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तृतीय आश्वासः किं च । रामाः कामप्रकामाः सुक्रविकृतिकथाहक्षा वाग्विवादाः सौधोरसङ्गाः सभोगास्तरुणसदलोझासकासा दिगन्ताः।
यस्मिश्वासारखारिखबहनणुकणश्रेणिसाराः समीरा। सोऽयं मोदाय राजन भवति समयः कस्य पर्जन्यवम्यः ।। ४०३ ॥
इस्यकालजलदवन्दिविनोधमानमनाः क्रीडाचलमेम्पनिलगिनि दिग्बलविलोकपिलासमाम्नि धाम्नि सम सेवासमागतसमस्तसामन्तसमाजेन प्रवीरपुरुषपरिषस्परिचारितः पुष्करावर्तप्रमुखमेघमाननीयो वर्ष श्रियं यावाहमनुभनन्सप्रमोदमासांचके, सावसंधिविनही 'देव, पञ्चालमण्डलपतेरवलस्य दुलनामा दूतः समागतः, सिधति च प्रवीक्षारभूमौः इति विशाप्प प्रावेशयत् । उपाचशयञ्च यथानिबन्धमाचरितोपचार सदुचिते देशे। 'दूत, प्रदर्यतामस्मै प्रभवे ते प्रभुप्रहित प्राभूतम् । शासनहर, समर्पता शासनम् । उभौ तथा कुरुतः। संधिविग्रही दूतदर्शनारप्रस्पभिशाय नगरनिवासिना तापसध्यानेन जाबालनाम्ना 'अयं हि राजा गजबलप्रधानत्वादविरादेव भवनिः सह विभिप्रक्षुब्यापारो वर्सवे। तदत्र चक्कर में उलझा हुआ कामी पुरुष लक्ष्मी-वृद्धि रोक देता है। ॥४१॥ हे राजन् ! वह जगप्रसिद्ध व प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ मेघोत्पादक समय ( वर्षाऋतु) किस पुरुष को प्रमुदित नहीं करता ? अपि तु सभी को प्रमुदित करता है, जिसमें स्त्रियाँ काम से परिपूर्ण होती है। जिसमें अच्छे कवियों (जिनसेन ष गुणभद्र-आदि ) के काव्यग्रन्थ संबंधी रामायण-आदि चरित्रों के श्रवण में मनोरथवाले बचन-युद्ध पाये जाते हैं। जिस ऋतु में राजमहलों की उपरितन भूमियाँ ( छजाएँ या छत ) भोगों ( पुष्पमालाएँ और कामिनी-आदि) से व्याप्त होती हैं और जिसमें समस्त दिशा-समूह नवीन वृक्षों के पत्तों की उत्पत्ति के फलस्वरूप मनोहर होते है एवं जिसमें पायुएँ धेगपूर्ण वृष्टि के जलों से क्षरण होते हुए स्थूल जलबिन्दुश्रेणियों से समम होती है ||४०२॥
अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! ऐसा मैं, जिसका मन 'अकालजलद' नामके स्तुतिपाठक को उक्तप्रकार स्तुति द्वारा क्रीडाशाली किया जारहा था और जो विशेष वीरपुरुषों ( सहस्रभट, लभभट व कोटिभट योद्धाओं) की सभा से वेष्टित धा एवं 'पुष्करावर्त'-आदिनाग के मेघों से माननीय वर्ण ऋतु का अनुभव ( उपभोग ) करता हुआ कीड़ापर्वत के तटवर्ती 'दिग्वलयविलोकपिलास' नामके महल पर सेवार्थ आए हुए समस्त राज-समूह के साथ जबतक हर्षपूर्वक स्थित था, उसी अवसर पर 'सन्धिविग्रही' नामके मेरे प्रधान दूत ने मुझे निमप्रकार सूचित किया कि 'हे राजन् ! 'पञ्चाल' । द्रौपदी के जन्मस्थानवाला देश) देश के स्वामी 'प्रचल' नामके राजा का 'दुकूल' नामका दूत आया है और सिंहद्वार पर स्थित है। तदनन्तर मेरे प्रधानदूत ने उस राजदूत को मेरी राज-सभा में प्रविष्ट किया और नमस्कार-आदि शिष्ट व्यवहार करनेवाले उस 'कुकूल' नामके दूत को मेरी आशापूर्वक उसके योग्य स्थान पर बैठाया । तत्पश्चात मेरे 'सन्धिविग्रही नामके प्रधान दत ने उससे कहा-डे व ! तुम्हारे स्वामी अचल नामके राजा द्वारा भेजी हुई भेंट मेरे स्वामी यशोधर महाराज के लिए दिखलाओ और हे शासनहरलेख लानेवाले । उक्त महाराज के लिए 'लेख दीजिए, । तत्पश्चात्-उक्त दोनों ने जैसा ही किया । अर्थात्'चल' राजा के दूत ने और लेख लानेवाले ने यशोधर महाराज के लिए क्रमशः भेट व लेख समर्पित किए। तदनन्तर यशोधर महाराज के प्रधानदूत ने उक्त राजदूत को देखकर 'अचल राजा के नगर में निवास करनेवाले व तपस्वी वेष के धारक 'जाबाल' नाम के गुमचर द्वारा प्रकट की हुई निम्नप्रकार की बाव का स्मरण किया-'इस 'अचल' नाम के राजा के पास हाथियों की सेना अत्यधिक पाई जाती है,
१. श्लेषोपमालङ्कार । २, जाति-अलंकार । ३. तथाचोक्तम्---'मेघाश्चतुर्विधारतेषां द्रोणानः प्रथमो मतः । आवतपुष्करावर्तस्तुर्यः संवर्तकस्तथा ॥ १ ॥
यशस्तिलक संस्कृतीका प५४९ से संकलित-सम्पादक