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यशस्तितकचम्पाव्ये पुष्पमिव निसादगुणेषु नृपतिः परामुला प्रायः । कोश हवात्मविदारिणि निमिचे संमुखो भवति || समदत्यस्य विदोषो यत्वं नप मनसि विरसतो पश्चात् । पत्युः सरितामारा, सरसत्वं वारिणो न तगावे॥३५॥
इतक्लेशेषु भृत्ये नोपार्षन्ति वे नपाः । सम्मान्तरेऽविकोणा तेषां ते गृहनिराः ॥२८॥ मारिदशामविचारपाछपकलोकप्रकाशितोपनिषत्व परिपत्र।
नेमिमेकान्तरान्रायः कृत्वा मानन्तरानरान् । नाभिमात्मानमध्यपणेनेता प्रकृतिमारले ॥ २५ ॥ इत्यत्र विमरम्पार विसनासागर
मला चतुर्मूल पष्टिपर्व ये स्थितम् । षट्वं त्रिफल वृक्ष यो आमाति स नीतिवित् ।। २६० ॥ (पाहरी दाँत-सीसें ) उसे क्लेशित करते हैं और अन्तस्य चुगलखोर उसप्रकार खाने में प्रवीण होते हैं जिसप्रवर एबी के अन्तस्थ ( भीतरी दाँत ) उसके खाने में उपयोगी होते हैं। ॥२५५।। राजा प्रायः करके गुलों ( शत्रु-वध करनेवाले योद्धाओं व राज्य-संचालन करनेवाले मन्त्री-आदि अधिकारियों ) से उसप्रकार सभावतः पराङ्मुख ( विमुख नाराज ) रहता है. जिसप्रकार फूलों की माला गुणों ( सन्तुओं) से परामुख ( पीठ देनेवाली ) होती है और वह ( राजा । अपना नाश करनेवाले निखिंश ( निर्दयो) पुरुष से उसप्रकार संमुख (प्रसन) रहता है जिसप्रकार म्यान अपने को काटनेवाले निखिंश (खग-वल्यार ) के संमुख एती है ।।२५६।। राजन् ! जिसकारण से आप पश्चात् घिरसता (अग्रीति व पक्षान्तर में स्वारा) मे प्राप्त होते हैं, इसमें आपके महल (धनादि वैभव से उत्पन्न हुआ बड़प्पन य पक्षान्तर में जलराशि की प्रचुरता) का ही वोष है। उदाहरणार्थ-समुद्र के समीप में वर्तमान नदियों के पानी में सरसता ( मिठास) रहती है, पान्तु समुद्र में मिल जानेपर सरसवा ( मिठास) नहीं रहती ||२५|| जो राजा लोग उन सेषकों का उपकार नहीं करते, जो कि उनके लिए कष्ट उठा चुके हैं, वे [कृतन] राजा लोग दूसरे जन्म में विरोष मी प्राप्त करनेवाले उन नौकरों के गृहसेवक होते हैं ॥२५॥
हे मारिदत्त महाराज ! किसी अवसर पर मैंने अर्थशामों के विचार करने में प्रवीण विद्वानों धारा रहस्य प्रकट कीजानेवाली सभाओं में मण्डल (वैश या प्रकृतिमण्डल ) की रचना संबंधी विचार करने के अवसर पर प्राप्त हुए निमप्रकार अनुष्टुप् सोक का विचार किया
_ विजयभी का इम्छुक राजा प्रकृतिमण्डल (आगे श्लोक - २६० में कहे गए शत्रु व मित्र-आदि राजाओं) में धर्वमान एक देश के अन्तर में रहनेवाले या भृतीय देश में स्थित हुए [ मित्रभूत ] राजाओं को और अपने देश के समीपवर्ती राजाभों को अपने राज्यरूपी रथ की नेमि (चक्रधारा ) करके अपने ने उस राज्यरूपी रथ के चक्र (पहिए ) की नाभि ( मध्यभाग) बनावे । अर्थात्-विजिगीषु स्वयं मध्यभाग में स्थित हो और दूसरों की पार्श्वभाग में रक्षा करे ॥२५९।।
[इसके बाद मैंने ऐसे निम्नलिखित श्लोक का विचार किया, जो कि समस्त आपाप (परमयपिब-दूसरे देश की प्राप्ति के उद्देश्य से किये जानेवाजे सन्धि व विप्रह-आदि की योजना के विचार) के चरण सभ्यरूप वृक्ष को शाखा, पत्र व पुष्पादि रूप से विमल करने में निमित्त है।
ओ पुरुष ऐसा राज्यरूपी वृत जानता है वही नीतिशाख का वेत्ता है, जिसमें शत्रु, विजिगीषु, मध्यम व उदासीन इन चारों को शत्रु व मित्र के साथ संबंधरूप भाठ शालाएँ । अर्थात्अनुभूत राजा का शत्रु व मित्र, विजिगीषु राजा का शत्रु व मित्र, मध्यम राजा का शत्रु व मित्र एवं अपासीन
- 'चानन्तरान्नृपान्। ०। १. धन्सालबार । १. शान्तालहार । ३. सालबार । नाति र उपमालबार । ५. सपकार ।