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________________ १४ यशस्तिलका mere सर्वसारं विधिना दर्शवितस्य लोकस्य । अमरपुरीलक्ष्मी मम् सृहं प्रयशने ॥ ४६ ॥ समोसमर्थः प्रभवेस्कुस एक तत्र रिपुलोकः । टिस्पर्शभयादिव मध्ये प्राकारनिमणिम् ॥ ४७ ॥ परिचायक परकृतमाभाति समन्ततः पुरं रम्यम् आयसनिगदनिव सुरहरणभयादिव जमेन ॥ ४८ ॥ विष-सोधमूर्ध मत्रोकैः कुम्भाः काञ्चनकल्पिताः । भान्ति सिद्धवाः शेषाः सिद्धार्थका इव ॥ ४९ ॥ विलासिनीर्यत्र विनिर्माय न बोक्ने मनविभ्रमभीव व्यधावनगोचराः ॥ ५० ॥ एममध्वंसियुत्रलोकविलोकनात् भार सर्वदा म पुराणपुरुषी हृदि ॥ ५१ ॥ काकामिनी भयादिव नमात्मजा । विवेश हरदेश सदनवरा ।। ५२ ।। यत्र जानवर प्रसाधितालका मरोपकारैः, अलिका हूणरङ्गवङ्गारिताकोरिभि:, उपसर्पितविलासविकापाविरल हम ऐसी उत्प्रेक्षा करते हैं- जो राजपुर नगर अत्यन्त मनोहर होने के फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होता था मानों - मध्यलोक की जनता को स्वर्गपुरी की शोभा दिखने के लिए ही ब्रह्मा ने सर्वोत्कृष्ट वस्तुएँ ग्रहण करके अत्यन्त सावधानी से इसका निर्माण किया था |२४६|| जिस नगर को नष्ट करने के लिए जब यमराज भी समर्थ नहीं हैं तो उसे शत्रु-लोक किसप्रकार नए कर सकते हैं? तत्राऽपि - शत्रुकृत भय न होने पर भी प्राकार ( कोट की रचना में हम ऐसी कल्पता करते हैं कि धूलि द्वारा स्पर्श होजाने के डर से ही मानों - अर्थान - यह धूलि - धूसरित ( मलिन ) न होने पावे इसी हेतु से ही उसके चारों ओर फोट की रचना की गई थी* ||४|| चारों ओर खातिका - ( खाई ) मण्डल से विभूषित हुआ अतिशय मनोहर जो नगर सर्वत्र ऐसा शोभायमान प्रतीत होता था मानों अत्यन्त रमणीक होने के कारण - 'कहीं देषता लोग ईर्ष्या-वश इसे चुरा न ले जॉय' इस डर से ही वहाँ के पुरुषों द्वारा लोहे की सौंफल से जकड़ा हुआ शोभायमान होरहा था रे ||४८ || प्रस्तुत राजपुर में कुछ विशेषता है जहाँपर राजमहलों के उच्च शिखरों पर स्थापित किये हुए सुवर्णकलश ऐसे अधिक शोभायमान होते थे मानों- देवषिशेषों की कमनीय काभिनियों द्वारा आरोपित की गई मस्तकों पर सेपी गई - पीले सरसों की आशिकाएँ ही हैं क्योंकि शिकाएँ भी तो मस्तकों पर क्षेपी जाती है || ४६ ॥ जहाँ की कमनीय कामिनियाँ श्वनी अधिक खुबसूरत थी कि ब्रह्मा ने पहिले उन सुन्दरियों की रचना को सही, परन्तु पश्चात् उनकी जवानी अवस्था में उन्हें उसने अपने नेत्रों से नहीं देखा । क्योंकि मानों उसे अपने चित्त के चलायमान होने का भय था ॥ ५० ॥ कामदेव की सर्वोत्कृष्ट सुन्दरता के अभिमान को नष्ट करनेवाले वहाँ के अत्यन्त खुबसूरत नवयुवक समूह को देखने से ही मानों - पुराणपुरुष - श्रीनारायण ( श्रीकृष्ण ), अपनी प्रियतमा लक्ष्मी को हमेश अपने वक्षःस्थल पर धारण करते थे। ( क्योंकि मानों उन्हें इस प्रकार की आशङ्का थी कि कहीं हमारी लक्ष्मी यहाँ के सर्वोत्तम सुन्दर नवयुवकों को न चाहने लगे! क्योंकि अनोखे सर्वाङ्ग सुन्दर नवयुवक को देखकर कौन रमणीक रमणी पुराण पुरुष - जीर्ण वृद्ध पुरुष से प्यार करेगी * ॥ ५१ ॥ जिस नगर की कमनीय कामिनियों के साथ रति विलास करने की आशङ्का (भय) से ही मानों पार्वती परमेश्वरी, अपने प्रियतम शिवजी की रक्षा में तत्पर होती हुई – महादेव के व्यभिचार की आशङ्का से भयभीत होती हुई उनके आधे शरीर में प्रविष्ट हुई ।। ५२ ।। जिस राजपुर नगर में कामदेवरूप महाराज कुमार ने, मदनोत्सब के ऐसे दिनों में, ( श्रवण मास २. आक्षेप उत्प्रेक्षालंकार । ३. उरप्रेक्षालंकार । ४. उत्प्रेक्षा व उपमालंकार | ६. हनुगर्नितं त्प्रेक्षालंकार । ७. उमेशालंकार | १. कार ५. श्लेष व उत्प्रेक्षालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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