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________________ तृतीय भाभासः उछिनिं नटस्कर दिनं प्रादुर्भवशाखिनं + क्रीडस्मेककुलं पसद् हुजले शुभ्यदरिश्रीतष्टम् । पुष्यस्काममदं जनपदं सोत्सर्गसिन्धुस्यदं दृष्ट्व ेमं मिहिरं अगस्प्रियकरं काभ्येति न श्री नरम् ॥३९९५ मज कणसे का भूमिसौर म्यसारः प्रथिकसितकदम्बामोदमन्दप्रचारः । मनपयुवती मानसोल्लासनायुः प्रथमजस्यवायुः प्रीतये स्तान्नृपस्य ॥ ३९२ ॥ gator: surfi करवैरुत्तनुस कियां न्यस्यस्तो नियुकेषु कन्दलदलोहासावकाशश्रियः । एते चातकपोतपेय निपपाथःकणश्रेणयो काक्षा वान्ति निदानोहाघाः प्रदीर्घागमाः ॥ ३९३ ॥ स्फुटिव कुटज राजिर्मशिकोलासहारी नवनिधुलविलासः कन्दलानन्दकारी | सति घनसमीर: सीरासारधारी सुतलमधिककान्तिः केतकी काननानाम् ॥ ३९४ ॥ प्रोतयन्कर दिनांकरकराणि रन्त्रोबुरध्वनितकीचककाननान्सः । मधुकरोनीपलना वातः प्रयाति शिखिताण्डव पूर्वरा ॥ ३९५॥ ३५३ गृह ( कामोत्पादक ) है । जिसमें मोरों के विउ हैं एवं जिसमें चित्त प्रेम करने में तत्पर है ||३०|| वर्षा ऋतुकालीन ऐसा मेघ देखकर कौन स्त्री पुरुष के साथ रतिविलास नहीं करती ? अपि तु सभी करती हैं, जिसमें मयूर केकाध्वनि कर रहे हैं और हाथी नाँच रहे हैं। वृक्षों की उत्पन्न करनेवाले जिसमें मेडक समूह कीडा कर रहे हैं। जिसमें बहुतसी जलवृष्टि हो रही है। जिसमें पृथिवीतल व्याकुलित होरहा है। कामदेव का दर्पं पुष्ट करनेवाले जिसमें देश उन्नति को प्राप्त होरहे हैं एवं जो उत्साह-युक्त नदी - वेगशाली होता हुआ समस्त लोक का हित करनेवाला है || ३६२|| ऐसी पूर्व मेघवायु यशोधर महाराज के हर्ष-निमित्त होवे, जो नवीन जलबिन्दुओं के क्षरण ( गिरने ) से पृथिवी की सुगन्धि से मनोहर है। जिसकी प्रवृत्ति प्रफुलित हुए कदम्बवृक्षों के पुष्पों की सुगन्धि से मन्द है और जिसका जीवन समस्त देश की स्त्रियों को उल्लासित ( आनन्दित ) करने में समर्थ है। भावार्थ उक्तप्रकार की शीतल, मन्द व सुगन्धित वायु यशोधर महाराज के हर्ष हेतु होवे ॥३९२॥ हे राजन् ! ये ( स्पर्शन इन्द्रिय संबंधी प्रत्यक्ष द्वारा प्रतीत होनेवाली ) ऐसी वायुएँ वह रही हैं, जो मोरों की मधुर केकावनि के साथ उत्करित नृत्य- चेष्टा कर रही हैं। जो छोटे कदम्बवृक्षों में अङ्कुरों व पत्तों के उल्हास ( उत्पत्ति या वृद्धि ) की अवसर - लक्ष्मयाँ (शोभाएँ आरोपित ( स्थापित ) कर रही हैं। जिनसे पपीहा पक्षियों के बों के पीनेयोग्य जल-बिन्दु-समूह चरण होरहे हैं, और जो ग्रीष्म ऋतु को नष्ट करने में विशेष उ-युक्त (निपुण ) हैं एवं जिनका आगमन दूरतक व्याप्त होनेवाला है" ॥३६२॥ हे राजन् ! इन्द्रवृत्तों ( कुरैया) की श्रेणियाँ विकसित करनेवाली, मल्लिका ( वेला) का उल्लास (विकास) छरनेवाली, नवीन . } या महुआ वृद्ध को वृद्धिंगत करनेवाली, असुरों को वृद्धिंगत करनेवाली, जलविन्दु समूह धारण करनेवाली और hani - पुष्पों के वनों में विशेष कान्ति उत्पन्न करनेवाली ( विकसित - प्रफुलित करनेवाली ) मेघ-वायु वह रही है || ३६४|| ऐसी वायु बद्द रही है, हाथियों के सूँडों के अग्रभाग शीघ्र संचालित करनेवाली जिसने वाले पाँसों के वनों का मध्यभाग छिद्रों में गादरूपं से शब्दायमान किया है और नवीन कदम्बवृक्षों के ऊपर बैठी हुई भोरियों को उच्च स्वर से गान कराती हुई जो मोरों के ताण्डव नृत्य का 1' कीडको कुक० १. समुच्चयालङ्कार । २. आपलङ्कार | ३. जाति- अलङ्कार । ४. उर्फ च— 'अक्शुचिस्तथा दृष्टो निपुणखोला इष्यते' । यश०सं०टी० प्र० ५४५ से संकलित - सम्पादक । ५. जाति अलङ्कार | ६. जाति अलङ्कार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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