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________________ तृतीय आश्वास: संध्या प्रतिवासरं विष्टतिर्यद्वा प्रमाणाञ्जलि योगस्त्रापमुपेश्य दुग्धजलधौ शेषाश्रितः श्रीपतिः । शंभुष्ययति चाक्षसूत्रवलयं कृत्वा करेऽनन्यधीदेवि त्वद्वयमिदं सर्वार्थकामप्रदम् ॥ २६६ ॥ भावेन दुहि रसेन इरिभिर्नृ न कामारिभि* सिजनैर्नभश्वरगणैर्वृच्या प्रवृत्या सुरैः । सिद्ध्या चारणमण्डलैर्मुनिकुलैरस्वं देवि सप्तस्वरैरातीथेन च नन्दिभिः कृतनुतिर्गानेन गन्धर्विभिः ॥ ३३७ ॥ नानावर्थो न तचितं न ताश्चेष्टाः शरीरिणाम् । पदझ्याङ्कितं देवा यह सुनत्रये ॥ २६८ ॥ ३१९ निवास करती है उसीप्रकार सरस्वतीरूपी राजहंसी भी देवताओं के मुखकमलों में निवास करती है। जो विद्याधरों के कानों को विभूषित करने के लिए माणिक्य- पक्ति है। अर्थात जिसप्रकार माणिक्य श्रेणीकरण होती हुई कानों को अलङ्कृत करती है उसीप्रकार सरस्वती देवीरूपी माणिक्यश्रेणी भी विद्याधरों के कार्नो को विभूषित करती है एवं भूमिगोघरी मानवों के हृदय को अलङ्कृत करने के लिए मोतियों की माला है । अर्थात् जिसप्रकार मोतियों की माला पहनी हुई वक्षःस्थल को सुशोभित करती है उसीप्रकार सरस्वती देवीरूपी मोतियों की माला भी भूमिगोचरी मानवों के हृदय को सुशोभित करती है ' ||२६५|| हे देवी सरस्वती ! ब्रह्मा एकाग्रचित्त हुआ प्रत्येक दिन तीनों (प्रातःकालीन, मध्याह्नकालीन व सायंकालीन ) संध्याओं में प्रमाणाञ्जलि ( हस्तपुट-बन्धन संबंधी प्रधान अजलि ) बाँधकर ध्यान निद्रा को प्राप्त होकर समस्त धन व काम ( स्त्री संभोग ) को देनेवाले तेरे चरण कमलों के युगल का ध्यान करता है एवं श्रीनारायण एकाप्रचित्त होकर प्रत्येक दिन तीनों संध्याओं में क्षीरसमुद्र में नागशय्या पर आरूढ़ हुए समस्त धन व काम को देनेवाले तेरे चरणकमल-युगल ध्यान करते हैं तथा श्रीमहादेव एकाग्रचित्त हुए रुद्राक्षों की माला ( जपमाला) हस्त पर धारण करके तेरे चरण कमल के युगल का, जो कि समस्त धन व स्त्री संभोग रूप काम को देने वाले हैं, ध्यान करते हैं " || २६६ || सरस्वती देवी! तू ब्रह्मा व ब्रह्मानाम के कविविशेषों द्वारा ४६ प्रकार के भावसमूह से, नारायणों व कंविविशेषों द्वारा शृङ्गारश्रादि रसों से, रुद्रों और कचि वशेषों द्वारा नृत्य ( शिर, भ्रुकुटि, नेत्र व श्रीवा-आदि सर्वानों के संचालन रूप नृत्यविशेष ) से आकाशगामी देवविशेष-समूह द्वारा अ सिद्धनाम के कवि समूहों द्वारा प्रवृत्ति से, सुरों (देवों ) श्रीर सुरनाम के कविविशेषों द्वारा प्रवृत्ति से य 'आकाशगामी चारणसमुद्दों द्वारा मानसिक, वावनिक व देवसिद्धिपूर्वक वर्णन करनेयोग्य हो एवं मुनिकुल ( ज्ञानी समृद्द ) व मुनिकुल नाम के कविविशेषों द्वारा सप्तस्वरों (१. निषाद, २. ऋषभ, ३. गान्धार, ४. पड्ज, ५. धैवत, ६. मध्यम व ७ पंचम इन बीणा के कण्ठ से उत्पन्न हुए सात स्वरों) से स्तुति की जाती हो। इसीप्रकार रुद्रगणों द्वारा अथवा कविविशेषों द्वारा तू श्रतोध ( तत, वितत, धन व सुषिर नाम के चार प्रकार के बाजे विशेष ) से स्तुति की जाती हो एवं नारद-आदि ऋषियों द्वारा अथवा कविविशेषों द्वारा गानपूर्वक स्तुति की गई हो || २६७ || ऐसी कोई जीवादि वस्तु नहीं है और वह मन भी नहीं है एवं वे जगत्प्रसिद्ध प्राणियों की चेष्टाएँ भी नहीं हैं, जो कि तीनों लोकों में सरस्वती परमेश्वरी के स्यात्. ( अनेकान्त ) लक्षणवाले चरण कमलों के युगल से चिह्नित नहीं है । अर्थात्-तीन लोक के सभी जीवादि पदार्थ व प्राणियों के चित्त एवं चेष्टाएँ आदि सभी वस्तुएँ सरस्वती परमेश्वरी के स्यात् ( अनेकान्त ) लक्षण युक्त चरणकमल-युगल से चिह्नित पाए जाते हैं। क्योंकि सरस्वती परमेश्वरी ( द्वादशाङ्ग वज्ञान) द्वारा संसार के सभी पदार्थ जाने जाते हैं ||२६|| • ii 'प्रणाम । लियोग०१ ५.०२ * 'धर्मा सिद्धजनैर्नभश्वर क० १. रूपकालंकार । २. समुच्चय, दीपक, रूपक व अतिशयालंकार । ३. दीपक व समुच्च मालंकार । ४. अतिशयालंकार |
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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