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तृतीय आधासः
२६१ देव, नितान्त संवृतचित्तस्यापि दुर्वृत्तस्य प्रमादेन प्रमोदमदाा निद्रोटेकेण दातिरहस्योदयमपि सइये भवत्यवश्य कटाशपम। अतरव यः खलु' हटवासमाभ्यासप्रकर्षानुमायामेवमुत्स्वनति स कथं माम देवडोषेण दुर्विलसिताम्मेषण राप्रकास्पितलग्येषु व्यसनेषु सहचारी संभाध्यत । तथाहि।
यो स्वास्थ्याय समीहते व्याधितस्य नृपस्य च | स्वार्थसिद्धिनिरोद्धारी विग्धिक्तो घमन्त्रणौ ॥१८॥
व्याधिय॑सनविच गोप भूपे च नास्ति चेत् । न धेनुः कामधेनुश्च वैवस्य सचिरस्य ॥१९॥ तपा। अशुभस्य काकाहरणं नृपतेर्भसन नियोगिनां कलहम् । तन्त्रस्म धृत्तिविनिमयमारभमाणः सुखी सचित्रः ॥१९॥ शौर्ष पार निगदेन पाल्याप्तम्। यसः ।।
पणिजि र भिपनि च शूरः शौण्डीरो दुर्थडे विकले च । कपिरिव निभृतस्तिष्ठति स्पशोर कण्डवण ॥१९॥
हे राजन् ! विशेषरूप से गुप्तमित्तवाले भी दुराचारी का अत्यन्त गुप्त पाप भी उसकी असाथधान्या, हर्ष, महंकार अथवा निद्रा की अधिकता के कारण मन में अवश्य प्रकट अभिप्राय-युक्त होजाता है, इसलिए जो मन्त्री विशेष शक्तिशाली व पापमय वासना के वार-बार अनुशीलन (अभ्यास) की विशेषता से रात्रि में सोया हुआ निम्नप्रकार बोलता है, यह ( मंत्री ) ऐसे व्यसनों ( संकटों ) के अक्सरों पर किसप्रकार आपको सहायता देनेवाला संभावित होसकता है? अपि तु नहीं होसकता, जिनमें (जिन व्यसनों में ) कुभाग्य-दोष के कारण अथवा दुराचार की उत्पत्ति के कारण [ शत्रु-पक्ष की ओर से ] हाधियों के समूह-आदि की सेना का निर्माण किया गया है।
__ अब 'शङ्गनक' नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज के प्रति प्रस्तुत 'पामरोदार' नाम के दुराचारी मन्त्री द्वारा रात्रि में स्वप्नावस्था में कही हुई बात कहता है--
'जो वैद्य और मन्त्री क्रमशः रोगी की निरोगिता-हेतु व राजा को सुख प्राप्ति के निमित्त चेष्टा (प्रया) करते हैं, उनके लिए बार-बार धिकार है, क्योंकि वे अपनी प्रयोजन-सिद्धि ( धन-प्राप्ति) रोकनेवाले है ॥१८॥ यदि गायों के रक्षक ( गोकुल के स्वामी ) में बीमारी नहीं है और राजा में. व्यसनों (मद्यपान-पादि) की वृद्धि नहीं है तो उसके (गोप के) वैद्य के लिए बह गाय नहीं है क्योंकि बैद्य को उससे धनप्राप्त नहीं होता) और मन्त्री के लिए राजा कामधेनु नहीं है। [क्योंकि मन्त्री के लिए राजा से धन-प्राप्ति नहीं होती ॥१८॥
है राजम् ! इसीप्रकार वह स्वप्नावस्था में कहता है कि ऐसा मन्त्री सुखी होता है, जो पना के ऊपर कष्ट पाने के अवसर पर काल-क्षेप ( काल-यापन ) करता है। अर्थान-राजा का चिरकाल तक अनिष्ट होता रहे ऐसा करता है और जो राजा को मद्यपान आदि व्यसनों में फँसाता हुआ मन्त्री-आदि अधिकारियों के साथ कलह करता है एवं जो सेना की जीविका का नियन्त्रण ( रोकना ) करता है। अर्थात्-जो सेना का वेतन रोककर उसे कुपित करता है ।१६।।
हे राजन् ! प्रस्तुत मन्त्री में कितनी शूरता ( बहादुरी) है, यह निम्न प्रकार लोकप्रसिद्धि से ही
प्रकट ही है।
क्योंकि जो मन्त्री व्यापारी वैश्य और वैद्य के साथ शूरता ( बहादुरी । दिखाता है और जो दुर्वज्ञ तथा लूले-लगड़े-आदि हीनशरीर-वालों में शौण्डीर ( त्याग व पराक्रम से प्रसिद्ध ) है एवं जो युद्ध करने में मतवाले प्रचण्ड सैन्य के सामने बन्दर-सरीखा नम्रता और मौन-धारण करता हुश्रा स्थित रहता है। ॥ १६१ ।।
१, “दृष्टदुष्ट' का। २. यथासंख्यालछार । ३. दीपकालंकार । ४. उपमालंकार ।