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यशस्तिक्षकचम्पान्ये पदुचित सदाचरितध्यम्' इति, प्रहित गोलका निर्वय , पुरस्सान्निवेशिस प्रादेशन शासनं च, 'अये, विमहामहिक एव स महीपाल: प्राभूततन्त्रमेतस्पस्य च प्राहिणोत् । तथापनयोर्मण्डलायमुदाक्सिो वेटनचतुष्यनितिन बहि:प्रकाश: संनिवेशः। तदमनेन विषमविषदोपकालुण्यवितकशाधेोनोपायनेन, शत्रुयशःप्रकाशपिशुनेन धानेन बिलोकितन लेखेन। भूयते हि किस-मणिकरण्जविन्यस्सवपुषा कृतिमेणाशीषिपविषधरेण विषयो दुर्धर्षम्, देवावन्नवासनिषेकेण च च स्पर्शविषण कगपः कृपाण राजानं जघान' इस्पनुध्याय, 'को हि नाम धीमाशस्त्रव्यापारसमाधौ द्विषयाधी मृदुनोपायेन भिषज्येत्' इति च विचिन्स्य ससौष्टयं तं दूतमेवमवादी---
'नासोझासनमार्गमुण्डन शिम्बामासानन्धमः कण्ठे शीशरावधामकलन कात्रेयकारोइणम् ।
हताश न ते निकारपरुपः कोऽप्यन काय विधिस्सस्सयो पद बाकि निजतलखस्वयं तिनु' ॥१०॥ इसलिए यह निश्चय से शीघ्र ही यशोधर महाराज के साथ युद्ध करने की इच्छा कर रहा है, अतः पञ्चाल-नरेश ( अचल-राजा) के प्रति उचित कर्तव्य । युद्ध करना ) पालन करना चाहिए।'
तत्पश्चान्– मेरे प्रधान दूत ने पश्चालनरेश द्वारा भेजे हुए गोलकार्थ ( लोह-गोलक का प्रयोजनअचजनरेश किसी के द्वारा विदारण करने के लिए अशक्य है ) और सामने स्थापित की हुई भेंट व लेख पर निम्नप्रकार विचार करके क्रोध व खेदपूर्वक कहा-'उस अचल नाम के राजा ने यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली प्रधान भेंट और यह पत्र ( लेख ) भेजा है, इससे मैं जानता हूँ कि वह यशोधर महाराज के साथ संग्राम करने के आग्रह (हठ ) में उलझा हुआ है। लेख व भेंट इन दोनों में से क्रमशः लेख का सनिवेश (स्थिति ) मण्डलायमुद्राङ्कित -खगचिन्ह सहित है। अर्थात् तलवार की छाप से चिह्नित होने के फलस्वरूप युद्ध सूचित करता है और भेद का संनिवेश (स्थिति) वस्त्रचतुष्टय-वेष्टित है। इसका अभिप्राय यह है कि वरूनचतुष्टय बेक्षित भेद इस बात की सूचना देती है कि शत्रु हाथी, घोड़े, रष व पैदलरूप चतुरङ्गासेना द्वारा यशोधर महाराज को वेष्टित करना चाहता है। इसप्रकार उक्त दोनों (लेख व भेंट) की स्थिति वाघ में अर्थ (प्रयोजन) प्रकट करनेवाली है। इसलिए पञ्चाल नरेश द्वारा भेजी हुई ऐसी भेंट से क्या लाभ है ? अपितु कोई लाभ नहीं, जिसमें अप्रीतिकर जहर का शेष होने से कलुषता विचार से कठोर अभिप्राय पाया जाता है एवं इस प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले लेख के बाँचने से भी क्या लाभ है ? अपितु कोई लाभ नहीं, जो कि शत्रुभूत राजा ( अचल नरेश ) की कीर्ति को प्रकट करने का निरूपण करता है। क्योंकि उक्त बात के समर्थक निम्नप्रकार उदाहरण श्रवण किये जाते हैं --'धिषण' नाम के राजा ने मारण्मयी पिटारे में स्थापित शरीरवाले और कृत्रिम ( विहान द्वारा उत्पादित ) आशीविष (जिसकी दाद में जहर होता है) सर्प द्वारा 'दुर्धर्षे नामके राजा को मार डाला और 'करणप' नामके राजा ने 'कृपाण' नामके राजा को ऐसे दिव्य वस्त्र की सुगन्धि द्वारा, जिसके बनेमात्र से जहर चढ़ता था, मार डाला।
तत्पश्चात् · यशोधर महाराज के प्रधान दूत ने यह विचार करके 'कौन बुद्धिमान् पुरुष शस्त्र-प्रहार शारा शान्त नेवाली शत्रुरूपी व्याधि की कोमल (लेप-आदि-शत्रुराजा के पक्ष में सामनीति ) उपाय द्वारा चिकित्सा करेगा ? अपितु कोई नहीं करेगा'। स्पष्ट वचनपूर्वक उस राजदूत से निम्नप्रकार कहा
'हे दूत! हम लोग तुझे विरस्कृत करनेवाले निम्न प्रकार कार्य तेरे साथ करेंगे। उदाहरणार्थ--- क्रमशः तेरी नाक काटना, सिर बचाकर छुरा द्वारा सिर-मूंडना, घोटी पर बेल के फल बाँधना तथा तेरी गर्दन पर टूटे हुए मिट्टी के स्वप्पड़ों की माला बाँधना और गधी पर सवार करना । इन्हें छोड़कर