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________________ तृतीय भाभासः मपि च-को नु बलु विधारमतरताः पातशौर्यसोता वा यथार्थवायोक्ति दूसे विकुर्वीत। यतो इतोहितमूत्राणि खलु महीपतीमा व्यवहारतन्त्राणि प्रवर्तन्ते, दूतायसप्रभवाश संधिवियानासनसंश्रयाँधीभाषाः । पर्याप्तमधवान पर्यनुयोगानुसारेण । विदित एव तपेशिताकाराभ्यां भवद्ध रभिप्राया। देवरधैप यदियन्ति दिनानि सस्मिन् समाचरित. पहुचापलेऽप्यसले गडोम्मीलनवृति विभरोधभूव किल । सत्र तदीयान्नायजन्ममिभूमिपसिभिश्चिराय पुराचरितासीतपरमेश्वरपरणाराधनानिबन्धनम् । सानी च स यदि स्वयमेव देवस्य प्रसापानलग्यालासु शलभशालिनी श्रियमाश्रयितुमिच्छति, सदासौ सिंहसरावामररिव विलसितुम आशीविषविषधरशिरोमणिभिरिव मम्बनं कर्तुम मदान्धगम्भसिन्धुरन्तवलयमिव सेरे तिरस्कार से कठोर कार्य तेरे साथ नहीं करेंगे, इसलिए तू निशङ्क होकर अपने स्वामी ( अचल राजा) का मौखिक संदेश कह और अपने स्वामी का लेख रहने दे" ॥४०३|| तत्पश्चात् हे मारिदत्त महाराज ! मैंने अपने प्रधानदून के निम्नप्रकार वचन भवण किए विचार से विचक्षण मनवाला च शूरता के पूर्ण प्रवाह से व्याप्त हुआ कौन पुरुष निश्चय से सत्यवादी दूत को मिथ्यावादी कर सकता है। अपि तु कोई नहीं कर सकता। क्योंकि निश्चय से राजाओं की व्यपहारप्रवृत्तियाँ दूतों द्वारा कहे हुए सूचित करनेवाले वाक्यों से व्याप्त हुई कर्त्तव्यमार्ग में प्रवृत्त होती है एवं उनके सन्धि ( बलिष्ठ शत्रुभूत राजा के लिए धनादि देकर मैत्री करना ), विप्रह ( युद्ध करना ), यान (शत्रुभूत राजा पर सेना द्वारा चढ़ाई करना ), आसन ( सबल शत्रु को आक्रमण करते हुए देखकर उसकी उपेक्षा करना- उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र किले वगैरह में स्थित होना), संश्रय ( बलिष्ट शन्न द्वारा देश पर आक्रमण होनेपर उसके प्रति आत्म-समर्पण करना) और द्वैधीभाव ( बलवान और निर्बल दोनों शत्रुओं द्वारा आक्रमण किये जाने पर विजिगीषु को वलिष्ठ के साथ सन्धि और निर्बल के साथ युद्ध करना चाहिए अथवा बलिप्त के साथ सन्धिपूर्वक युद्ध करना एवं जब विजिगीषु अपने से बलिष्ठ शत्रु के साथ मैत्री स्थापित कर लेता है पुनः कुछ समय बाद शत्रु के होनशक्ति होनेपर उसीसे युद्ध छेड़ देता है उसे ' बुद्धि-आश्रित 'दुधीभाव' कहते हैं, क्योंकि इससे विजिगीषु की विजयश्री निश्चित रहती है) इनकी उत्पत्ति भी दूत के अधीन होती है। अर्थात--विजयश्री के इच्छुक राजा लोग अपने प्रधान दूत की सम्मति या विचार से ही शत्रुभूत राजाओं के साथ उक्त सन्धि, विमा, यान, आसन, संश्रय घ द्वैधीभाषरूप पाड्गुण्य नीति का प्रयोग करते हैं। अथवा शत्रुराजा का मौखिक संदेश पूछने से भी क्या लाभ है? अपि तु कोई लाभ नहीं; क्योंकि तेरे ( दूत के) इङ्गित (मानसिक अभिप्राय के अनुसार चेष्टा करना) और नेत्र व मुख की विकृतिरूप आकार द्वारा मैंने ( यशोधर महाराज के प्रधामदूत ने) आपके स्वामी 'अचल' नरेश का अभिप्राय जान लिया है। आपके द्वारा प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले इन यशोधर महाराज ने जो इतने दिनों तक बहुत अपराध करनेवाले भी तुम्हारे अचल राजा का तिरस्कार धारण ( सहन ) किया, उस विरस्कार-सहन करने में अचल राजा के वंश में जन्मधारण करनेवाले पूर्व राजाओं द्वारा बहुत समय तक की हुई प्रस्तुत यशोधर महाराज के पूर्ववंशज राजाओं ( यशोघ व यशोबन्धु-आदि सम्राटों) के चरणकमलों की सेवा ही कारण है। इस समय यदि वह (अचल राजा) स्वयं ही महायज की प्रतापरूपी अग्नि-उवालाओं में पतङ्गा के समान नष्ट होनेवाली राज्यलक्ष्मी प्राम करने की इच्छा करता है तो उस समय में यह अचल राजा उसप्रकार एज्यश्री की इच्छा करता है जिसप्रकार बह सिंह की सटामों से बने हुए चैमरों के दुरधाने की इच्छा करता है। अर्थात्-जिसप्रकार सिंह-सटाओं के मर दुरवाना घातक है उसीप्रकार यशोधर महाराज की राज्यश्री की कामना भी अचल नरेश के पात का *रागेण' सदी• पुस्तकपाठः। १. समुच्चयालङ्कार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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