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सृजीय काश्वासः
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गिरिषु धृता भूमिभूतः पृथ्वीभारा निजभुजे निहितः । को नाम बलेन नृप स्वया समः सांप्रतं भुवने ॥ २७३ ॥ इति प्रस्तावमविज्ञाय पटतः कृतामलक्ष्य पण्डितकस्य कवेः
सकल कविलो कथाका प्रमर्दनः स्वात एव भुवनेऽस्मिन् । कथमिद संप्रति भवता समागतो नावबुद्धम् ॥ २७४ ॥ कथंचिकट्वदं वदतः
त्रिमूलकं द्विवोत्थानं पखं चतुरदम् । योऽगं चेति नवच्छायं दशभूमि स काव्यकृत् ॥ २७६ ॥
हे राजन् ! संसार में इस समय आपके समान शक्तिशाली कौन है ? अपि तु कोई नहीं । क्योंकि आपने भूमिभृतों (पर्वतों अथवा राजाओं) को पर्वतों पर स्थापित किया । अर्थात् शत्रुभूत राजाओं को युद्ध में परास्त करके पर्वतों की ओर भगा दिया एवं आपने पृथ्वी- भार अपने दक्षिण हस्त पर स्थापित किया है' || २७३॥ उक्त पण्डित 'चैवण्डिक' नाम के कवि द्वारा की गई आत्मप्रशंसा
हे राजन् ! इस विद्वत्परिषत् में इस समय प्राप्त हुए मुझे, जो कि इस पृथ्वीमण्डल में प्रसिद्ध होता [ अपनी अनोखी सार्वभौम विद्वत्ता द्वारा ] समस्त कबिलोगों के समूह को चूर्ण करनेवाला हूँ ( उनका मानमर्दन करनेवाला हूँ), आपने किसप्रकार नहीं जाना ? अपितु अवश्य जाना होगा * ||२७||
उक्त कवि के प्रश्न (निम्न त्रिमूलक- आदि श्लोक का क्या अर्थ है ? ) का यशोधर महाराज द्वारा दिया गया उत्तर- जो पुरुष ऐसे काव्यरूपी वृक्ष को जानता है वही कवि है, जो (काव्यरूपी वृक्ष ) त्रिमूलक है। अर्थात् जो प्रतिभा ( नवीन नवीन तर्कणा - शालिनी विशिष्ट बुद्धि ), व्युत्पत्ति एवं भृशोत्पत्तिदभ्यास ( काव्यकला - जनक काव्यशास्त्र का अभ्यास ) इन तीन मूलों (जड़ों-उत्पादक कारणों) वाला है। जो शब्द ( रसात्मक वाक्य ) और अर्थ इन दोनों से उत्पन्न हुआ है। जो काव्यरूपी वृक्ष प्रचुरा, प्रौढा, पषा, ललिता व भद्रा इन पाँच वृत्ति (शृङ्गार भावि रसों को सूचित करनेवाली काव्यरचना के आश्रित ) रूपी शाखाओं से विभूषित है। जो काव्यरूपी वृक्ष पावाली, लाटीया, गोणी या वैदर्भी इन चार रीतियों रूपों पत्तों से सुशोभित है" ।
7' इति च किंचित्' क० । १. श्लेष व आपालंकार । २. उपमा व रूपकालंकार । ३. तथा घोकम् - प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिश्व विभूषणं ।
भृशोत्पतिकृदभ्यास इश्यायक विसंकथा ॥ १ ॥ ग० प्रति से संकलित - सम्पादक ४. अर्थात् — जो काव्यरूप वृक्ष ऐसे शब्द व अर्थ से उत्पन्न हुआ है, जो कि काव्य के शरीररूप हैं और जिनमें श्रृङ्गार आदि रस ही जीवनस्थापक है। वह ( वाक्य - पदसमूह ) का लक्षण – योग्यता, खाकाक्षा व आसयुग पदसमूह को 'वाक्य' कहते है । १. योग्यता - पदों के द्वारा कहे जानेवाले पदार्थों के परस्पर संबंध में बाधा उपस्थित न होने को 'योग्यता' कहते हैं। उदाहरणार्थ – 'जल से सींचता है यहाँ पर जल द्वारा वृक्षादि के सिंचन में बाधा उपस्थित न होने के कारण वाक्य है। जब कि 'अग्नि द्वारा सोचता है इन दोनों पदों के पदार्थों में भाषा उपस्थित होती है, क्योंकि अग्नि के द्वारा सींचा जाना प्रत्यक्षप्रमाण से बात है, अतः यह वाक्य नहीं हो सकता । २. आकांक्षा - 'इस पद का किसी दूसरे पद के साथ संबंध है इसप्रकार दूसरे पद के सुनने की इच्छा में हेतुभूत बुद्धि को 'आकांक्षा' कहते हैं । अर्थात् एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ के साथ अन्य जानने की इच्छा जवतक पूर्ण नहीं होती संगतक उसको जिज्ञासा बनी रहती है, इसलिए आकांक्षा युक्त पदसमूह की वाक्य कहा जाता है। यदि आकांक्षा-शून्य पत्रसमूह को वाक्य माना जाये तो गाय, घोड़ा, पुरुष व हाथी इस आकांक्षा शून्य पदसमूह को वाक्य मानना पड़ेगा ।
३. सति — बुद्धि का विच्छेद ( नाश ) न होना उसे को स्मरणशक्तिरूप बुद्धि का विच्छेद – कालादि द्वारा व्यवधान
'सति' कहते हैं । अर्थात् होने की आसति कहते हैं।
पूर्व में सुने हुए परों अभिप्राय है कि
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