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________________ तृतीय आवासः ३१७ इममखिलावापभागप्रवृसिहेतुके श्लोक व्यचीचरम् । विना जीवितमस्वस्थे यौषधविधिथा । ता नीतिविहीनस्य वृथा विक्रमवृत्तयः ॥ २६१ ॥ कदाधिकामिनीजनचरणासतकरसरागरक्षितरङ्गसलास नाव्यशालासु राजा का शत्रु व मित्र, इसप्रकार की आठ शाखाएँ पाई जाती हैं। जिस राज्यरूप वृक्ष के साम, दान, दण्ड व भेद ये चार मूल (जड़े) हैं। जो साठ पत्तों से विभूपित है। अर्थात्-१. शत्रुभूत राजा, २. विजिगीषु राजा, ३. अपने मित्रभूत राजा के मित्र के साथ रहनेवाला, ४. शत्रुभूत राजा का मित्र, ५. अपने मित्रभूत राजा के साथ वर्तमान, ६. शत्रमित्र, ७, आक्रन्दक के साथ वर्तमान, ८.६. पाणिग्राह व आसार के साथ वर्तमान राजा, १०. आक्रन्दकों का सार ( फौज) और ११. १२. दोनों म' यस्थ, इन १२ को मन्त्री, राज्य, दुर्ग (किला), कोश व बल इन पाँच के साथ गुण करनेपर १२४५= ६० इसप्रकार जो साठ प्रकार के राजा आदि रूप पत्रों से विभूपित है और जो ( राज्यरूपी वृक्ष) देव ( भाग्य) व पुरुषार्थ (उद्योग) रूपी भूमि पर स्थित है। श्रर्थात्-जो न केवल भाग्य के बल स्थित रह सकता है, और न केवल पुरुषार्थ के बल पर किन्तु दोनों के बल पर स्थित रहता है। अर्थात्-जिसप्रकार आयु और औषधि के प्रयोग द्वार जीवन स्थिर रहता है। इसीप्रकार राज्यरूप वृक्ष भी राजा के भाग्य व पुरुषार्थ के प्रयोग द्वारा स्थिर रहता है इसीप्रकार जिसमें सन्धि, विपह, यान, आसन, संभय व द्वैधीभावरूप छह पुष्प पाये जाते हैं तथा जो स्थान, क्षय व वृद्धिरूप तीन फलों से फलशाली है। भावार्थ-उक्त राज्यरूपी वृक्ष के भेद-प्रभेदों की विस्तृत व्याख्या हम पूर्य में प्रकरणानुसार श्लोक नं. ६७-आदि की व्याख्या में कर चुके हैं॥२६॥ जिसप्रकार आयुष्य (जीवन) के विना योग-पीड़ित पुरुष की चिकित्सा का विधान व्यर्थ होता है उसीप्रकार राजनीति-शान से शून्य हुए पुरुष का पराक्रम करने में प्रवृत्त होना भी व्यर्थ है ॥२६॥ हेमारिइस महाराज! किसी अवसर पर मैंने नाट्यशालाओं में, जिनकी नाट्यभूमि का तल (पृष्टभाग) कमनीय कामिनियों या नृत्यकारिणी वेश्याओं के चरणों पर लगे हुए लाक्षारस की लालिमा से रञ्जित (लालिमा-युक्त) होरहा था, नाट्य प्रारम्भकालीन पूजा के प्रारम्भ में उत्पम हुआ और निप्रकार सरस्वती की स्तुति संबंधी श्लोफरूप गानों से सुशोभित नृत्य ऐसे भरतपुत्रों (नर्तकाचार्यो) के साथ देखा, जो कि ऐसे नर्तकाचायों में शिरोमणि थे, जिनमें 'नाट्यविद्याधर' व 'ताण्डवचण्डीश' नामके नर्तकाचार्य प्रधान थे एवं जो अन्तर्षाणि ( शामवेत्ता ) थे तथा जिनमें नृत्य करने के प्रयोगों की रचना संबंधी नानाप्रकार के अभिनयोंB का शास्त्रज्ञान वर्तमान था। १. रूपकालंकार । २. दृष्टान्तालंकार । A-'असर्वाणिस्तु शास्त्रवित्' यश की सं.टी. कृ. ४५४ से संकलित-सम्पादक B-तथा चोत्तम्-मवेदभिनयोऽवस्थानुकारः स चतुर्विधः । भातिको वाचिकश्चैपमाहार्यः सात्विकता नटरमादिभी रामयुधिष्ठिरादीनामवस्थानुकरणमभिनयः । तथा घोकं भरतमुनिमा-विभावयति यस्माच्च नानाम् हि प्रयोगतः। पासाङ्गोपात्रसंयुकस्तस्मादभिनयो म ____ साहित्यदर्पण की संस्कृत टीका से संकलित- सम्पादक अभिप्राय यह है कि नायभूमि में नट द्वारा जो राम व युधिधिर-आदि नायकों के साधर्म्य का वेष भूषा-आदि
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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