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________________ यशस्तिलकधम्पूकाव्ये दधदिन हिमरम्य; सीकरैरुत्प्रो कवितापानुनिता । वियदवालधराणामानिमिहसुलदविजयजन्मा जृम्भते बायुरेषः ॥३९६॥ घनमलिनं कृतनिनदं पतदशनिशरं प्रथा सुरक्षापम् । करिकुलमिव संनद्ध वीक्ष्य नभो नो भयं कस्य ।३:७॥ कश्येव गगनकरिणः काञ्चीव नमाश्रियो बियच्या । मणिमालेच विराजति पटिरियं शक्रचापस्य ॥३९॥ जाधिनतीः सह पीता ज्याला इव वानवस्य धनजठरान् । निर्मचछन्त्यः प्रासाः परिणतिमेतास्तविल्लेखाः ॥३१९॥ विवकिलमुकुलश्री: कुन्तपु स्थितानां स्तनतटलुठितानां हारलीला च यंपाम् ।। नमजलधरधाराबिन्दवस्ते पतन्तस्तव दवतु विनोदं योषितां केलिकाराः ॥४०॥ माशारधि मदपाये कमलानन्दननिषि । धनागमे च कामे च चियं यदवनोत्सवः ॥४०॥ पूर्वरङ्ग ( नृत्य-प्रारम्भ ) है' ॥३६५|| हे राजन ! ऐसी यह वायु संचार कर रही है, जो ऐसी मालूम पड़नी है.-मानों-श्रीष्मकालान सूर्य के विशेष संताप से मूच्छित (प्रलय के अभिमुख ) हुए कामदेव को शीतल जलबिन्दुओं द्वारा पुनरुज्न चित कर रही है और जो आकाश, पर्चत एवं पृथिवी के शरीर के सुख-हेतु है तथा जिसकी उत्पत्ति मघां का वृद्धिंगत करने के निमित्त है' ॥३६क्षा ऐसा आकाश देखकर कोन पुरुप भयभीत नहीं होता ? आप तु सभी पुरुष भयभीत होते हैं, मेघों से श्यामलित ( कृष्णवर्णशाली ) हुए जिसने गर्जना की है और जिससे वकारूपी बाण गिर रहे हैं एवं उत्कट इन्द्रधनुषशाली जो अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित हुआ उसप्रकार भयकर प्रतीत होरहा है जिसप्रकार अनादि से सुसज्जित हुआ हाथियों का झुण्ड भयङ्कर प्रतीत होता है। ॥३६) यह इन्द्रधनुप-यष्टि ( दण्ड ) उसप्रकार शोभायमान होरही है जिसप्रकार श्राकाशरूपी हाथी का जेवरवन्द सुशोभित होता है और जिसप्रकार आकाशरूपी लक्ष्मी को करधोनी सुशोभित होती है एवं जिसप्रकार आकाशरूपी देवता की मरिण-माला शोभायमान होती है। ॥३९८॥ ये (प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली ) मेघों के मध्यभाग से निकलता हुई ।वधुत-(विजला ) गियाँ एसा जान पड़ती है-मानोंसमुद्र-जल के साथ पूर्व में पी गई बड़वानल आग्न की ज्वाला हा विजला-श्रेणारूप परिणमन को प्राप्त हई सशोभित होरही है ॥३६६।। हे राजन् ! वे (जगत्यासद्ध) त्रियों की क्रीड़ा करनेवाले नवीन मेघ की जलधाराओं (छटाओं) के जलबिन्दु गिरते हुए आपको हाफ्ट करें, जो ( जलाबन्दु ) स्त्रियों के केशपाशों पर स्थित हुए उसप्रकार शोभायमान होते है जिसप्रकार मोगरा की पुष्प-कालयाँ शोभायमान होती है और जो स्त्रियों के स्तनतटों पर लोटते हुए उसप्रकार सुशोभित होरहे हैं जिसप्रकार स्त्रियों के स्तनतटों पर लोटते हुए हार ( मोतियों की मालाएँ ) सुशोभित होते हैं ॥४॥ ऐसे मेघों के आगमन होनेपर और ऐसे कामदेव के अवसर पर पृथिवीलोक में जो महान उत्सव देखा जाता है, यह आश्चर्यजनक है। कैसा है मेघों का आगमन ? जो अाशा-रुध (समस्त दिशा-समूहों को रोकनेवाला) है । जो मदप्राय ( हर्पजनक या अहंकारप्राय ) है और जो कमलानन्दन-द्विटू ( श्री सूर्य का शत्रुप्राय ) है, क्योंकि मेघघटाएँ सूर्य को आच्छादित कर देती हैं। अथवा जो कमलिनी को तिरस्कृत (विकास-हीन ) करता है। कैसा है कामदेव ? जो आशारुधु ( तृष्णाजनक ) है। जो मदप्राय ( वीर्य की अधिकता-युक्त) है और जो कमलानन्दन-द्विद् ( लक्ष्मी की समृद्धि से द्वेष करनेवाला) है। अभिप्राय यह है कि कामदेव के १. रूपकालङ्कार । २. उत्प्रेक्षालङ्कार । ३. श्लेष, उपमा व आक्षेपालकार । ५. उपमालङ्कार । ५. उत्प्रेक्षालझार । ६. उपमालङ्कार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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