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________________ १२० यशस्विकपम्पचय मानससरोविमिर्गतसितसरसिकास्थितेः सरस्वत्याः । वरवर्णकीकान्तिः पुष्पाजरिस्त गाना ॥ ३५॥ इति पूर्वराबायकमप्रवृत्तं सरस्वतीस्कृतिसं नुसं नात्यविद्याधरसाण्डवचण्डीशपमुख्नसंकशिरोमणिभिरन्तर्वाणिमिः प्रयोगमीविचित्राभिनयत नर्भरतपुत्र सत्रावलोकपामास । आसाथ लक्ष्मी भुतिरष्टिमा म सन्ति मेर्णा भरतप्रयोगा: पामियं श्रीतकाङ्गशोभासमानपत्ति निर्यिका ॥७० कदापिनुदातिसरस्वतीरहस्यमुद्राकरणरेषु महाकविकाम्यकथाकापु प्रमाणापमहोत्सवपौरुषल्य लक्ष्मीः स्वयंवरविधी विहिवारा पार । पिन न तत्वगत्रयरक्षणस्म कीर्तिप्रिया भ्रमति यसव सम्मु चित्रम् ॥ १॥ हरगिस्यन्ति महीधाः शोरोस्पयन्ति वार्धयः सर्वे । सब देव परासि विसरचि सोपम्ति गन्ति च त्रीणि ।। २.१॥ मानसरोवर में विकसित हुए श्वेत कमल में निवास करनेवाली सरस्वती देवी की नाट्य भूमि पर होनेवाली पूजा के निमित्त मनोहर श्वेत-पीतादि वर्गों से व्याप्त हुई कान्तिवाली पुष्पालि समर्पित हो ॥२६६|| जो धनाध्य पुरुष अथवा राजा लोग लक्ष्मी (धन) प्राप्त करके गीत, नृत्य व धादित्रों के सबाहरण अपने कर्णगोचर व नेत्रगोचर नहीं करते, उनकी लक्ष्मी मुर्दे के शरीर की शोमा ( फूलों की मालाओं, चन्दन लेप व आभूषणों से अलकृत-सुशोभित करना ) सरीखी व व्यर्थ है। अर्थात्-जीवों के बाजों के मधुर शब्दों को करेंगोचर न करनेवाले ( न सुननेवाले ) और नृत्य न देखनेवाले धनान्य पुरुषों की लक्ष्मी उसप्रकार व्यर्थ है जिसप्रकार मुर्दे के शरीर को पुष्पमालाओं, पन्दनलेप व आभूषणों से अलस्कृत करके सुशोभित करना व्यर्थ होता है ॥२०॥ किसी समय मैंने ऐसे महाकवियों की काव्यकथा के अवसरों पर, जिनमें सरस्वती संबंधी रहस्य (गोप्यतस्य) के चिलुवाला पिटारा प्रकाशित किया गया था, ऐसे 'पण्डित तामि' नामके कवि का, जो कि अवसर के बिना जाने निमप्रकार काव्यों का उपहारण कर रहा था व जिसके फलस्वरूप अपमानित किया गया मा पर्ष जो निमप्रकार महाम् कष्टपूर्वक कटु वचन स्पष्टरूप से कह रहा था (अपनी प्रशंसा कर रहा था), विशेष अहसार (मद ) रूप पर्वत का भार निमप्रकार श्लोक के अर्थ संबंधी प्रश्न का उत्तर-प्रदानरूप इस्त द्वारा उताप। अर्थात्-उसका महान मद चूर-चूर किया । 'पण्डित वैतडिक' नामके कार के काव्य हे राजम् ! ब्रह्माण्ड (लोक) के विवाहमण्डप (परिणयन शाला) संबंधी महोत्सष में घर होने की योग्यवावाले आपकी लक्ष्मी, जो स्वयं आकर के आपका वरण ( स्वीकार ) करने में आदर करनेवाली है, इसमें आर्य नहीं है, परन्तु जो तीनलोक की रक्षा करनेवाले आपको कीर्तिसपी प्यारी सी सर्वत्र घुम रही है, षही आश्चर्य जनक है ||२७|| हे राजन् ! जब आपकी [ शुभ] कीर्ति समस्त लोक में फैली हुई है व उसके फलस्वरूप [ समस्त ] पर्वत, कैलाशपर्वत के समान आचरण करते हैं-उज्वल होरे । और लवण समुद्र-आदि सभी समुद्र क्षीरसागर के समान आचरण करते हैं। अर्थात्-शुभ्र होरहे हैं एवं तीनों लोक सुधा से धवलित ( उज्यल ) हुए आचरण कर रहे हैं ॥२७२।। सावं सत्रा समं सह' इत्यमरकोशप्रामाण्यादयं पाठोऽस्माभिः संशोधितः परिवर्तितध, मु. प्रतौ तु समिति खविम्बः पाठः-सम्पादकः । 1, सपकालंकार । २, उपमालंधर। ३, हेतु अलंकार । ४. कियोपमालंकाए । ५, केप माहेपालकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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