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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
भाललोचनचाद भूनि विकटं यया जटामण्डलं बालेन्दुः श्रवणावतंसविषय: क्रीडाः सरःसंभवाः । काय: केदगर्भसुभगः स्थानं सिते चाम्बुजे सा वः पातु सरस्वती स्मितमुखध्या की वर्णावष्टिः ॥ २६२ ॥ एक ध्यानपरिप्रप्रणयिनं हस्तं द्वितीयं पुनर्जीवनिवेशिताक्षत्रलयं पुस्तप्रणस्तं परम् । विभ्राणा वर तुरीयमुचिता देवी विष्ठांक स्तुतेः पुष्याः विशालतावलयितं संकल्पकल्पमम् ॥ ३६३ ।।
कूल बनस्यन्दशीला सितसरसिजलोटा हारभूषास्तराला । + नमदमरनिरीटा प्रसरवप्रसर्वशिकरण कुसुमकीर्णा वर्णिनी वोऽस्तु भृत्यै ॥ २६४ ॥ वस वदनपIनिवाससी विद्याधरश्रवणमण्डनरवरेखा | वासमानसविभूषणहारयष्टिदेवता नृपतयातनुतां हितानि ॥ २६१ ॥
सरस्वती स्तुतिगान - ऐसी वह सरस्वती देवी आप लोगों की रक्षा करे, जो तृतीय नेत्र से मनोहर ललाट पट्ट-युक्त, मस्तक पर लगे हुए उन्नत केश-पारा से अलङ्कृत, तथा द्वितीया अथवा प्रतिपदा के चन्द्रमा के कर्णपूर से विभूषित है। जिसकी कीड़ाएँ तालाबों में उत्पन्न हुई हैं । अर्थात् जो तालाबों में स्नानआदि क्रीड़ाएँ करती है। जिसका सुन्दर शरीर केतकी पुष्प के मध्यभाग की तरह मनोहर है एवं जो श्वेत कमलों में निवास करती है तथा जिसको अक्षर पङ्क्ति कुछ खिले हुए - मुसकाए हुए- मुख में फैली हुई है' ||२६|| ऐसी सरस्वती परमेश्वरी आप लोगों के कवितारूपी लता से वेष्टित हुए मनोवाञ्छित रूप कल्पवृक्ष की वृद्धि करे । अर्थात् - मनचाही वस्तु प्रदान करें, जो अपना एक उपरितन वाम हस्त ध्यान के स्वीकार करने में स्नेह युक्त कर रही है । अर्थात् बाँए हाथ के अँगूठे व वर्जनी अंगुलि से स्फटिक मणियों की माला धारण कर रही है। जो ऊपर के दूसरे दक्षिण हस्त को क्रीडापूर्वक अङ्गुष्ठ पर स्थापित क्रिये हुए अर्ककान्त मणियों की जपमाला धारण कर रही है। जो नीचे के दूसरे वाम हस्त को पुस्तक से प्रशंसनीय बनाती हुई धारण किये हुए है। जो चौथा हाथ ( नीचे का दूसरा दक्षिण हाथ ) वरदान देनेवाला धारण कर रही है एवं जो तीन लोक में स्थित हुए भक्त इन्द्रादि देवताओं द्वारा की जानेवाली स्तुति के योग्य है* || २६३ || ऐसी अक्षरशालिनी सरस्वती परमेश्वरी आप लोगों के ऐश्वर्य- निमित्त होवे, जो उज्वल पट्ट ( रेशमी ) वस्त्र धारण करनेवाला, तरल चन्दन के चरण करने की प्रकृति-युक्त, देव पूजा निमित्त श्वेत कमलों को आकाङ्क्षा करनेवाली, मोतियों की मालाओं से अपर्यन्त - विशेष विभूषित - है एवं जो नमस्कार करते हुए इन्द्रादि देवों के मुकुटों ? पर जड़े हुए प्राचीन रत्नों की फैलती हुई किरणों की कान्तिरूपी पुष्पों से व्याप्त है " || २६४ || दे राजन् ! ऐसी सरस्वती देवी आपके लिए मनोवाञ्छित वस्तुएँ उत्पन्न करे, ओ देवताओं के मुखकमलों में निवास करने के लिए अर्थात् — जिसप्रकार राजहँसी कमलों में द्वारा अनुकरण किया जाता है— अनुकरण करके नाटक उसके चार भेद हैं-- १. आशिक, २. वाचिक, २. १. आह्निक-नाटक में, जिसमें अभिनय मूल है, नट अपने शिर हाथ, वक्षःस्थल, पार्श्व, कमर, पैर, नेत्र, भ्रुकुटि ओष्ठ, गाल आदि भोपात्रों द्वारा राम आदि नायकों की अवस्था ( साधर्म्म) का अनुकरण करता है. उसे 'आशिक' अभिनय कहते हैं । २. वाचिक — वचनों द्वारा नायक की अवस्था का अनुकरण करना। ३. आहार्य - वेष-भूषा द्वारा नायक के साम्य का अनुकरण करना । ४. सात्विक रज व तमो शून्य मानसिक शुद्ध अवस्था द्वारा नायक अवस्था का प्रायः सभी नाटकों में उक्त अभिनय प्रधान कारण है— सम्पादक अनुकरण करना ।
राजहँसी है । देखनेवालों को बोध आहार्य व ४.
कराया जाता है उसे 'अभिनय' कहते हैं । सात्विक ।
+ 'स्मितमिथ' क० । * 'स्तुता' क० । x 'कवितालतोलयिनं ऋ० । + 'नमदमर किरीटार क० । I 'निनावहंसी' क० 1 १. समुच्चयालंकार । २. दीपकालंकार । ३. अतिशयानंकार |
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