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________________ ३६८ यशस्तिलकचम्पृकाव्ये भलैहल्लेखिनुम् प्रलयकालानलमित्र पाणिपल्लवेन निवारयितुम् मकराकरमिष बाहुभ्यां तरितम् गगनमिव फालेन लायितुम् मन्दरमिव करतलेन सोलयितुम् महेपरपरशुमिशादर्शतां नेतुम् आदिवराहदंष्टामुक्ताफळमिव चाभरणायाक्रष्टुमभिलपसि । यतो निजराष्ट्रकण्टकोत्पाटनदुर्ललितबाहुबलः संप्रत्ययापि न जानात्यसावमलः परमेश्वरस्य विक्रमविलसितानि, यापेवं स्वयं विनोदस्याश्चर्यशौर्यसरम्भपुटशिसवनिजानुजग्याज+स्फुटिसविदारिसहिरण्यकशिपुः पुरपतिरिक्षत्रियकथावतारेषु । सथा हि वैकुण्ठः कुलकीर्तनं कमलभूदर्भप्रगल्भागलिन ची नैव पुमानुमापतिस्य चन्द्रो निशाषकः । हेलि: केमिसरोजवम्धुरनिलः क्रीडाश्रमे चाटुमान्यस्येत्यं गणनामरेपु विजयी सस्थाहले कोऽपरः ॥१४॥ अपि च । याः पूर्व रणागसंगमभुवो यस्यासिधारापयःपातप्रेतसपनसंततिशिरःश्रेणिश्रिताः क्षीणताम् । याताः क्लुप्तकपालिभूषणभरारम्भाः पुनस्ता मुहुजांयन्ता 'स्वदनीकी कसजुषः पूर्वनिमोऽस्याहवे ॥४०॥ कारण है। यह उसप्रकार राज्यश्री की कामना करता है जिसप्रकार आशीविष सर्प की फणा के रलों से आभूषण गाने की इच्छा दरा सौर पर उसः सालक्ष्मी प्राप्त करने की इच्छा करता है जिसप्रकार मदोन्मत्त च सर्वोत्तम हाथी के दन्तमण्डल को नखों से उखाड़ने की इच्छा करता है। इसीप्रकार उसकी राज्यलक्ष्मी के प्राप्त करने की कामना जसप्रकार घातक है जिसप्रकार उसकी प्रलयकालीन अग्नि को अपने हस्वरूप कोमल पत्ते से निवारण करने की इच्छा घातक होती है। वह उसप्रकार राज्यश्री प्राप्त करना चाहता है जिसप्रकार वह महासमुद्र को अपनी भुजाओं से तैरने की इच्छा करता है और जिसप्रकार वह उछलकर फूंदने द्वारा अनन्त आकाश को उल्लान करना चाहता है एवं जिसप्रकार वह सुमेरु पर्वत को इस्ततल से जानने की इच्छा करता है जिसप्रकार वह श्रीमहादेव जी के कुछार को दर्पण बनाना चाहता है। इसीप्रकार वह उसप्रकार राज्यश्री की इच्छा करता है जिसप्रकार विष्णु के वराह-अवतार की दाँदरूपी मोती को मोतियों की मालारूप कण्ठाभरण बनाने के हेतु खींचना चाहता है; क्योंकि तुम्हारा स्वामी अचलराजा, जिसकी भुजाओं का बल अपने देश के क्षुद्र शत्रुओं को जड़ से उखाड़ने में शक्तिहीन है, यशोधर महाराज के उन पराक्रम-विलासों (विस्तारों) को अब भी नहीं जानता, जिन्हें ऐसा इन्द्र स्वयं अपने श्रीमुख से वीर क्षत्रिय राजाओं के वृत्तान्त के अवसरों पर निम्नप्रकार प्रशंसा करता है, जिसका शरीर आश्चर्यजनक शूरता के आरम्भ से रोमानशाली है और जिसने नृसिंहावतार के अवसर पर श्री नारायण के छल से खम्भे से निकलने द्वारा हिरण्यकशिपु ( प्रहलाद का पिता) नाम के दैत्य-विशेष के दो टुकड़े किये हैं-फाड़-डाला है। अरे दूत ! देवताओं में इसप्रकार की मान्यताबाले यशोधर महाराज के साथ दूसरा कौन पुरुष युद्धभूमि में विजयश्री प्राप्त करनेवाला होसकता है ? अपि तु कोई नहीं होसकता। उदाहरणार्थश्रीनारायण जिसका गुणगान करनेवाले ( स्तुतिपाठक) है, ब्रह्मा जिसके पुरोहित हैं, श्रीशिव, जो किन स्त्री हैं और न पुरुष हैं। अर्थात्-नपुंसक होते हुए भी जिसकी प्रशंसा करते हैं, चन्द्रमा जिसकी रात्रि में सेवा करता है और सूर्य जिसका क्रीड़ाकमल विकसित करता है एवं वायुदेवता स्त्रियों के रमणखेद में चाटुकार करता है। अर्थात-प्रिय करके स्तुति करता हुआ खेद नष्ट करता है॥४०४॥ प्रस्तुत यशोधर महाराज की विशेषता यह है कि जो युद्धाङ्गण की संगमभूमियों, पूर्वकाल में जिस यशोधर महाराज की तलशर के अग्रभागी जल में डूबने से मरे हुए शत्रु-समूहों की मस्तकरिणयों से व्याप्त थी और खोपड़ियों के आभूषणों (मालाओं) के भार का आरम्भ रचनेवाली होने से खाली ( जन-शून्य ) होचुकी x 'रत्नाकरमित्र बाहुभ्यां तरीतुं' क० । मूलप्रती 'स्फुटित' नास्ति । १. 'तदनौक' स्यात् । २. अतिशयोक्ति-अलंकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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