प्रविष्ट होने के कारण ] संसार संबंधी अन्धकार ( दीनता) के अवसर के प्रवेशवाला होनेपर भी उसप्रकार थोड़ा-सा भी मलिन अभिप्राय ( नीतिविरुद्ध प्रवृत्तिदुराचार ) प्राप्त करनेवाला नहीं है जिसप्रकार महान् ज्योतिशाली रत्न मलिनता ( कृष्णता या किट्टकालिमादि मलिनता ) प्राप्त नहीं करता। जो यह सोचकर कि 'जल-वृष्टि द्वाय उल्लासित (आनन्दित) हुआ पृथ्वीतल १. तथा च सोमदेवसूरिः-परकलप्रदर्शनेऽन्यभावो महाभाग्यानाम् । २. तया च हारीतः-अन्यदेहान्तरे धर्मो थैः कृतश्च सुपुष्कला। इह जन्मनि तेऽन्यस्य न वीक्षन्ते निलंबिनीम् ॥१॥ ३. सपा व सोमदेवसूरिः शीलमलबारः पुरुषाणां न देहखेदायही बाहराकल्पः ॥ १ ॥ नीतियाक्यामृत से संकलित-सम्पादक ४. तथा च भर्तृहरिः-श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन दानेन पागिर्न तु कारणेन : भाति कायः करुणाकुलाना, परोपगारेण न तु चन्दनेन ॥१॥ भर्तृहरिशतक से संग्रहात–सम्पादक Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० यशस्विरूपम्पूमग्ये पागुरुमात्रीमपि धरित्रों अकर्षयति, महाकृपालुतया सत्वसमभयेम पदास्पदमपि भ्रमभषिक इस भाव दार पावपरित्राणम्, पात: परमपरस्पृहालुसया स्वैरकारस्थापि कर्मदीय न तृप्यति विषविषमोक्नेषु विषयसुखेड, सदैव शुचिरिव प्राचारी तथापि होकव्यवहारप्रतिपालना) देवोपालनापामपि मासुस्य खालस laws जनितकल्मषप्रणायाघमर्षणतम्बार । मन्नान् । भास्तां तावाशुभस्य दर्शनं स्पर्शमं च, किंतु मनसायस्थ परामर्श गांसितमत इव प्रत्यादिशस्यासम् । असा गर्भिणी के उदर सरीखा होता है। अर्थात्-जिसप्रकार बीज (वीर्य ) के पतन द्वारा गर्भिणी का उदर उल्लासित-आनन्दित होता है उसीप्रकार पृथ्वीतल भी जल-वृष्टि द्वारा उल्लासित-आनन्दि-होता है। अत्यन्त दयालु होने के कारण अङ्गष्ट प्रमाण भी पृथिवी नहीं खोदता। जिसप्रकार दयाल मुनि प्राणि-घात के भय से कात-पादुका (खनाऊँ) नहीं धारण करता उसी प्रकार जो जीव-पात के भय से एक पद ( उग) मात्र भी पृथिवी पर संचार करता हुआ काय-पादुका नहीं पहिनता। जो (मंत्री) पूर्णरूप से मोक्षपद की प्राप्ति का इच्छुक होने के कारण अपनी इच्छानुसार कही जानेवाली कथाओं के अवसर पर भी ऐसे विषय-सुखों की, जिनका अन ( भविष्य ) विष के समान करतर (प्राणघातक) है, अभिलाषा उसप्रकार नहीं करता जिसप्रकार तपस्वी ( साधु) विषय मुख्य की अभिलाण नहीं करता। जो (मन्त्री) ब्रह्मचारी होने के फलस्वरूप उसप्रकार शुचि (पषित्र) है जिसमकार शुधि ( अग्नि ) पषित्र होती है, इसलिए 'ब्रह्मचारी सदा शुचिः' अर्थात् 'प्रझचारी सदा । पवित्र होता है। इस नीति के अनुसार जो सदा पवित्र होने पर भी लोकव्यवहार पालन करने के उद्देश्य सेअर्थात्-'अस्नातो देवान् न प्रपूजयेत् अर्थात् विना स्नान किये देवताओं की पूजा नहीं करनी चाहिए' इत्यादि लौकिक व्यवहार पालन करने के अभिप्राय से-देवपूजा करने के लिए भी उष्ण अस से स्नान करने के पश्चात् जल जन्तुओं को पीड़ित करने से उत्पन्न हुए पाप की शान्ति-हेतु पाप ना | करने में समर्थ मन्त्रों का आप उसप्रकार करता है जिसप्रकार बैखानस (सपस्वी) पाप नष्ट करनेवाले । मन्त्रों का जप करता है। _जो अशुभ वस्तुओं (मद्य, मांस, गीला चमदा व चाण्डालादि) का दर्शन (देखना) मौर स्पर्श (एल) सो दूर रहे किन्तु मनोवृत्ति द्वारा अशुभ पदार्थों कासंकल्प मात्र होने पर भी भोजन संबंधी अन्तराय उसप्रमाण करता है । अर्थात्-भोजन को उसप्रकार छोड़ देता है जिसप्रकार अहिंसादि महाव्रतों को पालनेवाला मुनि भोजन के अघसर पर अशुभ वस्तुओं के दर्शन या स्पर्श से भोजन-त्याग करता है। भावार्थ-शासबो ने कहा है कि व्रती (श्रावक या मुनि) को भोजन के अवसर पर मांस, रक्त, गीला चमड़ा, दही, पीप, मुर्दा मल-भूत्रादि, इन अमुभ पदार्थों के देखने पर भोजन छोड़ देना चाहिए और चाण्डाल व कुस्त-श्रादि पाला जीवों के देखने पर अथवा उनके शब्द सुनने पर तथा छोड़े हुए अम-आदि पदार्थ के सेवन के अवसर पर भोजन छोड़ देना चाहिए ॥ १-२॥ प्रकरण में यशोधर महाराज 'शजनक' नाम के गुप्तचर से प्रश्न 'पामरोदार' नाम के मंत्री का सदाचार वर्णन करते हुए उक बात कह रहे हैं। ___इसीप्रकार जो (मन्त्री) 'मरने के पश्चान् जीवात्मा के साथ न जानेवाले शरीरों का पुष्ट करना मनु के लिए निरर्थक है' इसप्रकार निश्चय करके पर्व (दीपोत्सव आदि) दिनों में भी शाकमात्र प्रास अथवा को १. उक्त च-मसरकाईचर्मास्थिपूयदर्शनतस्त्यजेत् । मृतानिरीक्षणादक प्रत्याख्यातामसेवनात् ॥१॥ माता दवपचादीनां दर्शने ताच श्रुतौ । भोजन परिहर्तव्यं मलमूत्रादिदर्शने ॥२॥ ___ यशस्तिलक की संस्कृत टीका पु. ४०८ से समुदत-समाज । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुवीय आधासः २११ प्रवृत्तसङ्गेषु महेषु को माम नराणां कालमायामह हत्याकलव्य पर्वरसेप्यपि दिवसेषु मुमुक्षुरिष म शाकमुष्टेयवमुटेवापरमाइरस्याहारम् । ईषजन्यशुभमन्यत्रोपापितमात्मन्युसबीअमिव जन्मान्तरे शतशः फलतीसि दयालुमावादुरितभीरुभावाची नवलं कसं पा योगीय स्वयमवचिनोति पनसतोन् । परोपराधावनुभव सन्नापतापाचस्पर्शपूतमनुभवति । केववं मयि चिरपरिचयोदन्वयसीमस्नेहनिध्मस्वास्सुदिप वृत्तविनाकारमपि राज्यभारमूरीकृतवान्। मालम्पटमनस्कारोऽस्वीर कचिद्विपश्चितप्यधिगताधिकारी नर इति उपभिचारयिमुमिव कुशलाशयतया व घशतेनापि नाति प्रविन्दुनापि न स्पृश्यास पति मत्वा धर्ममूलस्थान्महाकुलप्रसूतेर्महाभागपप्रादुर्भुतेश्च धर्मसंवर्धन विधिल्पुना, प्रजामूलबास्काशवे स्तन्त्रवृद्धश्च प्रजापान भात का पास छोड़कर दूसरा पाहार । जाभादि) र नहीं जाता जिसप्रकार मोक्ष का इच्छुक साधु शाकमात्र अन्न को छोड़कर दूसरा गरिष्ठ भोजन नहीं करता । "दूसरे प्राप्मी के लिए दिया गया थोड़ा सा दुःख, दुख देनेवाले प्राणी को दूसरे भव में सैकड़ों, हजारों, लाखों व करोड़ों गुना उसप्रकार फलता है। अर्थात्-दुःख रूप फल उत्पन्न करता है जिसप्रकार उपजाऊ पृथिवी पर बोया हुश्रा बीज कई गुना फलका है" ऐसा निश्चय करके जो ( मन्त्री) दयालुता-यश अथवा पाप से भयभीत होने के कारण वृक्षों के फल व पत्तों को उसप्रकार स्वयं नहीं तोड़ता जिसप्रकार धर्मध्यान में तत्पर हुआ योगी वृक्षों के फल म पत्ते नहीं तोड़ता और यदि कुटुम्ब-आदि के आग्रह वश वृक्षों के फल व पत्तों का उपयोग करता भी है तो उन्हें सूर्य व अग्नि के स्पर्श से पवित्र (प्रासुक-जीव-रहित ) किये बिना भक्षण नहीं करता। केवल उसने मेरे में चिरकालीन ( बाल्यकाल से लेकर अभी तक ) परिचय (संगति से उत्पन्न हुए सीमातीत प्रेम के निन्न (अधीन ) होने के कारण ऐसे राज्यभार को, जो कि चारित्र-पालन में बिन्न उपस्थित करने की मूर्ति है, उसप्रकार स्वीकार किया है जिसप्रकार मित्रजन (कुटुम्बवर्ग) कार्य-भार स्वीकार करता है। हे शङ्कनक ! मैंने क्या क्या समझकर उक्त 'पामरोदार' नाम के पुरुष को अपने देश का मंत्र नियुक्त किया ? मैंने धर्म-वृद्धि करने के इच्छुक होते हुए यह समझकर कि "उत्तम कुल में जन्मधारण करने में धर्म ही मूल (प्रधान कारण) है। अथोत्-धर्म के कारण से ही प्रशस्त कुल में जन्म होता है, धर्म के बिना श्रेष्ठ कुल में जन्म नहीं होता और स्वर्ग व मोक्षपद की प्राप्ति में धर्म ही मूल है। अर्थातधर्म से ही स्वर्ग व मोक्षपद प्राप्त होता है, धर्म के बिना स्वर्ग व मोक्षपद प्राप्त नहीं होसकता ।" इसीप्रकार "कोई भी विद्वान् निर्लोभ चित्तवाला होकर मंत्री आदि पद को प्राप्त नहीं कर सकता । अर्थात्-"लोभी पुरुष ही मंत्री-आदि के अधिकारी पद प्राप्त कर सकता है" इस सिद्धान्त को असत्य सिद्ध करने के लिए ही मानों-उसे मन्त्री पद पर नियुक्त किया है। क्चोंकि यद्यपि वह हजारों घड़ों से स्नान करता है। अर्थात्-प्रजा की अनेक आर्थिक (धन-संबंधी) उलझाने सुलझाता है तथापि कुशल अभिप्राय (धर्मबुद्धि) के कारण भिन्दुमात्र जल से जिप्त नहीं होता (जरा सी भी लाचचूंस-आदि नहीं लेता-जरा-सा भी पाप नहीं करता)। * 'इत्याकलण्यापर्वेष्वपि दिवसेघु' का। १. त्याच्च' सटीकपुस्तकपाः । + 'चिरपरिचयोदश्चरसीमस्नेहनिष्माकारमपि राज्यभारमुरीकृतवान्' ३० । “चिरपरिचयोदश्चदसीमस्नेह' शेष मु. प्रतिवत् प० च । “विन्दुना प स्पृश्यते' प० । २. उक्तं च-'परतन्त्रः पराधीनः परवानाथवानपि । अधीनी मिध्य भायतोऽस्वच्छन्दो सहाकोऽप्यसो ॥९॥ यश, सं. टी. पू. ४०९ संकलित-सम्पादक Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ यशस्तिवकपम्पूकाव्ये चिकीर्षुणा, प्रकृतिमूलस्वादसाभ्यसाधनस्य पावाभावरोधनस्य व प्रकृतिप्रससिमुत्पिपादयिषुणा, सत्पुरुम्मूलत्वादशेषकामयुत्पतेविशिष्टाचारप्रवृत्तेत्र सत्पुरुषासविक्षुणा, प्रतिपक्षापायमूलत्वावासोत्कर्षस्य प्रतापप्रकर्षस्य च प्रतिपक्षापार्य + समीचिक्षणा, राज्यलक्ष्मीमूलस्वादिषयसुखोपसर्पणस्याधिजनसंतर्पणल्य व राज्यलक्ष्मीमुहिलासयिषुणा च, आत्मोबिखानुचरअमयुक्तो नियुक्तः प्रज्ञाप्रभावतिरस्कृतवाईसत्यः पामरोदाराभिधानोमात्यः स कोरास्थितिः संप्रतीति लादरमादृष्टादस्मादिदमौषम् । तथा हि-जापटेका माह-देव, यधाययं कथयामि। किंतु तद्वाावातूलीव्यविकराईवस्याप्युपरि किचिरफ्वाजः प्रसरिष्यति। यसः एज्यमन्जं नियः सङ्गाजज्येष्ठापान न कैरवम् । प्रायो अनेऽन्यसंसर्गाद्गुणिता दोणिसापि च ।। ११९ ॥ इसीप्रकार "कोश (खजाने ) की वृद्धि में प्रजा ही मूल (प्रधान कारण ) है। अर्थात्प्रजा से ही कोष वृद्धि होती है, क्योंकि प्रजा के बिना कोश-वृद्धि नहीं होसकती और सैन्य वृद्धि में भी प्रजा-संरक्षण मूल है। अर्थात्-प्रजापालन से ही सैन्य-वृद्धि होती है। क्योंकि प्रजापालन के विना कदापि सैन्यवृद्धि नहीं होसकती।" ऐसा निश्चय करके प्रजापालन के इच्छुक होते हुए मैंने उसे मंत्री पद पर नियुक्त किया है। इसीप्रकार प्रकृति ( सैन्य-आदि अधिकारी-गप्प ) में प्रसमता उत्सम कयने के इच्छुक होते हुए मैंने उसे मन्त्री-पद पर नियुक्त किया। क्योंकि विषम दुर्ग ( किला ) वगैरह की रचना में प्रकृति ( अधिकारी-गण ) ही प्रधान कारण है । अर्थात्-- प्रकृति के विना असाभ्य दुर्ग-आदि नहीं बनाए जासकते एवं शत्रुओं द्वारा किये जानेवाले उपद्रों का रोकना भी प्रकृति के अधीन है, क्योंकि प्रकृति के विना शत्र-कृत उपद्रव (हमला-आदि ) नहीं रोक जासकते। इसीप्रकार मैंने सत्पुरुषों का संग्रह करने के इच्छुक होते हुए उसे मन्त्रीपद पर नियुक्त किया। क्योंकि समस्त शाम-शान में और सदाचार-प्रवृत्ति में सत्पुरुष ही मूल ( प्रधान कारण ) हैं। अर्थात्समस्त शासों का मान व सदाचार-प्रवृत्ति सत्पुरुषों के बिना नहीं होसकती। इसीप्रकार मैंने शत्रु-क्षय के विचार के इच्छुक होते हुए उसे मन्त्री-पद पर नियुक्त किया है। क्योंकि आज्ञा-उत्कर्ष ( वृद्धि ) मैं और प्रताप-(सनिकशक्ति व कोश-शक्ति) प्रकृष्टता (विशेषता) में शत्र-क्षय ही प्रधान कारण है। अर्थात्-शत्रुओं के विना बना पाहा-वृद्धि व प्रताप-प्रकर्ष नहीं होसकता। इसीप्रकार राज्यलक्ष्मी को उल्लासित (आनान्दत ) करने के इच्छुक होते हुए मैंने उसे अपने देश के मन्त्री पद पर आरूढ़ किया है। क्योंकि विषय-सुख की प्राप्ति और याचकों को सन्तुष्ट करना, इन दोनों की प्रासिम में राज्यलक्ष्मी ही प्रधान कारण हैं। अर्थात्-राज्य लक्ष्मी के बिना न तो विषय-मुख प्राप्त होसकता है और न याचक ही सन्तुष्ट किये जासकत है। अथानन्तर मैंने प्रस्तुत 'शजनक' नाम के गुप्तचर से निम्नप्रकार मन्त्री संबंधी वृत्तान्त श्रवण किया 'शङ्कनक नाम के गुप्तचर ने मुझसे ( यशोधर महाराज से) कहा-हे राजन् ! उक्त विषय ( मन्त्री के विषय ) पर में प्रबन्ध रचना ( काव्य-रचना) करता हूँ किन्तु उस मन्त्री के समाचाररूपी वायुमण्डल के व्यक्तिकर (संबंध) से आप के मस्तक पर भी कुछ अपकीर्तिरूपी धूलि व्याप्त होगी, क्योंकि : जिसप्रकार कमल लक्ष्मी के संसर्ग से पूज्य होजाता है और श्वेतकमल ज्येष्ठा ( देवता विशेष-लक्ष्मी की बड़ी बहिन दरिद्रा) के संसर्ग से पूज्य नहीं होता उसीप्रकार मनुष्य भी प्रयः करके दूसरों की संगति-विशेष से गुणवान व दोषवान होजाते हैं। अर्थात्-गुणवान् शिष्ट पुरुषों + 'समाधिक्षिषुणा ( समीक्षितुमिच्छुना )"ए। * 'लक्ष्मीज्येष्ठभगिन्याः दरिदासः' इति टिप्पणी ग० प्रसौ। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अश्वासः २६३ की संगति से गुणवान् और दुष्टों की संगति से दुष्ट होजाते हैं । भावार्थ - शिष्ट पुरुषों की संगति से होनेवाले लाभ का निर्देश करते हुए नीतिकार प्रस्तुत आचार्य श्री ने लिखा है कि 'विद्याओं का अभ्यास न करनेवाला (मूर्ख मनुष्य ) भी विशिष्ट पुरुषों (विद्वानों ) की संगति से उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लेता हैविद्वान होजाता है' । व्यास विद्वान ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार चन्द्र-किरणों के संसर्ग से जड़रूप ( जलरूप ) भी समुद्र वृद्धिंगत होजाता है उसीप्रकार जड़ ( मूर्ख) मनुष्य भी निश्चय से शिष्ट पुरुषों की संगति से ज्ञानवान होजाता है' । प्रस्तुत नीतिकार ने दृष्टान्त द्वारा उक्त बात का समर्थन करते हुए कहा है कि "जिसप्रकार जल के समीप वर्तमान वृक्षों की छाया निश्चय से अपूर्व ( विलक्षण - शीतल और सुखद ) होजाती है उसीप्रकार विद्वानों के समीप पुरुपों की कान्ति भी अपूर्व - विलक्षण - होजाती है । अर्थात् वे भी विद्वान होकर शोभायमान होने लगते हैं" । वल्लभदेव विद्वान के उद्धरण का भी उक्त अभिप्राय है ॥ १ ॥ दुष्टों की संगति से होनेवाली हानि का निर्देश करते हुए आचार्य श्री ने कहा है कि "दुष्टों की संगति से मनुष्य कौन २ से पापों में प्रवृत्त नहीं होता ? अपि तु सभी पापों में प्रवृत्त होता है" । भदेव विद्वान ने भी कहा है कि "दुष्टों की गति के दोष से सज्जन लोग विकार - पापकरने लगते हैं, उदाहरणार्थ- दुर्योधन की संगति से महात्मा भीष्मपितामह गायों के हरण में प्रवृत्त हुए || १ ||" कुसंग से विशेष हानि का उल्लेख करते हुए प्रस्तुत नीतिकार " ने कहा है कि 'दुष्ट लोग अग्नि के समान अपने आश्रय ( कुटुम्ब ) को भी नष्ट कर देते हैं पुनः अन्य शिष्ट पुरुषों का तो कहना ही क्या है ?' अर्थात् उन्हें वो अवश्य ही नष्ट कर डालते हैं । अर्थात् जिसप्रकार अग्नि जिस लकड़ी से उत्पन्न होती है, उसे सब से पहिले जला कर पुनः दूसरी धतुओं को जला देती है उसीप्रकार दुष्ट भी पूर्व में अपने कुटुम्ब का क्षय करता हुआ पश्चात् दूसरों का क्षय करता है । वलभदेव विद्वान् ने भी उक्त बात का समर्थन किया है कि 'जिसप्रकार धूम अग्नि से उत्पन्न होता है और वह किसीप्रकार बादल होकर जलपृष्टि द्वारा अग्नि को बुझाता है उसीप्रकार दुष्ट भी भाग्यवश प्रतिष्ठा प्राप्त करके प्रायः अपने बन्धुजनों को ही तिरस्कृत करता है || १ | सत्सङ्ग का महत्वपूर्ण प्रभाव निर्देश करते हुए आचार्य श्री ने लिखा है कि “जिसप्रकार लोक में गन्ध-हीन तंतु भी पुष्प-संयोग से देवताओं के मस्तक १. २. ३. तथा च सोमदेवसूरिः — अनधीयानोऽपि विशिष्टजनसंसर्गात् परां व्युत्पत्तिमवाप्नोति ॥१ ॥ तथा च व्यासः - विषेकी साधुसङ्गेन जयोऽपि हि प्रजायते । चन्द्रांशुसेवनान्नूनं यावच्च कुमुवाकरः ॥ १ ॥ तथा च सोमदेवसूरिः अन्येव काचित् खञ्च छायोपजतरूणाम् ॥१॥ तथा च वचनदेकः अन्यापि जायते शोभा भूपस्यापि जहात्मनः । साधुसन्तादि वृक्षस्य सलिला दूरवर्तिनः ॥१॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषा ढोका समेत ) ४. ९४-९५ से समुद्धृत-सम्पादक ५. तथा च सोमदेवसूरिः:----खलस ेन किं नाम न भवत्यनिष्टम् ||१|| ६. तथा च वलभदेवः -- असता संगदोषेण साधवो यान्ति चिकियो । दुर्योधनप्रसङ्गेन भीष्मो गोहरणे गतः ॥१॥ तथा व सोमदेवसूरिः -- अग्निरिव स्वाश्रयमेव दद्दन्ति दुर्जनाः ||१|| ४. ७. <. तथा च वल्लभदेवः - धूमः पयोधरपदं कथमप्यवाप्यैषोऽम्बुभिः शमयति ज्वलनस्य तेजः । देवादवाप्य खल नीचजनः प्रतिष्ठां प्रायः स्वयं बन्धुजनमेष सिरस्करोति ॥१ ॥ 4 तथा च सोमदेवसूरिः—असुगन्धमपि सूत्र कुसुमसंयोगात् किन्नारोइति देवशिरसि ॥१॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्सिलकपम्पूकाव्ये देव, स भर्तुरेव दोषोऽयं स्वच्छन्द यतिकुर्वते । आत्मातिरिक्तभायेन दारा इव नियोगिनः ॥ १० ॥ पर धारण किये जाते हैं इसीप्रकार भूर्ख एवं असहाय राजा भी राजनीति में प्रवीण और सुयोग्य मन्त्रियों की अनुकूलता से शत्रुओं द्वारा अजेय होजाता है। वल्लभदेव' विद्वान् ने भी कहा है कि 'साधारण मनुष्य भी उत्तम पुरुषों की संगति से उसप्रकार गौरव (महत्व) प्राप्त कर लेता है जिसप्रकार तंतु पुष्पमाल के संयोग से शिर पर धारण किये जाते हैं। दूसरे दृष्टान्त द्वारा उक्त सिद्धान्त का समर्थन करते हुए आचार्य श्री ने कहा है कि "जव अचेतन और प्रतिमा की आकृति को धारण करनेवाला पाषाण भी विद्वानों द्वारा प्रतिष्ठित होने से देवता होजाता है-देवता की तरह पूजा जाता है तब क्या सचेतन पुरुष सत्सङ्ग के प्रभाव से क्षतिशील नहीं होगा ? अपि नु अवश्य होगा।" : हारीत विद्वान के उद्धरण का भी उक्त अभिप्राय है। उक सिद्धान्त का ऐतिहासिक प्रमाग द्वारा समर्थन करते हुए लिखा है कि 'इतिहास बताता है कि 'चन्द्रगुप्त मौर्य (सम्रा नन्द का पुत्र) ने स्वर्य राय का अधिकारी न होने पर भी विष्णुगुप्त (चाणक्य ) नाम के विद्वान् के अनुग्रह से साम्राज्य पद प्राप्त किया। शुक्र विद्वान् के उद्धरण का अभिप्राय भी यही है कि 'जो राजा राजनीति में निपुण महामात्य-प्रधानमंत्री की नियुक्ति करने में किसीप्रकार का विकल्प नहीं करता, यह अकेला होता हुआ भी राज्य श्री प्राप्त करता है। जिसप्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य ने अकेले होने पर भी चाणक्य नाम के विद्वान महामात्य की सहायता से राज्य श्री प्राप्त की थी॥१॥ प्रकरण में 'शजनक' नाम के गुप्तचर ने यशोधर महाराज से सत्संग व कुसंग से होनेवाली क्रमशः लाभ-हानि का निर्देश करते हुए उक्त उदाहरणों द्वारा उक्त बात का समर्थन किया है ॥ ११ ॥ हे राजम् ! जो मन्त्री-आदि अधिकारी-वर्ग अभिमान-घश स्वच्छन्दतापूर्वक विक्रिया करते हैंस्वेच्छाचार पूर्वक मर्यादा ( सदाचार) का उल्लङ्घन करते हैं। अर्थात्-प्रजा से लाँच-घूस-आदि लेकर उसे सताते हैं, इसमें राजा का ही, जो कि उन्हें उदएड बनाता है उसप्रकार दोष-अपराध है जिसप्रकार नियाँ अभिमान-श स्वच्छन्दतापूर्वक विक्रिया करती है-सदाचार का उल्लङ्घन करती है-उसमें उनके पति का ही दोष होता है। अर्थात्-जिसप्रकार अभिमान-वश स्वेच्छाचार पूर्वक सदाचार को छोड़नेवाली त्रियों के अपराध करने में उन्हें उद्दण्ड बनानेयाले पति का ही अपराध समझा आता है इसीप्रकार गरे के कारण स्वेच्छाचारपूर्वक मर्यादा का उल्लान करनेवाले अधिकारियों के अपराध करने में भी उनकी देखरेख न करनेवाले और उन्हें उदण्ड बनानेवाले राजा का ही अपराध समझा जाता है ॥१२०॥ १. सपा च वामदेवः--उत्तमानां प्रसोरेन लपवो यान्ति गौरई। पुष्पमालाप्रसङ्गेन सूत्रं शिरसि धार्यते ॥५॥ नौतिवाक्यामृत पृ. १५३ से संकलित-सम्पादक २. तथा च सोमदेवः -महद्भिः पुरुषैः प्रतिष्ठितोऽरमापि भवति देवः किं पुनर्मनुष्यः ॥५॥ २. सया य हारीतः-पाषाणोऽपि च मिनुधः स्थापितो यः प्रजायते । उत्तमैः पुरुषैस्तैस्तु किं न स्मान्माषुषोऽपरः ॥१॥ ४. सथा च सोमदेवमूरि:-तथा चानुश्रूयते विष्णुगुप्ताभुमहापनधिकृतोऽपि किल चन्द्रगुतः सामाज्यपदमपाऐति ॥1॥ ५. तपा च शुक्र:- महामात्यं वरो रामा निर्विकल्पं करोति यः । एकशोऽपि महीं लेभे हीनोऽपि वृहलो यथा ॥५॥ ____ नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीका-समेत ) पृ. १५३-१५४ (मन्त्रिसमुरे) से संकलित-सम्पादक १. दृष्टान्सासकार । ५. उपमालाहार । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवासः स्वयं विषमरूपोऽपि संघातः कार्य अभिज्ञातुः प्रयतमेन पथा दस्तोमाहुतिः ॥ १२१ ॥ देव देवस्य स्वभावत एव कल्याणाचारस्वदमास्पबहारत्वाचात्मनीव दुरात्मन्यपि बने निरञ्जनसंभावनं मनः । यतःमात्मनीव परत्रापि प्रायः संभावमा जने । यस्मादपि स्तेनः स्वदोषात्परि ॥ १२२ ॥ [eat] देव, संवरि निर्विचारचेतःप्रमाणं देवं च प्रसि* तैस्तैर्विशिष्टविष्टपेष्टष्टितरविभिः कविभिः प्रायेण देवस्य पूर्वपक्षपातीनि कृवाभिः महतवृधानि साधु समाकण्र्यवान् । सत्र तावत्तरुणीला विकासस्य --- २६५ हे राजम ! अधिकारियों आदि का समूह स्वयं विषम ( ऊँचा - नीचा - योग्य-अयोग्य ) होता हुआ भी स्वामी की सावधानी रखने के कारण उसप्रकार कार्यकारी (स्वामी का प्रयोजन सिद्ध करनेवाला ) होता है जिसप्रकार ऊँची-नीची अलियों वाला एस प्रमुच्य की सामान रखने से कार्यकारी (कार्य करने में समर्थ) होता है' ।। १२१ ॥ हे राजन् ! आप स्वभाव से ही शुभ आचरण से विभूषित और निष्कपट व्यवहार-शाली हैं, इसलिए आपकी चितवृत्ति अपने समान दूसरे दुराचारी लोगों में भी निर्दोषता की घटना ( रचना ) करती है । क्योंकि जिसप्रकार चोर अपने नोरी के दोष ( अपराध ) से चोरी न करनेवाले ( सचे) आदमी से भयभीत होता है-उसे भी चोर समझता है उसीप्रकार सदाचारी मनुष्य दूसरे दुराचारी मनुष्य में प्रायः करके अपने समान सदाचारी होने की संभावना करता है। अर्थात् उसे भी सदाचारी समझता है ॥१२२॥ इसलिए हे राजन् ! नष्ट आचारवाले उस 'पामरोदार' नामके मन्त्री को और विचार-शून्य मन के महावाले आपको लक्ष्य करके उन-उन जगत्प्रसिद्ध ऐसे कवियों द्वारा, जिन्होंने भुवन (लोक) प्रकाशित करने में सूर्य को तिरस्कृत किया है, अर्थात् जो भुवन को प्रकाशित करने के लिए सूर्य- सरीखे हैं, रचे हुए ऐसे पर्यो (लोकों) को सावधानता पूर्वक श्रवण कीजिए, जो कि प्राय: करके आपका पूर्वपक्ष स्थापन नष्ट करते हैं। अर्थात्- आपने जो पूर्व में कहा था कि वह 'पामरोवार नाम का मन्त्री निर्लोभी, दयालु ब सदाचारी है, उसको प्राय: करके अन्यथा (विपरीत - उल्टा) सिद्ध करते हैं और जो निन्द्य पुरुष (दुष्ट मन्त्री - आदि) का चरित्र सूचित - प्रकाशित करनेवाले हैं। हे राजन् ! उन कवियों में से 'तरुणीलीला बिलास' नाम के जगत्प्रसिद्ध महाकवि की ऐसी पद्य ( श्लोक ) रचना भ्रमण कीजिए, जिसमें दुष्ट मन्त्री का नष्टचरित्र गुम्फित किया गया हैनिम्नप्रकार दो लोक दुष्ट मन्त्री के पुराण-प्रारम्भ में आठ पदवाली नान्दी ( मङ्गलसूत्र ) रूप में कहे गए हैं : * 'शुः स्पष्टच पाठः ६० लि० सटि● ० ० प्रतियुगलात्संकलितः । मु० सटीको तु'तैस्तैराटपेनचेष्टितरविभिः' इति पाठः । विमर्श —पद्यपि अर्धभेदो नास्ति तथापि ह लि. सटि० प्रतियुगले वर्तमानः पाठः विशेषशुद्धः स्थ–सम्पादकः 'प्रहसनानि' । "प्रहृततानि ब० । ( भु. प्रतिक्त् ) । १- निरपुस्वस्व' इति टिप्पणी । १. टान्ताकार । २. रान्ताहर । ↑ 'तरुनीौलाषिलासादिकाः संज्ञाः अस्यैव कवेः समशीलत्वाहा इति टिप्पनीकारः क० भर्कात्~~'तरुपौलीलाविलास' -आदि नाम प्रस्तुत प्रत्यकत्र्ता महाकवि ( श्रमत्तोमदेवसूरि ) के हो समझना चाहिये, ओ कि हास्यरस-प्रिय है, सम्पादक । ३४ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬૬ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये नमो दुर्मन्त्रिणे तस्मै नपडिपमहाहये। श्यामाथिसंप्रास्तायाश्रमविश्रमः ॥ १३ ॥ भएपदा मान्दी। पस्य शिष्टघटोच्छेदि मन्त्रसूत्र विशम्भते । सरूपाप्रपाचिने तस्मै नमो दुर्मबिक्षिणे ॥ १२४ ॥ इर्थ छ । और्वायारूपाय तस्मै दुर्मन्त्रिणे नमः । मनडा अपि शोष्यन्ते येन पत्युः श्रियः परा ॥१३६॥ यं च द्वादशपदा । सत-चापमामाकृतिः शित्तिपतिनाभवनायकः पौरो भाग्यपुराणपालिसमतिमंन्त्री धवित्रीपतः । स प्रौढोतिवृहस्पतिश्च तरुणीस्त्रीलाविलासः कविसर्मन्निदुरीहित विजयते सूकोस्कर नाटकम् ।। १२६ ॥ राजारूपी वृक्ष पर लिपटे हुए महान् सर्प-सरीखे उस दुष्ट मन्त्री के लिए नमस्कार हो, जिसके प्रभाव से राजारूप वृक्ष की छाया में स्थित होकर विश्राम करना याचकों के लिए सुलभ नहीं होता। भावार्थ-इस श्लोक में जो दुष्ट मन्त्री को नमस्कार किया गया है, वह उसकी हँसी-मजाक उड़ाने के रूप में समझना चाहिए न कि वास्तविक रूप से। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार जिस वृक्ष पर महान साँप लिपटे रहते हैं, उसकी छाया में विश्राम करना खतरे से खाली नहीं होता, उसीप्रकार जिस राजारूपी वृक्ष पर दुष्ट मन्त्रीरूपी महान साँप लिपटे हुए होते है उसकी छाया में ठहरकर विश्राम करना भी खतरे से खाली न होने के कारण याचकों के लिए सुलभ नहीं होसकता ।। १२३ 1। उस दुष्ट मन्त्रीरूपी कुंभार के लिए नमस्कार हो, जो सामानों (सजन पुरुषों ) को सपकार सन्नापिन (फ्लेशिस) करता है जिसप्रकार कुंभार सत्पात्रों ( समीचन घट-आदि-वर्तनों ) को सन्तापित करता है। अर्थात्-अभि के मध्य हालकर पकाता है। इसीप्रकार जिसका ऐसे मन्त्र (राजनैतिक सलाह) को सचित करनेवाला सत्र-शाला कपट-पूर्ण राजनैतिक ज्ञान), जो कि शिष्ट पुरुषों की घदा (श्रेणी समूह) की उसप्रकार विदारण करता है जिसप्रकार कुंभार का सूत्र ( डोरा ) बनाए हुए. घटों को विदारणा करनेवाला होतर है:।। १२४ ।। उस दुष्ट मन्त्रीरूपी नवीन मूर्तिवाले बड़वानल को नमस्कार हो, जिसके द्वारा राजा की तस्कृष्ट लमियाँ ( धनादि सम्पत्तियाँ) अजड़ ( अजल-जल-रहत) होती हुई भी शोषण की जाती है-पी जाती हैं। अभिप्राय यह है कि समुद्र की बड़वानल अग्नि द्वारा केवल सजह (सजलअलराशि-पूर्ण ) समुद्र ही शोषण किया जाता है, जब कि दृष्ट मन्त्रीरूपी बड़वानल अनि द्वारा राजा के साथ-माथ उसकी अजड़ । अजल-जल-शून्य ) लक्ष्मियाँ भी शोषण ( पान ) की जाती हैं (नष्ट की जाती है )३६।। १२५ ।। इसलिए ऐसा बह जगत्प्रसिद्ध, दुष्ट मन्त्री की कुचेष्टा-(निन्ध अभिप्राय ) युक ष मधुर वचनों की विशेषताशाली नाटक सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रवृत्त हो, जिसमें (जिस नाटक में) एण-निर्मित पुरुष की आकृति धारण करनेवाला (तृण-निर्मित पुरुष के सदृश) राजा नायक ( नाटक-प्रमुख ) हुआ है। अर्थान-जिस प्रकार तरण-निर्मित पुरुष कुछ भी कार्य करने में समर्थ नहीं होता उसीप्रकार तण-निर्मित पम्प के समान राजा भी कछ भी (प्रजापालन-आदि) कार्य करने में समर्थ नहीं है। अतः ऐसा नगण्य राजा ही जहाँपर नाटक का प्रधान हुआ है और जिसमें ऐसा नगरवासी जन-समह सभासद हुआ है, जिसकी वृद्धि भाग्य (पूर्वोपार्जित पुण्य) से उत्पन्न हुए पुराण (कथा-शास) द्वारा सुरक्षित की गई है। अर्थात्-जिन्होंने पूर्वजन्म में पुण्य किया है उन भाग्यशाली * 'यशाम्नार्थिमं प्राप्यस्वच्छ.याश्रमविभ्रमः' क. घ.1 • 'पौरोभाग्यपुरापालितमतेमन्त्री धवित्रीयुतः। घर ! विमर्श-परन्तु मु. सी. प्रती बगनः पाठः सम्यक् । १. रूपकालंकार । 1 अष्टपदा मान्दी-मलमूत्रम् । २. रूपकालझार । अष्टपदा नान्दी ( मालसूत्रम् ।। क्योंकि श्लेष में '' और 'ला एक गिने आते हैं। ३. रुपक व व्यक्तिरेक-अलकार । मादधपदा नान्दी ( मङ्गलसूत्रम् ) Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ तृतीय आश्वासः मालोष्टपेटः निसिपः स्वभावास्सुदुष्टचेष्ट: सचिवश्न यन्त्र ।शुभाशयस्यापिसुमेधसोऽपि क्षेमः कुतस्तत्र भवेजनस्य ॥१२७॥ शिष्टावासः कुतस्तत्र दुर्मन्त्री यत्र भूपतौ । श्वेनैवयं तरौं यत्र कुतस्तनापरे द्विषाः ॥ १२८ ।। जानमपि जनो मोहादायासाय समोहते । यस्य कार्य न येनास्ति सस्मासस्य फलं कुतः ॥ १२९ ॥ पुरुषों की ही बुद्धि जहाँपर पुण्योदय से उत्पन्न हुए पुराण शास्त्र द्वारा सुरक्षित की गई है और जिन्होंने पूर्व जन्म में पुण्य नहीं किया-जो खोटे भाग्यवाले हैं --उनकी बुद्धि नष्ट होचुकी है, क्योंकि उनको सद्बुद्धि देनेवाले का जहाँपर प्रभाव पाया जाता है। इसीप्रकार जिस नाटक में लुहार-पुत्र मंत्री पद का कार्य करनेवाला पात्र हुआ है। अर्थात्-जिसप्रकार लुहार-पुत्र राज्यसंचालन-आदि मन्त्री का कार्य नहीं कर सकता उसीप्रकार लुहार-पुत्र सदृश मंत्री भी राज्य-संचालन आदि मन्त्री पद का कार्य नहीं कर सकता एवं जिस नाटक का रचयिता 'तरुणीलीलाविलास' नाम का महाकयि हुआ है, जो कि विशेषशक्ति-शालिनी ( दर्शकों के हृदय में शृङ्गाररस व वीर्यरस-आदि रसों को अभिव्यक्त-प्रकटकरने में समर्थ) वाक्यरचना करने में उसप्रकार प्रवीण है जिसप्रकार बृहस्पति प्रवीण होता है। ॥१२६|| जिस राज्य में राजा स्वभावतः मृत्पिण्ड सरीखी चेष्टा ( क्रिया)-युक्त है। अर्थात्-जिसप्रकार मिट्टी का पिण्ड कुछ भी कार्य ही कर सादा उसी का समय में राजा भी कुछ भी शिष्ट-पालन व दुष्ट-निग्रह आदि राज-फर्तव्य पालन करने में समर्थ नहीं है एवं जिस राज्य में मन्त्री दुष्ट चेष्टा ( खोटा अभिप्राय) से व्याप्त है, उस राज्य में ऐसे लोक ( प्रजा ) का भी कल्याण किस प्रकार होसकता है ? अपि तु नहीं होसकता, जो कि पुण्य के पवित्र परिणाम से भी विभूषित है, फिर पापी लोक की रक्षा होने की कथा तो दूर ही है और जो प्रशस्त बुद्धि से भी युक्त है, फिर दुर्बुद्धि ( खोटी बुद्धिवाले मूर्ख) लोक की रक्षा होने की कथा तो दूर ही है ॥१२७॥ जिसप्रकार जिस वृक्ष पर बाज पक्षी का ऐश्वर्य ( राज्यभव) वर्तमान है। अर्थात-निवास है, उसपर दूसरे पक्षी ( काक-आदि) किस प्रकार निवास कर सकते हैं? अपितु नहीं कर सकते। [क्योंकि यह उन्हें मार डालता है ] उसीप्रकार जिस राजा के निकट दुष्ट मंत्री अधिकारी वर्तमान है, उसके पास शिष्ट पुरुषों का निवास किस प्रकार होसकता है ? आपतु नहीं होसकता १३१२८।। मनुष्यमान जानसा हुभा भी अज्ञान-यश निरर्थक दुःख की प्राप्ति हेतु चेष्टा करता है, क्योंकि जब जिस पुरुष का जिस पुरुष से प्रयोजन सिद्ध नहीं होसकता तब उससे उसको किसप्रकार लाभ होसकता है ? अपि तु नहीं होसकता। भावार्थ-प्रकरण में 'शजनक' नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज से 'तरुणीलीलाविलास' नामके महाकवि की ललित काव्यरचना दुष्ट मन्त्री के विषय में श्रवण कराता हुआ कह रहा है कि अब मनुष्य यह जानता है कि 'अमुक व्यक्ति में अमुक कार्य के करने की योग्यता नहीं है' तथापि वह उसे उस कार्य कराने के हेतु नियुक्त करके निरर्थक कष्ट उठाने की चेष्टा (प्रयत्न ) करता है । क्योंकि जिस पुरुष का जिससे प्रयोजन सिद्ध नहीं होता उसको उससे किसप्रकार लाभ (प्रयोजन-सिद्धि द्वारा धनादि की प्राप्ति) होसकता है ? अपि तु नहीं होसकता। प्रकरण में हे राजन् ! जब आप ( यशोधर महाराज) यह जानते हैं कि 'पामरोदार' नाम के मन्त्री में राज्य-संचालन करने की योग्यता नहीं है, तथापि आपने उसे मन्त्री पद पर नियुक्त करके व्यर्थ कष्ट उठाने की चेष्टा की है, क्योंकि जब आपका उससे इष्ट प्रयोजन ( राज्य-संचालन-आदि) सिद्ध नहीं होता तब श्रापको उससे लाभ ही किसप्रकार होसकता है? अपितु नही होसकता ॥१२॥ १. समुरचयालद्वार। २. जाति व रूपकालङ्कार। ३. भाक्षेपालंकार । ४. आक्षेपालहार । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पासकानां समस्ताना हे परे पासके स्मृते । एक दुःसचिवो राजा द्वितीयं च साश्रयः ॥ १३॥ दुर्मन्त्रिणो नूपसुतासमहान्स लाभः प्राणैः समं भवति यत्र वियोगमात्रः ।। सूनाकृतो गृहसमेत्य ससारमेयं जीवन्मृगो यदि निति तस्य पुण्यम् ॥ १३ ॥ शास्त्रकारों द्वारा समस्त पापों के मध्य दो पाप उत्कृष्ट कहे गए हैं। पहला पाप राज्य में दुष्ट मन्त्री का होना और दूसरा पाप दुष्टमन्त्री सहित राजा का होना। अर्थात्- ऐसे राजा का होना, जो कि दुष्ट मन्त्री के माश्रय से राज्य संचालन करता है ।।१३०॥ दुष्ट मन्त्रीवाले राजपुत्र से प्रजा को बद्दी जगत्प्रसिद्ध महान् लाभ है, जो कि उसका (प्रजा का) प्राणों के साथ वियोग नहीं होता । अर्थात्-प्रजा मरती नहीं है। उदाहरणार्थ---कुत्तों से व्याप्त हुए सूनाकृत ( खटोक-कसाई ) के गृह ( कसाईखाने ) में प्राप्त हुआ हिरण यदि जीवित रहकर वहाँ से निकल कर भाग जाता है तो उसकी प्राणरक्षा में उस हिरण का वही पुण्यकर्म कारण है। भावार्थ-जिसप्रकार खटीसाईन्सुरुष के कुत्तों से ध्यात हुए हमें प्रविष्ट हुआ हिरण यदि जीवित होकर वहाँ से निकल जाता है तो उसकी प्राण-रक्षा में उसका पुण्य ही कारण समझा जाता है, अन्यथा उसका मरण तो निश्चित ही होता है. उसीप्रकार दुष्ट मन्त्रीवाले राजा के राज्य में रहनेवाली प्रजा का मरण तो निश्चित रहता ही है तथापि यदि वह जीवित होती हुई अपनी प्राण-रक्षा कर लेती है, तो यही उसे उस दुष्ट मंत्रीवाले राजा के राज्य से महान लाभ होता है, इसके सिवाय उसे और कोई लाभ नहीं होसकता। प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री ने कहा है कि "तुष्ट राजा से प्रजा का विनाश ही होता है, उसे छोड़ कर दूसरा कोई उपद्रव नहीं होसकता। हारीत नासिवेत्ता भी लिखता है कि 'भूकम्प से होनेवाला उपद्रव शान्तिकर्मों ( पूजन, जप व हवन-आदि) से शान्त होजाता है परन्तु दुष्ट राजा से उत्पन्न हुआ उपद्रव किसीप्रकार भी शान्त नहीं होसकता ॥१॥' दुष्ट राजा का लक्षण निर्देश करते हुए आचार्य श्री लिखते हैं कि 'जो योग्य और अयोग्य पदार्थों के विषय में शान-शून्य है। अर्थात्-योग्य को योग्य और अयोग्य को अयोग्य न समझ कर अयोग्य पुरुषों को दान-सन्मानादि से प्रसन्न करता है और योग्य व्यक्तियों का अपमान करता है तथा विपरीत बुद्धि से युक्त है- अर्थात्-- शिष्ट पुरुषों के सदाचार की अवहेलना करके पाप कमों में प्रवृत्ति करता है, उसे दुष्ट कहते हैं। नारद विधान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है। मूर्ख मन्त्री की कटु आलोचना करते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि 'क्या अन्या मनुष्य कुछ देख सकता है ? अपि तु नहीं देख सकता। सारांश यह है कि नसी प्रकार अन्धे के समान मूर्ख मन्त्री भी मन्त्र का निश्चय आदि नहीं कर सकता। शौनक नीतिवेत्ता बिदाम के उद्धरण का भी उक्त अभिप्राय है। मूर्ख राजा व मूर्ख मंत्री की कटु आलोचना करते हुए भाचार्य लिखते १. रूपकालधार। २. तथा च सोमदेवसूरिः-न दुर्षिनीतादाशः प्रजानां विनाशादपरोऽरत्युरपात ॥१॥ ३. तथा च हारीतः-उत्पातो भूमिकम्पाद्यः शान्तिकैयोति सौम्यता । नृपयत्ता उत्पातो न कथंचित् प्रशान्यति ॥१॥ ४. तथा च सोमदेवसूरि:-गो युचायुक्तयोरविवेकी विपर्यस्तमतिर्वा स दुविनीतः ॥१॥ ५, तथा च नारदः--युक्तायुक्तांववेवं यो न जानाति महीपतिः । दुर्वृतः स परिशेयो यो वा वाममतिमवेत् ॥१॥ ६. तथा च सोमदेवसूरि:--किं नामान्धः पश्येत् ॥१॥ ५. तथा च शौनकः-यद्यम्धो वीक्ष्यते किंचिद् घट चा पटमेव च तदा मूनोऽपि यो मंत्री मंत्रं पश्येत् च भूमताम् ॥१॥ ८. तथा च सोमदेवमूरिः–किमब्धेनाकृष्यमाणोऽन्धः समं पन्धान प्रतिपद्यते ॥१॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवासः ንቐጽ हैं कि 'यदि अच्छे पुरुष को दूसरा अन्धा लेजाता है तो भी क्या वह सममार्ग ( ऊबड़-खाबड़ -रहित मार्ग) देख सकता है ? अपि तु नहीं देख सकता । सारांश यह है कि उसीप्रकार यदि मूर्ख राजा भी मूर्ख मंत्र की सहायता से सन्धिविग्रहादि राज-कार्यों की मन्त्रणा करे, तो क्या वह उसका फल ( विजय लक्ष्मी व अर्थ लाभ आदि ) प्राप्त कर सकता है ? अपि तु नहीं कर सकता । शुक्र' विद्वान के उद्धरण का भी उक्त अभिप्राय है ॥ १ ॥ घन लम्पट राजमंत्री से होनेवाली हानि का कथन करते हुए आचार्य श्री लिखते हैं कि 'जिस राजा के मन्त्री की बुद्धि धन महण करने में लम्पट भासक होती है, उसका न तो कोई कार्य ही सिद्ध होता है और न उसके पास धन ही रह सकता है। गुरु विद्वान के उद्धरण द्वारा भी उक्त बात का समर्थन होता है। उक्त बात की दृष्टान्त द्वारा पुष्टि करते हुए प्रस्तुत नीतिकार लिखते हैं कि 'जब कोई मनुष्य किसी की कन्या के साथ विवाह करने के उद्देश्य से कन्या देखने के लिए अपने संबंधी (मामा आदि ) को भेजता है और वह यहाँ जाकर स्वयं उस कन्या के साथ अपना बिवाद कर लेता है तो विवाह के इच्छुक उस भेजनेवाले को तपश्चर्या करनी ही श्रेष्ठ है क्योंकि स्त्री के बिना तप करना उचित है। प्रकरण में उसीप्रकार यदि राजा का मंत्री धन-लम्पट है तो उसे भी अपना राय छोड़कर तपश्चर्या करना श्रेष्ठ है, क्योंकि धन के बिना राज्य नहीं चल सकता और धन की प्राप्ति मन्त्री आदि अधिकारी वर्ग की सहकारिता से होती है' । शुक्र" विद्वान लिखता है कि 'जिस राजा का मंत्री कुत्ते के समान शक्ति व सकानों का मार्ग ( टेक्स आदि द्वारा अप्राप्त धन की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा आदि) रोक देता है, उसकी राज्य स्थिति कैसे रह सकता है ? अपि तु नहीं रह सकती' ॥ १ ॥ बात को दूसरे दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए प्रस्तुत नीतिकार लिखते हैं कि 'यदि थाली अन आदि परोसा हुआ भोजन स्वयं खा जावे तो खानेवाले को भोजन किसप्रकार मिल सकता है ? उसोप्रकार यदि मंत्री राज्य- द्रव्य को स्वयं हड़प करने लगे तो फिर राज्य किसप्रकार चल सकता है ? अपि तु नहीं "चल सकता। बिदुर नीतिवेता विज्ञान ने कहा है कि 'जिस गाय का समस्त दूध उसके बड़े ने भा देकर पीडाला है, उससे स्वामी की तृप्ति हेतु छाँध किसप्रकार उत्पन्न हो सकती है ? अपि तु नहीं हो सकती, इसीप्रकार जब राजमंत्री राजकीय समस्त धन हड़प कर लेता है तब राजकीय व्यवस्था (शिष्ट-पासन दुष्ट-नि- आदि) किस प्रकार होसकती है ? अपि तु नहीं होसकती, इसलिए राजमंत्री धन लम्पट नहीं होना 'चाहिए' ॥ १ ॥ प्रकरण में 'शङ्खनक' नामके गुप्तचर ने यशोधर महाराज के प्रति दुष्ट मन्त्रीषाले राजा के राज्य में रहने से प्रजा की हानि उक्त दृष्टान्त द्वारा कही है" ।। १३१ ॥ १. तथा च शुक्रः अन्धेनाकृष्यमाणोऽत्र वेदन्धो मार्गवीक्षकः । भगेत्तन्मूर्ख भूपोऽपि मंत्रं चेत्यज्ञमंत्रिणः ॥१॥ नीतिवाक्यामृत. १८३ से संकलित - सम्पादक मन्त्रिणोऽर्थमणलालसायां मतौ न राज्ञः कार्यमर्यो मा ॥१७ ! १. तथा च सोमदेव ३. तथा च गुरुः यस्य संआयते मंत्री पित्तमहणलालसः । तस्य कार्यं न सिध्येत भूमिपस्य कुतो धनं ॥१॥ ४. सभा च सोमदेवसूरिः- वरणार्थं प्रेषित इव यदि कन्यां ५. तथा च शुक्रः — निरुणद्धि सतां मार्ग स्वमाश्रित्य शंकितः ६. तथा च सोमदेवसूरिः - स्थाल्येव भक्तं चेत् स्वयमश्नाति कुतो मोक्तुतिः ॥१ ॥ परिणयति तदा परमित्त एवं रचम् ॥१ साकार: सचिन बस्व तस्थ राज्यस्थितिःव्रतः॥१॥ ७. तथा च विदुरः युधमाक्रम्य चान्येन पीतं मत्तेन गौ यदि । तदा ततस्तस्याः स्वाभिमस्तु ॥१॥ ८. डान्तालसर । १८९ क Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कत्रिकौमुदीवन्द्रस्य महिवलयितमूलः पादपः केन सेव्यः भवति क सह शिष्टः शल्यसा तडागम् । विषकलुषितमन्धः कस्य भोज्याप जातं कुसचिवहतभूतिभूपतिः कैरुपास्यः ॥ १३२ ॥ अविवेकमसिन पतिर्मन्त्री गुणवत्सु वक्रितप्रीवः । यन खलाश्च प्रबलास्तत्र कधं सजनावसरः ॥ १३३ ॥ विक्षधमुग्धस्य परजमने लमीविपिने विजयो हुताशने तेजः । सपने च पर मण्डलमवनिपतेर्भवति दुःसचिवात् ॥ १३५ ॥ अथानन्तर 'शङ्कनक' नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! उक्त विषय पर कविकौमुदीचन्द्र नाम के कवि की पद्यरचना निम्नप्रकार श्रवण कीजिए :... __ जिसप्रकार सर्प से वेष्टित स्कन्ध ( तना ) वाला वृक्ष किसके द्वारा सेवन करने योग्य होता है ? अपि तु किसी के द्वारा नहीं एवं हरियों के सगमवाले तालाब को चाण्डाल के सिवाय कौन उत्तम कुलवाला पुरुष सेवन करता है ? अपि तु कोई नहीं करता और विष-दूषित भोजन किस पुरुष के स्थाने योग्य होता है? अपि तु किसी के नहीं, उसीप्रकार ऐसा राजा, जिसका ऐश्वर्य { राज्यविभूति ) दुष्ट मन्त्री द्वारा दूषित हो चुका है, किन पुरुषों द्वारा उपासना करने योग्य है ? किसी के द्वारा नहीं। भावार्थ-जिसप्रकार ऐसा वृक्ष, जिसके तने पर सर्प लिपटे हुए हैं, किसी के द्वारा सेवन नहीं किया जाता एवं ऐसे तालाब का, जिसके किनारे पर हड्डी गाढ़कर ऊँची की गई है, आश्रय कोई उत्तम कुलवाला नहीं करता। अर्थान-चाण्डालों के तालाब के तट पर एक ही गादकर ऊँची उठाई जाती है, उस संकेत (चिन्ह) से वह तालाव चाण्डालों का समझा जाता है, अतः कोई कुलीन पुरुष उसका पानी नहीं पीवा एवं जिसप्रकार विष से कलुषित हुआ भोजन किसी के द्वारा भक्षण नहीं किया जाता उसीप्रकार दुष्ट मन्त्री द्वारा नष्ट किया गया है ऐश्वर्य जिसका ऐसा राजा भी किसी के द्वारा सेवन नही किया जाता ॥१३॥ जिस राज्य में राजा विचार-रहित बुद्धिवाला है। अर्थान् -ऐसा राजा, जिसकी बुद्धि से हेय (छोड़नेलायक) व उपादेय ( ग्रहण करने लायक ) का विवेक ( विचार ) नष्ट हो चुका है और जिस राज्य में मंत्री विद्वानों से विमुख रहता है एवं जिसमें चुगलखोर विशेष यलिष्ट है, उस राज्य में सज्जन पुरुषों का अवसर किसप्रकार हो सकता है ? अपि तु नहीं हो सकता' ।। १३३ ।। हे राजन् ! प्रस्तुत दुष्ट मन्त्री के विषय पर विदग्धमुग्ध' नाम के कवि की निम्नप्रकार पद्य रचना सुनिए दुष्ट मन्त्री से राजा की निम्नप्रकार हानि होती है । लक्ष्मी (शोभा) कमल-पन में होती है किन्तु राजा के समीप लक्ष्मी ( साम्राज्य लक्ष्मी) नहीं रहती-नष्ट हो जाती है और विजय वन में होता है। अर्थात्-वि-जय-(पक्षियों का जय) वन में होता है किन्तु राजा में विजय (विशिष्टजय-शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करना ) नहीं होता एवं तेज (प्रताप-तपना ) अग्नि में ही पाया जाता है किन्तु राजा में तेज सैनिक शक्ति व खजाने की शक्तिरूप प्रताप) नहीं रहता-नष्ट होजाता है। इसीप्रकार सूर्य में ही उत्कृष्ट मण्डल (बिम्ब ) होता है परन्तु राजा के समीप मण्डल ( देश) नहीं होता। अर्थात्-उसके हाथ से देश निकल जाता है। ।। १३४ ॥ प्रस्तुत धात्रकार महाकवि ( श्रीमत्सोमदेवरि) का कल्पिस नाम । १. माळेपालद्वार। १. माधेपालबार । ३. समुच्चय र दीपकालकार। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूतीच साधावा परं कोश: शेषायां तन्तु करेपर्व । चतुषु च स दुमैत्रिणि भवति भूप ॥ १३१ ॥ जीविनेत्रस्प — राज्यवृद्धिस्ततोऽमात्याक्षिस्वयम्। अन्ति स्थानेव पेज भो पास्याद्भुजंगपो बहिरीक्षितमोहितः । स्वाति न कि नाम ॥ १३६५ १३७ ॥ का हब सेवा ॥ परस्याधनं स्वस्थ परेषां वाधनं स्वयम् । प्राप्रकृतिकोशानां भीख मन्त्रात्फलं विदुः ॥ iiकोशोद्वासी प्रकार त्रक्षोभविधायकः । यो विद्वेष्टा विशिष्टानां शत्रुर्मन्त्रिमिचाइसौ ॥ १३९ ॥ १३८ ॥ दुष्ट मंत्री के होने पर राजा की तिनप्रकार हानि होती है। १. केवल तलवारों में ही कोशस्थिति ( ध्यान में रहना) पाई जाती है। अर्थात् म्यानों में ही खन्न धारण किये जाते हैं परन्तु राजा के पास कोश ( खजाना ) नहीं रहता नष्ट होजाता है। २. तन्दुल ( अक्षत - श्रखण्ड माङ्गलिक चावल ) केवल द के अवसर पर पाए जाते हैं, परन्तु राजा के पास तन्दुल (धान्य) नहीं होता। ३. पर्व (अलीरेखा ) हस्त पर होती है परन्तु पर्यो ( दीपोत्सव श्रादि पर्वो ) में उत्सव मानना राजा के यहाँ नहीं होता और ४. ( धन कमाने का उपाय ) जुवा खेलने में पाया जाता है किन्तु राजा के पास तन्त्र ( सैम्य-पलटन) नहीं होता' ॥ १३५ ॥ है राजन् ! कीजिये अब उक्त विषय पर 'नीतिनेत्र' नाम के महाकवि की निम्नप्रकार पद्य रचना अवय उस मन्त्री से राज्य की वृद्धि होती है, जो केवल स्वयं अपनी उदर-पूर्ति करनेवाला ( धनलम् ) नहीं है, क्योंकि यदि थालो रोग हुआ यह आदि भोजन स्वयं खा जावे तो खानेवाले को भोजन किस प्रकार मिल सकता है ? अपि तु नहीं मिल सकता। उसीप्रकार यदि धन-सम्पष्ट दुष्ठ मंत्री राजद्रक्य स्वयं हृड़प करने लगे तो फिर राज्य संचालन किसप्रकार होसकता है ? अपि तु नहीं सकता । [ उक्त विषय की विशद व्याख्या हम श्लोक नं० १३१ में कर आये हैं ] निष्कर्ष - लाँच - घूँस न लेनेवाले (निर्लोभी व सुयोग्य ) मंत्री से ही राज्य की श्रीवृद्धि होती है ॥ १३६ ॥ जो राजा मंत्री-आदि सेवकों की वाह्य क्रियाओं ( ऊपरी नमस्कार आदि वर्तावों) से उसप्रकार मुग्ध होता है जिसप्रकार कामी पुरुष वेश्याओं की याह्य क्रियाओं (कृत्रिम रूपलावण्य व गीत नृत्य आदि प्रदर्शनों) से मुग्ध होजाता है, उस मुग्ध हुए राजा को सेवक लोग ( मन्त्री श्रादि अधिकारी गण ) उसप्रकार भक्षण कर लेते हैं। श्रर्थात्राजकीय द्रव्य हड़प करके सत्यहीन बना देते हैं जिसप्रकार वेश्याएँ उनकी उक्त बाह्य क्रियाओं से ग्व हुए कामी पुरुष को भक्षण कर लेती हैं-निर्धन ( दरिद्र ) बना देती हैं३ ।। १३७ ॥ नीविवेत्ताओं ने कहा है कि मन्त्र ( राजनैतिक सलाह ) से निम्नप्रकार प्रयोजन सिद्ध होते हैं - १. शत्रुओं द्वारा स्वयं को पीड़ित न होने देना. २. स्वयं शत्रुओं को पीड़ित करना, ३. प्रजा और प्रकृति ( मन्त्री-आदि अधिकारीगण ) की लक्ष्मी का वृद्धिंगत होना । भाषार्थ - मन्त्र द्वारा सिद्ध होनेवाले प्रयोजन के विषय में हम पूर्व में विशद विवेचन कर चुके है ४ १३८ ॥ ऐसा मन्त्री, जो कोश ( खजाना ) खाली करता है, प्रजा का ध्यास करता है, सैम्य ( पलटन क्षुब्ध —कुपित — करता है और सज्जन पुरुषों से द्वेष करता है, मह, मन्त्री के बहाने से शत्रु ही है" ॥ ) ॥ १३६ ॥ X 'परेषां वथनं स्वयं' क० । ii 'कोनाशी' क० 1 'यो केष्टा च विशिष्ट क० । ॐ प्रस्तुत शास्त्रकार महाकवि श्रीमत्सोमदेवसूरि का नाम । १, परिसंख्यालंकार 1 १. इष्टान्तालङ्कार । ३. उपमालङ्कार व आक्षेपालङ्कार। ४. जाति- अलङ्कार ५. रूपकालङ्कार । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R यरास्तिलकचम्पूकाव्ये मामधनंजयस्वभीमानजिनार्थी पृथ्वीशः पुरुषास्नयस्नार्थी । सचिवरम पहितार्थी पदि मवति कुतस्तु कलिकालः ॥१०॥ भूपतिमतः सबमिस्तः सवित्रजमो दुर्जनाचनः सृजभः । महता मसाज जातेश्वर्यः कार्परच ॥१४॥ कषिकोविदस्पकपटपटुभिधांपादास्यैः पुरःस्फुटचाटुभिर्वहिरुपहितप्रायोमायसुधा प्रतिकाशयः । मसि कलवतन्त्रावापप्रयोगभयानुगैरपतिस्मृतः कृत्योमात्यैोऽशोपि च ॥१४॥ पदीपछसि धाशीकk महीशं गुणय देयम् । बहुमायामयं वृसं विसं चाकरुणामयम् ॥१४॥ भयानन्तर हे राजन् ! अब प्रस्तुत विषय पर 'मानधनंजय' नाम के कषि की निमप्रकार छन्द-रचना श्रवण कीजिए जहाँपर लक्ष्मीयाम् ( धनाढ्य ) पुरुष यदि याचक-जनों का प्रयोजन सिद्ध करता है और राजा पुरुषरूपी रसों के संग्रह करने का प्रयोजन रखता है एवं मन्त्री दूसरों के उपकार करने का प्रयोजन रलता है, वहाँपर कलिकाल की प्रवृत्ति ( जनता का दुःखी होना) किसप्रकार होसकती है? अपितु नहीं होसकती ॥१४॥ राजपुत्र का दुष्टों ( चुगलखोरों ) की संगति करने में तत्पर होना और मन्त्री लोगों का दुष्ट (नाई ष चाण्डाल-आदि नीच कुलबालों का पुत्र ) होना एवं सजन पुरुष का निर्धन ( दरिद्र) होना तथा लोभी ( कंजूस ) को ऐश्वर्यशाली होना, ये सभी बातें विद्वान पुरुषों को मस्तकशूल (असहनीय) । ११४१॥ हे राजन् ! अब आप 'कविकोविद'' नामके विद्वान ऋषि को निम्न प्रकार पञ्च-रचना कर्णामृत . कीजिए--हे राजन् ! ऐसे मन्त्रियों द्वारा राजपत्र पराधीन व निर्धन (दरिद्र) भी किया आता है, जो बचना (धोखा देने ) में 'चतुर हैं, जिनके मुख से प्रचुर निन्द्य वाणी निकलती है, अर्यात्-जो राजा-आवि का मर्म भेदन करनेयाले, श्रद्धा-हीन व निरर्थक बहुत वचन बोलते हैं, जो राजा के आगे उसकी स्पष्ट रूप से मिध्या स्तुति करते हैं, जिनके द्वारा बाह्य में प्रायः मायाचार ( धोखेबाजी ) का बांध किया गया है और जिनका अहिंसा-श्रादि व्रतों के पालन करने का अभिप्राय मुंठा (दिखाऊ-बनावटी). होता है एवं जो केवल वचनमात्र में राजा के समक्ष प्रयोजन (शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करना-पाधि राजा का कार्य को सिद्ध करनेवाली सेना की प्राप्ति की कर्त्तव्य-नीति का अनुसरण करते हैं। अर्थात्जो सैन्य-संगठन-आदि किसी भी राजनैतिक कार्य को कार्यरूप में परिणत न करते हुए केवल पजा से यह कहते हैं कि हे राजन ! हमारे द्वारा ऐसी सेना का संगठन करके कर्तव्य-नीति का भली-भाँति पालन किया गया है, जो कि शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने व अप्राप्त राज्य की प्राप्ति तथा प्राप्त राज्य के संरक्षण करने में समर्थ होने के फलस्वरूप सफल ( सार्थक प्रयोजन सिद्ध करनेवाली ) है ।। १४२ ॥ हे विद्वन् ! यदि आप राजा को अपने वश में करने की इच्छा करते हैं, तो निप्रकार की दो गावों का अभ्यास कीजिए. या जानिए। १. अपना धर्ताव विशेष धोखा देनेवाला बनाइए पौर २, अपना वित्त निर्दय बनाने का अभ्यास कीजिए । १४३ ॥ • भयं शुखपाठः ह. लि क. प्रतित: संकसितः, मु. प्रतो । 'यदि भवति ततः कृतस्तु कलिकाल इति पाठा । 1. रूपक व माझेपालंकार । २. समुच्चयालंकार। 1. समुच्चयालंकार । ४. समुपयालंकार । । प्रस्तुत शास्त्रका महाकवि आचार्यश्री श्रीमत्सोमदेवरि का नाम । । प्रस्तुत शाआकार का नाम । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हनीय भाषामः पीसनामार्गमा अगिया : मुअठरा प्रविधिकस वपन्वे मरुमरीचिका १४४॥ कार्ये स्वस्यामिमते सचिवः सिद्धि करोति इटवृस्या । नृपतिर बहुसचिव के वपमति मापसेग्न्यस्य ॥१४॥ कापा तन गरे समस्तपरिवारखीविताहाः। संभाति पस्य निको सचिवलो दुर्जनाचा ॥१४॥ अभिमानमहीधरस्थ--- अनवासधनोऽपि जन: सचिने भवति चाटुतापानम् । मावलिम व्याय महिमा किमिशेजसामन्त्र ॥१४॥ आिस्माय वृत्तं वृत्तायनानि जगसि पुण्यानि । पुण्यायला सक्षमीयदि विद्वान् दैन्पयाम्पिमिति ॥१४॥ यपि विधे न सुधिधिः काम्येऽर्थे याज्यसे तथापीदम् । कुरु भरवां माकार्षीः बनानां दुर्शनैः सङ्गम् ॥१४॥ ऐसे मन्त्रियों द्वारा, जो वास में विशेष अनुराग उत्पन करनेवाले होते है, अर्थात्-जो राजा-आरि के प्रति ऊपरी (कृत्रिम-अनावटी) प्रेम प्रकट करते हैं और भीतर से जिनकी निष्फल (निरर्थक) कार्य करने में विशेष चतुराई होती है एवं जो मृगतृष्णा (वालुका-पुञ्ज पर सूर्यकिरणों का पड़ना जिसकी चकचकाहट से हिरणों को उसमें जलज्ञान होता है ) के समान है, मूर्ख मानवरूपी हिरण प्रतिदिन उसप्रकार वशित किए ( ठग) जाते है जिसप्रकार ऐसी मृगतृष्या द्वारा, जो बाहर से प्रचुर जलराशि समीप में दिखादी है परन्तु मध्य में जल-विन्दु मात्र से शून्य होती है, हिरण प्रतिदिन ठगे जाते हैं-धोखे में डाले जाते हैं। ॥ १४४॥ ___ मन्त्री अपना अभिलषित ( इच्छित ) प्रयोजन बलात्कार से सिद्ध (पूर्ण) कर लेता है और दूसरों के कार्य में निम्नप्रकार कहता है कि इस राजा के पास बहुत से मन्त्री है, इसलिए इसके यहाँ हम क्या है ? अर्थात्-हमारी कोई गणना नहीं, अतः हमारे द्वारा आपका कोई कार्य सिद्ध नहीं होसकता ॥१४॥ जिस राजा के समीप दुष्ट वर्ताव करनेवाला और समस्त परिवार की जीविका भक्षण करनेवाला मंत्री संचार करता है, उस राजा से प्रयोजन-सिद्धि की क्या आशा ( इच्छा) की जासकती है ? अपितु कोई आशा नहीं की जासकती। अर्थात्-ऐसे दुष्ट मंत्रीवाले राजा से प्रजा-आदि को अपने कल्याण की कामना नहीं करनी चाहिए ॥१४॥ हे राजन् ! अब आप 'अभिमानमहीधर नामके महाकवि को निम्न प्रकार पचरचना प्रवण कीजिए-लोक में निर्धन ( दरिद्र) पुरुष भी धनालय पुरुष की मिथ्या स्तुति करनेवाला होता है। हे माता लामी ! यह तेरा ही प्रभाष है, इस संसार में और क्या कहा जा ? ॥१४ा सदाचार-प्राप्ति स्वाधीन होती है। अर्थात् मानसिक विशुद्धि से सदाचार प्राप्त होता है और संसार ये पुण्यफर्म सदाचार के मधीम है। अर्थात्-सदाचारलप नैतिक प्रवृत्ति से ही पुण्य कमों का बन्ध होता है एवं धनादि लक्ष्मी पुण्य कर्मों के अधीन है। अर्थात्-पुण्य कमों से ही धनावि लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसलिए है पिन् ! यदि तुम सबी विर्ता रखते हो तो याचना करनेवाले क्यों होते हो। अपितु नहीं होना चाहिए। निष्कर्ष-धनादि की प्राप्ति-हेतु निरन्तर पुण्य कर्म करने में प्रयत्नशील होना चाहिए ।।१४।। हे विधि (क)! यद्यपि तुम पाये हुए पदार्य में प्रमुख प्रवृद्धि करनेवाले नहीं हो। अर्थात-मनचाही वस्तु स्न में वस्पर नहीं हो। समापि हम तुम से केवल नियकार एक वस्तु की याचना करते हैं कि चाहे हमारे प्राण प्रहण कर यो परम्दुसम्मान पुरखों कब बुद्ध पुरुषों के साथ संगम मत करो। ।।१४।। 1 'आस्मायत्तं पुण्यं पुष्पावत्तानि जगति भाग्यानि । मायावता समादि धिान्दैन्यवान्विमिति ॥ १.। १.उपमालकार। २.आक्षेपासर।.आसेपासधार प्रस्तत शामकारका नाम। ४. आक्षेपालद्वार । _५. जाति-महार।. प्रीवस्वरमाद्वार। ५ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ यशस्तिकचम्पूकाव्ये मन्त्रापसरे समरे विधुरे पारेषु षस्तुसारेषु । यो न व्यभिधरखि नुपे स क हुन थल्लभस्तस्य ॥१९॥ अन्याधिदुर्वलस्य- धाराम्धी सलिलस्य दुर्जनकने विद्याविनोदस्य च । शुढे संभ्रममाणितस्य कृपणे लक्ष्मीविलासस्य छ । भूपे दुःसचिवागमस्य सुखने दारिवयसङ्गस्थ वसा स्यादधिरेण यत्र दिवसे चिन्तयन्तुलः ॥११॥ प्रयदतिथिषिपस्मिन्विष्टपे सष्टिरेषण सुरक्षितरुमणीनामथितार्थप्रधानाम् । इदमणकमिहे मे याङ्गस्वतः कसविषयशवृत्ति पविश्व द्वितीयम् ॥१५२॥ जो मन्त्री मन्त्र ( राजनैतिक सलाह ) के अवसर पर कर्तव्य-च्युत नहीं होता, शत्रु से युद्ध करने से । विमुख नहीं होता, संकट पड़ने पर पीछे नहीं हटवा । अर्थात्-संकट (विपत्ति ) के समय अपने स्वामी की सहायता करता है एवं त्रियों के साथ व्यभिचार नहीं करता। अर्थात्-दूसरे की स्त्रियों के प्रति माँ, बहिन और बेटी की वर्ताव करता है तथा धन व रक्षादि लक्ष्मी का अपहरण नहीं करता, वह मन्त्री राजा का प्रेमपात्र क्यों नहीं है? अपितु अवश्य है' ॥१५२।। हे राजन् ! अब आप 'भब्याधिदुईल' ( शारीरिक रोग न होनेपर भी सामाजिक दुर्गुणों के कारण अपनी शारीरिक दुर्बलता निर्देश करनेवाला ) नाम के कवि की निम्नप्रकार काव्यकला श्रवण कीजिए हे राजन् ! मैं उस [उन्नतिशील ] दिन की प्रतीक्षा ( वाट देखना) करता हुआ, दुर्पक्ष होरहा हूँ, जिस दिन निम्नलिखित वस्तुएँ शीघ्र नष्ट होगी। १. जिस दिन लवण समुद्र में भरे हुए खारे पानी का शीघ्र ध्वंस होगा। २. जिस दिन दुष्ट लोक में विद्या के साथ विनोद ( क्रीड़ा) करने का शीघ्र नाश होगा। ३. जिस दिन क्षुद्र (असहनशील ) पुरुष के प्रति वेग-पूर्षक उतावली से विना विचारे कई हुए वचनों का ध्वंस होगा। ४. जिस दिन कृपण ( कंजूस ) के पास स्थित हुई लक्ष्मी के विस्तार (विशेष धन ) का नाश होगा और ५. जिस दिन, राजा के पास दुष्ट मन्त्री का श्रागमन नष्ट होगा एवं ६. सजन पुरुष में दरिद्रता का सङ्गम नष्ट होगा। भावार्थ-जिस समय उक्त वस्तुएँ शीघ्र नष्ट होगी, उसी समय मेरी दुर्बलता दूर होगी अन्यथा नहीं क्योंकि समुद्र का खारा पानी, दुष्ट पुरुष की विद्वत्ता, क्षुद्र के प्रति विना विचारे उतावली-पूर्वक कहे हुए धचन और कृपण का धन तथा सज्जन पुरुष में दरिद्रता का होना तथा राजा के पास दुष्ट मन्त्री का होना ये सब चीजें हानिकारक और निरर्थक है, इसलिए इनका शीघ्र प्रलय-नाश-होना ही मेरी दुर्बलता दूर करने में हेतु है, अतः कषि कहता है कि जिस दिन उक्त हानिकारक चीजों का ध्वस होगा, उस दिन की प्रतीक्षा करने के कारण मैं कमजोर होगा हूँ ॥ १५१॥ इस संसार में यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला एक मानसिक दुःस मेरी शारीरिफ कुशवान कारण है। १. क्योंकि याचक-हीन इस संसार ( स्वर्गलोक ) में अभिलषित ( मनचाही) धनादि वस्तु देनेवाली कामधेनु, कल्पवृक्ष और चिन्तामणि रत्नों की सृष्टि (रचना) पाई जाती है। २. मानसिक दुःख मेरे शरीर को कृश (दुर्बल) करने का कारण यह है कि इस संसार में ऐसा राजा पाया जाता है, जिसकी जीविका दुष्ट मन्त्री के अधीन है। भावार्थ-स्वर्गलोक में, जहाँपर याचकों का सर्वथा अभाव है, मनचाही वस्तु देनेवाली अनावश्यक कामधेनु-बादि वस्तुएँ पाई जाती है, यह पहला दुःख मेरी शारीरिक दुर्बलता का कारण है और दूसरा दुःख दुष्ट मन्त्री के अधीन रहनेवाला राजा मेरे दुःख का कारण है, क्योंकि उससे प्रजा का विनाश अवश्यम्भावी होता है। ॥ १५२॥ अयं शुद्धपाः ह. लि. क. स. प. च० प्रतिभ्यः संकलिता, मु. प्रती तु 'यदतिथिविषये' इति पाठः । १. आक्षेपालद्वार। *'प्रस्तुत शानकर्ता का कल्पित नाम । १. समुच्चयालंकार। 1. व-अक्षधार । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवास: कविकुसुमायुधस्य यदि त हृदयं समयं विस्वप्नेऽपि मा स्म सेविष्ठाः । सचित्रजितं युवतिजिवं#सनिजि सवितं च राजानम् ।। १५३ ॥ उपलः सचिवैषु तरेधिधित मन्दरः प्रचरेत् । इसि संभवति कदाचिन्नास्वभाषः पुनः सचिवः ॥ १६४॥ विषमकरः शिशिरः स्यादभिधोञ्चपहः खर्राशुरमृतांशुः । सर्पश्वा विषइप न तु मैत्रीस्पो नियोगस्थः ॥ १२५ ॥ खाण्ड इवाभाण्डे पाण्डित्यक्रीडितस्य नरनाये। किं विदधातु सुधीर पहिरीद्वारे ऽपि ॥ १६६ ॥ सुजनजीवितस्य विश्वस्तं महिमास्तं सुजन विजनं कुलीनमसुद्दीनम् । गुणिनं -- हुकमिनं कुर्यादिति सचिवसिद्धान्तः ॥ १६७ ॥ हे राजन् ! अब आप 'कविकुसुमायुध' नाम के कवि की काव्यकला श्रवण कीजिएविद्वन् ! यदि तुम्हारा मन न्याय युक्त है तो ऐसे राजा को रखमावस्था में भी सेवन मत कीजिए, फिर जागृत अवस्था में सेवन करना तो दूर ही है, जो कि दुष्ट मन्त्री के अधीन होता हुआ परखी लम्पट है, जो तलवार धारण करनेवाले वीर पुरुषों द्वारा जीता गया है, अर्थात्-कायर है अथवा पाठान्तर में विटों ( व्यभिचारियों) के वशवर्ती हुआ चुगलखोरों के अधीन रहता है' ॥ ९५३ ॥ यदि एक बार पापाए जल में तैरने लगे व समुद्र तैरा जासके और सुमेरु पर्वत भी चलने लगे । अर्थात् यदि उक्त तीनों अघटित ( न घटनेवाली ) घटनाएँ कभी घट सकती हैं फिर भी राज मंत्री कभी भी सझन प्रकृति-युक्त नहीं हो सकता । अर्थात् दुष्ट प्रकृतिवाला ही होता है * ॥ १५४ ॥ यदि कभी अम शीतल छोजावे, वायु स्थिर होजावे और तीक्ष्ण किरणबाला सूर्य शीतल किरणवाला होजाय एवं सर्प विष दर्प से शून्य होजाय । अर्थात् उक्त अनहोनी तीनों बातें कदाचित् एक बार होजाय परन्तु राजमन्त्री मित्रता करने में तत्पर नहीं हो सकता ॥ १५५ ॥ इस संसार में विद्वान पुरुष ऐसे राजा के विषय में क्या कर सकता है ? अपितु कुछ भी सुधार आदि ) नहीं कर सकता, जो ( राजा ) इस्त, पाद व मुख आदि बाह्य चेष्टाओं से स्थूल शरीर का धारक होने पर भी पाण्डित्य कीड़ित (विद्वानों का विद्याविनोद) का उसप्रकार अपात्र है जिसप्रकार अपने वृद्धिंगत अण्डकोशों को बाहिर निकालनेवाला ( नपुंसक ) पुरुष उक्त बाह्य चेष्टाओं से स्थूल शरीर का धारक होने पर भी पाण्डित्य क्रीडित ( कामशास्त्रोक्त स्त्रीसंभोग ) का अपात्र होता है । भाषार्य -- जिसप्रकार नपुंसक पुरुष स्थूल शरीरवाला ( मोटा ताजा ) होने पर भी श्री के साथ रति विलास करने में समर्थ नहीं होता, इसलिए जिसप्रकार विद्वान पुरुष (वैध) उसका कुछ सुधार नहीं कर सकता प्रकार जो राजा हस्तव आदि की बाह्य चेष्टाओं से स्थूल शरीरवाला होनेपर भी राजनीति विद्या की कीड़ा से शून्य ( मूर्ख) है, उसे विद्वान पुरुष किसप्रकार सुधार सकता है ? अपि तु नहीं सुधार सकता" ।। १५६ ॥ २७५ हे राजन् ! अब आप 'सुजनजीवित, + नाम के महाकषि की इन्दरचना सुनिए मन्त्रियों का सिद्धान्त ( निश्चित विचार ) विश्वस्त पुरुष को मद्दत्वाद्दीन, सञ्च्चन को कुटुम्ब शून्य और कुलीन पुरुष को प्राणों से रहित एवं विद्वान् को दुःखों से स्वन-युक्त करता है" ॥ १५७ ॥ * 'विजितं (विजित) प० । ↑ 'दुःकणित' क० । + प्रस्तुत शाखकार का कल्पित नाम । + प्रस्तुत सामकर्ता आचार्यश्री का नाम १. समुच्चयालंकार । १. दीपकालंकार । ३. समुच्चयालंकार । । ४. आपालंकार १ ५. दीपकालंकार । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कुमुदाकर इव विनकृति विरमति नृपसिर्नरे सरागे हि । स लघु विस्के रज्यति र निरसश्चूर्णरजसीय ॥१६८॥ मुग्धाङ्गनाकेलिकुलस्य ज्वरार्त इव खिद्येत मन्त्री सत्सु धनव्यये । कृतार्थ इव मदेस बिटवा जीवनादिषु ॥१६९ ॥ भस्मनि हुतमिव महते यह देव तत्फलं करम् । उपयोगिने तु देयं नदाय विटपेटकावापि ॥ १६० ॥ पिण्डीशूराः केवलममी हि सर्वस्वमक्षणे दक्षाः । न हि यामार्थ सम्तः स्वामिन्भट+पिण्डकार्थं वा ॥ १३१ विलासिनीलोचनकवलस्य येषां धर्मार्थकामेषु दुष्टण्टाकचेटका: । तेषामनन्तरायाः स्युः श्रेयः श्रीयोषितः कुरुः ॥१६२ ॥ राजा अनुराग करनेवाले हितैषी पुरुष से उसप्रकार निश्चय से विरक्त ( द्वेष करनेवाला ) होता है, जिसप्रकार कुमुदाकर ( चन्द्र-विकासी श्वेत कमलों का वन ) सूर्य से विरक्त (विमुख - विकसित न होनेवाला ) होता है और विरक ( अहित - कारक ) पुरुष से उसप्रकार शीघ्र राग (प्रेम) करने लगता है जिसप्रकार आर्द्र हरिद्रा ( गीली हल्दी ) का चूर्ण अग्नि से पके हुए चूने के चूर्ण को शीघ्र रक्त ( लाल रंगवाला ) कर देता हूँ' ।। १५८ ।। हे राजन् ! अब आप 'मुग्धाङ्गना कलिकुतूहल' नाम के कांवे की पद्य रचना श्रवण कीजिएमन्त्री विद्वान् पुरुषों के लिए धन वितरण करने पर उसप्रकार दुःखी होता है जिसप्रकार ज्वर-पीड़ित पुरुष दुःखी होता है और विटों ( परस्त्रीलम्पटों ) तथा मद्यपान करनेवाले स्तुतिपाठकों आदि के लिए धन देने पर उस प्रकार हर्षित होता है जिसप्रकार कृतार्थ पुरुष ( इष्ट प्रयोजन सिद्ध करनेवाला ) 'आज मेरा जीवन सफल होगया' ऐसा मानता हुआ हर्षित ( उल्हासित - आनंदविभोर ) होता है * ॥ १५६ ॥ हे राजन! मन्त्री ऐसा मानता है कि साधुपुरुष ( सद्गुरु ) के लिए दिया हुआ समस्त धन भस्म में होम करने सरीखा निष्फल होता है परन्तु ऐसे निज मन्त्री के लिए, चाहे यह नट ही क्यों न हो और व्यभिचारियों फै समूह को रखनेवाला भी क्यों न हों, धन का देना सफल होता है || १६० ॥ हे स्वामिन्! ये साधु लोग निश्चय से केवल भोजनभट्ट और समस्त धन-भक्षण करने में चतुर होते हैं, क्योंकि निश्वय से साधुलोग [ प्रजा की रक्षार्थ ] रात्रि में पहरा नहीं देते और न युद्धभूमि पर शूरवीरों के लिए भोजन देने में दक्ष (प्रवीण) है। अर्थात् - इनसे न तो नगर-रक्षा का ही प्रयोजन सिद्ध होता है और न शत्रुओं पर विजयश्री की प्राप्तिरूप प्रयोजन ही सिद्ध होता है ।। १६१ ।। हे राजन् ! अब आप + 'विलासिनीलोचनकज्जलं' नाम के कषि का काव्यामृत कानों की अञ्जि पुटों से पान कीजिए : हे राजन् ! जिन राजाओं के समीप धर्म, अर्थ व काम के निमित क्रमशः दुष्ट, लुटेरे परस्त्रीलम्पट ( व्यभिचारी ) मंत्री वर्तमान होते हैं । अर्थात्-दुष्ट मन्त्रियों के होने पर धर्म-संरक्षण नहीं हो सकता और चोर मन्त्रियों के होने पर धन सुरक्षित नहीं रह सकता और परस्त्रीलम्पट मन्त्रियों के होने पर काम संरक्षण नहीं होसकता; अतः उन राजाओं के यहाँ धर्म, अर्थ व काम किस प्रकार निर्विघ्न सुरक्षित रह सकते हैं ? अपि तु नहीं रह सकते । निष्कर्ष - दुष्ट मन्त्रियों द्वारा धर्म, चोर मन्त्रियों + अयं शुद्धपाठः च० प्रतितः संकलितः, मु. प्रती तु 'भटपेटिका वा' 'भटानां भोजनं दातुं दक्षा:' इति टिप्पणी + * प्रस्तुत शास्त्रकार भाचार्यश्री ( श्रीमत्सोमदेवसूरि ) का हास्यरसनक कल्पित नाम – सम्पाक १. दृष्टान्तालंकार । २. उपमालंकार । ३. उपमालंकार । ४. जाति - अलंकार । 4 'दास्परसत्रिव प्रस्तुत यात्रकार आचार्य श्री का नाम - सम्पादक Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PM एतीय भाषासः पदप रयतेमाल्पैः फासमाकाराज क्वचित् । तत्सर्वस्वापहाराष मुग्धेषु पुरधूर्तबार ॥१५॥ xसंभाषयस्पमास्योऽयं यत्स्वमेव महीभुजि । सपन्यस्माद्विवेकोऽस्य मा भूम्मपि धनामिनि ॥१६॥ अन्यथा-किं कुर्वस्ति खलाः पुंसां विशुध्वनि धावताम् । इति मत्वा प्रमोहाते महातो बाधिष्ठिताः ॥१५॥ सारस्तमीकैसवकौतुकस्य-और्वोऽसर्वः सुधाम्मोधी भूपाल प्रबलाः स्वलाः । सदपश्चिन्ने सान रलमनुपनवम् ॥१५॥ प्रदो प्रहागामसुरोऽसुराणां यमो षमस्यापि नृपस्य मन्त्री । एवं न श्रेदेव कथं नु जीकारणं कोषिकामकालः ॥१६॥ मपि चा विजितो जन्तुना मृगपतिरिमामामिव कुळे सखियोऽद्रीणामयमसमरोधिः क्षितिहाम् । हिमातानोजजामा तपतपनकालश्च सरलाममुरकाः कोऽपि प्रकृतिखलभावेन महताम् ॥१३॥ द्वारा अर्थ (धन) व व्यभिचारी मन्त्रियों द्वारा काम नष्ट होजाते है ।। १६२ ॥ मन्त्रियों द्वारा कही पर जो थोड़ा तव्य भन्न प्रकृतिषाले अथवा मूर्ख राजा के लिए दिखाया जाता है कहा जाता है। अर्थात्-मन्त्रीगण जो किसी अवसर पर राजाओं के प्रति कहते हैं कि "हे राजन् ! "अहाँपर बीस हजार की आय है वहाँपर हम लोग सीस हजार उत्पन्न करेंगे" उस आय-द्रव्य को आकाश-पुष्पसमान असत्य सममानी चाहिए। अर्थात-जिसप्रकार आकाश-पुष्प कँठा है उसीप्रकार राजा के लिए उस द्रव्य का मिलना भी भूठा है परन्तु राजा के लिए बताई हुई यह थोड़ी द्रव्य (धन) उसप्रकार मन्त्रियों के पूर्ण अपहरण-हेतु ( भक्षणार्थ) होसी है जिसप्रकार फाटक व दमनक नामके गीदड़ों द्वारा सिंहक लिए बनाया हुआ थोड़ा सा मांस उनके स्वयं भक्षणार्थ होता है। ॥ १६३ || यह मन्त्री राजा के समक्ष अपने श्रीमुख से जो आत्म-प्रशंसा करता है, वह इसलिए करता है कि भुम धन-भक्षक मन्त्री के होने पर इस राजा को दूसरे पुरुष से चतुराई प्राप्त न होने पावे ।। १६४ ॥ अन्यथा-अपि धन-भक्षक मन्त्री नहीं है तब महान ( चारों वर्ण व चारों आश्रमों के गुरु ) राजा लोग ऐसा निश्चय करके कि 'विशुद्ध मार्ग (प्रजापालन ष सदाचाररूप सत् प्रवृत्ति) पर शीन चलनेवाले राजाओं या महापुरुषों का दुष्ट लोग क्या कर सकते है ? अपि तु कुछ नहीं कर सकते' । बहुत से मन्त्रियों से सहित होते हुए सुखी होते हैं ।।१६।। हे राजन् ! अब श्राप सारस्तनोकतवकौतुक' नाम के महाकवि की निम्नप्रकार कान्यकता श्रवण कीजिए... क्षीरसागर में बड़वानल अग्नि विशेषरूप से वर्तमान है और राजा के निकट दुष्ट मन्त्री विशेष शक्तिशाली होते हुए पाए जाते हैं एवं चन्दन वृक्ष पर विशेष उत्कट सौंप लिपटे रहते हैं, इसलिए नीति यह है कि रत्न ( उत्तम परतु ) उत्पात-शून्य नहीं होती । अर्थात्-उत्पात (उपद्रव) करनेवाली वस्तु से व्याप्त होती है ।।१६६|राजा का [ दुट] मन्त्री, जो कि विद्वानों की अभिलषित वस्तु को निष्कारण नष्ट करता है, शनि, महल, राहु व केतु-आदि दुष्ट मदों के मध्य प्रधान दुष्ट गाङ् है और असुरों में मुख्य असुर है एवं काल (मृत्यु) का भी काल है। अन्यथा-यदि ऐसा नहीं है तो यह ( दुष्ट मन्त्री) किसप्रकार जीवित रह सकता है? अपितु नही जीवित रह सकता। अभिप्राय यह है कि इस पापी दुष्ट मन्त्री को दुष्ट ग्रह, असुर व काल नहीं मारते, इससे एक बात यथार्थ प्रतीत होती है ॥ १६७ ॥ हे राजन् ! मिशेषता यह है कि यह आपका मन्त्री स्वाभाविक दुष्टता के कारण महान् पुरुषों के कुल में उसप्रकार कोई अपूर्व क्रूर ( दुष्ट ) उत्पन्न हुमा है x 'समर्पयत्यमास्पोऽयं का घ० च । 1, ययासंख्य-अलंकार । २. उपमालंकार। ३. जाति-अलंकार । ४. आक्षेपालंकार । .प्रस्तुत भावकार का हास्यरत-अमन नाम-सम्पादक ५. मर्यान्सरन्यास अलंकार । १. रूपक प अनुमान अलंकार। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ यशस्विनकचम्पूचव्ये तदुक्तं कैश्चिद्विपश्चितिरेतदेव हृदयस्थमपि शिकार कर्तुमसरनिः समासोक्तिमिपेणप्रतीने वातास्था सकतसुलभ तदिनमई यतो बावारोऽमी प्रलस्मयस्वादनतरोः । अमीषां पापानामिह हि पसतामेष महिमा कदाप्येसचायाममिलपति पत्रावगममः ॥१६९॥ प्रौढनियापानयोत्पकस्य सत्र कर्थ ननु सम्तो पत्रास्ते बच्चतुष्टयं युगपत् । कलिकाला खालकालो नुएकाला सचिवका १०॥ जिसप्रकार पशुओं के कुल में सर्प, हाथियों के कुल में सिंह, पर्वतों के कुल में उनको विध्वंस करनेवाला विजलीदण्ड, वृक्षों के समूह में अग्नि ( दावानल-अग्नि) एवं कमल समूह में प्रालेय-पटल (पर्फमण्डल) उत्पन्न होता है और जिसप्रकार तड़ाग-समूह में क्रूर प्रीष्मकाल उत्पन्न होता है। ॥ १६ ॥ पूर्वोक्त दुष्ट मन्त्री संबंधी वाक्य को कुछ विद्वान कषि लोगों ने, जो कि उसे अपने मन में स्थित रखते हुए भी जिह्वा के अग्रभाग पर लाने के लिए ( स्पष्ट फयान करने ) असमर्थ है, 'समासोक्ति" नामक प्रशद्वार के छल से निम्न प्रकार कहा है: उत्पन्न हुई अपेक्षावाला मैं (गि पुण्य से पास एएस दिन का प्रतीक्षा करा, जिस दिन ये चन्दन वृक्ष पर लिपटे हुए साँप प्रलीन ( नष्ट) होंगे। क्योंकि इन पापमूर्ति साँपों की, जो कि इस चन्दन वृक्ष पर स्थित हो रहे हैं, यह महिमा (प्रभाव) है कि जिसके फलस्वरूप इस चन्दन वृक्ष की छाया को पान्थ ( रस्तागीर ) समूह कभी भी नहीं चाहता। भाषार्थ--उक्त बात के कथन से प्रस्तुत महाकषि उस दिन की प्रतीक्षा करता है, जिस दिन राजारूप वृक्ष का आश्रय करनेवाले दुष्ट मन्त्री नष्ट होंगे, क्योंकि दुष्ट मन्त्रियों से प्रजा-पिनाश निश्चित रहता है। ।। १६६ हे राजन् ! अब आप के प्रौढप्रियापाङ्गनवोत्पल' नाम के महाकवि का काव्यामृत अपने श्रोत्ररूप प्रअलिपुटों से पान कीजिए अहो ! उस स्थान पर सज्जनपुरुष या विद्वान् लोग किसप्रकार स्थित रह सकते हैं? अपितु नहीं रह सकते, जिस स्थान पर निम्नप्रकार चार पदार्थ एक काल में पाए जाते हैं। १. कलिकाल १. समुच्चय, दीपक व उपमालंकार । २. 'समासोकि अलंकार का लक्षण-समासोक्ति: समैर्यत्र कार्यलिङ्गविशेषणैः । व्यवहारसमारोपः प्रस्तुतेऽश्यस्य वस्तुनः ।। साहित्यदर्पण ( दशमपरिच्छेद ) से सहालित-सम्पादक अर्यात्-जिस काव्य में प्रस्तुत व अप्रस्तुत दोनों में साधारणरूप से पाये आनेवाले कार्य, लिंग (पुल्लिंग, सीलिंग व नपुंसकलिंग के प्रदर्शक चिक), व विशेषणों द्वारा प्रस्तुत ( प्रकृत) धर्मी में दूसरे अप्रस्तुत (अप्रकृत धर्मी ) रूप बन्द की अवस्या विशेष का भलेप्रकार आरोप करना ( अभेद ज्ञान कराया जाना ) पाया जावे, उसे 'समासोक्ति अलङ्कार कहते हैं। अभिप्राय यह है कि-प्रकृत बस्तु में उके कार्य-आदि के कथन द्वारा अप्रकृत वस्तु का शान करानेवाले भलकार को 'समासोक्किा अलद्वार कहते हैं। प्रस्तुत काव्य में प्रकृत चन्दन वृक्ष पर लिपटे हुए सोपों की महिमा ( प्रस्तुत पन्दन इस की छाया का पान्थों द्वारा न चाहना ) के कथन द्वारा अप्रकृत पदार्थ-राजा के समीपचतों दुष्ट मन्त्री का बोध होता है, स्वतः उक काव्य 'समासोक्ति अलङ्कार' से अलकत है-सम्पादक ३. समासोक्ति-अलङ्कार ।। ___* प्रस्तुत शास्त्रकार आचार्य श्रीमस्सोमदेवमूरि का पाठक पाठिंकाओं में हास्यरस की अभिव्यक्ति करनेवाला कल्पित नाम-सम्पादक Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः २७४ यसः । गुगरागधति क्षितिभृति सधिवजने सूजनजातिभवने च । लक्ष्मीरिय प्रसीदति सरस्वती पटुघु पारेषु ॥११॥ शूरः समरविदूरः क्षुमी रुद्रः परासरोसारः ।* सामनपि व मामा स्वार्थपर-सहमे ॥ देव ॥१२॥ इस्यात्मसंभावनाजिनामीकमुपहरे हयता प्रकृतयो ज्ञासयश्व कर्थकारं न साधु प्रसादिताः। प्रजाप्रतिपालनं च तस्य किमिव वण्र्यते । यस्य पापसमय विष्टिः सिद्धायः क्षिीरिकणिशकालेषु । सघनावसरेपु पुनः स्वच्छन्दः सैनिकायाधः ॥१५३॥ (दुषमाकात ), २. खलकाल, अर्थात-जहाँ पर दूसरे की निन्दा व चुगली करनेवाले दुष्टों की, जो कि काल (मृत्यु) समान भयंकर होते हैं, स्थिति पाई जाती है, ३. नृपकाल ( काल के समान विना विचारे कार्य करनेवाला-मूर्ख राजा)। अर्थात्-जिसमकार काल सभी धनी, निर्धन सजन व दुर्जनों को एकसा मृत्यु-मुख में प्रविष्ट करता है उसीप्रकार जो राजा शिष्टों व दुष्टों के साथ एकसा वर्ताव ! निग्रह-आदि) करता है और ४. मन्त्रीरूपी काल अर्थात् - काल ( मृत्यु ) के समान प्राणघातक दुष्टमन्त्री । निष्कर्ष-जिस स्थान पर अनिष्ट करनेवाले उक्त चार पदार्थ वर्तमान हों वहाँ पर विद्वान् सज्जनों को निवास नहीं करना चाहिए, अन्यथा-निश्चित हानि होती है।॥७॥ क्योंकि जब राजा गुण व गुणी पुरुषों के साथ अनुराग करता है और जब मन्त्रीलोक सज्जन-समूह को सन्मानित करनेवाला होता है तब चतुर पायों ( सदाचारी व सुयोग्य विद्वानों ) से सरस्वती उसप्रकार प्रसन्न ( वृद्धिंगत ) होती है जिसप्रकार लक्ष्मी प्रसन्न होती है । १७१।। प्रसङ्गानुवाद-अथानन्तर (जब 'शङ्खनक' नाम के गुप्तचर ने यशोधर महाराज से उक्तप्रकार 'पामरोदार नाम के मंत्री की पूर्वोक्त कटु आलोचना की उसके पश्चात् ) उसने कहा-हे राजन् ! जो पुरुष अपनी निम्नप्रकार प्रशंसा करता है, वह मन्त्री पद पर अधिष्ठित होने के योग्य नहीं।। "हे राजन् ! शूर (बहादुर ) पुरुष के संग्रह से कोई लाभ नहीं : क्योकि यह तो युद्ध के अवसर पर दरवर्ती होजाता है अथवा आप के साथ युद्ध करने के लिए विदूर ( आपके निकटवर्ती) है। तीक्ष्य ( महाक्रोधी) भी संग्रह-योग्य नहीं है, क्योंकि वह क्षुद्र ( आपकी लक्ष्मी देखकर असहिषा ) होता है। अर्थात्-आपसे ईष्या-द्वेष करता है। इसीप्रकार परासर ( जिसकी धन व राज्य-प्राप्ति की लालसाएँ बढी हुई है) भी अयोग्य ही है और असार ( राजनैतिक ज्ञान व सदाचार सम्पत्ति से शून्य) भी पैसा ही है। इसीप्रकार राजा का मामा, श्वसुर व बहनोई भी संग्रह योग्य नहीं। पर्थातये सब राजमंत्री होने के अपात्र (अनधिकारी) हैं। इसलिए है देव ! आपका कार्य सिद्ध करनेवाला में ( 'पामरोदार' नाम का मन्त्री ) ही आपका सच्चा मन्त्री हूँ, क्योंकि उक्त दोष मेरे में नहीं पाए जाते ]" ||१७॥ हे राजन् ! उक्तप्रकार आत्मप्रशंसारूप पटु वाणी बोलनेवाले उस पामरोदार' नाम के मन्त्री को एकान्त में बुलाते हुए श्रापने प्रजाजन व कुटुम्बीजन किस प्रकार प्रसादित---सन्तापित नहीं किये ? अपि तु अवश्य सन्तापित किए। हे राजन् ! आपके उस पामरोदार' नामके मन्त्री का प्रजापालन क्या वर्णन किया जावे ? अपि तु नही वर्णन किया जासकता। जो बीज बपन करनेके अवसर पर किसानों को बेगार में लगा देता है, जिसके फलस्वरूप वे लोग वीज-वपन नहीं कर सकते और दूधवाली काय-मारियों के उत्पन्न होने के अवसर पर अर्थान् * 'भावसमोऽपि क । क्षीरफणिशकालेपुर का । १. समुच्चयालंकार । २. उपमा व यथासंस्य-अलंकार । ३. समुच्चयालङ्कार । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्विमकचम्पूकाव्ये राजा कर्णे विधाय शान्तं पापमिति प्रते-'माः पापाचार खारपटिक, महामागे समागतगुरुगुणानुरागेच ४ तस्मिन् मै पापं भाषीष्ठाः ।' + कापटिक: प्राइ 'देव, लोचनागौचराया कार्याले चारसंघारी विचारश्च मरेश्वराणां प्रायेणेक्षणवूयम् । तच देवस्य दिव्यचक्षुष व नास्ति । फेवलं मिथ्याभिनिवेशानुरोधान्मनोमोहनौषधानुबन्धाता विपर्यासवसतिर्मतिः । तथा चोक शास्त्रान्तरेपालों की अपरिपक अवस्था में भी जो टेक्स वसूल करता है एवं जो धान्य की फसल काटने के अवसरों पर दूसरी चार [अश्वारोही-घुड़सवार ] सैनिकों के संचार द्वारा स्वच्छन्द-निरर्गल-उपद्रव उपस्थित करता है-फसल को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है ॥१७३॥ तत्पश्चात् ('शङ्खनक' नाम के गुप्तचर द्वारा उक्त विस्तृतरूप से की हुई 'पामरोदार' नाम के मन्त्री की कटु आलोचना को श्रवण करने के अनन्तर ) 'यशोधर महाराज' अपने दोनों हस्तों द्वारा कानों को बन्द करके जिसप्रकार से प्रस्तुत कटु आलोचना शान्त हो उसप्रकार से आश्चर्य पूर्वक 'शजनक नाम के गुप्तचर के प्रति क्रोध प्रकट करते हुए या स्वये पीड़ित होते हुए कहते हैं-"रे पापकर्मा ठग शङ्कनक ! इस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री के विषय में, जो कि पुण्यवान् है और महागुणवान् विद्वान् पुरुषों के साथ जिसका स्वाभायिक स्नेह भलीप्रकार से चला आरहा है, तू इसप्रकार पाप-युक्त वचन मत बोल । अभिप्राय यह है कि महापुरुषों की कटु आलोचना के श्रवण से मुझे भी पाप ला जायगा। भाषार्थ महाकवि कालिदास' ने भी महापुरुषों की निन्दा करनेवालों और सुननेवालों के विषय में भी उक्त बात का समर्थन किया है। अर्थात-जब श्रीशकर जी ब्रह्मचारी का भेष धारण कर उनको पति बनाने के उद्देश्य से तपश्चर्या करती हुई श्री पार्वती के पास पहुँचकर अपनी कटु आलोचना (हे सुलोचने श्रीशङ्कर तो सर्प-यलय ( कहा ) बनाकर पहिनता है-आदि ) करते हैं, उसे सहन न करती हुई श्री पार्वती अपनी सखी से कहती है कि 'हे सखी ! फड़क रहे हैं ओंठ जिसके ऐसा यह ब्रह्मचारी श्री शङ्कर के बारे में फिर भी कुछ कटु आलोचना करने का इच्छुक होरहा है, अतः इसे रोको, क्योंकि केवल महापुरुषों की निन्दा करनेवाला मानव ही पाप का भागी नहीं होता अपि तु उनकी निन्दा को सुननेवाला भी पाप का भागी होता है। प्रकरण में यशोधर महाराज 'शद्धनक' नाम के गुप्तचर से कहते हैं कि "हे शजनक ! उस पुण्यशाली और महागुणी विद्वानों के साथ सुचारुरूप से स्वाभाविक प्रेम प्रकट करनेवाले 'पामरोदार' मंत्री की कटुआलोचना मत कर, अन्यथा सुननेयाले मुझे पाप लगेगा" [ यशोधर महाराज के उक्त वचन सुनकर ] 'शान' नाम के गुप्तचर ने निम्नप्रकार कहा-दे राजन् ! नेत्रों द्वारा दृष्टिगोचर न होनेवाले कार्य-समूह में गुप्तचरों का प्रवेश और विचार ( प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रागम इन तीन प्रमाणों से वस्तु का निर्णय करना ) ये राजाओं के प्रायः दो नेत्र होते हैं। उक्त दोनों नेत्र (गुप्तचर-प्रवेश और विचाररूप दोनों नेत्र ) आपके उसप्रकार नहीं है जिसप्रकार अन्धे के दोनों नेत्र नहीं होते। केवल असत्य अभिप्राय के प्रभाव से अथवा मन में अज्ञान उत्पन्न करनेवाली औषधि [ पोलेने ] के प्रभाव से आपकी बुद्धि विपरीत स्थानवाली (मिप्या) होरही है। दूसरे नीतिशास्त्रों में कहा है कि * उक्क शुरुपाठः ग० प्रतित: संकलितः । मु. प्रतौ तु 'राजा को पिंधाय शान्त भूते-'भाः पापाचार कापटिक, : एवं फ० ५० प्रतिकुगले 'राजा कौँ विधाय शान्तं पापमाः पापाचार स्वारपटिक कार्पटिक' इति पाठः । x'तस्मिन्नैवं मा भाषिष्ठः क. + 'कर्पटिका' के। १. तथा च महाकविः कालिदासः-निवार्यतामालि किमप्ययं पढ़ः पुनर्विवक्षुः स्फुरितोत्तराधरः । न केवल यो महतोऽपभाषते ध्रुपोति तस्मादपि यः स पापमा ॥५॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृवीय प्राशसः पारो यस्य निमम राज्ञो मागीय पदुमा ! काम्यानुग्नवसाय मन्त्रिमाऔरगोचरम् ॥१४॥ जिस राजा के पास गुप्तचर-प्रवेश और विचार इन दोनों गुणों से विशिष्ट वोनों नेत्र नहीं है, उसका राज्य उसप्रकार मन्त्रीरूपी बिदाल (बिल्लव-प्रारूप घूहों का भक्षक होने के कारण) द्वारा प्राप्त करने योग्य होता है जिसमकार अन्धे के सामने रक्खा हुमा दूध मिलावों द्वारा पीने के योग्य होता है। भावार्थ-जिसप्रकार अन्धे के सामने स्थापित किया हुआ दूध बिलावों द्वारा पी लिया जाता है पसीप्रकार गुप्तचर व पिचाररूप नेत्र-युगल से हीन हुए राजा का राज्य भी मन्त्रीरूप दिलावों द्वारा हड़प का जिया जाता है। अतः राजाओं को उक्त दोनों चक्षुओं से अलङ्कत होना चाहिए। गुप्तचर प्रवेश की विशद व्याख्या हम श्लोक नं. ११८ की व्याख्या में विशदरूप से कर आए है अतः, प्रकरण-वश 'विचारतत्व' के विषय में विशद प्रवचन करते हैं मीतिकार प्रस्तुत आचार्य श्री ने कहा है कि 'नैतिक पुरुष को विना विचारे (प्रत्यक्ष, प्रामाणिक पुरुषों के पचन व युक्ति द्वारा निर्णय किये बिना) कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। नीतिवेत्ता जैमिनि विद्वान् ने भी कहा है कि 'ओ राजा प्रजा द्वारा अपनी प्रतिष्ठा चाहता है, उसे सूक्ष्म कार्य भी पिना विचार नहीं करना चाहिए। विचार का लक्षण-निर्देश करते हुए प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री लिखते हैं कि 'सत्य वस्तु की प्रतिष्ठा ( निर्णय ) प्रत्यक्ष, अनुमान छ आगम इन तीनों प्रमाणों द्वारा होती है न कि केवल एक प्रमाण से, इसलिए उक्त तीनों प्रभाणों द्वारा जो सत्य वस्तु की प्रतिष्ठा का कारण है, उसे 'विचार' कहते हैं। सक्त विषय का समर्थन करते हुए शुक्र' विद्वान ने भी कहा है कि 'प्रत्यक्षदर्शी, दार्शनिक व शारूयेस्ता प्रामाणिक पुरुषों द्वारा किया हुआ घिधार प्रतिष्टित ( सत्य व मान्य ) होता है, अतः प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम प्रमाण द्वारा किये हुए निर्णय को 'विचार' समझना चाहिए।' प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण-निर्देश व प्रवृत्ति-निवृत्ति के विषय में प्रस्तुत नीतिकार आचार्यश्री ने कहा है कि 'चनु-आदि इन्द्रियों द्वारा स्वयं देखने घ जानने को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं।' बुद्धिमान् विचारकों को हितकारक पदार्थों में प्रवृत्ति और अहितकारक पदार्थों से निवृत्ति केवल ज्ञानमात्र से नहीं करनी चाहिए। उदाहरणार्थ- जैसे किसी पुरुष ने मृगतृष्णा ( सूर्य-रश्मियों से व्याप्त बालुका-पुञ्ज ) में जल मान लिया, पश्चात् उसे उस भ्रान्त विचार को दूर करने के हेतु अनुमान ( युक्ति प्रमाण से यथार्थ निर्णय करना चाहिए कि क्या मरस्थल में प्रीष्म ऋतु में जल होसकता है ? अपि तु नहीं होसफता। तदनन्तर उसे किसी विश्वासी पुरुष से ऍलना चाहिए कि क्या यहाँ जल है? इसके बाद जब वह मनाई करे तब वहाँ से निवृत्त होना चाहिए। अभिप्राय यह है कि विचारक व्यक्ति सिर्फ ज्ञानमात्र से किसी भी पदार्थ में प्रवृत्ति व निवृत्ति न करे । उक्त विषय का समर्थन करते हुए नीदिवेत्ता गुरु विद्वान् ने लिखा है कि १, तथा च सोमदेवमूरिः-मार्थिचार्य किमपि कार्य कुर्यात् । २. तथा नजमिनि:-अपि स्वल्पतरं कार्य नामिधार्य समाचरेत् 1 यदीच्छेत् सर्वलोकस्य शंसा राजा विशेषतः ॥1॥ ३. तथा च सोमदेषमूरि:- प्रत्यक्षाभूमानागमैर्यपावस्थितयस्तुव्यवस्थापनहेतुर्विचारः ॥ १॥ ४. तथा च शुक्र:-रष्टानुमानागमशैयो विचारः प्रतिष्टितः । स विचारोऽपि विशेषत्रिभिरेतैदच यः कृतः ॥१॥ ५. तथा च सोमदेवरि:--स्वयं रष्ट प्रत्यक्षम् ॥१॥ न ज्ञानमात्रात् प्रेक्षास्तो प्रवृत्तिर्नितिर्वा ॥२॥ ६. सभा च गुरुः-एमात्राम कर्तव्यं गमनं वा निवर्तनम् । भनुमानेन नो यावदिष्टवाक्येन भाषितम् ॥१॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये 'बुद्धिमान पुरुष को सिर्फ देखने मात्र से किसी पदार्थ में प्रवृत्ति या। उससे निवृत्ति नहीं करनी चाहिए जब तक कि उसने अनुमान व विश्वासी शिष्ट पुरुषों द्वारा वस्तु का यथार्थ निर्णय न करलिया हो ।' उक्त विषय में आचार्यश्री ने कहा है कि 'क्योंकि जब स्वयं प्रत्यक्ष किये हुए पदार्थ में बुद्धि को मोह ( अज्ञान, संशय व श्रम) होजाता है तब क्या दूसरों के द्वारा कद्दे हुए पदार्थ में अज्ञान आदि नहीं होते ? अपितु अवश्य होते हैं ||१|| गुरु विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय समझना चाहिए । २८२ विचारज्ञ का लक्षण और बिना विचारे कार्य करने से हानि-आदि का निरूपण करते हुए नीतिकार प्रस्तुत आचार्यश्रीः लिखते हैं कि 'जो मनुष्य प्रत्यक्ष द्वारा जानी हुई भी यस्तु की अच्छी तरह परीक्षा (संशय, भ्रम व अज्ञान-रहित निश्चय) करता है, उसे विचारज्ञ - विचारशास्त्र का वेत्ता - कहा है। ऋषिपुत्रक विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है । विना विचारे - अत्यन्त उतावली से किये हुए कार्य लोक में कौन से अर्थ - हानि ( इष्ट प्रयोजन की व्हति ) उत्पन्न नई करते अपितु के अनर्थ उत्पन्न करते हैं । 1 भागुरि विद्वान ने भी कहा है कि 'विद्वान् पुरुष को सार्थक व निरर्थक कार्य करने के अवसर पर स से पहिले उसका परिणाम - फल-प्रयत्नपूर्वक निश्चय करना चाहिए। क्योंकि बिना विचारे अत्यन्त उतावली से किये हुए कार्यों का फल चारों ओर से विपत्ति देनेवाला होता है, इसलिए वह उस प्रकार हृदय को सन्तापित (दुःखित) करता है जिसप्रकार हृदय में चुभा हुआ कीला सन्तापित करता है ।' जो मनुष्य बिना विचारे उतावली में आकर कार्य कर बैठता है और बाद में उसका प्रतीकार ( इलाज -- अनर्थ दूर करने का उपाय ) करता है, उसका वह प्रतीकार जल प्रवाह के निकल जानेपर पश्चात् उसे रोकने के लिए पुल या बन्धान बाँधने के सदृश निरर्थक होता है, इसलिए नैतिक पुरुष को समस्त कार्य विचार पूर्वक करना चाहिए । शुकः विद्वान के उद्धरण द्वारा भी उक्त बात का समर्थन होता है। प्रकरण में 'शङ्खनक' नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! जिसप्रकार अन्धे के सामने रक्खा हुआ दूध बिलाव पी लेते हैं उसीप्रकार गुप्तचर व विचाररूप नेत्रों से हीन हुए राजा का राज्य भी मन्त्रीरूप बिलाव हड़प कर जाते हैं, अतः आपको उक्त दोनों नेों से अलङ्कृत होना चाहिए ॥ ६७४ ॥ १. तभी च सोमदेव भूरि-यं पतित शेते विपर्यस्यति वा किं पुनर्न परोपदिष्टै वस्तुनि ॥३१॥ -- २. तथा च गुरु कोदो वा यो बाथ दृष्टश्रुतविपचः । यतः संजायते तस्मात् तामेकां न विभावयेत् ॥१॥ ३. तथा च सोमदेवसि बलु विचारशी यः प्रणमपि साधु परीक्ष्यानुतिष्ठति ॥ १ ॥ ४. तथा च ऋषिकः विचारशः स विशेया स्वयं टेप वस्तुनि । तावणां निश्वयं कुर्यादयावनो साधु दीक्षितम् ॥१॥ ५. तथा च सोमदेव :- अतिरभसार कृताने कार्याणि किं नामानर्थ न जनयन्ति ॥१॥ ६. तथा भारीपन विगुवाकुल कार्यमादी परिपादरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरमरुतानां कर्मणामाविर्भवति हृदयदाही शभ्यः ॥१॥ ७. तथा च सोमदेवभूरिः अविचार्य कृते कर्मणि पदचात् प्रतिषिधानं गतोदके सेतुबन्धनमिव ॥१॥ ८, त्था च शुक्रः – सर्वेपा कार्याण यो विधानं न चिन्तयेत् । पूर्व पश्वा भवेथं तु यथादके ॥१॥ नीतिवाक्यामृत ( भा. डॉ. समेत ) पृ. २३७ ( विचार समुद्द ेश) से संकलित - सम्पादक - ९. रूप उपमालङ्कार । - Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पाशसः देव, मसिरसरतस्य पुंसः किमिव मांसवतम् । कपाले मुझानस्य हि नरस्य क हव वादनादायल्पावेला । पुरे प्रमोबदक्षस्य हि पुरुषस्य केव काम्वारेऽपेक्षा । निरम्बरनियम्यायामात्माम्बायां शाहोयोगस्य हि जनस्य कप पराम्बालामम्बरपरित्यागः । यतः। स्थिता असमानस्य गसासौ कोशी क्या । परमाले कृपा कैव स्वबालेन बलिकिये ॥१०॥ देश, समावणा हि दुस्स्यमा खलु प्रकृतिः। न खलु पोषितोऽप्यहिपोतो हाति हिंसाध्यवसायम्, न खलु वाशीलोपि खिालस्त्यवति कौर्यम्, म खलु प्रायोपवेशनवासिन्यपि कुहनी मुश्चति परवश्वमोचितां चिन्ताम, म बलु काकवलनिकटोपि किराठो रहति शायस्थितिम् । यसः ।। पः स्वभावो भवेद्यस्य स तेन खलु दुस्स्यजः । न हि शिधाशतेनापि कर्मुिश्चति पलम् ॥१६॥ हे राजन् ! मांस-रस के पीने में अनुराग करनेवाले पुरुष का मांस-प्रद (मांसत्याग) क्या है? अपि तु कुछ नहीं। अर्थात्-मांस-रस के पीने में लम्पट हुआ पुरुष मांस को किसप्रकार छोड़ सकता है? अपितु नहीं छोड़ सकता। नरमुण्डों ( मुदों की खोपड़ियों) में स्थापित किये हुए भोजन को खानेवाले पुरुष को भोजन के अवसर पर केश-दर्शन से भोजन-परित्याग किसप्रकार होसकता है? अपितु नहीं हो सकता और नगर में चोरी करने में समर्थ हुआ पुरुष वन की अपेक्षा क्यों करेगा ? अपितु नही करेगा। अर्थातू-जो नगर में डाँका डालने में समर्थ है, वह वन में स्थित रहनेवाले पुरुषों के लूटने की इच्छा क्यो करेगा? अपितु नहीं करेगा। इसीप्रकार अपनी माता को नग्न करके (उसके साथ रतिषिलास करने के लिए ) जिसका शरीर कामरूप ज्वर से पीड़ित होधुका है, उस पुरुष का दूसरे की माता को नन करके उसके साथ रतिविलास करना क्या है ? अपितु कोई चीज नहीं। अर्थात् जो अपनी माता के साथ रतिविलास करना नहीं छोड़ता, वह दूसरे की माता के साथ रतिविलास करना किसप्रकार छोड़ सकता है अपितु नहीं छोड़ सकता । हे राजन् ! क्योंकि जीवित प्राणी की हत्या करके भक्षण करनेवाला पुरुष मरे हुए प्राणी के साथ दया का बर्ताव फिसप्रकार कर सकता है? अपितु नहीं कर सकता और अपने बच्चे की बलिक्रिया ( उसकी हत्या करके देवी को चढ़ाना ) करनेवाला पुरुष दूसरों के पत्रों में दया का क्ष किसप्रकार कर सकता है ? अपितु नहीं कर सकता। भाषार्थ---प्रकरण में उसीप्रकार हे राजम् ! सक्त 'पामरोदार' नाम के मन्त्री में उक्त सभी प्रकार के दुर्गुण ( मांसभक्षण, चोरी व परसी-लम्पटवा एवं निर्दयता-मादि) पाये जाते हैं। ॥ १५॥ हे राजन् ! स्वाभाषिक प्रकृति निश्चय से दुःख से भी नहीं लोड़ी जासकती। उदाहरणार्मजिसप्रकार [दूध पिलाकर ] पृष्ट किया हुश्रा भी साँप का बचा हिंसा करने का उधम निश्चय से नही छोड़ सकता। इसीप्रकार बिलाव दीक्षा को प्राप्त हुआ भी अपनी क्रूरता नहीं छोड़ता एवं कुट्टनी उपवास या संन्यास धारण करती हुई भी लोकवचन-योग्य चिन्ता नहीं छोड़ती और जिसप्रकार किपट (भील बगैरह म्लेच्छ जाति का निकृष्ट लुटेरा पुरुष ), काल-पास के समीपवर्ती हुश्रा भी अपना छलकपट-मादि दुष्ट मर्ताव नहीं छोड़ता। क्योंकि जिस पुरुष का जो स्वभाव होता है, वह उसके द्वारा निश्चय से दुल से भी छोड़ने के लिए अशक्य होता है। उदाहरणार्थ-यह बात स्पष्ट ही है कि बन्दर सैकड़ों हजारों शिक्षामों (उपदेशों) द्वारा शिक्षित किये जाने पर भी अपनी चलता नहीं छोड़ता' ।। १७६ ॥ १. भाक्षेपालकार । २. रष्टान्तालद्वार । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशखितकाम्पूचव्ये देव, सविचाइविधुरोपकारा हि सेवकेषु स्वामिममनुरक्षायमपाश्चर्यशौर्यविजम्माः प्रारम्भा या। तत्र संस्तावपिण्डीमाण्डाकिनो पितृप्रियपिण्डीनामस्य । यतः। मरम्बाजासस्तात: पामरपुत्री च यस्य जनयित्री। पञ्चपुरुषा र योषा कुलस्थितिः स हि कथं तु कुलजम्मा ॥१७॥ देव, तथाविधान्षयपात्रे धात्र येयमई महीक्षिवित्याकृतिः, उभयकुलविशुद्धिपात्रनिहीनधारित्रैः शतपुत्रः फेलाभ्यवहारेण स्थितिः, देवेन च स्वयमभ्युस्थानविहिसिः, बान्धवजनप्रगतिः सामन्तीपनतिर्महापुरुषापपितिश्च, सा मन्तःस्तातका राज्यशालाकेत कमई कारोस्तकं सविवेक र लोकं खरं न स्वेदयति। ततश्च । हे राजन् ! निन्नप्रभार के चार गुण जब सेवकों (मन्त्री-आदि अधिकारियों) में होते हैं तब उन गुणों के कारण उनके स्वामी उनपर स्नेह प्रकट करते हैं। १. कुल (उबवंश), २. विद्या (राजनैतिकशान).३. वृत्त-ब्रह्मचर्य-श्रादि सदाचारसम्पत्ति और ४. विधरोपकार-अथोत-व्यसनोंसंकटों के अवसर पर उनसे स्वामी का उद्धार करना। अर्थात्-सेवकों के उक्त चारों गुण स्वामी में स्नेह उत्पन्न करते हैं अथवा सेवकों द्वारा शत्रु के प्रति किये जानेवाले ऐसे युद्ध, जिनमें चित्त को चमत्कार सत्पन्न करनेवाली अनोखी शूरता का विस्तार पाया जाता है, भी स्वामी को अनुरक्त करते हैं। अभिप्राय यह है कि जो मन्त्री-आदि सेवक गण यदि उक्त चारों प्रकार के गुणों से परीक्षित नहीं होते हुए भी केवल संग्राम-शूर होते हैं, वे अपने स्वामी को अपने ऊपर अनुरक्त नहीं बना सकते। भावार्थ-शनक' नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे देव ! प्रस्तुत मन्त्री में उक्त चारो गुणों का सर्वथा अभाव है और संग्राम-शूरता भी केवल उसके गाल-बजाने में है न कि कार्यरूप में, अतः वह आपको अपने ऊपर मनुरक्त नहीं कर सकता। उक्त बात आगे विस्तार-पूर्वक कही जाती है-हे राजन् ! इसका वंश (फुल) खल संग्रह-शाली तिलों की खलीवाले ( तेलियों) का है, अर्थात् आपका यह 'पामरोदार' नामका मन्त्री तिली आदि की खली का संग्रह करनेवाले नीच जाति के तेलियों के वंश में उत्पन्न हुआ है। क्योंकि-हे राजन् ! जिसका पिता तेलियों के वंश में उत्पन्न हुआ है और माता पामर पुत्री (नीच की पुत्री ) है और जिसकी स्त्री पञ्चभारी ( पाँच पतियों को रखनेवाली) है, इसलिए ऐसे कुल के आचारवाला वह मन्त्री निश्चय से उपकुल में जन्मधारण करनेवाला किसप्रकार हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता ॥१७॥ हे राजन् ! वैसे कुलवाले (तेली-कुल में उत्पन्न हुए ) इस ‘पामरोदार' नामके मन्त्री में जो यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला ‘में राजा हूँ' इसप्रकार का अहंकार पाया जाता है और जिसका उच्छिष्ट (अँठा) भोजना उत्तमजाति व भएकुल में उत्पन्न हुए भी निकृष्ट प्राचारवाले राजपुत्र करते हैं। अर्थात्-जो राजपुत्रों को अपना उच्छिष्ट भोजन कराने का निन्ध आचार रखता है एवं केवल इतना ही नहीं किन्तु जिसके आने पर आप भी स्वयं सिंहासन से उठते हो और इसके कुटुम्बीजनों के लिए प्रणाम करते हो एवं अधीनस्थ राजालोग भी संमुख आकर इसके लिए नमस्कार करते हैं। इसीप्रकार महापुरुषों द्वारा जो इसकी पूजा ( सन्मान ) की जाती है, वह ( पूजा) मन में सन्ताप उत्पन्न कराती हुई किस स्वाभिमानी ='फलाभ्यवहरगस्थिति: १०। १. उक्तं च-'विवर्षः पामरो नौचः प्राकृतच पृथग्जनः । निहीनोऽपसदो जात्म: सुशकाश्चतुरचरः ॥ चर्वरोऽप्यन्यथा जातोऽपि' इति क्षीरस्वामिवचनम् । यश की संस्कृतटीका पृ०४३० से समुवृत्त-सम्पादक २. समुच्चयालार। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आधास: २०५ मसल्लोकानुरोधेन सहलोकोपेक्षणेन च । व्यालशैलान्तराठाङ्गी कुरङ्गीवासमा रमा ॥१८॥ देव, भूयन्ते बसतां सतां व प्रप्रहावामहाभ्यां च नृपेषु व्यापदः । तथा हि—कमिचनको नाम नृपतिर्दिवाकति सेनाधिपस्येन सामन्तसंतान संतापयन् संभूष प्रकृषिसाम्यः प्रकृतिभ्यः किनकलोधानुरोध पधमवाप। केरलेषु । पराला कितपस्य पौरोहित्येन, बङ्गालेषु मङ्गलो वृषजस्य साचिव्येन, कैशिकेषु । कामोऽवरुद्ध बस्तनधयस्य पौवराज्येन, तथा पङ्गेषु स्फुलिङ्गा: CENTER चहागामुदापि नलिन, मधु मकरध्वनः साधुसमीव विवेकी पुरुष को हृदय में चुभे हुए तलवार के खएउ-सरीखी विशेषरूपसे दुःस्थित नहीं करती १ अपि तु अवश्य ही करती है। इसलिए हे राजन् ! नीच लोगों का सत्कार करने से और उत्तम लोगों का अनादर करने से लक्ष्मी (धनादि सम्पत्ति) समीप में आने के लिए उसप्रकार असमर्थ होती है जिसप्रकार ऐसी हिरणी, जिसके एक पार्श्वभाग पर पुष्ट हाथी है और दूसरे पार्श्वभाग पर पर्वत है और जिसका शरीर उन दोनों दुष्ट हाथी व पहाड़) के बीच में स्थित है, समीप में आने के लिए असमर्थ होती है' ॥१७॥ हे राजन् ! जिन राजाओं ने दुष्टों को स्वीकार (सन्मानित किया है और सजनों को अस्वीकार ( अपमानित ) किया है, उनके ऊपर निश्चय से विपत्तियाँ श्रवण कीजाती है। उक्त बात को समर्थन करनेवाली क्रमशः दृष्टान्तमाला श्रवण कीजिए-हे राजन् ! सबसे पहले आप दुष्टों को सन्मानित करनेवाले राजाओं की दुर्गति बतानेवाली दृष्टान्तमाला श्रवण कीजिए-- कलिङ्ग देश के अनङ्ग' नाम के राजा ने नापित ( नाई) को सेनापति पद पर भारूढ किया और उसके द्वारा उसने अधीनस्थ सामन्तों ( राजाओं ) को पीड़ित कराया था, इसलिए कपिस हुई प्रकृति ( प्रजा ) ने मिल करके उसके ऊपर एक-एक पत्थर फेंककर इसका बध कर बाला। केरल ( दक्षिणाश्रित देश ) देशों में वर्तमान 'कराल' नाम के राजा ने नीष फुलवाले मानव को पुरोहित ( राजगुरु ) बनाया था, इसलिए मारा गया। बङ्गाल देश के 'मन' नाम के राजा ने वृषल (शूद्र और वाणी से उत्पन्न हुए शूद्र) को राजमन्त्री बनाया था, इसके बलस्वरूप मार डाला गया। इसी प्रकार ऋथकेशिक देशों के 'काम' नामक राजा ने वेश्या-पुत्र को युवराज पद दिया था, जिसके फलस्वरूप मध को प्राप्त हुआ। हे राजन् ! अब आप सज्जनों को अपमानित करनेवाले राजाओं की दुर्गति समर्थन करनेपाली दृष्टान्तमाला श्रषण कीजिए बनवेशों स्थित हुए 'स्फुलिङ्ग' नाम के राजा ने ऐसे मन्त्री का अनावर किया था, जो कि पंश-परम्परा से मन्त्री पद पर आरूढ़ हुआ चला आरहा था और जो चार प्रकार की उपधाओं ( धर्म, अर्थ व काम-आदि ) से शुद्ध था । अर्थात्-जो धर्मास्मा, अर्थशास्त्री, जितेन्द्रिय और अपने स्वामी को संकट से मुक्त करनेवाला था, जिसके फलस्वरूप वह (राजा) मार डाला गया। मगधं II वालो पृषलस्य साचिज्येन' ० + 'कासोऽवस्य' का 1 १. उपमालद्वार। २. उक्त म्य-अमात्याद्याश्च पौराश्च सद्भिः प्रातयः स्मृताः । खाम्यमात्यसुत्कोशराष्ट्र दुर्गवरानि च । राण्यामानि प्रपतयः पौराणां श्रेणयोऽपि च ॥' यश की सं. सी. पू. ४११ से संग्रहीत–सम्पादक Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ यशस्तिलक चम्पूकाये हितस्यापि पुरोहितल्या बहेलेन, कौक्रेषु कुरङ्गो देशकोशोचितप्रतापस्यापि सेनापतेरविशेपेण चेदिषु मदीशो निरपवादस्यापि महतः सुतस्य यौवराज्य देश यद्यपि देवस्य तेजोब । प्रबलम् तथापि तेजस्तेजस्विनां स्थाने तं धृतिकरं भवेत् । कराः सूर्याश्वानो: किं स्फुरन्ति इवाश्मनि ॥ १७९ ॥ देव, लोकाधिश्वबन्धानां हि विद्यानां साधूपचरितं स्फुरितमवस्थानस्थितमपि स्त्रीरमिवातीवात्मन्यादर कारपरमेव जने । एतशास्त्र कृत्रिमरत्न मोरिव बहिरेव देव प्रसादनानात्मभाविन्योऽपि विभूतयः पतिवरा इव स्वात्पतितस्यापि जनस्य भवन्ति, म पुनरायः स्थितय हवानुपासितगुरुकुलस्य यववस्थोऽपि सरस्वस्यः । पतः | प्रान्त के देशों का 'मकरध्वज' नाम का राजा सदाचारी पुरोहित ( राजगुरु ) का अनादर करने के कारण मार दिया गया। कौन देश का 'कुरङ्ग' नाम का राजा देश व खजाने के अनुकूल प्रतापशाली सेनापति को अपमानित करने के कारण बध को प्राप्त हुआ और चेदि देशों के 'नदीश' नाम के राजा ने ऐसे ज्येष्ठ पुत्र को, ओ कि सदाचारी होने के कारण प्रजा द्वारा सन्मानित किया गया था, युवराज पद से युत कर दिया था, जिसके फलस्वरूप मार डाला गया । अथानन्तर- 'शङ्खनक' नामका गुप्तचर पुनः यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन! यद्यपि आपका तेजोबल ( सैनिकशक्ति व खजाने की शक्ति ) प्रचण्ड ( विशेष शक्तिशाली ) है तथापि - तेजस्वी पुरुषों का तेज ( प्राण जानेपर भी शत्रुओं को सहन न करनेवाली - पराक्रमशालीसैन्यशक्ति व कोशशक्ति) जब योग्य देश पर स्थापित किया जाता है, तभी वह सन्तोष जनक होता है, जिसप्रकार सूर्य की किरणें सूर्यकान्दमणि में लगी हुई जैसा चमत्कार छाती है वैसा चमत्कार क्या नष्ट पाषाण में लगी हुई होनेपर लासकतीं हैं ? अपितु नहीं लासकतीं ' ।। १७६ ॥ हे राजन् ! विद्याएँ ( राजनीति भादि शास्त्रों के ज्ञान ), जो कि समस्त लोगों— विद्वान पुरुषोंके लिए अधिक ऐश्वर्य प्रदान करने के कारण नमस्कार करने योग्य होती हैं, उनका अच्छी तरह से व्यवहार में लाया हुआ चमत्कार योग्य स्थान ( पात्र - उपवंश में उत्पन्न हुआ सज्जन पुरुष ) में स्थित हुआ अपने विद्वान पुरुष का उसप्रकार विशेष आदर कराता है जिसप्रकार स्त्रीरन ( श्रेष्ठ स्त्री ) योग्य स्थान में स्थित हुई ( राजा-भादि प्रतिष्ठित के साथ विवाहित हुई ) अपना आदर करावी है। हे राजन् ! यह विद्वत्ता का चमत्कार इस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री में उसप्रकार बाहिरी पाया आता है जिसप्रकार कृत्रिम (बनावटी ) रत्न के हार में केवल ऊपरी चमत्कार पाया जाता है, न कि भीतरी । हे राजन् ! स्वामी को प्रसन्न करने के कारण अपने लिए प्राप्त न होनेवालीं भी लक्ष्मिय ( धनादि सम्पत्तियों ) अकस्मात् आए हुए भी लोक के लिए उसप्रकार प्राप्त होजाती हैं जिसप्रकार कन्याएँ अकस्मात् आए हुए पुरुष को (वसुदेव को गन्धदन्ता की तरह) प्रसन्न की हुई होने से प्राप्त होजाती हैं, परन्तु उक्त बाद सरस्वती में नहीं है; क्योंकि विद्याएँ दिन-रात अभ्यस्त की हुई होनेपर भी गुरुकुल की उपासना न करनेवाले पुरुष को उसप्रकार प्राप्त नहीं होती जिसप्रकार भोगी जानेवाली मायुकी स्थितियाँ वृद्धिंगत नहीं होतीं । + 'अस्थानस्थितमपिं क० । * 'कारयत्येव A अनं' म० । A 'ड्डू क्रोरपि तथा कर्ता इनन्ते कर्म वा भवेत् । अभियादिवशोरे आत्मने विषये परं ॥१२ इत्यभिधानात् शुषः इनंतस्य द्विकर्मत्वं इति टिप्पणी । १. रात आक्षेपालङ्कार । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय आश्वासः नृपकरुणायाः कामं द्रविणकयाः संघरस्ति शरणेषु । म स्वाभिजात्यमेतस्पाण्डित्वं वा मृणां भवति ॥१८॥ देव, तबलून्येऽपि यत्स्यचिसि नभसि विगुप्त इव विधाविलसिसम् , सवनस्य घनस्येच माहात्म्यानात्मनः । यतः । विद्यारसविडोनापि धायली विभवासपात्। ध्यलोकोक्तो तरङ्गेयं भवेन्मुम्भभूगप्रिया ॥ ११॥ यपि क्वचिस्वधिककासु पयसि पतितस्य तैलबिन्दोरिवान्तन्याधिशून्यस्याप्यस्योपन्याससाहसम, तदपि लक्ष्मीका चलाभाशापाशस्खलितमतिमृगीप्रचारस्य दुभैरजठरकुठारविनिर्मिनमानसारस्य हताइंकारस्य सरस्वतीपण्यपातकावसरस्य जनस्या क्योंकि मानवों की कुलीनता व विद्वत्ता उनके लिए धन-धान्यादि सम्पत्ति प्रदान नहीं करती किन्तु राजा की दया से ही मानयों ( अधिकारी गण । के गृहों में धन-धान्यादि विभूतियाँ संचार करती हैं। भावार्थ--उक्त यात 'शजनक' नाम के गुप्तचर ने यशोधर महाराज से कही है। नीतिकारों ने भी कहा है कि 'स्वामी की प्रसन्नता सम्पत्तियाँ प्रदान करती है न कि कुलीनता व विद्वत्ता-पण्डिताई ।। १८० ।। है राजन् ! जिसप्रकार आकाश में बिजली का विलास ( चमक ) मेघों के प्रभाव से ही होता है न कि स्वयं उसीतकार आपके मन्बी-सरोखे कुलीनता व विद्वत्ता से दीन भी जिस किसी पुरुष में विधा का विलास (चमत्कार) पाया जाता है, यह उसके धन-प्रभाव से हो होता है न कि निजी प्रभाष से । भावार्थ-प्रकरण में 'शान' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! आपका "पामरोदार' नाम का मन्त्री तिल-आदि की खली का संग्रह करनेवाले तेलियों के नीच कुल में उत्पन्न हुआ है एवं उसने गुरुकुल में रहकर विद्याभ्यास नहीं किया, अतः वह नीच कुल का और मूर्ख है, जिसे मैं पूर्व में कह चुका हूँ परन्तु उसपर लक्ष्मी की विशेष कृपा है, इसलिए कुलीनता ब बहत्ता से हीन हुए उसमें जो कुछ विद्या-विलास पाया जाता है, बह. उसप्रकार स्वाभाविक नहीं है किन्तु धन के माहात्म्य (प्रभाव) से उत्पन्न हुआ है जिसप्रकार आकाश में विजली का विलास स्वाभाविक न होता हुआ मेघों के प्रभाव से ही होता है। धनाब्यों की यह बुद्धिरूपी मरुस्थली विद्यारूपजल से रहित होने पर भी धन की गर्मी से असत्य वचनरूप उत्कट तरङ्गोंवाली होती हुई मूर्ख मनुष्यरूप हिरणों के लिए ही प्रिय लगती है न कि विद्वानों के लिए। भावार्थ-प्रकरण में शङ्कनक' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि जिसप्रकार मृगतृष्णावाली मरुस्थली जल-शूग्य होने पर भी सूर्य की गर्मी से उत्कट तरङ्गशाली होती हुई मृगों के लिए प्रिय होती है, उसीप्रकार 'पामरोदार' नाम के मन्त्री-सरीख धनान्य पुरुषों की बुद्धिरूपी मरुस्थली भी विद्यारूपी जल से शून्य होती हुई धन की गर्मी से झूठे वचनरूप उत्कट तरङ्गों से व्याप्त हुई मूर्ख मानबरूप हिरणों के लिए प्रिय होती है न कि विद्वानों के लिए ||१८१।। हे राजन् ! यह 'पामरोदार' नाम का मंत्री, जो कि भाभ्यन्तर में कलाओं के अनुभव से उसप्रकार शून्य है जिसप्रकार जल में पड़ी हुई सैल-बिन्दु जल के भीतर-भाग के अनुभव ( स्पर्श) से शून्य होती है। इसमें । मन्त्री में ) जो कहीं-कहीं वक्तृत्व क कवित्वादि कलाओं का वचन रचना-चातुर्य पाया जाता है, यह भी ऐसे बुद्धिदायक वकालोक के संगम-वश उत्पन्न हुआ है न कि इसके बुद्धि के उत्कर्ष ( वृद्धि) वाय, जिसकी बुद्धिरूपी हिरणी की प्रवृत्ति ( यथेच्छ संचार ) लक्ष्मी-( धनादि सम्पत्ति ) लेश की प्राप्ति संबंधी * 'लक्ष्मीलबलाभास्वलितमतिमीप्रचारस्य' पर । १. तथा च सोमदेवसूरिः- स्वामि प्रमादः संपदं जनयति पुनराभिजात्यं पाणिहर वा।" २, जाति-अलहार। ३. रूपकालकार । नीतिघाण्यामृत से संकलित-सम्पादक Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - यशस्तिनकचम्पूकाव्ये गयान नोभौदार्यात् । षसो देव, पटदासीमां हि वदनसौरभ स्वामिताम्बूलोद्गालान सौभाग्यबलात, पवनस्म हि परिमल पेशलता प्रसूनतमसंसगन्नि निसर्गात , दारुणो हि दावदारुपता बृहनानुभावान स्वभावान , मण्डलस्य हि भण्डनकालतापतिनिधानवशान शौर्याशान. 1 अपक्षशकलस्य हिनमस्सा देवाकारानभाषाम्न प्रतिभावासू । अपि। अबुधेऽपि बुधोद्वारे प्राशानुज्ञा विजाभते । संरकत': फौशालादेति यतः काचोऽपि स्नताम् ॥१८२।। यस्पुनः सेबकलोकदौरात्म्य प्रविख्यापयियुः किमयणकपश्यन्धेन भगवती सरस्वती विधमति, सत्र यो हि स्वयमेव निकायति स कर्थ नाम दुरात्मा स्वादिसि परप्रतारणार्थम् । किं च । आशा (पान्छा) रूपी जाल में बँधी हुई है। अर्थान-जिस विद्या देनेवाले वक्तालोक की बुद्धिरूपी हिरणी अल्प धन की प्राप्ति की इच्छारूपी जाल में बंधी हुई होने के कारण अपना यथेच्छ विकास नहीं कर पाती और जिसका अभिमानरूप वृक्ष का मध्यभाग महान् कष्ट से भरण कीजानेवाली कुक्षि (पेट) रूपी कुल्हाड़े या परशु द्वारा विदारण किया गया है एवं जिसका अहँकार नष्ट होगया है तथा जिसे सरस्वती के बेचने के पाप का अवसर प्राप्त हुआ है। हे राजन् ! घड़ों को धारण करनेवाली दासियों के मुख में वर्तमान सुगन्धि निश्चय से उनके स्थामियों द्वारा चधाये हुए पान के उद्गीर्ण-( उगाल ) भक्षण से ही उत्पन्न होती है न कि उनकी सौभाग्य शाक्ति से। हे देष ! वायु में धर्तमान सुगन्धि की मनोहरता निश्चय से पुष्पयाटी ( फूलों की बाड़ी) के संसर्ग-बश ही उत्पन्न हुई है न फि स्वभाषतः और काष्ट ( लकड़ी) में भस्म करने की रौद्रता ( भयानकता) अनि संयोग से ही उत्पन्न होती है न कि स्वभावतः एच कुत्ते में लड़ाई करने की खुजली उसके स्वामी के संसर्ग-बश होती है न कि स्वाभाविक शूरता के श्रावेश से, इसीप्रकार हे राजन् ! पाषाण-खण्ड में पाई जानेवाली पुरुषों द्वारा नमस्कार किये जाने की योग्यता देवताओं की प्रतिच्छाया के प्रभाव से होती है न कि स्वाभाविक प्रभाव-क्श। हे राजन् ! मूर्ख मनुष्य में भी विद्वानों के बचन ( कहने ) से दूसरे विद्वानों की अनुमति का प्रसार होता है। अर्थात् यदि विद्वान लोग किसी मूर्स मनुष्य को भी विद्वान कह देते हैं तब दूसरे विद्वान लोग भी कहते हैं कि 'यह यास्तव में विद्वान ही है' इसप्रकार की अनुमति देने लगते हैं। क्योंकि संस्कार करनेवाले के विज्ञान से काँच भी रत्नता प्राप्त करता है। अर्थात-जिसप्रकार शाणोल्लेखन-आदि संस्कार करनेवाले के विज्ञान-यश काँच रत्न होजाता है उसीप्रकार मुर्ख मनुष्य भी बिद्वानों के कहने से विद्वानों द्वारा विद्वान समझ लिया जाता है। प्रकरण में 'शङ्खनक' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे देव ! प्रस्तुत 'पामरोदार नामका मन्त्री स्वभाविक मूर्ख है परन्तु विद्वानों के घचन से उसप्रकार विद्वान् बन रहा है जिसप्रकार काँच शाणोल्लेखन-आदि संस्कार करनेवाले के चातुर्य से रत्न होजाता है। ॥१८॥ हे राजन् जो मन्त्री बार वार आपके समक्ष सेवक लोगों की दुष्टता कहने का इच्छुक होता हुआ निष्ट शोकों की रचना द्वारा जो कुछ थोड़ा सा परमेश्वरी वाणी को सन्तापित करता है, उसमें दूसरा ही कारण है। वह कारण यही है कि 'जो मन्त्री निश्चय से स्वयं इसप्रकार कहता है ( सेयकों की दुष्टता का निरूपण करता है ) वह किसप्रकार दुष्ट हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता।' हे राजम् ! उक्त प्रकार से दूसरों को धोखा देने के कारण ही वह ऐसा करता है। +'उपलरय' क० 'प्रकृतिप्रभावात् कः । १. दृष्टान्तालंकार । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पाश्चासः २४ भारमनि निषेकविकला प्रसिसिमायेण इज्यते. सकतः । कैप इव कमवेऽपि हिम श्री: पूज्य तथाप्याम् ॥१३॥ वृत्तं पुमरस्य पिण्याकपण्यानाअनस्येवालीकाम्सोत्सर्गरमेकसोऽनेकपाखविलीसंसगाविसगै रेष रामपधीकृतम् । पयः। दवि काहिपिकापालिककौलिकौशिकवतकैः । कीर्तिर्जगति प्रस्ता सरपवीक्षाधिरस्य ॥१८॥ पस्तु स्वास्थ्यावसरेष्वपि सम्वदेशो हि महीशः कीनाश पावरय करोति फामपि विहतिमिति सोनुरिवार विशेष यह है कि हे राजन् ! [ संसार में ] समस्त पुरुष, जो कि अपने में विचार-शून्य होता है (अमुक व्यक्ति शिष्ट है ? अथवा दुष्ट है ? इसप्रकार की विचार शक्ति से रहित झेता है), दूसरे पुरुष के प्रति प्रसिद्धिमात्र से अनुराग प्रकट करता है। उदाहरणार्थ--जिसप्रकार श्वेत कमल में लक्ष्मी नहीं होती उसीप्रकार लालकमल में भी नहीं होती तथापि प्रसिद्धि-यश लालकमल ही पूज्य होता है न कि इतक्रमल। भावार्थ-प्रकरण में 'शगुनक' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से 'पामरोदार मंत्री के विषय में कहता है कि हे राजन! जिसप्रकार देवनाराज न होनों में लक्ष्मी नहीं है तथापि लाल कमल ही प्रसिद्धि के कारण पूज्य व लोगों के अनुराग का पात्र होता है उसीप्रकार कुलीनता व विद्वत्ताआदि की विशेषता से हीन (मूर्य ) 'पामरोदार' नामका मन्त्री मी प्रसिद्धि ख्याति-वश लोक के अनुराग का पात्र होरहा है, क्योंकि प्रायः समस्त लोक विचार-शून्य होता है| १३|| अथानन्तर 'शङ्खनक' नामक गुपचर यशोधर महाराज के प्रति 'पामरोदार' नामके मन्त्री का उपप्रकार से वंश व विद्या का कथन करके उसकी चरित्र-हीनता का वर्णन करता है-- हे राजन् ! इस 'पामरोदार' नामके मन्त्री का चरित्र तिल या सरसों की खली के खण्ड-सरीखे निकृष्ट वेश्याजन-सरीखा (निकृष्ट) है। अर्थान्-जिस प्रकार वेश्याजन स्खलावण्ड ( तुच्छ पैसा) लेकर बहमूल्य वस्तु ( जवानी) नष्ट करता है, उसीप्रकार यह भी तुम्छ लाँच चूंस-आदि लेकर बहुमूल्य राज्य की क्षति करता है। हे देव ! जिसका अधम चरित्र आपके समक्ष अनेक पातहिंड्डयों ( चार्वाक-आदि ) की संगति करनेवाले और आर्य व म्लेच्छ देशों में घूमनेवाले गुप्तचरों द्वारा अनेक बार प्रकट किया गया है। हे राजन् ! इस पामरोदार' नाम के मन्त्री की कति नानाप्रकार के ऐसे गुप्तचरों द्वारा संसार में व्याप्त होरही है, जो कि दण्डिक ( शवलिङ्गी अथवा त्रिकमव के मानायी होकर तापमः का वेषधारक गुप्तचर , आहितुण्डिक ( सर्प के साथ क्रीडा करने में चतुर अथवा सपेरे का व-धारक गुमचर!, कापालिक {एक उपसम्प्रदाय, जिसके अनुयायी लोग अपने पास खोपड़ी रखते हैं और उसी में सेंधकर या रखकर खाते हैं उसका पधारक गुप्तचर ), कोल्लि (वाममार्गी या पायाही पधारक जप्तचर ) और कौशिक ( तन्त्रशास्त्र में कहीं हुई युक्तियों द्वारा मन में आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला पन्द्रजालिक का वेप-धारक गुप्तचर ) है और इनके कुत्सित व्रतों को धारण करनेवाले है तथा जो वर पटों। हिंसा-समर्थक सम्प्रदाय विशेष) की दीक्षा से अधिक है। 11 १८४ ॥ .. हे राजन् ! जो मन्त्री प्रजा के सुख-समय में भी इसप्रकार विचारकर कि 'समृद्धिशाली देशवाला राजा निश्चय से उसप्रकार कोई उपद्रव उपस्थित करता है जिसप्रकार बमराज पर उपस्थित किया करता है' निर्दोष देश को भी उसप्रकार पीडित कर रहा है जिस प्रकार श्रग्नि का उत्पान-उपद्रव-पीड़ित करता है। इसीप्रकार हे राजन् ! वह मन्त्री इसप्रकार सोचकर कि 'निश्चय से ऐसा राजा. जिसके पक्ष * 'उक्त शुद्धपाऽ; क. प्रतितः संकलितः । मु. पोतु कापालिकको शेक्वतका गठः। विमर्श:-मु. प्रत्यपाठेऽधादशमात्राणामभावेन छन्द - ( आर्या ) भादोष:--सम्पादकः । x 'अनपराधपदम.पेक. । १. सृष्टान्तालंकार । ३. भपकृष्ट-समुच्चयालंकार । ३७ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. यशस्तिलकचम्पूकाव्ये नपराधमपि जनपदं पीडयति, प्रभूतपक्षालो हि भूपाल शैल इव कस्य भवति वश इत्पनुरकमतीरपि प्रकृतीरसमासपति, हरकाशको दि धरेशः अपितपन्नः पक्षीव भवेस्सुखसाध्य इति धनं निधनयति, व्यसनव्याकुलिप्तो हि राजपूतो व्याधित इव न जानु विकरते पुररचारिवित्ति द्विषतः प्रोत्कर्षयति, पक्षारक्षो हि क्षिविपतिः फरिपसिरिख म स्यात्परेषां विषय इति न कमयभिजात सहते, स किल प्राणप्रतीकारेषु स्वापते पोपकारेषु वा विधुरेषु भवितोपकतेति को नाम प्रापीत । सः । __ सस्थावस्थायामपि थोऽनर्थपरम्परार्थमीहेत । स कथं विधुरेषु पुनः स्वामिहिते चेतेऽमास्यः ॥१८॥ तस्माद्देव, कर्णकनुकमपीदमेवमवधार्यताम् । ___ अपि स्वामसिवाष पातीतारमहीपतीन् । तूरीवान्याश्मयस्थायी लम्बालश्चानिशाचरः ॥ १८६ ॥ अन्यया। तत्तनपतिसंगीणविनिर्वाहपरा नराः । कथं पपन्तरं यान्ति कान्ता व कुलोद्रताः ॥१८॥ (अमात्य व सेनापति-प्रादि अधिकारीवर्ग) की शक्ति महान् है, पर्वत के समान किसके अधीन औसकता है: अपितु सती के श्री नहीं होसकता' अनुराग करनेवाली गुद्धि से व्याप्त हुई प्रकृति ( अमात्य-आदि अधिकारीगण व प्रजा के लोग ) को अन्याय करने में तत्पर कर रहा है। वह इसप्रकार सोचकर कि 'निश्चय से अल्प कोशवाला (निर्धन) राजा उसप्रकार सुख-साध्य ( विना कष्ट किये हस्तगत होनेवाला ) होजाता है जिसप्रकार लांच लिए गये है पंख जिसके ऐसा पक्षी सुख-साध्य होता है। राजकीय धन नष्ट कर रहा है। हे राजन ! वह ऐसा निश्चय करके कि 'निश्चय से व्यसनों ( युद्ध-आदि की कष्टप्रद अवस्थाओं ) से व्याकुलित हुआ राजपुत्र सचिव-श्रादि अधिकारियों पर कभी भी उसप्रकार उपद्रव नहीं कर सकता जिसप्रकार व्याधि-पीड़ित (रोग-प्रस्त) हुआ राजा उपद्रव नहीं कर सकता' शत्रों को बलबान कर रहा है, एवं जो मन्त्री ऐसा सोचकर कि 'निश्चय से पक्ष (कुल या अमात्य-आदि सहायक अथवा पल्टन ) की चारों ओर से रक्षा करनेवाला राजा निश्चय से प्रशस्त हाथी के समान दूसरों (श्रेष्ठी व सामन्व-आदि) द्वारा वश में नहीं किया जासकता' किसी भी कुलीन पुरुष को सहन नहीं करता। अर्थान-इससे ईर्ष्या या द्वेप करता है। हे राजन् ! निश्चय से उत्तप्रकार प्रजा-आदि को पीड़ित करना-प्रादि दुर्गुणों से युक्त हुआ वह 'पामरोदार' नाम का मन्त्री 'प्राण-रक्षा के अवसरों पर और धन देकर उपकार करने के समयों पर अथवा व्यसनों ( कटों) के अवसरों पर उपकार करनेवाला होगा' इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा ? अपितु कोई नहीं करेगा। क्योंकि हे राजन् । सस्य के अवसर पर भी दःख-श्रेणी देने के खेत चेष्टा करनेवाला वह मन्त्री व्यसनों ( संकटों) के अवसर पर स्वामी के हित-निमित्त क्यों चेष्टा करेगा ? अपितु नहीं करेगा' ॥१८॥ इसलिए हे राजन् ! आप कानों के लिए शूलप्राय मेरा निसप्रकार का षचन निश्चय कीजिए हे राजन् : लाँच घूस ग्रहण करने में राक्षस-सरीखा यह मन्त्री पूर्व में उत्पन्न हुए यशोर्घ-श्रावि राजाओं के समान आपको भी धोखा देकर उसप्रकार दूसरे राजाओं के मन्दिर में स्थित होगा जिसप्रकार मृदङ्ग बजानेवाला मानव दूसरे नृत्य करनेवाले की अनुकूलता से मृदङ्ग बजाता है। अर्थात्-जिस प्रकार मृदा बज्ञानेवाला मानत्र दूसरे नर्तक के नृत्य की अनुकूलता का आश्रय लेता है उसीप्रकार यह मंत्री भी दूसरे राजाओं के मन्दिर का प्राश्य लगा॥ १८६ ।। अन्यथा ( यदि उक्तप्रकार नहीं है तो) ऐसे किंकर लोग, जो कि उन उन जगप्रसिद्ध राजाओं द्वारा प्रतिज्ञा किए हुए सेषाफल में उसप्रकार तत्पर रहते हैं जिसप्रकार कुलीन स्त्रियाँ अपने पनियों की सेवा में तत्पर होती है, दूसरे राजा के पास किसप्रकार जाया करते है ॥१७॥ अब एकपात्रः क ख ग प्रतित: समुदृतः। मु. प्रतौ तु 'एकारक्षो हि' पाउः परन्वत्रार्थसमातिने घटते, भयदा कट- घर-पादकः। * 'कुलोद्भवाः क०। १. आक्षेपालंकार। २. रूपक र अनुमानालंकार । ३. उपमालहार। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आधासः २६१ देव, नितान्त संवृतचित्तस्यापि दुर्वृत्तस्य प्रमादेन प्रमोदमदाा निद्रोटेकेण दातिरहस्योदयमपि सइये भवत्यवश्य कटाशपम। अतरव यः खलु' हटवासमाभ्यासप्रकर्षानुमायामेवमुत्स्वनति स कथं माम देवडोषेण दुर्विलसिताम्मेषण राप्रकास्पितलग्येषु व्यसनेषु सहचारी संभाध्यत । तथाहि। यो स्वास्थ्याय समीहते व्याधितस्य नृपस्य च | स्वार्थसिद्धिनिरोद्धारी विग्धिक्तो घमन्त्रणौ ॥१८॥ व्याधिय॑सनविच गोप भूपे च नास्ति चेत् । न धेनुः कामधेनुश्च वैवस्य सचिरस्य ॥१९॥ तपा। अशुभस्य काकाहरणं नृपतेर्भसन नियोगिनां कलहम् । तन्त्रस्म धृत्तिविनिमयमारभमाणः सुखी सचित्रः ॥१९॥ शौर्ष पार निगदेन पाल्याप्तम्। यसः ।। पणिजि र भिपनि च शूरः शौण्डीरो दुर्थडे विकले च । कपिरिव निभृतस्तिष्ठति स्पशोर कण्डवण ॥१९॥ हे राजन् ! विशेषरूप से गुप्तमित्तवाले भी दुराचारी का अत्यन्त गुप्त पाप भी उसकी असाथधान्या, हर्ष, महंकार अथवा निद्रा की अधिकता के कारण मन में अवश्य प्रकट अभिप्राय-युक्त होजाता है, इसलिए जो मन्त्री विशेष शक्तिशाली व पापमय वासना के वार-बार अनुशीलन (अभ्यास) की विशेषता से रात्रि में सोया हुआ निम्नप्रकार बोलता है, यह ( मंत्री ) ऐसे व्यसनों ( संकटों ) के अक्सरों पर किसप्रकार आपको सहायता देनेवाला संभावित होसकता है? अपि तु नहीं होसकता, जिनमें (जिन व्यसनों में ) कुभाग्य-दोष के कारण अथवा दुराचार की उत्पत्ति के कारण [ शत्रु-पक्ष की ओर से ] हाधियों के समूह-आदि की सेना का निर्माण किया गया है। __ अब 'शङ्गनक' नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज के प्रति प्रस्तुत 'पामरोदार' नाम के दुराचारी मन्त्री द्वारा रात्रि में स्वप्नावस्था में कही हुई बात कहता है-- 'जो वैद्य और मन्त्री क्रमशः रोगी की निरोगिता-हेतु व राजा को सुख प्राप्ति के निमित्त चेष्टा (प्रया) करते हैं, उनके लिए बार-बार धिकार है, क्योंकि वे अपनी प्रयोजन-सिद्धि ( धन-प्राप्ति) रोकनेवाले है ॥१८॥ यदि गायों के रक्षक ( गोकुल के स्वामी ) में बीमारी नहीं है और राजा में. व्यसनों (मद्यपान-पादि) की वृद्धि नहीं है तो उसके (गोप के) वैद्य के लिए बह गाय नहीं है क्योंकि बैद्य को उससे धनप्राप्त नहीं होता) और मन्त्री के लिए राजा कामधेनु नहीं है। [क्योंकि मन्त्री के लिए राजा से धन-प्राप्ति नहीं होती ॥१८॥ है राजम् ! इसीप्रकार वह स्वप्नावस्था में कहता है कि ऐसा मन्त्री सुखी होता है, जो पना के ऊपर कष्ट पाने के अवसर पर काल-क्षेप ( काल-यापन ) करता है। अर्थान-राजा का चिरकाल तक अनिष्ट होता रहे ऐसा करता है और जो राजा को मद्यपान आदि व्यसनों में फँसाता हुआ मन्त्री-आदि अधिकारियों के साथ कलह करता है एवं जो सेना की जीविका का नियन्त्रण ( रोकना ) करता है। अर्थात्-जो सेना का वेतन रोककर उसे कुपित करता है ।१६।। हे राजन् ! प्रस्तुत मन्त्री में कितनी शूरता ( बहादुरी) है, यह निम्न प्रकार लोकप्रसिद्धि से ही प्रकट ही है। क्योंकि जो मन्त्री व्यापारी वैश्य और वैद्य के साथ शूरता ( बहादुरी । दिखाता है और जो दुर्वज्ञ तथा लूले-लगड़े-आदि हीनशरीर-वालों में शौण्डीर ( त्याग व पराक्रम से प्रसिद्ध ) है एवं जो युद्ध करने में मतवाले प्रचण्ड सैन्य के सामने बन्दर-सरीखा नम्रता और मौन-धारण करता हुश्रा स्थित रहता है। ॥ १६१ ।। १, “दृष्टदुष्ट' का। २. यथासंख्यालछार । ३. दीपकालंकार । ४. उपमालंकार । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ यशस्तिलकच-पूकाव्ये देव, सालस्वभावस्य देवस्यामास्पदेस्यानामाकल्पोदाचः प्रतिक्रियाप्रपञ्चश्च साधुसायोगेनुरागे च कारणम् । तत्र कामीयामेतात्पर्यम् । सधादि-सस्पुरुषपृचतवधाय व्यावस्याखिलासंवरणं पतावरणमिवामात्यानस्य लम्बाञ्चलक चोलकम् , मुग्धमीनबन्धनानाय व महाकायः कर्मश निकायः, कपटयकोटपटकघरनाय सर हवादारमुदरम्, परप्यसनान्वेषणाय मगर्तस्व मन्दमन्माचार: पावप्रचारः, कामेते खलु पासालस्थाकरस्या मम भविष्यन्ति शेषशिलामणय इसि लुण्टाकतवेध मुर्मुहुर्जलेषु निमज्जनम, केदाह्य मी गगनचरा; कदनकन्दकविनोदकरा मम भविष्यन्ति रविरथतुरकर हत्यपजिहीर्षववादितिसूतांपासनम्, अरं हताश हुताश, मषि सत्याश्रयाने सर्वाश च कथं नाम तन्नामवान्भवानितीर्य गवाहुतिमिपेण विषमरोचिताडनम् , सुप्रयुक्त दम्भस्य प्रमाप्यन्तं न गच्छतीति मनीषया साधुअनशकनिहननाय द्वीपिद्विजोहरीपनामिष देवतार्चनम् , कियन्सो मया महान्तः प्रतारिताः कियन्तो नापीति संभालनागेप जपत्यवसायः, कुशलशकुलाशनाय बकस्यैव हे राजन् ! सरल । अकुटिल ) प्रकृतिशाली आपके मन्त्रीरूपी राक्षस जो कायले (गेरुआ) रंगवाले वस्त्रादि का वेष धारण करते हैं और स्वामी के ऊपर आनेवाली विपत्तियों से बचने के उपायों का विस्तार करते हैं, उक्त दोनों बात उनको सज्जनता की प्रानि में एवं राजा को उनके ऊपर प्रसन्न करने में कारण हैं। हे राजन् ! उन कषायल रंगवाले कलादिका वेप धारण करने आदि में इन मान्त्रयों का निम्रप्रकार रहस्य ( गुप्त अभिप्राय ) है हे राजन् ! आपका अमात्यजन, जो कि सज्जन पुरुषरूपी हिरणों का उसप्रकार वध करता है जिसप्रकार बहेलिया हिरणों का बध करता है एवं उनका घात करने के लिए यह समस्त शरीर को आनछादित करनेघाला, वर्षा से बचानेवाला एवं लम्बे प्रान्त भागवाला चालक ( पहिरने का शुभ्र अँगरखा ) पहिनता है। हे राजन् ! जिसप्रकार जाल मछलियों के बाँधन में समर्थ होता है उसीप्रकार आपके मन्त्री का विशाल दादी के बालों का समूह भी मूर्ख पुरुषरूपी मछलियों के बांधने में समर्थ है। आपके इस अमात्यजन का विशाल उदर (पेट) कपर्टः पुरुषरूप। बगुला क समूह के उद्योग करने का उसप्रकार स्थान ह जिसप्रकार तालाब अगुलों के मुण्ड क घात करत क उद्याग का स्थान हाता ह। राजन् ! यह मन्त्रीजन दूसर राजकर्मचारियों के व्यसनों ( मद्यपान-आदि बुरा आदता या अवस्थाओं) के दखन के लिए उसप्रकार धार धारे संचार करनेवाले परों से गमन करता ह जिसप्रकार शृगाल (गादड़) धार धार संचरणवाला पेर-संचार करता है। हे राजन् ! जल में चार बार बुबका लगाता हुआ आपका अमात्यजन सा प्रतात होता ह-मानों-'ये शेषनाग का फणा में स्थित हुए रत्न फिसप्रकार मर हस्तगत होग' इसप्रकार साचता हुआ चोर ही आभषणों की प्राप्ति हेतु जल में उबका लगा रहा है। राजन यह अमात्यजत जो श्री सर्य की उपासना क है, वह माना- इसलिए ही करता हु कि 'निश्चय स य आकाश में सचार करनेवाले सूर्य-रथ के घोड़े, जो कि युद्धरूपी गेंद से कंाड़ा करनेवान हैं, कब मुझ प्राप्त होग? इसप्रकार उन्हें अपहरण करने की इच्छा से . ही ऐसा कर रहा है। हे राजन ! जो मन्त्रीजन निम्नप्रकार की इर्ष्या से हा मानों-आहुति देने के बहाने . से अनि तानि कर रहा है कि 'हे भाग्य-हीन अग्नि । जव में ( मत्रा) आश्रयाश (जिस स्थान से उत्पन्न हुआ उसका भक्षक) और सर्वा . ( ममम्त का भक्षण करनेवाला) मोजूद हूँ तब तुम उस नामवाले आश्रयाश । और सर्वाश किसप्रकार हो सकत हो? अपितु नहीं हो सकते।' इसप्रकार अग्नि से ईयां करने के । कारण ही माना-आहुति के बहाने से अग्नि को नाड़ित कर रहा है। हे राजन् ! 'अमात्यजन द्वारा युक्तिपूर्वक किच हुए छल-कपट का पार जब ब्रह्मा भा नहीं पासकता तब दूसरे का तो कहना ही क्या है। इस बुद्धि से ही उसकी दवपूजा मानों-सज्जन पुरुपरूपी चटक-आदि पक्षियों के घाट करने के लिए वाज पर्सा का पोपण ही है। कितने सत्रुप मेरे द्वारा धोखे में डाले गए। और कितने नहीं डाले गए? इसप्रकार स्मरण करने के लिए ही मानों-जिस मन्त्री का जप-व्यापार Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय आधासः २६३ ध्यानपरता, चतरवचनाय चिकस्येव धर्मागमपाठः, एरलोकगतिमाय निगलजालस्येव गुरुचरणोपचारः, शाकिनीमनस्येव सेक्केषु जीवितविमाशाय प्रियंवदता, अविज्ञातान्तस्तत्वस्य शुष्कसरःसेतोरिख क्लेशाय पियालोकता । अपि च । बहिरविकृतवर्मन्दमन्दप्रचानिभृतनयनपातः साधुसाकारसाः। निकृतिनधिनीतश्चान्सरेतैरमास्यस्तिमय हर बाटैञ्चिताः के न लो : .९२॥ देव, अप्सरसामिवामरेषु भरेष्वपि किल स्खलाना चई कावाप्रीति, प्रादुर्बभूवुः। तत्र तावत्प्रथम प्रमथनाथकण्ठालंकारनिकटात्कालकूटा प्रादुरासीत् , द्वितीयं द्विजिरा, तृतीयं नृक्षात्मजतुण्डचण्डसायाः, चतुर्थ चतु/पन्नात., पञ्चमं पञ्चतानुचरेभ्यः, षट्पज्ञपादपरागात , सप्तमं समाशोक, अष्टमममिविश्पात , मबम नरकारिमायायाः, पशमं दशलोचनदंष्ट्राकुरान, पकादशमेकान्ताकृत्येभ्यः, द्वादशं द्वापराभिप्रायपातकात् , त्रयोदश अपोतो, 'बर्दर्श च है। जो मन्त्री विद्वान रूपी मछलियों के भक्षणार्थं उसप्रकार ध्यान में लीन रहता है जिसप्रकार घगुला मछलियों के भक्षणार्थ ध्यान में लीन रहता है। बगुले के समान अथवा पाठान्तर में ठग-सरीखे जिस मन्त्री का विद्वानों के प्रतारणार्थ (ठगने के हेतु ) स्मृतिशास्त्र का पठन है। स्वर्ग-गमन रोकने के लिए शृङ्खला-(सांकल) समूह समान जिसकी गुर-पाद-पूजा है। जो डाँकिनी-जन के समान सेवकों की जाधिका नष्ट करने के लिए उनसे. मधुर भाषण करता है और जो प्रस्तुत मंत्री, जिसके माभ्यन्तर ममें की परीक्षा नहीं की गई है और जो सूखे तालाब पर पुल बाँधने के समान है, अर्थान्-जल के बिना पुल क्या करेगा ? अपि तु कुछ नहीं करेगा, दूसरों को कष्ट देने के निमित्त मधुर हाटपूर्वक देखता है। हे राजन् ! जिसप्रकार ऐसे बगुलों द्वारा, जो बाह्य में उज्वल व पाभ्यन्तर में पापी ( मायाचारी) हैं, जो मन्द-मन्द गमन-शील निश्चल नेत्रशाली हैं तथा बाह्य में जिनकी आकृति सुन्दर प्रतीत होती है परन्तु जो श्राभ्यन्तर में मायाचारी हैं, मछलियाँ बञ्चित कीजाती है-धोखे में डाली जाती है उसीप्रकार ऐसे मन्त्रियों द्वारा, जो बाग में शुक्ल वेष के धारक हैं, जो धीरे-धीरे गमन करते हुए निश्चल नेत्रों से देखते हैं, जो सज्जनता के आभास से वलयत्तर है एवं जो मायाचार की नाति (पाच) में शिक्षित है, कौन-कौन से लोक वञ्चित नहीं किये गये १ अपि तु समस्त लोक वञ्चित किये गए---धोखे मैं खाले गए ॥ १६ ॥ ___ अब 'शजनक' नाम का गुष्टचर यशोधर महाराज से निम्नप्रकार दुष्टों के १४ कुल व उनकी उत्पत्ति का कथन करता हुश्रा प्रस्तुत 'पामरोदार' मंत्री को दुष्ट प्रमाणित करता है हे राजन् ! जिसप्रकार देवों में देवियों के चौदह फुल होते हैं उसीप्रकार मनुष्यों में भी दुष्टों के चौदह फुल पूर्व में प्रकट हुए हैं। उनमें से १. दुष्टकुल उस हालाहल विष से उत्पन्न हुआ था, जो कि पिशाचों के स्वामी ( श्री महादेव ) के कण्ठाभूषण के समीप वर्तमान है। २. दुजेन कुल सों से उत्पन्न हुआ है। ३. दुष्टकुल गरुड़ के धनुपुट की चण्डता से प्रकट हुआ है। ४. खलकुल चतुर्थीचन्द्र से उत्पन्न हुआ है। क्योंकि चतुर्थी का चन्द्र कलहप्रिय होता है। ५. स्सल-कुल-यमराज के किकरों से और ६. दुष्टकुल विटों या धूतों की पाद-धूलि से उत्पन्न हुआ है। ७. दुष्टफुल अम्रि से और ८. दुष्टपुल नरक से प्रकट हुश्रा। इसीप्रकार ६. दुष्टकुल श्रीनारायण की माया से और १०, दुष्टकुल यमराज की दादरूप अङ्कर से उत्पन्न हुआ है। ११की उत्पत्ति एकान्त मत के पापों से हुई और १२ऐं की उत्पत्ति संशय मिथ्यात्वरूप पाप से हुई एवं १३ वाँ दुष्ट कुल लज्जा की उत्कट गर्मी से और ५४ वाँ दुष्टकुल दूसरों 'कस्येव धर्मागमः पाठः' का ग.। १. उपमा व आक्षेपालंकार । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये पछिकाभ्यः । अध्यात्पुमस्तमसः, यतः समभूनभसि कुम्मिनां केसरीकाकारणवैरी प्रहाणां राहु खपालापुषस्य साधनसमृद्धिसमये मुहिणामोवरकन्दलात, यस्मादजायत विद्वेषभेषजारजगद्वितीतिरतिबोडको नार। पर वनविद्युनिमन्धनात् , यतोऽभवदम्भोधिषु सखिलसवसंहारप्रबलो वडवानलः । तथैकं वितेः, यतः समुपादि निखिलेश्वपि भुवनेषु स्वयंभुदो वरप्रदानालसद्ध मोल्सकानां लोकानां प्रसारकस्तारको नामासुरः। संप्रति तु भवाशर्महामहोशः कलिकालस्यातीवतुच्छीतस्वादाम गगनचरसमेक एवामीषामटादशानामपि खलकुटामा भारमाधारं च विभसि । वतः कथं नाम स्वप्नेऽप्यस्थ साधुता संन्नायी ; • पामे च । असुरमयस्तिमिरमयः स्तेनाकारोपि कौणपाफा: 1 देव दिवापि प्रभवति ससिवजनो यस्तदारवर्यम् ॥१९३॥ दीर्घमवेक्षणं । सरभसा प्रीतिकमः संभ्रमः प्रत्यासन्नमयासनं प्रियकवाईचारे महामादरः । बालोऽयं सचित्रेषु चेष्टितविधिः काम न क मादयश्चित्तेहा तु न जातु माघमयी मन्ये जमन्यामपि ॥१९॥ कोठाने के उपाय-समूहों से उत्पन्न हुआ। इसीप्रकार १५ वाँ दुष्टकुल उस अन्धकार से उत्पन्न हुश्रा, जिससे उत्पन्न हुए दुष्टकुल से ऐसा राहु प्रकट हुआ, जो कि सूर्य और चन्द्रमा आदि का उसप्रकार विना कारण का शत्र है जिसप्रकार सिम हाधियों का स्वाभाविक शत्रु होता है और १६ वाँ दुष्टफूल खण्वपर वायुधः ( रुद्र) के वशीकरण के अवसर पर होनेवाले ब्रह्मा और विष्णु के युद्ध से उत्पन्न हुआ, क्योंकि उसी सोलहवें दुष्टकुल से ऐसा नारद, जिसका मनोरथ पृथिवीमण्डल संबंधी विप्रीति (संग्राम) होने में अनराग-युक्त है, उसप्रकार उत्पन्न हुआ था जिसप्रकार कडबी औषधि विप्रीति (द्वेष ) सम्पन्न करती है एवं १७ वाँ दुष्टकुल उस वन व विद्युत ( विजली ) के निर्मन्थन ( रगड़) से उत्पन्न हुआ है, जिससे समुद्र में जलचर जीयों को प्रलयकाल के समान प्रलय ( नष्ट ) करने की शक्ति रखनेवाली घड्यानल अनि पैदा हुई। उसीप्रकार एक दुष्टकुल दिति ( राक्षसी विशेष ) से उत्पन्न हुआ और जिस ( दुष्टकुल) से ऐसा तारकासुर उत्पन्न हुआ, जो कि समस्त लोक में ब्रह्मा का वरदान पाने से समीचीन धर्म में तत्पर रहनेवाले लोगों को धोखा देता था। इस समय अाप सरीखे महान राजाओं द्वारा कलिकाल का प्रभाव विशेष रूप से तुच्छ कर दिया गया है, जिसके फलस्वरूप सर्वोत्कृष्ट शक्तिशाली होने के कारण यह 'पामरोदार' नाम का मन्त्री अकेला ही पूर्योक्त अठारह प्रकार के दुष्टकुलों का भार और प्राचार ( दुष्ट वाय) धारण कर रहा है, इसलिए इसमें स्वप्नावस्था में भी फिर जामवस्था का तो कहना ही क्या है, साधुता (शिष्टपालनआदि परोपकारिता) की संभावना किसप्रकार की जासकती है ? अपि तु नहीं की जासकती। क्योंकि हे राजन् ! श्रापका मन्त्रीलोक दैत्यमय, अन्धकारमय, चौरमूर्ति व रातसमूर्ति होता हुआ भी जो दिन में धोखेवाजी करने में समर्थ होता है, यही आश्चर्य की बात है। अर्थात् उक्त प्रकार का कर रात्रि में ठगता है जब कि आपका मन्त्री दिन में ठगता है, यही आश्चर्यजनक है। ॥ १३ ॥ हे राजम् ! दूर से विशाल दृष्टि डालना, विशेष धेगपूर्ण प्रेम का अनुक्रम (परिपाटी), विशेष आदर करना और तत्पश्चात् समीप में आसन देना एवं मधुर वार्तालाप करने में विशेष आदर करना, इसप्रकार आपके 'खण्डपरशुरायुधं यस्य स तस्य । भगवतः शङ्करस्य खण्डपरशुरेवायुधरवेन प्रसिद्धो न तु मण्डपरश्वधरूपः कश्चनायुपषिशेषोऽतएव मु. प्रतिस्थपाठात् ('सण्डपरश्वधायुधस्य' ) धकारो निस्सारिता 'खण्डपरश्वायुषो रदः' इति क• प्रती टिप्पण्यपि प्रामाणिकी वरीवर्ति-सम्पादकः। * उक शुद्धपाठः क. प्रतितः संकलितः। मु. प्रती तु 'यसदाश्चर्य , + 'सरभस'क 'चारो के। खाडपरश्वायुधो का क.1 पाध्यतिरेक व उपमालंकार। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भान्यासः है बेहोक्यनिकेशवास भुषमोदन्ते स्वमेवारसस्तसाम कथवेवमेव भवतः पादप्रणामः हतः। *काशिम्पायौविभिः प्रविले दुत्वारिणो मरित्रणो नैतामदुताकृती विभिमई प्रहाय I वनामये ॥१९॥ चातुर्य बोक्ने+वालुब्ने मन्त्रिणाम् । रामोऽम्प पब वे भृत्याः समरे विधुरे ये ॥१९॥ सविपरित तत्रैवैतत्पशाम्यसि भूपती मवति ५ इह न्यायान्यावप्रसर्कणकर्कशः। सल्याहवये मन्दोचोगे तवाल्यसूसोन्मुख सिप इव नृपे हप्ता भूस्या कविकुर्वते ॥१९॥ तभा प्रकृतिविकृतिः कोशोहकान्तिः प्रजाप्रक्षपागतिः सजनविरतिमित्राप्रीति कुलीमालास्थितिः । असचिवरते रावयेतचर्व मनु जायते सहनु स पीयादेवी बलातुप्यते ॥१९०१) वेष, संजातराजपुतसमागमापी अयोध्यासापपादपा तेव न जातु सपन्सरपिहितस्पृहावशिष्टते। मन्त्री में पाया जानेवाला उक्तप्रकार का बाहिरी कर्तव्य-विधान किस पुरुष के हृदय में अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न नहीं करता? अपि तु सभी में प्रसनता उत्पन्न करता है परन्तु मैं जानता हूँ कि आपके मन्त्री की उदयन्वेष्टा ( अभिप्राय) उसकी माता में भी कभी भी मार्दवमयी-विनयशील-नहीं है॥४॥ मा 'शान' नाम का यावर वासुदेव । विश्णु ? मे पॅलता है- जगदाधार ! तीन लोक के वृत्तान्त में पाप ही सन्मान के पात्र हो, अतः आप मेरा एक वचन सत्य कहिए, क्योंकि मैंने आपके परण कमलों में प्रगाम किया है। ब्रह्मा ने कौन से निर्दयी परमाणुओं द्वारा इन दुराचारी मन्त्रियों की सृष्टि की ? जिससे इस मस्त्रियों को कोमल प्रकृविशाली बनाने के लिए मैं सृष्टिकर्ता को आनन्दित करके उन मन्त्रियों की पूजा करूँ ।। १६५ ।। मन्त्रीलोग विशेष धोखा देने में और लाँच खाने में चतुर होते हैं परन्तु युद्ध के अवसर पर और कष्ट पड़ने पर सहायता देनेवाले जगत्प्रसिद्ध सेवक ( अधिकारीपर्ण) राजा के दूसरे ही होते हैं। ॥ १६६ ।। षही राजा मन्त्रियों का दुष्ट प्राचार शान्त कर सकता है, जो कि इन मस्त्रियों के न्याय व अन्याय-युक्त कार्यों के विचार में कठोर है। अर्थात्-न्याय-युक्त कर्तव्य-पालन करनेवाले मन्त्रियों के लिए धनादि देकर सन्मानित करता है और अन्यायी दुष्ट मन्त्रियों के लिए कठोर दर देता है। इसके विपरीत दयालु हृदय, आलसी और क्षणिक सुखों में उत्कण्ठित हुए राजा के प्रति मदोन्मत्त हुए मन्त्रीलोग फिसप्रकार से उसप्रकार विकृत । उपद्रव करनेवाले) नहीं होते ? अपि तु अवश्य पिकत होते हैं जिसप्रकार त्रियाँ दयाल, आलसी एवं तात्कालिक विषयसुख में लम्पट हुए राजा के प्रति विकत ( उच्छल ) होजाती हूँ ।। १६७il दुष्टमन्त्रीषाले राजा के राज्य में निश्चय से निम्नप्रकार के अमर्थ अवश्य होते हैं। १. अमात्य-श्रादि अधिकारीवर्ग व प्रजा के लोग उच्छ्क ल होजाते हैं। २. खाने का धन नष्ट होजाता है। ३. प्रजा नष्ट होजाती है। ४. कुटुम्ब विरुद्ध होजाता है। ५. मित्र शत्रुता करने लगते हैं। ६. कुलीन पुरुष दूसरे देश को चले जाते हैं। ७. तत्पश्चात् यह राजा शत्रुओं और दायादों। (पुत्र व बन्धुजनों ) द्वारा बलात्कार पूर्वक नष्ट कर दिया जाता है" ।। १८ ॥ . हे राजन् ! यह राज्यज्ञक्ष्मी राजपुत्र का आलिङ्गन करती हुई भी इसप्रकार दूसरे राजा के साथ भाशिङ्गान करने की इच्छा करती हुई स्थित रहती है जिस प्रकार निकटवर्ती वृक्ष का आश्रय करनेवाली लवा दूसरे वृष का भाभय करने की इच्छा करती हुई स्थित रहती है। [ 'सामानये' क० । + 'उक शुलपाठः क. प्रतितः समवृत्तः । मु. प्रतौलमालचे पाठः । 1. आक्षेपालंकार पं समुरचयालकार। २. प्रश्नोत्तरालंकार। ३. जाति-अलंकार । ४. उपमालबार । दामादौ पायाभदो' इतिपत्रमाव संमत टीका . ४४५ से समुसत--सम्पादक । ५. समुरचयालंकार क दोपकासकार । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये केवलं प्रभुशक्तिपशास्त्र महत्वमेव माहीपत: सत्पुरुषसंपवः कारणम् । पसः । अधनस्यापि महीशो महीयसो भवति भृत्यसंपत्तिः । शुष्कस्यापि हि सरस: पाखितले पावपविभूतिः ॥ १९९॥ कामशोचितोत्सेका समिठ येषां न सेवका; । राज्यनीविजयश्रीरच कुतस्तेषां महीभुजाम् ॥२०॥ देव, विपहावग्रहाभ्यो हीनामां दीनानां च प्रजामामवदानप्रक्षामाभ्यां रक्षणमषाणं बान्तहिरवान्तरायो, कोपर्द स्थितावस्थितीनां प्रकृतीनो विरागकारणपरिहारेगौफमुखीकरण संक्षेपेण मन्त्रिण; कर्म। तब देवेनानवधार्याभ्यदेव किधि सचिवापस प्रति गुणोधास्वापसमाचरितम् । यत:। तन्नमित्रातिप्रीप्ति शकोशोषितस्धितिः । पश्चातानि मधेमक्तः सोऽमात्यः पृथिवीपतेः ॥२०॥ कार्याथिनो हि लोकस्य किमन्याचारचिन्तथा । दुग्धार्थी का पुमान्नाम गवाचारं विधारयेत् ॥३०२॥ हे राजन ! केवल प्रभुशक्ति (कोश ब सैनिकशक्ति ) की पेशलता ( सौन्दर्य या विशेषता ) रूप महत्त्व ही राजा को सत्पुरुषरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति में कारण है। अर्थात-प्रभुत्वशक्ति की महत्ता से ही राजा को प्रशस्त मन्त्री-श्रादि अधिकारी वर्गरूप लक्ष्मी प्राप्त होती है। क्योंकि जिसप्रकार निश्चय से जल-शून्य तालाब के पुलयन्धन के अधोभाग पर वृक्षों की सम्पत्ति पाई जाती है उसीप्रकार उस राजा के, जो कि निर्धन होता हुआ भी प्रभुशक्ति से महान है, सेवकरूप विभूति पाई जाती है 1128811 जिन राजाओं के मन्त्री-आदि सेवक शास्त्र (राजनैतिक मान-आदि ) व शस संचालन की योग्यता से उत्कृष्ट नहीं है, उनको राज्यलक्ष्मी व विजयश्री किसप्रकार प्राप्त होसकती है? अपि तु नहीं प्राप्त होसकती ||२००। हे राजन् ! संक्षेप से मन्त्रियों का निम्रप्रकार कर्तव्य है. राजा के साथ युद्ध न करनेवाली ( शिष्ट ) प्रजा की रक्षा करना और फत्तव्य-भ्रष्ट ( दुष्ट ) प्रजा का अनादर-निग्रह करना एवं दीन ( तिरस्कृत-गरीब । प्रजा का युद्ध करने का साहस स्वण्डित करते हुए रक्षण करना। अर्थात्-दीन प्रजा की इसप्रकार रक्षा करना, जिससे यह भविष्य में राजा के साथ बगावत करने का दुस्साहस न कर सके तथा धनादि देकर उसकी देख-रेख रखना। इसीप्नकार मन्त्रियों के अन्तरङ्ग संबंधी क्रोधों द्वारा तथा वाहिरी झूठे विस्तृत क्रोधों द्वारा दुष्ट स्थिति को प्राप्त हुई प्रकृतियों ( अमात्य आदि अधिकारी वर्गो व नगरवासी प्रजा के लोगों के विरुद्ध -- कुपित होने के कारणों के त्याग द्वारा अनुकूल रखना। अर्थात उन्हें ऐसा अनुकूल रखना जिन उपायों से ने कभी विरुद्ध न हो सकें। हे राजन् ! आपने उक्त मेरे द्वारा कहा हुआ ( मन्त्री-कर्तव्य ) न जान कर समस्त मन्त्रियों में निकृष्ट उस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री की ऐसी गुरण-वर्णन की चपलता मेरे सामने प्रकट की, जिसमें उसके दूसरे ही कुछ बाहिरी ( दिखाऊ । गुरण ( वह वनस्पति नहीं छेदता व जल प्रासुक करके पी हैआदि गुण) पाए जाते हैं। क्योकि हे देव ! वहीं योग्य पुरुष राजा का अमात्य ( मंत्री ) होसकता है, जो राजा की सेना व मित्रों के साथ प्रेम प्रकट करता है और राष्ट्र व खजाने के अनुसार प्रवृत्ति ( आमदनी के अनुकूल खर्च करना आदि ) करता हुआ सजा का भक्त है || २०१।। जिसप्रकार दूध-प्राप्ति का इच्छुक कौन पुरुष गाय के आचार ( कूड़ा-ख.ना-श्रादि ख टा प्रसि) पर विचार करता है ? अपि तु कोई नहीं करता उसीप्रकार निश्चय से प्रयोजन (सद्धि चाहनेवाले पुरुष को उसका प्रयोजन सिद्ध करनेवाले दूसरे पुरुष के प्राचार ( जघन्य आचरण) की चिन्ता करने से क्या लाभ है? अपि तु कोई लाभ नही। तथा श सोमदेवमूरिः-'कोशदण्डबलं प्रभुशरिक नीतिवाक्यामृत से संकालत--सम्पादक १, दृशन्तालंकार। २. लंकार । ३. जाति अलंकार । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवास: भवतु वा मा वा भवेति: परास्मनि । तथापि चेसे प्रीतिर्यतीन कुरु नियोगिनः ॥ १०३॥ अपि देव x महाधावितस्य महालक्ष्मी राक्षसीविलासहामितस्य परमाल करेनिनमाता हस्ताशुविस्पर्शरक्षणमिव । यतः । चावेश योषा परिवार: शत्रुवनाकार: मृतमण्डनमिव २६७ धनं स्मरस्रे नरे नियतम् ॥ २२४ ॥ भावार्थ-नीतिकार आचार्यश्री ने कहा है कि 'कौन-सा प्रयोजनार्थी मनुष्य स्वार्थसिद्धि के निमित गाय से 'दूध चाहनेवाले मनुष्य के समान उसकी प्रयोजन-सिद्धि करनेवाले दूसरे मनुष्य के आचार पर विचार करता हूँ ? अपि तु कोई नहीं करता। अर्थात् जिसप्रकार गाय से दूध चाहनेवाला उसके आचार ( अपवित्र वस्तु का भक्षण करना चादि) पर दृष्टिपात नहीं करता इसीप्रकार प्रयोजनार्थी भी 'अर्थी वोषं न पश्यति' – स्वार्थसिद्धि का इच्छुक दूसरे के दोष नहीं देखता इस नीति के अनुसार अपनी प्रयोजन-सिद्धि के लिए दूसरे के दोपों पर दृष्टिपात न करे। शुक्र * विद्वान ने भी प्रयोजनार्थी का उक्त कर्तव्य बताते हुए उक्त दृष्टान्त दिया है। प्रकरण की बात यह है कि शङ्खनक नाम का गुमवर यशोधर महाराज से 'पामरोदार' नाम के मंत्री की कटु आलोचना करता हुआ कहता है कि हे राजन् नीतिकारों की उक्त मान्यता के अनुसार आपको उक्त अयोग्य व दुष्ट पामरोदार मंत्री के स्थान पर ऐसे प्रशन्त पुरुष को मंत्री पद पर अधिष्ठित करना चाहिए, जो उक्त कर्तव्य के निर्वाह की पर्याप्त योग्यता रखा हुआ आपका प्रयोजन ( राज्य की श्रीवृद्धि आदि ) सिद्ध कर सके, चाहे भले ही उसमें अन्य दोष वर्तमान हो, उन पर प्रयोजनार्थी आपको उसप्रकार दृष्टिपात नहीं करना चाहिए जिसप्रकार दूध का इस्छुक गाय के दोषों पर दृष्टिपात नहीं करता || २०२ || हे राजन! मन्त्री में राजा के प्रति उत्कृष्ट भक्ति होनी चाहिए, उसमें व्रतों का धारण हो अथवा न भी हो । तथापि यदि आप हिंसदि व्रतों के पालन करनेवाले को मन्त्री पद पर आरूढ़ करने के पक्ष में हैं या प्रीति रखते हैं तब तो आप बनवासी सन्मा को मन्त्री पद पर आरूद कीजिए । भावार्थ - जिसप्रकार बनवासी साधु लोग केवल व्रतधारक होने से मन्त्री आदि अधिकारी नहीं होसकते उसीप्रकार प्रकरण में आपकी भक्ति से शून्य पामरोहार' नाम का अयोग्य मन्त्री भी केवल बाहिरी ( दिखाऊ : अहिंसादि व्रतों का धारक होने से मन्त्री होने का पात्र नहीं है, क्योंकि उसमें मंत्री के योग्य गुण ( राजा के प्रति भक्ति आदि ) नहीं है ४ ।। २०३ ।। हे राजन् ! इस 'पामरोदार' नामके मन्त्री का, जिसका हृदय स्त्री- भोग की महातृष्णा से तर है और जिसकी दुराचार प्रवृत्ति महालक्ष्मी ( राज्यसंपत्ति रूपी राक्षसी के भोग से उत्पन्न हुई है. ब्रह्मचर्यपालन उसप्रकार अशक्य या हास्यास्पद है जिसप्रकार मस्तक तक बिना में डूबे हुए पुरुष का अपनी दोनों भुजाओं को ऊपर उठा कर ऐसा कहना कि 'मेरे हाथों पर विश नहीं लगी' अर्थात्-हाथों को विस्पर्श से बचाना अशक्य या हास्यास्पद होता है । क्योंकि यह निश्चित है कि कामदेव के बाणों से घायल न होनेवाले ( श्री-संभोग के त्यागीसचे ब्रह्मचारी) पुरुष के लिए स्त्री तृण-कामिनी सरीखी है। अर्थात्-जिसप्रकार घास-फूस से बनी हुई * उक शुद्धपारः खं०ग०च० प्रतितः संगृहीतः । सुप्रतौ तु 'महाघात' पाठः परन्त्रार्थकः । १. तथा च सोमदेवसूरिः गोरिव दुग्धार्थी को नाम कार्यार्थी परस्परं विचारयतेि ।। १ । २. तथा च शुकः कार्यार्थी न विचारं च कुरुते च प्रियान्वितः । दुम्बार्थी च शोधेनरने यस्य प्रभुक्षणात् ॥२॥ नीतिवाक्यामृत ( भा० टी०) ६०४२१ से संकलित - सम्पादक ३. आपालंकार | ४. आक्षेपालंकार । ३८ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ यशस्तिकपम्पूमध्ये सदस्य वामप्रसिरितुलित महाचर्भयते खल्विदीपर्वमवधार्थम् । मासिथरसरहस्पास्वादकोषिदस्प हि लोकस्य कापरिग्रहः पुमः पुनः परिमाक्तिविलासिनीसभाहरण पन्दीमहणमिव पर्वितचर्वणमिव बनतः साधु प्रहादयितुममम् । यतः । सत्ताहवं पुंसा मवि भवति स्वामदेव योगासु । मिति घीसमम्मी मावि wicial सकरवा पोता युवतिऔरती तस्य वा सोहरी सवित्रीति । गुजमिदं पार्ष: भारकुवाः रपया रोषन्ते ॥२०६॥ भरत पवायमिस्थमाइस्तिोश्वत्थेन कविना परमहिम्नः पुमहिला परिजनवनिता विनोनितारप । रविरसभा रास्ताफ्स्यरचास्य गृहकास्थः ॥३०॥ कृत्रिम श्री के साथ भोग करने की इच्छा नही होती उसीप्रकार सो ब्रह्मचारी को स्त्री के साथ रतिविलास करने की इच्छा नहीं होती। उसे कुटुम्बर्ग शत्रु-सा दिखाई देता है। अर्थात्-वह कुटुम्बी जनों से स्नेह नहीं करता वया उसे धन मुर्दे को शृङ्गारित करने के समान है। अर्थात्-उसे धम में रुचि नहीं होती ।। २०४॥ अतः हे राजन् ! यह मंत्री जो बाहिरी प्रसिद्धि के कारण दुराचार से व्याप्त ब्रह्मचर्यन्त्रत का पालन करता है, उसमें आपको निश्चय से यह अभिप्राय समझना चाहिए। निश्चय से कामदेव संबंधी राग के रहस्य (गोप्यतत्व) का आस्वाद करने में प्रवीण पुरुष के लिए विवाह करना और वार-बार कामी पुरुषों द्वारा मर्दित की हुई वेश्या को अपने गृह में रखना ये दोनों कार्य उसप्रकार उसके चित्त को आनन्दित करने के लिए अच्छी तरह समर्थ नहीं हैं जिसप्रकार कारागार ( जेलखाने ) में पतन और पर्वित-चर्षण ( खाए हुए पदार्थ का फिर से खाना ) चित्त को आनन्दित करने में अच्छी तरह समर्थ नहीं होता । अर्थात्-जिसप्रकार जेलखाने में पतन और चर्वितचर्वण ये दोनों वस्तुएँ सुचारुरूप से चित्त को सुखी बनाने में समर्थ नहीं है उसीप्रकार ऐसे मानव के लिए, जो कि कामदेव के गग का गोप्यतत्व भोगने में प्रवीण है, विवाह बन्धन और कामी पुरुषों द्वारा वार वार भोगी हुई वेश्या का गृह में रखना चित्त को सुखी बनाने में समर्थ नहीं होता। क्योंकि यह मन्त्री यह कहता है और जानता है कि हे देव ! यदि पुरुषों के लिए अपनी खियों में रतिविलास संबंधी गोप्यतत्व का सुख प्राप्त होता है तो श्रीनारायण लक्ष्मी के साथ रविविलास करने में निरादर करते हुए गोप-कन्याओं में सम्पट क्यों हुए ? २०५१। क्योंकि प्रस्तुत मन्त्री अपने से छोटी उमरखाली श्री को पत्री, यवती श्री को बहिन और वृद्ध स्त्री को माता मानता है, यह उचित ही है. क्योंकि उसे पीन (कड़े) व उनत कुच (स्तन) कलशोंवाली एवं शिथिल स्तनोंवाली स्त्रियाँ रुचती हैं--प्यारी लगती हैं। अर्थात् क्योंकि पुत्री व वहिन-श्रादि का संबंध स्थापित किये विना खियों से प्यार ही किसप्रकार होसकता है? अपि तु नहीं होसकता ॥२०६॥ इसीकारण हे राजन् ! * 'भश्वस्थ' नामके कवि ने आपके इस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री की हँसी उड़ाते हुए निमप्रकार कहा है दूसरों की सियाँ इस 'पामरोदार' मन्त्री को विवाहित स्त्रियों है और कुटुम्प-सियों ( भोजआई व पुत्रवधू-आदि) इसकी कदासियाँ हैं एवं विधवाएँ इसके रतिविलास-रस की पात्र हैं तथा तपस्विनी लियों इसकी गृहदासियों । मात्-जिसप्रकार गृहवासियों उपभोग के योग्य होती हैं इसीप्रकार • 'पोता' । १. उपमालंकार । १. आपालंकार । ३. एकोक्ति अलंकार * प्रस्तुत शास्त्रकार पाचार्य श्रमसोमदेवसूरि का कम्पित नाम । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसीय प्राधासः २६8 यस्य म तरुणी मावास्ता स्वतारात् कुलाशाना पास्ति। तस्य कर्य मनुखक्ष्मीभवति मुस्तव नृपामास्यात् ॥२०॥ भारतबालकदिनाप्यत्र सिमित्यकाशितम् परविरत: परदाररता पालिसरिनमः : बार बार चिकः प्रम समाप्रभवः २०१७ दोर्जभपहलै महतां पारुष्यहोरप इपयममुगानाम् । कृपति नितान्य मन्त्री भुष तु नाङ्गुष्परिमाणाम् ॥२१॥ करितुरगरधनरोस्करविवारसंहारिताखिलप्राणी । संवरति राष्ट्रमध्ये नादत्ते पादुकायुगलम् ॥२११॥ वलपुलालानि तरोनोग्छसि किल सन्न जीवपीदेति । यम इव स्कोर पुनवविजतापसान् असते ॥२१॥ वास्थ इस जलधिवक्षस्तव विभवे संसत पुष्टः । स यदि परग्नापेक्षा यांजीवेष कोऽपीठ ॥२१३॥ व्रतालपिसकायाचे हुकरं पुष्करी भवेत् । पीमरखेन्म दिवा भुङ्क्ते नक्तं भुक्तिविभाज्यताम् ॥२१५ ।। तपस्विनी स्त्रियाँ भी इसके उपभोग करने के योग्य है |२०७॥ हे राजन् ! जिस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री की जान माता, पुत्री व बहिन एवं कुलस्त्री ब्रह्मचर्य नष्ट होने के डर से उसके पास नहीं जाती, लस मन्त्री के पास हे राजन् ! बड़े आश्चर्य की बात है कि आपकी लक्ष्मी वार-पार किसप्रकार से जा रही है ? अर्थात्-बह भापकी राज्य लक्ष्मी को किसप्रकार नहीं भोग रहा है? क्योंकि यह मन्त्री है। अर्थात्-मन्त्री राज्य का स्वामी होने के कारण अपनी लक्ष्मी का उपभोग करता ही है । २०८ ।। राजन् ! 'भरतमाल' नाम के कवि ने भी भाप के मन्त्री के विषय में कुछ निम्नप्रकार प्रकाश डाला है हे राजन् ! आपका ऐसा मन्त्री हुना है, जो दूसरे के धन को अपान करने में अनुरक्त, परस्त्री-लम्पट दूसरों को धोखा देनेवाली आजीषिकापाले व्यवहार से प्रेम करनेवाला तथा निकृष्ट तेलियों के वंश में उत्पन्न हुआ एवं पाप को उत्पन्न करनेवाला है ॥२०६।। हे राजन् ! जो मन्त्री अध परिमाण पृथिवी को तो नहीं खोदता परन्तु दुष्टता (चुगलखोरी) रूपी हलों द्वारा गुरू-श्रादि महापुरुषों के हृदय और निर्दयतारूपी हलों द्वारा सेवकों के हृदय विशेषरूप से विदीर्ण करता है ॥२१॥ हे राजन् ! आपका ऐसा मन्त्री, जिसने हाथी, घोड़े, रथ, और मनुष्य-समूह के विहार द्वारा समस्त पंचेन्द्रिय जीवों को प्रलय ( नाश ) में प्राप्त किया है, समस्त देश के मध्य संचार करता है (अपनी पल्टन के साथ जाता है). तथापि यह लकड़ी की खड़ा नहीं पहिनता ?" ॥२१११! हे राजन् ! जो मन्त्री वृक्षों के पत्र, पुष्प व फल नहीं तोड़ता, क्योंकि उनके तोड़ने में जीयों का घात होता है और पश्चात् समस्त देव, ब्रामण व तपस्वियों को यमराज-सरीखा अपने मुख का मास बनाता है ॥२१२।। हे राजन् ! आपका वह मन्त्री, जो कि धनादि ऐपयों द्वारा उसप्रकार निरन्तर पुष्ट ( शक्तिशाली) हुआ है जिसप्रकार बड़वानलअग्नि समुद्र की जलराशि धारा पुष्ट होती है। यदि वह दूसरे पदार्थों ( शाक-भक्षण या जो-भक्षण) द्वारा सन्तुष्ट होने की इच्छा करने लगे वो इस संसार में कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता ॥२१॥ अफ मन्त्री की कटु आलोचना करता हुआ 'शङ्कनक नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! यदि षह (मंत्री) भाप के कहे अनुसार उपवासादि नियमों के पालन करने से क्षीण * 'सुता स्पसा कुलाशना चास्ति' का । परम्लत्रार्थसासिन घटते । म. प्रसोध 'मुता स्वसा वा कुलाश नारास्ति' पाठः । विमर्शः-पथमि मु. प्रतिस्थपाठेऽसवणतिर्घटते परन्तु समोपवाचिनः 'भारा' शब्दस्य त्रिचित्कोशेष्नुपलभ्पमानत्वादे 'भाराद् पूरसमीपयोः' इति कोशानामाण्यावयं पाठोऽस्माभिः संशोधितः परिवर्तितश्व--सम्पादक। १. रूपकालबार । २. माशेपालबार । ३. आति-अलाहार । ४. रूपकालबार । ५. पयोगि-अलाहार । ६. उपमालंकार । ५. उपमालंकार । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पास्यादिश्य प्रकट रहसि व सर्वकषोचिसस्थितिपु । जारेविय मातृजाने मायादिषु पातकहितयम् ।।२१५॥ स्वपरमपि यरूपं बाहरी हितमस्य सुन्दराकारम् । स्वाकर्तध्यकपाद पटुस्तिदपि विशेयम् ।।२१६॥ अत एव देव, देवस्यैव पुरस्तात् पुरुहूतेनैवाथमुपश्लोशितः -- मानवति मानदलनो गुणवति गुणगोपनः स्त्रतः परत: । कुलशीजशौर्यशालिपु विशेषतो नृषु च कीनाशः ॥२१॥ चाटुपटुकामधेनुनीचरचरकल्पपादपः साक्षात् । अणहितचिन्तामणिरधमनिधिस्तव नृपामात्यः ॥२१८॥ शरीर-युक्त ( दुबला-पतला ) है तो उसका प्रत्यक्ष प्रतीत स्थूल ( मोटा-ताजा ) होना असंभव है। क्योंकि जिस प्रकार देवदत्त स्थूल ( मोटा-ताजा ) होता हुआ भी यदि दिन में भोजन नहीं करता तो उसे रात्रिभोजी समझ लेना चाहिए नसीप्रकार यदि 'पामरोदार' नाम का मन्त्री आपके कहे अनुसार व्रत-पालन से दीपाशरीर है तो यह मोटा-ताजा किंसप्रकार होसकता है ? अपि तु नहीं होसकता ।।२१४|| हे राजन् ! जिसप्रकार माता के साथ व्यभिचार करनेवाले ( नीच) पुरुष डो पापों के भागी होते हैं। १. मातृ गमन और २. परस्त्री-सेवन । उसीप्रकार प्रत्यक्षातीत बात का अपलाप करके एकान्त में जनता के साथ यमराज का समान उचित ( कठोर ) वर्ताव करनेवाले मायाचारी पुरुष भी दो पापा के भागी होते हैं। १. हिमा-पातक ओर २. माया बार-पातक। भावार्थ-प्रकरण में उक्त गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन ! जिसप्रकार माता के साथ व्यभिचार करनेवाले नीच पुरुष उक्त दोनों पापों के भानो हाने हैं उसी प्रकार आपका वह 'पामरोदार' नाम का मन्त्री भी, जा कि प्रत्यक्षप्रतीत बान का अपलाप करके एकान्त में जनता के साथ यमराज के समान नृशंसना-पूर्ण ( कठोर ) वनांव करता हुआ दाखवाजी कर रहा है, दोनों पाप ( नृशंसता-हिसापातक और मायाचार पातक ) का भागी ६ ।। २१५ ।। ह य जन ! इस पामरादार नाम के मन्त्री का दूसरा भी अनेक प्रकार का लोकरञ्जक बाहरी व्यवहार (माया चार-युक्त वताव! ह, उसे भी विद्वानों को उसके दुराचारों को आच्छादन करने के लिए किवाड़-सहा समझना चाहिए ।। २१६ ।। इसलिए हे राजन् ! 'इन्द्र' नाम के महाकवि ने निश्चय से आपके समक्ष इस मन्त्री की निप्रकार श्लोकों द्वारा हँसी उड़ाते हुए प्रशंसा ( कटु आलोचना , की है हे राजन् ! यह श्राप का मन्त्री अभिमानियों का मानमर्दन करनेवाला, स्वयं व दूसरों के द्वारा गणवानों के गुण आच्छादत करनेवाला एवं कुलान, सदाचारी और शूरवीर पुरुषों में विशेष रूप से यमराज है। अथान्-वनक साथ यमराज के समान निर्दयतापूर्ण कठोर व्यवहार करता है || २१७ ।। है राजन : आपका यह मन्त्री निचय से प्रथया प्रत्यक्षरूप से मिध्यास्तुति करनेवालों के लिए कामधेनु है । अर्थान--कामधेनु के समान उनको चाही हुई वस्तु देनेवाला है और निकृष्ट आचारवालों के लिए कल्पवृक्ष है। अथा-कल्पवृक्ष के समान उनके मनोरथ पूर्ण करना है एवं निन्ध आचारयाले लोगों के लिए चिन्तामारण है। अथात्-चन्तामाण रत्न की तरह उन्हें चितवन की हुई वस्तु देता है तथा पापियों के लिए अक्षयनिधि है। अथोत्-उन्हं अक्षयानाध क समान प्रचुर धन देता है ॥ २१८ ॥ १. अनुमानालंकार। २, उपमालंकार । ३ रूपका कार । ४. रूपकालंकार । जलधार धामार्ग श्रीमत्सोमदेव रिका कल्पित नाम--सम्पादक ५. रूपकारंवार। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतीय आश्वासः ३०१ क्षारोवधिरिव सुधियां चण्यासजलाशयोपमा कृत्तिनाम् । मरुमालकूपकापः सतां च सव देव सांप्रत सचिवः ॥२१॥ नरोत्तम रमा रामाः संमामे च प्रयागमः ! पामरोदारनामार्य पावत्तावत्कुतस्तव ॥२२०॥ नटा विटा किरायाश्च पट्टयाचाटतोस्कटाः । सचिचे सत चेष्टन्ता कटके प्रकर्यश्रयः ॥२२१॥ पौष नृपतिपुत्री मन्त्री पौष यन्न कविरेषः । यत्रषोऽपि च विद्वांस्तत्र कथं सुकृतिनां वासः ॥२२॥ पण्डिसवैतनिकेन - धर्मरुभूमकेतुर्विद्वज्जनहंसनीरवारावः। स्वामिश्रीनलिनीन्दुमित्रोपराहुरेष तव मन्त्री ॥२२३ ॥ तमसो मनुष्यरूपं पापस्य नराकृतिः कलेनु स्वम् । पुंस्त्वमिव पातकस्य ध भवनेऽभूत्ता नृपामात्यः ॥ ९२४॥ राजन् ! आपका मन्त्री इससमय विद्वानों के लिए उसप्रकार हानिकारक है जिसप्रकार लवण-समुद्र का खारा पानी विद्वानों के लिए हानि पहुँचाता है और जिसप्रकार चाण्डालों के तालाब का पानी पुण्यवान् पुरुषों द्वारा अग्राह्य (पीने के प्रयोग्य) होता है उसीप्रकार आपका मन्त्री भी पुण्यवान पुरुषों द्वारा अग्राम-समीप में जाने के अयोग्य है एवं सजन पुरुषों के लिए मरुभूमि पर स्थित हुए चाण्डाली के कूप (एँ) के सदृश है। अर्थात्---जिसप्रकार सज्जनपुरुष प्यास का कष्ट उठाते हुए भी मरुभूमि पर वर्तमान चाण्डाल कुए का पानी नहीं पीते उसीप्रकार सज्जनलोग भी दरिद्रता का कष्ट भोगते हुए भी जिस मन्त्री के पास धन-प्राप्ति की इच्छा से नहीं जाते' ।। २१९ ।। हे मानवों में श्रेष्ठ राजन् ! जब तक यह 'पामरोदार' नामका मन्त्री बापके राज्य में स्थित है. तब तक आपके लिए धनादि लक्ष्मी, त्रियाँ व युद्धभूमि में विजयश्री की प्राप्ति किसप्रकार होसकती है ? अपितु नहीं होसकती ।। २२० ।। हे देव ! आपके उक्त मन्त्री के रहने पर सेना-शिविर में नर्तक, पिट, किराट (दिन दहाड़े चोरी करनेवाले साक) और बहुत निन्द्य वचन बोलकर वकवाद करने से उत्कट प्रकट रूप से धनाढ्य होते हुए प्रवृत्त होय ॥२२१ ।। हे राजन ! आपके जिस राज्य में उक्त 'पामरोदार' नाम का राजपुत्र, मन्त्री, कवि और विद्वान मौजूद है, उसमें विजनों का निवास किसप्रकार होसकता है ? अपि तु नहीं होसकता ।। २२२ ।। हे राजन् ! 'पण्डितवैतण्डिफ नाम के महाकवि ने निम्नप्रकार रहोकों द्वारा आपके मन्त्री की कद्र मालोचना की है-हे राजन् ! आपका यह पामरोवार' नामका मन्त्री धर्मरूप वृक्ष को भस्म करने के लिए अग्नि है। अर्थात्-जिसप्रकार अग्नि से वृक्ष भस्म होते हैं उसीप्रकार इसके द्वारा भी धर्मरूप पृष भस्म होता है और विद्वज्जनरूपी राजहँसों के लिए मेघ गर्जना है। अर्थात-जिस प्रकार राजहंस बाँदलों की गर्जना श्रवण कर मानसरोवर को प्रस्थान कर जाते हैं उसीप्रकार आपके पामरोदार मन्त्रीके दुष्ट पर्ताव से भी विद्वान लोग दूसरी जगह चले जाते हैं एवं भापकी लक्ष्मीरूपी कमलिनी को मुकुलित या म्लान करने के लिए चन्द्र है। अर्थात्-जिसप्रकार चन्द्रमा के सदय से कमलिनी मुकुलित या म्लान होजाती है उसीप्रकार आपके 'पामरोवार' मंत्री के दुष्ट वर्ताव से आपकी राज्यलक्ष्मी म्लान (क्षीण) हो रही है तथा मित्ररूपी सूर्य के लिए राष्ट्र है। अर्थात्-जिसप्रकार राह सर्थ का प्रकाश आच्छादित करता हुआ उसे क्लेशित करता है उसीप्रकार आपका उक्त मंत्री भी मित्रों की वृद्धि रोकता हुया उन्हें क्रोशित करता है ।।२२३।। हे राजन् ! आपके राजमहल में ऐसा पामरोवार' नाम का मन्त्री हुआ है, जो कि मनुष्य की आकृति का धारक अन्वेरा या अशान ही है और मानव-श्राकार का धारक पाप ही है एवं उसकी (मनुष्य की) भूति का धारक कलिकाल ही है तथा उसकी आकृति को धारण करनेवाला १. उपमालंकार । २. आक्षेपालंकार । ३. समुच्चयालंकार । ४. आक्षेपालंकार । प्रस्तुत शामकार महाकवि का कस्थित नाम-सम्पादक । ५. रूपकालंकार 1 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ यशस्तिलकचम्पूकाये हे वत्स दर्ज किमम्य माये कः सांप्रतं नाकुचितो निवासः । वदामि मातः सोऽस्ति नूनं यः पामरोवार गिराकराः १२ सरस्वती/तुङगेनाप्यत्र मृतमारणमाचरितम् — स्त्रयं कर्ता स्वयं इस स्वयं वक्ता स्वयं कविः । स्वयं नटः स्वयं भण्डो मन्त्री विश्वातिस्तव ॥ २२६॥ आस्तिक हास्तिकसिंहो नास्तिकसौवस्तिकस्तमः स्तूपः । दैष्टिक सृष्टिकृतान्तो नरदैत्यस्तव नृपामात्यः ॥ २२७ ॥ देवववाहाला देवद्रोहाच्च देवनिर्माता । अहह सरः खलु प्रति धर्मपरः पामरोदारः ॥२२८ ॥ ब्रह्महत्या व ऋषिहत्या आदि पातक ही है ||२२४|| हे खलत्व पुत्र ! और हे माता माया ! ( परवञ्चनारूप माया ! ) इस समय हम दोनों का ( मायारूप माता और उससे उत्पन्न हुए दुष्ट वर्तावरूप पुत्र का ) योग्य निवास स्थान कौन है ? हे माढा ! सुन मैं कहता हूँ - वह 'पामरोदार' नाम का दुष्ट चिह्नवाला मन्त्री हम दोनों का निवास स्थान है ||२२|| पुनः 'शङ्खनक' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है--कि हे राजन् ! 'सरस्वती लुङग* ' नाम के महाकषि ने भी आपके इस मन्त्री के विषय में मृतमारण ( मरे हुए को मारना ) किया है। अर्थात् — उसकी निम्नप्रकार विशेष कटु आलोचना की है हे राजन् ! आपका मन्त्री स्वयं ही निन्द्य कर्म करनेवाला, स्वयं धर्म-कर्म नष्ट करनेवाला, स्वयं बकनेवाला, स्वयं कविता करनेवाला और स्वयं नट एवं स्वयं भाँढ ( हँसोदा ) होने के कारण विश्वाकृति ( बिरूपक दवान – कुक्कुर सरीखा ) है ||२२६|| हे राजन् ! आपका मन्त्री आस्तिक ( पुण्य, पाप व परलोक की सत्ता - मौजूदगी माननेवाले धार्मिक पुरुष ) रूपी इस्ति-समूह को विध्वंस करने के लिए सिंह है । अर्थात्-जिसप्रकार सिंह हाथियों के समूह को नष्ट कर देता है उसीप्रकार आपका मन्त्री भी धर्मात्मा पुरुष रूपी हाथियों के समूह को नष्ट करता है और नास्तिकों (पुण्य, पाप व परलोक न माननेवाले अधार्मिक पुरुषों) का पुरोहित (आशीर्वाद देनेवाला ) है । अर्थात्--नास्तिकों का गुरु है एवं अज्ञान का उच्चय ( ढेर ) हैं । अर्थात्- विशेष मूर्ख है और दिव्य ज्ञानियों की सृष्टि नष्ट करने के लिए यमराज है । अर्थात् — जिसप्रकार यमराज ब्रह्मा की सृष्टि नष्ट करता है उसीप्रकार आपका मन्त्री भी दिव्यशानियों ( अलौकिक ज्ञानधारक ऋषियों ) की सृष्टि नष्ट करता है तथा मनुष्यरूप से उत्पन्न हुआ असुर है। र्थात् पूर्व के असुर ने ही मनुष्य जन्म धारण किया है। अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार असुर ( पिशाच विशेष ) द्वारा मानव पीडित किये जाते हैं उसीप्रकार आपके मन्त्री द्वारा भी प्रजा पीडित की जाती है* ॥२२७|| हे राजन् ! आपका यह 'पामरोदार' नामका मन्त्री देष-पूजनार्थ दिये हुए धन को नट-विटों के लिए दे देता है ऐसा वादा है। देवता की बड़ी मूर्ति को गलषा करके छोटी मूर्ति बनाता है, ऐसा देव निर्माता है एवं सत्यवादी है । अर्थात्-न से प्रतीत होनेवाला अर्थ यह है कि यमराज के समान निधी हूँ । हे राजन! ऐसा होने पर भी आश्चर्य या खेद है कि क्या यह इस समय धर्मात्मा है ? अपितु नहीं है * ॥ २२८ ॥ ↑ 'स्वयं भण्डः स्वयं मन्त्री स्वयं A विश्वाकृतिस्तथ क० । A 'विश्वा । विरूपकः वा * 'खरं' क० । १. रूपकालंकार । २. प्रश्नोत्तरालंकार | * प्रस्तुत शास्त्रकार महाकवि का कल्पित नाम -सम्पादक ३. काकुवक्रोक्ति । ४. रूपकालङ्कार । ५. काकुवकोक्ति अलङ्कार 1 * 'तुहिनाप्यत्र' घ० । विश्वा तदाकारः' टिप्पणी ग Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतीय भाषासः २०३ देब, सहापापं हि राज्य रामपति मुहमहुहुमुन् प्रमुत्तीरपि पिसी, सरोसा परिकामति । तप कल्प कार्यसिबिरस्ति इति विक्षाला किं। मसहायः समर्थोऽपि बातु हितसिखये । बाहितिबिहीनो हि पुलस्वापि न एक २२९॥ ततोऽसौ यदि देवस्य परमार्थतो न कुपति, सत्पुरुषपरिषदिव मनसि मनागपि वान्मस्पति, तस्विमिति मनीषापौरुषाभ्यामशेषशिौण्डीरशिवामणीयमानमतिसमीक्ष पुण्डरीकाक्षम्, सिन्धुरप्रधानो हि विन पिसामीशानामिति हे राजन् ! निश्चय से जिस राज्य में सहायता करता मानी अादि अधिकारियों की अधिकता होती है, वह बार बार अनेक द्वारों से आई हुई विपत्तियाँ नष्ट करया है, क्योंकि निश्चय से जिसप्रकार स्थ-आदि का एक पहिया दूसरे पहिए के सहायता के बिना नहीं घूम सकता उसीप्रकार अकेला राजा भी मन्त्री-आदि सहायकों के विना राजकीय कार्य सन्धि व विग्रह-आदि ) में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता 'विशालाक्ष' नामके कविने कहा है कि 'अकेला पुरुष कार्य-सिद्धि नहीं कर सकता' | हे राजन् । उक्त विषय पर कुछ निमप्रकार कहता हूँ-निश्चय से जिसप्रकार अग्नि वायु के बिना पराल को भी जलाने में समर्थ नहीं होती जसीमकार समर्थ पुरुष भी सहायकों के बिना कदापि कार्य-सिद्धि नहीं कर सकता। भावार्थ-नीतिकार प्रस्तुत आचार्यश्री' ने भी उक्त विषय पर कहा है कि 'जिसप्रकार स्थ-यादि का एक पहिया दूसरे पहिए की सहायता के बिना नहीं घूम सकता इसीप्रकार अकेल राजा मी मन्त्री भादि सहायकों के बिना राजकीय कार्यों ( सन्धि व यिग्रहादि) में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। उदाहरणार्थ-जिसप्रकार अनि इन्धन-युक्त होने पर भी हवा के विना प्रचलित नहीं हो सकती उसीप्रकार अजिव म सुयोग्य राजाभी मन्त्री-आदि अधिकारियों की सहायता के विना राज्यशासन करने में समर्थ नहीं हो सकता। यखभदेव" नीतिकार ने भी उक्त बात कही है। प्रकरण में "शनक' नामके गुप्तचर ने यशोधरमहाराज से सुयोग्य मंत्री-आदि अधिकारियों की राज्य संचालन में विशेष अपेक्षा निरूपण करते हुए अकेले पामरोदार नाम के मंत्री द्वारा, जो कि अयोग्य व दुष्ट है, राज्य संचालन नहीं हो सकता, यह कहा है ॥२२९।। इसलिए हे राजन् ! यदि यह आपका 'पामरोदार' नामका मन्त्री निश्चय से आपके अपर कुपित नहीं है और यदि आपसे चिप्स में उसप्रकार जरा सी भी ईर्ष्या नहीं करता जिसप्रकार सजन पुरुषों का समूह आपसे जरा सी भी ईर्ष्या नहीं करता तो वह, गृह में प्रविष्ट हुए जंगली कबूतर के समान अर्थान-- जिसप्रकार जिस गृहमें जंगली कबूतर घुस जाता है वह, उर्स ( मनुष्यों से शून्य-उनाद) होजाता है, क्यों ? निम्नप्रकार के राज्याधिकारियों को सहन न करता हुआ ( उनसे ईष्या करता हुआ ) ऐसे 'पुण्डरीकाक्ष' मन्त्री को निकाल कर अद्वितीय प्रभुत्व में स्थित हो रहा है ? जिसकी बुद्धि और शुरवीरता बुद्धि (राजनैतिक ज्ञान ) और शूरता द्वारा समस्त विद्वानों य शौण्डीरों ( त्याग व पराक्रम से प्रसिद्ध) के मध्य शिरोरल के समान माचरण करती है। अर्थान्-सर्वश्रेष्ठ है.हे राजन् ! 'विजिगीषु राजा जो शत्रों पर विजयश्री प्राप्त करते हैं, उसमें हाथी ही प्रधान हैं। अर्धात्-हाथियों द्वारा ही शत्रु जीते __ जाते हैं यदि यह निश्चित सिद्धान्त है, तो वह ऐसे 'वन्धुजीव' नामके गज (हाथी ) शासवेत्ता को १. तथा च सोमदेवसूरि:-कल्प कार्यसिद्धिरित ||१६| न ह्या परिश्रमति ॥२॥ किममातः सेन्धनोऽपि वहिर्वलति ॥१॥ २. तथा च बलभदेवः-किं करोति समयोऽपि राजा मन्त्रित्रार्जेटः। प्रदोऽपि यथा पहिः समरगविना कृतः ॥१॥ नीतिदायाभूत ( भा. टी. प. १६५ से संक लेड-सम्पादक ३. स्टान्दालंका Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ यशस्तिकचम्चन्ये तस्विमिति समस्सलामतियगृहमनःप्रभावं बापुजीवम् ; महाकविसंमहान्महीपतीनामाबन्दाकोपकाशं पश इति । नस्किमिति स भवत्कोतिलतालालनालापामृत सेवकसारं हारम् , 'यासु सन्सो न तिष्ठन्ति ता वन विभुसयः' इसि, तस्विमिति स्वभावाव देवस्य प्रसेपाऽपरानपि विदुषः + पुरुषानमिषनगारान्तरापतितः कपोत इस निस्यि स्वपमेकै वय वर्तते। तथा इति विधिनस्य निवसतां च सतामरंदवाक्प्रसास्वचिसारहीर इव न हाति सुखेनासितम् । अभ्या पली न हरितारपारमारा दृष्टरुपैति विषय विषमावरुद्धः । यूथच्युतोपि बरकरकशान्ताग्यणः प्रयत्पवश एव मरुस्थलानि ।। २३ ।। देश से निकालकर क्यों स्वयं ही अद्वितीय प्रभुत्व में स्थित हो रहा है ? जिसने अपने चित्त के माहात्म्य में समस्त गज-शास्त्र ग्रहण कर लिए है-जान लिए हैं। अर्थात्-जो समस्त गजशास्त्रों का पूर्ण वेत्ता है। हे देव ! महाकवियों के संग्रह (स्वीकार) से राजाओं का यावचन्द्रदिवाकरौ' अर्थात-जब तक सूर्य व चन्द्र विद्यमान है तब तक ( चिरकाल तक ! भूमण्डल पर यश स्थित रहता है यदि यह निश्चित है तो मापका मन्त्री ऐसे 'हार' नामके महाकवि को देश से निकालकर क्यों अद्वितीय प्रभुत्व में अधिष्टित हो रहा है ? जो कि आपकी कीर्तिरूपी लता के कोमल काव्यरूप अमृत के सेवन से विशेष शक्तिशाली है। इसीप्रकार हे राजन | 'जिन धनादि सम्पत्तियों द्वारा विद्वान् लोग सम्मानित नहीं किये जाते, वे (धनादि सम्पत्तियाँ) निरर्थक ही है, यदि यह बात निश्चित है तो आपका मन्त्री स्वभाव से ही आपके ऊपर प्रसन्न रहनेवाले ( आपके सेवक ) दूसरे विद्वानों को देश से निकालकर क्यों असाधारण ऐश्वर्य में स्थित हो रहा है? भावार्थ-'शतक' नामके गुप्तचर ने यशोधर महाराज से कहा कि हे राजन् ! आपके 'पामसेदार' नामके मन्त्री ने ऊपर कहे हुए अधिकारियों को देश से निकाल दिया हैं और वह अद्वितीय ऐश्वर्य भोग रहा है, इससे यह बात स्पष्ट प्रमाणित होती है कि वह आपके ऊपर कुपित हो रहा है और आपसे ईया कर रहा है। राजन् ! उसीप्रकार से निम्न प्रकार विचार कर ऐसा यह मन्त्री, जिसकी वचन-प्रवृत्ति प्रापके देशवासी सजनों को उसप्रकार मर्मव्यधक है जिसप्रकार वंशशलाका ( बाँस की सलाई - फाँस) नख आदि स्थानों में घुसी हुई मर्भव्यधक : हृदय को पीड़ाजनक होती है और वह उन विद्वान् सजनों को उसप्रकार सुखपूर्वक ठहरने नहीं देता जिसप्रकार वंशशलाका नखादि स्थानों में घुसी हुई सुखपूर्वक नहीं रहने देती। हे राजन् ! नीचे-ऊँचे ( ऊबड़-खाबड़) मार्ग द्वारा रोका गया और अपने झुण्ड से विछुड़ा हुआ भी हिरण जब दूध के अङ्करों पर संचार करने से मनोहर ( सुखद ) दूसरी स्थली (भूमि) दृष्टिगोचर नहीं करता नव पराधीन होकर के ही ऐसे मरुस्थलों ( मारवाद देश के बालुका मय स्थानों ) का आश्रय करता है, जिनके पर्यन्तभाग अथवा स्वभाव कठिन बालुका (रेतों) से कठोर है। भावार्थ-प्रकरण में 'शङ्कनके नाम का गुप्तचर उक्त मन्त्री की कटु आलोचना करता हुआ यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन ! जब हिरण अपने झुण्ड से बिछुड़ा हुआ ऊवव-खाबड़ भूमि के कारण रुककर दूर के अंकुरों से व्याप्त सुख देनेवाली पृथ्वी पर जाने से असमर्थ हो जाता है तब पराधीन होकर ही कठिन रेतवाले मरुस्थलों का आश्रय करता है उसीप्रकार हे राजन् ! उक्त 'पामरोदार मन्त्री द्वारा सताये गए और आपका आश्रय न पाकर विद्वानों से पिछुड़े हुए उक्त सजन विद्वान् पुरुष पराधीन होने से ही दूसरे देशों को प्रस्थान कर रहे हैं। ॥२३॥ x 'पुरुषानमिपमगारान्तरपतितः क. 'पुरुषानमर्पश्चगारान्तरापतितः घः । 1. समासोक्ति अलंकार। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुतीय आवासः ३०१ । एकामास्ये महीपाले माहे लक्ष्मीविज़म्भते । लतायास्तत्र का वृतिः शासका पत्र शामिति ॥ ॥ देव, लामीलतावलयितगलगल इव भवति प्रावण साऽपि जनः। यतो य एवात्मनो मर्ज गडे पाहिल्या लम्मितुमिच्छति तस्यैव मुम्बमबलोकते। किंच! कि नास्ति पलं सहि येन तिमिः साइरो गालाहारे । प्रायेण हि पेहभृतां तत्रासक्तियतो मृत्युः ॥२३२॥ देव, देवोऽस्य निक्षितता मास्तिकता व तापि न संतति । यतो बानमध्ये दुरारमा मुषा भृत्यभाषेन पाकोपकाविपरिचारकतया चिरकाल अपचपच क्शयताशातिप्रकारालति दुरपवादे पुनर्तुःप्रसिरिमयात नियमोडकोष एवं निति निविरप्रमोड स्वयमेवावधीत् । विशिष प्रायश्चतमचिरतापामिदमयोपत् रविरश्मिरमपावकमारपीबाययोऽस्पः स्पृष्टाः । न हि दुष्टास्तदई प्रकृतिशुधि लमध्येऽपि ॥ २३ ॥ हे राजन् ! जिस प्रकार एक शास्त्रापाले पृक्ष पर पढ़ी हुई लला विशेषरूप से वृद्धिंगत नहीं हो सकती उसीप्रकार केवल एक मन्त्री घाले राजा की लक्ष्मी भी विशेषरूप से वृद्धिंगत नहीं हो सकती' ||२३१।। हे राजन् ! प्रायः करके सभी पुरुष उसप्रकार लक्ष्मी (धनादि-सम्पत्ति ) द्वारा बँधे हुए कण्ठवाले होते है जिसप्रकार बकरा प्रायः लता द्वारा बंधे हुए कण्ठषाला होता है। अर्थान-प्रायः संसार में सभी लोग उसप्रकार धनादि सम्पत्ति के इच्छुक होते हैं जिसमकार बकरा बेलपली खाने का इच्छुक होता है। इसलिए बकरे-सरीखे प्रायः सभी धनार्थी लोग उस मनुष्य का मुख देखते है, जो कि इसके कण्ठ पर पैर स्थापित करके उसे लम्बा करने की इच्छा करता है। अर्थात्-मारना चाहना है। भावार्थ-जिस प्रकार बकरा तण व लता-आदि देखकर सूनाकार (खटीक या कसाई) के मुख की ओर देखता है उसीप्रकार लक्ष्मी का इच्छुक पुरुष भी उसका आदर करता है, जिससे इसका मरण होता है ! विशेषता यह है राजन् ! क्या पानी में माँस नहीं है? अर्थात्-क्या पानी में बड़ी मछली के खाने के लिए छोटी मछलियों नहीं है? जिससे कि मछली बक (टे) फौदे पर लगे हुए माँस के मरण में तत्पर होती है। नीति यह है कि निश्चय से संसार के प्राणियों की उस पदार्थ में आसक्ति होती है, जिस पदार्थ से उनका गरण होता है। भावार्थ प्रकरण में हे राजन् ! वह पामरोदार नाम का मन्त्री लोभ-परा अपना मरण करनेवाले अन्याय के धन का संचय करने में उसप्रकार तत्पर होरहा है जिस प्रकार मारी जानेवाली मछली काँटे पर स्थित हुए माँस के भक्षण करने में तत्पर होती है ॥२३॥ स्वामिन ! आप इस मन्त्री को निर्दयता व नास्तिकता जानते हुए भी नहीं जानते। क्योकि इस पापी मन्त्री ने पाँचों पाण्डालों से निरर्थक (बिना तनख्वाह दिये ) नौकरी कराई व उनसे रसोईया और डीमर की सेवा (वेगार) कराकर उन्हें चिरकाल तक श्रृंगार करते हुए क्लेशित किया, जिसके फलस्वरूप इन पाँचों चाण्डालों के जातिवालों के पूत्कार (क्षुब्ध) होजाने से जप प्रस्तुत मन्त्री की निन्दा पारों भोर से होने लगी तब बाद में इसने अपनी निन्दा होने के डर से रात्रि में गाद निद्रा में सोए हुए उन पाँघों चाण्डालों को अपने गृह के अग्रभाग में ही वयं मार डाला। तदनन्तर जब धार्मिक पुरुषों ने इसको प्रायश्चित्त ( पापशुद्धि) करने के लिए प्रेरित किया, अर्थान-तू इस महान पातक का प्रायश्चित्त मारण कर' इसप्रकार आग्रह किया तष इसने उनसे निम्नप्रकार कहा जिसप्रकार सूर्य-किरणें, रत्न, अपि, गाय और वायु ये पदार्थ चाण्डालों द्वारा छुए जाने पर भी दूषित नहीं होते उसीप्रकार स्वभाव से विशुद्ध में ( पामरोदार नाम का मंत्री ) भी चाण्डालों के मध्य में 1. एटान्तालंकार । २. शान्तालंकार। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ यशस्तिलकचम्पूफाल्ये आत्मा स्वभाषशुद्धः काय: पुनरशुचिरप ध निसर्गात् । प्रायश्चित विधानं कस्यति विचिस्यता अगति ।। २३४ ॥ वर्णाश्रमजासिलस्थितिरेपा व संवृतेनाम्या । परमार्थतच मृपते को विप्रः कश्च चाकालः ॥२३॥ नास्तिकता चास्य किमिवोच्यते । यः खलु विकीय देवं विदधाति यात्रा तगासनादेव पर देवान् । प्रमुख्य लोक ठकवृतिभावदाति दाम द्विजपुंगवेभ्यः ॥२३६॥ मप्रहारमहः साक्षादेव भोगभुजंगमः । शिष्टविष्ट पसंहारप्रसयानलमानसः ॥ २३७ ।। कृतान्न इष चेष्टेत यो देवेषु निरङ्कुशः । कापेक्षा भक्षणे तस्य तापसेषु द्विजेषु च ।। २३८ ।। देव, यावद्धवान्न जातोऽन तावदन्ये कुलोरताः । जातं त्वयि महीपाल नृपाः सपि निषकुलाः ॥ २३९ ॥ इति देव, देवमुपश्लोकयता ककारमतत्वमास्मनो न घोसितम् । यतो देष, देवोत्पादागतां वंशविशुद्धता स्थित हुआ दूषित नहीं हूँ ॥२३३।। यह आत्मा ( जीयतत्त्व ) स्वभाव से ही शुद्ध ( कर्ममल कला से रहित ) है और यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला शरीर स्वभाव से अपवित्र है, इसलिए संसार में प्रायश्चित्त (पाप शुद्धि) का विधान किसके लिए है ? अपि तु किसी के लिये नहीं, यह बात आपको सोचनी चाहिए ॥२३४|| हे राजन् . वर्ग माझा गि, गद्र ने क र्ण), पाश्रम ( ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ घ थति ये चार आश्रम ), जाति ( मातृपक्ष) और कुल ( पितृपक्ष) इनकी मर्यादा व्यवहार-दृष्टि से मानी गई है न कि निश्चयदृष्टि से, इसलिए निश्चयदृष्टि से कौन ब्राह्मण है? और कौन चाण्डाल है ? अपि तु कोई नहीं ॥२३शा हे राजन् ! आपके इस मन्त्री की नास्तिकता के बारे में क्या कहा जाए ? जो मन्त्री देव-मूर्ति बैंचकर यात्रा करता है और बड़ी देव प्रतिमा को गलवाकर दूसरी छोटी देष-मृतियाँ बनाता है एवं उगवृत्तियों (औषध आदि के प्रयोगों)-द्वारा मनुष्यों का गला घोंटकर उनसे धन प्रहण करके श्रेष्ट ब्राह्मणों के लिए दान दे देता है ।।२३६।। हे स्वामिन् ! आपका यह मंत्री प्रत्यक्षरूप से अग्रहारग्रह है। अर्थान-विप्र-आदि के लिए दिये हुए ग्रास को ग्रहण करने के हेतु पिशाच-सरीस्था है और देवपूजा के लिए आपके द्वारा दिये हुए ग्राम, क्षेत्र व कूप-आदि भोगों में लम्पट है अथवा मक्षक है एवं जिसका मन शिष्ट पुरुषों का संसार नष्ट करने के लिए प्रलयकाल की अपि-सरीखा है ॥२३७॥ हे राजन् ! जो आपका मन्त्री देवभूतियों में वेमर्याद प्रवृत्ति करता हुआ ( गलवाता हुना) यमराज के समान चेष्टा करता है ( उन्हें बैंचकर वाजाता है) इसलिए उसको साधुजनों व ब्राह्मणों के भक्षण करने में ( राजदत्त क्षेत्र-आदि भोगाभक्षण करने में किसकी अपेक्षा होगी? अपि तु किसी की नहीं |॥२३॥राजन् ! जो मन्त्री आपकी इसप्रकार स्तुति करता है- 'हे राजन् ! जब तक आप इस. कुल में उत्पन्न नहीं हुए तब तक दूसरे यशोवन्धुर व यशोर्घ-श्रावि आपके पूर्वज राजा लोग कुलीन हुए और आपके उत्पन्न होने पर आपके यंश में उत्पन्न हुए समस्त राजा लोग कुल-हीन होगम् ॥२३।। हे स्यामिन ! उक्त श्लोक द्वारा आपकी स्तुति करनेवाले आपके मन्त्री ने फिसप्रकार से अपनी एकान्तता ( 'मैं ही राज्य का सर्वस्य हूँ इसप्रकार अद्वितीय प्रभुत्व ) प्रकाशित नहीं की ? अपितु अवश्य की। इसीप्रकार हे राजन! इस मन्त्री ने जन आपके जन्म से उत्पन्न होनेवाली कुलविशुद्धि का निरूपण किया तष इससे यह समझना चाहिए कि इसने आपके वंश की अशुद्धि १. समुच्चयालकार। २. जाति व आक्षेपालबार । ३. आक्षेपालंकार । ___ * "विप्रादीना दतं प्रासः तस्य' प्रह: पिशाच टिप्पणी ग । ४. पारवृत्ति-अलंकार । ५. रुपकालंकार । ६. उपमा व आक्षेपालार । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः बदतानेन साधु देवान्वयस्यात्रिशुद्धता प्रकाशिता । म बलु पुत्रास्पियोः कुलीनता, किंतु पितृभ्यां पुत्रस्य । सदेवं देव, देवस्यायमेव नितरां पक्षपाती। देव, देवस्पायमेव राज पालक्ष्मीवलीवर्धनः । देव, घेवस्वायमेष मशरूपरम्परासंपावनः । देव, देवस्यायमेव प्रतापप्रदीपनन्दनः । देव, देवस्यायमेव समरेर जअधिभूतिकारणम् । देव, देवस्यायमेव शन्धवेषु हारावरुद्धकण्ठताहेतुः । देव, देवस्थायमेव मित्रेषु श्रीफलोपलालनास्तनम् । देव, देवस्यायमेधाश्रितेषु चिन्तामणिमिदानम् । अत एवं वृत्तिपश्वविवश विदुषः कोहलस्यार्थहानिमामग्लानिर्गणपतिकवेः शंकरस्याशु भाषाः । धर्मध्वंस: कुकृतिनः फेकटेश्च प्रवास: पापावरमादिति समभवदेव देवे प्रसिद्धिः ॥ १०॥ प्रकट की, क्योंकि पुत्र की कुलीनता से उसके माता-पिता में कुलीनता नहीं आती किन्तु माता पिता की कुलीनता से ही उनके पुत्र में कुलीनता प्रकट होती है। इसलिए ऐसा होनेपर हे राजन् ! यह मन्त्री ही आपका विशेषरूप से पक्षपाती है। अर्थात्-आपके वंश को विशेषरूप से नष्ट करनेवाला है, न कि आपके पक्ष का अवलम्बन करनेवाला। हे गजन् ! श्रापका यह मंत्री राज्यलक्ष्मीवालीवर्धन है। अर्थात्राज्यसंपत्तिरूपी लता का वन (छेदनेवाला ) है, न कि वृद्धिंगत करनेवाला। इसीप्रकार हे स्वामिन् ! आपका यह मन्त्री मङ्गल-परम्परा-संपादन है। अर्थात्-धड़े को भेदन करनेवाले ठोकरों की लेणी (समूह) को करनेवाला है, न कि कल्याणश्रेणी की सृष्टि करनेवाला । हे राजन् ! आपका यह मन्त्री प्रताप-प्रदीप-नन्दन है। अर्थात-आपके प्रतापरूपी दीपक का नन्दन ( विध्यापक-बुझानेवाला ) है, न कि प्रबोधक-उद्दीपित करनेवाला।से राजन ! भाएका यह मन्ही गुजभूमि में जय-विभूति-कारण है। अर्थात्-विजयश्री के भस्म करने का कारण है-शत्रुओं से पराजित होने में कारण है न कि विजयश्री व ऐश्वर्य का कारण । हे स्वामिन् ! आपका यह मन्त्री कुटुम्बीजनों में क्षरावरुद्ध-कण्ठताहेतु है। अर्थात्-ईटों के ढेर के ग्रहण द्वारा विलाप रोकनेवाला है। अभिप्राय यह है-जो युद्ध में शत्रु द्वारा मारे हुए. योद्धाओं की विधवा स्त्रियों आदि के विलाप को इंटों व स्वप्पड़ों के मार देने का भय दिखाकर रोकनेवाला है, अथवा जो हा-बाराव-रुद्धकएठताहेतु है। हा हा इस धाराव ( पाकन्द-रुदन ) शब्द द्वारा रेघे हुए कण्ठ का कारण है। अभिप्राय यह है कि इसके दुष्कृत्यों के परिणामस्वरूप राजा ष अधिकारियों के हृदय में 'हाय-हाय' ऐसा करुण रखन-शब्द होता है, जिससे कि उनका कण्ठ सैंध जाता है, न कि हार-मोतियों की मालाओं के कण्ठाभरण का कारण है। इसीप्रकार हे स्वामिन् ! आपका पह मन्त्री मित्रों के शिरों पर श्रीफल-उपल-पालन-पायतन-है। अर्थात् - मित्रों के शिर पर विरुवफल पाँधने और पत्थरों द्वारा साइन करने का स्थान है न कि लक्ष्मीरूप फल के विस्तार का स्थान है एवं हे राजन् ! यह आपका मन्त्री नौकरों में चिन्तामणिनिदान है। अर्थात् आर्तध्यान के कथन का कारण है। अभिप्राय यह है कि यह नौकरों के लिए पर्याप्त वेतन नहीं देता, इसलिए उनकी चिन्ता-आध्यान-को बढ़ाता है न कि शोणरत्न का कारण है। इसलिए हे स्वामिन् ! इस पापी मन्त्री से देश में ऐसी प्रसिद्धि होरही है, कि इसने 'चिदश' नामके कषि की जीविका का उच्छेद ( नाश ) किया, 'कोइल' कयि को निर्धन किया, इसीके द्वारा 'गणपति' नामके कयि का मानभा हुआ, 'शंकर, नामके विवान् का शीघ्र नाश हुआ और कुमुदकृति' नामके विद्वान् का धर्म नष्ट हुआ एवं ककदि' नामके महाकषि का परवेश-गमन हुआ' ॥२४॥ १, समुच्चयालंकार । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मूल महरूपविमयं पर कुलीनं माल्यं महान्समधर्म पुनरुत्तमं च । तुष्टः करोति कुपितश्च विपर्ययेण I मन्त्रीति देव विषयेषु महाप्रवादः ॥ २४१ ॥ समविविस्तरेण । देव, समस्तस्याप्यस्य ji भाषितस्मेदं कैपर्यम् – या कार्याधिनि भूपतावसमधीः कार्याय असे धुरं यश्चाधिमि संनयोचितमतिविस्तामणिजायते । भक्ती भर्तरि मन्त्रिणामिदमहो दिव्यं इयं कीर्तितं न क्षोणीश महीयसां निरसनं राज्यस्य वा ध्वसमम् ॥२४॥ स्था च भूतिः-दुर्योधनः समोऽपि वुमंत्री प्रलयं गतः । राज्यमेकशरोग्याप सम्मन्त्री नवगुप्तकः ॥ २४३ ॥ x पुण्योदयः क्षितिपतेनियत सदैव काम महोत्सवसमागमन सहस्सु । मोझगमश्च परमो मनु सेवकाना दुष्टसनिकानितिर्गव ।। ३४ हे देव ! अवन्ति देश में इसप्रकार की विशेष किंवदन्ती हो रही है कि 'आपका यह मन्त्री सन्तुष्ट हुआ मूर्ख पुरुष को बृहस्पति, वृषल (चाण्डाल के संसर्ग-वश ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए शूद्र पुरुष ) को कुलीन, अहिंसादि व्रतों से भ्रष्ट हुए पुरुष को गुरु और नीच को श्रेष्ठ बना देता है और इसके विपरीत कुपित होने पर पूर्वोक से उल्टा कर देता है। अर्थात्-कुपित होने पर वृहस्पति को मूर्ख, कुलीन को शूद्र, गुरु को प्रतभ्रष्ट और श्रेष्ठ को अधम बना देता है। ॥२४१। विशेष विस्तार से क्या लाभ ? हे राजन् ! समस्त पूर्वोक्त का तात्पर्य यह है--- जो मन्त्री प्रयोजनार्थी राजा में अद्वितीय बुद्धिशाली होता हुआ कार्यभार धारण करता है और जो अपनी बुद्धि को न्याय में प्रेरित करता हुआ (अन्याय से धन न देकर न्यायोचित्त उपायों से प्राप्त किये हुए धन को देता हुमा) धन चाहनेवाले राजा के लिए चिन्तामणि है। अर्थात्-मनोवाञ्छित वस्तु देता है । इसप्रकार मान्त्रयों की राजा में भक्ति होने पर निन्नप्रकार दो दिव्य ( उत्तम लाभ) कहे गये हैं।१. विजनों का तिरस्कार नहीं होता और राज्य नष्ट नहीं होता'२४२।। शास्त्र में कहा हैदुर्योधन राजा समर्थ होने पर भी (दुःशासन व दुर्धर्षण-आदि सौ भाइयों से सहित होने के कारण शक्तिशाली होने पर भी ) शकुनि नामके दुष्ट मन्त्री से अलंकृत हुआ प्रलय (नाश) को प्राप्त हुआ। अर्थात्-अकेले भीम द्वारा मार दिया गया और चन्द्रगुप्त नामका मौर्यवंशज राजा प्रशस्त मन्त्री से विभूषित हुआ (चाणक्य नाम के राजनात के वेत्सा विद्वाम् मन्त्री से अलङ्कत हुआ) एक वाणशाली होनेपर भी ( अकेला होनेपर भी राज्यश्री को प्राप्त हुआ A२४३।। हे राजन् । जिस समय दुष्ट मन्त्री का पिनास होता है उसी समय निश्चित रीति से राजा का पुण्योदय होता है और उसके कुटुम्बीजनों के लिए विशेष महोत्सव प्राप्त होता है व सेवकों के लिए उत्कट हर्ष प्राप्त होता है। इसमकार राजनीति के प्रकरण में मन्त्री-अधिकार समाप्त हुआ ॥२४४|| Iनक शुरूपाउः. प्रतिसः संकलितः । मु. प्रती तु 'मन्त्रांति देव विषये सुमहान्प्रवाद । ii 'भाषितस्पैदंपर्यम् ३० । x 'पुण्योदयः क्षितिपतनगरं तदैव क० । १. दीपकालंकार । २. रूपकालंकार । ३. जाति-अलंकार । ४. दीपमालंकार । A इतिहास बताता है कि १२९ ई. पू. में नन्दवंश का राजा महापयनन्द मगध का सन्नाट पा। नपत्र के राजा अत्याचारी शासक थे, इसलिए उनको प्रजा उनसे अप्रसन्न हो गई और अन्त में विष्णुगम (षामक्य) माम मामा विद्वान की सहायता से इस पंक्षा के अन्तिम राजा को उसके सेनापति चन्द्रगुप्तमौर्य ने ३२५ ई. पूर्व में गहां से सतार दिया भोर स्वयं राजा बन बैठा । 'मेगास्थनीज' नामक यूनानी राजदूतने, ओ कि चन्द्रगुप्त के दरबार में रातापा, चन्द्रगुप्त के साप्सम प्रबन्ध की या प्रशंसा की है । इसने २४ वर्ष पर्यन्त नौति-न्यायपूर्वक राज्यशासन किया । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आधासः ३०९ *कदाचिदिशावण्डमादिविक्षुराकारसमससामन्तलाका सकलसेन्यसमालोफनोतुतमसंगतिकरेषु बलदर्शनावसरेषु निटिलतरपटिकाप्रसामघटितोडयटम् . उत्क्रोमकिशुकप्रसूनमारीजालाजटिलविषाणविकटमेकमृगमण्डलामबकर्सरीमुखचुम्बितामूलरमधुबालम् , उनियमानमतिलक्तिकोसं पोलुकुलमिव, किरिमणिविनिर्मितविदारकण्ठिकम, महामण्डलापशुण्ठित गलनालमाभ्यमीशानसैन्यमिय, कुणिकृतकालायसवलपकरालकरामोगम्, मालपिलेशयवेष्टितविटपभाग अथानन्तर ( उक्त 'शजनक' नामके गुप्तचर द्वारा की गई 'पामरोदार' मन्त्री की कटु आलोचना के श्रवणनन्तर) हे मारिदत्त महाराज ! समस्त दिङ्मयमल में वर्तमान राजाओं के सैन्यधन के प्रहए करने का इच्छुक और समस्त अधीनस्थ राजाओं के समूह को बुलवानेवाले मैंने ( यशोधर महाराज ने) किसी समय समस्त सैन्य के दर्शन-निमित्त ऊँचे महल पर आरोहण करनेवाले सैन्य-दर्शन के अवसरों पर सेनापतियों के निमप्रकार विज्ञापन श्रवण किए-हे राजन् ! ऐसा यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ दक्षिणदिशा से भाया हुआ सैन्य ( पल्टन ) देखिए, जिसने ललाट के उपरितन भागपर ( बांधी हुई) [लाल ] बम की पट्टी ( साफा ) द्वारा अपना उत्कट जूट ( केशसमूह ) बाँधा है, इसलिए वह ( सैन्य ) ऐसे एक शृयाले गण्डक (गेडा) समूह सरीखा प्रसीत होरहा था, जो कि विकसित पलास-( टेसू ) पुष्पमारीसमूह से वेष्टित हुए शृङ्गों से भयानक अथवा प्रकट है। जिसकी दाड़ी का केश-समूह केंची की नौंक द्वारा स्पर्श किया हुआ निर्मूल कर दिया गया था । इसीप्रकार जो खद्भिद्यमानमदतिलकितकपोलशाली है। अर्थातप्रकट हुए मद-( अभिमान ) षश श्रेष्ठ गालों से विभूषित है, इसलिए जो ऐसे गज-वृन्द (हाथी-सम) सरीखा शोभायमान होरहा था, जो कि उद्भिद्यमानमदतिलकितकपोलशाली है। अर्थात- जो उत्पन्न होरहे दानजल के तिलक से मण्डित गण्डस्थलशाली है। जिसने [ कण्ठ में ] नानाप्रकार के [ नील व शुभ माणियों से बनी हुई तीन डोरोषाली कण्ठी पहिन रक्खी थी, इसलिए जो (वह) सर्पविशेषों से वेधित बएठरूप कन्दली से सुशोभित श्रीमहादेव के सैन्य-सरीखा प्रतीत होरहा था। जिसकी भुजाओं का कथासरित्सागर में लिखा है कि नन्दराजा के पास ५९ करोष सुवर्ण मुद्राएँ थीं, अतएव इसका नाम नवनन्द था, इसी नन्द को मरवाकर चाणक्य ने चन्द्रगुतमार्य को मगध की राजगहीं पर वैटाया। किन्तु इतने विशाल साम्राज्य के भधिपति को मृत्यु के बाद सरलता से उक्त साम्राज्य को इस्तगत करना जरा देगी खीर पौ। नन्द के मन्त्री राक्षसआदि उसकी मृत्यु के बाद उसके वंशजों को राजगद्दी पर विटाकर मगध साम्राज्य को उसी वंश में रखने की चेष्टा करते रहे। इन मंत्रियों में चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त की सम्मिलित शक्ति का विरोध यकी रखता से किया। कवि विशाखदत अपने 'मुद्राराक्षस' में लिखते हैं कि शक, यवन, कम्बोज व पारसीक-आदि जाति के राजा चन्द्रगुप्त और पर्वतेश्वर की सहायता कर रहे थे। करीब ५-६ वर्षों तक चन्द्रगुप्त को मन्दवंश के मंत्रियों ने पाटलिपुत्र में प्रवेश नहीं करने दिया । किन्तु विष्णुगुप्त ( चाणक्य-कौटिल्य ) की फुटिल नीति के सामने इन्हें सिर झुकाना पड़ा। अन्त में विजयी चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से नन्दवंश का मूलोच्छेद करके सुगांग प्रासाद में बड़े समारोह के साथ प्रवेश किया । निष्कर्ष-चाणक्य ने विषकन्या के प्रयोग से नन्दों को भरवाकर अपनी भाशा के अनुसार पलनेवाले पन्द्रगुप्तमौर्य को भगवान्त के साम्राज्य पद पर भासोन किया । इसका पूर्ण पलान्त पाठकों को कपि पिशाखपत में मुद्राराक्षस से तथा अन्य कथासरित्सागर-आदि प्रन्धों से आन लेना चाहिये । हम विस्तार के भय से अधिक मही नियमा वाहते। * 'कदाचिदिशा दण्डमादिक्षु' का गलनालमन्यदीशानसैन्यमिव' क..। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मालियानोहगामिन, आनाभिदेशोतम्भितासिधेनुकम् , अहीश्वरानुचन्ह मध्यमेखलं मन्धानकायलमिय, आवझणोक्षिप्तनिविडनिवसन सकौपीन खानसन्दमित्र, अनेकाजामसंभावनाप्रीयाननम् , अात्मस्तवाचदशेमरमागधोकणितवदनम्, सिर्जनसरेखालिसिसमिसिलदेवप्रासाद च, हाई विहिसविविधायुध वर्तनौबिल्व दाक्षिणात्यं बलम् पाडांमुररिमसंपर्कज्यसत्कुन्तापमपालम् । स्वरप्रतापानलल्यास विधानमिवाम्बरम् ॥१४५|| इतरण पर्यम्तसविसकुन्तातयामुहिमितमस्तस्मशम्, अतिप्रलम्बनवणवादोलायमानस्फारसवर्णकर्णिका किरणोटिकमनीयमुमालतया पोहस्पतीपरिकल्पितपलकणिकारकानममिव, समुस्कर्षितसकमिछुक!! जलाप्रमागरोमहोमशम् , माहादःप्रमार्जितदारप्रकाशपसरवहनता प्रदर्शितस्वकोपयशःप्रसूतिश्शेत्रमिय, अमङ्गमहपरिषेषयन्तक्षलक्षपितभुषशिखरम्, अनवरतरसपारसरागरक्तशिसिशरीरता! अक्जिटककर पकालिन्दीकोलकुलमित्र, मारवहतिरस्त्रप्रभाविस्तार सो के समान चेष्ठाशाली लोहमय वलयों (कड़ों) से उन्नत था, इसलिए वह सांपो के बों से बेष्टित शाखापाले भद्रमिय:-चन्दनवृक्ष के वन सरीखा शोभायमान होरहा था। जिसने नाभिदेशपर्यन्त छुरी पाँध रक्सी थी, इसलिए जो शेषनाग से बंधी हुई कटिनी ( पर्वत के मध्य का उतार ) वाले सुमेरु पर्वत के समान शोभायमान होरहा था। जात्रों अथवा घुटनों तक फैलाए हुए रदषलवाला वह लगोटी पहिने हुए सम्पासियों के समूह-सरीखा मालूम पड़ता था। नानाप्रकार की स्तुतिपाठकों की स्तुतियों के श्रवण करने में जिसका मुख ऊँची गर्दनशाली था। जिसने अपना मुख ऐसे स्तुतिपाठकों के [देखने के लिए ] ऊँचा उठाया है, जो कि अपने द्वारा की हुई [ राजा-अदि की ] स्तुति से उत्कट हैं एवं जिसका समस्त शरीररूपी मन्दिर उन्नत नखपक्तियों से चित्रित ( फोटों से ज्याप्त ) है। इसीप्रकार जिसने नाना प्रकार के शलों के संचालन करने की असहाय योग्यता प्राप्त की है। जिसके भालों के पर्यन्तभाग का मण्डल सूर्य-किरणों के स्पर्श से अत्यन्त प्रदीप्त होरहा था, जिसके फलस्वरूप वह ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-आकाश को आपकी प्रसाररूपी अग्नि से न्यान ही कर रहा है ॥२४॥ हे राजम् ! एक पार्श्वभाग पर ऐसा मिल देश का सैन्य ( फौज ) देखिए, शिर के पर्यन्तभाग में केंची से काटे हुए केशों के कारण जिसके मस्तक के मध्यवर्ती केश आधी मुष्टि से नापे गए थे। जिसका मुखमण्डल अत्यन्त विस्तृत कानों के देशपर झूलते हुए प्रचुर कर्णाभूषण ( सोने की बाली ) की किरणों के अप्रभागों से मनोहर होने के कारण गालों की स्थलियों पर रखे हुए प्रफुल्लित कर्णिकार-( वनचम्पा-वृक्ष विशेष) पुष्पों के वन सरीखा शोभायमान होता था। जो ओष्ठपर्यन्तों, दादियों व जनाओं के अप्रभागों पर वर्तमान वृद्धिंगत रोमों से रोमशाली था। प्रत्येक दिन घर्षण किये हुए [ शुभ्र] दाँतों के प्रकाश से ज्याप्त हुए मुख से शोभायमान होने के फलस्वरूप जिसने अपने यशरूपी [ बीज की उत्पत्ति के लिए क्षेत्र (खेत ) प्रकट किया है, उसके समान सुशोभित होरहा था। जिसकी भुजाओं के अप्रभाग ऐसे इन्तजनों (वाँदों द्वारा किये हुए चिन्हविशेषों ) से भोगे हुए ( सुशोभित ) होरहे थे, जो कि कामदेवरूपी ग्रह के गोलाकार मण्डल सरीखी गोन थाति के धारक थे। जिसका श्याम शरीर निरन्तर क्षरण होनेवाले हरिदा (इस्वी ) रसकी लालिमा से व्याप्त हुआ उमप्रकार शोभायमान होता था जिसप्रकार कमलों की पराग से मिश्रित हुई यमुना नदी की तरङ्गपक्ति शोभायमान होती है। मोरपक्षों के बच्चों कनखलेखा' क 'वल्गनौचित्यं' का । : जयाप्रमागसमलोमशम्' का । I अयं शुबपाठः क० प्रतितः समुलतः । कर्ज पीयूषपभयोरिति विश्वः । मु. प्रसौ तु 'कज पाठः-सम्पादकःA भवप्रियं चन्दनम्' इति पजिलाकारो जिनदेवः-संस्कृत टीका (पु. ४६१ ) से संकलित-सम्पादक १. उत्प्रेक्षालंकार । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूतीय बाधास: स्पामिकासंपादितगगमगादोपलकुष्टिमाछायम् , दरवापाटलफलकान्तिकुटिलकटितटोलासालासकाम, संध्यागर्भविमामताधियसंदर्भनिर्भर मभ इव, देव, इसमेकहोलिकाविलं : ग्रामिसं बलम् । इसरोकाचनकान्तकायपरिकाम् , कोलम्भितकतरीकणयकृपाणप्रासपशिशणासनम् , मासनविशेषवशातिविधुत मितवपुरोमिसकुम्भिनीभागम , भागभागापिसानेकवर्णवसनष्टितोष्णीषम् , मानवधिप्रकारप्रसारसबकधुम्वितशिसम् विजयभीनिवासदनमिषेदं देव, तुरणवेगवर्णनोदोणं यथायथकथामौत्तरपथं यहम् । इतस्य जयालक्ष्मीवोजमुखमण्डलश्यामशरीरप्रमापटा कुवलयितनभःसरोभिन्नवहानासवासारसौरभागमगडपिताश्रेषदिग्विलासिमीबपना कलिकामलानभुजगाशमबहवित्रासिससावित्रस्यन्दनोरगरमभिः पिवमामलापताकावणाकी श्याम कान्ति द्वारा जिसने आकाश में गरुड़मणियों से बनी हुई कृत्रिम भूमि की शोभा उत्पन्न की थी। जिसका इस्त ऐसे कुटिल कमर-गाकरे उल्लासित मान्दिन) करने का मछुन था, जो कि हिंगुलक रस से लाल वर्श हुई ढाल या काष्ठ की पट्टी की कान्ति से व्याप्त था। इसलिए जो ( सैन्य ) संध्याकालीन मेषों के मध्य में संचार करती हुई वकामियों की श्रेणी ( समूह ) से संयुक्त हुए आकाश-सरीखा शोभायमान होरहा था। इसीप्रकार जो अनेक प्रकार की होलिकाओं ( युद्धक्रियाओं अथवा फंदना उछलयाना आदि क्रियाओं) से व्यास था। हे राजन् ! इसीप्रकार एक पार्श्वभाग में उत्तर दिशा के मार्ग से आया हुश्रा ऐसा सैन्य देखिए, जिसका शारीरिक परिकर (आरम्भ ) तपे हुए सुवर्ण-सरीखा मनोहर है। जिसने हस्तों द्वारा छुरी, लोहे का वाण विशेष, स्वग, भाला, और विशेष तीक्ष्ण नौकवाला भाला एवं धनुष उठाया है। जिसने [ पीठ पर ] बैठने के ढक विशेष ( दोनों ओर पड़ी मारते हुए सवार रहना ) के अधीन होने के कारण दौड़ते हुए घोड़ों की टापों से पृथ्वीभाग संचालित किया है। जिसने मध्य-मभ्य में बेष्टित हुए अनेक रंग (सफेद, पीले, हरे, लाल व काले ) याले वनों से अपना केशसमूह बाँधा है। जिसके मस्तक का अमभाग निस्सीम ( बेहद ) भाँति के फूलों के गुच्छों से उसप्रकार चुम्बित-छुआ हुश्रा-है जिसप्रकार विजयलक्ष्मी के निवास का वन अनेक प्रकार के फूलों के गुच्छों से चुम्बित (व्याप्त) होता है एवं जो घोड़ों के बेगपूर्षक संचार की प्रशंसा करने में उत्कट व सत्यवादी है। हे राजन् ! इसीप्रकार एक तरफ यह । प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला ) यमुना नदी के तटवर्ती नगर का ऐसा सैन्य देखिए, जिसने ऐसे हाथियों द्वारा समस्त दिग्मण्डल श्यामलित (श्यामवर्णयुक्त) किया है, जिन्होंने विजयलक्ष्मी के कुंच (स्तन) कज्ञों के मुखमण्डल (चूचुकप्रदेश ) सदृश श्याम शरीर की कान्ति-समूह द्वारा आकाशरूपी ताजाय को कुवलायत (नील कमलों से व्याप्त ) किया है। जिनके [गण्डस्थलों ] से मद । दानजल ) प्रवाहित हो रहा था, जिसके फलस्वरूप उस मदरूपी मद्य की वेगशाली वर्षा संबंधी सुगन्धि की प्राप्ति से जिन्होंने समस्त दिशारूपी स्त्रियों के मुख गण्डूषित (कुरलों से व्याप्त ) किये हैं। जिन्होंने [ अपने ऊपर स्थित हुई ] ध्वजाओं के अग्रभागों पर लगे हुए मोरपंखों द्वारा सूर्य-रथ के सर्प-बन्धन भय में प्राप्त कराये हैं। वायु की सामर्थ्य से कम्पित होते हुए लालसफरतया संध्याश्रम संभ्रान्तायसन्दर्भनिभरं नम इय' ३० । प्राविठं बलम् । * 'मितकुखुर' क. ग. I +ोत्तरापथं बलम्' क ख ग च० । 'पवमामन्यलत्पताका, क । A. उच-स्वादुसल कुवलयमय नीलाम्युजन्म । इन्दीवरं च मीलेऽस्मिन्सिते फुमदकरवे यश. सं. टी.पू. ४६५ से समुद्धृत-सम्पादक Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ यशस्तिक्षकचम्पूत्रव्ये चरितविरोषवामरोपमाः करिवरैस्तमालिताखिलाशावल्यम्, भमवरतचिपिटचर्वणदीर्णतामान बाकफलापारिसपानवृत्तिभिः स्वभावादेशाविकोपमा पराप्रपदीनचोलकरललितसिदैलक्ष्योस्थितपर्यन्सजमदुर्वाविधिभि; प्रकामापामयोग गौराकुलितसकसैनिकम्, विचित्रसूत्रगुम्फिसरफारफरस्कोस्करकथुरितसर्वदाक्षायणीदेशम् , #उरलासकामक्सिी धाराकरमिकरतरङ्गितगगनभागम् , आहरकानुस देश, इदं जलपुरषद क्रियाविशेषास तैरभुक्तं पलम् । इश्चाजानुलम्बमामनिवसनम् , माहिंषविषाण घटितमुष्टिकटारकोस्कटकटीमागम्, मिरम्सरहनदीर्घदेहलोमलापकरितसङ्गीणकटम्, भवस्सियनप्रबन्धप्रवकरातया क्रियानुमेयनाभिरासानयमश्रवणदेशम, उभयांसोत्तम्भिवभूतिभसतया विशिरोनिशाचरानीकभिव, पुरानुष्करपूरलक्ष्यादिपातावित पाटवापहसिसकपरधर्मकर्णार्जुमद्रोणपदभर्गभार्गवम् , ध्वजाओं के प्रान्तभागों द्वारा जिन्होंने श्रीसूर्य की चमरों से पूजन की है, पुनः कैसा है यह सैन्य ? जिसके समस्त सैनिक ऐसे गौड़ देश संबंधी सैनिकों द्वारा किंकर्तव्य-विमूद किये गये हैं, जिनके दाँतों के प्रान्तप्रदेश निरन्तर पृथुकों B (धान्यभ्रष्टयषजी) के भक्षण द्वारा विदीर्ण किये गये हैं, जिनकी मुख वृत्ति सुपारी-भक्षण से रञ्जित हुई है, जिनका मन प्रकृति से ही विशेष क्रोध प्रकट करनेवाला है, जिन्होंने सामने खड़े हुए लोगों के प्रति इसलिए कटुवचनों का उचारण किया था, क्योंकि इन्होंने पैरों के अप्रभागपर्यन्त प्राप्त हुआ चोलक (कूसक-अंगरखा) पहिन रक्खा था, जिसके कारण गमन-भङ्ग होजाने से वैखात्य (निःप्रतिपति-अज्ञानता ) होगया था एवं जिनकी चोटी के केश-समूह विशेष लम्बे हैं, पुनः कैसा है वह सैन्य ? जिसने पँचरंगे तन्तुओं द्वारा गूंथे हुए महान आखेटक (शिकारी वस्तु-जाल-आदि) समूहों द्वारा समस्त आकाश मण्डल को विचित्र वर्णशाली किया है। जिसने उत्थापित (उठाए हुए) खगों (तखबारों) की उछलने फैलनेवाली धारा ( अग्रभाग) की किरण-समूह से आकाश प्रदेश को दरणित ( तरङ्गशाली ) किया है और जो युद्ध करने में अद्वितीय प्रीति रखता हुआ जलयुद्ध करने में बाँधे हुए क्रिया विशेष (कर्तव्य विशेष ) में आसक्त है। इसीप्रकार हे राजन् ! एक पार्श्वभाग में यह 'गुर्जर' देश का ऐसा सैन्य देखिए, घुटनों तक लम्बा वस्त्र धारण करनेवाले जसका कमर-भाग भैंस के सींग से बनी हुई मुष्टिवाली छुरी से उत्कट है। जिसके समस्त शरीर पर अविच्छिन्न, घने व लम्बे शारीरिक रोम-समूह द्वारा कवच रचा गया है। जिसकी दाढी के बाल नीचे भाग पर और तिरछे वाएँ व दाहिने पार्श्वभागों पर घने रूप से वृद्धिंगत हुए थे, इसलिए जिसकी नाभि, नासिका, नेत्र और कानों के प्रदेश सूचना व देखना-आवि क्रियाओं द्वारा अनुमान किये जाते थे। अर्थात-उसकी दादी के बाल नीचे की ओर नाभि प्रदेश तक बढ़ गये थे और तिरछे बाई व दाहिनी ओर नाक नेत्र और कानों के प्रदेश तक बढ़ गए थे, जिससे उसके नाक, व नेवादि प्रत्यक्ष से अधिगोचर न होने के कारण केवल सँधना, देखना ब सुनना-श्रादि क्रियाओं द्वारा अनुमान किये जाते थे। अपने दोनों कँधो पर विशाल भाते बाँध रखने के कारण जो तीन मस्तकों पाले राक्षस-समूह समान शोभामान हो रहा था। जिसने लघुसन्धान (धनुष-आदि पर पाण-श्रादि का S'गूवाक' है। * 'उत्खातखावल्गनबिसारि क ग । * 'घटितमुफटारिकोत्कटकटीभागम्' क. 1 'पारवापदसितवर्मकर्णाजुनद्रोणपदभर्गभार्गवन् क.। A. उक्त' च–'सेनायर्या समवेता ये सैन्यास्ते सैनिकाय ते । ___13, उक्त च-पुकः स्यारिचपिटको धान्यष्टय लियः । * विलकै विस्मयान्विते निरुवसत्यमिति विगत लक्ष्म अस्य वा दिलक्षो निः प्रसिपत्तिः तस्य भावो चैलक्ष्य' टिप्पणी ग । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्राश्वास: २१३ ताधिज्याकावं देव इदं गौर्जरं बलम् । एवमेतान्यपराण्यपि हिमालय मलय मगधमध्यदेशमाहिष्मती पतिप्रभृतीनामवनीपतीनां यानि देवस्य विजया योगमायांगतानि पश्येति बलाधिकृतीनां विज्ञप्तीरशृणत्रम् । शुरोऽर्थशास्त्रनिपुणः कृतशस्त्रकर्मा संभामकेलिचतुरश्चतुरङ्गयुक्तः । भर्तुर्निदेशवरागोऽभिमतः स्वतन्त्र सेनापतिर्नरपतेर्विजयागमाय ॥ २४६ ॥ कदाचित्पुराणपुरुष स्तवनधादिबन्दिवा गुद्याघेषु सर्वसेवाप्रस्तायेषु डण्डिमण्डलाः । कण्टोत्कण्ठकुठारास्ते देवैतादिपत घटाः ॥२४७॥ दूताः कालचोसिंहलशक श्री मारूप वालकैरन्यैश्वाङ्गिङ्गपतिभिः प्रस्थापिताः प्राङ्गणे । सिष्ठस्वास्म कुलागताखिलमहीसारं गृहीत्वा करे Xदेवस्यापि जगत्पतेरवसरः किं विद्यते वा न वा १३२४८ ॥ स्थापन करना ), प्रहार करना आदि और दुःसाध्य ( दुःख से भी सिद्ध करने के अयोग्य ) दरवर्ती लक्ष्य ( भेदने योग्य पदार्थ ) की ओर उबलकर प्राप्त होना इत्यादि में प्राप्त की हुई चतुराई द्वारा कृपाचार्य, कृपधर्माचार्य, कर्ण, अर्जुन, द्रोणाचार्य, द्रुपद - द्रौपदी का पिता भर्गनाम का योद्धा अथवा शुरू और भार्गव को तिरस्कृत - लज्जित किया है एक दिलने हुई मलु ारण किए है। इसी प्रकार हे राजन् ! ये दूसरी हिमालय नरेश, मलयाचलस्यामी, मगधदेश का सम्राट् और अयोध्या के राजा एवं माहिष्मती नामक देश के राजा आदि राजाओं की सेनाएँ जो कि आपकी दिग्विजय यात्रा का उथम श्रवण कर आई हुई हैं, देखिए । राजा का ऐसा सेनापति [ शत्रुओं पर ] विजयश्री प्राप्त करने में समर्थ होता है, जिसने नीतिशाखा में कुशलता प्राप्त करते हुए समस्त प्रकार के आयुधों ( हथियारों ) की संचालन विधि का अभ्यास किया है एवं जो युद्धकोड़ा का विद्वान होते हुए हाथी, घोड़ा, रथ व पैरलरूप चारों प्रकार की सेनाओं से सम्पन्न है तथा स्वामी की आज्ञापालन में तत्पर होता हुआ अपनी सेना का प्रेमपात्र है ॥२४६|| श्रथानन्तर [ हे मारिदत्त महाराज ! ] किसी समय मैंने राजद्वार में सर्व साधारण का प्रवेश न रोकनेवाले ऐसे अवसरों पर, जिनमें यशोर्घराजा - आदि पूर्वज पुरुषों की स्तुति करनेवाले स्तुति पाठकों के वचनों का उत्सव पाया जाता था, महान राजदूतों के निम्न प्रकार वचन श्रवण किए - राजदूतों के वचन दे राजन् ! आपके शत्रुओं की ये ( प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई ) ऐसी श्रेणियाँ वर्तमान हैं, जिनके मण्डल ( पृथिवी भाग) आपकी सेना के प्रचण्ड हाथियों की सूड़ों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये हैं और जिनके कण्ठों पर परशु बँबे हुए हैं ||२४|| हे देव! ऐसे राजदूत, जो कि केरल ( दक्षिण देश का राजा ), चोल ( मञ्जिष्ठा देश का सम्राट् ), सिंहल ( लङ्काद्वीप का स्वामी ), शक (गुराशन देश का सम्राद), श्रीमाल ( श्रीमाल वश्शिकों की उत्पत्तिवाले देश का अधिपति), पश्चालक ( द्रुपद राजा के देश का स्वामी ), इन राजाओं द्वारा एवं दूसरे गौड, गुर्जर आदि देशवर्ती राजाओं द्वारा तथा दूसरे अङ्ग ( चम्पापुर का सम्राट् ), कलिङ्ग ( कोटिशिला देश के दन्तपुर का स्वामी ) तथा बङ्ग । पूर्व समुद्र के तटवर्ती देशों - बंगाल आदि का राजा ) राजाओं द्वारा भेजे गये हैं, अपनी वंशपरम्परा से की आनेवाली समस्त पृथिवियों का धन ( भेंट ) हस्त पर ग्रहण करके आपके महल के आँगन पर स्थित हो रहे हैं, पृथिवीपति x 'देवस्याच जगत्पतेरवसरः क० । १. दीपक माय अलंकार । २. जाति-धरंकार | 'धातु लवृन्दभूभागेषु ! मण्डलाः सं० टी० पृ० ४६९ से संत-सम्पादक ३. अतिशयाॐकार । ४० च Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्तिलकचम्पूकाव्ये अवलगति कलिनाधीश्वरस्त्वां करीन्द्र स्तरगनिवाह एए प्रेपिस: सन्धवैस्ते। अपमपि च समारते पाण्यदेशाधिनाथस्तरहगुलिकहारप्रामु तव्यग्रहस्तः ॥२४॥ काश्मीर: कोरनाया क्षितिप मृगमदेव नेपालपाल: कौशेयः कौशलेन्मः शिशिरमिरिपतिन्धिपगैर दीण। श्रीचन्द्रश्चन्द्रकान्तधिविधलधनैर्मागधः प्रान्सस्स्वां द्रष्टा समास्ते यदिह समुचितं देव तन्मा प्रशाधि ॥२५॥ इति संधिविहिणां गीतीराकर्णामास । वाचति लिखति करते समयति सर्वा लिपीश्च भाषाश्च । आत्मपरस्थितिकुशलः सप्रतिभः संधिविही कार्यः ॥ २५६ ।। आपयों को मिलो : मनराम ||२४८॥ हे राजन् ! कलिङ्ग ( दन्तपुरनगर) का अधिपति श्रेष्ठ हाथियों की भेंटों द्वारा आपकी सेवा कर रहा है और सिन्धुनदी के तटवर्ती देशों के राजाओं द्वारा आपके समीप भेजा हुआ यह सुन्दर जाति के घोड़ों का समूह [ भेंटरूप से स्थित्त हुआ] धर्तमान है एवं पाण्ड्य देश का अधिपति भी, जिसके हस्त तरल (स्थूल-श्रेष्ठ ) मोतियों के हारों का उपहार धारण करने में विरोप आसक्त हैं, आपके सिंह ( श्रेप) द्वार पर स्थित है ॥२४६।। हे राजेन्द्र ! काश्मीर देश का अधिपति केसर का उपहार लिए हुए, यह नेपाल देश का रक्षक कस्तूरी की भेंट ग्रहण किये हुए, कौशलेन्द्र । विनीतापुर का स्वामी ) रेशमी वस्त्रों के उपहार धारण करता हुआ एवं हिमालय का स्वामी उत्कट प्रा-धपर्ण ( सुगन्धि द्रव्यविशेष ) की भेंट धारण किये हार एवं यह कैलाशगिरि का अधिपति चन्द्रकान्त मणियों की भेट लिए हुए तथा मगध देश का राजा नानाप्रकार के वंश परम्परा से चले आनेवाले धन ( भेंट ) ग्रहण किये हुए आपके दर्शनार्थ सिंह द्वार पर स्थित होरहा है, इसलिए हे राजन् ! इस अवसर पर जो उचित कर्तव्य है, उसके पालन करने की आज्ञा दीजिए.२ ॥२५०१ हे राजन् ! आपको ऐसा राजदूत नियुक्त करना चाहिए, जो राजा द्वारा भेजे हुए शासन (लेख) को जैसे का तैसा अथवा विस्तृत र स्पष्ट रूप से बाँचता है, लिखता है, वर्णन करता है, अपने हृदय में स्थित हुप अभिप्राय को दूसरों के हृदय में स्थापित करता हुआ समस्त अठारह प्रकार की लिपियों और भाषाओं को मोड़-आदि देशवती राजाओं के लिए ज्ञापित करता है एवं जो अपने स्वामी की तथा शत्रु की मर्यादा (सनिक व कोशशक्ति के ज्ञान में कुशल है। अर्थात् मेरा स्वामी इतना शक्तिशाली है. और शत्रु इतना शक्तिशाली है, इसके ज्ञान में प्रवीण है एवं जिसकी बुद्धि धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र व कामशास्त्र आदि में चमत्कार उत्पन्न करती है तथा शत्र के साथ सन्धि व युद्ध करने का जिसे पूर्ण अधिकार प्राप्त है। अर्थाजिसके द्वारा निश्चित किये हुए सन्धि य युद्ध को उसका स्वामी यसप्रकार प्रमाण मानता है, जिसप्रकार पाडव-दूत श्रीकृष्ण द्वारा निश्चित किये हुए कौरवों के साथ किये जानेवाले युद्ध को पांडवों ने प्रमाण माना था अथवा श्रीराम के दूत हनुमान द्वारा निश्चित किये हुए रायण के साथ किये जाने वाले युद्ध को श्रीराम ने प्रमाण माना था। भावार्थ-प्रकरण में यशोधर महाराज से कहा गया है कि हे राजन् ! आपको उक्त गुणों से विभूषित राजदूत नियुक्त करना चाहिए। प्रस्तुत यशोधर महाराज के 'हिरण्यगर्भ' नामके राजदूत में उक्त सभी गुण वर्तमान थे। राजदूत की विस्तृत व्याख्या हम श्लोक नं० ११२ में कर चुके है ॥ २५१॥ १. समुच्चयालंकार | A-उतच–'हारमध्ये स्थितं रानं नाय तरल विशुः ।। १, समुच्चयालंकार । ३. दीपकालंकार । ४. समुच्चयालंकार। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतीय श्राश्वासः कदाचित् -- येऽभ्यगा दूरास्ते में दूरास्ते भान्ति चाम्गाः । पथिकजने निसर्गात्तरुवनस्याः नितीश ॥२५॥ __इति न्यायादवखरमालभमानस्थ चिरसेवकसमाजस्य जितन्य इव गर्भगिक प्रनिषकामगरमगर? + स्वैर विहारेगु मम गुरुशुकविशालाक्षापरीक्षिस्पराशरभीमभीष्मभारक्षाशादिप्रणीतनीतिशाय श्रवसना निपथमभजन्त । तपाहि । नृपलामी: ग्बालभोग्या न जानु गुगशालिभिर्महापुरु षैः । मिक्षानं हि नखवृद्धः फलमपरं पुन्दकपडूतेः ॥२५॥ *ये स्लिश्यन्ते नृपत्तिषु तेयु न जायत जातुनिलल मीः। दृष्टिः पुरोऽभिधापत्ति फलामुपदके नितम्बस्नु ।।१५।। समरमरः सुभटानां सानि कर्णजपस्तु भोग्यानि । करिदशमा हव नृपतेाद्याः कशाय वादातस्थाः ॥२६॥ अथानन्तर-हे मारिदत्त महाराज! किसी समय जब में स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति-युक्त स्वच्छन्न विहार कर रहा था तब क्रीड़ा (हास्यादि) मन्त्रियों के ऐसे भण्डवचन मेरे कानों के मार्ग में, जो कि गुरु, शुक, विशालाक्ष, परीक्षित, पराशर, भीम, भीष्म, भारद्वाज-आदि नीतिवेसाओं द्वारा रचे हुग नीतिशास्त्रों के अषण से विभूषित होरहा था, प्राप्त हुए। अर्थात्-मैंने श्रवण किए। कैसे हैं ये क्रीडामन्त्री के भण्ड वधन ? जो कि निम्नलिखित दृष्टान्त से [अति परिचय के कारण अवज्ञा (अनादर) होने के डर से मेरे पास आने का अवसर प्राप्त न करनेवाले पुराने सेवक-समूह के नम्र निवेदनों (प्रार्थनाओं) के समान थे। अर्धान्-जिसप्रकार बहुत दिनों के ऐसे नौकर-समूह की, जो कि अतिपरिचय के कारण अपना अनादर होने के डर से स्वामी के समीप में प्राप्त होने का अवसर प्राप्त नहीं करता, प्रार्थनाओं (नम्र निवेदनो ) में स्वामी का विशेष आदर नहीं होता, उसीप्रकार क्रीड़ा-मन्त्रियों के भण्डषचनों के श्रवण में भी मैंने विशेप आदर नहीं किया था, क्योंकि मेरा कर्ण-मार्ग उक्त नीतिवेत्ताओं के नीतिशासों के श्रवण से सुसंस्कृत व विभूषित था। __ जिसप्रकार रास्तागीरों के लिए स्वभावतः समीपवर्ती वृक्ष दूरवर्ती होजाते हैं और दृरवर्ती वृक्ष निकटवर्ती होजाते हैं उसीप्रकार राजाओं को भी स्वभावत: जो समीपवती नौकर होते हैं, वे दृरक्ती हो हो जाते हैं और दूरवर्ती नौकर समीपवर्ती होजाते हैं। ।। २५२ ।। कीड़ामन्त्रियों के भण्ठयचन-हे राजन! राज्यलक्ष्मी दुर्जनों द्वारा भोगने योग्य होती है, यह कदापि गुणवान महापुरुषों द्वारा भोगने योग्य नहीं होती। यह योग्य ही है। क्योंकि साधुपुरुषों की नख वृद्धि से अपने आसन (पीदा या कंधा) संबंधी खुजली विस्तार के सिवाय दूसरा कोई (कमनीय कामिनी के कुचकलशों का मर्दन-आदि) लोभ नहीं होता १२५३॥ हे राजन् ! राजाओं के निमित्त कष्ट उठानेवालों के लिए कभी भी लक्ष्मी (धनादि विभूति) प्राप्त नहीं होती। उदाहरणार्थ-पुरुषों के नेत्र [कमनीय कामिनी-आदि प्रियवस्तु की ओर दौड़ लगाते है परन्तु उन्हें उसका फल प्राप्त नहीं होता, दौड़ने का फल स्त्री का नितम्ब ( कमर का पिछला उभरा हुआ भाग) भोगता है। भावार्थ-जिसप्रकार कमनीय कामिनी-श्रादि प्रिय वस्तु की ओर शीघ्र गमन करनेवाले नेत्रों को उसका फल ( रतिविलास मुख) प्राप्त नहीं होता उसीप्रकार राजा के हेतु कष्ट उठानेवाले सज्जन पुरुषों को कभी भी लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती किन्तु उनके विपरीत चापलूस व चुगलखोरों के लिए लक्ष्मी प्राप्त होती है। ॥२५४॥ हे राजन् । युद्ध करने की विशेषता शूरवीरों में होती है परन्तु उसके फल (धनादि-लाभ ) चुगलखोरों द्वारा भोगने योग्य होते हैं। राजा के बाह्य ( सुभट-योद्धा) उसे उसप्रकार क्लशित करते हैं जिसप्रकार हाथी के बाह्यदन्त येऽभ्यर्णास्ते पूरा थे दू। ० । + रविहारेषु अमरगुरुकाव्यविशालाक्ष' का ग पिलश्यन्ति' का । refe: पुरो हि धावति' क.। १. स्टान्तालझार । २. दृष्टान्तालङ्कार। ३. दृष्टान्तालंकार । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तितकचम्पाव्ये पुष्पमिव निसादगुणेषु नृपतिः परामुला प्रायः । कोश हवात्मविदारिणि निमिचे संमुखो भवति || समदत्यस्य विदोषो यत्वं नप मनसि विरसतो पश्चात् । पत्युः सरितामारा, सरसत्वं वारिणो न तगावे॥३५॥ इतक्लेशेषु भृत्ये नोपार्षन्ति वे नपाः । सम्मान्तरेऽविकोणा तेषां ते गृहनिराः ॥२८॥ मारिदशामविचारपाछपकलोकप्रकाशितोपनिषत्व परिपत्र। नेमिमेकान्तरान्रायः कृत्वा मानन्तरानरान् । नाभिमात्मानमध्यपणेनेता प्रकृतिमारले ॥ २५ ॥ इत्यत्र विमरम्पार विसनासागर मला चतुर्मूल पष्टिपर्व ये स्थितम् । षट्वं त्रिफल वृक्ष यो आमाति स नीतिवित् ।। २६० ॥ (पाहरी दाँत-सीसें ) उसे क्लेशित करते हैं और अन्तस्य चुगलखोर उसप्रकार खाने में प्रवीण होते हैं जिसप्रवर एबी के अन्तस्थ ( भीतरी दाँत ) उसके खाने में उपयोगी होते हैं। ॥२५५।। राजा प्रायः करके गुलों ( शत्रु-वध करनेवाले योद्धाओं व राज्य-संचालन करनेवाले मन्त्री-आदि अधिकारियों ) से उसप्रकार सभावतः पराङ्मुख ( विमुख नाराज ) रहता है. जिसप्रकार फूलों की माला गुणों ( सन्तुओं) से परामुख ( पीठ देनेवाली ) होती है और वह ( राजा । अपना नाश करनेवाले निखिंश ( निर्दयो) पुरुष से उसप्रकार संमुख (प्रसन) रहता है जिसप्रकार म्यान अपने को काटनेवाले निखिंश (खग-वल्यार ) के संमुख एती है ।।२५६।। राजन् ! जिसकारण से आप पश्चात् घिरसता (अग्रीति व पक्षान्तर में स्वारा) मे प्राप्त होते हैं, इसमें आपके महल (धनादि वैभव से उत्पन्न हुआ बड़प्पन य पक्षान्तर में जलराशि की प्रचुरता) का ही वोष है। उदाहरणार्थ-समुद्र के समीप में वर्तमान नदियों के पानी में सरसता ( मिठास) रहती है, पान्तु समुद्र में मिल जानेपर सरसवा ( मिठास) नहीं रहती ||२५|| जो राजा लोग उन सेषकों का उपकार नहीं करते, जो कि उनके लिए कष्ट उठा चुके हैं, वे [कृतन] राजा लोग दूसरे जन्म में विरोष मी प्राप्त करनेवाले उन नौकरों के गृहसेवक होते हैं ॥२५॥ हे मारिदत्त महाराज ! किसी अवसर पर मैंने अर्थशामों के विचार करने में प्रवीण विद्वानों धारा रहस्य प्रकट कीजानेवाली सभाओं में मण्डल (वैश या प्रकृतिमण्डल ) की रचना संबंधी विचार करने के अवसर पर प्राप्त हुए निमप्रकार अनुष्टुप् सोक का विचार किया _ विजयभी का इम्छुक राजा प्रकृतिमण्डल (आगे श्लोक - २६० में कहे गए शत्रु व मित्र-आदि राजाओं) में धर्वमान एक देश के अन्तर में रहनेवाले या भृतीय देश में स्थित हुए [ मित्रभूत ] राजाओं को और अपने देश के समीपवर्ती राजाभों को अपने राज्यरूपी रथ की नेमि (चक्रधारा ) करके अपने ने उस राज्यरूपी रथ के चक्र (पहिए ) की नाभि ( मध्यभाग) बनावे । अर्थात्-विजिगीषु स्वयं मध्यभाग में स्थित हो और दूसरों की पार्श्वभाग में रक्षा करे ॥२५९।। [इसके बाद मैंने ऐसे निम्नलिखित श्लोक का विचार किया, जो कि समस्त आपाप (परमयपिब-दूसरे देश की प्राप्ति के उद्देश्य से किये जानेवाजे सन्धि व विप्रह-आदि की योजना के विचार) के चरण सभ्यरूप वृक्ष को शाखा, पत्र व पुष्पादि रूप से विमल करने में निमित्त है। ओ पुरुष ऐसा राज्यरूपी वृत जानता है वही नीतिशाख का वेत्ता है, जिसमें शत्रु, विजिगीषु, मध्यम व उदासीन इन चारों को शत्रु व मित्र के साथ संबंधरूप भाठ शालाएँ । अर्थात्अनुभूत राजा का शत्रु व मित्र, विजिगीषु राजा का शत्रु व मित्र, मध्यम राजा का शत्रु व मित्र एवं अपासीन - 'चानन्तरान्नृपान्। ०। १. धन्सालबार । १. शान्तालहार । ३. सालबार । नाति र उपमालबार । ५. सपकार । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवासः ३१७ इममखिलावापभागप्रवृसिहेतुके श्लोक व्यचीचरम् । विना जीवितमस्वस्थे यौषधविधिथा । ता नीतिविहीनस्य वृथा विक्रमवृत्तयः ॥ २६१ ॥ कदाधिकामिनीजनचरणासतकरसरागरक्षितरङ्गसलास नाव्यशालासु राजा का शत्रु व मित्र, इसप्रकार की आठ शाखाएँ पाई जाती हैं। जिस राज्यरूप वृक्ष के साम, दान, दण्ड व भेद ये चार मूल (जड़े) हैं। जो साठ पत्तों से विभूपित है। अर्थात्-१. शत्रुभूत राजा, २. विजिगीषु राजा, ३. अपने मित्रभूत राजा के मित्र के साथ रहनेवाला, ४. शत्रुभूत राजा का मित्र, ५. अपने मित्रभूत राजा के साथ वर्तमान, ६. शत्रमित्र, ७, आक्रन्दक के साथ वर्तमान, ८.६. पाणिग्राह व आसार के साथ वर्तमान राजा, १०. आक्रन्दकों का सार ( फौज) और ११. १२. दोनों म' यस्थ, इन १२ को मन्त्री, राज्य, दुर्ग (किला), कोश व बल इन पाँच के साथ गुण करनेपर १२४५= ६० इसप्रकार जो साठ प्रकार के राजा आदि रूप पत्रों से विभूपित है और जो ( राज्यरूपी वृक्ष) देव ( भाग्य) व पुरुषार्थ (उद्योग) रूपी भूमि पर स्थित है। श्रर्थात्-जो न केवल भाग्य के बल स्थित रह सकता है, और न केवल पुरुषार्थ के बल पर किन्तु दोनों के बल पर स्थित रहता है। अर्थात्-जिसप्रकार आयु और औषधि के प्रयोग द्वार जीवन स्थिर रहता है। इसीप्रकार राज्यरूप वृक्ष भी राजा के भाग्य व पुरुषार्थ के प्रयोग द्वारा स्थिर रहता है इसीप्रकार जिसमें सन्धि, विपह, यान, आसन, संभय व द्वैधीभावरूप छह पुष्प पाये जाते हैं तथा जो स्थान, क्षय व वृद्धिरूप तीन फलों से फलशाली है। भावार्थ-उक्त राज्यरूपी वृक्ष के भेद-प्रभेदों की विस्तृत व्याख्या हम पूर्य में प्रकरणानुसार श्लोक नं. ६७-आदि की व्याख्या में कर चुके हैं॥२६॥ जिसप्रकार आयुष्य (जीवन) के विना योग-पीड़ित पुरुष की चिकित्सा का विधान व्यर्थ होता है उसीप्रकार राजनीति-शान से शून्य हुए पुरुष का पराक्रम करने में प्रवृत्त होना भी व्यर्थ है ॥२६॥ हेमारिइस महाराज! किसी अवसर पर मैंने नाट्यशालाओं में, जिनकी नाट्यभूमि का तल (पृष्टभाग) कमनीय कामिनियों या नृत्यकारिणी वेश्याओं के चरणों पर लगे हुए लाक्षारस की लालिमा से रञ्जित (लालिमा-युक्त) होरहा था, नाट्य प्रारम्भकालीन पूजा के प्रारम्भ में उत्पम हुआ और निप्रकार सरस्वती की स्तुति संबंधी श्लोफरूप गानों से सुशोभित नृत्य ऐसे भरतपुत्रों (नर्तकाचार्यो) के साथ देखा, जो कि ऐसे नर्तकाचायों में शिरोमणि थे, जिनमें 'नाट्यविद्याधर' व 'ताण्डवचण्डीश' नामके नर्तकाचार्य प्रधान थे एवं जो अन्तर्षाणि ( शामवेत्ता ) थे तथा जिनमें नृत्य करने के प्रयोगों की रचना संबंधी नानाप्रकार के अभिनयोंB का शास्त्रज्ञान वर्तमान था। १. रूपकालंकार । २. दृष्टान्तालंकार । A-'असर्वाणिस्तु शास्त्रवित्' यश की सं.टी. कृ. ४५४ से संकलित-सम्पादक B-तथा चोत्तम्-मवेदभिनयोऽवस्थानुकारः स चतुर्विधः । भातिको वाचिकश्चैपमाहार्यः सात्विकता नटरमादिभी रामयुधिष्ठिरादीनामवस्थानुकरणमभिनयः । तथा घोकं भरतमुनिमा-विभावयति यस्माच्च नानाम् हि प्रयोगतः। पासाङ्गोपात्रसंयुकस्तस्मादभिनयो म ____ साहित्यदर्पण की संस्कृत टीका से संकलित- सम्पादक अभिप्राय यह है कि नायभूमि में नट द्वारा जो राम व युधिधिर-आदि नायकों के साधर्म्य का वेष भूषा-आदि Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये भाललोचनचाद भूनि विकटं यया जटामण्डलं बालेन्दुः श्रवणावतंसविषय: क्रीडाः सरःसंभवाः । काय: केदगर्भसुभगः स्थानं सिते चाम्बुजे सा वः पातु सरस्वती स्मितमुखध्या की वर्णावष्टिः ॥ २६२ ॥ एक ध्यानपरिप्रप्रणयिनं हस्तं द्वितीयं पुनर्जीवनिवेशिताक्षत्रलयं पुस्तप्रणस्तं परम् । विभ्राणा वर तुरीयमुचिता देवी विष्ठांक स्तुतेः पुष्याः विशालतावलयितं संकल्पकल्पमम् ॥ ३६३ ।। कूल बनस्यन्दशीला सितसरसिजलोटा हारभूषास्तराला । + नमदमरनिरीटा प्रसरवप्रसर्वशिकरण कुसुमकीर्णा वर्णिनी वोऽस्तु भृत्यै ॥ २६४ ॥ वस वदनपIनिवाससी विद्याधरश्रवणमण्डनरवरेखा | वासमानसविभूषणहारयष्टिदेवता नृपतयातनुतां हितानि ॥ २६१ ॥ सरस्वती स्तुतिगान - ऐसी वह सरस्वती देवी आप लोगों की रक्षा करे, जो तृतीय नेत्र से मनोहर ललाट पट्ट-युक्त, मस्तक पर लगे हुए उन्नत केश-पारा से अलङ्कृत, तथा द्वितीया अथवा प्रतिपदा के चन्द्रमा के कर्णपूर से विभूषित है। जिसकी कीड़ाएँ तालाबों में उत्पन्न हुई हैं । अर्थात् जो तालाबों में स्नानआदि क्रीड़ाएँ करती है। जिसका सुन्दर शरीर केतकी पुष्प के मध्यभाग की तरह मनोहर है एवं जो श्वेत कमलों में निवास करती है तथा जिसको अक्षर पङ्क्ति कुछ खिले हुए - मुसकाए हुए- मुख में फैली हुई है' ||२६|| ऐसी सरस्वती परमेश्वरी आप लोगों के कवितारूपी लता से वेष्टित हुए मनोवाञ्छित रूप कल्पवृक्ष की वृद्धि करे । अर्थात् - मनचाही वस्तु प्रदान करें, जो अपना एक उपरितन वाम हस्त ध्यान के स्वीकार करने में स्नेह युक्त कर रही है । अर्थात् बाँए हाथ के अँगूठे व वर्जनी अंगुलि से स्फटिक मणियों की माला धारण कर रही है। जो ऊपर के दूसरे दक्षिण हस्त को क्रीडापूर्वक अङ्गुष्ठ पर स्थापित क्रिये हुए अर्ककान्त मणियों की जपमाला धारण कर रही है। जो नीचे के दूसरे वाम हस्त को पुस्तक से प्रशंसनीय बनाती हुई धारण किये हुए है। जो चौथा हाथ ( नीचे का दूसरा दक्षिण हाथ ) वरदान देनेवाला धारण कर रही है एवं जो तीन लोक में स्थित हुए भक्त इन्द्रादि देवताओं द्वारा की जानेवाली स्तुति के योग्य है* || २६३ || ऐसी अक्षरशालिनी सरस्वती परमेश्वरी आप लोगों के ऐश्वर्य- निमित्त होवे, जो उज्वल पट्ट ( रेशमी ) वस्त्र धारण करनेवाला, तरल चन्दन के चरण करने की प्रकृति-युक्त, देव पूजा निमित्त श्वेत कमलों को आकाङ्क्षा करनेवाली, मोतियों की मालाओं से अपर्यन्त - विशेष विभूषित - है एवं जो नमस्कार करते हुए इन्द्रादि देवों के मुकुटों ? पर जड़े हुए प्राचीन रत्नों की फैलती हुई किरणों की कान्तिरूपी पुष्पों से व्याप्त है " || २६४ || दे राजन् ! ऐसी सरस्वती देवी आपके लिए मनोवाञ्छित वस्तुएँ उत्पन्न करे, ओ देवताओं के मुखकमलों में निवास करने के लिए अर्थात् — जिसप्रकार राजहँसी कमलों में द्वारा अनुकरण किया जाता है— अनुकरण करके नाटक उसके चार भेद हैं-- १. आशिक, २. वाचिक, २. १. आह्निक-नाटक में, जिसमें अभिनय मूल है, नट अपने शिर हाथ, वक्षःस्थल, पार्श्व, कमर, पैर, नेत्र, भ्रुकुटि ओष्ठ, गाल आदि भोपात्रों द्वारा राम आदि नायकों की अवस्था ( साधर्म्म) का अनुकरण करता है. उसे 'आशिक' अभिनय कहते हैं । २. वाचिक — वचनों द्वारा नायक की अवस्था का अनुकरण करना। ३. आहार्य - वेष-भूषा द्वारा नायक के साम्य का अनुकरण करना । ४. सात्विक रज व तमो शून्य मानसिक शुद्ध अवस्था द्वारा नायक अवस्था का प्रायः सभी नाटकों में उक्त अभिनय प्रधान कारण है— सम्पादक अनुकरण करना । राजहँसी है । देखनेवालों को बोध आहार्य व ४. कराया जाता है उसे 'अभिनय' कहते हैं । सात्विक । + 'स्मितमिथ' क० । * 'स्तुता' क० । x 'कवितालतोलयिनं ऋ० । + 'नमदमर किरीटार क० । I 'निनावहंसी' क० 1 १. समुच्चयालंकार । २. दीपकालंकार । ३. अतिशयानंकार | - Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वास: संध्या प्रतिवासरं विष्टतिर्यद्वा प्रमाणाञ्जलि योगस्त्रापमुपेश्य दुग्धजलधौ शेषाश्रितः श्रीपतिः । शंभुष्ययति चाक्षसूत्रवलयं कृत्वा करेऽनन्यधीदेवि त्वद्वयमिदं सर्वार्थकामप्रदम् ॥ २६६ ॥ भावेन दुहि रसेन इरिभिर्नृ न कामारिभि* सिजनैर्नभश्वरगणैर्वृच्या प्रवृत्या सुरैः । सिद्ध्या चारणमण्डलैर्मुनिकुलैरस्वं देवि सप्तस्वरैरातीथेन च नन्दिभिः कृतनुतिर्गानेन गन्धर्विभिः ॥ ३३७ ॥ नानावर्थो न तचितं न ताश्चेष्टाः शरीरिणाम् । पदझ्याङ्कितं देवा यह सुनत्रये ॥ २६८ ॥ ३१९ निवास करती है उसीप्रकार सरस्वतीरूपी राजहंसी भी देवताओं के मुखकमलों में निवास करती है। जो विद्याधरों के कानों को विभूषित करने के लिए माणिक्य- पक्ति है। अर्थात जिसप्रकार माणिक्य श्रेणीकरण होती हुई कानों को अलङ्कृत करती है उसीप्रकार सरस्वती देवीरूपी माणिक्यश्रेणी भी विद्याधरों के कार्नो को विभूषित करती है एवं भूमिगोघरी मानवों के हृदय को अलङ्कृत करने के लिए मोतियों की माला है । अर्थात् जिसप्रकार मोतियों की माला पहनी हुई वक्षःस्थल को सुशोभित करती है उसीप्रकार सरस्वती देवीरूपी मोतियों की माला भी भूमिगोचरी मानवों के हृदय को सुशोभित करती है ' ||२६५|| हे देवी सरस्वती ! ब्रह्मा एकाग्रचित्त हुआ प्रत्येक दिन तीनों (प्रातःकालीन, मध्याह्नकालीन व सायंकालीन ) संध्याओं में प्रमाणाञ्जलि ( हस्तपुट-बन्धन संबंधी प्रधान अजलि ) बाँधकर ध्यान निद्रा को प्राप्त होकर समस्त धन व काम ( स्त्री संभोग ) को देनेवाले तेरे चरण कमलों के युगल का ध्यान करता है एवं श्रीनारायण एकाप्रचित्त होकर प्रत्येक दिन तीनों संध्याओं में क्षीरसमुद्र में नागशय्या पर आरूढ़ हुए समस्त धन व काम को देनेवाले तेरे चरणकमल-युगल ध्यान करते हैं तथा श्रीमहादेव एकाग्रचित्त हुए रुद्राक्षों की माला ( जपमाला) हस्त पर धारण करके तेरे चरण कमल के युगल का, जो कि समस्त धन व स्त्री संभोग रूप काम को देने वाले हैं, ध्यान करते हैं " || २६६ || सरस्वती देवी! तू ब्रह्मा व ब्रह्मानाम के कविविशेषों द्वारा ४६ प्रकार के भावसमूह से, नारायणों व कंविविशेषों द्वारा शृङ्गारश्रादि रसों से, रुद्रों और कचि वशेषों द्वारा नृत्य ( शिर, भ्रुकुटि, नेत्र व श्रीवा-आदि सर्वानों के संचालन रूप नृत्यविशेष ) से आकाशगामी देवविशेष-समूह द्वारा अ सिद्धनाम के कवि समूहों द्वारा प्रवृत्ति से, सुरों (देवों ) श्रीर सुरनाम के कविविशेषों द्वारा प्रवृत्ति से य 'आकाशगामी चारणसमुद्दों द्वारा मानसिक, वावनिक व देवसिद्धिपूर्वक वर्णन करनेयोग्य हो एवं मुनिकुल ( ज्ञानी समृद्द ) व मुनिकुल नाम के कविविशेषों द्वारा सप्तस्वरों (१. निषाद, २. ऋषभ, ३. गान्धार, ४. पड्ज, ५. धैवत, ६. मध्यम व ७ पंचम इन बीणा के कण्ठ से उत्पन्न हुए सात स्वरों) से स्तुति की जाती हो। इसीप्रकार रुद्रगणों द्वारा अथवा कविविशेषों द्वारा तू श्रतोध ( तत, वितत, धन व सुषिर नाम के चार प्रकार के बाजे विशेष ) से स्तुति की जाती हो एवं नारद-आदि ऋषियों द्वारा अथवा कविविशेषों द्वारा गानपूर्वक स्तुति की गई हो || २६७ || ऐसी कोई जीवादि वस्तु नहीं है और वह मन भी नहीं है एवं वे जगत्प्रसिद्ध प्राणियों की चेष्टाएँ भी नहीं हैं, जो कि तीनों लोकों में सरस्वती परमेश्वरी के स्यात्. ( अनेकान्त ) लक्षणवाले चरण कमलों के युगल से चिह्नित नहीं है । अर्थात्-तीन लोक के सभी जीवादि पदार्थ व प्राणियों के चित्त एवं चेष्टाएँ आदि सभी वस्तुएँ सरस्वती परमेश्वरी के स्यात् ( अनेकान्त ) लक्षण युक्त चरणकमल-युगल से चिह्नित पाए जाते हैं। क्योंकि सरस्वती परमेश्वरी ( द्वादशाङ्ग वज्ञान) द्वारा संसार के सभी पदार्थ जाने जाते हैं ||२६|| • ii 'प्रणाम । लियोग०१ ५.०२ * 'धर्मा सिद्धजनैर्नभश्वर क० १. रूपकालंकार । २. समुच्चय, दीपक, रूपक व अतिशयालंकार । ३. दीपक व समुच्च मालंकार । ४. अतिशयालंकार | Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० यशस्विकपम्पचय मानससरोविमिर्गतसितसरसिकास्थितेः सरस्वत्याः । वरवर्णकीकान्तिः पुष्पाजरिस्त गाना ॥ ३५॥ इति पूर्वराबायकमप्रवृत्तं सरस्वतीस्कृतिसं नुसं नात्यविद्याधरसाण्डवचण्डीशपमुख्नसंकशिरोमणिभिरन्तर्वाणिमिः प्रयोगमीविचित्राभिनयत नर्भरतपुत्र सत्रावलोकपामास । आसाथ लक्ष्मी भुतिरष्टिमा म सन्ति मेर्णा भरतप्रयोगा: पामियं श्रीतकाङ्गशोभासमानपत्ति निर्यिका ॥७० कदापिनुदातिसरस्वतीरहस्यमुद्राकरणरेषु महाकविकाम्यकथाकापु प्रमाणापमहोत्सवपौरुषल्य लक्ष्मीः स्वयंवरविधी विहिवारा पार । पिन न तत्वगत्रयरक्षणस्म कीर्तिप्रिया भ्रमति यसव सम्मु चित्रम् ॥ १॥ हरगिस्यन्ति महीधाः शोरोस्पयन्ति वार्धयः सर्वे । सब देव परासि विसरचि सोपम्ति गन्ति च त्रीणि ।। २.१॥ मानसरोवर में विकसित हुए श्वेत कमल में निवास करनेवाली सरस्वती देवी की नाट्य भूमि पर होनेवाली पूजा के निमित्त मनोहर श्वेत-पीतादि वर्गों से व्याप्त हुई कान्तिवाली पुष्पालि समर्पित हो ॥२६६|| जो धनाध्य पुरुष अथवा राजा लोग लक्ष्मी (धन) प्राप्त करके गीत, नृत्य व धादित्रों के सबाहरण अपने कर्णगोचर व नेत्रगोचर नहीं करते, उनकी लक्ष्मी मुर्दे के शरीर की शोमा ( फूलों की मालाओं, चन्दन लेप व आभूषणों से अलकृत-सुशोभित करना ) सरीखी व व्यर्थ है। अर्थात्-जीवों के बाजों के मधुर शब्दों को करेंगोचर न करनेवाले ( न सुननेवाले ) और नृत्य न देखनेवाले धनान्य पुरुषों की लक्ष्मी उसप्रकार व्यर्थ है जिसप्रकार मुर्दे के शरीर को पुष्पमालाओं, पन्दनलेप व आभूषणों से अलस्कृत करके सुशोभित करना व्यर्थ होता है ॥२०॥ किसी समय मैंने ऐसे महाकवियों की काव्यकथा के अवसरों पर, जिनमें सरस्वती संबंधी रहस्य (गोप्यतस्य) के चिलुवाला पिटारा प्रकाशित किया गया था, ऐसे 'पण्डित तामि' नामके कवि का, जो कि अवसर के बिना जाने निमप्रकार काव्यों का उपहारण कर रहा था व जिसके फलस्वरूप अपमानित किया गया मा पर्ष जो निमप्रकार महाम् कष्टपूर्वक कटु वचन स्पष्टरूप से कह रहा था (अपनी प्रशंसा कर रहा था), विशेष अहसार (मद ) रूप पर्वत का भार निमप्रकार श्लोक के अर्थ संबंधी प्रश्न का उत्तर-प्रदानरूप इस्त द्वारा उताप। अर्थात्-उसका महान मद चूर-चूर किया । 'पण्डित वैतडिक' नामके कार के काव्य हे राजम् ! ब्रह्माण्ड (लोक) के विवाहमण्डप (परिणयन शाला) संबंधी महोत्सष में घर होने की योग्यवावाले आपकी लक्ष्मी, जो स्वयं आकर के आपका वरण ( स्वीकार ) करने में आदर करनेवाली है, इसमें आर्य नहीं है, परन्तु जो तीनलोक की रक्षा करनेवाले आपको कीर्तिसपी प्यारी सी सर्वत्र घुम रही है, षही आश्चर्य जनक है ||२७|| हे राजन् ! जब आपकी [ शुभ] कीर्ति समस्त लोक में फैली हुई है व उसके फलस्वरूप [ समस्त ] पर्वत, कैलाशपर्वत के समान आचरण करते हैं-उज्वल होरे । और लवण समुद्र-आदि सभी समुद्र क्षीरसागर के समान आचरण करते हैं। अर्थात्-शुभ्र होरहे हैं एवं तीनों लोक सुधा से धवलित ( उज्यल ) हुए आचरण कर रहे हैं ॥२७२।। सावं सत्रा समं सह' इत्यमरकोशप्रामाण्यादयं पाठोऽस्माभिः संशोधितः परिवर्तितध, मु. प्रतौ तु समिति खविम्बः पाठः-सम्पादकः । 1, सपकालंकार । २, उपमालंधर। ३, हेतु अलंकार । ४. कियोपमालंकाए । ५, केप माहेपालकार। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृजीय काश्वासः ३२१९ गिरिषु धृता भूमिभूतः पृथ्वीभारा निजभुजे निहितः । को नाम बलेन नृप स्वया समः सांप्रतं भुवने ॥ २७३ ॥ इति प्रस्तावमविज्ञाय पटतः कृतामलक्ष्य पण्डितकस्य कवेः सकल कविलो कथाका प्रमर्दनः स्वात एव भुवनेऽस्मिन् । कथमिद संप्रति भवता समागतो नावबुद्धम् ॥ २७४ ॥ कथंचिकट्वदं वदतः त्रिमूलकं द्विवोत्थानं पखं चतुरदम् । योऽगं चेति नवच्छायं दशभूमि स काव्यकृत् ॥ २७६ ॥ हे राजन् ! संसार में इस समय आपके समान शक्तिशाली कौन है ? अपि तु कोई नहीं । क्योंकि आपने भूमिभृतों (पर्वतों अथवा राजाओं) को पर्वतों पर स्थापित किया । अर्थात् शत्रुभूत राजाओं को युद्ध में परास्त करके पर्वतों की ओर भगा दिया एवं आपने पृथ्वी- भार अपने दक्षिण हस्त पर स्थापित किया है' || २७३॥ उक्त पण्डित 'चैवण्डिक' नाम के कवि द्वारा की गई आत्मप्रशंसा हे राजन् ! इस विद्वत्परिषत् में इस समय प्राप्त हुए मुझे, जो कि इस पृथ्वीमण्डल में प्रसिद्ध होता [ अपनी अनोखी सार्वभौम विद्वत्ता द्वारा ] समस्त कबिलोगों के समूह को चूर्ण करनेवाला हूँ ( उनका मानमर्दन करनेवाला हूँ), आपने किसप्रकार नहीं जाना ? अपितु अवश्य जाना होगा * ||२७|| उक्त कवि के प्रश्न (निम्न त्रिमूलक- आदि श्लोक का क्या अर्थ है ? ) का यशोधर महाराज द्वारा दिया गया उत्तर- जो पुरुष ऐसे काव्यरूपी वृक्ष को जानता है वही कवि है, जो (काव्यरूपी वृक्ष ) त्रिमूलक है। अर्थात् जो प्रतिभा ( नवीन नवीन तर्कणा - शालिनी विशिष्ट बुद्धि ), व्युत्पत्ति एवं भृशोत्पत्तिदभ्यास ( काव्यकला - जनक काव्यशास्त्र का अभ्यास ) इन तीन मूलों (जड़ों-उत्पादक कारणों) वाला है। जो शब्द ( रसात्मक वाक्य ) और अर्थ इन दोनों से उत्पन्न हुआ है। जो काव्यरूपी वृक्ष प्रचुरा, प्रौढा, पषा, ललिता व भद्रा इन पाँच वृत्ति (शृङ्गार भावि रसों को सूचित करनेवाली काव्यरचना के आश्रित ) रूपी शाखाओं से विभूषित है। जो काव्यरूपी वृक्ष पावाली, लाटीया, गोणी या वैदर्भी इन चार रीतियों रूपों पत्तों से सुशोभित है" । 7' इति च किंचित्' क० । १. श्लेष व आपालंकार । २. उपमा व रूपकालंकार । ३. तथा घोकम् - प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिश्व विभूषणं । भृशोत्पतिकृदभ्यास इश्यायक विसंकथा ॥ १ ॥ ग० प्रति से संकलित - सम्पादक ४. अर्थात् — जो काव्यरूप वृक्ष ऐसे शब्द व अर्थ से उत्पन्न हुआ है, जो कि काव्य के शरीररूप हैं और जिनमें श्रृङ्गार आदि रस ही जीवनस्थापक है। वह ( वाक्य - पदसमूह ) का लक्षण – योग्यता, खाकाक्षा व आसयुग पदसमूह को 'वाक्य' कहते है । १. योग्यता - पदों के द्वारा कहे जानेवाले पदार्थों के परस्पर संबंध में बाधा उपस्थित न होने को 'योग्यता' कहते हैं। उदाहरणार्थ – 'जल से सींचता है यहाँ पर जल द्वारा वृक्षादि के सिंचन में बाधा उपस्थित न होने के कारण वाक्य है। जब कि 'अग्नि द्वारा सोचता है इन दोनों पदों के पदार्थों में भाषा उपस्थित होती है, क्योंकि अग्नि के द्वारा सींचा जाना प्रत्यक्षप्रमाण से बात है, अतः यह वाक्य नहीं हो सकता । २. आकांक्षा - 'इस पद का किसी दूसरे पद के साथ संबंध है इसप्रकार दूसरे पद के सुनने की इच्छा में हेतुभूत बुद्धि को 'आकांक्षा' कहते हैं । अर्थात् एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ के साथ अन्य जानने की इच्छा जवतक पूर्ण नहीं होती संगतक उसको जिज्ञासा बनी रहती है, इसलिए आकांक्षा युक्त पदसमूह की वाक्य कहा जाता है। यदि आकांक्षा-शून्य पत्रसमूह को वाक्य माना जाये तो गाय, घोड़ा, पुरुष व हाथी इस आकांक्षा शून्य पदसमूह को वाक्य मानना पड़ेगा । ३. सति — बुद्धि का विच्छेद ( नाश ) न होना उसे को स्मरणशक्तिरूप बुद्धि का विच्छेद – कालादि द्वारा व्यवधान 'सति' कहते हैं । अर्थात् होने की आसति कहते हैं। पूर्व में सुने हुए परों अभिप्राय है कि ४१ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ यशस्तिलफचम्पूकान्ये इसीप्रकार जो ( काव्यरूप वृक्ष ) शृङ्गार, वीर, करुण, हास्य, अद्भुत, भयानक, रौद्र, वीभत्स व शान्त इन नौ रसरूपी छाया से सुशोभित है। विश्वनाथ' कविराज ने रस का लक्षण कहा है कि आलम्बन व उद्दीपनभाव रूप विभाव (शृङ्गार-श्रादि रसों के रति-श्रादि स्थायीभावों को नायक नायिका मादि आलम्बनभाव व नेत्र संचार-आदि उद्दीपन भाव द्वारा आस्वाद-योग्यता में प्राप्त करनेवाला), अनुभाव (पासनारूप से स्थित रहनेवाले रति-आदि स्थायीभाषों को स्तम्भ व स्वेद-आदि कार्यरूप में परिणमन करानेवाला) और सवारीभाव { सर्वात व्यापक रूप से कार्य उत्पन्न करने में अनुकूल रहनेवालेसहकारी कारणों ) द्वारा व्यक्त किये जानेवाले शृङ्गार-आदि रसों के रति-आदि स्थायीभाव सहृदय पुरुषों के लिए रसता को प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ-( शृङ्गार रस में ) महाकवि कालिदास के शकुन्तला नाटक के दर्शकों के चित्त में शकुन्तला-आदि आलम्बनभावों और उपवन-आदि देश तथा बसन्तऋतु-आदि कालरूप उद्दीपन भावों एवं भ्रुकुटि संचालन, हाव भाव व विलास-आदि कार्यों एवं चिन्ता-आदि सहकारी कारणों द्वारा अभिव्यक्त (प्रकट) होनेवाले पूर्व में वासनारूप से वर्तमान हुए रति-श्रादि स्थायीभाव को ही रस समझना चाहिए । उक्त रस के नौ भेद है-१. शृङ्गार, २. वीर, ३. करुण, ४. हास्य, ५. अद्भुत, ६ भयानक, ५. रौद्र, ८. बीभत्स और ६. शान्त। जिस पदार्थ को जिस पदार्थ के साथ संबंध की अपेक्षा है उसके साथ उसका व्यवधान-रहित सम्बन्ध को आसत्ति कहते हैं। षतः यदि बुद्धि-विच्छेद-स्मृतिध्वंसशाली-पद-समूह को वाक्य माना जाये तो इस समय उच्चारण किये हुए 'देवदत्त' पद की स्मृति का ध्वंस होने पर दूसरे दिन कहे हुए गच्छति पद के साथ संगति होनी चाहिए। निष्कर्ष यह है कि उस योग्यता, आकांक्षा व भासतियुक्त पद-समह को वाक्य कहते हैं। उदाहरणार्थ-प्रस्तत शास्त्र का एक श्लोक वाक्य है. क्योंकि उसमें नाना पद पाये जाते हैं और पूरे शास्त्र के श्लोक-आदि को महावाक्य कहा जाता है। शब्दों द्वारा अर्थप्रतीति के विषय में धीमाणिक्यनन्दि आचार्य लिखते हैं 'सहजयोग्यतासचेतवशादि शम्दादयो यस्तुप्रतिपत्तिहेतवः' शब्दादि स्वाभाविक वाच्यवाचकशक्ति व शख्मिह-आदि के वश से अर्थप्रतीति में कारण होते हैं। इसौत्रकार पदार्थ भी वाच्य, लक्ष्य छ व्याप के भेद से तीन प्रकार का है। इसप्रकार काव्यक्ष उक्त लक्षणाले रसात्मक वाक्यों व अधों से उत्पन होता है । ५. विश्वनाथ कविराज ने रीति का लक्षण-आदि निर्देश करते हुए कहा है कि जिस प्रकार नेत्र-आदि शारीरिक भवयों की रचना शारीरिक विशेषता उत्पन्न करती हुई उसके अन्तर्यामी आत्मा में भी विशेषता स्थापित करती है उसीप्रकार माधुर्य, मोज प प्रसाद-आदि दश गुणों को अभिव्यक्त करनेवाले पदों की रचनारूप 'रीति' भी शब्द व अर्थ शारीरथाले काव्य में अतिशय ( विशेषता) उत्पन्न करती हुई काव्य को स्मात्मारूप रसादि में भी अतिशय स्थापित करती है, उसके चार भेद है। ९. वैदी, २. गोडी, ३. पाश्वाली और लाटिका । १. वैदी-माधुर्य गुण को प्रकट करनेवाले वर्णी ( ट, ठ, ड, ड, आदि अक्षरों से शून्य अक्षरों) द्वारा उत्पन्न हुई, ललित वर्ण व पदों के विन्यासवाली, समास-रहित या वरुप सभासदाली पदरचना को 'वैदर्भी' कहते है। २, गोडी-ओजगुणप्रकाशक व Eru उत्पम होनेवाली. लम्बी समासवाली, उद्भट व अनुप्रास-युक्त पदरचना को 'गौडी' कहते हैं। ३. पाश्चाली—जिसप्रकार वैदी व गंडी रीति क्रमशः माधुर्य व मोगुण के अभिव्यजक अक्षरों से उत्पन्न होती है, उससे भिन्नस्वरूपवाली ( प्रसादमात्र गुण के प्रकाशक वर्गों से उत्पन्न हुई) व समास-युक्त एवं पांच या छह पदोबाली पदरचना को 'पावाली' कहते हैं। ४. लाटी-बैदी व पाश्चाली रीति के मध्य में स्थित रहनेवाली पदरचना को 'लाटी' कहते हैं। अर्थात्-मिस पदरचना में वैदी व पाचाली के लक्षण वर्तमान हों, उसे 'लाटीरीति' समझनी चाहिए। 'साहित्यदर्पण ( नवमपरिच्छेद ) से संकलित--सम्पादक १. सथा व विश्वनाथकविराज :-बिभावेनानुभावेन व्यक्तः सम्बारिणा तथा । रसत्तामेति रस्यादिः स्मायोभायः स्चेतसाम् ॥ १ ॥ साहित्यदर्पण से समुभूत--सम्पादक Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्राश्वासः ३२३ I १. शृङ्गाररस - जो काम ( संभोगेच्छा ) को जागृद व स्मृत करने में कारण हो और जो उत्तम प्रकृतिवाले नायक-नायिका ( राम व सीता आदि ) रूप श्रालम्बन भावों से प्रकट होता है, उसे शृङ्गाररस' कहते हैं । २. वीररस- जो उत्तम नायक से विभूषित हुआ उत्साहरूप स्थायीभाव वाला है, उसे 'वीररस' कहते हैं । ३. करुणरस - इष्ट वस्तु ( पुत्र व धनादि) के नाश से तथा अनिष्ट वस्तु के योग से प्रकट होने वाले शोक स्थायीभाववाले रस को 'करुणरस' कहते हैं । ४. हास्यरस - दृष्टिगोचर हुए. या निरूपण किए हुए ऐसे कौतूहल से, जिसमें विपरीत शारीरिक आकृति, विकृत भाषण व वस्त्रादि से कीहुई नैपथ्य ( वेष ) रचना और दस्त आदि का संचालन आदि पाया जाता है, हास्य उत्पन्न होता है एवं जिसका हास्य स्थायीभाव है, उसे 'हास्य रस' कहते हैं । ५. अद्भुतरस — लोक- विलक्षण आश्चर्यजनक वस्तुओं के सेवाले मात्र का अद्भुतरस कहते हैं, जिसका आश्चर्य स्थायीभाव है । ६. भयानकरस - भयोत्पादक सिंह व सर्प आदि को देखकर प्रकट होने वाले रस को 'भयानकरस' कहते हैं, जिसका भय स्थायीभाव है। ७. रौद्ररस - शत्रुरूप आलम्बन से प्रकट होनेवाले एवं शत्रुकृत शस्त्रप्रहाररूप व्यापार से उहीपित होनेवाले रस को 'रौद्ररस' कहते हैं, शत्रु के प्रति प्रकट किया हुआ क्रोध ही जिसमें स्थायीभाव है । 5. बीभत्सरस- दुर्गन्धित मांस व मेदा आदि वस्तुओं तथा श्मशानभूमि आदि घृणास्पद स्थानों के देखने से प्रकट होनेवाले भाव को 'बीभत्सरस' कहते हैं, जिसका स्थायीभाव घृणा है । ६. शान्तरस - राम (शान्ति) ही जिसका स्थायीभाव है एवं जो सांसारिक पदार्थों की क्षणभङ्गुरता के निश्चय के कारण समस्त वस्तुओं की निस्सारता का निश्चय अथवा ईश्वरतत्व का अनुभवरूप आलम्बन से प्रकट होता है, उसे 'शान्तरस' कहते हैं । इसीप्रकार जो काव्यरूपी वृक्ष औदार्य, समता, कान्ति, अर्थव्यक्ति, प्रसन्नता, समाधि, श्लेष, भोज, माधुर्य व सुकुमारता इन वश काव्य-गुणरूपी पृथिवी पर स्थित होता हुआ शोभायमान हो रहा है । विशेषार्थ - वाग्भट्ट' कवि ने कहा है कि 'काव्य संबंधी शब्द व अर्थ दोनों निर्दोष होने पर भी गुणों के विना प्रशस्त ( उत्तम ) नहीं कहे जाते' । वन काव्य गुणों के उक्त दश भेद हैं १ - श्रदार्य – अर्थ की मनोज्ञता उत्पन्न करनेवाले दूसरे शब्दों से मिले हुए शब्दों का काव्य में स्थापित करना 'श्रदार्य' है । उदाहरणार्थ — श्रीनेमिनाथ भगवान् ने ऐसे राज्य को, जिसके राजमहल गन्ध (सर्वोत्तम अथवा मदोन्मत्त ) हाथियों से शोभायमान हो रहे थे और जिसमें लक्ष्मी के लोला ( क्रीड़ा ) कमल के समान छत्र सुशोभित होरहा था, छोड़कर 'रैवतक' नामके क्रीड़ा पर्वत पर चिरकाल तक तपश्चर्या की । विश्लेषण - इस श्लोक में इम (हाथी), धम्बुज ( कमल) और गिरि (पर्वत) ये तीनों शब्द जब कमशः ग्रन्त्र, लोला और कीड़ा इन विशेषणपदों से अलङ्कृत किये जाते हैं तभी उनके अर्थ में मनोशता उत्पन्न होती है, क्योंकि केवल इभ, अम्बुज व गिरि पदों में बैंसी शोभा नहीं पाई जाती, यही 'औदार्य' गुण है, क्योंकि इस श्लोक के शब्द दूसरे - मनोज्ञ अर्थ के प्रदर्शक शब्दों १. तथा च वागभङ्कः कवि : अदोषावपि शब्दार्थों प्रशस्येते न येना । औदार्यं समता कान्तिरर्धव्यतिः प्रसन्नता । समाधिः श्लेव भोजोऽथ माधुर्य सुकुमारता ॥ १ ॥ २. तथा च वाग्भः कषि : पदानामर्थं चारुत्वप्रत्यायकपदान्तरैः । मिलितानां यदाधानं तदौदार्य स्मृतं सथा ॥१॥ ३. गम्भवित्राजितधाम लक्ष्मीलीलाम्बुजच्छत्रमपास्य राज्यम् । क्रीडागिरी रैवतके तपांसि श्रीनेमिनाथोऽत्र चिरं फार ॥१॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરક यशस्तिनकचम्पूकाव्ये * इत्यस्यायनानुनावनाशयशनायेखर्वगर्वपर्वतभारमनारुरुहम् । राजनशेष विषयातिशयपसूतो गेषां महाकविकृतौ न मनीषितानि । तेषां भृती च सनां च मनत्र मन्ये वारदेवताविहितशामिनेश्वराणाम् ॥ २७६ ॥ दाचिनियतवृत्ति वर्गपइपोगानुबशुद्ध मिश्रितापभागाप्रकाशितप्रतिभेषु पण्डितप्रकाण्डमण्डलीमण्डनाढम्बरसे मिलए गये है। २. ३. समता । कान्ति-- रचना कुमारता लान समता' है और उसमें निर्मलदा त्मना ‘कान्ति है। ५. अर्थव्यक्ति, जहाँपर उन उन शब्दों की सत्ता से साक्षात् अर्थ का प्रतिपादन होता है और बलात्कार पूर्वक अर्थज्ञान न होकर सुखपूर्वक अर्धज्ञान होता है। ५. प्रसत्ति३ (प्रसाद) जिस काय के ललित शब्दों द्वारा शीघ्र ही अर्व की प्रतीति होती है, वह 'प्रसाद' गुण है। ६. समाधि - जहाँपर दूसरे पदार्थ का गुग दूसरे पदार्थ में आरोपित-स्थापित किया जाता है, उसे 'समाधि' गुण समझना चाहिए। -दलेप व ओजगुण-जिस काव्य के शब्द पृथक-पृथक होते हुए भी एक श्रेणी में हुए के समान परस्पर मिले हुए होते हैं, वह 'श्लेषगुण है एवं जहाँपर समास की अधिकता होती है, उसे 'मोगुण समझना चाहिए परन्तु यह ( समास की बहुलता ) गद्यकाव्य में विशेष मनोज्ञ प्रतीत होता है। ९-१०-माधुर्य व सौकुमार्च गुण-जहाँपर शब्द और अर्थ दोनों रस-सहित हों अथवा जहॉपर सरस अर्थवाले शब्द वर्तमान हो, उसे 'माधुर्यगुण कहते हैं एवं जहाँपर. निष्ठुर ( कठोर ) शब्द न हों उसे सोकमार्यशुम' कहा है। प्राकरणिक अभिप्राय-यशोधर महाराज ने उक्त कविद्वारा पूँछे हुए लोक का उत्तर देते हुए कहा कि जो ऐसे काव्यरूप वृक्ष को जानता है, वही कवि हे" ॥२७५॥ अथानन्तर कोई महाकवि यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! जो राजा जोग महाकवियों के काव्यशाखों का, जिनमें समस्त विश्चों ( काव्य-गुण, दोष, शृङ्गार आदि रस तथा सुभाषिततत्वों) की विशेषरूप से उत्पत्ति पाई जाती है, श्रबण व पठनादि का मतारथ (मला) नहीं करते. उनके दोनों कान, जिला व मन ऐसे मालूम पड़ते है-मानों-वाणी की अधिष्ठात्री देवता (बृहस्पति ) द्वारा दिया हुआ शाप ही है ॥२७६।। अधानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! किसी अवसर पर मैंने प्रशस्त विन्मण्यन में आभरणप्राय शब्द-विस्तारपूर्वक किये हुए पचन-उपन्यास के प्रारम्भी (पावविवादों) में, जिनमें मर्यादित समास, 'इत्यस्यार्यकयनानुनयनाशयशयेन' घः । १. पन्धस्य यदवेरम्ब ममता सोच्यते बुधैः। यदु बलवं तस्यैव सा कान्तिरदिता यथा ॥१॥ २-३ तथा च वाग्भट्टः कवि :-यदशेयत्वमर्मस्य सार्थमक्तिः स्मृमा यथा । मटित्यपिकावं मत्प्रसत्तिः सोच्यते पुषैः । ४-५ तथा व सभः -म समाधियन्यस्य गुणोऽन्यत्र निबेश्यने । इलेपो यत्र पदानि स्युः स्यूतानीत्र परस्परं । ६. ओजः समासभूयस्त्वं तद्गयेष्याते मुन्दरम् ॥ . वणच वाग्मकाये -परसार्थपदत्वं मत्तन्माधुर्यमुदाहृतम् । अनिष्टाक्षराव यस्सौकुमार्यमिव मया ॥१॥ 4. समुच्चयालंकार । ९. उस्प्रेक्षालंकार । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाश्चास: ३२५ मोफसंरम्भेषु बिनजे मनिकपिलकाचरचाकशास्यप्रगीतमाणसंवीणतया विषिणीनां परिषदां वितभिसिवात्मयश:प्रशस्तीरुल्लिन। मशालारहित पसि पथा शौर्यपरिमहः । तधोपन्यासहीनस्य तथा शास्त्रपरिग्रहः ॥ २७ ॥ स्फुरन्स्पपि मनःसिन्धौ शाबरवान्यनेकशः । वीगुणविही गनि भषयन्ति न सन्मनः ॥ २७८ ॥ विमानां स्फुरितं प्रीत्यै स्त्रीगां लाण्यादिः । अन्तर्भवत् पा मावा कि विद्यारितीन्द्रियः ॥ २७१ ॥ श्रीमान्निधेः प्रसादेन यः सत्य न कृताइ । अरण्य कमानीव नोरस्तिस्य संपदः ॥ २४ ॥ भासंसारं यशः का चतुर्वर्ग तु वेदितुम् । येषु वाञ्छास्ति ते भूपाः कुर्वन्ति कविसंमहम् ॥ २८१ ॥ कदाचिदनाथासप्रवृत्तरधचरगमिषु करित्रिनयभूमिः शन व पदों के लचारणों में गूंधी हुई शुद्ध ( केवल ) व परस्पर में मिली हुई सभी प्रकार की भाषाओं ( संस्कृत, प्राकृत, सूरसनी, मागधा, पैशाची और अपभ्रश-आदि) द्वारा विद्वानों की प्रतिभा ( नवीन नवं.न बुद्धि का चमत्कार ) प्रकट की गई है. विशिष्ट विद्वानों से सुशोभित हुए सार्कक विन्मण्डलों की चिचरूपी भित्तियों पर अपना यश को प्रशस्ति (प्रसिद्ध ) उल्लिखित की (उकारी), क्योंकि मैंने जैन, मीमांसक, सांख्य, वंशोषक अथवा गीतम-दर्शन, चार्वाक ( नास्तक-दर्शन ) और बुद्ध दर्शन इन छहों दर्शनों में मरे हुए प्रमागों में निपुणता प्राप्त की थी। क्योंकि जिसप्रकार खड़-मादि हथियारों से होन हुए शूर पुरुष की शूरता ( बहादुरी ) निरर्थक है इसीप्रकार व्याख्यान देने की कला से रहित हुए विद्वान घुरुष की अनेक शास्त्रों के अभ्यास से प्राप्त हुई निपुणता भी निरर्थक है Rs5|| विद्वानों के मनरूपा समुद्र में अनेक शास्त्ररूप रत्न प्रकाशमान होते हुए भी यदि व्याख्यान देने की कला से राहत है, तो वे सजनों के चित्त को विभूषित नहीं कर सकते ||२८|| जिसप्रकार त्रियों का बाहरी लावण्य ( सोन्दर्य) कामी पुरुषों को प्रसन्न करता है वसीप्रकार विद्वानों का विद्या का बाहिरी चमत्कार ( वक्तृत्वकला-आदि ) सज्जनों को प्रसन्न करता है। भले ही उन विद्वानों में विद्याओं का भीतरी प्रकाश ( गम्भीर अनुभव ) हो अथवा न भी हो, क्योंकि चक्षुरादि इन्द्रियों के अगोचर सूक्ष्मतत्व के विचारों से क्या लाभ अपि तु कोई लाभ नहीं २७९|| जो धन्मय पुरुष पुण्योदय से प्राप्त हुइ लक्ष्मा से विभूषित हुआ विद्वानों व सजनों का सत्कार नहीं करता, उसकी धनादि सम्पत्तियाँ उसप्रकार निष्फल है जिसप्रकार बन के पुष्प निष्फल होते हैं। ।।२८०।। जिन राजाओं की इच्छा अपनी कीति को संसार पर्यन्त व्याप्त करने की है और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के स्वरूप को जानने की है, वे राजा लोग वियों का संग्रह ( स्वीकार ) करते हैं ।।२८।। अयाचन्दर हे मारिदत्त महाराज ! किसी अवसर पर निम्नप्रकार पाठ पढ़ने में तत्पर हुए तथा स्वयं वाँसयष्टि प्रहण करते हुए मैंने गज-( हस्ती ) शिक्षा भूमियों पर, जहॉपर रथ-चक्रधाराएँ सुखपूर्वक संचलित होरही थीं, हाथियों के लिए निम्न प्रकार शिक्षा दी + 'यशस्नु' कः । * 'कुर्वन्नु बुधसं प्रहम्' का। . १. टान्नालंकार। एकालंकार। ३. उपमा २ आक्षेपालंकार । ४. उपमालंकार । ५. जातिनम्बार । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये समं गास्तिठ प्रतिहर कर निराहत शिरः पुझोनम्य स्वहिजमनाः स्वर्षय मुन्न । सतः कल्याणाङ्ग श्रवणयुगल वर्षय गावे यावन्मात्राशतमिदमहं वर्णविधये ॥ २८ ॥ एकमशेष क्रियासौष्ठव, प्रतिक्षाधिष्ठानायां शुभस्थापनायाम् । स्थिरस्थित समस्ताङ्गसंगर्भ, शिक्षावेक्षणाक्षुण्णान्त:करणगर्भ, मरीचिमतगमगशर्माविमहामुमिसमानीतदर्शिताबलोकितगृहीतध्यातनिश्चिताकपालादितिसुतप्रसूतिपूसान्तरालादुपासितुभाषातगणपतिविलोकनम्नहितमयनेन तद्वदनानुरूपवपुःसंपादनसमाहितदयेन सिमसामान्यभिगायता पितामहेन विहितसकलसवातिशायिदेव, त्रिलोचनाच्युसविरिञ्चिविरोचन चन्द्रचित्रभानुप्रभृतिभिर्देवताभिः सबहुविस्मयमुदीरितपरस्परस्वागताभिरधिष्ठितोदारशरीरगेड, निखिलापरप्राणिगणावार्यत्रीय, दिविजकुजकुशवनपासशौर्य, विजदेवगन्धर्वयामहीक्षिताअन्यतमसमपद, क्षोणीशमहामात्रकुलकल्याणपरम्पराफशावरद, हिरव, हे हल, दिव्यसामज, मात्राश विष्ट तिष्छ । हे पुत्र गज ! अपने शारीरिक अप्रभागों से अच्छी तरह स्थित होते हुए छिद्र-हीन सैंड़ संकुचित ( वेष्टित ) करो। हे पुत्र ! मस्तक ऊँचा करके सावधान चित्त होते हुए मुख में सूंद प्रविष्ट करो। तत्पश्चात् माङ्गलिक लक्षण-युक्त शरीरशाली हे गजेन्द्र ! दोनों कर्ण हर्षपूर्वक संचालित करो। मैं ( यशोधर महाराज ) तुम्हारी स्तुति-विधान के अवसर पर यह कहता हूँ कि तुम चिरञ्जीवी होश्रो ॥२८२।। स्थिति के अध्यासन से अलङ्कत ( तुम्हारे दीर्घजीवी रहने की कामनावाली) इस माङ्गलिक स्तुति-स्थापना के अवसर पर सूंड-संचालन-आदि समस्त चेष्टाओं में समीचीनता रखनेवाले हे गजेन्द्र ! तुम चिरकाल तक जीवित रहो। निश्चलरूप से स्थित समस्त शारीरिक अङ्गों के मध्यभागवाले और शिक्षा (विनय ) के देखने से परिपूर्ण मानसिक मध्यभाग-युक्त हे गजराज ! तुम दीर्घकाल तक जीवित रहो। हे गज! समस्त प्राणियों की अपेक्षा अतिशयशाली तुम्हारा शरीर ऐसे ब्रह्मा द्वारा, जिसने अपने दोनों नेत्र सेवार्थ आए हुए गणेशजी के देखने में प्रेरित किये है, और जिसने अपना हृदय गणपति के मुखसरीखी तुम्हारी शरीररचना में सावधान किया है एवं जो सामवेद के सात पाक्यों का मन्दरूप से गानकर रहा है, ऐसे विशेषण-युक्त ब्रह्माण्ड के अर्धभाग से रचा गया है, जो (ब्रह्माण्ड का अर्धभाग) मरीचि, मता व मृगशर्मा आदि महर्षियों द्वारा ब्रह्मा के सम्मुख लाया गया, दिखाया गया, देखा गया, जिसके परिणामस्वरूप उसके द्वारा स्वीकार किया गया व चितवन एवं निश्चित किया गया है और जिसका मध्यभाग सूर्य की उत्पत्ति होने से पवित्र है, ऐसे हे गजराज! तुम बहुत समय तक जीवित रहो । इसप्रकारी जिसका अत्यन्त मनोश या विशेष उन्नत शरीररूपी मन्दिर अत्यन्त आश्चर्यपूर्वक परस्पर में स्वागत ( विशेष सन्मान) प्रकट करनेवाले श्रीमहादेव, श्रीनारायण, ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र व अग्नि-आदि देवताओं द्वारा अधिष्ठित (निवास-युक्त ) किया गया है और जिसकी शक्ति समस्त प्राणिगरमों ( सहस्रमट, लक्षभट व कोटिभट-आदि शूरवीर पुरुषों) धारा नहीं रोकी जासक्ती, अर्थात-जो अनोखी शक्ति से अलकत है एवं जो कल्पवृक्षों के लतापिहित प्रदेशों पर होनेवाले वनपात-जैसी शूरता रखनेवाला है तथा जो परशुराम-आदि ब्राझण, इन्द्र-आदि देवता, गन्धर्व, कुबेर-श्रादि यन, भीम व भीष्म-आदि राजालोग इनमें से किसी एक के साहस का स्थान है। अर्थात् जो इनमें से किसी एक के साहस से अधिष्ठित है और जो महान् राजाओं के महावतों के घंश की कल्याण-परम्परा का उत्कृष्ट फल देनेवाला है, ऐसे हे गजेन्द्र ! हे मित्र ! हे अलौकिक गजेन्द्र ! तुम चिरकाल तक जीवित रहो । • 'क्रियाशौर्यका। 'समसासंदर्भ' क०। * 'सप्तसामपदान्यभिगा यता' कः । १. जाति-अलंकार । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः ३२४ गास्तिष्ठ समैः पुरोनखसमं हस्तं निधेहि क्षितौ दृष्टिं देहि करामतः स्थिरमनाः कर्णी गजाश्लेश्य । वालं धाश्य वत्स यावदचिरान्मौन्यामहं कल्पो मात्राणां शतमास्व तावदचिप्लस्त्वं योगिकल्पातः ॥ २८३ ॥ एवं स्थापनायां यथास्थान गावापरकरनयनश्रवणवालदेशनिवेशेषु कुशल, समसमाहितनिःस्पन्दसर्वदेशपेशल, समुन्मिपत्र्वजन्माभ्यस्त्रक्रियाकलाएनैपुण्य, दमकलोकोपदिश्यमानविनयग्रहणप्रवण, निष्पन्नयोगीवावगणितोपान्ताहितफान्तयस्सुजात, महामुनिरिव रुचिरेसराहाराम्यवहरणसुप्रसनस्तान्त, प्रातिशीन इवावधीरितोभयगन्धसंबन्ध, दिव्यचक्षुरित्रावितर्कित. विकृतप्राकृतसामाजिकसामामिकालंकारकलितसमस्तसत्त्वप्रबन्ध, सन्नश्रीन हव मृदङ्गानकशक्ष्वेलितकालादिकोलाहलाविपलब्धयोध, तिमिरिचोपामर्शनाषक्षोदनतोदनादिमाधासंबाधक्षान्तशरीरसौध, अतिनिभृतसमस्ताङ्गतया महामहीधर इव शैलाटनितीघटितवेष्टितावसर इच, छपविनिर्मितायतार इव, मेदिनीमध्यानिरूढ इव च प्ररूढजनमनोविकल्प, हिप हे हे हल, हे गजेन्द्र ! जब तक मैं ( यशोधर महाराज ) अल्प समय तक तेरी स्तुति-सम्बन्धी स्थापना पढ़ रहा हूँ तब तक स्थिरचित्त हुए तुम समान । ऊँचे नीचे राहत ) शारीरिक अङ्गों से स्थित होओ, अग्रनख-जैसी पृथ्वी पर स्थापित करो, सूंड के अग्रभाग ( अङ्गलि ) पर अपनी दृष्टि लगाओ, अपने दोनों कान निश्चल करो एवं हे पुत्र ! पूछ संचालित मत करो (निश्चल करो) तथा ध्यानस्थ मुनि-सी आकृतिवाले तुम निश्चल होते हुए बहुत काल तक स्थित ( जीवित ) रहो' ||२८३॥ इसप्रकार स्तुति-स्थापना के अवसर पर शारीरिक अङ्ग (पाद-आदि ) सथा दूसरे सैंड, नेत्र, कर्ण और पूंछ-देश के स्थानों में यथास्थान कुशल ( प्रवीण ), सम ( सीधे ) रूप से स्थापित व निश्चल शारीरिक अवयवों से सुन्दर एवं उत्पन्न होरहे पूर्वजन्माभ्यस्त क्रिया-समूह में निपुण तथा शिक्षक लोगों ( महावत-आदि) द्वारा उपदेश दीजानेवाली शिक्षा (विनय । के स्वीकार करने में प्रवीण ऐसे हे गजराज ! तुम चिरकाल पर्यन्त जीवित रहो। इसीप्रकार जिसने समीप में स्थापित हुए अत्यन्त मनोहर स्त्री-आदि पस्तु-समूहों को उसपकार तिरस्कृत किया है, जिसप्रकार पूर्ण ध्यान में स्थित हुमा ऋषि समीपवर्ती अत्यन्त मनोहर वस्तु-समूहों को तिरस्कृत करता है। जिसका मन मनोज्ञ व अमनोज्ञ आहार के आस्वादन करने में उसप्रकार निर्मल है जिसप्रकार दिगम्बर आचार्य का मन मनोज्ञ व अमनोज आहार के आस्वादन करने में निर्मल होता है। जिसने सुगन्धि व दुर्गन्धि इन दोनों का संयोग उसमकार तिरस्कृत किया है जिसप्रकार विकृत कफवाला मानव सुगन्धि व दुर्गन्धि का संयोग तिरस्कृत करता है। जिसने विकृत ( रोगी और घृण के योग्य पुरुष), नीचलोक, सामाजिक ( सेवकगण ), शस्त्रधारक पीरपुरुष और आभूषणों से अलङ्कृत पुरुष इन समस्त प्राणियों का संबंध उसप्रकार तिरस्कृत किया है जिसप्रकार अन्धापुरुष उक्त विकृत प नीच लोग-आवि समस्त प्राणियों का संबंध तिरस्कृत करता है। जिसका ज्ञान मृदा, नगाड़ा शह सिंहनाद और काल ( भेरी विशेष )-श्रादि वाजों के कलकल शब्दों द्वारा उसप्रकार स्खलित । नष्ट) नहीं किया गया जिसप्रकार बहिरे मानव का ज्ञान उक्त मुदङ्ग-आदिबाजों के कलकन शब्दों द्वारा नष्ट नहीं होता। जिसका शरीररूपी महल स्पर्थ (ट्रना ) पाइसंघट्ट व अङ्कशादि. पीडन-इत्यादि की बाधा ( दुःख) की पीड़ा सहन करने में उसप्रकार सहनशील है जिसप्रकार महामग्छ का स्थूल व पुष्ट शरीररूपी मल उक्त स्पशे-आदि के कष्टों को पीड़ा सहन करने में सहनशील होता है। इसीप्रकार अत्यन्त निश्चल शरीर के कारण जो ऐसा प्रतीत होता है-मानों-सुमेरु पर्वत ही है। अथवा जो ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-पवेत के अग्रभाग की तटी के लोहमयो टङ्क (कुदाली-आदि) से घड़ी हुई वस्तु की अवस्था ( वशा) का अवसर ही है। अथया जो ऐसा जान पड़ता है-मानों-गीली १. जाति या उपमालंकार । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तितक्यम्पूकाव्ये सिाम, माना विलिन । समं लिया गारहितवपुः सूणितशिस + मुखं स्वप्योङ्ग स्वं भुतियुगमिवं पुर्वय गज । उरस्तो निर्गव स्थितमिव कर्मधारय पुरः अल्कोलं वालं विहितसमवस्थापनविधिः । २८५ ॥ पवमुरोविनिर्मातरः प्रोत्कगिता हस्ततया प्रहटका - वाराहीमाकृतिमानीतनिवदेवृत्त, गतिसकुशलोपमिल्मालम्पादिमावहितवित, शबापस्पैन्द्रसेवकौबेरवारुणकौमारयाम्पसौम्यवायच्याग्नेयवैष्णवाधिभगसूर्यदेवतेषु परिषु अन्यतमसंवन्धिलमणोपेत. प्रशिक्षण जसामेक्समायासमेत, अष्टादशक्रियाधार, सत्कर्मनिष्णाततया विवित, चतुरस्त्रीकृत शान्तदान्तयोधविनीतसर्वशादिनामप्रकार, महाररूप्रचण्ड, सकलसपनोरःपुरकपाटस्फोटनाशनिदण्ड, परचकप्रमईनकर, गजवन्धराधीशविधुवान्धवधुर, सिन्धुर, हे हे हल, दिव्यसामज, मात्रामा ति तिष्ठ । मिट्टी के पलास्तर से किये हुए अवतारवाला ही है एवं जो ऐसा प्रतीत होता है-मानों-पृथिवी के मध्यभाग से ही प्रकट हुआ है। इसीप्रकार लोगों के मानसिक अभिप्रायों ( उत्प्रेशाओं-कल्पनाओं) को प्रकट करनेवाले हे गजेन्द्र ! हे हे मित्र ! हे अलौकिक गजेन्द्र ! तुम चिरकाल तक जीवित रहो। हे गजेन्द्र ! तुम अपने शारीरिक अङ्गों ( पाप-आदि ) से सम (ऊँचे-नीचे रहित ) पूर्वक उठकर निश्चल शरीरशाली च उन्नत मस्तकबाले होते हुए मुस्त्र में प्रविष्ट करके ( आधी सैंड मुख में घुसेहकर ) प्रत्यक्ष-प्रतीत कर्णयुगल संचालित करो एवं वराहाकार-जैसी की हुई स्थापना-विधिवाले तुम अपनी सैंड, जो कि हृदय से निकलकर ठी हुई-सी प्रतीत होरही है, सामने अप्रभूमि पर स्थापित करे और पूँछ को ऊपर हिलनेवाली करो ( हिलाओ । पा२८। इसीप्रकार अनास्थल से निकली हुई व अग्रभाग में वक्र ( के कारण तथा संचालित कर्णयालका अपनी शारीरिक प्रवृत्ति को जंगली शूकर सी आकृति-धारक, गजशास्त्र में विचक्षण (विद्वान ) पायों द्वारा शिक्षा दिये जानेवाले दम्य ( काबू में लाना-वश में करना )-आदि कर्तव्यों से सावधान चित्तथाले. ब्रह्मा. इन्द्र. रुद्र, कुवेर. वरूण, कुमार, यम, सोम, वायु, अग्नि, विष्णु, अश्विन, भग और सूर्य न देवताओंवाले होने के कारण प्राज्ञापत्य, ऐन्द्र, रौद्र, कौवेर, वारुण, कौमार, याम्य, सौम्य, पायथ्य, भाग्नेय व वैष्णव-आदि नामवाले हाथियों में से किसी एक हाथी के लक्षणों से अलस, पृथिवी, जर व अनि में से किसी एक पदार्थ की दाप्ति से संयुक्त, अठारह प्रकार की क्रियाओं (तीनप्रकार का दाम्य, सात प्रकार का साना और आठ प्रकार का उपवाह्यकर्मरूप व्यापारों) के आधार, उन-उन कर्तव्यों में प्रवीन होने के कारण विस्यान, चतुरस्त्रीकृता (परिडत ), क्षमावान्, जितेन्द्रिय, योधा ( सहस्त्रभट, लज्ञभट च कोटीभट शूरवीरों का विध्वंसक ), शिक्षाग्राहक, व सर्वज्ञ-आदि भिन्न २ नामोवाले, विशेष शक्तिशाली होने के कारण अत्यन्त कोधी, समस्त शहृदयों को और नगर के [विशाल ] दरवाजों के किवाड़ों को चूर-चूर करने के लिए श्मपात के समान, शत्रु-सेनाओं को घूर-चूर करनेवाले और ऐसे राजाओं के, जिनके हाथो ही बन्धु ( उपकारक ) , संकट पड़ने के अवसर पर उपकारक बन्धु का भार वाहक ऐसे हे गजेन्द्र ! हे हे मित्र ! हे अलौकिक गजेन्द्र ! तुम दीर्घकाल पर्यन्त जीवित रहो। + 'मुखं मूड त्वं' ६० । :. उसना । उसे क्षालङ्कार । २. उपमालंकार । * इच-दाम्य विविधमिच्दन्ति सांना सप्तधा स्मृतम् । स्यादथ्योपधाव घेत्येवमष्टादश कियाः ॥१॥ + उ च-'चतुरलीकृतच पण्डितः। 1 उर्फ च- बोधस्व सहस्रभट-लक्षभट-कोटीभट विध्वंसकः' सं० टी० (पृ. ४८८ ) से संकलित-सम्पादक Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृतीय आश्वासः ३२६ मात्राणां समां कह प्रतिहर स्त्रं हस्तमुचैःशिराः स्वास्ये अतिबालहर्पणपरः पश्चानिरीक्षार्धतः । वंशं निम्नय निर्भुजोरसि ततः प्रोस्कुरलनेत्रद्वयः सिंहस्थापनया युतो भव करिवस्पिरसुसिहोपमः ॥ २८५ ॥ एवमुपस्थापनाशमुपात्तवपुश्चण्डिमाउम्परतया ठाद्गृहीतकरिकलाकारणवेरिकाठीरवाकार, उस्पतिमहा. महीधरप्रतिमतया संपादितोपकण्ठसस्वसाध्यसावसार, समस्तसपत्नप्रसनकामतयेव विस्फारितमहाभयानकल्यवसापकाय, सकलभूताभिभाविना बराचस्तैजापांशजातजनितेन वलवालवश्वानस्करालमूर्तिना मदपुरुषेणाधिष्ठितवया द्विगुणीभूत- . भीमसाहसनिकाय, अनेकशः कानमेदिनीपु नवरदविदारितारातिकरितुरगरवतरीचरनरनिकरकीलाललिकृतमहायोगिनी. बलिविधान, अयाजाश्चर्थशौर्यप्रीसया वीरनिया स्वयमेव घिहितादितलोहितपन्याकुलप्रपज्ञाधान, निरन्तरमविचारितमाचरिखमृगायितैः शत्रुभिधिरं खिलीभूतामरपुरमार्गता ज्वलनासारचुम्नच्युतचितप्रसत्तीनामप्सरसा देवादावभीवायरस हे गजेन्द्र ! उमतमस्तक-शाली तुम कान और पूंछ को कम्पित करने में तत्पर होते हुए पहिले मुख में अपनी सूंड़ घुसेड़कर अपने शारीरिक अङ्गों की समता ( ऊँचे-नीचे की विषमता से हित ) करो, संकुचित करो और पीछे के भाग से श्राधे बैठो एवं पीठ का मध्यभाग नीचा करो। पश्चात् अपने दोनों नेत्र प्रफुल्लित करते हुए हदय को आगे करो। हे गजराज ! तुम सिंहस्थापना से युक्त होजाओ-सिंहरूप से स्थित होओ और [आक्रमण करने के अवसर पर ] अपने पंजों को बांधनेवाले सिंह-जैसे होजाओ' ||२८॥ हे गजेन्द्र ! इसप्रकार सिंहाकार से प्रतिष्ठापना--स्थापना-के अवसर पर तुम्हारे द्वारा विस्तृत शारीरिक प्रचण्डता ग्रहण कीगई है, इसलिए तुमने ऐसे सिंह की आकृति बलात्कारपूर्वक ग्रहण की है, जो हाथियों के झुण्डों का निष्कारण शत्रु है। हे गजराज ! तुम उत्पतनशील विशाल पर्वत-सरीखे हो, अत: तुम्हारे द्वारा समोपवर्ती प्राणियों को भयङ्कर आकार प्राप्त किया गया है। हे गजश्रेष्ठ ! ऐसा मालूम पड़ता. है कि समस्त शत्रुभूत हाथियों के भक्षण करने की कामना से ही मानों-तुम्हारे द्वारा अपना अत्यन्त भयानक व उद्यमशाली शरीर विशाल किया गया है। हे गजोत्तम ! तुम ऐसे मदपुरुष ( राक्षस ) से अधिष्ठित हो, अर्थात्-ऐसा प्रतीत होता है-मानों-तुम्हारे वृहत् शरीर में ऐसा राक्षस प्रविष्ट हुआ है, जो समस्त प्राणी-समूह या व्यन्तरदेवों को पराजित करनेवाला है और जो जगत् के तेजोमय भाग-समूह से उत्पन्न हुआ है एवं जिसका शरीर उसप्रकार रौद्र (भयानक) है जिसप्रकार प्रदीप्त होती हुई ज्वालाओं पाली बाग्नि रौद्र ( भयानक) होती है, इसकारण से ही तुम्हारा भयानक साहस-समूह (अद्भुत कमसमूह-करता-आदि) द्विगुणित (दुगुना) होगया है। गज! तुम्हारे द्वारा अनेकवार संग्रामममियों पर नलों व दन्तों ( खीसों) द्वारा चूर्ण किये हुए शत्रुओं के हाथी, घोड़े, रथ और नीका पर स्थित हुए योद्धा पुरुषों के समूहों की रुधिर-क्रीड़ा से महायोगिनियों (विद्यादेवताओं) की पूजाविधि कीगई है। गज! तुम्हारा पाँच अङ्गलप्रमाण स्थासक ( शरीर को सुगन्धित करनेवाला पदार्थ ) तुम्हारी निकपट अदभुत शूरखा से प्रसन्न हुई बीरलक्ष्मी द्वारा स्वयं ही शत्रु-रुधिर से विस्तृत किया गया है। निरन्तर बिना बिचारे भागे हुए शत्रों द्वारा स्वर्ग का मार्ग चिरकाल तक अजड़ ( देवों से शून्य) होगया था। अर्थात-युद्ध छोड़कर भागे हुए शत्रुओं ने स्वर्ग में प्राप्त होकर देवताओं को भगा दिया था, जिसके फलस्वरूप स्वर्ग का मार्ग (स्थान) ऊजड़ होचुका था, जिसके कारण देषियों के चित्त की प्रसन्नता विशेषरूप से प्रदीप्त होनेवाली कामदेवरूपी अग्नि के अङ्गार-चुम्बन ( स्पर्श) से नष्ट होचुकी थी, पश्चात उनके भाग्योदय से ऐसे योद्धाओं से, जो संग्रामभूमियों पर निडर होकर आए हुए, वाद में विध्वंस किये जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए तत्पश्चात् देवियों के साथ मिलने के कारण उनके द्वारा मैथुन क्रीड़ा में भोगे १. उपमालंकार । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० यशस्तिलकचम्पूकाम्ये हतपरेवसंगतरमितसुभट्पसूतसुरतसुखसुधासारवयापर्जन्य, दुधजन्य, निवासर्जनशयकाळे, मिजावनीधरधरणिरक्षणक्षमप्रतापासराल, निजविजिगीषुविजपवरप्रदानोदितोदित, निजपराक्रमगर्वस्वविवारपरदर्पपर्वत, निजनाथवरूथिमीरक्षणपरिछस्प्राकार, कुअरकुलसार, हेलविल्यसामग, मात्रामा विश्व तिष्ठ इति पाठपरायणः स्वयमेव गृहीतषेणुवारजाग्विनिम्ये। विमीता गणा येषां तेषां ते मुप केवलम् । क्वेषायार्थविनाशाय रणे चात्मवधाय च ॥ २८६ ॥ पस्य जीवधन यावरस तावस्स्वयमीक्षताम् । अन्यथानादिवेगुण्यात्तनुःखे पापभाग्भवेत् ॥ २८७ ।। गए थे, उत्पन्न हुए रविविलास की सुखरूप अमृत-वृष्टि की बेगपूर्ण वर्षा करने में हे गज ! तुम वर्षाऋतु के मेघ हो। हे गजेन्द्र ! तुम्हारे साथ किया हुआ युद्ध (गजयुद्ध) महान् कष्टपूर्वक जीता जाता है। अभिप्राय यह है कि हस्तियुद्ध पर विजयश्री प्रान करने में शूरवीरों को महान् कष्ट उठाने पड़ते हैं। हे गज ! तुम अपनी राजधानी के शत्रुओं को नष्ट करने के लिए प्रलयकाल हो और ऐसे प्रताप से, जो कि अपने राजा की पृथिवी की रक्षा करने में समर्थ है, पूर्ण व्याप्त हो एवं विजयश्री के इच्छुक अपने स्वामी के हेतु विजयश्रीरूप अभिलषित वस्तु को देने में विशेष उन्नतिशील हो। इसीप्रकार हे गज ! तुमने अपनी विशिष्ट शक्ति के अहकार द्वारा दुर्जय शत्रुओं के हाथियों का मदरूप पर्वत चूर-चूर कर दिया है एवं अपने स्वामी की सैन्य-रक्षा करने में जगम (चलनशील ) कोट हो और हाथियों के वंश में श्रेष्ठ हो। ऐसे हे मित्र गजराज ! हे अलौकिक गजेन्द्र ! तुम चिरकाल पर्यन्त सिंहरूप से जीवित रहो। अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! मैंने निमप्रकार दो लोकों का अभिप्राय चितवन किया--- हे राजन् ! जिन राजाओं के हाथी शिक्षित नहीं होते, उनके अशिक्षित हाथी केवल उनको फष्टदायक ही नहीं होते अपि तु उनका धन नष्ट करनेवाले भी होते हैं। अर्थान-राजाओं द्वारा गजरक्षा-हेतु दिया हुमा धन व्यर्थ जाता है और वे युद्ध में राजा का बध करनेवाले होते हैं। भावार्थ-शाषकारों ने कहा है कि 'अशिक्षित हाथी उसप्रकार तुछ होता है जिसप्रकार 'धर्म-निर्मित हाथी और काष्ठ-निर्मित हिरण तुच्छ होता है' । निष्कर्ष-विजयश्री के इच्छुक राजाओं को शिक्षित हाथी रखने चाहिए ॥२८॥ जिस पुरुष या राजा के पास जितनी संख्या में गाय-भैस-पादि जीविकोपयोगी सम्पत्ति है, उसकी उसे स्वयं सँभाल (देखरेख-रक्षा करनी चाहिए। अन्यथा (यदि बड उसकी रक्षा सन्हें अन्न व घास-आदि की हीनता होजाने से बे दुखी होते हैं, जिसके फलस्वरूप वह पाप का भागी होता है। भाषार्थ-नीतिकारों ने भी कहा है कि 'गाय-भैंस-आदि जीविकोपयोगी धन की देख-रेख न करनेवाले पुरुष को महान् आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है एवं उनके मर जाने से उसे विशेष मानसिक पीड़ा होती है तथा उन्हें भूखे-प्यासे रखने से पापबंध होता है। मथवा राजनीति के प्रकरण में भी गाय-भैंस-आदि जीवन-निर्वाह में उपयोगी सम्पत्ति को रक्षा न करनेवाले राजा को विशेष आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है एवं उनके असमय में काल-कवलित होने से उसे मानसिक कष्ट होता है; क्योंकि गोधन के प्रभाव होजाने से राष्ट्र की कृषि व व्यापार-आदि जीविका नष्टप्राय होजाती है, जिसके फलस्वरूप १. उक्कं च-- यच्चर्ममयो हस्ती यत्काष्ठमयो मृगः। तद्वदन्ति मातामविनीतं तथोत्तमाः ॥१॥ यश- संस्कृत दी. पु. ४९१ से संकलित-सम्पादक २. समुच्चमालंकार । ३. तथा च सोमदेवरि:-स्वयं औषधनमपश्यतो महती हानिर्मनस्तापच क्षुरिपपासाऽप्रतिकारात पापं च ॥१॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रावासः इत्यनुस्मृत्य कदाचिस्कृत करेगकारोहणः उसे महान् पापबंध होता है। शुक्र विद्वान ने भी कहा है कि 'जो मानव गाय-भैंस-आद पशुओं की सँभाल-देखरेख नहीं करता उसका गोधन नष्ट होजाता है.-अकाल में मृत्यु के मुग्व में प्रविष्ट होजाता है, जिससे उसे महान पापबंध होता है। नीतिकार सोमदेवसूरि ने लिम्बा है कि मनुष्य को अनाथ ( माता-पिता से रहित ), रोगी और कमजोर पशुओं की अपने वन्धुओं की तरह रक्षा करनी चाहिए। व्यास' विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो दयालु मनुष्य अनाथ ( माता-पिता से रहित ), लूलेलँगड़े, दीन व भूस्ख से पीडित पशुओं की रक्षा करता है, वह चिरकाल तक स्वर्ग-सुग्व भोगता है। पशुओं के अकाल-मरण का कारण निरूपण करते हुए प्रस्तुत सोमदेवसूरि ने कहा है कि 'अधिक बोझा स्नादने से और अधिक मार्ग चलाने से पशुओं की अकाल मृत्यु होजाती है। हारीन विद्वान ने भी लिखा है कि 'पशुओं के ऊपर अधिक बोमा लादना और ज्यादा दूर चलाना उनकी मौत का कारण है, इसलिए उनके ऊपर योग्य बोमा लादना चाहिए और उन्हें थोड़ा मार्ग चलाना चाहिए। निष्का-विवेकी मानव को गाय-भैस-श्रादि जीविकोपयोगी सम्पत्ति की रक्षा करनी चाहिए ||२८| तत्पश्चात्-किसी अवसर पर हथिनी पर आरूढ़ हुआ मैं ऐसे हाथियों के मुण्ड को, जिसकी कीति. गुण या प्रशंसा पागल महाज्ञ द्वारा की जाती थी और जो भद्र, मन्द, मृग व मिश्रजाति के हाधियों से प्रचुर था, देखता हुश्रा ज्यों ही हथिनी पर बैठ रहा था त्यों ही सेनापति ने मुझ से निम्नप्रकार हाथियों की मदावस्था (गण्डस्थल आदि स्थानों से प्रवाहित होनेवाले मद-दानजल-की दशा) विज्ञापित कीहे राजन् ! 'वसुमतीतिलक' नाम का गजेन्द्र संजातातलका' नाम की मदावस्था में, 'पट्टवर्धन' नामका श्रेष्ठ हाथी 'आर्द्रकपोलिका' नामकी मदावस्था में, 'उद्धताङ्कश' नाम का हाथी 'अधोनिन्धिनी' नामकी मदायस्था में, 'परचक्रप्रमर्दन' नामका गजराज गन्धचारणी' नाम की मदावस्था में और अहितकुलकालानल' 'क्रोधिनी' नामकी मदावस्था में एवं 'चरीवतंस' नामका हाथी 'अतिवर्तिनी' नामकी मदावस्था में तथा 'विजयशेखर' नामका हाथी 'संभिम्नमधमर्यादा' नामकी मदावस्था में स्थित हुआ शोभायमान होरहा है । सदनन्तर मैं [ फुछ मागे चलकर पूर्वोक्त मदोन्मस श्रेष्ठ दाथियों की क्रीडा देखने के हेतु] निम्मकार प्रवाहित होनेवाले मद की नियुक्ति सम्बन्धी प्रौषधि का उपदेश देने में निपुण चित्तशाली 'शङ्खाश' व 'गुणाकुश' नाम के प्रधान आचार्यों की परिषत् के साथ गर्जाशक्षा भूमियों पर स्थित हुए 'करिविनोदविलोकनदोहद' नाम के महल पर आरूढ़ हुआ। उग्रता-तेजी से बढ़ना, संचय, विस्तार करना, सुखवृद्धि १. तपा च शुकः--चतुष्पदादिक सर्वस स्वयं यो न पश्यति । तस्य तमाशमभ्येति ततः पापमवाप्नुयात् ॥३॥ ३. तथा च सोमदेवसरिः-पर-बाल-व्याधित क्षीणाम् पशून बान्धवानिय पोषयेत् ॥ १ ॥ ३. तपा च व्यास:-अनाथान् विकलान् दीनान् क्षुसरीतान् पशूनपि । दयावान् पोषयेद्यस्तु स स्वर्ग मोदते चिरम् ॥ १ ॥ ४. राधा च सोमदेवसूरिः-- अतिभारो महान् मार्गश्च पशूनामकाले मरणकारणा ॥॥ ५. तथा च हारीतः-अतिभारो महान मार्गः पशूनां मृत्युकारणं। तस्मादहभावेन मार्गेणापि प्रयोजयेत् ॥१॥ ६. जाति अलंकार। नोतिषाक्यामृत ( भाषाटोकासमेत ) पृ. १४१-१४२ से संकलित-सम्पादक * उक्तं च -- संजाततिलका पूर्वा द्वितीयाईकपोलिका । तृतीयाधोनिवधा तु चतुर्थी गन्धचारिणी ॥ १ ॥ पममी कोधिनी शेया षष्ठी व प्रवर्तिका । स्यात्संमिश्नकपोला ब सप्तमी सर्वकालिका ॥ २ ॥ पाहुः सात मदावस्था मदविज्ञानकोविदाः । यश. सं. टी. पू. १५ से संऋलित-सम्पादक Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ वशस्तिलकचम्पकान्ये म्यूढोरस्कः प्रभुतान्तरमगिरतनुः सुपतिष्ब न्ध: xवाचारोऽम्बर्धवेदी सुरभिमुस्वमरुतीर्घहस्तः सुकोशः । अातामोटः मुजातः पतिरमुदितः रशीपोद्मश्रीः शान्तस्तस्कान्तप्त-मी: शमितवक्षिपदः शोभते भूप भद्रः॥२८॥ योनिस्पयि वीसभीरवनतः पधास्यसादात्युन: नितिने पुरसः समुकिरतशिरा कार्येषु भारक्षमः | सोऽस्यल्पश्रम एच मपरयुतो गम्भीरवेदी पृथुर्मन्दभानुकृतिबालीरितवपुः स्यारानपर्वा नृपः ॥ १८९॥ ये वीर स्वयि बहरीकमनसः सेवामु दर्मेधसो हुस्वोरोमणयः कोष सनब स्लेक्षण शमन्त्रः। सैना धान्य तनु सविप्रभृतिभिः शोकाभिर्भरः पाश्चरण वंशकैगसम प्राय: समापते ॥ २९ ॥ गण्डस्थल की वृद्धि. गण्डस्थल के मध्यभाग का प्रक्षालन, विदारण, प्रबर्धन. ( कटक दिखाना ), विलेपन, चन्दना देवान, प्रत करना. हासन, विनिवर्तन ( पश्चात्करण) एवं प्रभेदकरण ये हाथियों के गण्डस्थलमादि से प्रवाहित होनेवाले दानज्ञज्ञ की निवृत्ति के उपचार ( औषधियाँ ) हैं। हे राजन् ! ऐसा भद्रजाति का हाधी शोभायमान हो रहा है, विस्तीर्ण हृदयशाली जिसके मस्तक में विशिष्ट ( बहुमूल्य या सर्वोत्तम ) मोतियों की श्रेणी वर्तमान है । जो स्थूल शरीरशाली एवं निश्चल शारीरिक बन्धवाला है। इसीप्रकार जो प्रशस्त आचारवान्, सत्य अर्थ का ज्ञापक, मुख की सुगन्धित श्वास वायु से युक्त. लम्बी ( पृथ्वी को स्पर्श करने वाली ) मूंड से सुशोभित, शोभन ( आम्रपल्लव-सरीखे । अखकोशबाला. रक्त ओष्टशाली सुजात ( स्यैषाकृति, मर्दल या कुलान ), अपने चिंधारने की प्रतिध्वनि सुनकर हर्षित होनेवाला, मस्तक का मनोज्ञ उद्गमश्रा युक्त, क्षमावान या समर्थ, मनोज्ञ लक्ष्मी । शोभा) से ज्यान एवं जिसके चरणों में से चालयों ( त्वचा-संकोच या भूरियाँ) नष्ट होचुकी हैं। ||२|| बह राजा सान्द्रपा (विशेष महोत्सववाला ) होता है, जो कि तुझ मन्दजाति के हाथी में अच्छिद्र (छिन्द्रावेषगराहत पूर्ण विश्वासा) है। जा वीतभी इ.। अर्थात-जा तुझस भय नहीं करता। पश्चात् जो तेरे प्रसाद से इल अवनत ( नम्रीभूत ) है। जो अग्रभाग में समुच्छतशिर (उन्नत मस्तक्याला) है। जो तेरे बर्य के अवसर पर कार्यासाद्ध करता है। इसाप्रकार जो आस-अल्प-श्रम है। अर्थात्-थोड़े कष्ट से भी राज्य का भाता है। जो मण्डलयुत ( राष्ट्र-संयुक्त) है। जो गम्भीरवेदी ( तरी गम्भीरता का ज्ञापकप्रकट करनेवाला) है। तथा जो पृथु ( विस्तृत राज्यशाली) है। और जो बली-ईरित-वधु (बलवानों झारा प्रारत किये हुए शरीरवाला ) ई एव जा उसप्रकार उक्त गुणों से विभूषित है जिसप्रकार मन्दजाति क हाधा उक्त गुग से विभूषित हाता है। अथात्--जिसप्रकार मन्दुजातवाला हाथी आँच्छद्र ( घने शारीरिक बन्धवाला ), वीतभी ( राजा क शत्रुओं से भयभीत न होनेवाला), राजा के प्रसाद से पश्चात् ( आगे के शरीर में । अवनत । नम्र भूत ), कुछ अग्रभाग में समुच्छ्रिताशरशाली (उन्नत मस्तक से मलत), कार्य-भारतम-संग्राम आदि क अवसर पर भार उठाने में समर्थ, भार-पहन करता दुभा भी बति-अल्प-श्रम ( थोड़े परिश्रम का अनुभव करनेवाला ), मण्डल-युत ( हाथियों के झुण्ड से सहित ), गम्भारवेदी (त्वचा-भेदन हानेपर व रक्त प्रवाहित हानेपर एवं माँस काटे जानेपर भी देखना-बुद्धि (अनुभव) को प्राप्त न करनेवाला), पृथु ( विस्तीर्ण पृष्ठ वेशवाला) और बली-ईरित-चपु-मर्थास-चमड़े की सिकुड़नों या झुरियों से ब्यान शरीरशाली एवं सान्द्रपा-अर्थात्-घने सन्धि-प्रदेशवाला हेता है" ॥२६॥ हे पराक्रमी व पृथिवीपति राजन् ! जो शत्रुलोग आपसे बहु-अलीक-मनवाले (कुटिल हृदय माले), आपकी सेवा से दुर्मेधस (विमुख), हस्व-उरोमणि (अल्प मोतियों की मालामों x 'स्वाचारोऽपूर्ववेदी: क.। ' 'तमुच्छविप्रतिभिः' का । १. जाति-बलबार । २. ध व उपमालंकार । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रवासः द्वारि तदेव बद्रा संकीर्णाश्चेतसा त्र पुषा च शत्रव इव राजन्ते बहुभेदाः कुञ्जराश्येते ॥ २९१ ॥ इति महामाश्रसमूहाम्नायमानव भद्रमन्दमृग की विस्तीर्थी येत कमानः श्रवहमासे तावदेव मोतिकः संजातसिलकायाम्, पट्टवर्धन आकोलाय, अधोनिबन्धिन्यामुनाङ्कुशः परचक्रमर्दनी = गन्धचारिण्याम् अहित कालानल कोषिन्यात् चित्र सभिन्नमदमर्यादायां च विजयशेखर इनकस्थेन विनिवेदितद्विरदमदावस्थः सोत्तालं वृचास्त रभुवनकटवर्धन किशोधनप्रति भेदन प्रवर्धनवर्णकर गन्धकरोद्दोपनहसिनविनिर्तनम मेमदोपचारो पदेशविशारद रायडु शगुणाङ्कुशवाचार्य परिषदा समं प्रधावणिषु करिविनोदविलोकनदीददं प्रासादमध्यास्य ममदलेखोला सिण्डलश्री मुहर निन्द्रत जृम्भारम्भशुम्भािसः । करिपतिरयमन्यामेव देवाद्य कांचिमिति रणान्ते स्वं यथा जैत्रचापः ॥ २९२ ॥ ३३३ से विभूषित और कर-तनु ( टेक्स देने में असमर्थ ) एवं स्थूल - ईक्षण ( स्थूल बुद्धि के धारक हैं उन ओं द्वारा बहुलता से उसप्रकार आचरण किया जाता है जिसप्रकार मृगजाति के हाथी आचरण करते हैं । अर्थात् — जिसप्रकार मृगजाति के हाथी बहु-अलीकमनवाले (द्दीन-हृदयवाले), सेवा में दुर्मेधस ( यथोक्त शिक्षा ग्रहण न करनेवाले ), हस्व-उरोमारे ( अल्प हृदयवाले) और कर में तनु ( छोटी - पृथियी पर न लगनेवाली कमजोर -- सूँडवाले) एवं स्थूलेक्षण (स्थूलवस्तु देखनेषाले ) होते हैं। उन मृगजाति के हाथी समान शत्रुओं द्वारा उसप्रकार आचरण किया जाता है जिसप्रकार भृगायित - हिरण-आचरण करते हैं । अर्थात् हिरणसमान युद्धभूमि से भाग जाते हैं। कैसे हैं वे मृगजाति के हाथी और शत्रु ? जो अल्पच्छविप्रभृति ( हीन शारीरिक कान्दि-आदि से युक्त और शत्रुपक्ष में अल्पप्रतापी ) हैं । जो शोकालु (विन्ध्याचल आदि वनों का स्मरण करनेवाले और शत्रुपक्ष में पश्चात्तापकारक हैं। जो दुर्भर ( भारवहन करने में असमर्थ और पक्षान्तर में हीन अतिशय युक्त ) है । जो संक्षिप्त ( समस्त शारीरिक अल्प श्रङ्गों से युक्त और शत्रुपक्ष में अल्पधन या अल्पसेना से युक्त ) हैं एवं जो अणुवंशक ( अस्पष्ठ प्रदेशवाले और पक्षान्तर में जाति व कुल से हीन ) हैं ||२०| हे राजन् ! आपके सिंहद्वार पर बहुभदवाले ( मिश्रजाति के ) ये हाथी, जो कि मन और शरीर से संकीर्ण (बुद्ध-हनता से मिश्रित ) हैं, बँधे हुए उसप्रकार शोभायमान होरहे हैं जिसप्रकार आपके ऐसे शत्रु शोभायमान होते हैं, जो कि वित्त व शरीर से संकीर्ण ( अल्प विस्तारवाले) और बहुभेवाले (नाना प्रकार के) एवं सिंहद्वार पर बँधे हुए शोभायमान होते हैं ||२१|| अथानन्तर उक्त महल पर स्थित हुए और निम्नप्रकार हाथियों का निरूपण करनेवाले गजोपजीवी (महावत) लोगों द्वारा आनन्दित चित्त किये गए मैंने मदोन्मत्त हाथियों की कीड़ाएँ देखीं । हे राजन् ! मद ( दानजल ) रूपी कस्तूरी की रेखाओं से सुशोभित हुए कपोलस्थल की शोभावाला और बारंबार अनिता पूर्वक जंभाई लेने से शोभायमान होनेवाले विलास (नेत्र संचालन ) वाला प का यह गजेन्द्र इस समय कोई ऐसी अपूर्व शोभा को उसप्रकार धारण कर रहा है जिसप्रकार जयनशील धनुष के धारक आप मद (दानजल) जैसी कस्तूरी रेखाओं से सुशोभित होनेवाले गाल-स्थल की शोभा से युक्त और बारंबार अनिश्चलतापूर्वक जैभाई लेने से सुशोभित होनेवाले विलास (नेत्र संचालन आदि / वाले हुए युद्ध के 'करशोधनप्रभेदप्रवर्धनवर्णकरमकरोद्दीपनोद्भासन वि = 'गन्धधारिण्याम्' क० I ' वरीवसन्तः' क० । १. श्लेष व उपमालंकार । २. श्लेषोषमा व समुच्चगालंकार | निवर्स' । . Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ यशस्विलकचम्पूकान्ये परिणा बमधुर्मुक्त: पुर: पुरः स्थूलबिन्दुसन्तानः । रचयति दिगङ्गमान मुक्ताफलभुषणानीय ॥ २९३ ॥ उत्तम्भोसकर्णतालथुगलः प्रत्यस्तपांसुकिया प्रत्याविष्टकरणुकेलिरमणः प्रस्थापिताम्भोघटः । * मातुः प्रार्धनका चिराय विस्तानिन्गृहीत्वा को तिष्टस्यन्यकरीन्द्रसंचरमनाः कोपस्या कोलितः ॥ २९४ ॥ मम मदमदिरामाः सौरभल्व सैन्यं व्युपरतमदलेखासश्मि जातं गवामाम् । इति मनसि विचिन्त्यदैव हस्ती तनोति त्वमित्र सुस्तकामाय धनुप्रियाणाम् ॥ २९॥ रणसिविलोपस्तव मम च समः परभमदशमनात् । इति भावयतीव गजस्त्याजनमिषतो बगनाथ ॥ २९६ ॥ पत्तेऽम्पस्य गजस्य गण्यमलतामेव प्रभदोनमः शोभा स्वस्य गजस्य दानविभवः पुष्णास्यवागोचराम् । किं चारग्धमदेपि पत्र करिणा सम्पानि संतवसे घण्टाकृतिवजितामि विमदान्यस्तप्रचाराणि च ॥ २१ ॥ अन्त में कोई अपूर्व शोभा धारण करते हो ॥२९२।। हे राजन् ! इस्ती द्वारा शुण्डादण्ड से बाहिर क्षेपण किया गया जलविन्दु-समुह स्थूल जलविन्दुसमूह हुश्रा अनदेश पर स्थित होकर दिशारूपी त्रियों के मोतियों के आभूपों की रचना करता हुआ सरीखा शोभायमान होरहा है ॥२९३।। हे राजम् ! ऐसा यह गजेन्, जिसने अपने दोनों कानरूपी ताड़पत्र निश्चल किये है, जिसने अपने ऊपर धूलि-क्षेपण-क्रिया बोड़ दी है और जिसने हथिनी के साथ किया विनोद का निराकरण करते हुए जल से भरा हुमा घट दे दिया है. एवं जिसका चित्त दूसरे हाथी के प्रवेश में लगा हुश्रा है, चिरकाल तक धारण किये हुए गमों को महावत की प्रार्थना से सैंड से ग्रहए करके स्थित है ( खड़े होकर खा रहा है, इसलिए वह ऐसा मालूम पड़ता हे-मानों-क्रोध की मानासक पीड़ा से ही कीलित हुश्रा हे ॥२६४|यह हाथियों की सेना । झुण्ड) मेरे मन ( दानजल ) रूपा मद्य की सुगान्ध से ही अपनी मद-लेखा । दानजल-पंक्ति) मंशोभा को नष्ट करनेवाली हुई है' इसप्रकार चित्त में विचारकर हे राजन् ! यह हाथी उसप्रकार इथिनियों की रतिविलासचालीन मिथ्या स्तुतियाँ (चाटुकार) विस्तारित कर रहा है जिसप्रकार माप अपनी प्रियाओं की रविविलास-कालीन मिध्यास्तुतियाँ विस्तारित करते हैं ।२६।। हे पृथिवीपति ! आपका यह गजेन्द्र त्यासन (अपना मस्तक ऊँचा नीचा करना अथवा मस्तकपर पुलि-क्षेपण) के बहाने से इसप्रकार कहता हुआ मालूम पड़ता है मानों-दराजन् ! मैंने शत्रुभूत हाधियों म और आपने शत्रुभों के हाथियों का मद चूर-चूर कर दिया है, इसलिए संग्राम-क्रीड़ा संबंधी सुख का भभाव मुम में और आप में एक सराखा है। भर्धात्-मरा युद्धक्रानासंबंधी सुख उसप्रकार ना होगया है जिसप्रकार भापा युद्ध-क्रीडा संबंधी सुख नष्ट होगया है ॥२६६।। हे राजन् ! दूसरे हाथी का मनोरम ( दानजल की उत्पत्ति ) केवल उसकी कपोलस्थलियों पर मलिनता धारण करती हैं परन्तु आपके इस हाथी की मदलक्ष्मी (गण्डस्थलों से प्रवाहित होनेवाले दानजल की शोभा) उसकी वचनातीत शोभा को पुष्ट कर दी है एवं आपके हाथी में विशेषता यह है कि जब आपका हाथी मद का आरम्म करता है सब शत्रहाथियों के सैन्य घण्टाओं की टवार-ध्वनियों से रहित, मद-हीन भौर युद्ध-प्रवेश छोपनेवाले होजाते असन्तुः प्रार्थनया चिराय विहितानिशून्' कः । * यानुः' ख. २० मु. प्रतिवत्' | Aयाता स्ते निषादिनि' रि.. 'पौलितः' ३० । 'घने तस्य । १. उपमालंकार । २ कियोषमालंकार । ३. उत्न झालंकार । ४. उपमालंकार। ५. उत्प्रेक्षालंकार । ६. बसमय र समुचयालंकार । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाश्वासः ३३५ आनय मवशमधुकर चिरावपुनरुक्त डिण्डिमान्करिणः । पश्य मम समरलीरिति मतिरिंग इति द्विषः ॥ २९८ ॥ आलाय मसकरिणोऽस्य मझवाइसौरभ्यमन्थरसुखानि दिगन्तराणि । नूनं+दिशाननोऽपि दिगम्वलामध्यासते द्विरदनेध्वरेषु कास्था ।। २९९ ।। मगन्धावरणविधेः प्रतिवारणसमरसंगमो भवतु । इति जातमतिः पदैरिव सिम्पत्ति सिन्धुरः कामम् ॥ ३०० ७ धेनुवं श्रयतरशु दिक्रटिनः क्षोणि स्थिरं स्थीयतां वायो संदूर चापलं शिखरिणः सर्वत्वमागच्छत । itsar free स्वमस्मिनिभेकोभेन्द्राः क धरा वदनः क्वैते च पूर्व नगाः ॥३०१ सिधरणिदेवी शिथिलितभूगोलकः फणीन्द्र इति धरमिनाथ कस्टी विटपिक समाभवति ॥ ३०५ ॥ पत्र गजैर्व३०३ ॥ राजन् ! आपका हाथी ऐसा मालूम पड़ता है— मानों इस बुद्धि से ही चिंधार रहा है ( आपसे ऐसा कह रहा है कि 'हे राजन् ! शत्रु हाथियों को, जिन्होंने मद (दानजल) की अधीनता से उत्पन्न हुई भोरों की विविध कार ध्वनियों द्वारा वादित्र-शब्द द्विगुणित ( दुगुने ) किये हैं, मेरे संमुख लाओ और मेरी युद्धकीदाएँ देखो' || २६८ || हे राजन् ! ऐसे दिशा-समूहों को, जिनके अप्रभाग आपके इस मदोन्मत हाथी के भद प्रवाह ( दान जलपूर की सुगन्धि से मन्थर ( व्याप्त या पुष्ट ) होचुके हैं, सँघकर ऐरावत आणि दिग्गज भी जब निश्चय से आठों दिशाओं के प्रान्तवर्ती महापर्वतों का सेवन कर रहे हैं ( प्राप्त होरहे हैं ) तब दूसरे ( साधारण ) शत्रु हाथियों के इसके सामने ठहरने की क्या आस्था ( आशा या श्रद्धा ) की जासकती है ? अपि तु नहीं की आसकती ॥२६६॥ हे राजम् ! ऐसा मालूम पड़ता हैमानों - आपका हाथी निम्नप्रकार की बुद्धि उत्पन्न करता हुआ ही अपना शरीर कदम-लित कर रहा है 'म (दानजल ) की सुगन्धि लुप्त करनेवाले मेरी शत्रु हाथियों के साथ युद्धभूमि पर भेंट हो ॥ ३० ॥ दे ऐरावत आदि दिग्गजो ! तुम शीघ्र हस्तिनीत्व ( इथिनीपन ) प्राप्त करो। हे पृथिवी ! निश्चल्तापूर्वक स्थिति कर दे वायु ! तुम अपनी चपलता छोड़ो और हे पर्वतो ! तुम लघुता ( छोटी आकृति ) प्राप्त करो । अन्यथा - यदि ऐसा नहीं करोगे । अर्थात्-यदि दिग्गज प्रस्थान करेंगे, पृथिवी स्थिर नहीं होगी, षायु अपनी चंचलता नहीं छोड़ेगी और पर्वत लघु नहीं होंगे तो इस समय यह आपका हाथी जब मदलक्ष्मी के साथ स्वच्छन्दतापूर्वक यथेष्ट कीया करेगा तब ऐरावत आदि दिग्गजेन्द्र कहाँ रह सकते हैं ? पृथिमी कहाँ पर ठहर सकती है ? वायु कहाँ पर स्थित रह सकती है ? और ये पर्यंत कहाँ स्थित रह सकते हैं? अपि तु कहीं पर नहीं, क्योंकि यह इन सबको चूर-चूर कर डालेगा ||३०१ || पृथिवीपति ! ऐसा मालूम पड़ता है - कि 'पृथिवी देवता उच्छूवास प्रहण करने लगे और शेषनाग भूमिपिण्ड को शिथिलित करनेवाला होकर उच्छवास प्रण करे इसीलिए ही मानों- -आपका हाथी वृक्ष- रन्ध (सना) का अच्छी तरह आश्रय कर रहा है ||३०२|| हे राजन् ! जिस स्तम्भ (आलानहाथी बाँधने का खंभा ) से हाथी बँधे हुए निश्चलता पूर्वक स्थित हुए हैं, वह स्तम्भ आपके इस [ बलिष्ठ ] हाथी के कपोलस्थलों के खुजानेमात्र के अवसर पर पुनः बल करने के अवसर की बात तो दूर हो है, नलदण्डता ( कमल-नालपन) धारण कर रहा है -- कमलनाल- सरीखा प्रतीव होरहा है ॥ ३०३ ॥ + 'दिशां कर दिनोऽपि क० । १. उत्प्रेक्षालंकार । २. अतिशयालंकार । ३. उत्प्रेक्षालंकार । ४ समुच्चय व अतिशयालंकार । समुच्चय व उत्प्रेक्षालंकार । ६. उपमालंकार । ५. दीपक, Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ यशस्तिलकाये रिसाईमहत्वं दानगुणः स क मित्थमिदमास्ते । इति मत्वेव गजोऽयं रज्जुं बिसतन्तुतां नयति ॥ ३०४ ॥ विनंति कन्धरायासने खणणिति वल्लिका गलत विक्रमारम्भणि । डिति भज्यते तरुगणः कृताघट्टने खत्खदिसि वारण: पतति चात्र युद्यैषिणि ॥ ३०५ ॥ कमपि पुरोऽक करिभिर्वत्यस्त्रितकन्धरः स्थितं स्थास्तीः । अभिगच्हति पुनरस्मिव्रगणितीतैर्यधाय स्वरितम् ॥ ३०६ ॥ तो भवति णिति डिकाला मृणाम्। श्रीदति करेणुवर्गः प्रतिगजमभिहन्तुम संवृत्ते ॥३०७॥ aft करवीण सोय प्रकामं नमसि विततमार्गाः कर्णसाला मिलेन । प्रतिगजपतिजैश्रानन्तरं वीरलक्ष्मी विजयपताका डम्बरं विनतीव ॥ ३०८ ॥ वंशी महान त्रिरचिताः पुनश्यापारादपि दूरतो विनिहिताः कोऽयं प्रधावक्रमः । स्वामी जनाः कृतविस्तारी भूपते वीरं वीरमनेकधामत्रगती गृहपरं दृश्यते ॥ ३०९ ॥ हे देव! 'जिस पुरुष में स्वाभाविक महत्त्व (गुरुत्व - महत्ता) व दानगुण ( हस्ति-पक्ष में दान जल व में दानशीलता होता है. यह इसप्रकार राजु रस्सी) बन्धन-युक्त कैसे रह सकता है ?' ऐसा पुरुषपक्ष मानकर के ही आपका यह हाथी राज्जुबन्धन को मृणालतन्तुओं में प्राप्त करा रहा है ' ॥३२४ ॥ 1 हे राजन! आपका यह हाथी जब गर्दन ऊँची करता है तत्र रस्सी आदि के बन्धन तड़तड़ होते हुए टूट जाने हैं और जब यह पराक्रम आरम्भ करता है तब वल्लिका ( खलाबन्धन - दोवा आदि ) मान होती हुई शतखण्डोवाली होजाती है एवं जब यह कपोलस्थलोंकी खुजली दूर करने के हेतु वृक्ष समूह से घर्षण करनेवाला होता है तब वह वृक्षसमूह ममहायमान शब्द करता हुआ भग्न हो जाना है तथा जब वह युद्ध करने की कामनशील इच्छुक ) होता है तब शत्रुभूत हाथी खड़खड़ायमान होता हुआ धराशायी होजाता हूँ ||३३४|| हे राजन् ! आपके इस स्थितिशील ( खड़े हुए ) हाथी के शत्रुभूत हाथी. जिनकी गर्दन महावतों द्वारा बाँधी गई थी, महान् कष्टपूर्वक स्थित हुए और आपका हाथी जब शत्रुभून हाथियों के सम्मुख आता है तब वे ( शत्रुभूत हाथी ) अंकुशकर्म को न गिनते हुए यथा योग्य अबसर पाकर शीघ्र भाग गये ||२६|| हे राजन! जब आपका हाथी शत्रुभूत हाथी घात हेतु प्रवृत्त हुआ तब अंकुश कामदेव द्वारा किया हुआ सरीखा ( विशेष मृदुल ) शेजाता है और ताड़ित करनेवाजी अलाएँ गमन को रोकनेवाले-काष्ठयन्त्र ) कमल-मृणालता प्राप्त करते हैं । मृणाल सरीखे मृदुल हो जाते हैं एवं हाथियों व हथिनियों का झुण्ड दुःखी होजाता है ४ ॥३०७॥ हे राजन् ! आपके इस हाथी के ऊपर इसकी सूँड द्वारा फेंकी गई धूतियों इसके कानरूपी ताड़पत्तों की वायु से आकाश में विशेष रूपसे विस्तृत हुई ऐसी मालूम पड़ती हैं- मानों-शत्रु हाथियों को जीतने के अनन्तर बीरलक्ष्मी द्वारा इसके मस्तक पर आरोपण की गई विजयध्वजा का विस्तार धारण कर रही हैं ||३८|| हे राजन् ! जब तक ये ( सैनिक इसप्रकार विचार करते हैं कि 'यह युद्धभूमि अत्यन्त गुस्तर ( महान ) की गई है और वङ्ग आदि धारक परपुरुष नेत्रदृष्टि से भी दूर पहुँचाये गये हैं एवं यह युद्ध करनेका क्या मार्ग है ? तब तक आपका हाथी अकेला होकरके भी वीरपुरुष को ग्रहण करता हुआ ( अनेकसरीखा) देखा जाता है || ३ = ६ || x स रथमित्यमासन ४० । विक: परन्तु मु० प्रतिस्थः पाठः समीचीनोऽथ दशमात्राणां सद्भावेन छन्दश नानुकुन्दः सम्पादकः । F चेह' ० । १. उत्प्रेक्षालंकार। विमाकार । १. अतिशयालद्दार । ४. उपमालङ्कार ५. उत्प्रेक्षा । ६. उपमालङ्कार Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः वीधीशीत एव पलमनवोत्थानस्य सातस्यतः स्वामित्रस्य जवः कथं करिपतेः कध्येत चित्रं यतः । पाश्चात्यैर्जवनैरपि व्यवसितं स्थायैः पुरुपुत्र तिस्तधातुम् ॥ ३१ ॥ पस्याघातेन गजा जति पमपिशितक कढ़ने । रथमनुजवाजिनिषदः कतरोऽस्य गजस्य राजेन्द्र || ३११ ।। राजन्भूमित शौर्यशालिनि जने वीरश्रुतिर्विश्रुता तामेषोऽथ पायितेऽपि कृतधीर्धते न तवोचितम् । नागोsata निम्ति विमपि श्रासाचराणां गणं नैवं चेस्कथमन विक्रममरस्तुङ्गस्य शूरस्य च ॥ ३१३ ॥ अस्मिन् महीपाल गजे साने अगत्यभूतकस्य न दानभावः । क्षितिः सदानार्थिजतः समानस्तवास्विर्गश्च यतः सदानः ॥ ३१३ ॥ हे स्वामिन्! इस गजेन्द्र ( श्रेष्ठ हाथी ) का, जिसकी वेगोत्पत्ति मार्ग-संचार के आरम्भ, मध्य व प्रान्त में पाँचमी है। अर्थात् जो पाँच वेग से उत्थित हुआ है। अभिप्राय यह है कि अश्वों ( घोड़ों) को आस्कन्दित, धौरितिक, रेचित, वल्गित व प्लुत इन पाँच गतियों में से जो पाँचमी व्रतगतिवाला है। अर्थात्- जो उड़ते हुए सरीखा बड़ी तेजी से दौड़ता है, वेग अविच्छिनता वश आश्चर्यजनक है, अतः किसप्रकार कहा जा सकता है ? अपितु नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इसके पृष्ठभाग पर स्थित हुए वेगशाली भी घोड़े इसके वाएँ व दक्षिण-पार्श्वभाग पर खड़े रहने की चेष्टा नहीं कर सके और इसके बाएँ व दक्षिण पार्श्वभाग पर खड़े हुए वेगशाली भी घोड़े इसके आगे खड़े रहने का प्रयत्न न कर सकें । इसीप्रकार इसके आगे दौड़े हुए घोड़ों द्वारा यहाँ वहाँ दौड़ने की चेष्टा नहीं की गई ||३१|| हे राजेन्द्र ! आपके जिस गजेन्द्र ( श्रेष्ठ हाथी ) के निष्ठुर प्रहार द्वारा युद्धभूमि पर जब शत्रु-हाथी यमराज के मांस - श्रास ( कोर) की सदृशता प्राप्त कर रहे हैं तब दूसरे रथ, मनुष्य व घोड़ों के समूह का नष्ट होना कितना है ? अर्थात् यह तो साधारण सी बात है ||३११|| हे राजन् ! अप्रतिहत व्यापारबाली शूरता से सुशोभित पुरुष 'बी' नाम से प्रसिद्धि पाई जाती है, उस 'वीर प्रसिद्धि' को आपका यह हाथी इस समय युद्ध से भागे हुए सैनिक के जानने में विचक्षण (चतुर) होता हुआ भी नहीं धारण करता है, यह योग्य ही है। अर्थात् यह बात अनुचित प्रतीत होती हुई भी उचित ही है। अभिप्राय यह है कि आपका यह हाथ उक्त धीर प्रसिद्धि को इसलिए धारण नहीं करता, क्योंकि वह इस नैतिक सिद्धान्त को 'लिष्ट पुरुष को युद्धभूमि से भागते हुए भी का पीछा नहीं करना चाहिए, क्योंकि युद्ध करने का निश्चय किया हुआ कभी शूरता प्राप्त करता है' अी तरह जानने में प्रयोग है। इसीप्रकार हे राजन! आपका यह हाथी भय से भागते हुए योद्धा-समूह का विशेष घात कर रहा है, यदि ऐसा नहीं है तो इसमें पराक्रमशक्ति किसप्रकार जानी जावे ? एवं उन्नत वीर पुरुष की पराक्रमशक्ति भी बिना युद्ध के दूसरे किसी प्रकार नहीं जानी जाती है || ३१२|| हे राजन् ! जब आपका यह हाथी सदान ( सबलक्ष्मी - दानजल की शोभा-युक्त ) हुआ तब संसार में किस पुरुष को दानभाव ( दानशीलता ) नहीं हुआ ? अपि तु सभी को दानभाव हुआ। उदाहरणार्थ - पृथिवी सदाना ( रक्षायुक्त ) हुई और याचकगण सदान ( धनाढ्य ) हुआ एवं आपका शत्रु-समूह भी ३३७ * उकच---'आस्कन्दितं धौरितिक रेचितं वल्गित ' इति अश्वानां पञ्च गतयः । यश [सं० टी० पू० ५०१ से संकलित - सम्पादक १. दीपक व अतिशयालंकार । २. उपमा व आक्षेपालंकार । ३. उकचमी एलायमानोऽपि नाभ्येष्टव्यो बलीयसा । यश० सं० टी० ( पृ० ५०२ ) से संकलित - सम्पादक ४. व्यतिरेक व आक्षेपालंकार । ४३ कदाचिच्छूरता मेति खणे कृतनिश्चयः ॥ १ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ যহাবিষমুক্ষা पासमख बहन काल मुह वरुण समीरण धन चन्द्रमः प्रथिसम्भिविभवास्तविमानवात प्रथमतः । कपोन्मुकाम बाबी लिगति वारणो नो वेदिभविडीमरपमा भवसां भविता पताकिनी ५३१४ ॥ राष्टिपथ गते विगलिता ईसावलीकाधिका स्पशास्पङ्कजिनीवलांशु कमगावस्याः सरस्याः पुनः । नाभि प्राप्तवसि स्वयीव मुभम प्रोवाङ्गनाविनर्म सोस्क्रपा न करोति के गजपती सा फोलवीचीभुषा ॥३१५॥ विनिकीर्णकमलमाल्या पर्यस्वनराकुम्सला सरसी । राजति गमपसिभुक्का स्वदधिरभुक्ता पुरन्धीष ॥ ३१६ ॥ यदामुपलोभ्य पूर्व बद्धस्तेनैव नाथ पर्याप्तम् । इति सर्वनाशजी गुल्मानपि दूरतस्त्यजसि ॥ ३१ ॥ प्रत्युज्जीवितव देव धरणीदेख्या विनिःश्वस्पते भोगीन्द्रः मलयः श्रमं विनयते धादिवापेत्तवान् । वायुधनतो विमुक्त इव व स्वैरं दिशः सर्पति प्राप्तसम्भमपास्तसंगरभरः स्तम्मेरमस्ते यहा ॥ ३१८ ॥ सदान (खण्डन-युक्त नष्ट करने योग्य ) हुआ' ।।३१।। हे राजन् ! आपका हाथी आफाश की ओर अपना शुण्डादण्ड () कता हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा है-मानों-वह इन्द्र-श्रादि देवताओं के लिए निम्नप्रकार का उपदेश देने की कामना कर रहा है-'हे इन्द्र ! हे अग्निदेव ! हे यम ! हे कार्तिकेय ! हे वरुण! हे वायुदेव ! हे कुवेर ! हे चन्द्र ! तुम सभी देवता लोग, जिनका धन केवल एक एक ऐरावत-आदि हाथी की लक्ष्मी से विख्यात है, इसलिए अपने अपने हाथियों की रक्षा सावधानतापूर्वक करो। अन्यथा ( यदि अपने एक-एक हाथी की रक्षा सावधानतापूर्वक नहीं करोगे) तो आपकी सेना हाथियों से शून्य प्रयत्नवाली होजायगी ॥३१४।। हे सुभग ( श्रवण या दर्शन से सभी के लिए सुखोत्पादक ) राजन् ! जम आप सरीखा यह गजेन्द्र सरसी ( महासरोवररूपी स्त्री) द्वारा दूर से दृष्टिगोचर हुआ तम उसकी हँसश्रेणीरूपी करधोनी नीचे गिर गई और जब इसके शुण्डादण्ड द्वारा यह स्पर्श की गई तब इस सरसीरूपी स्त्री का कमलिनीपत्ररूपी घन गिर गया। पश्चात् जब श्रापका गजेन्द्र इस सरसी की नाभि (मध्य) प्रदेश पर प्राप्त हुआ सम चञ्चल लहरोंरूपी बाहुलताओंवाली यह कम्पित होती हुई कौन से नवयुवती स्त्री के शोभा-विलास प्रकट नहीं करती? अपि तु समस्त नव युवती स्त्री के शोभा-विलास प्रकट करती है। अर्थात्-जिसप्रकार जब आप नवयुवती स्त्री द्वारा दूर से दृष्टिगोचर होते हो तब उसकी करधोनी खिसक जाती है और जब आप नषयुवती का सुखद स्पर्श करते हो तब उसकी साड़ी दूर होजाती है। पञ्चास्-जब आप उसके नाभिदेश का आश्रय करते हो तब चञ्चल मुजलदाओंवाली यह कम्पित होती हुई कौनसा विलास (भ्रकुटि-क्षेप-आदि) प्रक्ट नहीं करती १ अपितु समस्त विलास (भ्रुकुटि-क्षेप-आदि) प्रकट करती है।॥३१॥ हे राजन् ! आपके गजेन्द्र द्वारा मोगी हुई सरसी ( महासरोवररूपी स्त्री), जिसके कमलपुष्प इधर-उधर-फेंके गए हैं और जिसके तरङ्गरूप केश यहाँ-वहाँ विखरे हुए हैं, उसप्रकार शोभायमान होरही है जिसप्रकार आपके द्वारा तत्काल भोगी हुई पुरन्ध्री ( कुटुम्बिनी-पति व पुत्रवाली स्त्री ) शोभायमान होती है। अर्थात् जिसप्रकार आपके द्वारा तत्काल भोगी हुई पति व पुत्रवाली स्त्री यहाँ-वहाँ के हुए पुष्पों से युक्त और विखरे हुए केशोंवाली होती हुई सुशोभित होती है ॥३१६|| हे नाथ! निम्नप्रकार ऐसे अभिप्राय से 'सर्वत्र श्राशङ्का ( संदेह) करनेवाला यह हाथी वृक्षों का भी दूर से परित्याग करता है। 'हे नाथ ! जिसकारण मैं हथिनी का लोभ विखाकर पूर्व में (द्वार-प्रवेश के अवसर पर ) बाँधा गया उसी बन्धन से पर्याप्त है" ॥३१॥ हे राजम् ! जिस समय आपका हाथी संग्राम-भार छोड़ता हुआ १. समुच्चय र दलेषालंकार। २. उत्प्रेक्षालंकार । ३. रूपक, उपमा घ आक्षेप-अलंकारों का संमिश्रणरूप संकरालंकार । ४. उपमालङ्कार । ५. हेतु-अलंकार । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतीय बाधा मनासकारिणि मक्पुरुषे नैव वर्गना मितथा। वितधस्त पर निपमो शेकवयवलपरीक्षायाः ॥ १९ ॥ इति पठता गलोरमीविखोकनानन्दितताः प्रभित्र हरियालीरवर्शम् । कदाचिसम्पयोगात्मेष गुलियोर्भा पर प्रहारसौधर्व या करोति फुयरेन्याणां कल्पना सा प्रशस्यते इति विहितकल्पनाविधिः । भाववि देव मा गजपति छोपीरामले का सा कुम्वरमा मम पुरी था मुसीमा भवत् । तस्पर्याप्तमनेम कोशविधिमा भारफलम कुर्वता वारंवारमितीव चिन्तनपरो नेने पियो करी ॥ ३२ ॥ इति बाधीयानेन गृहीतप्रसादपरम्परा करिणां कोतारोपणमकरवम् । येषां गजोसमाङ्गानि बलानि न महीभुजाम् । उत्तमामिहीनानि सानि तेषी रमाणे ॥ ३२१ ॥ आलानस्तम्भ (बन्धन का खम्मा) को प्राप्त हुआ होता है उस समय हे वेव ! ऐसा मालूम पड़ता हैमानों-पृथिवीदेवता पुनः जीवित हुई-सी श्वासोच्छ्वास प्रहण कर रही है और शेषनाग कष्ट से उन्मुक्त हुश्री-जैसा पृथिषी शिथिलित करता हुआ अपना खेद दूर करता है एवं वायु पन्धन मुक्त हुई-सी समस्त विशाओं में यथेष्ट संचार करती है' ॥३१राजन् ! पूर्वोक्तलक्षपखाले आन्धर्यजनक इस हाथी का पूर्वोतपर्णन असत्य नहीं है एवं निश्चय से विद्वानों द्वारा कहा हुआ वेग व बल के विचार का निर्णय भी क्या असत्य है? अपि तु नहीं है। अभिप्राय यह है कि हाथी के वेग व शक्तिमत्ता के विचार का निश्चय भलकार-पद्धति से कहा हुमा साहित्यिक दृष्टि से यथार्थ समझना चाहिए ||३१|| . अथानन्तर ६ मारदा माराज! किसा अवसर पर दिग्विजय-हेतु किये हुए सैन्य-संगठन के पूर्व ही मैंने इसप्रकार का निश्चय करके कि 'जो कल्पना ( हाथियों के दाँतों का जड़ना-मादि) उनके मख की दस्त-रक्षादिशोभा-जनक है और किलों के तोड़ने-आदि में किये हुए दन्त-प्रहारों में दसा उत्पन्न करती है, यही प्रशस्त ( सर्वभेष्ट) समझी जाती है। उक्त विधान (इस्तिवन्त-जदनादि विधि ) सम्पन किया। तत्पश्चात ऐसे अने, जिससे निमप्रकार पाठ पढ़ते हुए गजोपजीवी ( महावत आदि ) पुरुषों ने हर्षदान-श्रेणी ( हर्षजनक विशेषधनादि पुरस्कार ) प्राप्त की है, हाथियों का कोशारोपण ( लोहा-आवि धातुओं से दन्त-बेधन-आदि की क्रिया) किया। हे राजन् ! हे सुभटशिरोरत्न ! आपका गजेन्द्र (श्रेष्ठ हाथी) अपने दोनों नेत्र निमीलित (बन्द) करता हुआ ऐसा प्रतीत होता है-मानों-वह इसप्रकार पारंवार विचार करने में ही तत्पर है- वीरशिरोमणि ! जब आप मुझ गजपान (इस्ती-स्वामी) पर आरूढ़ हुए तब वह शत्रुओं की गजमण्डली (हास्त-समूह) कितनी है? आपसु कुछ नहीं ह-तुच्छ हे, जो मरे आग सम्मुख होगी इसलिए मार-खेदजनक इस पम्तजटनादिविधान से क्या लाभ है ? अपितु कोई लाभ नहीं ॥ ३२ ॥ जिन राजाओं की हाथी, घोरे, रथ र पैदलरूप चतुरङ्ग सेनाएँ हाथीरूप श्रेष्ठ अन से हीन होती हैं, उनकी ये सेनाएँ युद्धभूमि पर मस्तक हीन समझनी चाहिए। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकारने' कहा है कि 'उक्त चतुरज सेना में हाथी प्रधान माने जाते हैं, क्योंकि ये 'अष्टायुध' होते हैं। अर्थात्-वे अपने पारों पैरों, दोनों दाँतों व पूँछ तथा सूंगरूप शबों से युद्धभूमि पर शत्रुओं को नष्ट करते हुए विजयश्री प्राप्त करते हैं अब कि दूसरे पैदल भादि सैनिक दूसरे खा-आदि हथियारों के धारण करने से आयुधवान्-शखधारी-कहे जाते हैं। पालकि* * 'कदाचित्सेनोयोगान् क० स०। १. उत्प्रेक्षालंकार । १. अतिशयालंकार । ३. आक्षेपालार। ४. तथा च सोमदेवत्रि:-लेषु हस्तिनः प्रधानमा स्वैरपमरठायुषा इसिनो भवन्ति ॥ १॥ ५. तपा च पालकिन-अष्टायुधो भवेहम्ती दन्ताभ्यां चरणैरपि । तथा च पुच्छशुण्डाभ्या संख्ये तेन स शस्यते ॥१॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० यशस्तिलक चम्पूकाव्ये कदाचित् - अधिगतमनिद्रः सुप्रसनेन्द्रियामा लघुजठरत्तिर्भुक्तपति दधानः । श्रमभर परिस्विनः स्नेहसंमदिताङ्गः समगृहपतिनाथ ३२२॥ विद्वान ने भी इसीप्रकार अष्टायुध हाथियों की प्रशंसा की है। वास्तव में 'राजाओं की बिजयश्री के प्रधान कारण हाथी ही होते हैं, क्योंकि वह युद्धभूमि में शत्रुकृत हजारों प्रहारों से साडित किये जाने पर भी व्यथित न होता हुआ अकेला ही हजारों सैनिकों से युद्ध करता है" । शुक्र विद्वान के उद्धरण से भी उक्त यात प्रतीत होती है। इस लिए प्रकरण में राजाओं की चतुरङ्ग सेना हाथीरूप प्रधान अङ्ग के बिना मस्तकशून्य मानी गई है || ३२१|| अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज! किसी अवसर पर मैंने ऐसा भोजन किया, जिसमें ऐसे 'सज्जन' नाम के वैद्य से, जिसका दूसरा नाम 'वैद्यविद्याविलास' भी है, जो कि मधुर, अम्ल ( खट्टा ), कटु, तिक्त, कपाय ( कसैला ) और लवण खारा इन छह रसां के शुद्ध व संसर्ग के भद से उत्पन्न होनेवाले तिरेसठ प्रकार के व्यञ्जनों ( भोज्य पदार्थों) का उपदेश दरहा था, उत्पन्न हुए निम्न प्रकार सुभाषित वचनामृतों द्वारा चर्वण-विधान द्विगुणित ( दुगुना ) किया गया था। यशोधर महाराज के प्रति उक्त बंध द्वारा कई हुए सुभाषितवचनामृत - ऐसे राजा को स्नानार्थ स्नान गृह में जाना चाहिये, सुखपूर्वक निद्रा लेने के फलस्वरूप जिसकी समस्त इन्द्रियाँ स्पर्शन, रसना, घाण, व व श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ) व मन प्रसन्न है, जिसकी उदर-परिस्थिति ( दशा लघु होगई है। अर्थात् - शौच आदि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त होने के फलस्वरूप जिसका उदर लघु हुआ है और जो भोजन- परिपाक का धारक है एवं जो धनुर्विद्या - आदि व्यायाम कार्यों से चारों ओर से श्रान्त ( थक्ति ) हुआ है तथा जिसके शरीर का सुगन्धित तेल व घृत द्वारा अच्छी तरह महादेश हो चुका है। विशेषार्थ - प्रकरण में 'सज्जन' नाम का वंद्य यशोधर महाराज के प्रति स्वास्थ्योपयोगी कर्त्तव्यों में से यथेष्ट निद्रा, उसका परिणाम, शौचादि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त होना और व्यायाम करना तथा यथाविधि स्नान करने का निर्देश करता है । आयुर्वेदवेसाओं" ने कहा है कि 'जिस विधि ( प्रकृति व ऋतु के अनुकूल चाहार-विहारादि) द्वारा मनुष्य स्वस्थ ( निरोगी ) रहे, उसीप्रकार की विधि वैद्य को करानी चाहिए, क्योंकि स्वास्थ्य सदा प्रिय है' । नीतिकार प्रस्तुत आचार्य * श्री ने भी कहा है कि 'प्रकृति के अनुकूल यथेष्ट निद्रा लेने से खाया हुआ भोजन पच जाता है और समस्त इन्द्रियाँ प्रसन्न होजाती है । इसीप्रकार मल-मूत्रादि के विसर्जन के विषय में बायुर्वेदवेत्ता श्रीभावमिश्र ने कहा है कि 'प्रातः काल मल-मूत्रादि का विसर्जन करने 1. तथा म्ब सोमदेवसूरिः - इस्तिप्रधानो विजयो राज्ञां यदेकोऽपि हस्ती सहलं योधयति न सीदति प्रहार सहस्रेणापि ॥ १ ॥ १. राधा च शुकः– सहस्रं योधयस्येको यतो याति न च व्यर्था । प्रहारैर्बहुभिर्लम्मैस्तस्मादतिमुखी जयः ॥१॥ नीतिवाक्यामृत से संकलित - सम्पादक ३. उलेषालंकार । ४. तथा चोकं ( भावप्रकाशे ) मानवो येन विधिना स्वस्थ स्तिष्ठति सर्वदा । तमेव कारयेद्र यो यतः स्वास्थ्यं सदेप्सितम् ॥१॥ ५० तथा सोमदेवसूरिः - यथा सात्म्यं स्वपाद् भुक्कामपाको भवति प्रसीदति चेन्द्रियाणि । नीतिवाक्यामृत (दिवसानुष्ठानमुद्देश) पृ० ३२६ से संगृहीत--सम्पादक ६. तथा च भावमिश्रः - आयुष्यमुषसि प्रोतं मलादीनां विसर्जनम् । तदन्त्रकूजनाध्मानोदरगौरथवारणम् ॥ १ ॥ न येगितोऽन्य कार्य: स्थान बेगानीरयेद्बलात् । कामशोकभयक्रोधान्मनोवेगान्विधारयेत् ॥१॥ भावप्रकाश पृ० ७७-७८ से संकलित - सम्पादक Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवास: से दोर्घायु होती है; क्योंकि इससे पेट की गुड़गुड़ाहट, अफारा, और भारीपन आदि सय विकार दूर होजाते हैं, इसलिए flament a, कोण, भन शोकयादि मानसिक विकार रोके जाते हैं उसप्रकार शारीरिक मल व मूलादि का वेग कदापि नहीं रोकना चाहिए। अन्यथा अनेक बीमारियाँ उत्पन्न होजाती हैं । नीतिकार प्रस्तुत आचार्य' श्री लिखते हैं कि 'स्वास्थ्य चाहनेवाले मानव को किसी कार्य में आसक्त होकर शारीरिक क्रियाएँ ( मल-मूत्रादि का यथासमय क्षेपण आदि ) न रोकनी चाहिए एवं उसे मल-मूत्रादि का वेग, कसरत, नींद, स्नान, भोजन व ताजी हवा में घूमना आदि की यथासमय प्रवृत्ति नहीं रोकनी चाहिए। अर्थात् उक्त कार्य यथासमय करना चाहिए, इसके विपरीत मलमूत्रादि के वेगों को रोकने से उत्पन्न होनेवाली हानि का निरूपण करते हुए उक्त आचार्य श्री ने लिखा है कि 'जो व्यक्ति अपने वीर्य, मल-मूत्र और वायु के वेग रोकता है, उसे पथरी, भगन्दर, गुल्म व बबासीर आदि रोग उत्पन्न होजाते हैं' । इसीप्रकार शारीरिक स्वास्थ्य के इच्छुक पुरुष को शारीरिक क्रियाओं-शीच आदि से निवृत्ति होते हुए दन्तधावन करने के पश्चात् यथाविधि व्यायाम करना चाहिए। क्योंकि व्यायाम के विना उदर की अभि का वोपन व शारीरिक दृढ़ता नहीं प्राप्त होसकती । नीतिकार प्रस्तुत आचार्य श्री ने लिखा है कि 'शारीरिक परिश्रम उत्पन्न करनेवाली किया (दंड, बैठक व ड्रिल एवं शस्त्र संचालन आदि कार्य ) को 'व्यायाम' कहते हैं।' 'चरक विद्वान् ने भी लिखा है कि 'शरीर को स्थिर रखनेवाली, शक्तिवर्द्धिनी व मनको प्रिय लगने वाली शत्र-संचालन आदि शारीरिक क्रिया को 'व्यायाम' कहते हैं । व्यायाम का समय निर्देश करते हुए आचार्य श्री ने लिखा है कि 'जिनकी शारारिक शक्ति क्षीण हो चुकी है जिनके शरीर में खून की कमी है-- ऐसे दुर्बल मनुष्य, अजीर्णरोगी, वृद्धपुरुष, लकवा आदि वातरोग से पीड़ित और रूक्ष भोजी मनुष्यों को छोड़कर दूसरे स्वस्थ बालकों व नवयुवकों के लिए प्रातःकाल व्यायाम करना रसायन के समान 'लाभदायक है'। 'चरक' विद्वान ने भी उक्त बात का समर्थन किया है । खड्ग श्रादि शस्त्र संचालन तथा हाथी व घोड़े की सवारी द्वारा व्यायाम को सफल बनाना चाहिए"। आयुर्वेद के विद्वान आचार्यों ने शरीर में पसीना आने तक व्यायाम का समय माना है । जो शारीरिक शक्ति का उल्लङ्घन करके अधिक मात्रा में व्यायाम करता है, उसे कौन-कौन सी शारीरिक व्याधियाँ नहीं होती ? अपितु सभी १. तथा च सोमदेवसूरिः—त कार्यभ्यासशेन शारीरं कर्मोपन्यात् ॥ १ ॥ वेग-व्यायाम - खाप-स्नान-भोजन- स्वच्छन्दप्रतिं कालाकोवन्ध्यात् ॥ २ ॥! ३४१ १. तथा च सोमदेवसूरि :- शुक्र मलमूत्र मग रोघोऽश्मरीभगन्दर - गुल्मार्शसां हेतुः ॥ १ ॥ नीतिवाक्यामृत ०३२३-३२४ से संकलित–सम्पादक ३. तथा च सोमदेवसूरि :- शरीरायासजननी किया व्यायामः ॥ १ ॥ ४. तथा च चरकः शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्याच बलवर्द्धिनी । देहव्यायाम संख्याता मात्र या तो समाचरेत् ॥ १ ॥ ५. तथा च सोमदेवसूरि :- गोसगँ व्यायामो रसायनमन्यत्र क्षीपाजीवात फिरूका भोजिभ्यः ॥ १ ॥ ६. तथा च चरकः———मालवृद्मप्रवशताश्च ये चोच्चैर्वहुभाषकाः । ते वर्जयेयुययामं क्षुधिता स्तृषिताथ ये ॥ १ ॥ ७. तथा च सोमदेवसूरिः शब्दवाहनाभ्यासेन व्यायामं सफलयेत् ॥ १ ॥ ८. तथा च सोमदेवसूरिः आदेहस्वेदं व्यायाम कालमुशन्स्याचार्याः ॥ २ ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये स्थाल्यो यथानावरणाननायामहतार्या न साधुपाकः । समाप्तरितस्य तथा नरेन्द्र व्यायामहीनस्य च नानपाः ॥३३॥ मभ्यङ्गः भपातहा बलकरः कायस्य दाम्यावहः स्यादुद्भर्सनमणकान्तिकरयां मेवःकफालस्यति । मायुष्य सत्यप्रसादि वपुषः साहटम रवि च स्नानं देव यधसे वितमिदं शीतैरशीत लैः ॥३२॥ च्याधियों होती है। आयुर्वेद कार परक विद्वान् ने भी 'अतिमात्रा में व्यायाम करने से अत्यन्त थकावट, मन में ग्लानि व ज्वर आदि अनेक रोगों के होने का निरूपण किया है। व्यायाम न करनेवालों की हानि बताते हुए आचार्य श्री ने कहा है कि 'व्यायाम न करनेवालों को जठराग्नि का दीपन, शारीरिक उत्साह व दृढ़ता किसप्रकार होसकती है ? अपितु नहीं होसकती। आयुर्वेदकार चरक विद्वान ने भी रहा है कि 'व्यायाम करने से शारीरिक लघुता, कर्तव्य करने में उत्साह, शारीरिक इदता, दुःखों के सहन करने की शक्ति एवं वाद व पित्त-आदि दोषों का क्षय व जठराग्नि प्रदीप्त होती है। ताजी हवा में प्रसने के विषय में आचार्यश्री ने लिखा है कि 'जिसप्रकार उत्तम रसायन के सेवन से शरीर निरोगी व शखिशाली होता है उसीप्रकार शासल, मन्द ष सुगंधित वायु में संचार करने से भी मनुष्यों का शरीर निरोगी म शक्तिशाली होजाया है। उदाहरणार्थ-निश्चय से वनों में ताजी हवा में अपनी पश्चानुक्ल भ्रमण करनेवाले हाथी कभी बीमार नहीं होते। इसाप्रकार शारीरिक अक्नों में सुगन्धित तेल की मालिश करने के विषय में श्रीभावमित्र ने लिखा है कि शरीर के समस्त अङ्गों में नित्य तेल का मालिश करना शरीर ने पुष्ट करता है और विशेष करके शिर में, कानों में और पानी में तेल की मालिश करनी चाहिए। प्रकरण में 'सज्जन नाम के वेय ने उक्त लोक यशाधर महाराज से कहा ह॥३२२॥ हे राजन् ! जिसप्रकार ढकन-रहित ( खुलीहुई ) और असंचालित अन्नबाली (जिसके भीतर का अन्न टारा नहीं गया है) बटलोई के अन्न का परिपाक ( पकना ) नहीं होता उसीप्रकार निद्रा न लिये हए ष व्यायाम-हीन पुरुष के उदर के अन्न का परिपाक भी नहीं होता। निष्कर्ष-इसलिए भोजन को पचानेवाली उदापनि के उद्दीपित करने के लिए यथाविधि व्यायाम करना व यथेष्ट निद्रा लेना अनिवार्य है॥३२३॥ हे राजन् ! समस्त शरीर में तेल मदन खेद (सुस्ती व थकावट) और वात को नष्ट करता है, शरीर में बल लाता है, शारीरिक शिथिलता दूर करता है-शरार को दृढ़ बनाता है। इसीप्रकार हे राजन् ! स्नानीय चूर्ण से किया हुश्रा पिलेपन शरीर को कान्तिशाली बनाता है एवं मेदा (थी), कफ व आलस्य को दूर करता है। हे देव ! उष्ण व शीत-ऋतु के अनुसार क्रमशः ठण्डे व गरम पानी से किया हुमा स्नान घायु को बढ़ाता है, मानसिक प्रसन्नता उत्पन्न करता है एवं शरीर की खुजली 4 म्लानि को नष्ट करता है। निष्कर्ष--अतः स्वारथ्य-रक्षा के लिए तेल की मालिश, स्नानीय चूर्ण का विलेपन 1. तया च सोमदेवरि:-बलाप्तिक्रमेण व्यायामः का नाम नापदं जनयति ॥ ५ ॥ १. तवा चरकः-प्रमः क्लमः यस्तृष्णा र कपित्तं प्रतामकः । अतिव्यायामत: कासो अरछवि जायते ॥१॥ ३. तथा च सोमदेव -मध्यायामशीलेषु कुतोऽमिदीपनमुत्साही देहदाय च ॥ १ ॥ ४. तवा च चरकः-लायचं कर्मसामध्य स्थैर्य दुःखसहिष्णुता । दोपक्षयोऽग्निवृद्धिक व्यायामादुपजायते ॥१॥ ५. सपा च सोमदेवर्ति:-पच्छन्दवृत्तिः पुरषाणो परमं रसायनम् ॥ १ ॥ बमानमतमीहानाः किल काननेषु करिणो न भवास्यास्पद व्याधीनाम् ॥ १ ॥ मौतिवाक्यामृत ( भाषाठीका समेत ) पृष्ठ ३१४-३१५ से संकलित---सम्पादक पाति-मलंकार । ५. रचन्तालधार । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः श्रमघमर्तिदेदानामाकुलेन्द्रियचेतसाम् । तव देव द्विषां सन्तु स्नानपानादनक्रियाः ॥ ३२६ ॥ स्वयं विस्तधर्माम्बुनिवाविद्राणितश्रमः । शीतोपचार वृद् लेाजवेत्परसल वत्सलः ॥ ३२६॥ हान्यभागातपितोऽम्सेवी श्रान्तः कृताशो दमनज्वराः । भगन्दरी स्यन्दविन्धका 1 गुल्मी जित्सुर्विहिताशन ॥३१७॥ स्नानं विधाय विधिवत्तदेवकार्थः संसर्पितातिभिजनः सुमनाः सुवेषः । तो रहसि भोजन तथा स्यात्सायं यथा भवति मुक्तिकरोऽभिलाषः ॥३२८॥ २४३ और उष्ण ऋतु के दिनों में ठंडे जल से तथा शीत ऋतु में गरम जल से स्नान करना चाहिए' ।। ३२४|| हे वेष ! आपके शत्रुओं की, जिनका शरीर खेद व धूप से पीड़ित है और जिनकी इन्द्रियों और मन व्याकुक्षित है, और भोजत कियाएँ हो ॥१२॥ स्वेदजल ( पसीना ) को पंखे -आदि की वायु द्वारा स्वयं दूर करनेवाले व निद्रा द्वारा खेद को नष्ट करनेवाले मानव को शीतोपचार ( मुनकादाख व हर४ आदि से सिद्ध किये हुए औषधियों के जलविशेष ) द्वारा न कि पानी पीने द्वारा अपनी प्यास शान्त करने के पश्चात् भोजन में स्नेह ( रुचि) करनेवाला होना चाहिए भोजन करने में प्रवृत्त होना चाहिए || ३२६ ॥ धूप से पीड़ित पुरुष यदि तत्काल पानी पीलेता है तो उसकी दृष्टि मन्द पड़ जाती है और मार्ग चलने से थका हुआ यदि तत्काल भोजन कर लेता है तो उसे वमन व ज्वर होजाता है एवं मूत्रवेग को रोककर भोजन करनेवाले को भगन्दर और मल के वेग को रोककर भोजन करनेवाले को गुल्म रोग होजाता है । निष्कर्ष — इसलिए उक्त रोगों से बचने के लिए एवं स्वास्थ्य-रक्षा हेतु धूप से पीड़ित हुए को तत्काल पानी नहीं पीना चाहिए, मार्ग श्रान्त को तत्काल भोजन नहीं करना चाहिए एवं मल-मूत्र के वेग को रोककर भोजन नहीं करना चाहिए ।। ३२.५|| स्वास्थ्य-रक्षा चाहनेवाले विवेकी पुरुष को स्नान करने के पश्चात् शास्त्रोतविधि से ईश्वर भक्ति ( अभिषेक व पूजन आदि ) करके और अतिथिजनों ( दान - योग्य पात्रजनों) को सन्तुष्ट कर के अकलुषित (शुद्ध) चित्तशाली होकर सुन्दर वस्त्र पहनकर एवं हितैषी माता-पिता व गुरुजनों से वेष्टित होते हुए एकान्त में उसप्रकार से- - उतना ( भूल के अनुसार ) भोजन करना चाहिए, जिससे कि सायंकाल में उसकी भोजन करने की इच्छा प्रकट होजाय । विशेषार्थ — नीतिकार प्रस्तुत आचार्य" श्री ने लिखा है कि 'जो मानव देव, गुरु व धर्म की उपासना के उद्देश्य से स्नान नहीं करता, उसका स्नान पक्षियों के स्नान की तरह निष्फल है'। अतः विवेकी पुरुष को यथाविधि स्नान करने के पश्चात् ईश्वरभक्ति व शास्त्रस्वाध्याय आदि धार्मिक कार्य करना चाहिए । क्योंकि देष, गुरु व धर्म की भक्ति करनेवाला कभी भ्रान्तबुद्धि ( कर्त्तव्य मार्ग से विचलित करनेवाली बुद्धिवाला) नहीं होता । आचार्यश्री विद्यानन्द ने तस्वार्थ श्लोकवार्तिक में कहा है कि 'आत्यन्तिक दुःखों की निवृप्ति (मोक्ष प्राप्ति ) सम्यग्ज्ञान से होती है और वह ( सम्यग्धान ) निर्दोष द्वादशाङ्ग शास्त्रों x 'शीतोपचारच्छेदी' क० । * श्रान्तश्च भोक्ता वमनश्वराई' ० 'गुल्मी जिहासुः कृतभोजनच' क० । १. समुच्चयालङ्कार २. हेतु अलंकार | ३. जाति अलङ्कार । ४. जाति थलङ्कार । ५ तथा च सोमदेवसूरि :- अलवर स्येष तरस्नानं यत्र न सन्ति देवगुरुधर्मोपासनानि ॥१॥ ६. देषान् धर्म पोपच्चरल व्याकुलातिः स्यात् । नीतिवाक्यामृत ( दिवसानुष्ठान समुद्देश) से संकलित — सम्पादक ७. तथा विद्यानन्द आचार्य:- अभिमतफलसिद्ध रभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शाखा सस्य बोत्पतिराहात् । न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरति ॥१॥ तत्वार्थपार्तिक पृष्ठ से संकलित । 4 इति प्रभवति स पूज्यस्वरप्रसाद प्रमुख Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ यशक्षिकचम्पूकाम्ये वारायणो निशि तिमिः पुनरस्तकाले मध्ये दिनस्य धिषणश्चरकः प्रभाते । कि जंगा नृपते मम चैव सस्तस्याः स एव समय: क्षुधितो यदैव ॥ ३२९ ॥ मोल्लोलभावेन कुर्यादशकण्ठभोजनम्। सुप्तान्ध्यालानिय व्याधीन्सोऽनर्थाय प्रबोधयेत् ॥ ३३० ॥ के अध्ययन से प्राप्त होता है एवं उन द्वादशाङ्ग शाखों के जन्मदाता - आदिवक्ता — ऋषभदेव आदि बीस तीर्थकर हैं. अतः वे पूज्य हैं, क्योंकि सज्जनपुरुष किये हुए उपकार को नहीं भूलते ।' इसप्रकार ईश्वर की उपासना के पश्चात् उसे अतिथियों-दान देने योग्य व्रती व साधु महात्माओं के लिए श्राहारखान देकर सन्तुष्ट करना चाहिए। क्योंकि आचार्यश्री ने लिखा है कि 'जो गृहस्थ होता हुआ ईश्वरभक्ति व साधु पुरुषोंकी सेवा ( आहारदान द्वारा संतुष्ट करना ) नहीं करके भोजन करता है, वह उत्कृष्ट अञ्जानरूप अन्धकार का भक्षण करता है' । अतः अतिथियों को संतुष्ट करना महत्वपूर्ण व अनिवार्य है । तत्पचान प्रसन्न व विशुद्धचितशाली होते हुए स्वच्छ वस्त्र धारण करके ही जनों से वेष्टित हुए एकान्त में यथासमय - -भूख लगने पर — यथाविधि भोजन करना चाहिए । नीतिकार आचार्य श्री ने लिखा है कि 'भूख लगने का समय ही भोजन का समय है'। सारांश यह है कि विवेकी पुरुष को अहिंसाधर्म व स्वास्थ्य रक्षार्थ रात्रिभोजन का त्याग कर दिन में भूख लगने पर प्रकृति व ऋतु के अनुकूल आहार करना चाहिए, बिना भूख लगे कदापि भोजन नहीं करना क्योंकि बिना भूँख के पिया हुआ अमृत भी विष होजाता है। जो मानव सदा आहार के अपनी जठराशि को बचाभि जैसी प्रदीप्त करता है, वह वज्र सरीखा शक्तिशाली होजाता है। समय उल्लङ्घन करने से अन्न में अरुचि व शरीर में कमजोरी आती है ।' अतः स्वास्थ्य-रक्षा के लगने पर ही भोजन करते हुए भूख का समय उल्लङ्घन नहीं करना चाहिए || ३२८|| चाहिए । आरम्भ में भूँख का हेतु भूख हे राजन् 'चारायण' नाम के वैद्य ने रात्रि में भोजन करना कहा है, 'तिमि' नाम वैद्य ने सायंकाल में भोजन करना बताया है और 'बृहस्पति' नाम के वैद्य ने मध्याह वेला - दोपहर का समय में भोजन करना कहा है एवं आयुर्वेदकार चरक ने प्रातःकाल भोजन करना बताया है परन्तु मेरा वो यह सिद्धान्त है कि जब भूख लगे तभी भोजन करना चाहिये । प्रस्तुत नीविकार आचार्य ने कहा है कि 'भूख लगने का समय ही भोजन का समय है'। अभिप्राय यह है कि अधर्म की रक्षार्थं व स्वास्थ्य-रक्षा के हेतु रात्रिभोजन का त्याग करते हुए दिन में भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए, बिना भूँख के कदापि नहीं खाना चाहिए || ३२९ || जो मानव भोजन की लम्पटता खरा बिना भूख लगे ही कण्ठतक ( अत्यधिक ) भोजन करता है, वह अपने को दुःखी बनाने के लिए सोते हुए सर्पों के समान रोगों को जगाता है। अर्थात् जिस प्रकार सोते हुए सर्पों का जगाना अनर्थकारक है उसीप्रकार भोजन की लम्पटता- यश बिना भूँख के ही अधिक खालेना भी अनर्थकारक ( अनेक रोगों को उत्पन्न करनेवाला ) है* ||३३०|| १. तया च सोमदेवपूरि : - देवपूजाम निर्माय भुमीननुपचर्य च । यो भुञ्जीत गृहस्थः सम्स भुञ्जीत परं तमः ॥ १ ॥ यशस्तिलक उत्तरार्द्ध पृ० ३८६ से संकलित-सम्पादक २. तथा च सोम-बुभुक्षाकालो भोजनकालः ॥१॥ अक्षुधितेनाभृतमप्युपभुक्तं च भवति विषं ॥२॥ अठराग्नि वज्राग्नि कुर्बशाहारादी सदैव वज्र वलयेन् ॥३॥ शुकालादिकमादमद्वेषो देहसादव भवति ॥ ४ ॥ ३. जति अलंकार । नीतिवाक्यामृत ( दिवसानुष्ठामसमुद्देश २९ -- ३१ ) से संकलित -- सम्पादक तथा च सोमदेवसूरिः - गुनुक्षाकालो भोजनकालः । ५. दीपकालंकार । ६. उपमालंकार । ४. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः ३४५ अन्ये स्वेवमाहुः : - यः कोकवशिवाकामः स नक्तं भोक्तुमर्हति । स भोका वासरे यश्च रात्रौ रन्ता चकोरवत् ।। ३३१ ॥ परे त्वेवमाहू:- नाभिपन्नसंकोचण्डशेचेरपायतः । भतो नक्तं न भोक्तव्यं वैद्यविद्याविदां वरैः ॥ ३३२ ॥ देवाच' भोजन निद्रामाकाशे न प्रकल्पयेत् । नान्धकारे न संध्यायां नाविताने निकेशने ॥ ३३३ ॥ सहभोजषु लोकेषु पुरै परिवेषयेत् । भुञ्जानस्यान्यथा पूर्वं तद्दृष्टिविक्रमः ॥ ३३४ ॥ स्वापे मलोत्सवः संबाधसमाकुलः । + निःशङ्कस्यात्ययासस्य के के न स्युर्महामयाः ॥ ३३५ ॥ here प्रतिकूल: करमनाः सामयः क्षुधाक्रान्तः । न स्थात्समीपवर्ती भोजनकाले विनिश्व ॥ ३३६ ॥ नवनिविगन्धिविरसस्थिति । अतिजीर्णमसाहम्यं च नाथावतं न चाकिलम् ॥ ३३७ ॥ दिसं परिमितं पक्वं मे नासारसाप्रियम् । परीक्षितं व भुञ्जीत न तं न विलम्बितम् ||३३८ || ध्वाङ्गः स्वरान्विकुरुतेऽत्र बिभ्रुः। कौः प्रमाद्यति विरौति च ताम्रचूडादि शुकः प्रतनुते हदत्ते कपिश्च ॥ ३३९॥ दूसरे वैद्य उक्त विषय पर इसप्रकार कहते हैं--जो पुरुष चकवाचकवी के समान दिन में कामसेवन करता है, उसे रात्रि में भोजन करना चाहिए एवं जो चकोर पक्षी के समान रात्रि में मैथुन करता है, उसे दिन में भोजन करना चाहिए। निष्कर्ष - मानव भी चकोर पक्षी जैसा रात्रि में कामसेवन करता है, अतः उसे भी दिन में भोजन करना चाहिये १ ||३३१|| कुछ वैद्य उक्त विषय पर ऐसा मानते हैंरात्रि में सूर्य अस्त होजाने के कारण मनुष्यों के हृदयकमल व नाभिकमल मुकुलित होजाते हैं, इसलिए उत्तम वैद्यों को रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए ||३३२ || विवेकी पुरुष को देवपूजा, भोजन व निंद्रा ये तीनों कार्य खुले हुए शून्य स्थान पर, अँधेरे में और सायंकाल में एवं विना देवावाले गृह में नहीं करना चाहिए ||३३३|| अनेक लोगों के साथ पक्ति भोजन करनेवाले मानव को सहभोजियों के पूर्व में ही भोजन छोड़ देना चाहिए। अन्यथा ( ऐसा न करने से ) पहिले खानेवालों का दृष्टिविष ( नजररूपी जहर ) उस भोजन में प्रविष्ट होजाता है ||३३४ || भोजन, निद्रा और मल त्याग का वेग रोकनेवाले मनुष्य को भयभीत होने के फलस्वरूप कौन-कौन से महान् रोग नहीं होते ? अपितु समस्त रोग होते है ||३३५ || भोजन के समय उच्छिष्ट ( जूठन ) खानेवाला, शत्रु, हिंसक, रोगी और भूँख से पीड़ित एवं निंदनीय पुरुष निकटवर्ती ( समीप में ) नहीं होना चाहिए ||३३६६ | स्वास्थ्य के इच्छुक मानव को ऐसा अन नहीं खाना चाहिए, जो कि मलिन, अपरिपक्क ( पूर्णरुप से न पका हुआ ), सड़ा या गला हुआ, दुर्गन्धि, स्वाद रहित, घुना हुआ, अहित ( प्रकृति ऋतु के विरुद्ध होने से रोगजनक ) तथा शुद्ध है" ॥३३७॥ स्वास्थ्य का इच्छुक मानव ऐसा अन शीघ्रता न करके और विलम्ब न करके ( भोजन आरम्भ करके उसे पूर्ण करते हुए ) खावे, जो भविष्य में हितकारक ( रोग उत्पन्न न करनेवाला व पुष्टिकारक ), परिमित ( जठराग्नि के अनुकूल - परिमाण का ), अग्नि में पका हुआ, नेत्र, नासिका व जिल्हा इन्द्रिय को प्रिय और परीक्षित ( विष-रहित ) हो ||३३८ || अब 'सज्जन' नाम का वैद्य यशोधर महाराज के लिए पूर्व श्लोक नं० ३२८ में कहे हुए 'परीक्षित' ( विष-रवि ) पद का तीन लोकों में विस्तार करता है । अर्थात् — यह कहता है कि हे राजन् ! विषमिश्रित अन्न निम्न प्रकार के प्रमाणों ( लक्षणों) से जाना जाता है, वैसे लक्षणोंवाला अन्न कदापि नहीं खाना चाहिए - हे राजन् ! विष व विष मिश्रित अन्न के देखने से काक व कोयल विकृत शब्द करने + 'निःशरात्ययात्तस्य ग० । १ उपमालंकार । २. रूपकालंकार । ३. दीपकालंकार । ४. रूपकालंकार | ५. आपालंकार । ६. दीपकालंकार । ५. क्रियाक्षेपालंकार । ८. क्रिया दीपक अलंकार | ४४ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये I बिरrयेते कोरस्य लोचने विषदर्शनात् । गतौ स्खलति सोऽपि छीयन्तेऽनेन मक्षिकाः ॥ ३४८ ॥ या लवगसंपत्स्फुटं स्फुटति पावकः । विषष्यान्न संपर्क तथा वसुमतीपते ॥३४६॥ पुनहमीकृतं स्यान्यं सर्वं वरन्यं विरूयकम् । दशशत्रोषित नाथासे च निहितं घृतम् ॥ ३४२ ॥ किसी लवणेन शकुलिः कलिना गुडपिप्पलिममरिचैः सार्द्धं सेव्या =न काकमाची च ||३४३॥ भुञ्जीत मापं सूकसहितं न जातु हितकामः । भिवसनाद्यानि निखिलं तिछविकारं च ।। ३४४ ॥ ऋते बृद्धाम्बुभक्ष्येभ्यः सर्व पर्युषितं स्वजेत्। देशकीटकसंसृशं । पुनार च वर्जयेत् ॥ ३४५॥ अत्यानं ध्यानं समशनमध्यानमंत्र संत्याज्यम् । कुर्याद्यथोक्तमशनं बलजीवितपेश क्रमश: ॥ ३४६ ॥ 1 लगते हैं। नौला व मोर आनन्दित होता है। क्रौंच पक्षी नींद लेने लगता है, कुक्कुट ( मुर्गा ) रोने लगता है, तोता वमन कर देता है, बन्दर मल त्याग कर देता है, चकोर पक्षी के नेत्र लाल होजाते हैं तथा इस का गमन स्खलित होता है ( सुन्दर गमन नहीं करता ) एवं विषैले अन्न पर मक्खियाँ नहीं बैठती' ।। ३३९ - ३४ ।। युग्मम् || हे पृथिवीपति ! विष-दूषित अन्न के संसर्ग से अग्नि उसप्रकार स्पष्ट रूप से बटपटाने लगती है. जिसप्रकार नमक डालने से चटचटाती है" ।। ३४१ ॥ अथानन्तर उक्त वैध प्रस्तुत यशोधर महाराज के प्रति न खाने योग्य व खाने योग्य पदार्थों का विवेचन करता है - हे राजम् ! स्वास्थ्य-रक्षा हेतु फिर से गरम किया हुआ समस्त दाल-भात- श्रादि अन्न, अङ्कुरित धान्य और दश दिन तक काँस में रक्खा हुआ भी नहीं खाना चाहिए || ३४२ || स्वास्थ्यरक्षा के निर्मित केले को दही, छाँच व दही छाँच के साथ न खावे और दूध में नमक डालकर न पिए एवं काञ्जी के साथ शष्कुलि ( पूड़ी ) नहीं खात्रे तथा काकमाची या पाठान्तर में कावमारी ( शाक विशेष ) गुरु, पीपल, मधु व मिर्च इन चार चीजों के साथ न खावे ||३४३ || अपना हित चाहनेवाले मनुष्य को उड़द की दाल मूली के साथ कदापि नहीं खानी चाहिए और दही के समान पिण्डरूप से बँधे हुए, सन्तुए नहीं स्वाना चाहिए किन्तु जल द्वारा शिथिलित सत्तुआ खाना चाहिए । अर्थात् - सुश्रुत " में लिखे अनुसार सत्तुओं का अवलेह -सा बनाकर खाना चाहिए, क्योंकि अवलेह नरम होने से शीघ्र पच जाता है । इस प्रकार रात्रि में समस्त प्रकार के तेल से बने हुए पदार्थ नहीं खाने चाहिए' ||३४४ || हितैषी पुरुष भी, पानी व लड्डू आदि पकवानों को छोड़कर बाकी सभी खानेयोग्य पदार्थ ( रोटी व बाल-भात- आदि व्यञ्जन ) रात्रि के रक्खे हुए न खाय । अर्थात्-रात्रि के रक्खे हुए घी, पानी व लड्डू- आदि पकवान खाने में दोष नहीं है, अतः इन्हें छोड़कर बाकी रोटी आदि खानेयोग्य पदार्थ रात्रि के रक्खे हुए न खाय । इसीप्रकार केश व कीड़ों से व्याप्त हुआ अन्न न खाय । अर्थात् जिस दाल-भात आदि अन्न में बाल निकल आये उसे न स्वाय और जिसमें कीड़ा निकल आवे उसे भी न खाय एवं फिर से गरम किया हुआ अन्न न खाये ॥ ३४५॥ भूँख से अधिक खाना, भूख से कम खाना, पध्य व अपथ्य खाना, अध्यशन ( भूख के अनुकूल भोजन कर लेने पर भी फिर से भोजन करना अथवा पेट में अजीर्ण होने पर खाना ) इन सबको छोड़ देना चाहिए। भोजनविधि में क्रमश: अग्नि, काल व अवस्था के अनुकूल बलकारक पाठ: । S 'सूर्य' ग० । = 'न काचमारी ७ क० भयं शुद्धपाः क० भ० प्रतितः समुद्धृतः सुप्रस तु 'पुनराद'' १. समुध्यालंधर । २. उपमालंकार । ३. ५ तथा च सुश्रुतः — 'खचूनाभाश्शु जीय्येंत भूवुत्यादवले हिडा प्रदीपक अलंकार। ४ दीपक अलंकार | ॥ ६. समुच्चयालंकार । भावप्रकाश ० ९६ । * या पोते यत्तु तदम्बचनमुच्यते ॥ ३५ ७. समुच्चयालंकार | Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भास्थासः आपो स्वाद स्निा गुरु मध्ये सरगमलमुपसेव्यम् । सशं च पश्चान्न १ भुक्त्वा भक्षयत्किंचित् ।।३४४॥ मन्दस्तीक्ष्णो विषम: समश्च वहिरातर्विधः पुंसाम् । धुमन्दे गुरु तीक्ष्णे सिध विषसेसम समे चाचात् ॥३४८॥ शिशिरसुरमिधर्मेधावपाम्मरस्म क्षितिप जसारखेमन्तकाळेपु चैते। कफपवनहुताशाः संचयं च प्रकोपं प्रशसमिह मबस्ते जन्ममाजां क्रमेण ।। ३४५ ॥ तदिह पारदि सेव्यं स्वातु सिक्त फषार्थ मधुरवणमम्मे नौरनीहारकाले । नृपवर मधुमासे वीक्ष्णसिक कार्य प्रशमरम्मथानं मीधमकालागमे च ॥ ३५० ॥ ममशनमिहायात क्षीरमाषेचभक्ष्यान्दधि व घृतविकारांस्लमप्यत्र पथ्यम् । निधि व शिशिरफाळे पीनवक्षोजभाजो विपुलबहकाया सेवनीयाः पुरंध्यः ॥ ३१ ॥ और आयु-रक्षक भोजन करना चाहिए' ॥३४६॥ भोजन के अवसर पर पहिले स्वादिष्ट ( लड्डू-श्रादि ) व धृत-मिश्रित सचिक्कण पदार्थ खावे। मध्य में भारी पदार्थ रथं खारा व खट्टा रस खावे तथा अन्त में रूक्ष घ तरलपदार्थ (महा-वगैरह ) सेवन करना चाहिए परन्तु भोजन करने के पश्चान् कुछ भी नहीं खाना चाहिए ॥३४७६ जठराग्नि (उदराग्नि ) के चार भेद हैं। १. मन्द, २. तीक्ष्ण, ३. विषम और ४. समाग्नि । १. मन्दाग्नि-कफ की अधिकता से और दूसरी तीक्ष्ण अग्नि-पित्त की अधिकता से एवं ३. विषमाग्नि-वात की अधिकता से वथा ४. समाग्नि-कफ, पिप्स व यात की समता से होती है। इनमें से मन्दाग्निषाले को हल्का भोजन करना चाहिए, तीक्ष्ण अग्निवाला भारी भोजन करे एवं विषमाग्निवाला सचिक्कण अन्न खावे तथा समाग्नि में सम अन्न खावे ॥३४॥ हे राजन् ! इस संसार में प्राणियों के कफ, वात और पित्त शिशिरऋतु (माघ व फाल्गुन दो माह), वसन्त ( चैत्र व बैसाख) और भीष्मऋतु (ज्येष्ठ व आषाढ़ ) मैं तथा भीष्मऋतु, वर्षाऋतु (आवण व भाद्रपद) और शरदऋतु (धाश्विन व कातिक) में, एवं वर्षाऋतु, शरदऋतु व हेमन्तवत (अगइन 4 पौषमाइ) में क्रमशः संचय, प्रकोप और शमन को प्राप्त करते हैं। अर्थात्-शिशिरत में प्राणियों का कफ संचित होता है और वसन्तऋतु में कफ कुपित होता है तथा ग्रीष्मऋतु में कफ शान्त होता है। इसीप्रकार प्रीष्मऋतु में वायु का संचय होता है और वर्षाऋतु में वायु का प्रकोप होता है एवं शरद ऋतु में वायु का शमन होजाता है। एवं वर्षाऋतु में पित्त संचित होता है, शरदऋरत में पिस कुपित होता है और हेमन्त ऋतु में पित्त का शमन होता है।३४६।। हे राजाधिराज! अतः इस शरद ऋतु (आश्विन व कार्तिक मास ) में मिष्टान्न सेवन करते हुए तिक्ष (कढुवा या पिरपिरा) व कषायले रस का सेवन करना चाहिए । हेमन्त ऋतु (अगहन व पौष माह) में मधुर, खारा व खट्टे रस का सेवन करना चाहिए। इसीप्रकार वसन्तऋतु (चैत्र व पैसाख ) में तीचरण, तिक्त व कषायला रस खाना चाहिए और प्रीष्मऋतु (ज्ये व भाषाढ़) में मिष्टान्न सेवन करना चाहिए ||३५०॥ शिशिरऋतु (माघ व फाल्गुन) में ताजा भोजन, दूध, उडव, गन्ना, लघु-आदि भक्ष्य, दही घ घी से बने हुए व्यअन खाने चाहिए। इस तु में तैल भी पथ्य-हितकारक है एवं इसमें रात्रि में स्थूल कुच (स्तन) कलशोवाली स्थूल शरीरवाली त्रियों को सेवन करना चाहिये ॥३५।। हे राजन! वसन्तऋतु (चैत्र व बैसाख) में भारी (स्वभाव से भारी * 'प्रममरसमथा' का । १. समुच्चयालंकार। तथा चोक-भुक्त्वा यत्प्रार्थ्यते भूयस्तवुर्फ स्वादु भोजनम् ॥१॥ अर्थात जो पदार्थ खाकर पुन: माँगा जाय, उसे स्वादिष्ट कहते हैं। .. समुच्चयालंकार । ३. दीपकालंकार 1 v. यथासंख्य अलंकार। ५. समुच्चयालंकार । ६. समुच्चयालंकार । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ यशस्तिलकदम्पूकाव्ये पवामप्रार्य रूक्षप्रायं च भोजनं कुर्यात् । मरिज़म्भकाले गुरु शीतं घाटु र स्पान्यम् ॥ ३६३ ॥ कलमसदकमन मुगभूपः ससपिबिलकिसलयकन्दा: सनवः पानकानि । क्षितिरमण रसाला नाक्तिकरीफलाम्भस्तपदिवसनिषेत्र्यं शर्करा यश्च ॥ ३५३ ॥ परिशुष्क लघु स्निग्धमुष्णं पावृषि भोजनम् । पुराणशालिगोएमयवसायं समाचरेत् ॥ ३५ ॥ कृप्तं मुद्गः शालिः समिधविकृतिः क्षीरविधयः पटोल मुडीकाः फलमिह स पाश्याः समुचितम् । सिता शोसच्चाया मधुरसका कन्दपलं शरकाले सेव्यं स्वनिवदने पद्धकिरणाः ॥ ३६६ ॥ न्यूनाधिकविभागेन रसानृषु योजनेन् । पड्याभ्यवहारस्तु सदा नृणां सुखावहः ॥ ३५ ॥ वाल अन्सा कोहलं कारवलं चिल्ली जीवन्ती पास्नुलस्तण्डलीयः। सद्य: सा; रिचयातi in समासे - स्कावरचाकस्य ॥ ३८७ ॥ तुर्येगांगेन भोज्यस्य सर्वशाकं समाचरेत् । दना परिचत नायाहिशुष्कं पयसा म प ॥ ३५८ ॥ उड़द व पिठी-आदि ), ठंडी चीजें ( शक्कर-आदि ) और स्वादिष्ट (मिष्टान) को छोड़ते हुए अधिक करके जौ और गेहूँ का तथा अल्प घृतवाला भोजन स्वाना चाहिए ।।३५२।। हे पृथिवीपति ! प्रीष्मऋतु (ज्यप व आषाढ ) में सुगन्धि चॉबलों का भात, घी-सहित मूंग की दाल, कमल-नाल का तन्तु, मीठी कंपलें, सतुआ ब 'आम्र खाना चाहिए गवं पानक ( शरयत-आदि पीने योग्य), नारियल का पानी और शाबर डालकर दूध पीना चाहिये ।।२५३।। वर्षा ऋतु ( श्रावण ष भादों) में परिशुष्क (भली-भौति पकाए हुए दूध की मलाई-आदि स्वादिष्ट पदार्थ :, हल्का ( चाँवलों का भात-श्रादि), घी-आदि सचिस्कए वस्तु गरम एवं अधिक करके पुराना धान, गहूँ और जी का बना हुआ भोजन (क्रमशः चावलों का भात, पकी हुई गेहूँ के आटे की रोटी और जी का भात) खाना चाहिए ||३५४|| शरदऋतु ( आश्विन व कातिक ) में घी, मूंग: सुगन्धि चाँवलों का भात, गेहूँ के आटे की लप्सी, खीर, पटील ( व्यअनविशेष अथवा परखलो, मुनक्कादाख, पावला, शक्कर मीठे पिरडालू-कन्द और मीठी कोपलें खानी चाहिए । इसीप्रकार प्राम वगैरह वृक्षों की छाया व पूर्व रात्रि में चन्द्र-किरणों का सेवन करना चाहिए ॥३५५।। वसन्त-आदि छहों ऋतुओं में अल्प व प्रचुरमात्रा का विभाग करके रस-भक्षण की योजना करनी चाहिए। उदाहरणार्थ-प्रीष्मऋतु में उगरस, सोंठ मिर्च व पापल-आदि । अल्पमात्रा में और शीतरस ( दही-आदि रस ) अधिकमात्रा में खाना चाहिए और शीतकाल में शीतरस अल्प और उष्णरस अधिक खाना चाहिए इत्यादि । इसके विरुद्ध सर्वथा छोड़ना चाहिए। छहॉरसा वाला भोजन मनुष्यों को सदा सुखदायक है" ॥३५क्षा अथानन्तर उक्त 'सजन नाम का वैद्य यशेधर महाराज के प्रांत समस्त ऋतुओं में सेवन करने योग्य शाको-आदि का निरूपण करता है : ह राजन् ! कोमल व ताजा बैंगन, पक्व कुम्हड़ा व करैला इन फलों की शाक और पोई, जीवन्ती । कररुआ ।, बथुए का भाजाव चोलाइ का भाजा का शक एवं ककड़ा खानी चाहिए तथा उसी समय अग्नि में पकाए हुए उड़द का दाल के पापड़ खान चाहिए। इसीप्रकार भोजन के अवसर पर अदरक के टको खाय जाव ता स्वर्गलाकों से क्या लाभ है? अपि तु कोई लाभ नहीं। अर्थात्-अदरक का भक्षण जठराग्नि को उद्दीपित करता है।॥ ३५॥ जितना भोजन किया जाता है, उसक चौथाई भाग 'स्वादु क.। 'वालं घातांक काल कारवलं चिली जाषन्ता यात्रुफरदडलाय . 'पालं पाकि स. ग. प.। ४ "चिभिटान्ताः' ० । +'पालयवादकस्य क०। १. समुच्चयालंकार । २. समुच्चयालंकार। ३. समुचनालंकार । ४. समुच्चयालंकार। ५. जानि-अलंकार। ६. आक्षेप व समुच्चयालंकार । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्राश्वासः ૧૪૨ अकथितं दशमटिका कथितं द्विगुणाश्व थाः पयः पथ्यम् । रूपामोदरसावं यावत्तावधि प्राश्यम् ॥ ३५९ ॥ ags भक्ष्यार्णा स्वदते राध्यतेऽपि च । उष्णोष्णाः सर्पिषि स्नाता यावन्नाङ्गाराचिताः ॥ ३६० ॥ दागमवेदिभिर्निगदितं साक्षादिदानुगाँ षयेषु रसायनाय पठितं सचो जरानाशनात् । यस्सारस्वतकल्पकान्तमतिभिः प्रोक्तं धियः सिद्धये तसे काञ्चनकेत कविरसच्छायं मुद्दे स्साद्धृतम् ॥ ३६१ ॥ स्थौल्यं करोति हरतेऽनिलमेतदेकं योष्णतामुपगतं दधि तस्काचित् । सर्पिःखिता मलमुत्रकषाययुक्तं सेव्यं वसन्सवारदात पत्रावर्जम् । ३६२ ॥ नवनीतोद्धारं मथितं कथयन्ति समगुणं सुधियः । चिरमथितं पुनरुत्पत्तिकरं च न कस्य दोषस्थ ॥ ३६३ श्रीरं साक्षाज्जीवनं जन्मसाल्यासारोष्णं गश्यमायुष्यमुक्तम् । प्रातः सायं प्राम्यधर्मावसाने सुकेः पश्वादात्मसाम्येन सेव्यम् ॥ ३६४ ॥ वरावर समस्त शाक खानी चाहिए। दही के मध्य में डूबा हुआ भोजन ( दहीबड़ा आदि ) और पानी अग्नि में बिना औटाया ( उबाला ) हुआ से शुष्क - सूखा - भोजन नहीं खाना चाहिए' ।। ३५८ ॥ ( कथा ) दूध दश घड़ी तक पथ्य है, इससे अधिक समय तक का अपथ्य है और अग्नि में श्रौटाया हुआ दूध वीस घड़ी तक पथ्य है बाद में अपथ्य है। इसीप्रकार दही जबतक उज्वल और सुगन्धित है एवं जबतक खट्टा नहीं हुआ है तबतक खाना चाहिए ।। ३५९ ।। लड्डू आदि पकवान, जो कि चारों पर हुई चोरी कराई जाने से घी से तर होगए हैं और जो विशेष गरम हैं, जबतक खाये नहीं जाते तबतक उनका समूह स्वादिष्ट व प्रशंसनीय समझा जाता है ।। ३६० ।। हे राजन् ! सुबर्ण व सुवर्णकेतकी पुष्प की तरलता के समान घी आपको आनन्दित करे, जिसे इस संसार में वैदिक विद्वानों ने मनुष्यों की प्रत्यक्ष आयु बताया है, क्योंकि 'आयुर्वै घृतम्' अर्थात् निश्चय से घृत आयु है, ऐसा वेद वाक्य है। घी पीने से तत्काल बुढ़ापा नष्ट होजाता है, इसलिए वैयों ने आयुर्वेदशास्त्रों में जिसे मृगाङ्क आदि रसायन- सरीखा शक्तिवर्द्धक बताया है, [ क्योंकि 'युद्धोऽपि तरुणायते' अर्थात् घी पीने से वृद्ध भी जवान होजाता है यह आयुर्वेद की मान्यता है ] | इसी प्रकार सरस्वतीमन्त्र-माहात्म्य के प्रकाशक शास्त्र से मनोहर बुद्धिशाली मन्त्रशादियों ने जिसको बुद्धि की प्राप्ति का निमित्त बताया है ।। ३६१|| कभी भी गरम नहीं किया हुआ ( ठंडा ) दही शरीर को स्थूल करता है और अकेला ही वातनाशक है। इसे घी, आँवला और मूँग के पानी से युक्त करके वसन्त ( चैत्र व वैसाख), शरद (आश्विन व कार्तिक ) और प्रीष्म (ज्येष्ठ व आषाद) ऋतु को छोड़कर बाकी की तीन ऋतुओं मैं ( हेमन्त — अगइन ष पौष, शिशिर - माघ व फाल्गुन और वर्षाऋतु-- श्रवण व भादों) में खाना चाहिए" || ३६२|| तक (मठा) को, जिसमें से तत्काल मक्खन निकाल लिया गया है, विद्वानों ने बात, for a कफनाशक कहा है। [ क्योंकि आयुर्वेद में कहा है कि 'तक द्वारा अद से नष्ट किये गए रोग फिर से उत्पन्न नहीं होते ] परन्तु चिरकाल का ( परसों का ) मधा हुआ मट्टा किस दोष को उत्पन्न नहीं करता ? अपितु समस्त रोगों को उत्पन्न करता है || ३६३|| दूध जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त हितकारक है, [ क्योंकि उत्पन हुआ बच्चा दूध पीकर ही जीता है ] इसलिए यह निश्चय से आयु को स्थिर करता है । आयुर्वेद में गाय का धारोष्ण ( तत्काल दुड़ा हुआ ) दूर आयु के लिए हितकारक कहा गया है। अतः सुबह, शाम और कामसेवन के पश्चात् एवं मुनियों को भोजन के पश्चात् दूध उतना पीना चाहिए, जितना ii 'जरानाशनं' क० । १. जाति अलंकार । २. जाति अलंकार । ३. अतिशयालंकार । ४. उपमालंकार । ५. समुच्चयालंकार । ६. तथा च भाषमिश्रः न तदग्धाः प्रभवन्ति रोगा भावप्रकाश से संकलित – सम्पादक ७. बापासंकार । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ यशस्तिस्लफचम्पकाम्ये मतिम मिचेवास्तसत बहिसाइ सम्मधिकलवणान प्राशनाड टिमान्यम् । अस्पति बपुरेगापासतीक्ष्णोपवुक्तिसविल्यमसात्म्यं भुक्तमान करोति ॥ ३६५ ॥ वपणो देहदाहाय पायोनिलकोपनः । निषेश्यमागः सातत्यापतिमात्रसया रसः ॥ ३६६ ॥ (युग्मम् ) पसमिमविदाहिया शीतं निषेत्र्यं क्वचितमिदमुपास्य दुर्जरेने व पिथे। मपति विदलकाटजन्तिसोमस्य पानं घृतविकृतिषु पर्य कालशेयं सदैव ॥ ३ ॥ मादौ वर्ष पहिरिनाशकायें कुत्तदन्ते कफवर्ण छ । मध्ये तु पीस समता सर्वच माल्यातियोगोऽभिमतः सहय ॥ ३६८ ॥ अमृत विमिति चैतत्सलिले निगम्ति विशिमार्या: ।::तिमा भिमलित करना३६९॥ कोई प्रास्त्रवणं वसन्तसमवे प्रीष्मे सदेवोचित काले बालभिवृष्टिदेशमथवा चौपाय धनानां पुनः । नीहारे सीतजामविक्यं स रस्संगमे से सूर्यसितापुरश्मिपवनव्याधूतदोष पयः ॥ ३० ॥ अपने लिए हितकारक हो । अर्थात् -बहुत अधिक दूध नहीं पीना चाहिए ॥३६४॥ विशेषमात्रा में मोठा (गुरव शकर-आदि) खाने से जठराग्नि ( भूख ) नष्ट होजाती है। अधिक नमकवाला अन्न खाने से आँखों की नजर मही पड़ जाती है। अत्यन्त खटाई व लालमिर्च-श्रादि घरपरे रस का सेवन शरीर को वीर्ण कर देता है एवं अपथ्य ( प्रकृति व ऋतु के विरुद्ध किया गया ) भोजन शारीरिक शक्ति नष्ट कर देता है। इसीप्रकार निरन्तर अधिक मात्रा में सेवन किया गया सोंठ, मिर्च, व पीपल-आदि गरम रस शरीर को सन्तापित करता है और हरड़ व आँवला-श्रादि कषायला रस वात कुपित करता है ॥३५-३६६॥ (युग्मम् ) जौ का आटा खाने से उत्पन्न हुए अजीर्ण रोगों के विनाश-हेतु शीतल जल पीना चाहिए। गेहूँ का आटा खाने से उत्पन्न हुए अजीर्ण को दूर करने के लिए उवाला हुआ पानी पीना चाहिए। दाल खाने से पैदा हुए अजीर्ण को नष्ट करने के लिए काफी पीना चाहिए और घृत-पान से उत्पन्न हुए अजीर्ण को नष्ट करने के लिए सदा मट्ठा पीना चाहिए ॥३६७॥ अब उक्त वैद्य यशोधर महाराज के लिए जल पीने की विधि निरूपण करता है राजन् ! भोजन के पहले पिया हुश्रा पानी जठराग्नि नष्ट करता हुआ शरीर को दुर्बल बनाता है और भोजन के अन्त में पिया हुआ पानी कफ-वृद्धि करता है एवं भोजन के मध्य में पिया हुआ पानी वात, पित्त कफ को समान करता दुश्रा सुखदायक है। इसलिए एक बार में ही पानी को अधिक मात्रा में पीना अभीष्ट नहीं है। क्योंकि आयुर्वेद के वेत्ताओं ने कहा है कि पानी को बार-बार थोड़ा थोड़ा सना पाहिए ॥३६८॥ क्योंकि आयुर्वेदवेनाओं ने पानी के 'अमृत' और 'विष' ये दो नाम कहे हैं। अवान्-इलायुध कोषकार ने 'अमृत', 'जीवनीय' और 'विष' इन तीन नामों का उल्लेख किया है, उसका कही अभिप्राय है कि युक्तिपूर्वक ( पूर्वोक्त विधि से ) पिया हुआ पानी 'अमृत' व 'जीयनीय' नामवाला कहा गया है और जब वह बिना विधि से पिया जाना है तब 'विष' नाम से कहा जाता है" ॥३६॥ [राजम् ! ] पसम्तभूतु और प्रीष्मऋतु में कुए और भरने का पानी एवं वर्षाऋतु में पर्ण-हीन देश (मारवाइ) के कुए का तथा छोटे कुए का पानी पीना चाहिए। शीतऋतु में बड़े व छोटे तालाबों का पानी एवं शरतऋतु में सभी प्रकार का पानी (कुएँ व मरनों आदि का ), जिसका दोष सूर्य, चन्द्र १. स्पा समुचयालंकार । ।, आति-भालंकार । ३. समुच्चयालंकार । ४. स्था चोसम्-'मूहद्दवारि विवंदभरि' भावप्रकाश में संकलित-सम्पादक ५. समुच्चयालंकार । ६. रूपकालकार । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भावासः अव्यक्तरसगर्ध्वं यस्स्वच ं वातातपातम् । प्रकृत्यैवाम्बु तस्पध्यमस्य क्वचितं पिबेत् ॥ ३७१ ॥ वारि सूर्येन्दुसंसिद्धमद्दोरात्रास्परं स्यजेत् । दिवासिद्ध ं निशि स्याज्यं निशिसिद्ध दिवा स्यजेत् ॥ ३७२ ॥ वीरश्रीप्रणयगुरुः कल्पमपल्लवोन साक्षात् । ताम्बूला प्रसस्तु करस्तव स्लीव पोलचित्रकरः ॥ ३७३ ॥ कामकोपातपायासयानवाद्दनवश्यः । भोजनानन्तरं सेष्या न जातु हितमिच्छता ॥ ३७४ ॥ मन्दसुन्दर विनोदविदां वचोभिः श्रङ्गारसारसुभर्वनिताविलासैः । आपके लिकरणैः शुकसारिकाण भुक्त्वाविवाहय महीश दिनस्य मध्यम् ॥ ३७५ ॥ इति वैद्यविद्याविलासापरनामभाजी रसानां शुद्धसंसर्गभेदेन त्रिष्टियनोपदेशभाजः समानभिजः प्रसूतसूकामृतपुनरुको पदंशदशनं प्रत्यवसान समाचरस | ३५१ कदाचिदनवरत जलजलार्द्रान्दोलनस्यन्दिमन्दानिलविनोददो दिन साम्यनियो कटुचितमध्यंदिनसमये किरणों व वायु द्वारा नष्ट होचुका है, पीना चाहिए' ||३७= ॥ ऐसा पानी, जिसका रस व गन्धगुण कटरूप से नहीं जाना जाता और स्वच्छ तथा वायु व गर्मी से ताड़ित किया गया है, स्वभाव से ही मध्य ( हितकारक ) है एवं जो पानी, उक्त गुणों से शून्य है। अर्थात् जिसका रस व गग्धगुण प्रकट रूपेण जाना जाता है और मलिन तथा वायु व गर्मी से ताचित नहीं है, उसे उबालकर पीना चाहिए * ॥ २७९॥ जो जल, सूर्य और चन्द्र द्वारा सिद्ध हुआ है, अर्थात् -- --जल से भरा हुआ घड़ा सबेरे धूप में चार पहर तक खुला रखा जाता है और रात्रि में भी चन्द्रमा की चाँदनी में रात्रि भर रक्खा जाता है उस पानी को 'सूर्य इन्दु संसिद्ध' कहते हैं, उसे दूसरे दिन व दूसरी रात्रि में पीना चाहिए, उसके बाद में नहीं पीना चाहिए । इसी प्रकार दिन में उबाला हुआ पानी दिन में ही पीना चाहिए, रात्रि में नहीं और रात्रि में उबाला हुआ पानी रात्रि में पीना चाहिए, दिन में नहीं। अन्यथा — उक्तविधि से शून्य पानी अपथ्य ( अहितकर ) होता है || ३७२ || हे राजन ! आपका हस्त, जो कि बोरलक्ष्मी को स्नेोत्पादन - शिक्षा का आचार्य है और याचकों के सन्तुष्ट करने के लिए साक्षान् कल्पवृक्ष - पल्लव है एवं जो स्त्रियों के गालों पर चित्ररचना करनेवाला है, ताम्बूल प्राप्ति हेतु प्रवृत होवे || ३७३ || हे राजन् ! हित ( स्वास्थ्य ) चाहनेवाले मानव को भोजन के पश्चात् स्त्री-सेवन, क्रोध धूप, परिश्रम, गमन, घोडे आदि की सारी और अग्नि का ढापना ये कार्य कभी नहीं करना चाहिए ॥ ३७४॥ हे राजन् ! भोजन करके मध्याह्न-वेला सुख उत्पन्न करने के कारण मनोहर लगनेवाली कीड़ाओं के देता विद्वानों के वचनों (सुभाषित-गोष्ठियों ) द्वारा और उत्तम शृङ्गार से रमणीक स्त्रियों के विलासों (मधुर चितवनों ) द्वारा तथा तोता व मेनाओं के साथ श्राभाषण- क्रीडा-विधानों द्वारा व्यतीत कीजिए ॥ ३७५ ॥ प्रसङ्गानुवाद - अथानन्तर हे मारित महाराज ! किसी अवसर पर मैंने ऐसी ग्रीष्म ऋतु मैं कमनीय कामिनीशन सरीखे 'मदनमदविनोद' नामके उद्यान (बगीचे) का चिरकाल तक अनुभव ( उपभोग - दर्शन आदि ) किया । तदनन्तर उस पगीचे में वर्तमान ऐसे फुटवारों के गृह में प्यारी कियों के साथ कीड़ा करते हुए और निम्नप्रकार की स्तुतिपाठकों की स्तुतियों द्वारा प्रफुल्लित मनवाले मैंने ग्रीष्म ऋतु संबंधी श्रीम दिनों की, जो कि समस्त लोगों के नेत्रों में निद्रा उत्पन्न करनेवाले थे, मध्याह्न-वेलाएँ, जो कि समस्त लोगों के नेत्रों में उसप्रकार निद्रा उत्पन्न करती थी जिसप्रकार मद्य-समागम (पान) समस्त लोगों के नेत्रों में निद्रा उत्पन्न करते हैं, व्यतीत की। कैसी है प्रोष्म ऋतु ? जिसमें निरन्तर जल से जडीभूत न जल से भीगे हुए वस्त्र संचालन से कुछ कुछ बहनेवाली मन्द मन्द वायु का क्रीडा विनोद वर्तमान है। जिसमें गाढ़ S 'समाचार' क० | १. दीपकालंकार 1 २. माति अलंकार 1 ३. जाति अलंकार 2 ४. रूपकालंकार ५. समुच्चयालंकार | ६. समुच्चयालंकार । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये धनधर्मजालोदेल्लमविगलन्मजयरसासरानुसारितसुन्दरीपयोधरवपुषि तीमातपातपावसंपर्क स्फुटन्मौक्तिकविरहिणीहल्याहारे स्पालकमलालयालायमानमहासरसि स्मरवरावेगसंगतानाङ्गसङ्गसंजातक्वायक्वध्यमानमस्केलिदाधिकापडलकामने मख्याइसमेखलाराजधियेलानिलनीहारसीकरस्यन्दसावन्दनमाश्पलालसले लिहानकामिनीमनसि शिशिरगिरिगुहागृहोत्सनासीनसीमन्तिनीकुचामृतकृम्भपरिसम्भनिर्भरनभश्वरणिकरे मगनिनावनीवनविहारहरिणीविषाणकोणकण्डूयनसुखस्वापोमुखकुरकपरिप्रदि तोरपरून प्रौढपाउपतलसरङ्गिणीसरोरुहकहरविहरत्कफहंसनियो महानराहावगाहविप्राहामाणवाहिनीकहासादियासि नि:शल्पतःलचिर वलकोलसुष्टायलोके अविच्छिन्नमायावनीध्ररन्धाराधनोपुरसिन्धुरद्विपि करपुष्करावशेधनदनिममसामनमूहकारसमीरसंम्पमानस लिलदेवतादेहे रोमन्थमन्थरमुखमाग्रीनिवहनिरुद्धबुध्नाश्वस्थशासिनि खरातफ्तपनताम्यन्मपमुक्तस्ठीतफ-फलोपहारिसपलवारूपालिपीलुपर्यन्ते नितान्तीसप्तायसपूर्णसमानमार्गरजसि निवाघानेहसि, भवतः प्रताविव 4 प्रधानोभवस्प मार्तण्डमण्डलेषु यशःप्रसरेविवातिदीर्थेषु दिवसेषु निद्रा की अधिकता से मध्याह्नवेला दुःख से निवारण करने के योग्य है। जिसने नवयुवती स्त्रियों के कुचकलशों का शरीर । स्थान ) घने स्वेदजल के विस्तार द्वारा विशेषरूप से गलनेवाले विस्तृत चन्दनरस से ज्यान किंचा है। जिसमें विरहिणी स्त्रियों के वक्षःस्थल का हार ( मोतियों की माला ) तीव्र धूपरूपी सद्यः प्रागहर च्याधिरूप अग्नि-स्पर्श द्वारा दूटते हुए मोतियों से व्याप्त है। जिसमें महासरोवर शुष्क होने के फलम्बरूप स्थलकमलों (गुलाब पुष्पों) की क्यारी-सरीखे प्रतीत होरहे है। जिसमें जलकीदावाली माडियों के कमलवन ऐसे विशेष सत्रण जल द्वारा रॉधे ( पकाये ) जारहे हैं, जो कि कामज्यर के आवेग में व्याप्त हुए नियों के शरीर-सङ्गम से उत्पन्न हुआ था। जिसमें कालसर्पणियों का चित्त ऐसे चन्दन वृत्रों के अालिङ्गम करने में विशेष उत्कण्ठित होरहा है, जो कि मलयाचल-कटिनी से ठाडित होती ही समुद्र की तीरवर्ती लहरों के शीतल जलकणों के क्षरण से आई (गीले ) होरहे थे। जिसमें विद्याधरसम्ह हिमालय पर्वतसंबंधी गुफारूपी गृहों में उपविष्ट ( बैठी) हुई कमनीय शामिनियों के कुचरूप अमृतकलशों के गाड़ आलिङ्गनों में तत्पर होरहे हैं। जिसमें मृग-समूह पर्वतों के अधस्तन भूमिवर्ती बनों में संचार करनेवाली हिरणियों के नामों ( सींगों के अग्रभागों) के खुजाने से उत्पन्न हुई सुखनिद्रा में उत्कण्ठित होरहा है। जिसमें कलहंस श्रेणी नदी-तटोत्पन्न महावृक्षों के अधोभाग पर पड़नेपाली नदी के कमल-मध्यभागों पर विहार कर रही है। जिसमें जलजन्तु ( मगर-मच्छ-आदि ) ऐसे नदियों के तालाब या झीलें प्राप्त कर रहे हैं, जो कि जंगली महान् शुकरों के विलोहन द्वारा स्वीकार किये जारहे थे। जिसमें मैंसाओं के भुए निडर होकर तालाब की कीचड़ में लोट रहे है। जिसमें सिंह धनी बायावाले पर्वत-रिवरों की धाराधना में निडर है। जिसमें जलदेवताओं के शरीर सूंड का अग्रभाग उठाकर जल में छुवे हुए हाथियों की उच्छवास यायु द्वारा सेवा-योग्य किये जारहे हैं। जहाँपर ऐसे पीपल के वृक्ष है. जिनकी जई रोथाने में सुस्त मुखवाली गायों के झुण्डों से घिरी हुई है और जिसमें छोटे तालाब के निकटवर्ती पालि वृक्षविशेषों का पर्यन्तभाग अत्यन्त उष्णा सूर्य से दुःखी होनेषाले ऊँटों के मुंखों द्वारा छोडे हुए प्रचुर फेनरूप पुष्पों द्वारा उपहार-युक्त किया गया है एवं जिसमें मार्ग-धूलि नितान्त उत्तप्त (उष्ण) लोहचूर्ण-सरीखी है। अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! उक्त प्रीष्मऋतु में निम्नप्रकार घटनाओं के घटने पर मैंने उक्त उद्यान का अनुभव करके प्रीष्मऋतु संबंधी मध्याह-वेलाएँ व्यतीत की-जंब सूर्यमण्डल उसप्रकार विशेष तीव्र होरहे थे जिसप्रकार आपके प्रताप शत्रुओं में विशेष तीव्र होते हैं। जब दिन आपकी कीर्ति *'कालोलल्लुलायकलोके' क । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः : शत्रुसंततिष्विव लघीयसीषु रात्रिपु वैरिमनोरथेष्विव शोषमभिलषत्सु जलाशयेषु सपत्रपक्षेष्वित्र श्रीयमाणकोसद पुण्डरीकिणीखण्डेषु कुरुलालिकुलावलिझमानभ्रूलतान्तहृदयंगमम् अनङ्गरलो तरङ्गापाङ्गावलोकसार जिसिभ्य मानसहचर लोकद्दम् अरविन्द मकरन्दाभोवसंवादिमन्दस्यन्दमानाश्वासानिलासरालम् अवरदगर्भादिभू सस्मित प्रसूनो पद्दारि तनिखिलक्ष देशम उम्मकिपाकपेशको रापकृतकर्णामृतवर्षम् अभिनवोद्भिद्यमानकुकुड्सकोल्बणभुजवात मध्वम् उल्लसहलाच जलवाहि नी विदितखावलम् उदीर्यतरमाभिसंपादितालकेलिया पिकम् अनन्यभूत्रिशिरोविरारकुल्योकण्ठम् अगमाभ्यप्रसाधितमकरध्वजारा धनञ्जघन वेदिकम् उच्छकदमवर तर सिकुसुमपरिमलोपडिन्जमामवनदेवताभवनम् ज्याकडो ३५३... प्रसार- सरीखे विशेष दीर्घ होरहे थे। जब रात्रियाँ उसप्रकार लघीयसी ( ह्रस्व-छोटी ) होरही थी जिसप्रकार आपकी शत्रु-संततियाँ लघीयसी ( अल्पसंख्यक ) होरही हैं। इसीप्रकार जब तालाब उसप्रकार शुष्क होरहे थे जिसप्रकार आपके शत्रु मनोरथ शुष्क (निष्फल ) होरहे हैं और जब कमलिनी-पत्र उसप्रकार क्षीयमाणकोश- दण्डशाली थे । अर्थात् जिनके कोश ( कमल के मध्यभाग) और दण्ड ( कमलनाल ) उसप्रकार नष्ट होरहे थे जिसप्रकार आपके शत्रु-परिवार क्षीयमाणकोशदण्डशाली (जिनका कोश - खजाना और दरड -- सैन्य नष्ट होरहा है ऐसे) होरहे हैं। कैसा है उधान (बगीचा) और सीजन ? जो ( स्त्रीजन ) ऐसे भ्रुकुटि ( भौहें ) रूपलता - प्रान्तभाग से मनोहर है, जो कि केशपाशरूप अगर-समूह सा आस्वादन किया जारहा है और उद्यान भी भ्रमर-श्रेणी द्वारा आस्वादन किये जानेवाले पुष्पों से मनोहर है। जो (खीजन) कामराग से उत्कण्ठित हुए कटाक्षावलोकन की चितवनरूप नदी द्वारा मित्रजनरूप वृक्षों को सींच रहा है और बगीचा भी नदी के जलपूर द्वारा वृक्षों को सींच रहा है। जो ( बीजन) कमलपुष्प-रस की सुगन्धि को अनुकरण करनेवाली ( स ) व संचर नेपाली हत्या से यर है और बगीचा भी कमलपुष्पों की सुगन्धि धारण करनेवालो व भन्द मन्द संचार करनेवाली ( शीतल, मन्द व सुगन्धि ) वायु से व्याप्त है। जिसने ओष्टरूप कोमल पत्तों के मध्यभाग से उत्पन्न हुए हास्यरूप पुष्पों से समस्त दिशाओं के प्रान्तभाग भेंट-युक्त किये हैं और उद्यान भी समस्त दिशाओं के प्रान्त भाग पुष्पों से उपहारित ( भैट:युक्त ) कर रहा है। जो ( सीजन ) मतवाली कोयल सरीखे मीठे वचनों द्वारा कानों में अमृत-वृष्टि कर रहा है और बगीचा भी मतवाली कोयल की मधुरध्वनि द्वारा कानों को अमृत वृष्टि कर रहा है। जिसकी भुजारूप लता का मध्यभाग नवीन उत्पन्न होरहीं कुछ ( स्तन / रूप पुष्प कलियों से व्याप्त है और बगीचा भी पुष्पकलियों से संयुक्त लता-मध्यभागवाला है । जिसने जलते हुए सौन्दर्यरूप जल से व्याप्त त्रिवली उदर-रेखा ) रूप नदी द्वारा स्वातिका -( खाई ) मण्डल की रचना की है और बगीचा भी जल से भरी हुई खात्तिका - ( खाई ) वलयवाला है। जिसने विशेष गम्भीर नाभि ( उदर-मध्यभाग ) द्वारा जलक्रीड़ा-योग्य बावड़ी उत्पन्न की है और बगीचा भी जलकोड़ा-योग्य बावड़ी से अलंकृत है। जिसने कुल्पोपकण्ठ ( स्मरमन्दिर स्त्री की जननेद्रिय - का समीपवर्ती स्थान ) काम-वाणों के परों के अग्रभाग - सरीखी आनन्दकारिणी रोमपक्तिरूप हरी दूब द्वारा श्ररित किया है और बगीचा भी जिसका कुल्योपकण्ठ ( कृत्रिम नदी का समीपवर्ती स्थान ) हरे दूर्गारों से व्याप्त है। जिसने कामदेव की आराधना हेतु वृक्ष के समीप जङ्घारूपी वेदी शृङ्गारित की है और बगीचा भी वृक्षों के समीप रची गई कामदेव की आराधनावाली वेदी से सुशोभित है। जिसने उछलते हुए निरन्तर प्रेम-पुष्पों की सुगन्धि से वनदेवता भवन उसप्रकार सुगन्धित किया है जिसप्रकार बगीचा पुष्प सुगन्धि से वनदेवता - भजन सुगन्धित करता है। जो (स्त्रीजन समीप में प्रकट हुए जङ्घारूप केला के स्कन्ध-वन से उसप्रकार रमणीक है जिसप्रकार वगीचा महान् केला के स्कन्धवन से रमणीक ( | ४५ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्विलकचम्पूचव्ये हकदलीकाण्डकाननरमणीयम् मलकाकरकपादपालनखपुपनिष्पादितविहारधाशोभम् अप्रविमनिजदेहच्छायापनीताखिलातपसंसापम गाय परतश्रमजावेद मियभार प्रियसमाजनमित्र, चरणकिसलयप्रहारझोडाभिः ऊरुरम्भा. स्तम्भपरिसम्मकेलिभिः मेखलादेशलाशय्यारोहणविनोद तनूरहराजितापिच्छमारीभिः नाभिमण्डलालघालपरिसर्पयोः पलि. बालीवलयर सिभिः कुचकुसुमस्तबच्छविकल्पः भुजलतालिङ्गनविधिभिः बाहुतस्मूलदर्शनकुतूहलैः बिम्बाधरफलास्यादनप्रीतिभिः अपाङ्गप्रसवखेलितः सभापछवप्रसाधनलीलाभिः अबकवासरीपरिमाउनमनोरथैः कपोलपुलकप्रसाधनप्रसूनावनितिभिः यौवनारण्यवनदेवताराधनवरप्रसारिवान्यश्च तस्तै विलासैः महनमविनोदमुद्यानमलिचिश्मनुभूध, पुनर्यम्समन्तादारमतरसरस्सारणीसाहल सेकमकुमारीशीरसारकटगांविर्भवादलश्यामलितदिग्वलय : नवाप्रनागपल्लोपष्टवोल्लासभराभुनपूगनगाभोगभसिसभानुप्रभाहोता है। जिसने लाक्षारस से रंगे हुए पादपल्लवों से व्यास नखरूप पुष्पों द्वारा क्रीड़ाभूमि की शोभा उसप्रकार उत्पन्न की है जिसप्रकार वगीचा प्रवाल च पुष्पों द्वारा क्रीडाभूमि की शोभा उत्पन्न करता है। जिसने अपनी अनोखी शारीरिक कान्ति द्वारा समस्त गर्मी का संताप उसप्रकार दूर किया है जिसप्रकार छगीचा वृक्ष-छाया द्वारा गमी-संताप दूर करता है एवं जिसने महान् विस्तार वाले पुरुषरत (विपरीत मेथनकीड़ा) के खेद से उत्पन्न हुए स्वेदजल मञ्जरी-जान द्वारा फवारों की शोभा उसप्रकार उत्पन्न की है जिसप्रकार बगीचा फुव्वारों की गृह-शोभा उत्पन्न करता है। अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! मैंने किन २ क्रीड़ाओं द्वारा प्रस्तुत उद्यान का अनुभष किया ? उन्हें श्रवण कीजिए चरणरूपी किसलयों ( कोमल पत्तों) की प्रहार क्रीड़ाएँ, दोनों जवारूप केला-स्तम्भों की आलिङ्गन-क्रीड़ाएँ, स्मरमन्दिर प्रदेश ( स्त्री की जननेन्द्रिय का स्थान ) रूप पल्लवशय्या पर की हुई प्रारोहण-क्रीड़ाएँ, रोमपक्तिरूपी तमालवृक्ष-मारियों के विलास. नाभिमण्डलरूपी क्यारी पर श्रारोहण द्वारा शोभायमान होने की क्रीड़ाएँ, त्रिवलि ( उदररेखा ) रूपी लताओं की मण्डलक्रीड़ाएँ, मुच ( स्तन ) रूप फूलों के गुच्छों की विविध भाँति की क्रीड़ाएँ (मर्दन-आदि विलास), भुजारूपी लताओं की आलिङ्गनविधान-क्रीड़ाएँ, मुजारूप वृक्षों के मूलों ( कुचकलशों ) के दर्शन-कौतूहल, बिम्धफल-सरीखे श्रोष्टरूप फलों की आस्वादन-प्रीतियाँ, कटाक्ष-क्षेपणरूप पुष्प-क्रीड़ाएँ, मौहों का चढ़ानारूपी पल्लवों की प्रसाधन-( शृङ्गार ) क्रीड़ाएँ, केशरूपी वल्लरियों ( लताओं ) के परिमर्दनमनोरथ, गालों पर किये हुए पच्चनख-प्रदानरूप पुष्पों की चुण्टन क्रीड़ाएं एवं दूसरे कामी पुरुषों के प्रसिद्ध विलास (क्रीड़ाएँ ), जो कि जबानीरूपी धन की वनदेवता की आराधना के वरदानों सरीखे थे। उपसंहारहे मारिदत्त महाराज ! मैंने ( यशोधर महाराज ने ) सीजन सरीखे उक्त 'मदनमद विनोद' नामके बगीचे का उक्तप्रकार की क्रीड़ाओंपूर्वक अनुभव किया । प्रसङ्ग-अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! कसे फुब्बारों के गृह में प्यारी रियों के साथ क्रीडा करते हुए मैंने प्रोष्मऋतु संबंधी मध्याहवेलाग व्यतीत की ? जिसमें ( फुब्बारों के गृह में ) अत्यन्त वेग से वहनेवाली सारणी ( छोटी नदी या नहर ) के जल-सिश्चन द्वारा अत्यन्त कोमल हुई खस की मनोहर भिप्ति के मध्यभाग से प्रकट हुए दूब-पल्लवों से समस्त दिग्मण्डल श्यामलिन हुआ है। जहाँपर नवीन उत्पन्न हुई पनवेलों ' 'नवांग०, ( नवीन ) ख० ग.। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः ३५५ प्रसर हरितमणिप्रकाशपलाशपेशलप्रतानचितमोचमेचकरुचिरचिताम्बरापमापकालिन्दीसंगम बायकुलकुरबकतिलकचम्पकाशोकसहकारकिसलयकुलखेलवाचालशुकसारिक विकचकिचकिलातिमुकाम लकारामकृयुमस्तवकतारक्तिलतामण्पं निरन्तनिष्पन्ददुर्दिमजलकलशतवालुकालवालविरुदयवप्ररोहपाण्डरितभितिभागं स्फुटस्कुलमालपाटलीप्रसूनीपहारसौरभास्वादलुब्धः मधुकरारणधवलकीवाचं मदोत्कलकोककुक्कुमकुररघककलहंसाधने क्रपयःपतपक्षचापलोमासरोजरजापुञ्जपितरजालकेखिदीपिसान्तरालपुमिनपसाधितप्रसादवेदिमध्यसंवतसलिलतुलिक शयनाभ्यावतीर्णयुवर्गमणिरजतभाजनप्रिन्यस्मानालयमार,स्मृगनाभिकरपरिमलोवाहिनारिपूरं पर्यन्तयन्त्रमारवामिपियमानस्थलकमलिनी केदार विविधयालबदनविनिर्मलजलधाराध्यक्तिलयलास्यमानभवनाङ्गणबहिण चन्द्रकान्तमयमृणालविलमत्रसोतमेतर्यमाणत्रिमोदपाल कश्कियिकीमागसीकरासारसूत्रि. ताङ्गनालकमुक्ताफलाभरणे मकरमुखमुक्तनिझरनोहारोप्लास्मानकामिनी कुचकुम्भचन्दनस्थासक विलासवालरोक्नवानरामके भार से मुड़े हुए या टेड़े हुए सुपारी-वृक्षों के विस्तार द्वारा सूर्य कान्ति का प्रसार – फैलावनिराकरण किया गया है। जहाँपर हरतर्माण' ( मरकतारण ) के प्रकाश सरीखे (हरित ) केला के पत्तों से अत्यन्त मनोहर विस्तारवाले केला-वृक्षों की नीलकान्ति द्वारा आकाशगङ्गा में दूसरी यमुना नदी का गम रचा गया है। जहाँपर नवीम बकुल ( मौलसिरी-वृक्ष ), कुरबक ( लालामण्डी-वृश्न), तिलकक्ष ( विलपुष्प), चंपावृक्ष, अशोकवृक्ष और विशेष सुगन्धि आम्रवृक्ष, इनका कोपल-णियों पर विशेष शब्द करनेवाली तोता-मैनाएँ क्रीड़ा कर रही है। जहाँपर प्रफुल्लित हुए मंगरक-पुष्प, सुरपणीपुष्प, व मल्लिकापुष्पों के बगीचे के पुष्प गुच्छों द्वारा लतामण्डप ताराओं से विभूषित किये गये हैं। निरन्तर (अविच्छिन्न) जलस्राव के कारण प्रचुर जल-पूर्ण जल-कलशों के तलों की रेत की क्यारियों में उत्पन्न होरहे जी के अङ्करों द्वारा जहाँपर भित्ति-प्रदेश पीतवर्ग:-युक्त किये गए हैं। वसन्तदूती ( वृक्षविशप) के प्रफुल्लित पुष्प-समूह की सुगन्धि के सँघने में लुब्ध हुए भौरों द्वारा जहाँपर वीणावाजे का ध्यान आरंभ की गई है। जहाँपर मद से उत्कट हुए चकवा-चकयी, लावा पक्षी , कुररीपक्षी व फलहँस ( चतखें)-आदि अनेक जलपक्षियों के पंखों की चपस्ता : हिलाने ) से ऊपर उछलता हुई कमल-पराग-( पुष्पधूलि ) राशियों द्वारा जलकीडा-बावड़ियों पीली होगई है और उन बावलियों के मध्यवर्ती पुटिनों (जलास्थित द्वीपों) पर रचित प्रासादों ( गृहों) के मध्यवर्ती वेदियों के मध्यभाग पर जिसमें (फुब्बारों के गृह में ) जलशय्याएँ भलीप्रकार रची गई हैं। जहाँपर शय्या के समीपवती मण्डित (सजाये) हुए सुवर्णपात्र, मणिपात्र व रजत ( चौदी। पात्रों में धारण किये जारहे मलयागिर चन्दन, अगुरु, कस्तूरी एवं कपूर की सुगन्धि के धारक (सुगंधित ) जलपूर वर्तमान हैं। जहाँपर प्रान्तभागवर्ती फुब्बारों की जलवृष्टि द्वारा स्थलकमलिनियों के जल से भरे हुए खेत सींचे जारहे हैं। जहाँपर नानाभाँति के व्यालों (कृत्रिम हाथी, सा, सिह व ध्यान-आदि जन्तुओं) के गुखों से प्रवाहित होनेवाली ( निकलती हुई ) जलधाराओं की ध्वनि के लय ( सशता) द्वारा महल के आँगन पर स्थित हुए मोर नचाये जारहे हैं। अर्थात्-फुधारों के गृह में वर्तमान कृत्रिम हाथी-चगरह के मुस्त्रों से प्रवाहित होनेवाली जलधारा की ध्वनि को मेघ-ध्वनि समझकर जहाँपर गृहाङ्गया के मोर नाँच रहे हैं। जहाँपर चन्द्रकान्तमणियों की कमल-नालों के छिद्रों से मारनेवाले झरनों द्वारा क्रीडाहँसों की हँसिनियाँ सन्तुष्ट की जारही है। कृत्रिम हाथियों की सैंडों द्वारा फैकीजानेवाली जलबिन्दुओं की वेग-पूर्ण वर्षा द्वारा जहाँपर खियों के केशपाशों पर मोतियों के आभरण रचे गये है। जहाँपर कृत्रिम मकर के मुखों से झरनेवाले भरने के जलबिन्दुओं द्वारा कामिनियों के * मधुकसरवारम्ध' स्त्र. ग.। १. उक्तं च-गारदात्मज मरकाममगर्भ हरिन्मणि: । शोणरत्न लौतिक पदारागाऽथ मौक्तिकम ॥ १ ॥ -- ---- - - Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ यशस्तिलक चम्पकाव्ये नांगोरानी पत्री मनमानिनीकपोल तलतिलकपत्रं जलदेवतामुलकेलिकलाउलीनोन्मनारदी तलावावरत निविडंनोरम वाइविडम्यमानत्रलालिनी जघनं कृतकनाकानो कह स्कन्धा सीनसुरसुन्दरी हस्तोदरसोदकापायमानवसभावतंस किस शवास पत्रनकम्पको मरचामरानिलविरोद्यमानसुरत श्रान्तसीमन्तिनी मानसम् इतस्ततः पयोधरपुरंधिकास्तनकस्शविधीयमानमनावसरं दशैशिर्यमितिनीद्वारमहीधरम् । पिच हस्ते पृष्टा नखान्तैः कुतः यूयुरुप्रक्रमेण वक्त्रं नेवशन्तराभ्यां शिरसि कुवलयेनावतंसार्पितेन । यत्र घोण्यां काचीगुणा पुनर्नाभिरप्रेण धीरा यन्ती यत्र चिलं विकिरति शिशिराश्चन्दनस्यन्दधाराः॥ ३७६ ॥ गृ, शिरीष कृमदादा नित कुन्तलकलापाभिः चिलिमुकुलपरिकपितद्वारयष्टिभिः पारमिमध्याभिः कर्णपरमरुको+सुन्दर मण्डलाभिः मृणाल्यालंकृत कलाची देशाभिः अमन्दचन्दनकुचकलशों का चन्द्रनाथा ( चन्दन का लेप ) उल्लासित ( आनन्दित - विशेष सुगन्धित ) किया जारहा है । जहाँपर कृत्रिम डालता वना में मनांत्रम बन्दरों के मुखों से उद्वान्त ( चमन किये हुए या गिरनेवाले ) जल भरनों द्वारा स्त्रियों के गालों की तिलकरचनाएँ प्रक्षालित की जारही हैं । जहाँपर ऐसी मरीचि आदि सप्तर्षि मण्डली द्वारा उद्गो विशेष जल-प्रवाह द्वारा स्त्रियों की जाएँ सन्तापित की जा रहीं है, जो कि जलदेवताओं की भयानक जलक्रीडा कलह के देखने से हर्षित हुए नारद के उत्ताल ताण्डव ( ब ) के दर्शनार्थ आई हुई थी । जहाँपर कृत्रिम कल्पवृक्षों के स्कन्धों ( तनों) पर आसीन देवियों के करकमलों से फेंके हुए जलों द्वारा विशेष प्यारी पत्नियों के कर्णपूरों की कोपलों के लिए जीवन दिया जारहा है । जहाँपर कृत्रिम चँवर धारिणी पुतलियों के चँबरों से उत्पन्न हुई उत्कट वायु द्वारा संभोग करने से खेद खिन्न हुई स्त्रियों के मन आश्चर्यपूर्वक श्रानन्दित किये जारहे हैं और जहाँपर यहाँ वहाँ कृत्रिम मंघ-पुतलियों के स्तन कलशों द्वारा स्नान अवसर किया जारहा है एवं जिसने ( फुव्वारों के गृह ने ) अपनी शीतलता द्वारा हिमालय पर्वत पर विजयश्री प्राप्त की है । अब प्रस्तुत फुब्बारों के गृह का पुनः विशेषरूप से निरूपण किया जाता है - जिस फुब्बारों के गृह की निर्मल कृत्रिम स्त्री आश्चर्य है कि इस्वभाग पर स्पर्श की हुई नस्त्रों के प्रान्तभागों से शीतल चन्दनस्पन्दधाराएँ से हुए सुगन्धि चन्दन की चरणशील हटाएँ ) फेंकती है। जब वह अपने कुच ( स्तन ) कलश के मूल भाग से स्पश का जाता है तब आश्चर्य है कि वह अपने चूचुकों (स्तनामों) के अवसर से चन्दनस्वन्दधाराएँ उत्क्षेपण करती हूं। अपने मुखभाग पर स्पर्श की हुई वह नेत्रों के मध्यभागों से विसे हुए चन्दन की चरणशील शीतल छटाएँ फेंकती हूँ । इसा प्रकार मस्तक पर स्पर्श की हुई वह कुबलय (चन्द्रविकासी कमल) के कर्णपूरों से शीतल चन्दनस्यन्दधाराएँ उत्पण करती हूं एवं अपनी कमर भाग पर स्पर्श की हुई वह करधोनी संबंधी डोरों के प्रान्तभागों से चन्दन का सुगान्धन क्षरणशील शीतल-स्टाएँ फेंकी है तथा अपनी त्रिवलियों (रेखाओं पर स्पर्श का हुए वह नाभि-छिद्र से चन्दन की क्षरणशील शीतल बटाएँ फेंकती है ||३७६|| " ई मारिदत्त महाराज ! उक्तप्रकार के फुव्वारों के गृह में मैंने कैसा पालयों के साथ क्रीड़ा करते हुए प्रीष्म ऋतु की मध्याह्नबेलाएँ व्यतीत की ? जिन्होंने अपने केशपाश शिरीष (सिरस ) वृक्ष की पुष्पमालाओं से गूंधे हैं । जो मोगरक पुष्पकलियों से गँधे हुए छारों से विभूषित है। जिन्होंने अपने बँधे हुए केशपाश का मध्यभाग वसन्तदूती ( पारुल - वृक्ष विशेष ) के पुष्पों से सुगन्धित किया है। जिनके गालों के समूह कर्णपूरों ( कानों के आभूषणों को प्राप्त हुए मरुवकों (पत्तां व पुष्पविदायों) की मरियों से मनोज्ञ प्रतीत होरहे हैं । जिन प्रकोष्ठभाग कुन के नांचे का भाग ) कमलनालों के कारणों से अलकृत हैं। जिनके स्तनतट 1 * ''६० । + सुन्दरमण्डलमण्डलाभिः क १. दीपक व समुच्चयालंकार । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय आवासः स्थन्ददुर्दिनस्तनसटाभिः निविउजालनीसामाजिष्टदृष्टिभिः वल्लभलोकदस्तयन्त्रोदस्सजलजडांशुकन्यक्त निनोन्नतप्रदेशाभिः अमर्यादालापविलासबासोलासाभिरामामिः प्रियतमाभिः सह संक्रीउमानः विवशयिसिनीकन्दच्छेदैर्मृणालविभूषणै मलयजरसस्यन्दारिशोकरलांच्चयैः। पुतिडवयरोसारस्सनैश्च विलासिनां समधिकरतिर्जातः कामं निदायसमागमः ॥३७॥ भास्वदास्वति दाइचाहिमरुति ज्यालोरमणाशाकृतिxशुष्यभृति दीप्यमानवियति प्रेसम्मुखाम्भोयुसि | संशुण्यरसरिति क्वथ तनुमति स्वान्तोद्धाहति मोमेस्मिन् मति क्षयामयधिति प्राजन्मृति गछति ॥३७॥ कृतकिसलयशय्याः प्रान्तनप्रतानाः स्तबकरचितकुक्यास्तत्प्रसूनोपहाराः । जामसरणिसमीरासारसाराः प्रियाणां कुचकसशविलासैनिर्विशोयानभूमीः ॥३९॥ विकविकिलालीकीर्णलोलालकानां कुरमकमुकलत्रक्तारहारस्तनीनाम् । बदलाप्रैः पल्लवैश्चतजातैनूप किमपि पायं योषितां चुम्य प्रस्नम् ॥३८॥ प्रचुरतर घिसे हुए तरल चन्दन से लिया है। विशेष जलकीड़ा करने के फलस्वरूप जिनकी दृष्टियों पाटल (रक्त ) होगई हैं। जिनके शारीरिक नीचे-ऊँचे स्थान ( जना व स्तनादि स्थान ) पतियों के हाथों पर स्थित हुई पिचकारी के जल से गीले हुए वस्त्रों में से प्रकट दिखाई देरहे हैं और जो वेमर्याद परस्परभाषणों, विलासों ( मधुर चितवनों) और वेमर्याद हास्यों की उत्पसियों से अत्यन्त मनोहर हैं। प्रसङ्ग–अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! स्तुतिपाठकों के कैसे स्तुतिवचनों द्वारा उल्लासित मनवाले मैंने प्रीष्मऋतु की मध्याह्नवेलाएँ व्यतीत की ? हे राजन् ! प्रीष्म ऋतु का समागम कामी पुरुषों के लिए [निम्नप्रकार शीतल प कामोद्दीपक निमित्तो से ] यथेष्ट सम्यक् प्रकार से अत्यन्त रागजनक हुआ। उदाहरणार्थ-विधश ( अपने को कायू में न रखनेवाले ) पमिनियों के मूलखंहों द्वारा, नीलकमलों के आभूषणों द्वारा और अशोकवृक्ष के पल्लयों की शय्याओं द्वाप, जो कि तरल चन्दनरस के क्षरण ( टपकने ) से व्याप्त हुए जल-भीगे वनों से गौली थी एवं युवती स्त्रियों के ऐसे वक्षः स्थलों के आलिङ्गनों द्वारा, जो कि हारों ( मातियों की मालाओं) से विशेष उज्वल स्तनों से सुशोभित थे ॥३७॥ ऐसी ग्रीष्म ऋतु ( ज्येष्ठ व आषाढ़) में अन्य देश को गमन करता हुआ मानव [ अत्यन्त गर्मी के कारण ] मर जाता है, जिसमें श्रीसूर्य तेजस्वी है और संतापकारक वायु वह रही है। जो दिशाओं को अपि-ज्वालाओं सरीखा तीव्र कर देता है। जिसमें पर्वत और आकाश विशेषरूप से जल रहे हैं। जिसमें मुख पर स्वेदजल की कान्ति संचार कर रही है। जिसमें नादयाँ भले प्रकार सूख रही हैं और समस्त प्राणी गर्मी के कारण उचल रहे हैं-संतप्त होरहे हैं। जो कामदेव का शक्ति नष्ट करती है। अर्थात--प्रीष्म ऋतु में कामशक्ति ( मैथुन-योग्यता) नहीं होता। जा गुरुवर तथा क्षयरोग को पुष्ट करती है। ॥ ३७८ ।। हे राजन् ! आप प्यारी स्त्रियों के कुच (स्तन ) कलशों क आलिङ्गनपूर्वक ऐसी उद्यानभूमियों का अनुभव कीजिए, जहाँपर वृम्भ-पल्लवों की शय्याएँ रची गई हैं। जिनके प्रान्तभागों पर आम्र वृक्ष समूह पाये जाते हैं। जिनको भित्तियाँ फूलों के गुच्छों से निर्माण कागई हैं। जिनमें बगीचा के फूलों के उपहार (ढेर ) है और जो कृत्रिम नदियों के बासु-मण्डलों से मनोहर है।। ३७६ ।। हे राजन् ! आप ऐसी स्त्रियों के, जिनके चश्नल कंश प्रफुल्लित मोगरक-पुष्पों की श्रेणियों से व्याप्त हैं और जिनके कुच (स्तन) कलश कुरखक ( लालझिण्डी) को पुष्प-कलियों की मालाओं तथा उज्वल हारों (मोतियों की मालाओं) से विभूषित होरहे हैं, कुछ कठिन अप्रभागवाले भान पल्लवों से अपूर्व x 'लुष्यभूति' काव- । १. समुल्लम व दीपकालंकार । १. जाति-भलंकार । ३. समुस्नयालंकार । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अलककिसएशनां भूलतालाधिनीनां नयनमधुलिहानां चारुगण्डस्थलीनाम् । कुचकुसुम नपानां स्लीवाणिकानामवनिपु कुरु केली: कि नूपानान्तः ॥३१॥ लसदलकतराः कान्तनेवारविन्दा: प्रचलभुजस्तान्ता: पीनवक्षोजकोकाः । अतनुजवनकूलाश्चारलावण्यवारस्तव नृप जलकेलि कुर्वतां स्त्रीसरस्थः ॥३८२॥ उरुध्यासान मन्दितरया रुद्धा नितम्यस्थलनाभीकन्दरदेशमारित्रलनव्यालोलकनावलिः । बाहस्पी तुनर्सगललदरिका पीनस्तात्तम्भिता जगवनजलापि खेउबला कूलंषा वाहिनी ॥६८३।। गम्भोरनाभीवालभिप्रवेशाइल्पोदकाभूत्तटिनी मुहुया । स्त्री-गां पुनः सातिभृता निकामं प्रियापराधसत्रद पूरैः ॥३८४॥ कषाय-युक्त ( कसले । हुए मुख का चुम्बन कीजिए' ।। ३८॥ हे राजन् ! आप ऐसी स्त्रीरूपी उद्यान श्रेणियों को पृथिवियों पर काड़ा कीजिए, दूसरे बगीचों के मध्यावहार करने से क्या लाभ है ? अपि तु कोई लाभ नहीं। जो कशरूपा कोपलों से सुशोभित होती हुई ध्रुटि ( भौहे । रूपी लताओं से प्रशंसनीय है। जो नेत्ररूपी भारां और अत्यन्त मनाहर गाज-स्यालयों से युक्त होता हुई कुचरूपी पुष्प-समूह से सुशोभित है' ।। 11 ह.राजन् ! ऐसा स्त्रीरूपा सरासयाँ ( सरावर-तालाव ) आपके लिए जलकाड़ा संपादन करे, जो शोभायमान होरहे केशरूप तरङ्गोंवाली ओर मनोहर नेत्ररूपी कमलों से व्याप्त हैं। जिनमें भुजारूपी लताओं के प्रान्तभाग शोभायमान होरहे हैं और जिनमें पीन ( न तो अत्यन्त स्थूल, न विशेष लम्चे, गोलाकार, परस्पर में सटे हुए व ऊंचे) कुच (स्तन) रूप चक्रवा-चकवी सुशोभित होरहे हैं। जो महान जवारूप तदोवाली हैं एवं जिनमें मनोज्ञ कान्तिरूपी जल-राशि भरी हुई है ॥ ३८२ ।। । हे राजन् ! काड़ा करता हुई नारूपी नद जवादनजला ( जाँघोंपर्यन्त जल से भरी हुई ) होकर के भी कूलकपा( अपना तट भेदन करनेवाला) है । यहाँपर विरोध मालूम पड़ता है, क्योंकि जिस नदी में जांघों तक जल होगा, यह अपना तट गिरानेवाली किसप्रकार होसकती है? अतः इसका समाधान किया जाता है कि जा (स्त्री) कूलंकपा ( स्मर-मन्दिर-बच्चादानी में पीड़ावाली-रोग-युक्त) है, इसलिए जवादनजला ( जायों तक प्रवाहित होनेवाले शुक्र-रज-से व्याप्त ) है। इसी कार जे जाँघ या कूल्हे की हड्डियों के परस्पर मिल जाने की पराधीनता के कारण मन्दवेगवाली ( धीरे-धीरे गमन करनेवाली ) है। जो नितम्ब (स्त्री की कमर का पिछला उभरा हुआ भाग) रूप ऊँचे स्थलों से रुकी हुई है। अर्थात्जिसप्रकार ऊँचे स्थलों के आजाने पर नदी का प्रवाह रुक जाता है उसीप्रकार स्त्री भी स्थूल नितम्बों के कारण गमन करने से रुक जाती है-वेगपूर्वक गमन करने में असमर्थ होजाती है। जिसमें नाभिरूपी गुफास्थान में प्रवेदजल व्याप्त होने के कारण चक्वल व [शुभ्र ] फेनश्रेणी पाई जाती है। जिसमें भुजाओं के गाढ़ आलिङ्गन से शरीर-सिकुड़न और दृष्टिरूपी लहरें सन्मुख प्राप्त होरहीं हैं और जो पीन (मोटे व कड़े) फुचकलशों से रुकी हुई शोभायमान होरही है॥ ३८३ ॥ जो स्त्रियों की त्रिवली ( उदर-रेखाएँ) रूपी नदी बार-बार अगाध (गहरे) नाभितलरूपी वाँसों के पार में संचार करने के फलस्वरूप अल्पजलबाली ( प्रस्वेदजल-रहित) थी, वह ( नदो ) पति के अपराधवश हरणशील अश्रु-प्रवाहों से बाद में प्रचुर. जस से भरी हुई होगई" ।। ३८४ ॥ 'मन्दिरतया' क. 4. 1 A 'वेग' टिप्पणी ग० । 'मन्दितरया' च• मुक्तिप्रतिवत् । विमर्श: यद्यप्यर्थभेदो नास्ति सवापि मु० प्रतिस्थपाठः समीचीनः-सम्पादकः । १. समुचयालंकार । ३. रूपफ, समुच्चय व साक्षेपालंकार । ३. रुपकालंकार । ४. रूपक व विरोधाभास-अलहार। ५. रूपकालबार । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पाश्वासः ३५६ अलकेक्षणपश्नकुरुन्मान्त्याः क्रमेण कान्तायाः । अम्बालकुवलयाम्बुबपुलिमश्रियमाश्रिता सिन्धुः ॥३८१॥ अहनि परिणता नाथ सीमनिसनीना पुरुषरतनियोगव्यमकाजीगुणानाम् । शिथिलयति कपोले मण्डनं स्वेदषिन्दुर्निविचकुचनिकक्षात्स्यन्दते पारिपूरः ॥३८६॥ उद्देशन्ति कपोलपालिघु कुचरतम्येषु मन्दास्पदा स्फायन्ते वलिवाहिनीषु यत्रो नाभीवरश्रेगिषु । ग्रीष्मेऽपि स्मरके लिहासधियां सीणां श्रमाम्माकणाः ख्यान्ति प्रावृष पुन संपदम्मी नीचीलसोशासिनः ॥३८॥ मन्दानिकेषु कहकीदलमण्डपेषु हारेषु यन्त्र गृहोलिपु वन्दनेषु । बन्दस्यहाननु दुनोसि कथं स कारः कान्तारर चापितपयोधरमालामु ॥३८८॥ इति वैतालिकालापीछास्यमानमानसः सकललोकलोचनापूर्णनेषु धर्मदिनेषु मदिरासमागमानिव मध्याहस्मयानतिवाहयामास । अकुर्वन् मनमः प्रीति यः स्त्रीषु विहिसादरः । अन्याथ भारवोदय म परं क्लेशभाजाः ॥३८९॥ पति की दृष्टिरूपी नदी उसके जल से बाहिर निकलती हुई स्त्री के केश, नेत्र, मुख व कुचों (स्तनों) से क्रमशः जम्बाल (काई), कुवलय (कुमुद-चन्द्रविकासी कमल), कमल और पुलिन (वालुकामय-रेतीलाप्रदेश) की शोभा बसावा) को मात हुई। अभिनाय यद है कि पति की दृष्टिरूप नदी में सी के केशपाश शेवाल सदृश, नेत्र कुमुदु-जैसे और मुख कमल-सरीखा एवं कुच (स्तन) रेतीले प्रदेश-सीखे थे, अत: वह ( पति की दृष्टिरूपी नदी ) स्त्री के केश, नेत्र, मुम्ब व कुचों ( स्तनों) से क्रमशः शैवाल, कुमुद, कमल और वालुकामय प्रदेश की शोभा ( सदशता) धारण कर रही है। ॥३८॥ हे राजन् ! प्रीष्मऋतु के दिन की मध्याहुवेला में उत्पन्न हुआ स्वेद-बिन्दु विपरीत मैथुन के व्यापार में व्याकुलित करधोनीवाली स्त्रियों के गालों पर की गई पत्त्ररचना केसर व कस्तूरी-आदि सुगन्धि पदार्थों से की हुई चित्ररचना) शिथिल कर रहा है और परस्पर में सटे हुए कुचों (स्तनों ) के निकुञ्ज ( लता-पान्छादित प्रदेश ) से जल-प्रवाह क्षरण होरहा है ॥३८॥ हे राजन् ! कामक्रीड़ा में अत्यन्त उत्कण्ठित बुद्धिवाली स्त्रियों के कामसेवन के परिश्रम से उत्पन्न हुए ये ( प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले ) ऐसे जलकण ( स्वेद-बिन्दु) ग्रीष्मऋतु में भी वर्षा ऋतु की शोभा सूचित कर रहे हैं, जो ( जलकण ) कपोलपालियों ( गालस्थलीरूपी पुलों अथवा गालस्थलियों) पर उछल रहे हैं। जो कुचरूपी तनों या शाखाओं से मन्द-मन्द हरणशील है। जो त्रिवली ( उदररेखा) रूपी नदियों में वृद्धिगत होरहे हैं। जो नाभि के छिद्र-समूहों में विस्तृत होते हुए नीवी (कमर के वक्ष की गाँठ) रूपी लता को उल्लसित कर रहे है ||३८७॥ हे राजन् ! जब कि मन्द-मन्द वायु संचार कर रही है, जब केलों के पत्तों के गृह यतमान हैं, जब मोतियों की मालाएँ विद्यमान है । वक्षःस्थल पर धारण की जारही है, जब फुचारों के गृहों में क्रीड़ाएँ होरही है, जब तरल चन्दनों का लेप होरहा है और कुछ (स्तन ) कलश-मण्डल अर्पित (स्थापित ) करनेवाली ( कुच-कलशो द्वारा गाद आलिङ्गन देनेवाली) कमनीय कामिनियों वर्तमान हैं तब आश्चर्य है कि यह ग्रीष्म ऋतु काम की आकाङ्क्षा करनेवाले पुरुषों को किसप्रकार सन्तापित कर सकती है ? अपि तु नहीं कर सकती ||३८।। स्त्रियों के साथ हार्दिक प्रेम पादर न करनेवाला पुरुष उसप्रकार केवल कष्ट-पात्र होता है जिसप्रकार दूसरों के निमित्त भारवाहक मानव केवल कष्ट-पात्र होता है." ॥३८९॥ 'पूर्णनेषु' कः । १. यथासंख्य-अलकार । २. शृगाररस-प्रधान रूपकालकार । ३. रूपक व उपमालंकार। ___. समुच्चयालंकार । ५. अपमालंकार । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकधम्पूत्रव्ये ___कदानिद्रियातस्मीकुन्तलकलापकान्तिभिः पुरसरिनीलिकाविलासहासः विविवस्त्रीने नाजनविराबिभिः अमृतकर. गालोचनकायैः सपमनुरगदूरस्थलसृष्टिभिः स्वदेवताभिषेकमरकतमयकलशमण्डलावलोकः विद्याधरपुराभिसारिकाविजम्भतिमिरवृत्तिभिः लैहिकेयसम्यसमसाइसम्यवसायः खेचरीचरणचाराचरितमेधकमणि कुष्टिमाभोगनिभिः गगनचरमिथुनरतिकेलितमालकालनकमनीयैः अमरविमानमहानीलाविधान लिम्पिभिः अम्बरसर सपेरालप्रकाशः व्योमगागएडमण्डन मइमनोहारिभिः वितिगालोपलशलशिखरशोभैः अपहसितशितिकण्ठकाठघुतिभिः संकर्षणवसनवामातानसुन्दरैः युसनदीपिकाविकासितकुवलयबनविलासिभिः भमङ्गनारण्यप्रकटतापिच्छमगहनावगहिरामैं: अवहेलितहसिह प्रसमानुषाद--अथानन्तर हे मारिदत्तमहाराज ! किसी अवसर पर जब ऐसे वर्षाऋतु के मेघों से आकाशमण्डल की शोभा उसप्रकार कृष्णवर्णवाली होरही थी जिसप्रकार प्रसूति का अवसर प्राप्त करनेवाली स्त्री के स्तन चूचुकों (अग्रभागों) की शोभा कृष्णवर्ण-युक्त होती है। उस समय वर्षाकाल की लक्ष्मी (शोभा) का उपभोग करता हुआ मैं जब तक हर्षपूर्वक स्थित हुआ था उसी अवसर पर 'सन्धिविमही' नाम के मेरे । यघिर महाराज के ) दृत में मुझे निम्नप्रकार सूचित करके दूसरे राजदूत को मेरी पज-सभा में प्रविष्ट किया। कैसे हैं वर्षाऋतु के मेघ ?--जिनकी कान्ति उसप्रकार श्याम ( कृष्ण ) है जिसप्रकार आकाशलक्ष्मी की केशसमूह कान्ति श्याम होती है। जो ऐसे मालूम पड़ते है-मानों-आकाशगङ्गा संबंधी शैवाल के उल्लास-प्रसर ( कान्ति-विस्तार ) ही हैं। जो उसप्रकार श्यामरूप से सुशोभित होरहे थे जिसप्रकार देवियों के नेत्रों का प्रअन श्यामरूप से सुशोभित होता है। जिनकी कान्ति चन्द्र-हिरण के नेत्रों सरीखी थी। जिनमें श्री सूर्य के घोड़ो के हरितारों की स्थल-दृष्टियाँ वर्तमान हैं। जो उसप्रकार शोभायमान होरहे थे जिसप्रकार स्वर्ग-देवता के अभिषेक-निमित्त स्थित हुआ हरित मणियों का कलशसमूह शोभायमान होता है। जिनकी वृत्ति ( प्रवृत्ति या कान्ति ) ऐसे अन्धकार-सरीखी थी, जो कि विद्याधर-नगरों की अभिसारिकाओं (कामुक स्त्रियों) के प्रसार-निमित्त था। जिनकी उद्यमप्रवृत्ति गहु की सेना जैसी थी | जिनकी रचना ऐसी श्यामरत्नमयी व विस्तृत बद्ध (कृत्रिम) भूमि के समान थी, जो कि विद्याधरियों के चरणकमलों के संचार-निमित्त रची गई थी। जो उसप्रकार मनोज्ञ थे जिसप्रकार ऐसे तमालवृक्षों (तमाखू या वृक्षविशेष ) के वन मनोश होते हैं, जो कि देष और विद्याधरों के स्त्री पुरुषों के जोड़ों की संभोग क्रीड़ा में निमित्त थे। जो देव-विमानों का कृष्णरत्न-पटल ( समूह ) तिरस्कृत करनेवाले हैं। जिनकी कान्ति उसपकार मनोहर है जिसप्रकार आकाशरूपी सरोवर में व्याप्त हुई कर्दम-कान्ति मनोहर होती है। जो. उसप्रकार मनोज्ञ ( मनोहर ) है जिसप्रकार आकाशरूपी हाथी के गण्डस्थलों का आभूषणरूप मद ( दानजल ) मनोज्ञ होता है। जिन्होंने नीलमणिमयी पर्वत की शिखर-शोभा तिरस्कृत की है। जिनके द्वारा रुद्र-कण्ठ की नीलकान्ति उपहास-युक्त या तिरस्कृत कीगई है। जो उसप्रकार सुन्दर है जिसप्रकार बलभद्र के वस्त्र का बुनमा व विस्तार सुन्दर होता है। जो उसप्रकार उल्लासजनक या सुशोभित होरहे हैं जिसप्रकार स्वर्ग की चापड़ी में प्रफुल्लित हुआ नीलकमलों का वन उल्लासजनक या सुशोभित होता है। जो चारों ओर विस्तृत होने के फलस्यरूप उसप्रकार मनोज्ञ है जिसप्रकार आकाशरूपी धन में उत्पन्न हुए कालिक वृक्षों के पुष्प-गुच्छों के यन चारों ओर विस्तृत होने के फलस्वरूप मनोज्ञ होते हैं। जिन्होंने *'कुट्टिमाभङ्गभोगिभिः' का। लिपिभिः' क. 1 मिदनमनोहारैः' का । S 'उपसित' क. ख. ग. । १. उकंच-'कान्तापिनी या याति संकेत साभिसारिकार यश. सं.दी.से संकलित-सम्पादक Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः पीतिसंपत्तिभिः शिखण्डिताण्डवप्रारम्भपूर्वाङ्गः अनङ्गानगपरलोल्लासव्यसनिभिः प्रोषिसपुरंभिकाश्वासनप्रथमतः चातफकुलकेलिकारिभिः कलहंसनिर्वासघोषणाभिनवपटहै। कदलीपलश्यामलिदिग्भिप्तिभिरम्भोधरः प्रसवोन्मुखकामिनीकुचच्चुकाभासि मसि, मीलनेत्रविसामान्सरालावलम्बिनिरन्सरहारहारिणि समन्तास्पतति धारासारबलिले, वसुमतीतास्सनंधयथाश्यामिक्ष पयःपूर्णपयोधराभोगसुभगायो दिवि, चिरतरातपसंतापदुःस्थितायाः क्षितेयन्त्रधारागारलीलामिव विप्रति गगनमण्उने, वितससितपताकाडम्परेजिव क्षरनिरनीरेषु गिरिषु, मुक्ताफलजालप्रसाभितेचिव स्यन्दमानवारिसुन्दरपर्यन्तेयु सभसु, मेरेयातिलविसासु सीमन्तिनीत्रित्र निर्मादशब्दगमनासु बाहिनीपु, निदाघनिवापजलसरादेशिक श्रीनारायण के शरीर की श्याम कान्तिरूप संपत्ति तिरस्कृत की है। जो मयूरों के ताण्डव नृत्य के प्रारम्भ में पूर्वरङ्ग (प्रथमरङ्ग-नाट्य-प्रारम्भ में विघ्न शमन-हेतु कीजानेवाली स्तुति) के समान हैं। जिन्हें कामरूप वृक्ष के पल्लयों ( कोंपलों ) को उल्लासित ( वृद्धिंगत) करने का आग्रह है। जो विरहिणी स्त्रियों के लिए धीरता-प्रदान में प्रथम दूत हैं। अर्थात्-क्योंकि वर्षाऋतु में बहुधा लोग अपने गृहों में वापिस श्राजाते है, इसलिए इस ऋतु के मेघ विरहिणी स्त्रियों के लिए धीरता देने में प्रधानदूत का कार्य करते हैं। जो चातक ( पपीहा ) पक्षियों के मुण्डों की भीड़ा करानेवाले हैं। अभिप्राय यह है कि कवि-संसार की मान्यता के अनुसार चातक पक्षी मेघों से गिरता हुआ जल पीते हैं, अतः मेघ उन्हें सष क्रीड़ा करने में प्रेरित करते हैं। जो स्तरसों (जालनों, जात र. व लाल आनेवाले राजहंस-बतख पक्षी ) को देशनिकाला करने की घोषणा के नवीन बाजे हैं। अर्थात्-मेघों की गर्जना ध्वनि सुनकर बतख पक्षी तालाब का तट छोड़कर भाग जाते हैं, अतः मेघ उन्हें देशनिकाला करने की घोषण देनेवाले नवीन बाजे हैं। जिन्होंने दिगिभत्तियाँ ( दिशाएँ ) केलों के पत्तों से श्यामलित (कृष्णवर्ण-युक्त) की है। अभिप्राय यह है कि कवि-संसार में हरित व श्याम वर्ण एक समझा जाता है, अत: मेध केलों के पत्तों द्वारा समस्त दिशाएँ श्यामलित करते हैं। उपसंहार-उपयुक्त ऐसे मेघों से आकाशमण्डल की शोभा जब उसप्रकार होरही थी जिसप्रकार प्रसृति का अवसर प्राप्त करनेवाली स्त्री के स्तनों की चूचुक. (अप्रभाग ) शोभा कुष्णवर्णवाली होजाती है। इसीप्रकार जब निम्नप्रकार वर्षा ऋतुकालीन घटनाएँ घट रही थीं-उदाहरणार्थ-जब वेगवाली ( मूसलधार ) जलवृष्टि का जल चारों ओर से गिर रहा था, जो कि उसप्रकार मनोज्ञ प्रतीत होरहा था जिसप्रकार श्यामरँगवरले वस्त्र के चंदेवा के अधोभाग पर अवलम्बित हुई सघन मोतियों की मालाएँ मनोहर मालूम पड़ती हैं। जब आकाश उसप्रकार पयःपूर्णपयोधर-श्राभोग-सुभग ( जल से भरे हुए बादलों की पूर्णता से सौभाग्यशाली ) श जिसप्रकार पृथिवी के वृक्षरूपी पुत्रों की उपमाता (धाय) पयः-पूर्ण-पयोधर-आभोग-सुभग ( दूध से भरे हुए स्तनों के विस्तार से मनोहर ) होती है। जब श्राकाशमण्डल दीर्घ कालतक गर्मी के ज्वर से दुःखित हुई पृथिवी के लिए फुल्वारों की गृह-शोभा धारण कर रहा था। जब ऐसे पर्वत, जिनसे झरनों का जलप्रवाह ऊपर से नीचे गिर रहा था, उसप्रकार सुशोभित होरहे थे जिसप्रकार वे विस्तृत च शुभ्र ध्वजाशाली शिखरों से युक्त हुए सुशोभित होते हैं। जब ऊपर से नीचे गिरते हुए जलों से मनोहर प्रान्तभागवाले गृह उसप्रकार शोभायमान होरहे थे जिसप्रकार मोतियों की मालाओं से सजाए गए गृह शोभायमान होते हैं। जब नदियाँ उस प्रकार निर्यादशब्दगमनशालिनी ( मर्यादा उल्लङ्घन करनेवाले कोलाहल व वैमर्याद वेगयुक्त शवनवाली) थी जिस प्रकार मद्य-पान से उच्छशल हुई स्त्रियाँ मर्याद शब्द करनेवाली और वेमर्याद यहाँ वहाँ वेगयुक्त संचार करनेवाली होती हैं। जब तालाब उसप्रकार गादरूप से (लवालव) जल से भरे हुए थे जिसप्रकार प्रीष्म ऋतु Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये निर्मशम्भःसंभृतेषु सासु, समुद्रसलिणसहसेविौनिक्षमालावभासिनीलिव जलाधरोपरेषु सी सहित, समरधुरंधराशिचापापारभार ब. निचलाराधनयम्यधनुषि विजिगीषुकोके, किलिसंधयोचितकारोचमाममौलिकुलासेषु माखिशिफोरमदेभेषु, भीमप्रशिलिन्ध्रवन्धुरेषु भराभागेषु, लालीप्रसपाटलिमधामनि कन्चनजाने, यूधिकाप्रमूरिमा विलासिषु शिलोचपशिलान्तरालपरिसरेषु, रमाकुरोमाधकबुकिनि विवरभूधरे, मिरिमणिकामुकुलमणिसाने गण , सुरणोपप्रचारसोणसोचिषि वसुंधरवलये, सामपिजयिषु कुस्कीमाकुम्भेषु, मनोभनमलिककालवियु - बिजम्ममाणेषु केसकी कुसुमपत्रेषु, अपि च-उन्मागम्मिसि मेघमन्दनभसि छन्नांशुमतेजसि चुभ्यस्त्रोतसि रुद्धपान्धसरसि स्फूर्जतस्विसि । __कंदर्पोकसि मत्तकिमनसि प्रेमीयते चेतसि काले याति कथं च स्ववयसि प्रौहां प्रियां मुञ्चसि ॥३०॥ संबंधी निवाप' (पितृवान श्राद्ध ) के जल-पूर्ण सकोरे गाढरूप से जल से भरे हुए होते हैं। जब बौदलों के मध्य में चमकती हुई बिजलियाँ ऐसी मालूम पड़ती थीं—मानों-समुद्र के जलों द्वारा भास्वादन की गई बयानल अग्नि की ज्वालाएँ ही चमक रही हैं। जब शत्रुओं पर विजयश्री का इच्छुक लोक (राजाओं का समूह-आदि), जिसके धनुष धनुष-भत्रकाओं ( धनुष स्थापन करने का चमड़े का थैला -आदि आधार ) को आराधनामात्र से कृतार्थ थे, ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-कामदेवरूपी इन्द्र द्वारा ही जिसे धनुष-धारणरूप व्यापार का भार अपेण किया गया है--आया दीरई है। जब वृक्षों के अमों ( पत्तों ) के उत्पत्तिस्थान ( शाखाएँ ) ऐसे काक पक्षियों के झुण्ड से व्याप्त थे, जो कि करे केला वृक्षों की छालों को ग्रहण करने योग्य चोंचों से शोभायमान थे। जब पृथिवी के प्रदेश घने कुकुरमुत्तों से व्याप्त थे। जब दिशामों का मण्डल ( समूह ) जलपिप्पली (वृक्षविशेष ) की कलियों के फूलों की समावेत लालिमा)का स्थान होरहा था। जब पर्वतों की चटानों के मध्यवर्ती परिसर ( पर्यन्त प्रदेश-आँगन ) जुही फूलों की सुगन्धि का विलास ( शोभा ) धारण कर रहे थे। जब बैडूर्य मसियों को उत्पन्न करनेवाला पर्वत रत्नाकररूप रोमाञ्च-कञ्चुक (बस्तर) धारण किये हुए था। जब क्षुद्र (छोटे) पर्वत, जिनके शिखर कुटज-पुष्पों की कलियों से सुशोभित होरहे थे। जब पृथिवी-वलय ( भूमि का घेरा गा कुअ-लताओं से 'आम्लादित प्रदेश) इन्द्रबधूटि कीड़ों के विस्तार से लाल-कमल-सी कान्ति धारण कर रहा था। इसीप्रकार अब पर्वतों के लताओं से आच्छादित प्रदेश शालवृक्ष और अर्जुनवृत्तों से शोभायमान होरहे थे और अब केतकी-पुष्पों के पत्ते कामदेव के बाणों की आकृति (आकार-सदृशता ) धारण कर रहे थे। प्रसा-हे मारिदत्त महाराज ! जब 'अकालजलद' नामके स्तुतिपाठक को निम्न प्रकार स्तुति द्वारा क्रीडाशाली किये जारहे मनवाला मैं वर्षा ऋतु की श्री ( शोभा) का अनुभव करता हुआ स्थित था-- हे नाथ ! ऐसे वर्षाकाल में आप नवयुवती प्रिया को कैसे छोड़ते हो? और उत्पन हुई नई जवानी में किमप्रकार दूसरे देश को प्रस्थान कर रहे हो? कैसा है वर्षाकाल १ जिसमें नदियों के दोनों तट उल्लाइन करनेवाली जलराशि वर्तमान है। जिसमें आकाश मेघों से प्रचुर ( महान् ) है। सूर्य का तेज आच्छादित करनेवाले जिसमें जलप्रवाह भले प्रकार उछल रहे हैं। जिसमें रास्तागीरों का वेग रोका गया है। जो अप्रतिहत ( नष्ट न होनेवाले ) व्यापारवाली (चमकती हुई) विजलियों से महान और कामदेव का निचलारामनवराधान्यसनापमनुषि क.। X स ग प्रतियुगले मु. प्रतिवत् पाठः । ii 'शाखिशिष्योगमदेशेषक। *काले यासिक कर्थ वयसि प्रोडो प्रियो चम्बसिक। "पितृवान निवापः स्यात' इतिवषयात । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाभासः उछिनिं नटस्कर दिनं प्रादुर्भवशाखिनं + क्रीडस्मेककुलं पसद् हुजले शुभ्यदरिश्रीतष्टम् । पुष्यस्काममदं जनपदं सोत्सर्गसिन्धुस्यदं दृष्ट्व ेमं मिहिरं अगस्प्रियकरं काभ्येति न श्री नरम् ॥३९९५ मज कणसे का भूमिसौर म्यसारः प्रथिकसितकदम्बामोदमन्दप्रचारः । मनपयुवती मानसोल्लासनायुः प्रथमजस्यवायुः प्रीतये स्तान्नृपस्य ॥ ३९२ ॥ gator: surfi करवैरुत्तनुस कियां न्यस्यस्तो नियुकेषु कन्दलदलोहासावकाशश्रियः । एते चातकपोतपेय निपपाथःकणश्रेणयो काक्षा वान्ति निदानोहाघाः प्रदीर्घागमाः ॥ ३९३ ॥ स्फुटिव कुटज राजिर्मशिकोलासहारी नवनिधुलविलासः कन्दलानन्दकारी | सति घनसमीर: सीरासारधारी सुतलमधिककान्तिः केतकी काननानाम् ॥ ३९४ ॥ प्रोतयन्कर दिनांकरकराणि रन्त्रोबुरध्वनितकीचककाननान्सः । मधुकरोनीपलना वातः प्रयाति शिखिताण्डव पूर्वरा ॥ ३९५॥ ३५३ गृह ( कामोत्पादक ) है । जिसमें मोरों के विउ हैं एवं जिसमें चित्त प्रेम करने में तत्पर है ||३०|| वर्षा ऋतुकालीन ऐसा मेघ देखकर कौन स्त्री पुरुष के साथ रतिविलास नहीं करती ? अपि तु सभी करती हैं, जिसमें मयूर केकाध्वनि कर रहे हैं और हाथी नाँच रहे हैं। वृक्षों की उत्पन्न करनेवाले जिसमें मेडक समूह कीडा कर रहे हैं। जिसमें बहुतसी जलवृष्टि हो रही है। जिसमें पृथिवीतल व्याकुलित होरहा है। कामदेव का दर्पं पुष्ट करनेवाले जिसमें देश उन्नति को प्राप्त होरहे हैं एवं जो उत्साह-युक्त नदी - वेगशाली होता हुआ समस्त लोक का हित करनेवाला है || ३६२|| ऐसी पूर्व मेघवायु यशोधर महाराज के हर्ष-निमित्त होवे, जो नवीन जलबिन्दुओं के क्षरण ( गिरने ) से पृथिवी की सुगन्धि से मनोहर है। जिसकी प्रवृत्ति प्रफुलित हुए कदम्बवृक्षों के पुष्पों की सुगन्धि से मन्द है और जिसका जीवन समस्त देश की स्त्रियों को उल्लासित ( आनन्दित ) करने में समर्थ है। भावार्थ उक्तप्रकार की शीतल, मन्द व सुगन्धित वायु यशोधर महाराज के हर्ष हेतु होवे ॥३९२॥ हे राजन् ! ये ( स्पर्शन इन्द्रिय संबंधी प्रत्यक्ष द्वारा प्रतीत होनेवाली ) ऐसी वायुएँ वह रही हैं, जो मोरों की मधुर केकावनि के साथ उत्करित नृत्य- चेष्टा कर रही हैं। जो छोटे कदम्बवृक्षों में अङ्कुरों व पत्तों के उल्हास ( उत्पत्ति या वृद्धि ) की अवसर - लक्ष्मयाँ (शोभाएँ आरोपित ( स्थापित ) कर रही हैं। जिनसे पपीहा पक्षियों के बों के पीनेयोग्य जल-बिन्दु-समूह चरण होरहे हैं, और जो ग्रीष्म ऋतु को नष्ट करने में विशेष उ-युक्त (निपुण ) हैं एवं जिनका आगमन दूरतक व्याप्त होनेवाला है" ॥३६२॥ हे राजन् ! इन्द्रवृत्तों ( कुरैया) की श्रेणियाँ विकसित करनेवाली, मल्लिका ( वेला) का उल्लास (विकास) छरनेवाली, नवीन . } या महुआ वृद्ध को वृद्धिंगत करनेवाली, असुरों को वृद्धिंगत करनेवाली, जलविन्दु समूह धारण करनेवाली और hani - पुष्पों के वनों में विशेष कान्ति उत्पन्न करनेवाली ( विकसित - प्रफुलित करनेवाली ) मेघ-वायु वह रही है || ३६४|| ऐसी वायु बद्द रही है, हाथियों के सूँडों के अग्रभाग शीघ्र संचालित करनेवाली जिसने वाले पाँसों के वनों का मध्यभाग छिद्रों में गादरूपं से शब्दायमान किया है और नवीन कदम्बवृक्षों के ऊपर बैठी हुई भोरियों को उच्च स्वर से गान कराती हुई जो मोरों के ताण्डव नृत्य का 1' कीडको कुक० १. समुच्चयालङ्कार । २. आपलङ्कार | ३. जाति- अलङ्कार । ४. उर्फ च— 'अक्शुचिस्तथा दृष्टो निपुणखोला इष्यते' । यश०सं०टी० प्र० ५४५ से संकलित - सम्पादक । ५. जाति अलङ्कार | ६. जाति अलङ्कार । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकधम्पूकाव्ये दधदिन हिमरम्य; सीकरैरुत्प्रो कवितापानुनिता । वियदवालधराणामानिमिहसुलदविजयजन्मा जृम्भते बायुरेषः ॥३९६॥ घनमलिनं कृतनिनदं पतदशनिशरं प्रथा सुरक्षापम् । करिकुलमिव संनद्ध वीक्ष्य नभो नो भयं कस्य ।३:७॥ कश्येव गगनकरिणः काञ्चीव नमाश्रियो बियच्या । मणिमालेच विराजति पटिरियं शक्रचापस्य ॥३९॥ जाधिनतीः सह पीता ज्याला इव वानवस्य धनजठरान् । निर्मचछन्त्यः प्रासाः परिणतिमेतास्तविल्लेखाः ॥३१९॥ विवकिलमुकुलश्री: कुन्तपु स्थितानां स्तनतटलुठितानां हारलीला च यंपाम् ।। नमजलधरधाराबिन्दवस्ते पतन्तस्तव दवतु विनोदं योषितां केलिकाराः ॥४०॥ माशारधि मदपाये कमलानन्दननिषि । धनागमे च कामे च चियं यदवनोत्सवः ॥४०॥ पूर्वरङ्ग ( नृत्य-प्रारम्भ ) है' ॥३६५|| हे राजन ! ऐसी यह वायु संचार कर रही है, जो ऐसी मालूम पड़नी है.-मानों-श्रीष्मकालान सूर्य के विशेष संताप से मूच्छित (प्रलय के अभिमुख ) हुए कामदेव को शीतल जलबिन्दुओं द्वारा पुनरुज्न चित कर रही है और जो आकाश, पर्चत एवं पृथिवी के शरीर के सुख-हेतु है तथा जिसकी उत्पत्ति मघां का वृद्धिंगत करने के निमित्त है' ॥३६क्षा ऐसा आकाश देखकर कोन पुरुप भयभीत नहीं होता ? आप तु सभी पुरुष भयभीत होते हैं, मेघों से श्यामलित ( कृष्णवर्णशाली ) हुए जिसने गर्जना की है और जिससे वकारूपी बाण गिर रहे हैं एवं उत्कट इन्द्रधनुषशाली जो अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित हुआ उसप्रकार भयकर प्रतीत होरहा है जिसप्रकार अनादि से सुसज्जित हुआ हाथियों का झुण्ड भयङ्कर प्रतीत होता है। ॥३६) यह इन्द्रधनुप-यष्टि ( दण्ड ) उसप्रकार शोभायमान होरही है जिसप्रकार श्राकाशरूपी हाथी का जेवरवन्द सुशोभित होता है और जिसप्रकार आकाशरूपी लक्ष्मी को करधोनी सुशोभित होती है एवं जिसप्रकार आकाशरूपी देवता की मरिण-माला शोभायमान होती है। ॥३९८॥ ये (प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली ) मेघों के मध्यभाग से निकलता हुई ।वधुत-(विजला ) गियाँ एसा जान पड़ती है-मानोंसमुद्र-जल के साथ पूर्व में पी गई बड़वानल आग्न की ज्वाला हा विजला-श्रेणारूप परिणमन को प्राप्त हई सशोभित होरही है ॥३६६।। हे राजन् ! वे (जगत्यासद्ध) त्रियों की क्रीड़ा करनेवाले नवीन मेघ की जलधाराओं (छटाओं) के जलबिन्दु गिरते हुए आपको हाफ्ट करें, जो ( जलाबन्दु ) स्त्रियों के केशपाशों पर स्थित हुए उसप्रकार शोभायमान होते है जिसप्रकार मोगरा की पुष्प-कालयाँ शोभायमान होती है और जो स्त्रियों के स्तनतटों पर लोटते हुए उसप्रकार सुशोभित होरहे हैं जिसप्रकार स्त्रियों के स्तनतटों पर लोटते हुए हार ( मोतियों की मालाएँ ) सुशोभित होते हैं ॥४॥ ऐसे मेघों के आगमन होनेपर और ऐसे कामदेव के अवसर पर पृथिवीलोक में जो महान उत्सव देखा जाता है, यह आश्चर्यजनक है। कैसा है मेघों का आगमन ? जो अाशा-रुध (समस्त दिशा-समूहों को रोकनेवाला) है । जो मदप्राय ( हर्पजनक या अहंकारप्राय ) है और जो कमलानन्दन-द्विटू ( श्री सूर्य का शत्रुप्राय ) है, क्योंकि मेघघटाएँ सूर्य को आच्छादित कर देती हैं। अथवा जो कमलिनी को तिरस्कृत (विकास-हीन ) करता है। कैसा है कामदेव ? जो आशारुधु ( तृष्णाजनक ) है। जो मदप्राय ( वीर्य की अधिकता-युक्त) है और जो कमलानन्दन-द्विद् ( लक्ष्मी की समृद्धि से द्वेष करनेवाला) है। अभिप्राय यह है कि कामदेव के १. रूपकालङ्कार । २. उत्प्रेक्षालङ्कार । ३. श्लेष, उपमा व आक्षेपालकार । ५. उपमालङ्कार । ५. उत्प्रेक्षालझार । ६. उपमालङ्कार। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः किं च । रामाः कामप्रकामाः सुक्रविकृतिकथाहक्षा वाग्विवादाः सौधोरसङ्गाः सभोगास्तरुणसदलोझासकासा दिगन्ताः। यस्मिश्वासारखारिखबहनणुकणश्रेणिसाराः समीरा। सोऽयं मोदाय राजन भवति समयः कस्य पर्जन्यवम्यः ।। ४०३ ॥ इस्यकालजलदवन्दिविनोधमानमनाः क्रीडाचलमेम्पनिलगिनि दिग्बलविलोकपिलासमाम्नि धाम्नि सम सेवासमागतसमस्तसामन्तसमाजेन प्रवीरपुरुषपरिषस्परिचारितः पुष्करावर्तप्रमुखमेघमाननीयो वर्ष श्रियं यावाहमनुभनन्सप्रमोदमासांचके, सावसंधिविनही 'देव, पञ्चालमण्डलपतेरवलस्य दुलनामा दूतः समागतः, सिधति च प्रवीक्षारभूमौः इति विशाप्प प्रावेशयत् । उपाचशयञ्च यथानिबन्धमाचरितोपचार सदुचिते देशे। 'दूत, प्रदर्यतामस्मै प्रभवे ते प्रभुप्रहित प्राभूतम् । शासनहर, समर्पता शासनम् । उभौ तथा कुरुतः। संधिविग्रही दूतदर्शनारप्रस्पभिशाय नगरनिवासिना तापसध्यानेन जाबालनाम्ना 'अयं हि राजा गजबलप्रधानत्वादविरादेव भवनिः सह विभिप्रक्षुब्यापारो वर्सवे। तदत्र चक्कर में उलझा हुआ कामी पुरुष लक्ष्मी-वृद्धि रोक देता है। ॥४१॥ हे राजन् ! वह जगप्रसिद्ध व प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ मेघोत्पादक समय ( वर्षाऋतु) किस पुरुष को प्रमुदित नहीं करता ? अपि तु सभी को प्रमुदित करता है, जिसमें स्त्रियाँ काम से परिपूर्ण होती है। जिसमें अच्छे कवियों (जिनसेन ष गुणभद्र-आदि ) के काव्यग्रन्थ संबंधी रामायण-आदि चरित्रों के श्रवण में मनोरथवाले बचन-युद्ध पाये जाते हैं। जिस ऋतु में राजमहलों की उपरितन भूमियाँ ( छजाएँ या छत ) भोगों ( पुष्पमालाएँ और कामिनी-आदि) से व्याप्त होती हैं और जिसमें समस्त दिशा-समूह नवीन वृक्षों के पत्तों की उत्पत्ति के फलस्वरूप मनोहर होते है एवं जिसमें पायुएँ धेगपूर्ण वृष्टि के जलों से क्षरण होते हुए स्थूल जलबिन्दुश्रेणियों से समम होती है ||४०२॥ अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! ऐसा मैं, जिसका मन 'अकालजलद' नामके स्तुतिपाठक को उक्तप्रकार स्तुति द्वारा क्रीडाशाली किया जारहा था और जो विशेष वीरपुरुषों ( सहस्रभट, लभभट व कोटिभट योद्धाओं) की सभा से वेष्टित धा एवं 'पुष्करावर्त'-आदिनाग के मेघों से माननीय वर्ण ऋतु का अनुभव ( उपभोग ) करता हुआ कीड़ापर्वत के तटवर्ती 'दिग्वलयविलोकपिलास' नामके महल पर सेवार्थ आए हुए समस्त राज-समूह के साथ जबतक हर्षपूर्वक स्थित था, उसी अवसर पर 'सन्धिविग्रही' नामके मेरे प्रधान दूत ने मुझे निमप्रकार सूचित किया कि 'हे राजन् ! 'पञ्चाल' । द्रौपदी के जन्मस्थानवाला देश) देश के स्वामी 'प्रचल' नामके राजा का 'दुकूल' नामका दूत आया है और सिंहद्वार पर स्थित है। तदनन्तर मेरे प्रधानदूत ने उस राजदूत को मेरी राज-सभा में प्रविष्ट किया और नमस्कार-आदि शिष्ट व्यवहार करनेवाले उस 'कुकूल' नामके दूत को मेरी आशापूर्वक उसके योग्य स्थान पर बैठाया । तत्पश्चात मेरे 'सन्धिविग्रही नामके प्रधान दत ने उससे कहा-डे व ! तुम्हारे स्वामी अचल नामके राजा द्वारा भेजी हुई भेंट मेरे स्वामी यशोधर महाराज के लिए दिखलाओ और हे शासनहरलेख लानेवाले । उक्त महाराज के लिए 'लेख दीजिए, । तत्पश्चात्-उक्त दोनों ने जैसा ही किया । अर्थात्'चल' राजा के दूत ने और लेख लानेवाले ने यशोधर महाराज के लिए क्रमशः भेट व लेख समर्पित किए। तदनन्तर यशोधर महाराज के प्रधानदूत ने उक्त राजदूत को देखकर 'अचल राजा के नगर में निवास करनेवाले व तपस्वी वेष के धारक 'जाबाल' नाम के गुमचर द्वारा प्रकट की हुई निम्नप्रकार की बाव का स्मरण किया-'इस 'अचल' नाम के राजा के पास हाथियों की सेना अत्यधिक पाई जाती है, १. श्लेषोपमालङ्कार । २, जाति-अलंकार । ३. तथाचोक्तम्---'मेघाश्चतुर्विधारतेषां द्रोणानः प्रथमो मतः । आवतपुष्करावर्तस्तुर्यः संवर्तकस्तथा ॥ १ ॥ यशस्तिलक संस्कृतीका प५४९ से संकलित-सम्पादक Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिक्षकचम्पान्ये पदुचित सदाचरितध्यम्' इति, प्रहित गोलका निर्वय , पुरस्सान्निवेशिस प्रादेशन शासनं च, 'अये, विमहामहिक एव स महीपाल: प्राभूततन्त्रमेतस्पस्य च प्राहिणोत् । तथापनयोर्मण्डलायमुदाक्सिो वेटनचतुष्यनितिन बहि:प्रकाश: संनिवेशः। तदमनेन विषमविषदोपकालुण्यवितकशाधेोनोपायनेन, शत्रुयशःप्रकाशपिशुनेन धानेन बिलोकितन लेखेन। भूयते हि किस-मणिकरण्जविन्यस्सवपुषा कृतिमेणाशीषिपविषधरेण विषयो दुर्धर्षम्, देवावन्नवासनिषेकेण च च स्पर्शविषण कगपः कृपाण राजानं जघान' इस्पनुध्याय, 'को हि नाम धीमाशस्त्रव्यापारसमाधौ द्विषयाधी मृदुनोपायेन भिषज्येत्' इति च विचिन्स्य ससौष्टयं तं दूतमेवमवादी--- 'नासोझासनमार्गमुण्डन शिम्बामासानन्धमः कण्ठे शीशरावधामकलन कात्रेयकारोइणम् । हताश न ते निकारपरुपः कोऽप्यन काय विधिस्सस्सयो पद बाकि निजतलखस्वयं तिनु' ॥१०॥ इसलिए यह निश्चय से शीघ्र ही यशोधर महाराज के साथ युद्ध करने की इच्छा कर रहा है, अतः पञ्चाल-नरेश ( अचल-राजा) के प्रति उचित कर्तव्य । युद्ध करना ) पालन करना चाहिए।' तत्पश्चान्– मेरे प्रधान दूत ने पश्चालनरेश द्वारा भेजे हुए गोलकार्थ ( लोह-गोलक का प्रयोजनअचजनरेश किसी के द्वारा विदारण करने के लिए अशक्य है ) और सामने स्थापित की हुई भेंट व लेख पर निम्नप्रकार विचार करके क्रोध व खेदपूर्वक कहा-'उस अचल नाम के राजा ने यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली प्रधान भेंट और यह पत्र ( लेख ) भेजा है, इससे मैं जानता हूँ कि वह यशोधर महाराज के साथ संग्राम करने के आग्रह (हठ ) में उलझा हुआ है। लेख व भेंट इन दोनों में से क्रमशः लेख का सनिवेश (स्थिति ) मण्डलायमुद्राङ्कित -खगचिन्ह सहित है। अर्थात् तलवार की छाप से चिह्नित होने के फलस्वरूप युद्ध सूचित करता है और भेद का संनिवेश (स्थिति) वस्त्रचतुष्टय-वेष्टित है। इसका अभिप्राय यह है कि वरूनचतुष्टय बेक्षित भेद इस बात की सूचना देती है कि शत्रु हाथी, घोड़े, रष व पैदलरूप चतुरङ्गासेना द्वारा यशोधर महाराज को वेष्टित करना चाहता है। इसप्रकार उक्त दोनों (लेख व भेंट) की स्थिति वाघ में अर्थ (प्रयोजन) प्रकट करनेवाली है। इसलिए पञ्चाल नरेश द्वारा भेजी हुई ऐसी भेंट से क्या लाभ है ? अपितु कोई लाभ नहीं, जिसमें अप्रीतिकर जहर का शेष होने से कलुषता विचार से कठोर अभिप्राय पाया जाता है एवं इस प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले लेख के बाँचने से भी क्या लाभ है ? अपितु कोई लाभ नहीं, जो कि शत्रुभूत राजा ( अचल नरेश ) की कीर्ति को प्रकट करने का निरूपण करता है। क्योंकि उक्त बात के समर्थक निम्नप्रकार उदाहरण श्रवण किये जाते हैं --'धिषण' नाम के राजा ने मारण्मयी पिटारे में स्थापित शरीरवाले और कृत्रिम ( विहान द्वारा उत्पादित ) आशीविष (जिसकी दाद में जहर होता है) सर्प द्वारा 'दुर्धर्षे नामके राजा को मार डाला और 'करणप' नामके राजा ने 'कृपाण' नामके राजा को ऐसे दिव्य वस्त्र की सुगन्धि द्वारा, जिसके बनेमात्र से जहर चढ़ता था, मार डाला। तत्पश्चात् · यशोधर महाराज के प्रधान दूत ने यह विचार करके 'कौन बुद्धिमान् पुरुष शस्त्र-प्रहार शारा शान्त नेवाली शत्रुरूपी व्याधि की कोमल (लेप-आदि-शत्रुराजा के पक्ष में सामनीति ) उपाय द्वारा चिकित्सा करेगा ? अपितु कोई नहीं करेगा'। स्पष्ट वचनपूर्वक उस राजदूत से निम्नप्रकार कहा 'हे दूत! हम लोग तुझे विरस्कृत करनेवाले निम्न प्रकार कार्य तेरे साथ करेंगे। उदाहरणार्थ--- क्रमशः तेरी नाक काटना, सिर बचाकर छुरा द्वारा सिर-मूंडना, घोटी पर बेल के फल बाँधना तथा तेरी गर्दन पर टूटे हुए मिट्टी के स्वप्पड़ों की माला बाँधना और गधी पर सवार करना । इन्हें छोड़कर Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाभासः मपि च-को नु बलु विधारमतरताः पातशौर्यसोता वा यथार्थवायोक्ति दूसे विकुर्वीत। यतो इतोहितमूत्राणि खलु महीपतीमा व्यवहारतन्त्राणि प्रवर्तन्ते, दूतायसप्रभवाश संधिवियानासनसंश्रयाँधीभाषाः । पर्याप्तमधवान पर्यनुयोगानुसारेण । विदित एव तपेशिताकाराभ्यां भवद्ध रभिप्राया। देवरधैप यदियन्ति दिनानि सस्मिन् समाचरित. पहुचापलेऽप्यसले गडोम्मीलनवृति विभरोधभूव किल । सत्र तदीयान्नायजन्ममिभूमिपसिभिश्चिराय पुराचरितासीतपरमेश्वरपरणाराधनानिबन्धनम् । सानी च स यदि स्वयमेव देवस्य प्रसापानलग्यालासु शलभशालिनी श्रियमाश्रयितुमिच्छति, सदासौ सिंहसरावामररिव विलसितुम आशीविषविषधरशिरोमणिभिरिव मम्बनं कर्तुम मदान्धगम्भसिन्धुरन्तवलयमिव सेरे तिरस्कार से कठोर कार्य तेरे साथ नहीं करेंगे, इसलिए तू निशङ्क होकर अपने स्वामी ( अचल राजा) का मौखिक संदेश कह और अपने स्वामी का लेख रहने दे" ॥४०३|| तत्पश्चात् हे मारिदत्त महाराज ! मैंने अपने प्रधानदून के निम्नप्रकार वचन भवण किए विचार से विचक्षण मनवाला च शूरता के पूर्ण प्रवाह से व्याप्त हुआ कौन पुरुष निश्चय से सत्यवादी दूत को मिथ्यावादी कर सकता है। अपि तु कोई नहीं कर सकता। क्योंकि निश्चय से राजाओं की व्यपहारप्रवृत्तियाँ दूतों द्वारा कहे हुए सूचित करनेवाले वाक्यों से व्याप्त हुई कर्त्तव्यमार्ग में प्रवृत्त होती है एवं उनके सन्धि ( बलिष्ठ शत्रुभूत राजा के लिए धनादि देकर मैत्री करना ), विप्रह ( युद्ध करना ), यान (शत्रुभूत राजा पर सेना द्वारा चढ़ाई करना ), आसन ( सबल शत्रु को आक्रमण करते हुए देखकर उसकी उपेक्षा करना- उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र किले वगैरह में स्थित होना), संश्रय ( बलिष्ट शन्न द्वारा देश पर आक्रमण होनेपर उसके प्रति आत्म-समर्पण करना) और द्वैधीभाव ( बलवान और निर्बल दोनों शत्रुओं द्वारा आक्रमण किये जाने पर विजिगीषु को वलिष्ठ के साथ सन्धि और निर्बल के साथ युद्ध करना चाहिए अथवा बलिप्त के साथ सन्धिपूर्वक युद्ध करना एवं जब विजिगीषु अपने से बलिष्ठ शत्रु के साथ मैत्री स्थापित कर लेता है पुनः कुछ समय बाद शत्रु के होनशक्ति होनेपर उसीसे युद्ध छेड़ देता है उसे ' बुद्धि-आश्रित 'दुधीभाव' कहते हैं, क्योंकि इससे विजिगीषु की विजयश्री निश्चित रहती है) इनकी उत्पत्ति भी दूत के अधीन होती है। अर्थात--विजयश्री के इच्छुक राजा लोग अपने प्रधान दूत की सम्मति या विचार से ही शत्रुभूत राजाओं के साथ उक्त सन्धि, विमा, यान, आसन, संश्रय घ द्वैधीभाषरूप पाड्गुण्य नीति का प्रयोग करते हैं। अथवा शत्रुराजा का मौखिक संदेश पूछने से भी क्या लाभ है? अपि तु कोई लाभ नहीं; क्योंकि तेरे ( दूत के) इङ्गित (मानसिक अभिप्राय के अनुसार चेष्टा करना) और नेत्र व मुख की विकृतिरूप आकार द्वारा मैंने ( यशोधर महाराज के प्रधामदूत ने) आपके स्वामी 'अचल' नरेश का अभिप्राय जान लिया है। आपके द्वारा प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले इन यशोधर महाराज ने जो इतने दिनों तक बहुत अपराध करनेवाले भी तुम्हारे अचल राजा का तिरस्कार धारण ( सहन ) किया, उस विरस्कार-सहन करने में अचल राजा के वंश में जन्मधारण करनेवाले पूर्व राजाओं द्वारा बहुत समय तक की हुई प्रस्तुत यशोधर महाराज के पूर्ववंशज राजाओं ( यशोघ व यशोबन्धु-आदि सम्राटों) के चरणकमलों की सेवा ही कारण है। इस समय यदि वह (अचल राजा) स्वयं ही महायज की प्रतापरूपी अग्नि-उवालाओं में पतङ्गा के समान नष्ट होनेवाली राज्यलक्ष्मी प्राम करने की इच्छा करता है तो उस समय में यह अचल राजा उसप्रकार एज्यश्री की इच्छा करता है जिसप्रकार बह सिंह की सटामों से बने हुए चैमरों के दुरधाने की इच्छा करता है। अर्थात्-जिसप्रकार सिंह-सटाओं के मर दुरवाना घातक है उसीप्रकार यशोधर महाराज की राज्यश्री की कामना भी अचल नरेश के पात का *रागेण' सदी• पुस्तकपाठः। १. समुच्चयालङ्कार । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ यशस्तिलकचम्पृकाव्ये भलैहल्लेखिनुम् प्रलयकालानलमित्र पाणिपल्लवेन निवारयितुम् मकराकरमिष बाहुभ्यां तरितम् गगनमिव फालेन लायितुम् मन्दरमिव करतलेन सोलयितुम् महेपरपरशुमिशादर्शतां नेतुम् आदिवराहदंष्टामुक्ताफळमिव चाभरणायाक्रष्टुमभिलपसि । यतो निजराष्ट्रकण्टकोत्पाटनदुर्ललितबाहुबलः संप्रत्ययापि न जानात्यसावमलः परमेश्वरस्य विक्रमविलसितानि, यापेवं स्वयं विनोदस्याश्चर्यशौर्यसरम्भपुटशिसवनिजानुजग्याज+स्फुटिसविदारिसहिरण्यकशिपुः पुरपतिरिक्षत्रियकथावतारेषु । सथा हि वैकुण्ठः कुलकीर्तनं कमलभूदर्भप्रगल्भागलिन ची नैव पुमानुमापतिस्य चन्द्रो निशाषकः । हेलि: केमिसरोजवम्धुरनिलः क्रीडाश्रमे चाटुमान्यस्येत्यं गणनामरेपु विजयी सस्थाहले कोऽपरः ॥१४॥ अपि च । याः पूर्व रणागसंगमभुवो यस्यासिधारापयःपातप्रेतसपनसंततिशिरःश्रेणिश्रिताः क्षीणताम् । याताः क्लुप्तकपालिभूषणभरारम्भाः पुनस्ता मुहुजांयन्ता 'स्वदनीकी कसजुषः पूर्वनिमोऽस्याहवे ॥४०॥ कारण है। यह उसप्रकार राज्यश्री की कामना करता है जिसप्रकार आशीविष सर्प की फणा के रलों से आभूषण गाने की इच्छा दरा सौर पर उसः सालक्ष्मी प्राप्त करने की इच्छा करता है जिसप्रकार मदोन्मत्त च सर्वोत्तम हाथी के दन्तमण्डल को नखों से उखाड़ने की इच्छा करता है। इसीप्रकार उसकी राज्यलक्ष्मी के प्राप्त करने की कामना जसप्रकार घातक है जिसप्रकार उसकी प्रलयकालीन अग्नि को अपने हस्वरूप कोमल पत्ते से निवारण करने की इच्छा घातक होती है। वह उसप्रकार राज्यश्री प्राप्त करना चाहता है जिसप्रकार वह महासमुद्र को अपनी भुजाओं से तैरने की इच्छा करता है और जिसप्रकार वह उछलकर फूंदने द्वारा अनन्त आकाश को उल्लान करना चाहता है एवं जिसप्रकार वह सुमेरु पर्वत को इस्ततल से जानने की इच्छा करता है जिसप्रकार वह श्रीमहादेव जी के कुछार को दर्पण बनाना चाहता है। इसीप्रकार वह उसप्रकार राज्यश्री की इच्छा करता है जिसप्रकार विष्णु के वराह-अवतार की दाँदरूपी मोती को मोतियों की मालारूप कण्ठाभरण बनाने के हेतु खींचना चाहता है; क्योंकि तुम्हारा स्वामी अचलराजा, जिसकी भुजाओं का बल अपने देश के क्षुद्र शत्रुओं को जड़ से उखाड़ने में शक्तिहीन है, यशोधर महाराज के उन पराक्रम-विलासों (विस्तारों) को अब भी नहीं जानता, जिन्हें ऐसा इन्द्र स्वयं अपने श्रीमुख से वीर क्षत्रिय राजाओं के वृत्तान्त के अवसरों पर निम्नप्रकार प्रशंसा करता है, जिसका शरीर आश्चर्यजनक शूरता के आरम्भ से रोमानशाली है और जिसने नृसिंहावतार के अवसर पर श्री नारायण के छल से खम्भे से निकलने द्वारा हिरण्यकशिपु ( प्रहलाद का पिता) नाम के दैत्य-विशेष के दो टुकड़े किये हैं-फाड़-डाला है। अरे दूत ! देवताओं में इसप्रकार की मान्यताबाले यशोधर महाराज के साथ दूसरा कौन पुरुष युद्धभूमि में विजयश्री प्राप्त करनेवाला होसकता है ? अपि तु कोई नहीं होसकता। उदाहरणार्थश्रीनारायण जिसका गुणगान करनेवाले ( स्तुतिपाठक) है, ब्रह्मा जिसके पुरोहित हैं, श्रीशिव, जो किन स्त्री हैं और न पुरुष हैं। अर्थात्-नपुंसक होते हुए भी जिसकी प्रशंसा करते हैं, चन्द्रमा जिसकी रात्रि में सेवा करता है और सूर्य जिसका क्रीड़ाकमल विकसित करता है एवं वायुदेवता स्त्रियों के रमणखेद में चाटुकार करता है। अर्थात-प्रिय करके स्तुति करता हुआ खेद नष्ट करता है॥४०४॥ प्रस्तुत यशोधर महाराज की विशेषता यह है कि जो युद्धाङ्गण की संगमभूमियों, पूर्वकाल में जिस यशोधर महाराज की तलशर के अग्रभागी जल में डूबने से मरे हुए शत्रु-समूहों की मस्तकरिणयों से व्याप्त थी और खोपड़ियों के आभूषणों (मालाओं) के भार का आरम्भ रचनेवाली होने से खाली ( जन-शून्य ) होचुकी x 'रत्नाकरमित्र बाहुभ्यां तरीतुं' क० । मूलप्रती 'स्फुटित' नास्ति । १. 'तदनौक' स्यात् । २. अतिशयोक्ति-अलंकार। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्राधासः इति संधिविप्रहिणः, तवैत चनादिक्षितसवयानाम् अपरिमितकोपप्रसरावधीरिसालपुरुषालापार्गलानाम् ससंरम्भमन्योन्यसंवट्वटरकोटीरकोटिधतिमाणिक्यनिकर कीर्णतया स्वकीयावलेपामलरफुलिङ्गचलितमित्र कुश्मितलं कुर्वसाम् इतस्ततः समुच्छलितापतन्मुक्ताफल प्रकसभिरारसनहारारभिरागामिगन्यजयस्मयावसरमुरमुन्दरीकरविकीसमवर्षमिव प्रकाशयता बोराणां धाम्पोम्यादापालोकमव्याजेन वास्पाकर्णांबभूव । तथाहि-त्र तावस्कोदण्डमार्तण्डः साटोप सपनवंशविनाशपिशुमधुकुरिभङ्गानिर्भरभालस्वेदजलेन ज्यां मार्जयन इस्तमाई से इनमेवममापिट 'श्रीपद मित्रपक्षाणां वरदण्डं च विद्विषाम् । वेवस्थास्य पदाम्भोजद्वयं शिरसि धार्यताम् ॥४॥ मो चेत्कोदण्जमाण्डकाण्डसजितमस्तकः । यास्यस्याजो स ते स्वामी हसाण्डवडम्परम् ॥४०॥ थी वे ( युद्धाङ्गण की संगम भूमियाँ ) फिर से यशोधर महाराज के साथ किये जानेवाले युद्ध में शत्रुभूत अचलराजा की सेना में मरे हुए वीरों की हड्डियों को धारण करनेवाली होकर पूर्व की लक्ष्मी ( शोभा) की धारक होयें। अर्थात्-यशोधर महाराज की तलवार के अप्रभागवर्ती पानी में डूबने से मरे हुए शत्रु-समूहों की मस्तक-श्रेणियों से व्याप्त होने की शोभावाली हो ॥४०५॥ अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! किसी भवसर पर मैंने ( यशोधर महाराज ने ) जिसप्रकार अपने प्रधान दत के उपयुक्त वचन श्रवण किये थे उसीप्रकार ऐसे वीर पुरुषों के निम्न प्रकार वचन उनके परस्पर के वचनों को देखने के बहाने से भवरण किये, जिन्होंने यशोधर महाराज संबंधी प्रधान दूस के उपर्युक वचनों द्वारा 'प्रचल' नरेश के 'दुकूल' नाम के दूत का अभिप्राय जान लिया था और जिन्होंने मर्यादा को उल्लङ्घन करनेवाले क्रोध-विस्तार द्वारा गुरुजनों की निषेध ( युद्ध रोकनेवाली) वचनरूपी परिपा (किवानों का बेड़ा ) तिरस्कृत की थी एवं वहाँ की बद्धभूमि पर वीर पुरुषों के क्रोधपूर्वक परस्पर के संचलन ( धकाधकी ) से टूटते हुए मुकुटो के अप्रभागों पर जड़े हुए माणिक्यों ( लालमणियों ) का समूह विखरा हुआ था, इसलिए वह भूमितल ऐसा मालूम होरहा था-मानों-वे वीरपुरुष अपने मद या क्रोधरूपी अग्नि-ज्यालाओं से उसे प्रज्वलित कर रहे हैं और जो ( वीर पुरुष) घुटनों तक लम्बी पहनी हुई मोवियों की मालाओं से, जिनके प्राप्त हुए मोतियों के समूह यहाँ-वहा उछल रहे थे, ऐसे मालम पढ़ते थे-मानों-वे भविष्य में होनेवाली युद्ध-विजय की वेला ( समय ) के अवसरों पर देवियों के करकमलों द्वारा फेकी हुई । की हुई ) पुष्पवृष्टि ही प्रकाशित कर रहे हैं। अथानन्तर उन वीरों के मध्य में अनुक्रम से 'कोदण्डमार्तण्डा नाम के वीर पुरुष ने आडम्बर सहित शत्रु-कुटुम्ब का नारा सूचक झुकुटि भगा ( भोहों का चढ़ाना) पूर्वक गाद मस्तक के स्वेद-जल द्वारा धनुप-छोरी उल्लासित करते हुए उसे ('अपल' नरेश के 'दुकूल' नाम के दूत को ) हाथ से पकड़ कर निम्नप्रकार कहा 'हे "दुफूल' नाम के दूत ! इस यशोधर महाराज के दोनों चरणकमल, जो कि मित्रों को लक्ष्मी-मन्दिर ( लक्ष्मी देने के स्थान ) हैं और जिनमें शत्रुओं को तीन दण्ड देने की सामर्थ्य है, मस्तक पर धारण करो। यदि ऐसा नहीं करोगे ( यदि तुम्हारा 'अचल' नरेश उक्त महाराज के दोनों चरणकमल मस्तक पर धारण नहीं करेगा) तो वह तेरा स्वामी ( अचल नरेश) 'कोदणमाड' नाम के वीर के बाण द्वारा विदीर्ण किये गये मस्तकयाला होता हुआ युद्धभूमि पर कबध ( विना शिर का शरीर-धड़ के बाहुदण्डों को विस्तृत नचानेवाला होगा॥४०६-४०७ ।। १. देव-भलंकार । २. बीररसप्रधान जाति-अलंकार । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० यशस्तितकचम्पूकाव्ये परशुपराकम: सायज्ञं पाणिमा परम मिनिगानस्तथैष 'उनिलठितमौलिः पादपीठोपकण्ठे न भवति शठकृत्या मस्पतेर्यः सपत्रः । अपमाहितमतिर्मामकस्तस्य सूर्ण रणविरसि कुठार; कण्डपीठौं दिनत्तिः ॥४०॥ मुगरप्रहारः साबरम्भं करतलेन मुद्रमुस्सायन्-'अहो चूत, निवेदयेदं महधर्म सस्य सकलदुराचारको कोठस्य प्रक्षर मोसमागमोत्कण्ठस्य । कपटभरविभीषाचेष्टितैनों विभीयां तदामिह मुधोजवर्जनस्फूजितेन । पदिसुभटघटायां त्वं पटिष्ठपसिष्ठः सपदि मम रणाने मुनरस्याप्रसः स्थाः ॥११॥ करवालवीर सक्रोधः करण करवावं तरलयन्-'अध्वग, साध्ववधार्यताम् । भखवंगर्वदुरवीर्यपर्यस्तमानसः । मदीयस्वामिसेवासु यः कोऽपि इससाहसः ॥४१॥ विपक्षपक्षक्षक्षवीक्षा कोशेषको मामक एतस्य । रमांसि बनाक्षसः क्षादि प्रतीक क्षुण्णतया रणेषु ॥५११॥ (युगमम् ) इसके अनन्तर 'परशुपराक्रम' नाम के बोर पुरुष ने हाथ से कुछार परिमार्जित करते हुए उक्त कोदण्डमार्तण्ड' नाम के वीरपुरुष के समान उस दूत को हाथ से पकड़ कर उससे अनादरपूर्वक निम्न प्रकार पचन कहे-'जो शत्रु दुष्ट योय के कारण मेरे स्वामी यशोधर महाराज के सिंहासन के समीप में इठ से भूमि पर मस्तक झुकानेवाला नहीं होता, उसकी प्रशस्त गर्दन को मेरा कुठार, जिसका स्वरूप संग्राम में विजयश्री प्राप्त करने से कठिन है, संग्राम मस्तक पर शीघ्र विदीर्ण कर देता है-दो टुकड़े कर डालता है ॥४२८॥ अथानन्तर 'मुद्गरप्रहार' नाम के वीर योद्धा ने क्रोधपूर्वक इस्ततल से मुद्गर को उल्लासित करते हुए उस दूत से इसप्रकार वचन कहे-'हे दूत ! तू उस 'प्रचल' नाम के नरेश से, जो कि समस्त दुराचारों ( पापों ) के कारण लोक में हेठ* (अमुख्य-जघन्य ) है और जिसकी लक्ष्मी-समागम की इच्छा नष्ट होरही है, मेरा यह निम्नप्रकार वचन कहना हे दूत ! झूठी वीर योद्धाओं की घातक क्रियाओं से मैं ( मुद्गरप्रहार ) भयभीत नहीं होसकता, इसलिए इस मुद्गरप्रहार' नामके धीर योद्धा के प्रति किये जानेवाले निरर्थक बल के आदर-स्फुरण ( फड़कने ) से तेरा कोई लाभ नहीं। इसलिए यदि वीर योद्धाओं के समूह में तुम (अचल राजा) विशेषरूप से पटुतर प्रस्थान या महिमावाले हो तो शीघ्र ही युद्धभूमि के अप्रभाग पर मेरे मुद्गर के सामने उपस्थित होओ'३ ।। ४०६ ।। तत्पश्चात् 'करवालवीर नामके वीर योद्धा ने कुपित होकर हाथ से तलवार को कम्पित करते हुए कहा-हे दुकूल ! सावधानीपूर्वक सुन । "हे दूत ! जो कोई भी पुरुष, जिसका चित्त गुरुसर ( महान् ) अहार और दुर्वार ( न रोकी जानेवाली) शक्ति से पतित है, मेरे स्वामो यशोधर महाराज के चरणकमलों की आराधनाओं में अपना उद्यम नष्ट करनेवाला होता है, उसके हृदय से प्रवाहित होते हुए हृदय-रुधिरों से यह प्रत्यक्ष दिखाई 'मुद्गरस्याप्रहः स्याः' क.। 'सनोध क० । १. एवं' मूलप्रती । क्षीणतया' का । २ जाति-अलंकार। । * 'हेल्स्य अमुख्यस्य' टिप्पणी ग०। ३. वीररसप्रधान जाति-अलंकार । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एखीय भाभासः मारावैरोचनः सार्ग भारापारमबलोकमानः'पयिक कथय मायस्पात्मनस्स्व सभापामसमसमरर राक्षसोलापताम् । यदि सब विशिखामरिणामुमण्ड मटनपटु विषय तस्कृतार्नु विशामि' ॥४१२॥ वक्रविक्रमः साक्षेप व परिक्रमयन्-'महो पेट्येवाधिक, शीघ्रमेवं प्रशाधि पखालाधिपतिम्---- 'दुर्ग मार्गय याहि वा जलनिधैरुतीर्य पार पर पातासं विश खेचरानयवरार वाभव शिप्रताः। नो चेद वैरिकरीबडम्भवलनव्यासकर के मुहर्मक कामकालपकमियो मूभिम प्राति भ्रमम् ॥११३॥ कुन्तप्रताप: सको अन्त मुत्तोषपन्-'द्विजापसद्, सविशेष निकाम्यताम् । पोपिराम्पादसेवा र पुर्वशोऽपि मदीय एष वन्त: शकुन्तासर्पणाय । निर्भिय वक्षः पिठरप्रतिहां तस्यासमा जन्य विमति ॥४१४॥ देनेवाली मेरी तलवार, जिसका व्रतधारण शत्रकुल को नष्ट करने में समर्थ है, युद्धभूमियों पर पूर्णरूप से राक्षसों की पूजा करती है उन्हें सन्तुष्ट करती है ||४१०-४११॥ ( युग्मम् ) अथानन्तर 'नाराचवैरोचन नामके वीर योद्धा ने क्रोधपूर्वक शोह-चाणों के भाते की ओर देखते 'हे 'दुकूल' दूत ! तुम सभा के मध्य अपने स्वामी 'अचल' नरेश से यह कहना कि मैं अद्वितीय या विषम संप्राम-भूमि पर यदि तुम्हारे 'अचल राजा का कबन्ध (शिर-रहित शरीर के घड), जिसका मस्तक मेरे बाणों के अग्रभागों द्वारा काटा गया है अथवा गिर गया है और जो राक्षसों के शीयतायुक्त तालों (हस्त-ताडन क्रिया का मान) से व्याप्त है, नृत्य-चतुर न करूँ तो अग्नि में प्रविष्ट होजाऊँ श्या अथानन्तर 'चक्रविक्रम नामका वीर योद्धा ललकारने के साथ चक्र धुमाता हुआ बोला-है वेदषधिक (वेदार्थ न जानने के कारण हे वेद-भार-वाहक जमवाक्षण !) तुम शीघ्र ही पाल-नरेश ('अचल राजा) से इसप्रकार कहो-- हेमचल ! तुम अपनी रक्षा-हेतु दुर्ग ( पर्वत, जल व पनाविरूप विषमस्थान ) देखो, अथषा समुद्र का उत्कृष्ट किनारा सम्मान करके. चले जामो अथषा रसातल में प्रविष्ट होजाओ प्रथया शीघ्र विद्याधर-शोक के अधीन होज़ामो। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो मेरा चक्र, जो कि अकाल (कुसित) कालचक सरीक्षा भया है और शत्रु-हाथियों का मस्तकपिण्ड चीरने के कारण जिसमें सपिर लगा हुमा है एवं जो बार-बार प्रेरित किया गया है (छोड़ा गया है), निश्चय से सुन्दारे मस्तक पर गिरेगा ||४१३॥ तस्पश्चात् 'कन्तप्रतापनाम के वीर योद्धा ने भाला कम्पित करते हुए क्रोधपूर्षक निमप्रकार कहा-'हे पतित बामण ! सावधानीपूर्वक सुन । जो कोई राजा दुष्ट स्वभाव-वश यशोधर महाराज की सेषा में मन कुपित करता है, उसके प्रति प्रेरित किया हुआ मेरा यह भाला, जो कि सरल भौर शोभायमान बाँस पृक्ष से अत्तान भी हुआ है. गृख-आदि पक्षियों व यमदेवता के संतुष्ट करने के हेतु पूर्व में उस पुरुष के पत्तःस्थलरूप पर्वन की शोभा को भा करके उसके रुधिर से संग्राम भूमि को पूर्ण ( भरी हुई) करता हे ॥४१४|| ___Bभ: ।। *उत्तालयन्' .. ग. 1०। १. औररसप्रधान जाति-अलंकार । १. माति-अलंकार । मतगहों अधिकः' इत्यमरः । ३. वीररसप्रधान जाति-भसंझार अपना अपमालंकार । ४. रूपकालंकार। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये लागलगरलः सोल्लुण्ठालापं लालमुहानयमानः-४ धीराः, कृतं भवता समरसतम्भेण । यस्मा विदमेकमेव चुदइसनुशिरान्साः कीर्णकृत्तिमतामाः क्षादविरलरकस्फारधारासहना । स्फुटनिकठोर यातास्थीः समीके मम रिपुदयालीलागलं लिखीति' ॥४११॥ कणयकोणपः सामर्थ विहस्य-अये दूत, सादरं भूयताम् । पसौ सब प्रभुरस्मरसमसंभावनया देवसेवार्या मानुकुलवृत्तिस्तवा नूनमेवः हमस्यापदातिव्याल्यासनातर्णितयोगिः ! गपिचितवनकरणि कणयः कार्य करिष्यते तस्य' ॥४१६॥ त्रिशूलभैरवः सासूयं निशूलं पलायन्-'दूत, हि मचनादेषमचलम् - इदं निशूलं तिसूभिः शिखाभिर्मार्गमयं वक्षास ते विधायपातसमयेत्रिशिावतारी कारणे कीसिमिमा मदीयाम्॥४१॥ असिधेनुधनंजयः सेय॑मसिमातृमुहौ पञ्चशाख निधाय - 'अहो प्रहामन्धो, ममाप्येष एव सर्गो यस्मामासात्मस्थितेस्रात्तेने शरूपातादन्यत्र प्रायश्चेसनमस्ति । ततः अथानन्तर 'लागलगरल' नामके वीर सैनिक ने अहवार युक्त भाषणपूर्वक हल ( शस्त्रविशेष) - घुमाते हुए कहा 'हे स्वामिभक्त वीरपुरुषो! आपको युद्ध प्रारम्भ करने से पर्याप्त है-कोई लाभ नहीं। क्योंकि मेरा केवल हल ही युद्धभूमि पर ऐसी शत्रु-हृदय-पक्तियों को विशेषरूप से खेद-खिन (क्लेशित ) करता है, जिनकी महान् नसों के प्रान्तभाग टूट रह हैं, जिनके विस्तृत चमड़े फैंक दिये गये है और जिनके खून की स्थूल हजारों छटाएँ श्रावच्छिन्न होती हुई बरस रही हैं एवं जिनकी धनुष-कोटा ( दोनों कोनों ) के समान कठोर वष्टा (कटकटाहट ) शब्द करनेवाला हायों के सेकड़ों टुकड़े होरहे६१ ॥४२॥ ___ तत्पश्चात्–'कणयकोणपा नामके वीर योद्धा ने क्रोधपूर्वक हँसकर कहा-'अये दूत ! तू सावधानीपूर्वक मेरे वचन श्रवण कर। यद्यपि यह तुम्हारा स्वामी ( दूरवर्ती 'अचल' नरेश), जिसे हमारे सरीखा संघटना-युक्त होना चाहिए। अर्थात्-जिसप्रकार मैं ( 'कणयकोप' ) यशोधर महाराज का सेवक हूँ उसीप्रकार 'प्रचल' नरेश भी यशोधर महाराज का सेवक है। तथापि यदि यह ( अचल नरेश ) यशोधरमहारा की सेवा करने में अनुकूलवृत्ति ( हितकारक वाच करनेवाला) नहीं है तो उस समय निश्चय से यह मेरा प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला क्रणय ( भूषण-निबन्धन आयुधविशेष ), जिसने हाथी, पोड़े, रथ व पैदल सैनिकों के परस्पर क्षेपण (फेंकने-गिराने) से उत्पन्न हुई वायु द्वारा पृथिवी घुमाई हैकम्पित की है, उसके शरीर को यमराज क मांस-मास { कौर ) का कराण ( विधान ) करेगा' ।।४१६|| तत्पश्चात्-'त्रिशलभैरवा नामके वीर सैनिक ने त्रिशूल संचालित करते हुए शोधपूर्वक कहा-हे दुकूल नामके दूत! मेरे शब्दों में 'अचल' राजा से यह कहना प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला मेरा यह त्रिशूल अपनी सीन शिखाओं ( घोटियों या अप्रभागों) से तेरे हृदयपटल के तान मार्ग करके युद्धभूमि में मरी इस कोति को पाताललोक, मनुष्यलोक व स्वर्गलोक में अवतरण करनेवाली करेगा'३ ॥४१॥ अथानन्तर 'असिधेनुधनंजय' नामके धीर पुरुष ने कोधपूर्वक छुरी को मूंठ पर हाथ रखकर कहा'हे ब्राह्मण-निकृष्ट दूत! मेरा भी यही निश्चय है। अर्थात्-प्रचलनरेश को नष्ट करना मेरा भी कर्तव्य 'उदायमानः कः । बीरा' का। + 'ज्या' का । १. उपमालकार। २, जाति-अलकार। ३. यथासंख्य-अलङ्कार । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः वधि प्रष्टोत्तरं योऽत्र योध्यावधम्भवेष्टनः । सहिति सस्यैषा शस्त्री श्रोटपते शिस ॥११॥ प्रासप्रसर: ससौष्ठवं प्रासं परिवर्तयन्-'पर्याप्तमाखापपरम्परया। सवित्र, पवमुच्यता र दुर्भपायतनम्सूरफारवित्रासितदिकरीमः प्रासो मदीयः समराङ्गणेषु । सकार स्वीच हयं च भिस्या यात्पर्य हुतावादिलोके ॥१९॥ गदाविद्याधरः सगर्व गवामुसम्भवन्--- 'वृतैव विनिवेदमात्मविभवे दिनदिनैर्मप्रभु पश्यागत्य यदि श्रियस्तव मसा नो दियं वास्यति । भ्रान्स्याक्तिविजृम्भितामिलयलोत्सालीकूताशागला मूर्धान हरिति स्फुटालक स्वरकं मदीया गया' ३४३.॥ असमसाहसः सदोंदेकम् 'निजाते, संवदेवमासाशुचमसदापहरुवम्तुलारणे हन्दूरणे दिवारणे निशारणे कूटरणे परत्र का । यवि प्रवीरस्वमिहेधिमे पुरो नगर्विस शौर्षको कीर्तपा' ॥४२१॥ है, क्योंकि अपनी मर्यादा न जाननेवाले शत्रु पर शस्त्र प्रहार को छोड़कर उसके पाप-शोधन का दूसरा कोई भी उपाय नहीं है। क्योंकि--- _ जो शत्रु इस संसार में दुष्टता की आधारभूत क्रियाओं से व्याप्त हुआ युद्ध करने की मुस्थता चाहता है ( कहता है टिप्पणीकार के अभिप्राय से भूमि व द्रव्यादि की वाञ्छा के मिष से उत्तर देता है परन्तु सेवा नहीं करता ), उसका मस्तक यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली मेरी छुरी तड़तड़ायमान शब्दपूर्वक बाट डालती है"।।४।। ___ अथानन्तर 'पासप्रसर नामके वीर पुरुष ने चतुरतापूर्वक भाला उठाते हुए निम्न प्रकार कहा'इस राजसभा में वार वार विशेष भाषण करने से कोई लाभ नहीं लिए हे ब्राह्मण दूत ! तुम उस अचल नरेश से, जो कि पूर्णपाप का स्थान ( अन्याय का मन्दिरप्राय ) है, इसप्रकार कहना हे दूत ! सूत्कारों (भयानक शब्दों ) द्वारा दिग्गजों को भयभीत करनेवाला मेरा यह भाला संग्राम-भूमियों पर वख्तर-आदि धारण करके युद्ध-हेतु सुसजित हुए तुझ अचल नरेश को और तेरे घोड़े __ को विदीर्ण करके उसप्रकार पाताललोक को प्रस्थान करेगा जिसप्रकार पाताललोकवी प्राणियों को जनाने के लिए दूत वहाँ प्रस्थान करता है" ॥४१९|| अथानन्तर 'गदाविद्याधर नामका वीर पुरुष अहकारपूर्वक गवा ऊपर उठाता हुआ वोला--- 'हे दूत ! तू अपने स्वामी 'अचल' राजा से इसप्रकार कहना-यदि तेरे लिए लक्ष्मियों मभीष्ट हैं। अर्थात् यदि तू राज्यलक्ष्मी चाहता है वो दो या तीन दिनों के अन्दर मेरे स्वामी यशोधर महाराज के पास आकर उनके दर्शन कर। अन्यथा -यवि शरण में आकर उनका दर्शन नहीं करेगा तो मेरी यह गदा, जिसने वार बार घूमने से फैली हुई वायु-बल से दिग्गजों को भागने-हेतु उत्कण्ठित किया है, तेय मस्तक मस्तक-खंडों के शेषभागों को फोड़नेवाले व्यापारपूर्वक शीध्र फोड़ डालेगी ॥४२०|| तत्पश्चात्-'असमसाहस' नामके वीर पुरुष ने विशेष मद के साथ कहा-हे निजाति (हे ब्राह्मण ! अथवा श्लेप में दो पुरुषों से जन्म लेनेवाले हे दूत !) तू सस अचल राजा से, जिसके समीप शोक वर्तमान है और जिसका मन दुराग्रही है, इसप्रकार कहना हे 'भचल' ! यदि तू बाहु-युद्ध, मल्ल युद्ध, दिवस-युद्ध, रात्रियुद्ध और मायायुद्ध एवं और किसीप्रकार के धनुयुद्ध व खड्गयुद्ध-आदि में विशेष वीर है तो इस युद्धभूमि पर मेरे भागे युद्ध करने के लिए उपस्थित दिौथ्यविभवेष्टनः कः। १. माति अलद्वार। २. उपमालारः १. अतिशयलंकार । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ यशस्तिमपम्पूमम्मे चतुरामलः समीपरभस्मात्मा निर्वयं 'अहो विवर्षापासन, किमेतत्कापियपि तब हामी मामीचीत्। पावालगत्वमप्रतिमातुरङ्गामहः । सधा हि। दोर्दणसंधानतस्तराम्पत्तीन्पुनः पायसखाप्रहारैः । स्यमस्थामविषेर्गजेन्द्रालथानकोऽपि निहन्ति युद्ध ४२२॥ एवमपरेऽपि तस्यादपोत्तरङ्गभङ्गीभर्मिसमारमरित : भारमज्यमानभोगावतमनुष्यो पथास्ववीधारकार शक्तिकार्तिकेय-शङ्कशार्दूल-शतक्रतुविक्रम-शूरशिरोमणि-परषलप्रसयानल-प्रकटकन्दलादित्य-कपटकैटभारातिसपलपुरधूमकेतु-सुभटघटाप्राकार-समरसिंहप्रभावप्रभूत्तपस्तस्य उपकीवर्यपायपर्यस्तमादस्य भूपयज्ञामन्त्रणाय संदिविशुः। सेनापतिस्तत्रावसरे पुनरेवमीहांधो-'भदो भीराः, म जातोचितवृत्तीनां पुंसां किं गलगजितः । शूराणां कातराणा व रणे व्यक्ति पियति ०४२३५ होओ, क्योंकि केवल ऊँचे चिल्लानेमात्र से वीरता से मनोहर वीर पुरुषों की कीर्तियों नहीं होती ॥४२॥ तदनन्तर 'चतुरङ्गमल्ल' नामके वीर पुरुष ने भयङ्कर वेगपूर्वक अपने शरीर की ओर देखकर कहा'ब्रामण-कुल फलहित करनेवाले के दूत! क्या तुम्हारे स्वामी (अपलनरेश ) ने किसी भी अवसर पर यह बात उदाहरणरूप से नहीं सुनी ? कि 'चतुरजमल नामका वीर पुरुष ऐसा है, जिसके साथ लोहालेनेवाला प्रतिमल्ल (बाहयुद्ध में कुशल शत्रुभूत योद्धा ) तीन लोक में उत्पन्न नहीं हुआ। अब 'चतुरजमल' नामका वीर पुरुष अपनी चतुरङ्गमल्लसा का कथन करता है जो 'चतुरङ्गमल' नामका वीरपुरुष भुजारूपी दण्डों के आघात से अकेला होकर के भी घोड़ों को मार डालता है, चरणतलों के प्रहारों द्वारा शत्रु के पैदल सेनिको का घात करता है एवं वक्षःस्थल के शक्ति विधान (प्रयोग) द्वारा शत्रु के श्रेष्ठ हाथियों को नष्ट कर देता है पुनः अकेला ही युद्धभूमि में रथ चूर-चूर कर डालता है ॥४२२॥ इसीप्रकार यशोधरमहाराज के दूसरे भी वीर पुरुषों ने, जिनकी शारीरिक वृत्तियों प्रसिद्ध गर्व के कारण होनेवाली उत्कटरचना के मायाडम्बर संबंधी विशिष्ट भार से भङ्ग (न) होरही थी और जिनमें शक्तिकार्तिकेय, शङ्खशार्दूल, अक्षतविक्रम, शरशिरोमणि, परमलालयानल, 'अकटकन्दलादित्य, कपटकैटभाराति, सपत्नपुरधूमकेतु, सुभटपटाप्राकार व समरसिंहप्रभाव नामपाले वीरपुरुष प्रधामरूपसे वर्तमान थे, अपने अपने चिल्लों के गर्वपूर्वक उस अपना राजा को, जिसने में ऐश्वर्य की प्राप्ति से अपनी मर्यादा लुप्त कर दी थी, संग्रामभूमि पर बुलाने के लिए संदेश दिये। __ अथानन्तर (उक्त वीर पुरुषों के वीरता-पूर्ण वचनों को श्रवण करने के पश्चात् 'यशोधर महाराज के 'प्रतापवर्धन' नामके सेनापति ने उस अवसर पर पुनः इसप्रकार कहने की चेष्टा की-हे धीरवीर पुरुषों ! ऐसे पुरुषों के कण्ठ द्वारा चिल्लाने मात्र से स्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? अपितु कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, जिनमें आत्मयोग्यप्रवृत्ति (वीरतापूर्ण कर्तव्यपालन करने की शक्ति) प्रकट नहीं हुई है, सही बात तो यह है कि शूरवारों की शूरता और कायरों की कायरता युद्धभूमि में प्रकट हो जायगी ॥४२३।। ii भटावलेोक ! 'भाव' का समरसिंहप्रमतयः' क.*जन्यामन्त्रणायक. १. अन्तिरन्यास-अलंकार। २. क्रियाकारकद्रय-दीपकालकार। ३. भाक्षेपालंकार । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतीय भाषासः तपधामागभुपसंहतसरम्भाः प्रत्यावृत्तवाक्पारण्यप्रारम्भास्तिष्ठन्तु । अहो स्वामिप्रतापवर्धमारहिन्सविषिमहिन, भवतोयलमायेगेन । लेखमेनमवधार्य लिरुपता प्रतिलेखः। प्राभूतमिनमवलोक्य मध्यतां प्रतिप्राभूतम् । विधीपक्षों पास्य त्रयस्य यथाईमईगा। यस्माद्यतेष्वपि शास्त्रेषु तमुखा वै राजानः । सेवामन्तावसायिनोऽध्यनवमाभ्मा, fe पुनरन्ये। मपि च । स्वासिद्धिः परवृद्धिर्वो न दूतगलगर्जितः । अवधव्यापकर्माणस्ते जल्पन्ति यथेष्टतः ॥४२॥ संधिविही 'यथाज्ञापयति सेनापति हस्यवार्य च यथादियम् , 'सेनापते, लिखितोऽयं देखः। भयताम्--- स्वस्ति । समस्तमहासामन्यशिखण्डमनीमवारणकाल: FATEसरोजाग्यमामपाल्पाचवः पशवपाचोळ इसलिए कठोर वचनों का प्रारम्भ उत्पन्न करनेवाले आप लोग क्रोध का त्याग करते हुए अपने अपने स्थान पर बैठो और यशोधरमाहाराज की प्रताप-वृद्धि करने में श्राग्रह करनेवाले हे प्रधान दूत ! तुमको भी युद्ध करने की उत्कण्ठा करने से कोई लाभ नहीं किन्तु अचलनरेश के लेख को मन से भलीभाँति निश्चय करके प्रतिलेख ( उसका उत्तर देनेवाला लेख) लिखिये एवं इस शत्रु-भेंट को देखकर प्रतिमेंट (बदले में दूसरी भेंट ) बोधिए ( तैयार कीजिये ) तथा शत्रु द्वारा भेजे हुए दूत, लेख व भेंट इन तोनों का यथा योग्य सन्मान कीजिए। क्योंकि वीर सैनिकों द्वारा शत्रों के संचालित किये जाने पर भी ( घोर युद्ध का आरम्भ होजाने पर भी ) राजा लोग दूतमुखवाले होते हैं। अर्थात्-दूतों के वचनों द्वारा ही अपनी कार्यसिद्धि ( सन्धि व विग्रहादि द्वारा विजयत्री प्राप्त करना ) करते हैं। अभिप्राय यह है कि युद्ध के पश्चात् भी दूतों का उपयोग होता है, अतः दूत वध करने के अयोग्य होते हैं। यदि दूों के मध्य में चाण्डाल भी दृत बनकर आए हो, तो वे भी अपमान करने के योग्य नहीं होते, फिर उफच वर्णवाले साहाण दूतों का तो कहना ही क्या है? अर्थात्-क्या वे सर्वथा अपमान करने के योग्य हो सकते हैं ? अपितु नहीं हो सकते । प्रतापवर्धन सेनापति ने पुनः कहा-कि राजदूतों के कण्ठ द्वारा चिल्लानेमात्र से न तो शत्रुभूत राजाओं के राज्य की क्षति होती है और न विजयश्री के इच्छुक राजा की राज्य वृद्धि होती है। अयश न तो विजयश्री के इच्छुक राजाओं की राज्य-क्षति होती है और न शत्रुभूत राजाधों की राज्य-द्धि होती है। क्योंकि वे लोग ( राजदूत ) शस्त्र-व्यापार-रहित मध्यस्थ क्रियाशाली हुए यथेष्ट वक्ता होते हैं। अर्थात्शस्त्र-आदि से युद्ध न करते हुए राज-सभा में यथेष्ट भाषण करते हैं ॥ ४२४ ॥ अथानन्तर-यशोधर महाराज के "प्रतापवर्धन' नामके सेनापति द्वारा पूर्वोक्त कर्तव्य निश्चित किये जानेपर-यशोधर महाराज के 'सन्धिविग्रही' नामके प्रधान दूत ने कहा--'सेनापति की सी आना है उसीप्रकार में करता हूँ। अर्थात् 'शत्रुभूत अचल नरेश द्वारा भेजे हुए लेख के बदले प्रतिलेख लिखता हूँ । तत्पश्चात्-प्रतापवर्धन सेनापति ने जैसी आज्ञा दी थी इसपर उसने भलीभाँति विचार कर कहा-'हे सेनापति ! अथवा हे यशोधर महाराज ! मेरे द्वारा लिखा हुमा लेख अषण कीजिए-स्वस्ति ( कल्याणमस्तु)। ऐसे यशोधर महाराज परिपूर्ण प्रसिद्धि-सहित 'अचल' नरेश को आशा देते हैं कि और तो सब कुशलता है एवं आपका कर्तव्य यही है कि अहो अचलनरेश ! 'विजयवर्धन' या 'प्रतापपर्धन सेनापति आपको निम्नप्रकार आमन्त्रण ( आशा ; देता है कैसे हैं यशोघरमहाराज ? जिसके चरणकमल समस्त 'इस्यभिधाय' क.। १, 'चेरला सदी• प्रतौ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ यशस्तिलकचम्पूकाकये चेरस' हर्म्यनिर्माणप्रकाश्यमानदिविजयवाहिनी प्रचारः चारचक्षुः सहस्रसाक्षात्कृत सकलभूपालमण्डल मण्डलामधाराज छनिमप्ननिखिलार । ति संतानः संतान कनमेस्मन्दार पारिशात वनदेवतागीतोदाहरणगुणप्रपञ्चः पञ्चमो लोकपाल: पद्मावतीपुर परमेश्वरः कनक गिरिनाथः शिप्रासरिफ के टिकुअर: समुदमुद्राङ्कितशासन: कैलासलाण्डनः भवन्तिसीमन्तिनी कुचकुम्भमानाङ्कुशः प्रत्यक्ष मकरध्वजः याचकचिन्तामणिः कनककङ्कणवर्षः सत्यपरमेष्ठी परलोककलत्रपुत्रकः कविकामधेनुः धर्मरक्षावतंसः नीतिष्ठा म्बन तरु द्विष्टकैटभाराति: आहवचतुर्भुजः परहितमहामतः अहितकुलकालानलः प्रतिपजीवितः पराकमालंकारः समरसहस्राबाहुः प्रतापपनोदयः चातुरीचतुर्मुखः विवेकर लाकरः सरस्वती केलिविलासहंसः सरसोतिषलभः कन्दुकविनोदविद्याधरो मदकरिकोडाखण्डलः स्यन्दनप्रचार गरुडामजः पदातिषैनतेयो गीतगन्धर्वचक्रवर्ती देशाधिपतियों के मस्तकों पर आभूषणरूप होरहे हैं। लक्ष्मी के करकमल द्वारा जिसके चरणपल्लव सेवन किये जारहे हैं। पल्लव (देशविशेष), पाण्ड्य (राजाओं के बसाये हुए मगध आदि देश), घोल, चेरम या चेरल, इन देशों में राज-महल का निर्माण करने के फलस्वरूप जिसकी दिग्विजय संबंधी सेना का प्रचार प्रकट किया जारहा है। जिसने गुप्तचररूप हजारों चक्षुओं द्वारा समस्त राजाओं के मंडल ( समूह ) प्रत्यक्ष किये हैं । जिसके समस्त शत्रुओं के वंश खान के धाराजल में डूबे हुए हैं। जिसका गुण-विस्तार संतानक, नमेरु, मन्दार, और पारिजात, इन स्वर्ग वृक्षों के वनदेवताओं के गीतों में दृष्टान्तरूप से गान किया जाता है। जो मध्यमलोक प्रतिपालक व उज्जयिनी नगरी का परमप्रभु है । जो उज्जयिनी के समीपवर्ती कनकगिरि का स्वामी व शिप्रा नदी की जलकीड़ा करने में कुअर (हाथी) है। जिसका शासन ( आदेश - लेख ) समुद्राकार अँगूठी से अति (चिह्नित ) है। जिसके आज्ञा-लेख पर फैलाश का लाञ्छन (चिह्न) है। जो अवन्ति देश की स्त्रियों के कुछ ( स्तन ) कलशों पर नख स्थापित करता हुआ साक्षात् कामदेव है। जो याचकों के लिए चिन्तामणि है । जो सुवर्णमय कङ्कणों ( कर-भूषणों) की वर्षा करता हुआ सत्यवचनों के प्रतिपालन में ऋषभदेव सरीखा है। जो दूसरों की स्त्रियों का पत्र है। अर्थात्-जो परस्त्रियों के प्रति माता का बर्ताव करता है। जो कवियों के लिए सदा कामधेनु सरीखा मनोरथ पूरक है । धर्मरूप रत्न ही जिसका शिरोरत्न है। जो नीतिरूप लता को आधार देने में महावृक्ष है। जो शत्रुओं को नष्ट करने के हेतु श्रीनारायण है। संप्रामभूमि पर जिसकी चार भुजाएँ हैं अथवा जो संग्रामभूमि पर चतुर्भुज (विष्णु सा पराक्रमी है। प्रजाजनों का कल्याण हो जिसकी प्रतिक्षा है। जो शत्रु वंश को भस्मसात् करने के लिए प्रलयकालीन प्रचण्ड अग्नि है । स्वीकृत प्रतिज्ञापालन ही जिसका जीवन (आयु) है और पराक्रम हो जिसका आभूषण है । जो संग्राम-भूमि पर सहस्रबाहु ( विष्णु- सरीखा ) है अथवा जिसकी हजारों भुजाएँ हैं। जो प्रतापरूपी सूर्य के लिए उदयाचल हैं। अभिप्राय यह है कि जिससे उसप्रकार प्रतापरूपी सूर्य उदित होता है जिसप्रकार उदयाचल पर्वत से सूर्य उदित होता है। जो चतुरता के प्रदर्शित करने में ब्रह्मा है । जो हेय ( छोड़ने योग्य ) और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) के ज्ञानरूप रत्नों की खानि है । जो सरस्वती के क्रीड़ाविलास में कीड़ास है । अर्थात् जिसप्रकार क्रीड़ास कमळवन में क्रीड़ा करता है उसीप्रकार जो सरस्वती ( द्वादशाङ्गवारणी ) के क्रीड़ा विलास - शाखाभ्यास में कोड़ा करता है। सरस (मधुर) वाणियाँ दी जिसकी प्यारी खियाँ हैं। जो गेंद कीड़ा में विद्याधरप्राय है । जो मदोन्मत्त हाथी के साथ क्रीड़ा करने में इन्द्र- सरीखा है। जो रथ- संचालन क्रीड़ा में सूर्य- सारथि सरीखा है। जो पैदल सेना के साथ चलने में गरुडपत्ती- सरीखा शीघ्रगामी है । जो गानकला में देव- गायकों में चक्रवर्ती ( सर्वश्रेष्ठ ) है । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वास: ३७० वाग्रविद्यावृहस्पतिः नृतवृसाम्भरतः समस्तायुधसः शरणागतमनोरथसिद्धिः अनाथनाथ: स्यागभार्गवः मबम कुठारः कलिकुर केसरी अश्मकवंशवैश्वानरः शकशलभशमोगर्भः क्रथकैशिककृशानुः अहिच्छक्षत्रियशिरोमणिः पश्चाचापप्रणयकालः केरल कुलकुलिशपातः यवनकुञ्जग्रामक: वैद्यसुन्दरीविनोदकन्दः मागधवविलासश्णः काशिकामिनीवासिय माहिष्मती युवतिरतिकुसुमचापः कौशाम्बीमितस्विनीबिम्बाधरमण्डनः दशार्णवर्णिनीकर्स पूरः पाटलिपुत्रपणानामुङ्गः बलरम्भteforममरः पौरव पुरंधीरोधसिएकः सततवलुवितरणप्रीणिस द्विजसमेाथः श्रीयशोधरमहाराजः सकलप्रशस्तसहित सचलमद्दीपविमादिशति । योऽन्यत् कार्यं चैतदेव स विजयवर्धनः सेनापतिर्भवन्स मेयमामन्त्रयते- I पश्यागत्य जगत्पतिं यदि वदे याचे तदानुमहः कुर्यास्वं मृगचेष्टितं यदि वश क्षोणिः समुङ्गावधिः । संग्रामे भव संमुखो यदि ता क्षेमः कुतस्ते पुनस्तत्पञ्चरूपते किमत्र भवतः संदिश्यतां शासने ॥ ४२५॥ जो तल, वितत, घन व सुधिररूप वावित्रविद्या में बृहस्पति-सरीखा है । जो नृत्यशास्त्र में भरत ( नटाचार्य), आयुधों की संचालनक्रिया में सर्वज्ञ और आश्रितों के मनोरथ पूर्ण करने वाला एवं अनाथों का स्वामी तथा दाताओं में परशुराम है। जो द्रोहरूप वृक्षों के धन का उच्छेद करने के लिए परशु सरीखा है। जो कलिङ्ग ( दन्तपुर स्वामी ) रूपी हिरण के लिए सिंह है । जो 'अश्मक' देश के शजारूपी बाँस वृक्ष को भस्म करने के लिए अग्नि सरीखा है। जो शक ( तुरुष्क ) देश के स्वामीरूप शलभों ( पतनकीदों) को भस्म करने के लिए अग्नि सरीखा है। जो विराट् देश के स्वामी को भस्म करने के लिए अग्नि सरीखा है। इसीप्रकार जो 'अहिच्छत्र' नाम के नगर ( पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र ) के क्षत्रिय राजाओं में शिरोमणि व पचाल देश के स्वामी ( अञ्चल नरेश ) की चपलता नष्ट करने के लिए प्रलयकाल सरीखा है। जो केरल देश ( दक्षिणपथ-देश ) स्वामी के वंश को चूर चूर करने के लिए वापत सरीखा है जो यवन (खुरासान ) देश के राजारूपी वृक्ष को भस्म करने के लिए जाग्नि सरीखा है । चैत्र ( डाहाल ) देश की कमनीय कामिनियों के साथ विनोद ( क्रीड़ा) करने के हेतु जिसका युद्ध है। जो राज-महल की स्त्रियों के विलास (नेत्रों की शोभा ) देखने के लिए दर्पण सरीखा है। जो काखीदेश ( दक्षिणसमुद्र तटवर्ती देश ) की कामिनियों के कुचकलशों पर अपना करपल्लव स्थापित करनेवाला है। जो माहिष्मती (यमुनपुर- दिशावर्ती ) नगरी की युवतीरूपी रतियों को आनन्दित करने के लिए कामदेव सरीखा है। जो कौशाम्बी नगरी की स्त्रियों के बिम्बफल सरीखे रक्त ओठों को विशेषरूप से विभूषित करता है और जो ' दशार्ण' देश की खियों का कर्णपूर ( कर्णाभरण ) है । जो पाटलिपुत्र नगर की वेश्याओं का कामुक और 'बलभि' नाम के नगर की स्त्रियों के भ्रुकुटि ( मोहें ) भङ्गों के लिए भ्रमरसरीखा मञ्जुल ध्वनि करनेवाला है। इसीप्रकार जो पौरखपुर (अयोध्यानगरी ) की स्त्रियों के लिए सुगन्धित द्रव्य विशेष है। अर्थात् - जिसप्रकार सुगन्धित द्रव्य द्वारा वस्तुएँ सुगन्धित की जाती हैं उसीप्रकार प्रस्तुत यशोधर महाराजरूपी सुगन्धित द्रव्य द्वारा भी उक्त नगर की स्त्रियाँ सुगन्धित कीजाती है एवं जिसने निरन्तर धन-दान द्वारा ब्राह्मण समूह सन्तुष्ट किया है। I 'प्रतापवर्धन' सेनापति द्वारा अचल नरेश के प्रति दूरा-मुख द्वारा दिया हुआ आमन्त्रण - यदि में दीप्यमान सभा में कहता हूँ कि तुम यशोधर महाराज के पास आकर उनकी सेवा करो तो तुम्हारी भलाई है। यदि तुम भागोगे तो उससमय समुद्रपर्यन्त प्रथिवी है। अर्थात् - भागकर कहाँ जासकते हो ? और यदि युद्ध करने के अभिमुख होते हो तो उसमें भी तुम्हारा कल्याण किसप्रकार होसकता है ? अपितु नहीं होसकता। इसलिए हे अचलमहाराज ! आपको इस लेख द्वारा उक्त संदेश के सिवाय और क्या संदेश दिया जावे' १ ||४२५|| १. आपालंकार । फ - Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये कदाचित्रवतीर्णायां परितोषितविजिगीषुपरिषदि शरदि सरसकाश्मीरसरोसिमांसलेषु कीरकामिनी कुलकुलेख पविर्भवस्कणिशमञ्जरीसौरभोझरेषु कलमकेदारेषु, कुलकलविव समर्यादगतिषु महावाहिनीवाहेषु, भवद्गणेविष निर्मलावकानेषु सरःसु, नुपतिकोदण्डमण्लेखिव प्रवृत्तप्रचारेषु थिषु, प्रचण्डमासण्यातपभीतेविर निरन्सस्सस्यानुफपिहितप्रहेषु विभागगेषु, सलिमपरसहकान्तामभाषित निवाशिषु शलशिखरेषु, विटिसधनकपासपुटास्थिव प्रकटास शिक्षु, विम्भमाणेषु मितसरस्वतीहासप्रकाशेषु काशेधु, विनयमानेषु प्रकाशितकमलबन्धुजीवेषु बन्धुजीयेषु, विलसत्सु मकरन्दमम्मादितकोकनदेषु कोकनरेषु, सपोतिषु परिमलोलासितवलयेषु कुवलयेषु, सप्रमोदेषु संपादितकमायनेषु मुवनेषु, विराजमानेषु विषदीधितिसंदिग्धशुचिपधेषु शुधिपक्षेषु, अभिनवोरिलखितेन्दुमणिदर्पण हयातीव प्रसन्नरोचिपि धन्नमण्डले, प्रसङ्गानुवाद-अथानन्तर हे मारिदत्तमहाराज ! किसी अवसर पर जब शरद ऋतु का, जिसमें विजिगीषु राजाओं की सभा हर्षित कराई गई है, आगमन हुआ तब मैंने, जिसके लिए निम्नप्रकार स्तुतिपाठक-समूह द्वारा सेना का दिग्विजय-अवसर प्रकट किया गया था, उस अचल नरेश का प्रताप नष्ट करने के हेतु 'विजयवर्धन' सेनापति को भेजा। हेराजन् ! क्या क्या होनेपर शरदऋतु का आगमन हुआ? जब 'कीर' देश की कामिनियों के केशपाश नवीन काश्मीर-केसरपुष्पों का मुकुट-धारण करने से मनोज्ञ प्रतीत होरहे थे। जब सुगन्धि धान्य खेत मध्य में प्रकट होती हुई कणिश-( नरम बालें ) मअरियों की सुगन्धि से अत्यन्त मनोहर होरहे थे। जब महानदियों के प्रवाह उसप्रकार सीमा-सहित गमनशाली होरहे थे जिसप्रकार कुलवती स्त्रियाँ सीमासहित ( मर्यादा-पूर्ण-सदाचार-युक्त) गमन (प्रवृत्ति) शालिनी होती हैं। जय तालाव उसप्रकार निर्मल (कीचड़-रहित ) प्रवेशवाले होरहे थे जिसप्रकार आपके गुण ( वीरता व झानादि) निर्मल (विशुद्ध) होने के कारण प्रवेशशाली (ग्रहण करने योग्य ) होते हैं। जब मार्ग उसप्रकार प्रवृत्तप्रचारशाली ( उत्पन्न हुए गमनवाले) होरहे थे जिसप्रकार राजाओं के धनुष-वलय प्रवृत्तप्रचारशाली ( उत्पन्न हुए प्रचार-बाणों का स्थापन व संचालन ) से अलङ्कृत होते हैं। जब पृथिवी-भाग उसभाँति सदा धान्यरूपी वस्रों से आच्छावित पृष्ठभागबाले होरहे थे जिसभाँति प्रचण्ड सूर्य की गरमी से भयभीत हुए पुरुषों के पृष्ट ( पीठ ) वस्त्रों से अच्छादित होते हैं। जब पर्वत-शिखर उसप्रकार हुरितकान्ति-युक्त (नीलवर्णवाले) होरहे थे जिसप्रकार वे मेघ-संगति से श्यामता प्रविष्ट करनेवाले होते है। जब समस्त दिशाएँ उसप्रकार प्रकट (स्पष्ट) होरही थी जिसप्रकार वे, जिनका मेघरूपी कपाट(किवाद) संपुट दूर किया गया है, प्रकट दिखाई देती हैं। जब काश सरस्वती-हास्य की उज्वल कान्ति तिरस्कृत करते हुए वृद्धिंगत होरहे थे। जब सूर्य का स्वरूप प्रकट करनेवाले (सूर्यमण्डल-सरीखी लालिमायुक्त) बन्धुजीव नामके पुष्प जयशील (विकसित) होरहे थे। जब लालकमल पुष्परसरूपी मद्य से उन्मत्त किये गए चकवा-चकवी से व्याप्त तालाषाले होते हुए शोभायमान होरहे थे। जब प्रफुल्लित कुवलयों ( कुमुदों-चन्द्रविकासी कमलों) से व्याप्त हुए कुवलय ( भूमिभाग) प्रसन्न होरहे थे। जब कुमुदवन ( शेतकमल समुह ) संपादितकु-मुक्-श्रवनशाली होते हुए, अर्थात्-जिनमें पृथिवी का हर्ष-रक्षण उत्पन्न कराया गया है, ऐसे होते हुए विकसित होरहे थे। जब शुचिपक्ष ( शुक्लपक्ष ), जिनके शुचिपक्ष (श्वेत पंखोवाले हँसादिपक्षी) चन्द्रकिरणों के विस्तार द्वारा संदेह को प्राप्त कराये गये हैं, ऐसे होते हुए शोभायमान होरहे थे। अर्थात्-जो (शुक्लपक्ष ) चन्द्रकिरणों के विस्तार द्वारा श्वेत पंखवाले हँस-आदि पक्षियों में इसप्रकार का सन्देह उत्पन्न कराते हुए (कि ये इस हैं ? अथवा चन्द्र की शुभ्र किरणें हैं ?) *उक्त शुयायः ३० प्रतितः समुद्भूतः, मु. प्रतो तु 'कुरलकुन्तलेषु' पाठः । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतीय भावासः पञ्चमलोकपाल्परिकरिपतयात्रावसर इव संहतवति शरासनमाखाडाले, राजईसोस्सवसंपादनपर इव जलदकलुक्तो मुक्तवति गदमे, पयोधरविरहःखिस हब विरसस्थरतामनुसतवति प्रयलाकिलोके, स्वरातिजन इव मन्त्रमुदि पातककुले, स्वल्कटक. सुभटानीक इव रणरसोदरसहदि नदिसंबोई, अनना शुभ्रषन्ताको विषगनिम्ननिम्नगा। विजयाय जिमीपूणां शारदेषा समागता ॥४२६॥ विलसत्सरोजनयना प्रसन्न धन्दानमा विधनरागा। ईसप्रचारसुभगा लीव शरसव मुदं कुरुतात् ।।४२७॥ कुमुदं करोति वर्धयसि कुवलय विस्तृणोति मित्राशाः । भवत: श्रीरिव शरदियमुनलासिससस्पद्विजेना ॥४२८॥ शोभायमान होरहे थे । जब चन्द्र-विम्य उसप्रकार विशेष निर्मल कान्तिशाली होरहा था जिसप्रकार नवीन और उकीर करके निर्माण किया हुआ चन्द्रकान्तमणिमयी दर्पण विशेष कान्तिशाली होता है। जब इन्द्र अपना इन्द्रधनुष संकोचित किये हुए ऐसा प्रतीत होरहा था मानों-यशोधर महाराज द्वारा आरम्भ कागइ दिम्बिजय-यात्रा का अवसर ही है। एतावता यह बात समझनी चाहिए कि वर्षा भूत ध्यतीत हुई और शरद ऋतु का आगमन होने से विजयश्री के इच्छुक राजाओं को दिग्विजय का अवसर प्राप्त हुआ है। इसीप्रकार जब आकाश मेध-कलुषता छोड़ता हश्रा ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-वह राजाँसों का उत्सव उत्पन्न करने में समर्थ होरहा है। जब मोरों का समूह नीरस ध्वनि का आश्रय किये हुए ऐसा प्रतीत होरहा था-मानों-मेष-वियोग से ही दुःखित होरहा है। जब पपीहा पक्षियों का मुण्ड उसप्रकार हर्ष-हीन होरहा था जिसप्रकार आपका शत्रुलोक हर्ष-हीन होता है और जब वृषभसमूह (बैलों का झुण्ड) उसप्रकार युद्धानुराग से व्याप्तचित्तवाला होरहा था जिसप्रकार श्रापकी सेना में वीर योद्धा-समूह युद्धानुराग से व्याप्त चित्तयाला होता है। स्तुसिपाठकों द्वारा किया हुआ प्रस्तुत ऋतु का विशेष वर्णन हे राजन् ! यह प्रत्यक दिखाई देनेवाली शरद ऋतु, जो कि मेघ-पटल से रहित होती हुई उज्वल चन्द्र और सूर्य से सुशोभित है एवं कर्दम-( कीचड़) शून्य होती हुई उथली नदियोंवाली है, विजयश्री के इच्छुक राजाओं की विजय के लिए प्राप्त हुई है। ॥४२६॥ हे राजन् ! ऐसी शरद ऋतु आपको हषित करे, शोभायमान (प्रफुल्लित) कमल ही जिसके नेत्र है, निर्मल चन्द्र ही है मुख जिसका, नष्ट होगया है मेघ-राग जिसका और राजहंसों के प्रचार से मनोज्ञ प्रतीत होती हुई स्त्री-सरीखी है। कैसी है स्त्री? शोभायमान है कमल-सरीखे नेत्र जिसके, निर्मल व परिपूर्ण चन्द्रमा के सदृश है मुख जिसका एवं विशेषरूप से प्रचुर है राग (प्रेम) जिसमें तथा जो नूपुर धारणपूर्वक संचार करने से सुन्दर प्रतीत होती है ॥ ४२७ ॥ हे राजन! यह शरद ऋतु उसप्रकार कुमुद ( श्वेतकमल) विकसित करती है जिसप्रकार आपकी लक्ष्मी कु-मुद (पृथ्वी को उल्लासित) करती है। यह उसप्रकार कुषलय ( उत्पलवन ) वृद्धिंगत करती है जिसप्रकार आपकी लक्ष्मी कु चलय (पृथिवी-मण्डल ) वृद्धिंगत करती है एवं यह उसप्रकार मित्र व आशाएँ (सूर्य और समस्त दिशाएँ ) विस्तारित करती है जिसप्रकार आपकी लक्ष्मी मित्र-आशाएँ ( मित्रों की आशाएँ ) विस्तारित (पूर्ण) करती है और यह उसप्रकार उल्लासित-सत्पथ-द्विजेन्द्रा ( उल्लासित किया है आकाश में चन्द्रमा को जिसने ऐसी) है जिसपकार आपकी लक्ष्मी उल्लासित-सत्पथ-द्विजेन्द्रा ( आनन्दित किये हैं धर्ममार्ग में तत्पर हुए उत्सम प्रामणों को जिसने ऐसी) है। ॥ ४२८ ॥ हे राजन् ! ऐसे शरद ऋतु संबंधी कार्तिक माह में, किस पुरुष को ___'वितानघनरागा' क०, विमर्श:-मु. प्रतिस्थः पाठः समीचीनः (छन्दशानामुकूल) सम्पादकः xविस्तृणाति' । १. जाति अषवा हेतु-गलबार । २. श्योपमालंकार। ३. इलेलोपमालंकार न समुरबगालंकार । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० यशस्तिलकचम्पृकाव्ये विघटितवनकपाटदिशि निभूतपुरंदरचापमण्डले कमलामोदसुहवि संतपितहसबिटासिनीकुले । अभिनवकलामणिशपरिमछिनि विकासितकाशकाम्तिके कुछमकुसुमसुभगभुवि भवति न केलि: कस्य कार्तिके॥२९॥ प्रतपसि रविनिमयदि भवामिव सोप्र विधुरपि बुध प्रीति धने प्रवृपधारसः। अरिकरिकुल क्रीडाध्वंसे हरिध्यमिसोर स्वमपि च गुणारोपाचापं प्रपञ्चय भूपते ॥४३०॥ जरमपि सलिलं धसे खरदण्वं यत्र विगतविजिगीषुः । अजडविजिगीषुचेतास्तत्र कर्थ नो क्धीस खरखण्डम् ॥४३१॥ इति धापेटिकपेटिकप्रकटितकटकप्रयाणप्रस्तावर विजयवर्धनसेनापति सस्य पवालपढ़ेः प्रतापनोदनाय प्राहिणवम् । कवाविपारगिरिनिर्भरमीहारमिपन्दिनि गन्धमादनविनविभाजितभूर्जवल्कलोन्मायमन्थरे मानसईसविलासिनीशिखण्डमण्दुसविम्पिनि नेपालशैलमेखलामृगमामिसौरमनिर्भरे कुलूसकुलकामिनीकपोललावण्यचामिनि कम्पाकपुरपुरंधिकारमाधुर्यपश्यसोहरे पाकपाण्डिमोडमरगुण्डकाण्डकारिणि पायसदोल्लासपमानितन्वयबारे कोशकारस्याभिकापरिणामप्रणयिनि शिशिरसाल कीडा) नहीं होती ? अपितु सभी को होती है। समस्त दिशाओं के मेधरूपी किवाड़ों को दूरकरनेवाले व इन्द्र का धनुषवलय इटानेषाले जिसमें कमलों की सुगन्धि से व्याप्त हुआ सुहृद् (सूर्य) वर्तमान है अथवा जिसमें कमलों के लिए सुगन्धि देने का सुहृद् (उपकार) पाया जाता है। जो राजहंसी-श्रेणी को सन्तुष्ट करता हुआ नवीन धान्य-मारियों की सुगन्धि से सुशोभित है। इसीप्रकार जिसने काशपष्पों की कान्त विकासत की हे तथा जा काश्मार-कसर-पुष्पों से मनोहर भूमिधाला है ॥४२६|| हे राजन् ! इस शरद ऋतु के अवसर पर सूर्य लोक को उसप्रकार वेमर्यादापूर्वक विशेष सन्तापित कर रहा है कर आप [शत्रओं व अन्याययों को विशेष सन्तापित करते हैं। हे मनीषी! चन्द्रमा भी अमृतरस प्राप्त करता हुआ लोक को प्रसन्न कर रहा है। हे राजन् ! तुम भी शन्न-हाथियों के कुल का कीद्धापूर्वक ध्वंस करन क निमित्त सहनादका उत्कटतापूर्वक धनुष पर डोरी चढा कर उसे विस्तारित करो ॥ ४३० ।। ई राजन् ! जिस शरद ऋतु के अवसर पर तालाव-आदि का जल, जो कि जड (झानहीन) होकरक भी विजयभा का इच्छ। से राहत होता हुआ खरदण्ड (कमल) धारण करता है फिर उस शरद ऋतु म अजड़ ( ज्ञाना ) आर बिजयश्रा का इच्छा से व्याप्त मनवाला राजा किसप्रकार खरदण्ट ( तीक्ष्ण दण्ड ) धारण नहा करता? आपतु अवश्य धारण करता है ॥ ४३१॥ प्रसङ्गानुवाद-मारदत्तमहाराज! किसी अक्सर पर रजनीमुख को प्रचण्डतररूप से परिणत करनेवाली रात्रि (पूर्वरात्रि) में जब उत्तरदिशा से ऐसी हेमन्त ऋतु (अगहन व पौष माह) संबंधी शीतल वायु संचार कर रही थी तब 'प्रत्यक्षतान्य' नाम के गुप्तचर ने आकर मुझे निम्नप्रकार विज्ञापित (सूचित) किया कैसी है हेमन्त ऋतु की षायु.? जो हिमालय पर्वत संबंधी सरनों की शीतलता क्षरण करनेवाली है। जो 'गन्धमादन' नाम के वन में शोभायमान होनेवाली भोजपत्र-वृक्षों की त्वचाओं (पक्कलों का उत्कम्पन या पिलोडन करने के कारण मन्थर ( मन्दमन्द संचार करनेवाला) है। जो राजहंसियों के शिखण्डमण्डल मस्तकप्रदेश) को विजाम्बत (कम्पित) करनेवाली और नेपाल नामके पर्वत की बनभूमि में उत्पन्न होनेवाली कसरी की सुगन्धि से गादभूत है। जो कुलूत ( मरया ) देश की कुलकामिनियों के गालों का सौन्दर्य-जल पान करनेवाली व लम्पाकपुर की कुटुम्बबाली स्त्रियों की श्रोष्ठ-मधुरता की चोर है। पाक से प्रकट होनेवाली उज्वलता से सत्कट हुए श्वेतगनों की गाँठों को उत्पन्न करनेवाली जिसने पाले के जलकरणों के उल्लास द्वारा नवीन जी के अङ्कर पल्लवित किये हैं। जो श्याम गमों के श्यामिका को श्याम परिणति में लाती है। पियनविराजिभूर्जकुजराजिवल्कलोन्माथरे' क० । 'वनविभाजिभूजकुजराजिवल्कलोन्मायमन्थरे' वग०प०व० । १. रूपक व आक्षेपालंकार । २. अवसरोपमालंकार। . रत्वेषाक्षेपालकार । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ तृतीय आवास: सीकस तरह फिसला प्रभागे रुककरोमनिष्पन्न कम्बलो कलीखात्रिकालिन शेफाि कुलकर के कारवस्फारिणि मीरारोष्ण रामरामणीयकनिवे कमलिनीमिवाहिनि जावोजकमणमजात भाषे वरणिती रिणीजलकेलिन्यसनिमि सरस्वतीसलिलोदवालतापसे नवयौवना मास्न शोष्यनिषेवणादेशिन प्रागुपधूममभिवात बलभि गर्भे घनषुसृणरसराग द्विगुणरमणीयमसि लादारपरिचयप्रसाधन प्रबंधित प्रवृधूम ध्वजा धनानुबन्धे समस्तसस्य रोमाञ्चकशुकाचारिणि मखयमेला शानर्तनकुतुहल व देवदिशः परिसर्पति हेमने मति, नलिनीवन यदुःखित इन मन्दबुति मार्तण्डमण्ड शीतपातभयसंकुचितेचित्रव भुपु दिवसेषु आयातजानुत्रि मन्दप्रयाणदीर्घासु रात्रिषु सरसुधासार संवर्पित मिलिम्पलोक इव क्षीणतेजसि सुचारकिरणे, जिसमें शीतल जलविन्दु समूह द्वारा तरुप वृक्षों की कोपलें और अप्रभाग कम्पनशील होरहे हैं। जिसमें रकों (मृगविशेषों) के रोमों से रचे हुए कम्बल धारण करनेवाले लोगों ( शूद्रों ) का लीला-बिलास (चतुरतापूर्ण वाली क्रीड़ा ) पाया जाता है। जिसमें शेफालि पुष्पों के विकसित करने की आकारा पाई जाती है। जो क्रौंच पक्षि-समूहों के उन्नत शब्द प्रचुर ( महान् ) करनेवाली है। जिसने अविच्छिन्न रोधवृक्षों की पुष्प- पराग-व्याप्ति ( विस्तार ) द्वारा दिशाओं के मुख ( अमभाग ) शुभ्र किये हैं। जो कुन्दपुष्प - पल्लवों को संतुष्ट करती हुई चन्दनवृक्ष- शाखाओं के बगीचे की मनोशता का मन्दिर ( स्थान ) व कमलिनियों के पत्तों को दद्दनप्राय ( जलानेवाला ) पाला धारण करनेवाली है। गङ्गा-जल में स्नान करने के फलस्वरूप जिसमें जड़भाव ( मन्द उद्यम या जल-प्रहण ) उत्पन्न हुआ है। यमुनानदी की जलक्रीड़ा करने में जिसका आम है। जो सरस्वती नदा के जल 'उदवास' नाम का तपश्चयां करनेवाला तपस्वी है। जो नवीन युवती स्त्रियों के कुच (स्तन) कलशों की उष्णता को सेवन (आलिङ्गन) करने का आदेश देती है ( प्रेरणा करती है जिसमें प्रिय अगुरुधूप के धूम का उद्गम और वायु-राहत बल भी ( छज्जा ) का मध्यभाग पाया जाता है। जिसमें घना तरल कसर कराग द्वारा रमाणया क मन दुगुने हुए हैं । जो विशेष विस्तीर्ण प्रावार (हिम व शात वायु-निवारक उष्ण वखावशेष ) का परिचय करानवाला हू । जिसमें प्रज्वलित अग्नि की सेवा का अनुबन्ध ( प्रारम्भ की हुइ वस्तु का परम्परा से चलना वृद्धिगत होरहा है। इसीप्रकार जो समस्त प्राणियों का रोम रूप कञ्चुक ( कवच या चाला ) धारण कराता हूँ एवं जो उत्तरदिशा से बहती हुई ऐसी भालूम पड़ती है--मान- इसमें मलयाचल पर्वत वटी की चन्दन वृक्ष-शाखाओं को नर्तन कराने का मनारथ उत्पन्न हुआ है । । हे मारिदन्त महाराज ! पुनः क्या होनेपर 'प्रत्यक्षतार्क्ष्य' नामके गुप्तचर ने आकर मुझे निम्नप्रकार विज्ञापित किया ? जब सूर्यबिम्ब अल्पतेजवाला होरहा था, इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ रहा था मानोंकमलिनियों के न को दीनता ( शीत से उत्पन्न हुआ दशहदुःख ) से ही दुःखित हुआ है। जब दिन लघ ( छोटे ) होरहे थे, इसलिए जो ऐसे प्रतीत होरा येमानों-शीत के भागमन से उत्पन्न हुए भय से ही संकुचित होरहे हैं। जब रात्रियाँ मन्द गमन करने से दीर्घ ( लम्बी ) होरही थीं, इसलिए जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानों जिनके जानु शीत से जड़ ( मन्द ) होगये हैं एवं जब चन्द्रमम्बाल क्षीणतेजवाला होरहा था इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों - जिसने भरते हुए भक्त समूह द्वारा देव-समूह को मलीप्रकार संतुष्ट किया है' । + 'कोकीला विलासिनि' फ०स०ग०व० । + फेंकार (कोंकार) स्फारिणि हग- १. उत्प्रेक्षाकार । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकधम्कान्ये इलासिनि सस्यशालिनि खरं *शेफालिलोस्फुल्लिनि क्रौञ्चोन्मादिनि कुन्दनन्दिनि धनाश्वाङ्गमादादिनि । भास्मन्दिनि दातवाहिनि हिमासारावसन्नाङ्गिन काले कामिनि दीर्घरात्रिघटिनि प्रादेत कृषी कोवनि ॥ ४३२ ॥ पैः पूर्व गाढकण्डमलतभुजा भोगनिभुं भवन्त्रैः स्त्रीणां पीनस्तनाप्रस्थपुटित यस प्रप्तम् । सैरथस्त्रद्भिषनिः समरुति शिशिरेऽशाय शैाचकाशे वक्रमायोपधानैरुरसि च निद्दितीयदीलबन्धैः ॥ १३३ ॥ सौधमध्ये घनघुसणरसालिसाः प्रकामं कान्तावक्षोजकुञ्जर्जन विजयिभुजैर्विया मास्त्रियामाः । विख्याता वह्निप्ररितमखिता पाण्डः पिण्डशेषास्ते इमन्ते नयन्ते तव नृप रिपवः शर्वरी पर्वतेषु ॥ ४३४ ॥ अपि च। कुर्वन्तः कामिनीनामभर किसलये सौकुमार्यप्रमार्थं विप्रस्यन्तः कपोले सरसनखपोहा सभङ्गांस्तरङ्गान् । रोमाचोदञ्चदशाः स्तनकलायुगे प्रीणित क्रौञ्च कान्ताः प्रायासार सान्द्रीकृत कमलवना हैमनः वान्ति वासाः ॥ ४३५॥ ૨૩ हमादत्त महाराज ! फिर क्या होनेपर 'प्रत्यक्षतायें' नामके गुप्तचर ने आकर मुझे निम्न प्रकार विज्ञापित किया ? जब प्रधान स्तुतिपाठक-समूह निम्नप्रकार हेमन्तऋतु का वर्णन करता हुआ पढ़ रहा था। हे प्रिये ! ऐसे शीतकाल के अवसर पर कौन विद्वान पुरुष मार्ग में गमन करेगा ? अपितु कोई नहीं करेगा। जो गन्नों को उल्हासित करता ( पकाता ) हुआ मूँग, उड़द व चना आदि धान्यों से शोभायमान है। जो विशेषरूप से अत्यधिक शीत विस्तारित करता हुआ कौंच पक्षियों को उन्मत्त करनेवाला है। जो कुन्द- पुष्पों को विकसित करता हुआ कियों को गाढ़ आलिङ्गन करनेवाली कराता है। जो सूर्य को अतीव्र (वाक्ष्णता रहित ) करता हुआ शीतल वायु बहाता है एवं जिसमें समस्त प्राणी शिशिर - (पाला) समूह के कारण प्रस्थान भङ्गकरनेवाले होते हैं और जो रात्रियों को दीर्घ (लम्बी - ३० घड़ीवाली) करता है' || ४३२ || हे राजन् ! पूर्व में जो आपके शत्रु, जिनका सुख स्त्रियों का भुजाओं द्वारा दृढरूपसे कण्ठ-प्रण करने में कुम्बलाकार हुए मुजारूप दंडमण्डल द्वारा वक्र किया गया है और जिनका हृदय कियों के उन्नत कुच(स्तन) चूचुक से नीचा-ऊँचा किया गया है, ऐसे होते हुए निवासगृह में शयन कर रहे थे, वे ( शत्रु ) इस इमन्त ऋतु में ठण्डी वायु से व्याप्त हुए पर्यंत- प्रदेश पर सोये हुए हैं। कैसे हैं आपके शत्रु ? जिनके शिर की तकियाँ विषम पाषाणों की हूं और जिन्होंने [भूख प्यास के कारण] दोनों जानुओं का अष्टील बन्ध (आस्थ-युक्त जानुबन्ध ) हृदय पर स्थापित किया है ||४३३|| हे राजन् ! जिन तुम्हारे शत्रुओं ने, जिनका शरीर प्रचुर काश्मार- केसर से चारों ओर से यथेष्ट लिह किया गया था और जिनकी भुजाएँ त्रियों के कुच ( स्तन ) कलशों का मध्यप्रदेश स्वीकार करने से विजयश्री से मण्डित थीं, पूर्व में लम्बे प्रहरोंवाली रात्रियाँ शीतल वायु-रहित महलों के मध्य में व्यतीत की थीं, वे आपके शत्रु इस हेमन्त (शीतकाल ) में बुझी हुई समीपवर्ती अमि की फैली हुई भस्म से उज्जल वर्णवाले और उर्वरित शरीर-युक्त (मांस व वस्त्रांद से रहित ) हुए पर्वतों पर रात्रियों व्यतीत कर रहे हैं || ||४२४|| कुछ विशेषता यह है कि जिस काल में हेमन्त ऋतुसंबंधी ऐसी वायु वह रहीं हैं, जो कि कामिनियों के ओष्ठपदों की कोमलता लुप्त कर रही हैं। जो त्रियों के गालों पर तत्काल कामी पुरुषों द्वारा दिये हुए नखक्षतों के उस द्वारा भन्न होनेवाली बलिरेखाएँ स्थापित कर रही हैं एवं स्त्रियों के कुच (स्तन) कलशों के युगल पर रोमान्च उत्पन्न करने में प्रवीण ( चतुर ) होती हुई जिनके द्वारा क्रौंच पक्षियों की कान्ताएँ संतुष्ट की गई हैं और जिन्होंने पाला-समूह द्वारा कमल-वन आर्द्र किये हैं ||४३५|| हे राजाधिराज | वह डेमन्त ऋतु * 'शेफालिकोट फुलिनि' क० । x'शर्वरीः' क० । २. परिधि अलङ्कार । ३. परिवृत्ति अलङ्कार | 'साइकृत' ख० । १. समुच्चय व आक्षेपालहार ४. रूपकालङ्कार । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आवास: ३८३ पत्रैतत्स्वयमेव कामिषु निशि स्त्रीणां घनालिङ्कन यमाय स्परफेलिकामितसमायामस्त्रियामागमः । यत्राकिफालिभिः परिचितः सद्यः सोऽसौ रसः प्रीय कस्य न स क्षितीचरपते पालेयकालाऽधुना ॥४३॥ इति पठति बन्धिवृन्दारकवृन्ने, प्रविश्य प्रौढप्रदोषायां निशि प्रत्यक्षमाध्यमामा हैरिका मामेवं व्यजिज्ञपत्देव, विजयवर्धनसेनापसिविषयेन वर्धसे । पुनश्च शुण्डालेधनवस्मरैरजगरिन्वायुधस्पधिभिः सुन्तैः कैतकपत्रपतिधरैः खड्गैस्सडिहुम्वरैः । क्षत्प्रकार प्रशिलीन्धरुवसुधाबन्धः शरोप्रागमः संग्रामस्तुमुलारततः समभवत्पर्जन्यकासक्रियः ॥४७॥ यस्मादन्यतरेयुरेत्र दिवसे, रक्तचन्दनचितचण्डिकालपनमनोहारिणि सप्ति पूर्वगिरिशिखरशेखरे सूरे, भवरम् । सर्वसनाहापदबहरूकोषाहलेषु प्रसिघलेषु, सैन्यकमुष्पोहे शेनेश्वरनिर्दिश्यमानाभिधानेषु, यस्तुवकासकाचवाहनेषु, का समय किसे प्रमुदित नहीं करता ? अपि तु सभी को प्रमुदित करता है। जिसमें यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला लियों का गाढ़ आलिशान कामी पुरुषों में स्वयं ही ( बिना याचना किये । होरहा है। जिस काल में ऐसी रात्रि का आगमन है, जिसकी दीर्घता कामक्रीड़ा में चाहे हुए के समान है और जिसमें यह प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ तत्काल में निकला हुआ गमों का रस वर्तमान है, जो कि गीले अदरक के स्खण्डों से परिचित ( युक्त) है ॥४३६॥ प्रस्तुत गुप्तचर का विज्ञापन हे देव ! आपके 'विजयवर्धन' सेनापति द्वारा प्राप्त कीगई विजयश्री के फलस्वरूप आप वृद्धिंगद होरहे हैं। __ क्योंकि आज से पहले दिन में ही [अचल नरेश की सेना के साथ] प्रलयकालीन मेघ को तिरस्कार करनेवाले हाधियों से, इन्द्रधनुष सरीखे अजगयों ( शिवजी के धनुष समान महाभयकर धनुषर्षों) से, केतकी धृक्ष के पत्तों का मार्ग ( सदृशता ) धारक भालों से एवं विजली सरीखी पाटोप (विस्तार ) वाली तलवारों से ऐसा भयानक संपाम हुश्रा, जो वर्षाकाल सरीखा था। अर्थात् - जिसरकार वर्षा ऋतु में प्रचुर जलवृष्टि होती है उसीप्रकार युद्ध में भी महाभयकर बाण-समूह की दृष्टि होरही थी और जिसमें माण्डलिक राजाओं के छत्ररूपी शिलीन्धों द्वारा पृथिवीमण्डल व्याप्त किया गया है पर्व जिसमें पाण-समूह की भयानक वृष्टि होरही है ।।४३७॥ हे राजन् ! क्या क्या होनेपर आज से पहले दिन युद्ध हुआ ? जब ऐसा सूर्य गगनमण्डल में विद्यमान होरहा था, जो उसप्रकार मनोहर था जिसप्रकार लालचन्दन से व्याप्त हुआ भवानीमुख मनोहर होता है और जो उदयाचल पजेत की शिखर पर मुकुट सरीखा प्रतीत होरहा था। जब शत्रु-सैन्य सभी को प्रहार करनेवाले विशेष कोलाहल से छ्याप्त होरहा था। जब सैम्य सैनिको में से प्रमुख सैनिकों के नाम-प्रणपूर्षक आदेश ( आज्ञा ) देने के कारण सेनापति द्वारा जिनमें सुभटों ( वीर योद्धाओं) के निरूपण किये जारहे नामवाले होरहे थे। ये 'अमुक सैनिक के लिए अमुक वस्तु देनी चाहिए, अमुक के लिए धन देना चाहिए, अमुक के लिए अत्र देना चाहिए, अमुक को कवच देना चाहिए एवं अमुक के लिए घोड़े-आदि की सवारी देनी चाहिए।' इसप्रकार जब सैनिक लोग वस्तु, वन, हथियार, बख्तर व घोड़ा-आदि अपेक्षित वस्तुओं के देने का विचार करने में तत्पर होरहे थे। भनौकमुख्योद्देशेनेश्वरैर्निर्दिश्यमानेषु अभिधानेषु' का । १. समुच्चयालकार। २. उपमा व रूपकालकार । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ यशस्तिलकचम्पूकान्ये तारतरं स्वनत्सु मुखरितनिखिलाशामुखेषु पाईधु, मायमानायु प्रतिपादनावितदिगम्वरगिरिगृहामण्डलानु साहला, पनाम क्षोभिसाम्भोमिधिनाभिषु दुन्दुभिषु शम्दायमानेषु सरसन्नीश्रवणाहकोषु पुष्करेषु, प्रहता विनासितसैन्यसामनविकास रकासु, दायमानेषु सिद्धयोधप्रघर्षकेषु महानकेषु, समितासु बिम्भितभुजगभामिनीसंरम्भान भम्भासु, प्रगुणितेषु भयोत्तम्भितामस्करिकर्शतालेषु वालेषु, प्रोत्सालितास रणरसोत्साहिरासुमघटाप करटासु, विकासन्तीषु +विलम्बलभप्रमोदिसकदनदेयतावशास्थलाg त्रिविलार, प्रवर्तितेषु निरन्तरवामप्रवर्तिताहमचरराक्षसीकेषु इमल्केषु, स्फारितासु प्रदीर्घकृजितरितवीरलक्ष्मीनिकेसनिकुआ थासु, जयन्तीषु विशिष्टकटकवेष्टितलुण्टासु भयषण्टासु, गायस्थ पेणुवीणामलरीध्वनिसमानतानेषु गायनेधु, उदाहरल्स मन्त्राशीविनिपुणोधारणेषु धामणेषु, पठत्म समरोस्सुकवीरपुरुषहत्यामन्दिषु बन्दिषु, त्करमाणेषु संपादिताधिपूर्वाचन्दनेषु नृपतिनन्दनेषु, पुनः क्या क्या होने पर मयानक युद्ध हुआ? जब शङ्ग, जिन्होंने समस्त पूर्व व पश्चिम-आदि दश दिशा-समूह शब्दायमान किया है, अत्यन्त उच्चस्वर-पूर्वक शब्द कर रहे थे। जब ऐसी काइलाएँ (विशेष भेरियाँ ) बजाई जारही थीं, जिन्होंने प्रतिध्वनि द्वारा समस्त विशा-मभ्यभाग, पर्वत और गुफाश्रेणी शब्दायमान की है। जब भेरियाँ शब्द कर रही थी, जिसके फलस्वरूप जिन्होंने समुद्र-मध्यभाग संचालित किये थे। जब पुष्कर (मर्दल वायविशेष) देव-सुन्दरियों के कानों में व्याधिजनक अथवा कर शव्य कर रहे थे। जब ४ ( ढोल या नगाड़े) कोणों के आधातों द्वारा वाडित किये गए थे, जिसके फलस्वरूप जिनके द्वारा सेना के हस्ति-कलम ( बचे) भयभीत किये गए थे। जब सिद्धपधुनों ( वेवियों) की चेतना नष्ट करनेवाले महान् आनक ( भेरी तथा नगाड़ा) बजाये जारहे थे। जब भम्भाएँ ( वराङ्गा-छिद्र-युक्त बाजाविशेष ), जो कि पाताल-कन्याओं का क्रोध विस्तारित करती थी, घृद्धिंगत कीगई थीं। जब ताल (बाँसुरियाँ ), जिन्होंने देव-हाथियों द्वारा संचालित कानरूप तालपत्र भय से निश्चल किये हैं, वृद्धिंगत होरहे थेद्रतगति से बज रहे थे। जब करटाएँ ( वादिनविशेष ), जिन्होंने सुभट-रचना को युद्धरस ( वीररस ) की अभिव्यक्ति द्वारा युद्ध संबंधी उद्यम करने में प्राप्त कराई है, प्रचुर शब्द करनेवाली होरही थीं। जब त्रिविलावादित्र (चारों ओर चर्म से बँधे हुए मृदङ्ग-आदि षाजे), जिनके द्वारा विलम्ब । दूत व मध्य से भिन्न-धीरे धीरे बजना) के साम्य के फलस्वरूप संग्राम-देवताओं के पक्ष स्थल हर्षित किये गए हैं, शोभायमान होरहे थे। अर्थात्-कानों को सुख देते हुए बज रहे थे। अब डमरूबाजे, जिन्होंने निरन्तर शब्दों द्वारा संप्रामवतिनी राक्षसियाँ अवतारित (प्रेरित ) की है, प्रवर्तित ( विस्तृत ) होरहे थे-श्रुतगति से बज रहे थे। जब रुआ नाम के वादिनविशेष, जिन्होंने विस्तृत शब्दों द्वारा वीरलक्ष्मियों के गृहवर्ती मध्यप्रदेश जर्जरित ( अधरीकृत-शब्द-श्नवण के अयोग्य ) किये है, प्रचुर शब्दशाली किये गए थे-द्रुतगति से बजाए गए थे। जब जयघण्टाएँ ( कांसे की कटोरियों ), जो कि शत्र (प्रकरण में शत्रभूत अचल नरेश) की सैन्य-प्रवृत्ति को लप्त करनेवाली होती हई जयजयकार कर रही थीं। अर्थात्-प्रकरण में प्रस्तुत यशोधर महाराज को विजयश्री प्रकट कर रही थीं। अब गन्धर्व, जो कि वेणु (वायु प्रविष्ट होने से शब्द करनेवाले सच्छिद्राँस ), वीणा व मल्लरी (वादित्र-विशेष ) की ध्वनियों सरीखा गान करते थे, गान कर रहे थे। जब भाक्षरण लोग मन्त्र ( वेद ) के आशीर्वादों का निपुण उच्चारण' उदास, अनुदात्त व स्वरित स्वरपूर्वक शुद्ध पठन ) करते हुए पढ़ रहे थे। जब स्तुतिपाठक संग्राम में उत्कण्ठित वीर पुरुषों के चित्त प्रमुदित करते हुए षट्पदादि पाठों का उच्चारण कर रहे थे। जब राजपुत्र, जिनके लिए वही, दूर्वा (दूष) और चन्दन के तिलक किये गये थे, युद्ध-क्षेनु प्रस्थान करने की शीघ्रता कर रहे थे। ii 'पोधप्रवई केषु' का। +'विलयितलय' का। 'गुलाम' का । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ तृतीय आवास: प्रबुद्वान्द्रादर्श निबिड डोमर अमरितभुवनाभोगेषु नागेषु प्रधावमानेषु . S प्रवेगखुरखर मुखारधमेदिनीवान विराजित्रु वाजिषु, संवरम्धाराराप्रभोगिवदनेषु स्यन्दनेषु प्रसर्वस्तु समाभानुशमनिर्भरक्रमाकान्तिपु पदातिषु, + इर्षमानेषु पानोसारितसर विमानसंबाधेषु पोषेषु निधानासु तुमुलकोलाहललोकनोम्मतगतिषु नमरसमिषिषु आसीदत्सु गगनमतिवेगश्रम श्वासस्फुरिताधरेषु विद्याधरेषु मति कृराकहदोहदा हाइना दे नारदे, संजायमाने नवीनवरवरगोदेवदारिकासदसि समुलति विधूसरियामा क्रोधावेधावभाविर्भवन्मूलबन्धस्तु स्वङ्गन्तुरङ्गाननपत्र नवश (वेशभिस्तारसारः । आसीदस्य दनाप्रध्वनिभृतभरः पर्यटक अरेन्द्रस्फारव्यापारकर्णाइति विततशिखः पांसुरू व्यधावीत् ॥४३८॥ तिरस्कृत्यैवैतवनमखितं जातरभसः कथं स्वर्गत्रीणाम्मलिनितमुखः पोलुरभवत्। इति प्राक्षामः सुभयादासजननैः स मूमोल सहनु रुधिरै रामिरुचिभिः ॥४३९४ जब सेना के हाथी, सुवर्णआदिमय जलस्फोटक, सुवर्ण- आदिमय ( कृत्रिम ) अष्टमीचन्द्र ( अर्धचन्द्र) व दर्पणों से जड़ी हुई गुडा ( झूलों) से उत्पन्न होनेवाले उत्कट भय से जिनके द्वारा विस्तृत जगत भयभीत किया गया था, शीघ्र प्रस्थान कर रहे थे। जब घोड़े, जो कि प्रष्ट वेगपूर्वक संचालित खुरों ( शफ-टापों ) के लोहकण्टक सरीखे कठोर अप्रभागों से आरब्ध ( मण्डित ) पृथिवी रूप यादिवादन ( बाजे के बजाने ) से शोभायमान हुए सरपट दौड़ लगा रहे थे । जब चक्र - ( पहिए ) धाराओं के भारों द्वारा शेषनाग के हजार मुख ( फरशा ) कुटिलित करनेवाले रथ प्रविष्ट होरहे थे । जब ऐसे पैदल सैनिक तेजी से दौड़ रहे थे, जिनकी चरण-व्याप्ति संग्राम-प्रीति के कारण गाढ थी । जब योद्धालोग, जिन्होंने धनुष-मार्जन द्वारा कौतुकवश आए हुए देवविमानों की संकीर्णता ( जमघट ) दूर की है, हर्षित होरहे थे। जब देव-समूह, जिनका गमन विशेष कोलाइटदर्शन से प्रमाद युक्त होगया था, अत्यन्त समीप में देख रहे थे। जब विद्याधर लोग, जिनके अधर (ठ) आकाश में गमन की उत्सुकता से उत्पन्न हुए खेदोच्छ्वासवश कम्पित होरहे थे, आसीन होरहे थे। जब युद्ध-मनोरथ से श्रनन्द शब्द करनेवाला नारद द्वर्षपूर्वक नृत्य कर रहा था । जब देव वेश्या-समूह नवीन बरों के स्वीकार करने में उत्कण्ठित मनवाला होरहा था और जब देषियों के केशपाशों को परिपूर्णता को विशेषरूप से धूसरित करनेवाली धूलि उड़ रही थी । अथानन्तर प्रस्तुत गुप्तचर यशोधर महाराज के प्रति पुनः युद्ध घटनाओं का निरूपण करता है हे राजन् ! ऐसी धूलि आकाश मण्डल की ओर उछली, जिसका प्रथम उत्थान क्रोधावेश से दौड़ने का महान् आडम्बर करनेवाले सुभट-समूहों से प्रकट होरहा है। जो शीघ्र दौड़नेवाले घोड़ों के मुखों की उच्छवासवायु से विशेष विस्तृत होरही थी। जिसका समूह प्राप्त होती हुई रथों के ऊपर बँधी हुई जाओं ( पताकाओं ) द्वारा निश्चल होगया था एवं जिसके अग्रभाग प्रस्थान करते हुए श्रेष्ठ हाथियों के प्रचुर प्रवृत्ति युक्त कर्णताडन द्वारा विस्तीर्ण होगए थे ||४३८|| हे राजन् ! तदनन्तर वह धूलि लालकान्तिवाले ऐसे रुधिरों से मूलोच्छिन्न ( अड़ से भी नष्ट ) होगई, सुभटों के वक्षःस्थलों से जन्म प्राप्त करनेवाले जिन्होंने धूलि के प्रति इसकारण से ही मानों-कोध प्रकट किया था कि उत्पन्न हुए वेगवाली इस धूलि ने जब समस्त मृत्युलोक पूर्व में ही तिरस्कृत कर दिया था तब फिर किसकारण यह स्वर्ग - स्त्रियों के मुख ग्लान X 'प्रगखररारब्ध' क० । रथचक्रधारा' क० । + 'विकुर्वाणेषु' क ग 'समिधाना क * सुरज्ञानन' क० । १. अर्थव्यक्ति काम के गुण से विभूषित । BE Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये न च । आकृष्टोम्मुक्तमौर्वीव्यति करविनमव्यस्यदिवासनिर्यटकारस्फारसारसदयशपुरश्रेणिशीर्णप्रचारः । योधैर्युद्धप्रबन्धाइनवरतशरासारशीनुरः पातनः स्यन्दनोऽयं वदरणमदः स्ने सखेदं प्रयाति ॥४४॥ . खामोसकटोरकण्ठविगलस्कीलामधारोपुरस्कस्थाबसिराकरालकरणे रुण्डैर्भवत्ताण्डवैः । ५युद्धस्पर्धविबुदिविश्तव्यापारघोरावस्त देव द्विषतां मुहुः पुनरभूस्सन्यं सदैन्यं तव ॥४४॥ पपि व यत्र। सरिछन्नविकीर्णनगरपोसाकमुक्तस्वरप्रत्यारम्पनियुद्धरुपरमसाताप्सरःसंगः । भर्नुः कार्यविधायिधैर्यप्रतिभिधीरे रणप्राङ्गणे स्वर्गे च निदशस्वसिध्यसिकरादोमाञ्चितैः स्थीयते ॥४४२॥ तत्र विपुष्करका नाममायातालमापियानोनितो मह देश, स्वयमेव विजयवाईनसेनापसिना स्वस्तिवलोऽवसः कृतभृगापितमतिविहितरणरजापतिर्विघटितविशिष्टकरटिघटैर्भवदनीकसुभटैरता : करनेवाली हुई ? ||३|| जिस संग्राम में यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला ऐसा सूर्य-रथ आकाश में संदसहित संचार कर रहा है, जिसका व्यापार (गमन) ऐसे धनुष से, जो कानों तक खींचकर ऊपर छोड़ी हुई धनुष-डोरी के प्रघटक ( संबंध ) से झुकता हुआ बाण छोड़ रहा है, निकलते हुए टंकारों (शब्दों) के प्रचुरतर ( महान् ) चल से भयभीत होते हुए व पराधीन हुए देव-समूहों द्वारा मन्द किया गया है अथवा नष्ट कर दिया गया है। जिसके घोड़े सुभटों ( वीर योद्धाओं ) द्वारा किये हुए संग्राम-प्रबन्ध के फलस्वरूप निरन्तर कीजानेवाली बाण-वृष्टियों द्वारा सैकड़ों टुकड़ेवाले (चूर-चूर ) होरहे हैं एवं जिसमें सूर्य-सारथि का अहसार नष्ट होरहा है ॥४४॥ हे राजन् ! आपकी वह शत्रु-सेना फिर भी ऐसे कवन्धों (शिररहित शारीरिक धड़ों) से पार वार अकिञ्चित्कर ( युद्ध करने में असमर्थ-नगण्य ) हुई, जिनके शरीर लोहमयी चकों द्वारा काटे गए कर्कश कण्ठों से प्रवाहित होनेवाली रुधिर-धाराओं से उत्कट हुए. स्कन्धों पर स्थित हुई सिराधों से भयङ्कर होरहे थे। जिनमें नर्तन उत्पन्न होरहा था एवं जिनकी एकाग्रता युद्ध-क्रोध से वृद्धिंगत बुद्धि में आरोपित हुए व्यापार (नियोग) से रौद्र (भयानक) होरही थी ||४४१३ तथा च-जिस युद्धाङ्गण पर ऐसे सुभट निश्चल होरहे हैं, जिनमें ऐसे कबन्धों (विना शिर के धड़ों) का वेग वर्तमान है, जो कि तत्काल में काटी गई व यहाँ वहाँ पृथिवी पर गिरी हुई और खून से मिश्रित ( लथपथ ) हुई गलों की नालों द्वारा उत्सुकता के साथ किये हुए शब्दों के साथ मण्डित होनेवाले बाहुयुद्धों से व्या है। जिनका (मुभटों का) देवियों के साथ संगम उत्पन्न हुआ है और जिनका धीरदा-पूर्ण सन्तोष स्वामी का कर्तव्य पूर्ण करनेवाला है एवं स्वर्ग-लोक में व संग्राम के अवसर पर देवताओं द्वारा किये हुए स्तुति के संबंध के फलस्वरूप जिनमें रोमाञ्च उत्पन्न हुए है ॥४२॥ अब 'प्रत्यक्षतार्य नामका गुप्तचर युधिष्ठिर महाराज के प्रति प्रस्तुल युद्ध-फल निरूपण करता है-हे राजन् ! उस महान् युद्ध में, जहाँपर, संग्राम में मरे हुए क्षाथियों के शुण्डादण्ड (B) रूपी नालों (कमलड़ियों) से विशाल चैताल-समूहों ( मृतक शरीरों में प्रविष्ट हुए व्यन्तरदेव-विशेषों ) द्वारा रुधिररूपी मथ पी जारही है, ऐसा शत्रुभूत अचल नरेश, जिसकी सामर्थ्य ( युद्धशक्ति या सैन्यशक्ति) 'विजयवर्धन' सेनापति द्वारा स्वयं ही नष्ट कर दी गई है और जिसका मन युद्धभूमि से भागने के लिए. [ उत्सुक ] होरहा था एवं जिसने संपाम फी जमघट विघटित ( नष्ट या दूर ) की है, श-इस्ति-समूहों को भगानेवाले आपके सुभटों द्वारा वाँध लिया गया है और हे देव! वह फेयल। "अयस्पर्विविद्धिविधुरम्यापारधोरादरैः । १. हेतु-अलङ्कार। १. गौडीया रीति (समासबहुलपदशालिनी पद-रचना) एवं अतिशयालकार । ३. रौद्ररस, गौदीया रीति व जाति-अलंकार । ४. रौद्ररस, गोलीया रीति एवं समुच्चयालंकार । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हतीय श्रावासः समानीसा स्वकीयसैन्यान्यजपाकनोवचनोमानस्फुरवीरवहस्तकटक विजयकवकम् । कदायित्कामिनीनां मदिरामोदमेतुरमुखमहसंपादिसौरभासु विलम्तीषु पकुलकलिकासु, दरानक्लयो देशदसप्रकारापेशलाप विकसन्तीषु सहेलियालरीषु, सुरतश्रमसंजातमलजाल कक्लिपित् विलसातीषु मान्दमवरीषु, दीर्घापालभत्रिसुभगेषु स्कुटर मलिकामुकुलेषु, कलगलारूसिलीलेषु समुच्छलस पिकपाककुलकोलाहलेषु, रिकुरतचिलचिरपरीकघरणचापलचलितविकच विवकिलमलमकरन्दस्यन्दसापि भवन्तीपु वनवयुधासु, विकटकुचामोगामारम्भिषु विराजत्नु माधवी कुसुमस्तबकेषु, कपोलक्रान्तिमाधुर्यस्पर्धिषु प्रबोधस्म मधुकपुष्पेषु, मृगमदरसारिकदेशार्धबन्यामिनयनवनखनिवेशप्रश्नयेषु पकासासु पकाराप्रसवमलेखु, धनषुख परमाणितमाभिहस्कान्तिवनतर फर्णिकारप्रसूमेषु, विभ्रमोशनभूप्रभावनिर्भरण धनुषा सैनप्रति कृतजगत्त्रो कममचापे, मखयोपशल्ययालीपछयोल्लासिनि माल्यवल्सचालतान्तामोदमासके बाँधा ही नहीं गया है, अपितु आपकी विजयकटक ( सैन्य ) में, जिसमें अपने सैन्य की संग्राम से उत्पम हुई विजयश्री के श्रवण से उत्पन्न रोमाञ्चों द्वारा वीरवधुओं के इस्त-कटक ( वलय) उल्लास-बश टूट रहे हैं, पकड़कर लाया गया है। अर्थात्--बाँधकर आपके पास लाया गया है। . प्रसङ्गानुवाद-अथानन्तर हे मारिदास महाराज ! मैंने अनेक अवसरों पर सुभाषित वचनों के पठन में निपुण व कामदेवरूपी पुष्परस से समस्त मनुष्यों के हृदय मल्लासित करनेवाले स्तुतिपाठक के सुभाषित बमन, जो कि कानों में अमृत-वृष्टि करते थे, अषण करते हुए किसी अपसर पर बसन्त चतु (चैत व पैसाख माह ) में कामदेव की आराधना की। वसन्त ऋतु संबंधी कैसी शोभा होनेपर मैंने कामदेव की आराधना की? अष स्कूल (मौलसिरी) वृक्ष की पुष्प-कलियाँ, जो उसप्रकार सुगन्धित थी जिसप्रकार. कामिनियों की मद्यसुगन्धि से स्निग्ध मुख-वायु सुगन्धित होती है, विकसित होरही थी। जब अशोकवृक्ष-मरियाँ (वल्लरियाँ), जो उसप्रकार की शोभा ( रक्तकान्ति ) से मनोहर थीं जिसप्रकार ओमप्रदेश पर स्थित हुए श्रोष्ठ शोभा ( रक्तकान्ति ) से मनोक्ष होते हैं, प्रफुल्लित होरही थी। जब आम्र-यलरियाँ, जिनकी लिपि ( अवयव ) सुरत-( मैथुन) श्रम से उत्पन्न हुए स्वेद-बिन्दु-समूह के सदृश थी, शोभायमान होरही थी। जब योर्घ नेत्र-प्रान्तभागों की रचना सरीस्त्री मनोज मालती-लताओं की अधखिली कलियाँ खिल रही थीं। जब कण्ठजितों की शोभावाली कोयल-समूहों की मधुर ध्वनियों उत्पन्न होरही भी। जब पनभूमियाँ ऐसे पुष्परस-सवरण से सरस होरही थीं, जो कि केश-क्रान्ति सरीखे मनोहर भोरों के चरणों की चालता से हिलनेवाले विकसित मुक्तबन्ध-पुष्पों से भर रहा था। जब सटे हुए फुधों (स्तनों) की शोमा प्रारम्भ करनेवाले माधवीलता (बसन्तीवेल ) के पुष्प-गुच्छे शोभायमाम होरहे थे। जब कपोनकान्तियों की मनोहरता तिरस्कृत करनेवाले बन्धुजीयक पुष्प विकसित होरहे थे। जब ऐसे किंशुकवृक्ष के पुष्प-कुइमल शोभायमान होरहे थे, जो ऐसे नवीन नखक्षतों के सटश थे, जिनमें तरल कस्तूरी से चित्रवर्णशाली एकदेशवाले अर्धचन्द्र की अभिव्यक्ति (शोभा) पाई जाती है। जब कणिकार ( कनेर) वृश-पुष्प, जिनकी कान्ति प्रचुर केसर-रस से अव्यक्त लालिमाशाली नाभिकुहर (छिन्) के सहश थी, उत्पन्न होरहे थे। जब तीन लोक को अश में करनेवाला कामदेव ऐसे धनुष से सनद्ध होरहा था, जो कि अपा( नेत्र-प्रान्तभाग) नर्तन से उन्नत हुई भृकुटि ( भोंहें) के प्रभाष से गाद (स ) था। जब दक्षिण दिशा से ऐसी [ शीतल, मन्द व सुगन्धित ] वायु का संचार होरहा था, जो मलयाचल की समीपवर्तिनी बल्लियों (लवानों के पालय उल्लासित करती हुई दक्षिणदिशावर्ती पर्वत के लता-पों की सुगन्धि से परिपुष्ट-वलिष्ठ होरही थी। जिसका वेग ( शीघ्र संचार ) किष्किन्धपर्यंत ( सुप्रीष-पर्वत ) संबंधी जशाली Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ यशस्तिलकचम्पृकाव्ये किष्किन्धस्कन्धसंबन्धसिम्पुरोख रकरप्रसारस्खलितरहसि दरदरीसर सरोजमकरन्दमास्वादसम्बसंचारे कावेरीसरित्तरासीकरासारहारिणि केरलाङ्गानालकनृत्तावरणचतुरे परिसरति भागोरश्रीपत्रिक इव वक्षिणात्या दिशः समोरे, किंनरीगणगीतान्मादितकुरङ्गेषु कुलशैलमेखलोस्सषु, रतिरसोत्कण्ठाजरठचाटुकाराम्पासिनीषु चारणावासविलासिनीषु, प्रियतमप्रसादनोपदेशविमोददोहदोस्सुका गन्धर्वनगराभिसारिकासु, सहचरीचरण वर्षोपचारप्रणयिनि विद्याधरपुरलोक, पौलोमीकपोलफलकोचितचिन्नचातुर्येण विनोदयस्यैरावणमई पुरंदरे, लक्ष्मीकुचकुम्भशोभारम्भेण संभावयति बनमालाप्रसूनकिनलक मुकुन्दे, गिरिसुसाधर. दशनदंशनव्यथापायचैदायेन विथुरयति सुधासूतिकलांशंभरे,भुजङ्गीशिखण्डमपनामुम्बरेगक्रीडयति निजफयामणीन् भुजंगनाये, अपि च । सो यत्र मृगाखिनीकिसलयैर्गपतोयगंजः कोकश्चुम्बनचेष्टितैः परिपतन्पारापतः फूजितः । ___ एणः शृङ्गविधर्षणैर्मगपतिगाद पुनः श्लेषणैः शृङ्गारप्रसरप्रसादिदयः स्त्रां स्वां प्रिया सेवते ॥४४३।। विशाल वृक्षों का श्राश्रय लेनेवाले हाथियों के उन्नत शुण्जादण्डों ( सूंड़ों ) की चेष्टा द्वारा रोका गया है। जिसका संचार ऐसे कमलों का पुष्प-रसरूप मद्य का स्वाद लेने के कारण मन्द होगया है, जो दक्षिण दिशावता मण्डूकपर्यत का गुफाओं में वर्तमान हुए तालाबों में [ प्रफुल्लित ] होरहे थे। जो दक्षिण दिशातिनी कावरा नदी की तरजों के जलकण-समूह हरण करती हुइ केरलंदश (दक्षिणदिशा संबंधी देशविशेष) की कामिनियों के केशों के नर्तन-विधान में प्रवीण है एवं दक्षिणदिशा से आती हुन एसी मालूम पड़ती है-मानों-~-गङ्गातीर्थ की पथिक ( यात्री) है। जब हिमवान-आदि कुलाचलों की कटिंनियां संबंधी उपरितन मध्यभामयाँ किन्नरा-समूहों के मञ्जुल गीतों द्वारा उस्लासित (हर्षित ) किये गए हारणों से शोभायमान होरही थीं। जब स्तुतिपाठकों की गृहनियाँ रतिरस की वाञ्छा के कारण कर्कश मिथ्या स्तुतियों का अभ्यास (वार-वार अनुशीलन) करनेवाला होरही थीं। जब गायक नगरों की अभिसारिकाएँ ( प्रमाजन के पास रतिवलास-निमित्त प्रस्थान करनेवाली कामिनियाँ) प्रियतम को प्रसन्न करने की शिक्षा के क्रीड़ा-मनोरथों में उत्कण्ठित होरहा थी। जब विद्याधर नगरवर्ती मनुष्य अपनी प्रियाओं की चरण-चर्चा (चन्दनादि-लेप) के व्यवहार में प्रणयी होरहा था। जब इन्द्र इन्द्राणी के गाल फलकों पर [ कस्तूरी-आदि सुगन्धि द्रव्यों द्वारा] कीजानेवाला मनोज्ञ चित्ररचना की चतुराई द्वारा अपने ऐरावत हाथी का मद ( दानजल अथवा अहंकार ) उछाल रहा था अथवा अहंकारपक्ष में दूर कर रहा था। जब श्रीकृष्ण अपनी प्रियतमा लक्ष्मी के कुचकलशों की मण्डनविधि-निमित्त देवियों के बगीचा संबंधी पुष्प-केसर की उत्कण्ठा कर रहे थे। जब श्रीशङ्कर पार्वती के ओष्टों की दाँतों द्वारा चर्वण करते से उत्पन्न हुई व्यथा को बिनाश करने की चतुराई के कारण अपने मस्तक पर स्थित हुई चन्द्र-कला का क्षरण कर रहे थे और जब शेपनाग अपनी पद्मावती दया के मस्तक-आभूषण के पाटोप से हा मानों-अपनी सहस्र-फणाओं में स्थित हुए मणियों के साथ काड़ा कर रहे थे। __ अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज! मैंने स्तुतिपाठकों के निम्नप्रकार सुभापित वचनामृतों का पान करते हुए वसन्त ऋतु में कामदेव की आराधना को हे राजन् ! जिस वसन्त ऋतु में हंस कमलिनी-पल्लयों द्वारा अपनी हँसी प्रिया का सेवन करता है। जिस वसन्त ऋतु में हाथा कुरले के जला द्वारा अपनो हथिनी प्रिया के साथ क्रीड़ा कर रहा है। जिसमें चकवा चुम्बन-चेशों द्वारा अपनी च कयी प्रिया की सेवा कर रहा है तथा कबूतर सामने आता हुआ मधुर शब्दों द्वारा अपना कबूतरां प्रिया का सेवन करता हुआ सुशोभित १. उत्प्रेक्षालवार । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T तृतीय श्राश्वासः यत्रोक्तमः पुरं त्रिचरणस्पर्शः कान्तावमधूनि वाति पुनस्त्रियं केसरः । चार्य विरह पञ्चमरुचिश्चेतोभवस्फारणः स श्रोणीश वसन्त एव भवसः प्रीति परो पुष्यतु ॥ ४३४ ॥ चूत: कोकिलकामिनीकरवैः कान्तप्रसूनान्वरः पुन्नागः शुकमुन्दरी कृतर तिर्यत्रो एएसपल । पुध्यस्स्मेरदलाधरः कुरुवकः क्रीडद्भिरेफाङ्गनः सुरुद्वायक माधवोपरिचितः सोऽयं बन्सोत्सवः ॥ ४४५॥ उत्फुखवालिबधनोऽसङ्गसङ्गसंजातकान्ततनवस्तरत्रोऽपि यत्र । पुष्पोद्रमादिव वदन्ति विष्ठा सिलोकान्मानं विमुष्ष कुरुत स्मरसेवितानि ॥४४६ ॥ या कथं कथमपि प्रगति चेतः शकाः स्वष्टन्न मुनयोऽपि मनो निशेकुम् । यत्र स्मरे स्मयविजृम्भितया वृत्तावृन्मादितत्रिभुवनोद्दरवर्तिलोके ॥ ४४ ॥ ३८२६ होरहा है। जिसमें हरिण शृङ्ग घर्षणों द्वारा अपनी प्यारी हरिणी के साथ क्रीड़ा कर रहा है एवं जिस प्रस्तुत ऋतु में सिंह, जिसका हृदय का सर ( रागव्याप्ति ) से प्रसन्न होरहा है, बार बार आलिङ्गन या मिलन द्वारा अपनी सिंहिनी प्रिया के साथ काम-क्रीड़ा कर रहा है' || ४४३ || हे पृथिवीनाथ ! वह जगत्प्रसिद्ध और प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली यह वसन्त ऋतु आपका उत्कट इर्ष पुष्ट करे, जिसमें अशोकवृक्ष, जिसकी अभिलापा पुरन्ध्री ( कुटुम्बिनी ) स्त्रियों के पादतान में बढ़ी हुई है। अर्थात् कवि-संसार की मान्यता के अनुसार अशोकवृक्ष बसन्त ऋतु में कामिनियों के चरण-स्पर्श ( पादताइन द्वारा प्रफुल्लित होता है, अतः वह कामिनियों के पादताड़न की बढ़ी हुई इच्छा से व्याप्त होरहा है एवं जिस वसन्त ऋतु में बकुल ( मौलसिरी ) वृक्ष त्रियों के मुख में स्थित हुए मद्य का इच्छुक है। अर्थात् - कधिसंसार में बकुल वृक्ष स्त्रियों के मुख में वर्तमान मा गण्डूषों ( कुरलों) द्वारा विकसित होता है, अतः बकुल वृक्ष स्त्रयों के मद्यमयी कुरलों की अपेक्षा कर रहा है। इसीप्रकार जिस वसन्त ऋतु में यह विरहवृक्ष ( वृक्ष विशेष ), जो कि कामोत्पत्ति द्वारा चित्त को विभ्रम-युक्त करनेवाला हूँ, पञ्चमराग का इच्छुक है। अर्थात् विरह वृक्ष भी पड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पश्चम, धवत और निषाद इन सप्त स्वरों द्वारा गाए जानेवाले सप्त रागों में से पंचम राग द्वारा विकसित होता है, अत: यह पंचम राग का इच्छुक होरहा है" ॥ ४४४ ॥ हे राजन! यह वही वसन्तोत्सव है, जिसमें आम्रवृक्ष, जिसका मध्यभाग कोकिलाओं के कलकल (मधुर) शब्दों से व्याप्त होता हुआ मनोहर पुष्पों से सुशोभित होरहा है । जिसमें पुभाग ( नागकेसर ) वृक्ष, जिसपर तोता - सुन्दरियों (मेनाओं ) द्वारा रवि प्रकट की गई है एवं जिसमें पलन उत्पन्न होरहे हैं। जिस वसन्तोत्सव में कुरबक वृक्ष जिसके पसरूपी बिम्बफल सराखे ओष्ट विकसित ( कुल प्रकट ) होरहे हैं एवं जो क्रीड़ा करती हुई भँवरों की कामिनियों से मरित हुआ सुशोभित होरहा है। इसीप्रकार हे राजन् ! यह वसन्तोत्सव कान्तियुक्त पत्तोंवाली माधवी लताओं ( वसन्त-वेलों ) से संयुक्त है ॥ ४४५ ॥ हे राजन! जिस वसन्तऋतु में ऐसे वृक्ष, जिनके सुन्दर शरीर प्रफुलित लताओं के वेष्टन से उत्कण्टकित या सुशोभित अङ्गों के सङ्ग से भलीप्रकार उत्पन्न हुए हैं, पुष्पों का उम (उत्पत्ति ) होने से ऐसे मालूम पड़ रहे हैं-- मानों - वे कामी पुरुषों को यह सूचित ही कर रहे हैंकि 'आप लोग अभिमान छोड़कर कामसेवन कीजिए" ॥ ४४६ ॥ हे राजन! जिस वसन्त ऋतु में जब कामदेव, जिसने गर्व से बाग-व्यापार विस्तारित किया है और जिसके द्वारा तीन लोक के मध्यवर्ती प्राणी समूह उन्मत्त किये गए हैं, ऐसा शक्तिशाली होजाता है तब जिस बसन्त में ब्रह्मा भी अपना चित्त १. समुच्चयालङ्कार | २. जाति अलङ्कार । ३. हेतु अलंकार ४. उत्प्रेक्षालंकार । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्विलकपम्पूकाव्ये सोव, भावीया दासम्तो नेपथ्यविधिः । भवन्ति पात्र श्लोका :-- कनकामगर्भस्पपिसौन्दर्यसारे युवतिजनविमोदण्यासहंसावतारे। परिसरतु सवाझे कुहुमोदनिक्षीररुणकिरणकान्तिः कायवस्काम्वनाः ॥४४॥ एवं देव दोऽभिगो पामो गोरोपनापिजरिते दुरुले । आभासि नीरजरजोरपायाः श्रिया समान विशापगायाः ॥१४॥ यः श्रीनिरीक्षितसपसरविप्रपत्रः कीर्तिस्वयंवरणपुष्पधाराभिरामः । वावे तब नपापत्ततास्स हारः कैलासदेश इप देवनदीप्रवाहः ॥४५॥ लक्ष्मीलोचनकाजलोचितलवों विद्यावधूचकरलाध्यश्यामगुणे मधुयतकूल छायापहासियुतौ। राखतीमणिप्ररोहसुभगाभासे प्रसूनोश्चयस्वन्मौलावसिताम्बुदान्तरचरबन्दछविः शोभताम् ॥१५१॥ या श्रीकण्ठप्राहणसुभगो वीरलक्ष्मीविलास; कीतिप्रादुर्भवनवससिः कल्पवृक्षावतारः । मारोतरण करपल तोऽयं हस्तस्सव विजयता रनभूषाभिरामः ॥४५२॥ महान् कष्ट से रोकता है और ऋषि भी संयम-च्युत होते हुए चित्त को रोकने में समर्थ नहीं। होते ॥४४॥ इसलिए हे राजन् ! आप वसन्त ऋतु के अवसर पर होनेवाला श्राभरण-विधान स्वीकार कीजिए। इस आभरण-विधि के समर्थक निम्नप्रकार श्लोक भी है हे राजन् ! आपके शरीर पर, जो कि सुवर्ण व कमल के मध्यभाग की सशक्षा धारण करनेवाले सौन्दर्य से श्रेष्ठ है और जिसमें युवती स्त्री-समूद्द संबंधी क्रीडा विस्ताररूप हँस प्रविष्ट होरहा है, काश्मीर की तरल केसर से फोहुई विलेपन-शोभा उसप्रकार विस्तृत हो जिसरकार सुमेरु पर्वत के शरीर पर सूर्य-किरण-कान्ति विस्तृत होती है ।। ४४८ ॥ हे देव ! आप गोरोचना से पीवरक्त किये हुए नवीन दोनों दुकूल (रेशमी शुभ्र धोती व दुपट्टा) शरीर पर धारण करते हुए उसप्रकार सुशोभित होरहे हैं जिसप्रकार कमल-पराग से अव्यक्त लाालमा-शालिनी गंगा सुशोभित होती है ॥४४८।। हे राजन् ! बह जगप्रसिद्ध ऐसा हार ( मुक्तामयी हारयष्टि) आपके वक्षःस्थल पर प्राप्त हो, जिसका कान्ति-विस्तार लक्ष्मी-चितवन को तिरस्कार करनेवाला है और जो उसप्रकार मनोहर है जिसप्रकार कीति की स्वयम्बर-पुष्प-माला मनोहर होती है एवं जो उसप्रकार सुशोभत होरहा है जिसप्रकार कैलाश पर्वत पर स्वगंगा का प्रवाह सुशोभित होता है ॥ ४५ ॥ राजन् ! आपके मस्तक पर, जिसकी योग्य कान्ति लक्ष्मी के नेत्र-कजल सरीखी है और जिसमें विद्याधरी-स्तनों के अप्रभाग-समान प्रशंसनीय श्यामगुण पाया जाता है एवं जिसकी कान्ति श्रमर-काणी को तिरस्कृत करनेवाली है तथा जिसकी मनोझ कान्ति नीलमणियों के अङ्करों सरीखी है, ऐसा पुष्प-समूह शोभायमान होवे, जिसकी कान्ति श्याम मेघ के मध्य में संचार करनेवाले पूर्णमासी के चन्द्रमा-सरीस्त्री हे || ४५२ ।। हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध यह रलमयी आभूषणों से मनोज्ञ आपका ऐसा हस्त विजयश्री प्राप्त करे, जो कि लक्ष्मी-(शोभा) युक्त कण्ठ का ग्रहण करने से मनोहर है अथया श्रीकण्ठ ( श्रीमहाय) को स्वीकार करने से मनोहर है। जिसमें बीरलक्ष्मी का विस्तार वर्तमान है। सो कीति-उत्पत्ति की बसति ( गृह ) है एवं जो पाहु-मिप से कल्पवृक्ष है तथा जो पृथिवी-भार उठाने के अवसर पर शेपनाग की दूसरी मूर्ति है ॥ ४५२ ॥ १. अतिशयालंकार । २. सपक व उपमालंकार । ३, उपमालंकार । ४. उपमालंकार । ५. उपमालहार । 1. स्वकालंकार। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः ४५५१ दो वा श्रीसरस्वत्योः प्रचेतः पाशपेशले । तव भूषयतां भूप भुती माणिक्यकुले ॥४२३॥ भुशिखरे हरिचन्दनलिखिता व पत्रकद्व निर्देच मकरध्वजविजयोस्थित विचित्रकेतुश्रियं धते ॥ ४६४ ॥ सब देव निटिलदेशे चन्दनरसनिर्मित वस्तिलकः । धष्टमीन्दुमध्य स्थितगुरुशोमा प्रतिविम्वमपि वहन्ते यस्थाः शिरसा महीश्वराः सा स्तात्। मुद्रा सब देव करे समुदमुद्राविक्षितीशस्य १४५६ ॥ कामरत्वं रतिसंगमे, सुरपतिः स्वर्गाङ्गजानन्दने, भोगीद्रव भुजङ्गिकागमविधौ, लक्ष्मीप्रमोदे हरिः । याग्देदोनयनोत्पलनेल्सवरसप्राप्तौ सुधावीधितितः संप्रतिभूषणोचितवपुर्भूपालचूडामणे ॥४५७ ॥ तच स्मरमहोत्सवोलासर यश विलासिनीजनोचार्यमाणमगुरु परम्परे ऽन्तःपुरे नव किसलयपूगी पादपस्तम्भशोमाः सित तरुफलकान्ताशोकप्रियाताः । मणिमोचकान्तास्तव नृपवर दोलाः कुर्वतां कामितानि ॥४६८ ॥ वक्त्रं वक्त्रमुपैति पत्र नयने नेत्रप्रतिस्पर्धिनी वक्षः पीनपयोधर रामकलना सोलासलीलान्तरम् । rent reading लितों जड़े व जाश्रिते दोलान्दोलनमार्पतभरं तरकस्य न प्रीस ॥ ४५९॥ ३६ हे राजन! रत्नमयी दोनों कुण्डल आपके दोनों पों को, जो लक्ष्मी सरस्वती के झूलों सरीखे हैं और जो उसप्रकार मनोहर है जिसप्रकार वरुणपाश (जाल) मनोज्ञ होता है, मण्डित ( विभूषित) कर रहे हैं' ||४५३|| हे राजन्! आपकी दोनों भुजाओं ( बाहुओं) के अंश पर सर्वोत्तम चन्दन से लिखी हुई पत्त्रवेलि पक्ति पत्तों की लता श्रेणीरूप चित्ररचना ) उसप्रकार की शोभा धारण कर रही है जिसप्रकार जगत के वशीकरण-निमित्त उत्पन्न हुई अनेक वर्णोंवाली कामदेव की ध्वजा शोभा धारण करती है ||४५४ || हे देव ! आपके ललाटपट्टक- प्रदेश पर वर्तमान चन्दनरस निर्मित कान्ति से व्याप्त हुआ तिलक अष्टमी-चन्द्र के मध्य में स्थित हुए बृहस्पति की लक्ष्मी का आश्रय करनेवाली लक्ष्मी ( शोभा ) धारण कर रहा है ॥ ४५५|| हे देव! समुद्र की मुद्रा से राजाओं को अति ( चिह्नित करनेवाले आपके हाथ में वह मुद्रा (मुद्रिका), जिसका प्रतिचिमात्र भी राजा लोग मस्तक से धारण करते हैं [ आभूषणरूप हुई ] शोभायमान होवे " ।।४५६|| हे समस्त राजाओं के शिरोरत्न ! ऐसे आप इस समय आभूषणों से विभूषित हुए शरीर से व्याप्त होरहे हैं जो कि रति के साथ संगम करने के लिए कामदेव हैं स्वर्ग की अनाओं ( देषियों ) को उसित करने के हेतु इन्द्र हैं एवं आप उस प्रकार भुजत्रिकाओं ( कामपीडित स्त्रियों) की आगमविभि ( आकर्षण - विश्वान ) के हेतु भोगोन्द्र ( कामदेव ) हैं जिसप्रकार भुजनियों (नागकन्याओं) का चित्त आह्लादित करने के निमित्त भोगीन्द्र ( शेषनाग ) होता है । इसीप्रकार लक्ष्मी का हर्ष उत्पन्न करने के लिए श्रीकृष्ण हैं तथा सरस्वती के नेत्ररूप कुमुदों को आनन्दरस-प्राप्ति हेतु ( विकसित करने हेतु ) चन्द्र है ||४५७|| देव ? इस प्रदेश पर वर्तमान ऐसे अन्तःपुर में, जहाँपर काम महोत्सव से उत्पन्न हुए आनन्दरस के अधीन बिलासिनी - ( वेश्या) समूह द्वारा मङ्गलश्रेणियाँ पढ़ी ( गाई ) जारही हैं, [[ ] हुए ] ऐसे झूले आपके मनोरथ पूर्ण करें, जिनमें नवीन कोंपलोंवाले सुपारी वृद्धों की स्तम्भशोभा वर्तमान है। जिनकी रज्जु -(रस्सी) बन्धन - रचना ऐसी अशोकवृक्ष लताओं से हुई है, जिनके प्रान्तभागों पर कर्पूर वृक्ष फलक (पटल ) पाए जाते हैं। इसीप्रकार जो रत्न पुष्पों से मण्डित रेशमी समयी देवों की वजाओं से विशेष मनोहर हैं ||१५|| हे राजन् । वह जगत्प्रसिद्ध ऐसा झूले से भूलना किस पुरुष को हर्षजनक नहीं है ? अपितु सभी के लिए हर्षजनक है, जिसमें कमनीय कामिनियों द्वारा अतिशय (विशेषता) * 'मणिमुकुटकूलो' ० १. उपमालङ्कार | २. उपमालङ्कार ३. जपमालंकार ४. अतिशयालङ्कार । ५. रूपकालंकार । ६. समुच्चयालङ्कारः । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE यशस्ति कचम्पूकाव्ये स्नेकावर सूक्तविशारदान्मनमकरन्दानन्दित निखिल्जनात्मनो धन्विनः कृतश्रवणामृत निषक्तः सूकी निशामयमधौ मकरध्वजमाराधयामास । कदाचित —ख खतनुस्थितिर्धनुषि च प्राप्ता धनुः संहति बाणे बाणवपुर्भुजे भुजमयी गात्रे तनुश्राकृतिः । प्रतिविधौ चिन्तामणिर्भूभुजां या सा स्यादपराजिता सब मुहुजैत्राय घाश्रीपते ॥ ४६० ॥ ताराः कुन्तलमौक्तिकानि परूपप्रायरश्मी दृशौ वासः स्वर्गसरिद्दिशो भुजलताः काशी पयोराशयः । tet देवगिरिः witraमणयो जाताः पदासंकृतिर्यस्याः सातशतिरस्तु भवतो भृत्यै चिरायायिका ॥ ४६१ ॥ स्वर्गे भमेण्ट शितिकण्ठपयोजपीठ वैकुण्ठपाठनडर स्ववनोचिताङ्घ्रिः । या चावनी चरमराचरखे चरराचसा वः श्रियं प्रतादपराजितेयम् ॥४६२ ॥ स्थापित किया गया है। अर्थात् कामिनियों के साथ झूलने से जिसमें उनके द्वारा निम्नप्रकार आनन्दो - रपत्ति संबंधी विशेषता लाई गई है। जिसमें मुख का मुख के साथ मिलन होता है। जिसमें नेत्र एक दूसरे के नेत्रों को देखनेवाले होते हैं। जिसमें वक्षःस्थल उन्नत स्तनों के अमभागों के साथ संघट्टन करने से आनन्द अवस्था युक्त मध्यदेशवाला होजाता है एवं जिसमें दोनों हस्त समीपवर्ती दोनों हस्त्रों के सद्भाव से उन्हें महण करनेवाले होते हैं और जिसमें जगाएँ जँधाओं से मिली हुई होती है ||४५९ ॥ वाद--हे मारिदत्त महाराज ! किसी अवसर पर मैंने निम्नप्रकार 'विजयजैत्रायुष' नामके स्तुतिपाठक द्वारा ज्ञापित की हुई शोभावाली 'महानवमी' पूर्ण करके उसीप्रकार दीपोत्सव ( दीपमालिका-उत्सव ) पर्व लक्ष्मी ( शोभा ) का, जिसका अवसर (प्रस्ताव - प्रसङ्गः ) 'सूतसूक्त' नामके स्तुतिपाठक विशेष द्वारा किया गया था. अनुभव ( उपभोग ) किया। अब 'विजय जैत्रायुध' नामका स्तुतिपाठक 'महानवमी' उत्सव मनाने के निमित्त प्रस्तुत यशोधर महाराज के समक्ष अपराजिता व अम्बिकादेवी (पार्वती) की निम्नप्रकार स्तुति करता है हे प्रथिवी नाथ ! ऐसी वह 'अपराजिता' नामकी देवी आपको यारम्बार विजयश्री की प्राप्ति निमित्त होवे, जो राजाओं के खन में स्वरूप से निवास करती है। जो उनके धनुष में धनुष- श्राकार को प्राप्त हुई है और बाए में बाणशरीर-शालिनी है । इसीप्रकार जो राजाओं की बाहु में बहुरूप से स्थित होती हुई उनके शरीर पर कवच के आकार होकर निवास करती है एवं जो युद्ध में उत्तम विजयश्री की प्राप्तिनिमित्त है तथा वाञ्छित वस्तु देने में चिन्तामणि है ||४६ || हे राजन! आश्चर्यजनक शक्तिवाली वह ऐसी अम्बिका ( श्रीपार्वती ) देवी चिरकालतक आपके ऐश्वर्य निमित्त हो, द्वारे ही जिसके केशपाश के मुक्ताभरण ( मोतियों के आभूषण ) हैं । सूर्य व चन्द्रमा जिसके दोनों नेत्र हैं । स्वर्गगा जिसका निवास स्थान है। दश दिशाएँ जिसकी भुजलताएँ (बाहुरूप बेलें ) हैं समुद्र ही जिसकी करवोनी है। सुमेरु पर्वत ही जिसका शरीर है एवं शेषनाग की गाओं में स्थित हुए मरिए ही जिसके चरणों के आभूषण हुए हैं ||४६१।। हे राजम् ! वह जगत्प्रसिद्ध ऐसी यह 'अपराजिता ' देवी आपकी लक्ष्मी विस्तृत करे, जिसके चरण देवेन्द्र, श्रीमहादेव, ब्रह्मा व श्रीनारायण के पाठ के मध्य में किये हुए स्तवन में योग्य हैं एवं जो देवी, भूमिंगोचरी राजा, देवता व विद्याधरों द्वारा पूजनीय है ४ || ५६२|| १. समुच्चयालङ्कार । २. दीपक व रामुच्चयालंकार । ३. रूपक, आदेश समुचयालंकार | ४ अतिशय व समुच्चयालंकार | Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रावासः ३६३ इति विजयजैत्रायुधमागधाग्योधितालधर्मो महानधर्मी नित्य तथा-इंसावलीहिगुणकेतुसिक्षांशुकधी: पावसरमणीरमणीयसारः। प्रासाबसारितसुधायुतिदीसदिको दीपोत्सवस्सब तनोतु मुदं महीश ॥४६॥ धूतोन्मावितकामिनी जिवतप्राणेशवादरकटः क्रीडद्वारविलासिनोजनमत्रपाधिकल्पोमटा । बातोपवनि मङ्गलारबभाज्याम्मिताशामुखः प्रीति पूर्णमनोरथस्य भवतः पुष्यात् प्रदीपोत्सवः ॥४६४ ॥ भाभान्त्यस्खशिखामविट पाखिदीपावलीप्तितः पुरसौधबन्धाः । प्रत्यङ्गसंगतमहौषधिदीसदेहास्वा सेवितुं कुलगगा व दत्तयात्राः ॥४६॥ इति सूतपूरचितासरा दीपोत्सवश्चियं चानुभूय । यावन्ति भुवि शवाणि तेषां श्रेष्ठतरं धनुः । धनुर्ण गोदर सानि न तेषां गिरी धनुः ॥४६६॥ इत्यायुधसिद्धान्तमध्यासादितसिंहनादानुर्वेदानुपश्चत्य समाश्रितशराभ्यासभूमिः। कर्मः पाताकमूल भयति मणिपतिः पिण्डते न्यञ्चमः सर्वरयुधिरन्नाण्यपि क्धति ककुष्मिपुरा: सावसानि । गान्धसेऽम्भोधयोऽपि क्षिसितलविरसशोषयस्ते महोश ज्यारोपासनासीदवारटनिभरभ्रस्यभूगोलकाले ॥४६॥ अब 'सूतसूक्त' नामके स्तुतिपाठक द्वारा की जानेवाली 'दीपोत्सव' ( दीपमालिका पर्व ) को शोभा का निरूपण करते हैं हे राजन् ! ऐसा 'दीपोत्सव' आपका हर्ष विस्तारित करे, जिसमें इंस-श्रेणी द्वारा दुगुने शुभ्र हुए घजाओं के शुभ्र पत्रों की शोभा पाई जाती है और जिसमें कमलों के कर्णपूरों से मण्डित हुई रमणियों से रमणीय ( मनोज्ञ) द्रव्य वर्तमान है एवं जिसमें महलों पर पोती हुई सुधा-( चूने) कान्ति से दशों दिशाएँ कान्ति-यक्त होरही है। ॥ ४६३ ॥ हे राजन् ! बह जगत्प्रसिद्ध ऐसा प्रदीपोत्सव आपका हर्षे पुष्ट करे, जो जुआ खेलने में उत्कट अभिमान को प्राप्त हुई कामिनियों द्वारा पूर्व में जीते गए बाद में वन व हस्त-ग्रहणपूर्वक पकड़े गए अपने अपने पतियों के चाटुकारों (मिध्यास्सुतियों) से उत्कर्ष को प्राप्त होरहा है और जो, कीड़ा काती हुई वेश्याओं के समूह में होनेवाले ङ्गारविशेषों से उन्मत्त होरहा है एवं जहाँपर बाजों की ध्वनियों के माङ्गलिक शब्द-समूह द्वारा दशों दिशाओं के अप्रभाग व्याप्त किए गए हैं। ॥४६४ ॥हे राजन् ! ऐसे नगरवर्ती राजमहल-समूह शोभायमान होरहे हैं, जो कि ऊँचे शिखरोंवाले उसस्थानविशेषों के भिति-भागों पर स्थापित की हुई दीपक श्रेणियों की कान्ति धारण करते हुए ऐसे मालूम पड़ते हैं-मानों-आपकी सेवा-निमित्त विहार करनेयाले व प्रत्येक अङ्गों पर मिली हुई महौषधियों (ज्योतिष्मती-आदि वेलों ) से दीनिमान अम के धारक कुला चल ही हैं। ।। ४६५ ! प्रसङ्गानुबाद -हे मारिदत्त महाराज ! तत्पश्चात् मैंने 'आयुधसिद्धान्तमध्यासादिवसिंहनाद! ( शस्त्रविद्या के मध्य गर्जना करनेवाले -शस्त्रवेता विद्वानों को ललकारनेवाले ) इस सार्थक नामवाले धनुर्वेदवेत्ता विद्वान् से निम्नप्रकार धनुर्विद्या की विशेष महत्ता श्रवण की, जिसके फलस्वरूप मैंने शराभ्यास-( बाण छोड़ने का अभ्यास ) भुमि प्राप्त करनेशला होकर 'मार्गणमल्ल' नामके स्तुतिपाठक के निम्नप्रकार श्लोक श्रवण करते हुए धनुविद्या का अभ्यास किया। धनुर्वेदविधा की महत्ता--हे राजन ! लोक में जितनी संख्या में शस्त्र पाये जाते हैं, उन सभी में धनुष सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि धनुविधा में निपुणता प्राप्त कर लेने पर उसमें सभी शस्त्र गर्भित * मसारवभवय की जाशरवः' य० । गिरे.३.० । टनभरे भ्रस्टति शोणिमध्ये २० । १. जाति-अलंकार । २. हास्परमप्रधान जाति-अनधार । ३. शानदार 1 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्यूत्रव्ये मानन्ददुन्दुभिरिव विपणालमानां देवदुहां हमिलनाभिघोषः । त: समाइयविधौ धरणीवराणां पारस्य ते ध्वनिस्य जयटादुदारः ॥४६॥ वामे करें किमु धनुः किमु दक्षिणे वा बाणावलों सपति कोत्र रोज्यताम् । ल्य बियाश्रममवेव तबाहमार्थ शत्रपचमुरुली खलु क करोतु ॥४६९॥ मोशाय ना देस भवत्प्रयुक्ता । चापन पोग्या जगती प्रमातुं प्रसारित सूत्रमिवावमाति ॥४०॥ सर्थ पिपत्र्यतीसविषयं पानुपुखम्मानिस्वास्मास्परतः प्रसर्पति गुणस्पूसेव पाणावली । एवं सापविजृम्भितानि भवतः सण्ययोग्याविधौ धानुर्धगुणं विमुञ्चति मुर्धन्दी न पाण्यं पुन: ॥४.१५ होजाते हैं। अर्थान-सभी शस्त्रों को विद्या समा जाती है (सभी शस्त्रों में निपुणता प्राप्त होजावी है) परन्तु दूसरे शस्त्रों की विद्या में धनुर्विद्या गर्भित नहीं होतो ॥४६६ ।। अथानन्तर हे मारिदत महाराज! मैंने क्या करते हुए धनुर्विद्या का अभ्यास किया? मैंने 'मार्गणमल' नामके स्तुतिपाठक के निम्न प्रकार सुभाषित पचन श्रवण करते हुए धनुर्विद्या का अभ्यास किया । राजन ! जब आपको ऐसा अवसर प्राप्त होता है, जिसमें डोरी को धनुष पर चढ़ाने की संगति से टूटने हुए धनुष के अग्रभाग के भार ( अतिशय ) से भूमण्डल नोचे फँसनेवाला होने लगता है सप कूर्मराज ( पृथिवी-धारक श्रेन कछु ) भयभीत हुआ पृथिवी के आधारभूत मूल का आश्रय लेता है। अर्धाद-उसमें प्रविष्ट हो जाता है और उस कच्छपराज के ऊपर स्थित हुआ शेषनाग, जिसका हजार संख्याशाली फणा मण्डल मुक रहा है, संकुचित हो जाता है एवं पर्वत-छिद्र भी हव होजाते हैं और दिग्गज भयभीत होजाते हैं तथा ममुद्र भी, जिनको तरङ्गों के पृथिवीतल पर सैकड़ों टुकड़े होरहे हैं, लोहन करने लगते है।४६७।। हे राजन ! यह अत्यन्त उन्नत ऐसी आपकी धनुष-ध्वनि ( टंकारशब्द ) सर्वोत्कृष्टरूप से वर्तमान हो. जो स्वगों को हप-दुन्दुभि-सरीखी है एवं जिसका शब्द असुरों का हृदय भान करनेवाला है अथवा असुरों के सृदय भङ्ग करनेवाले शब्द-जैसी है एवं जो राजाओं के बुलाने की विधि में दन है। अर्थात-जिस प्रकार दूत राजाओं को बुलाने में समर्थ होता है जसीप्रकार यह आपको धनुष-ध्वनि भी राजाओं के बुलाने में दून-सरीखा कार्य करती है॥४२॥ हे राजन् ! [ आपके हस्तलाधन के कारण ] यह कोई नहीं जानता कि धनुष अापके पाएँ हस्त पर बर्तमान है ? अथवा दक्षिण हस्त पर? एवं इस बाण छोड़ने के अभ्यास के अवसर पर कौन-सा हस्त यह बाण-श्रेणी कर रहा है? ( छोड़ रहा है। इसप्रकार आपका आश्चर्यजनक बाण छोड़ने का अभ्यास देखकर [ लोक में ] कौन पुरुष निश्चय से आयुधों कर विस्तृत अभ्यास करेगा? अपि तु कोई नहीं करेगा ।। ४६६ ।। हे देव ! आपके द्वारा प्रेरित की हुई वाण-श्रेणी, जिसका शरीर डोरी व वेध्य ( निशाने ) के मध्य लगा हुआ है और जो धनुष से अभ्यस्त है, पृथिवी के नापने-हेन फैलाये हुए मृत-सरीखी सुशोभित होरही है" ॥ ४७० ।। हे राजन् ! आपका लक्ष्य (निशाना ) नेत्रों के अगोचर दरलर ) है और सूत में पिरोई हुई-सी शोभायमान होनेवाली आपकी बारणश्रेणी पुल व अनुपुड्डों ( पाण-अवयव पर वाली तीर की जगह ) के क्रम का अनुकरणपूर्वक लक्ष्य-भेवन करके दममे । लक्ष्य मे दर चली जाती है. इसप्रकार प्रापके धनुर्विद्या-चमत्कार घिद्यमान हैं, इसलिए जर आपकी अभ्यासविधि धनुर्वेदी विद्वानों द्वारा प्रशंसनीय है, नब धनुर्धारी [लानिन होकर ] अपना धनुष-धारय गुण धार-बार छोड़ता है परन्तु बाण नहीं छोड़ता; क्योंकि आपही याण छोड़ते हैं, आपके सामने करोति क.। .. जाति-अलंकार । २. अतिशयालंकार । ३. रूपक व उपमालंकार । ४. आक्षेपालंकार । ५. उपमालङ्कार। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय आश्वासः ३६५ कोदण्णानचातुरी रचयय: प्रामपक्षाहयग्रोवधिोविषयेषु ते मिरवधीन दृष्ट्वा शराहक्ष्यगान् । हत्य नाथ बदम्ति देववनिता क्षोणीसशेऽयं हले कि प्रत्यक्षविनिर्मितेक्षणभुजः कि पेन्द्रजासकियः ॥१०॥ सं कर्ण: कालपृष्ठे भवसि बलि रिपुस्त्वं पुनः साधु शाई गाण्डीवेऽमस्वमिन्द्रः क्षितिरमण हम पिनाके च साक्षात् । बालापायचापानचतुरविधेस्तस्य किं श्लाघनीर्य गाङ्गेयद्रोणरामार्जुननरुनहुषक्ष्मापसाम्ये तत्र स्थात् ॥७३॥ प्रति मार्गणमल्लस्य वाग्जीबिनो वृत्तामि ऋषवाकोदण्डविद्यामुपासांचक्रे ॥ कदाचिसंध्योपासनोत्सुकवैखामसमनसि प्रतिदिवानेहसि भन्योन्यविषयमावं पश्यत यातेऽय शपिनि तपने च | अरुणमणिकुपवलनियमम्बरलक्ष्मीविभतींव ॥॥ दूसरा कौन धनुर्धारी है? || ४७१।। हे राजन् ! मुख के सामने, पीछे भाग पर, बाएँ व दाहिने भागों पर, ऊपर ( आकाश में ), नाचे ( पाताल) में ( समस्त दिशाओं में ) धनुप की आकर्षण-निपुणता की रचना करनेवाले आपके बहुतसे बाणों को लक्ष्य में प्राप्त हुए देखकर श्राकाश में स्थित हुई देवाङ्गता इसप्रकार कहती हैं-हे सखि! यह यशोधर महाराज क्या अपने प्रत्येक ब पर नेत्र व मुजाओं की रचना करनेवाले हैं? अथवा इन्द्रजाल की क्रिया करनेवाले हैं ? ||४७२।। हे पृथिवीनाथ ! आप कर्ण के धनुष में साक्षात् कर्ण हो । पृथिवीनाथ ! आप विष्णु-धनुष में श्रीनारायण हो । हे पृथियोनाथ ! आप गाण्डाव ( अर्जुन-धनुष ) में प्रत्यक्ष अर्जुन हो और रुद्र-धनुष में तुम साक्षात् श्रीमहादेव हो। इसलिए इसप्रकार के श्रापकी, जिसकी बाणों की आकर्षण-विधि उसप्रकार विचक्षण है जिस प्रकार बालकों के याण प्राय सरीखे बाणों की आकर्षण-विधि विचक्षण होती है, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, परशुराम अथवा श्रीरामचन्द्र, अर्जुन, नल और नहुप (रघुवंशज धनुर्धारी रामा विशेष ), इन धनुर्धारियों की सदृशता के विषय में क्या प्रशंसा की जासकती है ? ॥ ४७३ ।। प्रसङ्गानुवाद-हे मारिदत्त महाराज! किसी अवसर पर जब तपस्वियों के चित्त संध्यावन्दन में उत्कण्ठिन करनेवाला सायंकाल होरहा था, जिसके फलस्वरूप प्रथियो-मण्डल पर ऐसे अन्ध कार का प्रसार होरहा था, जब मैं हृदय को आल्हादित करनेवाले चारणों के निम्नप्रकार श्लोक अयण कर रहा था, जब दिन पश्चिमदिशा का मुख मण्डित करनेवाले राग में अधिष्ठित हुआ अस्त होरहा था, जब मैं निम्नप्रकार का सुभाषित श्लोक श्रवण कर रहा था ओर जब मैंने अपराह मध्याह्न-उत्तरकाल) का मन्ध्यावन्दन कार्य सम्पन्न कर लिया था एवं जब मेरे दोनों नेत्र चन्द्र-दर्शनार्थ उत्करिठत होरहे थे तब * कविकुरगण्ठीरवः नाम के सहपाठी मित्र ने मेरे समीप भाकर चन्द्रोदय वर्णन करनेवाले निम्न प्रकार श्लोक पढ़े क्या होने पर 'कविकरणकण्ठीरय' नाम के मित्र ने. चन्द्रोदय वर्णन करनेवाले श्लोक पढ़े ? जब भूमण्उल पर ऐसे अन्धकार का प्रसार होरहा था हे सजनो! आपलोग इस समय ( सायंकालीन वेला में } देखिए, जब उदयाचल को प्राप्त हुआ चन्द्र और अस्ताचल को प्राप्त हुआ सूर्य ये दोनों परस्पर-विषयभार । जानने योग्य ) को प्राप्त होरहे हैं। अर्यात-एक दूसरे को परस्पर देख रहे हैं तब आकाशलक्ष्मी लाल मारियों के ताटङ्कों ( कानों के आभूषणों) की शोभा धारण करती हुई-सरीखी शोभायमान होरही है ॥ ४७४ ।। १. उपमालंकार । २. संशयालंकार। ३. रूपय, उपमा व आक्षेप-अलंकार । * प्रस्तुत शास्त्रकार का कम्पित नाम । ४. उपमालकार। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अपि चाखण्डसगुण्डालगायुमण्डलीमण्डनमदमप्टिनरुचि, शितिरकर कुरङ्गेश्मणनाये, जाह्नवीजाणवम्बालमञ्जरीजालजयिनि, पुरंदरपुरपुरंधी पयोधराभोगसंगतमृगमइयत्नभासमगे, किंपुरुषकामिनीकुवयुकापटलश्यामसंपदि, प्रत्यङ्गमम्बरतलारिकरटिपाशुप्रमाथासुले, क्षिदेवतानिकेसननीलोएलकलाशप्रकाशभासिनि, दिग्यकालका लरीविलासप्रसरे, विक्पालपुरप्रासादप्रचढाकिनीकुलकलापांकिलिकले, दिगन्सरकान्तारमधुकरी निकाश्यामले, प्रत्यन्तरालमाशावलयसटिनीतरतमालवाद्योतकान्ते, शिखान्तरचरनवरसीमन्तिनीचिकुरवयरोचिपि, निकुञ्जकुमारकायकान्तिकाले, गिरीशगलगरलकल्माषस्विपि, सानुसारसारमानापाङ्गकृष्णे, प्रतिप्रदेशमवलकालाइभिसारिकाबिजम्भयाधएप्रतानतरले. धराधरणीधम्मिलधामधाधिनि, महीमहिलामौलिमेचकमणिमदोमान्चे, पार्थिवपतिपस्त्यप्रान्तप्रचारिचीतांशुकध्वजासम्बरविम्पिनि, स्मोक्षुकोदण्यपलाशपेशले, प्रतिप्रतीकमिझायनाइद्विद्धिजिवाश्रमहोमधूमाक्रमस्पधिनि, विरहवेगागतभुजङ्गीश्यासानिएमलीमसे, भोगिनगरोपवनपञ्चवोल्लासलोलापदासिनि, लेलिहानानिका बलेइजिलाजिमकालुष्ये, कालियाविप्रभाप्रभावपाटवस्फुटि, प्रत्यय जिसकी ( अन्धकार की ) कान्ति उसप्रकार मलिन (कृष्ण) थी जिसमकार इन्द्र-हस्ती (ऐरावत ) की कपोलस्थली सुशोभित करनेवाले मद ( दानजल ) की कान्ति मलिन होती है। जिसकी कान्ति चन्द्रवर्ती हरिण की नेत्र-कान्ति सरीखी [ कृष्ण ] है। जो गङ्गाजल की शैवालमञ्जरी-श्रेणी को जीतनेवाला ( उसके सदृश ) है। जो उसप्रकार मनोहर है जिसप्रकार इन्द्रनगर की देवियों के विस्तृत कुच । स्तन ! कलशो पर लगी हुई कस्तूरी की पत्त्ररचनाएँ मनोहर होती है। जिसकी शोभा किन्नरदेव-कामिनियों के कुचचक्षुकों ( स्तनों के अग्रभागों) के समूह सरीखी श्याम है। जो प्रत्येक अवयवों पर आकाशमएडल से उत्पन्न हुआ दिग्गजों का धूलि ताड़न-सरांखा धूलि बहुल है। जो दिक्कन्या मन्दिरों में वर्तमान इन्द्रनील मणिमयो कलशो के प्रकाश-सरोखा शोभायमान होरहा है। जिसका विसर्प विक्रम्याओं की केशवल्लरियों के प्रसर समान है। जिसमें दिपालनगरवी गृहों की मयूर-श्रेणियों की पंख-क्रीडाओं की शोभा वर्तमान है। जो दिशा-मध्यवर्ती बनों की भ्रमरीश्रेणी-सरीखा श्यामल है। जो आकाश के दिशासमूह से [प्रवाहित हुई] नदियों के नटवी तमाल-( नमाज़ ) पत्रों के प्रकाश सरीखा मनोहर है। जिसकी शोभा (श्यामक्रान्ति ) पर्वतों पर संचार करती हुई भील-बधुओं के केशसमूहों-सी है। जो लताओं से आच्छादित प्रदेशों पर स्थित हुए हाथियों की शरीर-कान्ति-सदश कृष्णा है। जिसकी कान्ति श्रीमहादेव की कण्ठवर्तिनी विष-कान्ति सरीखी कृष्ण है। जो तटवर्ती हरिणों की हरिणियों के नेत्रप्रान्तों-जैसा श्याम है। जो प्रत्येक स्थान पर मानुपोत्तर पर्वत से श्राती हुई अभिसारिकाओं ( परपुरुष-लम्पट स्त्रियों ) के विस्तार में वर्तमान कृष्ण बस्न-विस्तार सरीखा चञ्चल है। जो पृथिवीरूपी स्त्री के बंधे हुए केशपाश की कान्तिसरीखा धावनशील है। जो पृथिवीरूपी स्त्री की मांति ( मुकुटबद्ध केशपाश) के कृष्णारत्न के तेजसदृश मान्य है। जो चक्रवर्ती-नगर संबंधी प्रान्तभाग पर प्रचार करनेवाली चीनवस्त्र ( रेशमी श्यामवत्र) की विस्तृत ध्वजा को विडम्बित ( तिरस्कृत ) पारनेवाला है। जो कामदेव के गन्ने के धनुष-पत्र सरीखा मनोहर है। जो पृथिवीमण्डल के प्रत्येक स्थान पर स्थित हुआ द्विज ( दाँत, पक्षी ब ब्राह्मण ) रूप सर्पगृह में वर्तमान होमधूम की उत्पत्ति के साथ स्पर्धा करनेवाला है। जो विरह-वेग को प्राप्त हुई नागकन्या की श्वास वायु-सरीखा मलिन है। जो नागदेवों के नगरवर्ती क्रीडावनों के पल्लवों की उल्लासलीला का उपहास करनेवाला है। जिसमें वायु का आस्वादन करनेवाली सर्प-जिह्रा-सरीखा गुरुतर कालुष्य वर्तमान है। जो श्रीनारायण की कान्ति की माहात्म्य-पटुता को तिरस्कृत करनेवाला है। जो ऐसा मालूम पड़ता है +'गण्डलीमण्डन' क०। पयंचालिगगम क.. केचिटिनिक.। 'दिगन्ाकान्तार' क्र० । *'सानुसर' ग। 1'अवलिद' का । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतीय आश्वासः पातालमूलाच सापिच्छगुरुयोस इवान्तरिक्षलक्ष्म्यार, सहिकेय संचर इन नक्षत्रभेत्रस्य, नीलिकोपदेह इस भिदिवदीपिकायाः, ऋजलोपनव इव नभश्चरविमानानाम्, कवचोपचा व भत्करस्य, अपवरजवनिकागम हब कन्दरपरिसरागाम्, इन्द्रनीला निघोलक व भुवनबलभीमपलस्त्र, महामोहरसासर्प इस कीटककुटीरकाणाम् , परिपत्पूर इत्र *कधाभोगस्य, फालिन्दीतरङ्गसंगम इव विश्वभराभागानाम , रेरिणनिवनिहार इत्र बनस्थलीदेशस्थ, शबरसन्यसंगम इव कानन· विषयाणाम् , असुरसमाजर्सपर्फ इवxधराधरन्ध्रस्थानस्य, कुवलयाफर इव निभावनीतलामाम् , पश्वरीकपरिचय इन +प्रफुल्ललतारामस्य, कृष्णकलापपस्ग्रिह इब जलनिधीनाम् , काचकपाटपुटोपगम इस च 'कललोकविलोकनपापारस्य, दुर्जनजनचेष्टितमिव समस्तमुहमवचं च वस्तु समता नयति, विजृम्भमाणे तमसि, विहीन इव, अपहृत इय, अष्टश्यतोपगत हव, देशान्तरनीत इब, निमम इव, संहत इव, प्रजापतिपाणिपुटपिडित च, अक्षणमात्रं जाते जगति सति, मानों-आकाशलक्ष्मी का तमाल-( तमाखू ) गुच्छों का ऐसा कर्णपूर ही है, जो कि पातालतल के प्रत्येक तल से प्रकट हुआ है। अथवा-मानों-आकाश को राहुरूपी व्याधि प्रकट हुई है। अधवामानों- वारूपी बावड़ी की लम्बालवृद्धि ही है। अथवा-मानों-नभचरों ( विद्याधरों या देवों ) के विमानों पर किया हुआ तरल कज्जल-लेप ही है। अथवा-मानों-पर्वत-काटनी की अवच-( वख्तर ) वृद्धि ही है। अथवा-मानों-गुफा-पर्यन्तभागों के आच्छादन-निमित्त मेघरूप जवनिका-( तिरस्करिणीकनात ) समागम ही है। अश्रया-मानों-जगत्पटलरूपी वलभी ( छज्जा) को आच्छादित करने हेतु इन्दुनील मणियों का प्रच्छदपट ( ढकनेवालावरून) ही है। अथवा-मानों दरिद्र-गृहों का अमानरसविस्तार ही है। अथवा-मानों-दिग्मण्डल का कर्दम-प्रवाह ही है। अथया-मानों-पृथिवी-देशों के लिए कालिन्दी ( यमुना) नदी का तरङ्ग-समागम ही हुआ है। अथवा-मानों-बनस्थली-देशों पर भैसा समूह का पर्यटन ही है। अथवा-मानों-वनसंबंधी देशों में भिल्ल सेना का समागम ही हुआ है। अधवा-मानों-पर्वत-छिद्र प्रदेश के लिए असुर-समूह का समागम ही हुआ है। प्रथया-मानोनीची पृथिवियों पर विकसित हुआ नीलकमल-समूह ही है। श्रथवा-मानों-विकसित लतावन के लिए भ्रमर-आगमन ही है। अथवा-मानों-समुद्रों द्वारा किया हुआ नारायण समूह का स्वीकार ही है। अथवा सानो-समस्त लोगों का दृष्टि-व्यापार रोकने-हेतु काचकामलारोगरूपी कपाटपुट का संबंध ही है। इसीप्रकार यह ( अन्धकार ) समस्त ऊँच व नोच पदार्थ को उसमकार समानता में प्राप्त करता है जिसप्रकार दुष्टजन-व्यापार उच्च व नीच को समता में प्राप्त करता है। [उसप्रकार अन्धकार के फलस्वरूप] अल्पकाल तक पृथिवीमण्डल ऐसा प्रतीत होरहा थामानों-पिघल ही गया है। श्रथा-मानों-अपहरण ही किया गया है। अथवा-मानोंअन्तर्षित होचका है। अधवा-मानों-दसरे स्थान पर प्राप्त कराया गया है। अथवा-मानों-राया है। अथवा-मानों-प्रलय को प्राप्त होचुका है। अथवा-मानों-ब्रह्मा के हस्तपुट द्वारा भाच्छादित किया गया है। ___xसंचय' का। निचलक' क. कोकटकुटारकाणां' क.। ककुभाभोगस्प) फ.। धरान स्थानस्य' क० | +उक्तशुद्धातः ० ० प्रतितः समुदतः मु० प्रलौ तु प्रफुल्लितारामस्या पाठः। करसमपाल पुटोपगम' क. । 'विमृम्भणे' का। *'कृष्णरवं जाते' क-1 १. उत्प्रेक्षालंकार । २. उत्प्रेक्षालंकार । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. यशस्तिलकचम्पूकाव्ये वाशेषनगकिरोमणिभुषां धानामभूतास्पदं तस्या एवं दिशो मलीमसरुचि प्रायं तमस्तायते । आपापड प्रथम सतः पुरनदीसंभदरेवानिर्भ पश्चादातसपुष्पकान्ति सदनु भीकण्ठकण्ठति ॥४॥ रविरहनि रजम्यामिन्दुरेष प्रतापी सदपि न तिमिराणां संततेर्मूलनाशः । अमियतगतिसमें वैरिवर्ग प्रयुक्त किमिव भवतु घुसस्तुमाधानोऽपि धाम ॥४६॥ इति चेतः सन्तिकारणान! चारगान बवमान्याकर्णयति, वारुणीमुखमण्डनरागाधिष्ठिते प्रतिष्ठिते चाइनि, विहिरपिहरण लवणं कशानौ भोगणा राज्यविक मास्तम् । रास्तवावतरणामयणं च भक्तं प्रीणातु पुण्यजनमध्वनि बजम् ॥१७॥ नीराजनानविधी विधिवत्प्रयुगा दीपावली सामङ्गलहेतुभूता । नक्षत्रपक्तिरिय मेरुमहीधरस्य पर्यन्त वृत्तिरुदयाय तवेयमस्तु ॥४७८१ श्री: श्रेयांसि सरस्वती सुखकथा: स्वर्गीकसः स्वःश्रिय नागा नागवलं पड़ा +महगुणं रखानि रसाकराः । ये चान्येऽपि समस्तमालविधौ देगः सतां संमतास्ते सर्वेऽपि दिशन्तु भूप भवतः संध्यास्त्रवन्ध्याः कियाः ॥४९॥ प्रसङ्ग-हे मारिदत्त महाराज ! पुनः क्या होनेपर 'कविकुरङ्गकण्ठीरष' नाम के मित्र ने वक्त श्लोक पढ़े जब मैं हृदय को प्रमुदित करनेवाले चारणों के निम्नप्रकार गीत अश्य कर रहा था जो पूर्वदिशा समस्त लोक-प्रकाशक श्रीसूर्य से उत्पन्न हुए प्रकाशों का स्थान थी, उसी तेजस्विनी दिशा में अब मलिनकान्ति सराखा ऐसा अन्धकार विस्तृत होरहा है, जो कि पूर्व में ईषत्पाण्डु ( धूसर-कुछ, उज्वल ) था। तत्पश्चात् जो गंगा के सिन्धु-संगम ( जहाँ एक नदी दूसरी से मिलती है) से उत्पन्न हुई कुछ मलिनता-सरीखा (कुछ नीलवर्ण-युक्त) था। उसके बाद जो अतसी (अलसी) पुष्प-सा नीलकान्दिवाला था और तत्पश्चात् जो श्रीमहादेव के कण्ठ-सरीखा विशेष श्याम था ॥४॥ हे राजन् ! यद्यपि दिन में यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला प्रतापी (भयजनक) सूर्य विद्यमान है और रात्रि में प्रतापी (कान्तिमान ) चन्द्र वर्तमान होता है तथापि अन्धकार-समूह का मूलोच्छेद नहीं होता, क्योंकि अनिश्चित प्रवृत्ति करनेवाले शत्रु-समूह द्वारा आरोपित किये हुए धाम (तेज या प्रभाव ) के सामने उन्मत तेजस्वी पुरुष का आरोपित किया हुआ तेज कैसा होता है ? अर्थात्-उसकी कोई गिनती नहीं है ।१७६।। सुभाषित-श्रवण-उन्नत, विस्तीर्ण अथवा मनोहर राज्यशाली हे राजन् ! शत्रुओं का दृष्टिदोष-नाशक यह लवण, जो कि आपकी आरती उतार कर अग्नि में क्षेपण किया गया है. तड़तड़ शन्द करे और हे राजम् ! आपके ऊपर उतारा हुआ यह भात-पिएख, जिसकी मार्ग में पूजा आरोपित की गई है, राक्षसों को सन्तुष्ट करे ॥४७॥ हे राजन् ! आरती उतारने की विधि में यह प्रत्यक्षीभूत दीपकश्रेणी, जो कि शास्त्रानुसार की हुई समस्त माल ( कल्याण ) उत्पन्न करने में कारण है, सुमेरु पर्वत के प्रान्तभाग पर स्थित हुई नक्षणभेणी-सरीखी आपके प्रान्तभाग पर स्थित हुई आपके राज्य की उन्नति-निमित्त होवे' ॥ ४७८॥ हे राजन् ! आपके वे सभी देवता, जो कि समस्त कल्याण-विधान में विद्वज्जनों द्वारा माने गए है और इनके सिवाय दूसरे देवता ( ऋषभदेव आदि तीर्थकर परमदेव ) भी समस्त सभ्याओं में सफल आचरणों का उपदेश करें। उदाहरणार्थ - श्री (लक्ष्मी) देवी कल्याणों का उपदेश करती हुई सरस्वती ( वाणी देवता) सुख-कथाएँ (धर्म, अर्थ व काम-पुरुषार्थों का कथन ) कहे। इसीप्रकार स्वर्गवासी देव स्वर्गश्री का उपदेश देते हुए नागदेवता (शेषनाग ) नागों (हाधियों) जैसी प्रथमा *'प्रायस्तमस्तायते । ४'राग्यविकट' का। +'प्रहवलं' क० । १. उपमालंकार। 1. भाक्षेपालंकार । ३. समुच्चयालंकार । ४, अध्ययोपमालंकार । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः हत्याकर्णयति विनिवर्तिता पर संध्यावन्ने चन्द्रालोकन कुतूहलितलोचने मपि सति प्रविश्य कविकुरङ्गकण्ठीरवनामा सहाध्यायी पश्द्रोदयवर्णनानीमानि वृत्तान्यधि JEE सुतमभिधेयं हरेर्नबन्धु मित्रं पुष्पायुधस्य त्रिपुरविजयिनो मौलिभूवाविधानम् । वृत्तिवेतं सुराणां यदुकुलतिका वा स प्रीतिं वस्तनोतु द्विजराजनिपखिवन्द्रमाः सर्वकाम् ॥४८०॥ यतिवरे शेफालीनां प्रसूनचयच्छदिर्गगन सरसि छायां विहिताङ्कराहिमीलू | सुरपसिंहासाच्या प्रथमलमये चन्द्रोद्योततवास्तु मुवे सदा ॥ ४८१ ॥ को जलधर नीरनीरेजमेतन्मारः स्फारः प्रमदहृदयावरचा रामकोशः । सौधः सपदि विक्षिीरपूराभिषङ्गा यस्षोलासेस जयति जनानन्दनचन्द्र पृषः || ४८२ ॥ अपनी जैसी शक्ति कहै और सूर्य व चन्द्र आदि ग्रह देवता महों ( सूर्य आदि नवग्रहों ) के गुण निरूपण करें । [ उदाहरणार्थ - सूर्यग्रह का गुण प्रताप, चन्द्र का सौम्य, मङ्गलमह का गुण पृथिवी- लोभ, बुध का बुद्धिगुण, बृहस्पति का विद्वत्ता गुण, शुक्र का नांति गुण, शनि की शत्रु के ऊपर क्रूरदृष्टि, राहु का एकपादपीडन, केतु का शत्रु का उद्वासन ( घात ) 1] इसीप्रकार समुद्र पांच प्रकार के रत्नों का उपदेश करे * ॥। ४७९ ।। so 'santara' नामके मित्र द्वारा पढ़े हुए चन्द्रोदय वर्णन करनेवाले श्लोकों का निरूपण किया जाता है हे राजन! वह जगत्प्रसिद्ध ब्राह्मणों का और रात्रि का पति ऐसा चन्द्रमा सदैव आप लोगों का विस्तारित करे, जिसे विद्वान् लोग अत्रिऋषि ( हारीत-गुरु ) के नेत्र से उत्पन्न हुआ, क्षीरसागर का पुत्र, श्रीनारायण का नर्मबन्धु ( साला) व कामदेव का मित्र और श्रीमहादेव के मस्तक का आभरण करनेवाला व देवताओं की जीविका का खेत कहते हैं [ क्योंकि देवता लोग अमृत पीनेवाले होते हैं ] एवं जिसे यदुवंशी राजाओं के वंश का तिलक ( विशेषता उत्पन्न करनेवाला ) कहते हैं, [क्योंकि यादव शुधकुल में उत्पन्न हुए हैं और चन्द्र बुधकुल का पिता है ] । इसी प्रकार विद्वान लोग जिसे 'कुमुद बन्धु' कहते हैं, क्योंकि चन्द्र द्वारा कुमुद विकसित होते हैं ॥ ४८० || हे राजन! ऐसा चन्द्रोद्योत ( प्रकारा ) सदा के दर्ष निमित्त होवे, जो उत्पत्तिकाल में प्रदयाचल की शिखर पर स्थित हुआ निर्गुण्डियों के पुष्पसमूह सरीखा शोभायमान होरहा है और जो आकाशरूप तालाब में कमलिनी-कन्दाकुरों में शोभायमान होनेवाली कान्ति-सी कान्विधारक है एवं जिसकी आकृति इन्द्राणी महादेवी आदि की हास्योत्पत्ति-शोभा धारण करनेवाली है ।। ४८१ ।। हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध प्रत्यक्षप्रतीत व प्राणियों का प्रमुदित करनेवाला ऐसा चन्द्र जयशाली हो अथवा सर्वोत्कृष्टरूप से वर्तमान हो, जिसके उदित होने पर समुद्र ऊँचे सकलती हुई तरह से व्याप्त होता है, नीरनीरेअ (जल-स्थित कुमुद चन्द्रविकासी कमल) जड ( विकसित होनेवाला अथवा 'ढलयोरभेद:' इस नियम से ईषज्जलशाली ) होजाता है व कामदेव वृद्धिंगत या उद्दीपित होजाता है एवं [ चन्द्रिका पान करनेवाले ] चकोर पक्षी उल्लासित चित्त के कारण मनोहर वृत्तिवाले होजाते हैं तथा राजमहलों के उपरितन भाग शीघ्र ही दुग्ध-प्रवाद का संगम किये हुए जैसे होजाते हैं" ।। ४८२ ॥ +अयं शुद्धपाठोऽस्माभिः संशोधितः परिवर्तितब्ब, सु० प्रती तु 'सुरपतिबधू हासोलासक्रिमं श्रयशकृतिः पाठः परस्वधानषचनानुपलम्भात् — सम्पादकः । नीलनीरेजनेत' ग० । १. समुच्चयालंकार । २. रूपक च दीपकालंकार । ३. उपमालङ्कार । ४. दीपकालङ्कार Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० यशस्ति चम्पूकाव्ये हस्तातरलर चिभिर्दुग्धमुग्धैः कटाक्षै हांसोलासश्रयिभिरधरैः कैरवाः । यस्य स्त्री स्तनभरैवन्दनस्यन्दसारयतः सान्द्रीभवति स विदुर्वस्तनोतु प्रियाणि ॥ ४८३ ॥ हरति स्मितं प्रियाणामपाकान्ति विलुम्पति नितान्तम् । अधिकरुचिः स्तनयुगले तथापि सद्रो मुरे जगतः ॥ १८४ ॥ वृद्धि विज्ञसमयः पुष्पकोदण्डपाणेः क्रीडानीडं रतिरसविधैः प्राणितं पञ्चमस्य । स्त्रीणां लीलावगमनिगमः कामिनां केलिहेतुः स्रोतः सूतिर्निजमणिमुत्र देव चन्द्रोदयोऽयम् ॥ ४८५ ॥ मेन्त्रैः फज्जलर्पामुलैः कुवलयैः कर्णावतंसोदयैः कस्तूरीतिलकैः कपोष्टफलकै लालकै भलिकैः । स्त्रीणां नीलमणि jiप्रकाशवश गैर्वक्षोजवस्त्र स्तमश्चन्द्रोद्योतभयेन विदुतमिदं चरणनखमयूखैरस्स्थामवस्थां हसितकिरणजालैः पलवलास रम्याम् । प्रसवसमय योग्यामङ्गनानामपारजनिकरत श्रीर्मीयते प्राप्तभूमिः ॥४८७॥ सावकाशीकृतम् ॥४८६ ॥ हे राजन! वह जगत्प्रसिद्ध ऐसा चन्द्र आप लोगों के प्रिय ( पुण्यकर्म या मनोरथ सिद्धियाँ ) विस्तृत जिसकी कान्ति निर्मल व अत्यन्त प्रकाशमान स्त्रियों के उज्वल हारों से, दूधसरीखे मनोहर ( उज्यः) कामिनी कटाक्षों से, हास्योत्पत्ति का आश्रय करनेवाले रमणी-ओष्टों से तथा श्वेतकमल-समूह से निर्मित हुए मणियों के [ उज्वल ] कर्णपूरों से एवं चन्दन-क्षरण से मनोहर युवतियों के स्तनतट सम्बन्धी अतिशयों से वृद्धिंगत होरही है' ||४८३|| हे राजन! यद्यपि चन्द्रयों के हास्य का विशेषरूप से अपहरण करता है ( उनके हास्य सा है) और केथवा कटाक्षों की शुभ्रकान्ति विशेषरूप से लुप्त करता है। अर्थात् — इसकी कान्ति कामिनी-कटाओं की कान्ति-सरीखी शुभ है एवं स्त्रियों के कुचों ( स्तनों ) के युगलों से भी अधिक कान्तिशाली है तथापि लोक को प्रमुदित करता है || ४८४ ॥ हे देव ! प्रत्यक्ष प्रतीत यह चन्द्रोदय समुद्र को वृद्धिंगत करनेवाला. कामदेव की विजयश्री का अवसर और रतिरस का निवास स्थान है । इसीप्रकार यह षड्ज. ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धक्त, और निषाद इन वीणा के सप्तस्वरों में से पम स्वर का प्राण ( जीवितप्राय ) होता हुआ स्त्रियों की विदग्ध चेष्टाओं ( शृङ्गारमय चेष्टाओं) के ज्ञान का शास्त्र है। अर्थात् – इसके होने पर ही स्त्रियों की विदग्ध चेष्टाओं का परिज्ञान होता है एवं यह कामी पुरुषों की कामकौड़ा में निमित्त होता हुआ चन्द्रकान्तमणिमयी पृथिवियों की प्रवाहोत्पत्ति है। अर्थात् - इसके उदय होने से चन्द्रकान्तमणि-भूमियों से जल-प्रवाह प्रवाहित होता है || ४८५ ॥ हे राजन! चन्द्रसंबंधी प्रकाश के भय से भागा हुआ यह अन्धकार अञ्जन-मलिन कामिनी-नेत्रों द्वारा, उनके कर्णपुरों ( कानों के आभूषणों) में उदय होनेवाले नीलकमलों द्वारा कस्तूरी की पत्त्ररचनायुक्त स्त्रियों के गालपट्रकों द्वारा, चञ्चल केशोंवाले स्त्रियों के ललाटपटकों द्वारा एवं नीलमणियों की कान्ति सरीखे श्याम कान्तिशाली कामिनियों के स्तनों द्वारा अवकाश दिया गया है ( शरणागत होने के कारण सुरक्षित किया गया है ) ||४८६ ।। हे राजन! इस चन्द्ररूपी वृक्ष की लक्ष्मी को, जिसने भूमि प्राप्त की है (क्योंकि विना भूमि के वृक्ष उत्पन्न नहीं होता). स्त्रियों की चरण-भय-किरणे अङ्कर संबंधी दशा में प्राप्त कर रही हैं और स्त्रियों की हास्य- किरण श्रेणी उसे पालोत्पत्ति से मनोहर अवस्था में लारही हैं एष कामिनियों के शुभ्र कटाक्ष उसे पुष्प- समयोचित अवस्था में प्राप्त कर रहे हैं ||४८७॥ ji' प्रकाशसुभगैः' क० । ३. समुच्चयालङ्कार । १. उपमालंकार । २. रूपकालंकार । ३. हेतु अलंकार । ४. रूपकालंकार । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुचीय पावतः ४०१ पपोषयेषु मावति सरिस्पविन रसो बडप्रकृतिः । वसभिक स्मगुरपस्ता कथं सुशतिनो म मान्ति ४॥ सर हब विलीनीलिकामम्बरमाभावि सरुणशसिकिरणम् । मौरीविल एस्यते च किम् ॥४८९५ अभिनवयवाकुरा व कातामा कुस्तालेषु शशिकिरणाः । कपरपरागरायो भवन्ति व स्तमपटेषु विजुटान्तः १९॥ कदानि-शुष्कं कुतसैककित कणोवतसोल्पः कोर्म केलियासपिंगलिस गण्डमकीनन्दनः । सतपालवपराजैन शाश्नराम्लानमामूलस्तम्यास्त्वद्विरहेण सांप्रतमि भातर्दशा वनवे ॥४९१॥ कण्ठे मौक्तिकदामभिा प्रदलित दीनं करे फावर्षकोजी स्वधिस मृणालयलयः लिए फोले दसैः । अम्परिक कपयामि यत्परिजनैयाँसम्बनानो छटाः कान्वे स्वस्यैव सा प्रयते शोप सरोष्मणा ॥१९॥ ववागसास्याः मतदोरवस्था चिमण्यतामेकमिदं सु पच्मि । चासोमणा पापाप्रमाः प्राप्नोति नैवाथरपुम्वनानि ४१३॥ हे राजन् ! जिस चन्द्रोदय में जब नीरस (रसहीन अथवा खारा) और जहप्रकृति (जस्वभाववाला अथवा जल से भरा हुश्रा) समुद्र उद्दोलित (ज्वारभाटा-साहित-वृद्धिंगत) होजाता है तब उस अवसर पर पुण्यवान पुरुष, ओ कि सरस ( अनुराग-पूर्ण ) बुद्धिशाली और कामदेव से महान है, किसप्रकार उद्वेलित--- हर्षित नहीं होते ? अपितु अवश्य होते हैं. ॥४८॥ हे राजन् ! तरूण चन्द्र-किरणोंशला आकाश शैषातशून्य सरोषर-सरीला और विशा-समूह सधन लोधपुष्प-परागों से विशेष घूसरित हुआ जैसा (सम्पन) दृष्टिगोचर होरहा है cell हे राजन् ! चन्द्र-किरण कामिनी केशों पर विलुण्ठन ( लोट-पोट ) करती हुई नवीन यवासरों सरीखी दृष्टिगोचर होरही है और कामिनियों के स्तनतटों पर विलुण्ठन करवी हुई कपूर-धूकिसरीखी कान्तियुक्त होरही है. 188011 प्रसङ्गानुवाद-किसी अक्सर पर मैंने, जिसने विरहिणी सुन्दरियों को अवस्था-निरूपए करने में चतुर प अवसर-योग्य निम्नप्रकार सुभाषित श्लोक भाषण में प्रवीण पुरुषों द्वारा प्यारी सियों की अपराधविधि (दोपविधान) का संभालन (निश्चय) किया था, रतिविलास की अत्यन्त सत्कण्ठा से प्रान्त हुई मृगनयनी खियों के ऐसे कामज्वर की, जो कि लान-व्यापार से शून्य और औषधिरहित सुखास्तावमात्र की फया-युक्त था, ऐसे अनिर्वचनीय ( कहने के लिए मशक्य ) व्यापार द्वारा, जिसमें रोगीजन के मन द्वारा चिकिसा-सुख जान लिया गया था, वारम्बार चिकित्सा की। . विरहिणी खिों की अवस्था-निरूपक सुभाषित श्लोक-हे राजन् ! आपके विरह से उस कशोदरी प्रिया की इस समय यह प्रत्यक्ष प्रसोत होनेवाली दशा है उसके केशकलाप स्थित कुमा (कुछ खिले हुए पुष्प) मलिन होगये हैं। कर्णपुर ( कानों के आभूषण ) किये हुए कुमुद पुष अविकसित हुए है। हे राजन् ! क्रीड़ाकमल विक्षिप्त हुए हैं और उसकी गालस्थली पर लिम्पन किये हुए चन्दनरस प्रस्वेद-बिन्दुओं द्वारा प्रमालित किये गए हैं एवं उन-उन प्रसिद्ध पलयों से मनोहर शय्याएँ समूल शुल्क होगई है ॥४९१॥ हे राजन् ! उसके गले पर धारण बी हुई मोतियों की मालाएँ चूर्णित होगई है-टूट गई है। इस्त पर स्थित हुए नवीन अर म्लान होगप है। कुचकलशों की उष्णता से पचिनी-कन्दसमूहों का काढ़ा होगया है-अत्यधिक उध्य होगए हैं। गालों पर स्थित पन्न संतप्त होगप है और हे मित्र! आपको अधिक क्या कहूँ, जो चन्दनरस-धाराएँ उसके शरीर पर कुटुम्बीजनों द्वारा विक्षेपण की जाती है, वे उसकी शरीर-ऊष्मा से शीघ्र ही शुष्क होजाती है ॥ ४९२।। हे मित्र! आपके अपराध के कारण सुन्दर शरीर-शालिनी इस प्रिया की दुःखदशा क्या कही जावे ? 'सरमाः मुधियः पुस्वारता की नैव माद्यन्ति । १. श्लेष व भाशेपालंकार । २. उपमालंकार । ३. उपमालंकार । ४. समुरचयासकार । ५. समुच्चयालंकार । " ? Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ an यशस्तिलफ चम्पूकाव्ये देशजमूलमति कुतम्यस्य स्वहस्वयं लीलोला सितलोचनं विचलितभूविभ्रमत्कुन्तल । साचिप्राचिमुखं स्तनोन्नविवशाव्यस्पलीमण्डलं किंचित्स्फारतम्यमजितं साकूतमेणीदृशः ॥४९४ ॥ यस्याः स्मरशन्नविधिः । बिम्बाधरे समपैतिसृणावना हस्ते शुरुति कृतं नलिनीवालम् ॥४९५ ॥ स्वप्रस्थितितरतेः पथिक प्रियायाः प्रखानमवदशो दशनच्छत् । आपाकपाण्डुरो सरसः कपोछः शुष्यस्सरः प्रविनिर्भ नयम ४४९६४ मीराम सितं नितान्यमुद्यानसारिणिसम* खुतिरश्रुपूरः । मानतितस्तनतटास्तव कान्त कोपात्कण्ठे च मास्तरूवाः सरवाः प्रियायाः ॥ ४९७॥ स्नातस्त्वद्दिपण संम्वरमशदस्याः सरःसंगमे पाथःक्वाथविधेर्यसमभूदेसार्यताम् । मुरण्डजैस्त्रिमिकुवैस्तीरे स्थितं दूरतः शीर्ण शैलिमञ्जरीभिरभितः श्रीणं क्षणाचाम्बुः ॥ ४९८ ॥ तत्र सुभग वियोगात्परैरप्यहोभिमनसिज शरदीर्घाः वासधाराः सदस्याः । स्मरविजयपताकास्पर्धिनी वक्त्रान्सिस्त नुरतनुधनुतनयं चातनोति ४४९९ ॥ तथापि मैं एक प्रत्यक्ष अद्वितीय दुःख कहता हूँ इसकी श्वास ऊष्मा के कारण अभुजलपूर बीच में ही शुक होजाने के कारण इसके प्रोष्ठ-चुम्बन प्राप्त नहीं कर पाता' || ४६३ ॥ हे मित्र ! आपकी सुगनयनी प्रिया का कोई ऐसा अनिर्वचनीय ( कहने के लिए अशक्य ) व साभिप्राय ( मानसिक अभिप्राय सूचक ) स्वरूप है, जिसमें भुजा मूलभाग ( स्तन - युगल ) कम्पित हो रहा है और दोनों हस्त अङ्गुलि समूह द्वारा परस्पर-सन्धि ( मिलान) को प्राप्त हुए हैं। जिसमें शृङ्गारपूर्ण चेष्टा द्वारा दोनों नेत्र उल्लासित किये गए हैं और केश विचलित ( सिर के सामने आए हुए पश्चात् पीछे किये गए ) होते हुए दोनों भ्रुकुटियों पर नानाप्रकार से संचरणशील हुए वर्तमान है। जिसमें मुख तिरछा गमनशील होरहा है एवं स्तनों की ऊँचाई वश उदर-रेखा-श्रेणी विघट रही है। जिसमें नितम्ब विस्तृत होरहे हैं एवं शारीरिक अवयव संकुचित होरहे * ।। ४९४ ।। हे राजन् ! आपके दूरवर्ती होने पर कामज्वर के अतिशय-यश आपकी प्रिया को कोई वस्तु नहीं रुचती । उदाहरणार्थ- सखियों द्वारा उसके बिम्बफल सरीखे पोंठों पर स्थापित किया हुआ कमल डेंटल दूर होजाता है, क्योंकि उसे वह फेंक देती है और इस्त पर धारण किया हुआ कमलिनी- पलष उसकी ऊष्मा व शुष्क होजाता है ।। ४६५ ।। हे पथिक! आपके प्रवास से नष्ट रुचिवाली आपकी प्रिया काष्ठ शुष्क प्रवाल-सदृश व गालस्थली पके हुए पत्र - सरीखी ( शुल्क ) एवं दोनों नेत्र शुष्क सरोवर- सरीखे [ कान्तिहीन ] होगए हैं ।। ४६६ ।। हे राजन् ! आपकी प्रिया का श्वास मोष्मऋतु संबन्धी ग्रीष्मस्थल ( मरुस्थल ) की वायु सरीखा उष्ण हो गया है। हे रूप में कामदेव ! आपको प्रिया का अत्यन्त अभुपूर उद्यान सोचनेवाली कृत्रिम नदी के प्रवाह- सरीखा होगया है । हे कान्त ! आपकी प्रिया के कोप-वश वायु- अंश कण्ठ में शब्दजनक छ स्वन- प्रवेश कम्पित करनेवाले हुए हैं ||४६७।। हे मित्र ! आपकी प्रिया में इतना सन्ताप- अतिशय है जिसके फलस्वरूप जब इसने स्नान हेतु तालाव में दुबकी लगाई तब जल का विशेष पाकविधान होने से जो आश्चर्यजनक घटना हुई, उसे भ्रषण कीजिए-पक्षी बारम्बार उड़ गए। मछलीसमूह दूर किनारे पर स्थित होगया । शैवाल-मअरियाँ चारों ओर से शतस्वण्ड ( सैकड़ों टुकड़ोंवाली ) होगई और कमल क्षणभर में म्लान होगए |१४६८|| हे प्रियदर्शन! आपके विरह से आपकी प्रिया की *अयं पाठोऽस्माभिः संशोधितः परिवर्तितथ, मु० प्रतौ तु 'श्रुति' पाठः परस्य पाठेऽतिर्न घटते — सम्पादकः १. हेतु-अलंकार । २. समुचयालंकार । ३. समुच्चयालङ्कार । ४. उपभा, दीपक व समुच्च बालङ्कार । ५. उपभाव समुच्चयालंकार : ६. अतिशय व समुच्चयालंकार । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रीय आश्वासः नाभीय समावि वापसमागमेऽस्याः पायो वलित्रयमिदं पदम्तरालम् । भारिपथुमरेण मुहुर्मुहुः स्यादुत्तारहारतरख स्सनमण्ड च ॥१०॥ धम्यस्त्वं नयनाम्बुर विरहव्याजाहिर्यन्मुहुः प्रादुर्भूय विलासिनीषु लमसे संभोगकेलिमम् । नेत्रे कवलितः कपोलकरलो. चित्रा सगगोडभरे शोले सनमायसिनसिप विश्व नाभिं वजन् ।।५०१५ नीलोत्पलं निएतदम्पुलवाम्बुनि मीहार सरलयुति चन्द्रविम्बम् । विम्मीफलं व सुदृसास्तव विप्रियेग विद्राणविद्रुमलप्तानवपलवामम् ॥१०॥ क्वेद कार्य क्स च मनसिजः स्फारवाणप्रहार क्वार्य तापः क्व च निरवधिर्वाष्पपूरप्रचारः । स्वैषा मूछा क्स च कुलपटपेलणघासकल्पः क्यासौ लम्बा क्व च मगहशनिमेष प्रजपः ।।५०३॥ सम्पार्थनतस्त्वयि + स्मृतिनिशापाया मुग्धया इसप्रक्षुषि यादकः कृतमिदं विम्याधरे कामम् । कण्ठे कामिगुणोपितः परिहिसो हारो नितम्बस्थले केयूर धरणे धृते विरसित हस्ते च विझीरकम् ॥५०४॥ स्वास-संततियाँ पाँच अथवा छह दिनों में ही काम-बाण-सरीखी विस्तृत होगई और उसकी मुख-कान्ति उक्त विनों में ही कामदेव की विजयपताका से स्पर्धा करनेवाली (उसके समान शुभ्र) होगई एवं प्रस्तुत दिनों में ही आपकी प्रिया का शरीर कामदेव की धनुष-टोरी सरीखी कशता यिस्तारित कर रहा है ||४६६॥हे सुभग! आपकी प्रिया का नाभिरूपी ताजाव अश्रुजल-समागम होने पर भैयररूप कम्पनातिशय से स्खलित होरहा है-चाँध तोड़ रहा है और उदररेखारूपी तीनों नदियों अश्रुजल के परिणामस्वरूप बहुलता से मध्यभाग तोड़नेपाली होरही हैं एवं आपकी प्रिया का स्तनमण्डल विशेष उज्वल मोतियों की मालाओं से वारम्वार चश्चल होरहा है" ।।५००11 हे नयनाम्बुपूर ! (हे प्रिया के नेत्रों के अश्रुजलप्रवाह !) तुम्ही धन्य (पुण्यवाम्) हो। क्योंकि प्रिया के हृदयमध्य स्थित हुए नाभि ( मध्यप्रदेश) प्राप्त किये हुए तुम विरह-मिष ( बहाने ) से बारम्बार बाहिर निकलकर सियों में संभोग ( सुरत) कीड़ा-कम प्राप्त कर रहे हो। अब उक्त संभोग क्रीड़ा का क्रम प्रकट करते हैसुम ( अनुपूर) नेत्रजल के बहाने से दोनों नेत्रों में कमलित (श्यामवर्णशाली) हुए हो, गालस्थल-पट्टक पर चित्र हुए हो और ओष्ठों पर स्थित हुए रागवाम् हुग हो एवं कुचकलशों पर प्राप्त हुए प्रालिजन करनेवाले होगये हो तथा त्रियलियों ( उदर-रेखाओं । पर प्राप्त हुए आलिङ्गन किये गर हुए हो ॥५०१।। राजन् ! आपके विरह-दुःख से आपकी प्रिया के दोनों नेत्ररूपी नीलकमल गिरते हुए जलबिन्दुओंवाले मेघ की शोभा. धारक हुए हैं तथा मुखचन्द्र, जिसकी वल्युति ( अवयव-कान्ति ) हिम से धूसर । आपके विरह से उज्वल) है, ऐसा होगया है। हे सुभग ! आपकी प्रिया का बिम्बफल-सरीखा ओष्ठ ऐसा होगया है, जिसकी कान्ति मलिन विद्रुम- मूंगों) लता के नवीन पल्लयों सरीखी है ॥५०२॥ हे राजन् ! कहाँ तो श्रापकी मृगनयनी प्रिया की शरीर-कशता और कहाँ उसके ऊपर किया गया कामदेव के प्रचुरसर बाणों का निष्ठुर प्रहार । कहाँ यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाला आपकी प्रिया का ताप और कहाँ मर्यादा उसानकारक ( दोनों नेत्रतट भरनेवाला) भवप्रवाहरूप प्रतीकार। कहाँ तो यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली मूछा (नष्ट-चेतनता) और कहाँ वह कुचपट ( स्तन-वा--काँचली) कम्पित करनेवाला वासविधान और कहाँ तो यह प्रत्यक्ष प्रवीत होनेवाली आपकी प्रिया की लज्जा और कहाँ यह प्रजल्प (वेलजापूर्वक किया हुश्रा प्रलपन) यह सब आश्चर्यजनक है" ॥५०॥ हे राजन् ! आपकी स्मृतिरूपी रात्रि का प्रवेश होजाने के कारण उस मुग्धा (यथावत्स्वरूप कृतसंगमतिमलिभिः । थारगुरतु ? नाभि नजर' क । स्मृतिषशाषेशात्तया' च । १. समुच्चय र उपमालंकार । २. रूपक ष समुन्चनाकार । ३. रूपक व समुच्चयालंकार । ४. कवलोपमारूपस्य कवलालंकारः। ५. विषमोपमालकार । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये रम्मास्तम्भौ खरभुवो प्रोलसमाधमूल कन्दवाई किसयमदः प्रिस्फुटकुमाधि । मीला चानुदलघयोदशिते देह एष प्रायस्वापस्तदपि च सखे कोऽन्यपूर्वस्तरूण्याः ॥१०॥ निवाः सपनीष न दृष्टिमार्गमामाति तस्याः क्षणाक्षणेऽपि । सखीचने चोपनतेऽप्युपान्ते शून्यस्थिताया इव प्रेरितानि ॥५०६॥ कामस्यैतस्परमिह रहो यन्मनःप्राविकल्यं तस्मादेष चलति नितरामङ्गमाधुर्यहेतः । कामं कान्वास्तनु रसिकाः प्रीतये कस्य न स्युस्सत्रास्त्रादः क हव हि सखे पा म पक्या मृणास्यः ॥१०॥ बायोइतिः प्रविरला नयनान्तरले नासान्सरे च मसः स्तिमितप्रचाराः। तपा प्रशाम्यति सुधाचमनाविधाओं का तागमे चिरहिणीपु : मृगीक्षणास ॥५०॥ न जाननेपाली कोमलाङ्गी) ने बन्धुओं की प्रार्थना से पैरों में लगाने योग्य लाक्षारस नेत्रों में लगा लिया और यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर कजल ( नेत्राअन ) बिम्बफल सरीखे श्रोठों पर लगा लिया एवं करधोनीगुण कण्ठ पर स्थापित कर लिया तथा हार नितम्यस्थल पर धारण कर लिया। इसीप्रकार उसने केयर चरणों में धारण कर लिया तथा नूपुर पैर की जगह हाथ में पहन लिया ।। ५०४ ।। हे मित्र! सम्पापनाशक निम्नप्रकार शीतल तल विद्यमान रहने पर भी आपकी तरुणी प्रिया में कोई अनिर्वचनीय ( कहने के लिए अशक्य ) व अपूर्व सन्ताप बहुलता से वर्तमान है। सदाहरणार्थ-सन्तापध्वंसक तत्वों की दृष्टान्तमालाकेलों के स्तम्भ-सरीखे दोनों ऊर अथवा यो कहिए कि अरुरूप केलास्तम्भ, जो कि नाभिरूप कुए के चट पर उत्पन्न हुए हैं, विद्यमान है तथापि आपकी प्रिया का ताप नष्ट नहीं हुआ। इसीप्रकार कन्वयुगल सरीखा स्तनयुगल अथवा रूपकालैकार के दृष्टिकोण से यह कहिये कि स्तनयुगलरूपी कन्दयुगल, जो कि त्रिवली ( तीन रेखाएँ) रूपी नाल-मूल (कमल-डंठल ) से सुशोभित हुआ वर्तमान है, तथापि आपकी प्रियतमा का ताप नहीं गया। इसीप्रकार यह चरणपल्लव, जिसमें हास्यरूप पुष्प कलियों की शोभा विकसित होरही है, विद्यमान है, तथापि ताप प्रलीन नहीं हुआ एवं दोनों नेत्ररूपी नीलकमल, जिनके ऊपर महान केश-समूह रूप पत्र-समूह स्थापित किया गया है, वर्तमान हैं तथापि आपकी प्रिया का ताप दूर नहीं हुआ। हे राजन् ! विशेषता यह है कि उक्त सभी सन्तापनाशक तत्त्व आपकी तरुणी प्रिया के शरीर में सुशोभित हुए पाए जाते हैं, तथापि उसका ताप नहीं गया ॥ ५०५॥ हे राजन् ! उस आपकी प्रिया को रात्रि के अवसर में भी [विन के अवसर की दो बात ही छोड़िए ] निद्रा सपत्नी सरीखी दृष्टिगोचर नहीं होती एवं सखीजनों के समीप में आने पर भी उसकी चेष्टाएँ ( कर्तव्य ) पिशाचों द्वारा गृहीत हुई सरीखी होती है । ५०६ ॥ हे मित्र ! इस संसार में 'चित्त से चाही हुई वस्तु से प्रतिकूलता ( विपरीतता ) उपस्थित करना' यह निश्चय से कामदेव का गोप्यतत्व है। मनचाही वस्तु की प्रतिकूलता के कारण शरीर की सुकुमारता का कारण यह कामदेव विशेषरूप से उद्दीपित होता है। तत्पश्चात ( काम-ज्वलन के अनन्तर)त्रियाँ विशेष रसिक (अनुरक्त) होती हैं, वे रसिक खियाँ किस पुरुष को उल्लासित नहीं करती ? अपितु सभी को उल्लासित करती है। हे मित्र! उन रसिक सियों में कैसा आस्वाद है? इसका स्पष्ट उत्सर ग्रहो है कि जो रसिक रमणियों पकी हुई दाँखों सरीखी नहीं है ॥५०७ ।। हे मित्र! विरहिणी स्त्रियों के लिए जब पति-संयोग होता है तब उनमें क्या क्या लक्षण होते हैं? उनके नेत्रों के मध्य अश्रुजलोत्पत्ति अल्प होती 'प्रस्फुरत' का। 'चायदतनुदलोदयिते' क० । * 'मृगेक्षणासु' क । १. समुच्चयालझार । २. उपमा, रूपक व समुच्चयालद्वार। ३. उपमालंकार । ४. हेतूपमालंकार । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतीय भावास: प्रमप्रदानसलिलं नवनामधाराः श्वासः समागमनसंलयमाप्रताः। मौनं पुनर्भवति केलिकृतो सच्चाटु काम्ले नते कलहितास विलासिनीपु ॥६०९॥ नेनान्तर्गतबाष्पबिन्दु विशश्वासानिलान्दोलित मन्दस्पन्दरयच्छदं प्रविलम्मानमहम्यि च । वयनारदर्श स्वदोषविगमालप: पीव मानरमायाङ्गिला निमाविधिक कामागमाछोपितम् ॥११॥ सरस्माकमास मेनयोजिमश्रीरघरदलमराग पत्रशून्यः कपोलः । अवसि च न वसंसः कामिनीना रतान्ते तदपि यदनदेशे शान्सिरम्यद काचित् ॥११॥ अफवलयबासनाकुलं मालमेतरसनसनकान्तिनांडिसालक्तकेन । मसि न कुषमया मालाच कण्ठे प्रणपकुपित्तकारतासंगमे कामुकानाम् ॥११॥ है, नासिका को मध्य वायु अल्पसंधार करनेवाली होती हैं। अर्थात्-उनके नासिका-छिद्रों से वायु धीरे धीरे आती है एवं उनका शरीर-सम्ताप उसप्रकार शान्त होजाता है जिसप्रकार अमृतपान से ताप शान्त होजाता है। ॥५२८ ।। हे राजन् ! जब अपित की हुई स्त्रियों के प्रति पति नम्रीभूव होजाना है तब उसका क्या परिणाम होता है ? तब निम्नप्रकार उल्लास अनक घटनाएँ होती हैं तब उनके नेत्रों से प्रकट हुए श्रानन्द-अश्रुओं की प्रेमधाराएँ स्नेहार्पण-जल में परिणत होजावी हैं। अर्थात्-रसिक व अनुकूल स्त्री कहती है कि हे पतिदेव ! मैं आपको प्रेम दूंगी' ऐसी प्रतिज्ञा करके हस्त पर जलपान होता है जिसप्रकार ब्राह्मणों के लिए जलधारापूर्वक कुछ दिया जाता है। इसीप्रकार श्वासवायु. 'हे स्वामिन् ! फ्धारिये' इस समागम-वयन के पूर्वदूत होती है एवं संभोग-क्रीमा के अवसर पर चाटुकारिता ( मिथ्यास्तुति) सहित मौन होता है। अर्थाम्-वे पुनः पति का अनायर नहीं करती || ५० ।। हे मित्र! आलिशानपूर्वक ऐसा मिया का मुख बारम्बार चुम्बन कीजिए, जिसमें नेत्रों के मध्य आनन्दाश्रु की जलबिन्दुएँ वर्तमान हैं। जो विवश ( परवश या स्वषश ) श्वास-बायु द्वारा कम्पित व कुछ फड़कते हुए प्रोष्ठों से व्याप्त है। जिसमें अभिमानरूप पिशाच की ग्रन्धि (गाँठ-अन्धनविशेष ) के शतखण्ड ( सैकड़ों टुकड़े) होरहे हैं। अभिमानरूप दोष के नष्ट होजाने से जिसमें सन्ताप-अवस्था नष्ट होरही है। जिसमें पुनः चित्त उल्लासित होरहा है। जो निषेध-वचन की प्रेरणा करनेवाला है एवं जो अल्प कोप-सहित है। ॥ ३१॥ हे राजन् ! कामिनियों के साथ की हुई संभोगक्रीम के अन्त में यद्यपि उनका केश-समूह सरल होता है ( वाकता छोड़ देता है), नेत्रों में अमन-श्री (शोभा) नहीं होती, उनका ओष्टपल्लव पान किया जाने के फलस्वरूप राग( लालिमा ) हीन होता है, उनके गालों की पत्ररचना ( कस्सूरी-श्रादि सुगन्धि द्रव्य से की गई चित्ररचना) नष्ट होजाती है और उनके कानों में कर्णपूर नहीं होते तथापि उनके मुखमण्डल में कोई अपूर्व व अनिर्वचनीय कान्ति होती है ।। ५११॥ हे राजन् ! प्रणय( प्रेम ) कुपित श्री के साथ संभोग करने में कामी पुरुषों का लखटपट्ट स्त्री के फेश-समूह को सुगन्धि या निवास से व्याप्त नहीं होता और उनकी श्रोष्ठ कान्ति लाक्षारस-व्याप्त नहीं होती [क्योंकि उन्हें प्रणय-कुपित प्रिया के लाक्षारस-रञ्जित ओष्ट-चुम्बन का अवसर ही प्राप्त नहीं हो पावा] एवं उनके सृदय पर प्रिया की स्तन-मुद्रा (कुच चिड) नहीं होती तथा उनके गले पर अगद- खी-भुजा. आभूषण ) चिह्न मी नहीं होता ॥५१२ ।। १. उपमा व समुच्चयालंकार। २. रूपकालंकार । १. रूपकालंकार। . समुरचयालंकार । ५. दीपचालझार। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 यशस्तिवकपम्पूकाव्ये इति विप्रलसंधीदसावेदमविधायदैरबसरसुभाषितभाषाकोपिदैः संभालितभापराविधिरव्येय केनविवारजनलवविदितप्रतीकारशर्मगा कर्मगा मुहुरहानांपचारमानौषधोपयोगोदाहारमतीच रमणीमानामेमानो स्मरस्वरमचिकित्सम् // उम्मीलनुकोन्द्रसभानुभगाम्याविभूपतिश्रीचिकानि जिनेक्षणागतसममेणीविमानानि / पूजार्जनसबदुन्दुभिस्वोधावप्रमोदोश्यादित्य त्रीण्यपि यस्य जग्मनि बगस्यासम्स बोयाबिगः // 21 // लोकविर कवित्वे वा यदि चातुर्यशत्रवः / सोमदेवकोः सूतीः समस्पस्थान साधयः // 114 // इति सम्माकिलोकशामणः श्रीमन्नेमिदेवभगवतः शिध्येण सोमयागमपचविषापरणामतिविमण्डमम्मीभववरणकमलेन भीसोम देवसूरिणा विरविते यशोधरमहाराजारित यशस्सिलकापरनाम्नि महाकाव्ये रामलक्ष्मीनिमोक्नो नाम तृतीय आवासः समासः। अन्त्यमङ्गल--यह जगत्मसिद्ध ऐसा जिनेन्द्र (सर्पज्ञ वीतराग ऋषभावि-ती ) आपकी रक्षा करे, जिसके जन्मकल्याणक के अवसर पर तीनों लोक ( अधोलोक, मध्यलोक और अयलोफ) पूजा-निमित्त सुसजित हुए दुन्दुभिवाजों के शब्दसंबंधी उत्सव की हर्षोत्पत्ति होने से क्रमशः इसप्रकार हुए। अर्थान-अधोलोक पाताल से प्रकट होते हुए नागकुमार-भवनों से पुण्यशाली हुए। इसीप्रकार मध्यलोक चक्रवती-आदि राजाओं की जिनगों के सार होनेत ते निहो / वजा, छत्र व चामर आदि) से सशोभित हुए एवं ऊर्चलोक पभावि तीथेवरों के दर्शन-हेतु आए हुए देव-समूहों के विमानों से अधिष्टित हुए // 513 // यदि विद्वान् लोग लोकव्यवहार परिवान अथवा काव्यकला-चातुर्य ( विद्वत्ता) में निपुण होना चाहते हैं तो सोमदेवाचार्य की सूक्तियों ( सुभाषितों) फा अनुशीलन (भभ्यास) करें // 514 / / इति भद्रं भूयात् / / ___ इसप्रकार समस्त तार्किक-( षड्दर्शनवेसा) चक्रवर्तियों के चूडामणि ( शिरोरत्न या सर्वश्रेष्ठ) श्रीमवाचार्य 'नेमिदेव के शिष्य 'श्रीमत्सोमदेवसरि थाप, जिसके चरणकमल तरकाल निर्दोष गप-पद्य विद्याधरों के चक्रवतियों के मस्तकों के आभूषण हुए है, रखे हुए यशोधरमहाराजपरित' में, जिसका इसन नाम 'पशस्तिलकचम्पू महाकाव्या है, 'राजलक्ष्मीविनोदन' नाम का तृतीय भाषास पूर्ण हुआ। ___ इसप्रकार दार्शनिकचूडामणि श्रीमदम्बादास जी शास्त्री व श्रीमत्पूज्यपाद आध्यात्मिक सन्त श्री 105 क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य के प्रधान शिष्य, नीतिवाक्यामृत' के भापाठीफाकार सम्पावर प्रकाशक, अनम्यायतीर्थ, प्राचीनम्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ व आयुर्वेदविशारद पर्ष महोपदेशक-मादि अनेक उपाधि-विभूषित, सागरनिवासी परवारजनजातीय श्रीमत्सुन्दरलाल शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेवसुरि-विरचित 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य' को 'यशस्तिलकदीपिका' नाम की भाषाटीका में यशोधरमहाराज का 'राजलक्ष्मीविनोद वर्णन' नाम का सृतीय भावास ( सर्ग) पूर्ण हुआ। इघि भद्रं भूयात् *"विधिभिरन्यनय क धिनीषधोपयोगोदाहरणमतीय रगारीमानामा क.। 1. अतिशय समुच्ययालार। 2. समुस्थालवार /