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________________ २६. यशस्तिलकचम्पूकाव्ये नपराधमपि जनपदं पीडयति, प्रभूतपक्षालो हि भूपाल शैल इव कस्य भवति वश इत्पनुरकमतीरपि प्रकृतीरसमासपति, हरकाशको दि धरेशः अपितपन्नः पक्षीव भवेस्सुखसाध्य इति धनं निधनयति, व्यसनव्याकुलिप्तो हि राजपूतो व्याधित इव न जानु विकरते पुररचारिवित्ति द्विषतः प्रोत्कर्षयति, पक्षारक्षो हि क्षिविपतिः फरिपसिरिख म स्यात्परेषां विषय इति न कमयभिजात सहते, स किल प्राणप्रतीकारेषु स्वापते पोपकारेषु वा विधुरेषु भवितोपकतेति को नाम प्रापीत । सः । __ सस्थावस्थायामपि थोऽनर्थपरम्परार्थमीहेत । स कथं विधुरेषु पुनः स्वामिहिते चेतेऽमास्यः ॥१८॥ तस्माद्देव, कर्णकनुकमपीदमेवमवधार्यताम् । ___ अपि स्वामसिवाष पातीतारमहीपतीन् । तूरीवान्याश्मयस्थायी लम्बालश्चानिशाचरः ॥ १८६ ॥ अन्यया। तत्तनपतिसंगीणविनिर्वाहपरा नराः । कथं पपन्तरं यान्ति कान्ता व कुलोद्रताः ॥१८॥ (अमात्य व सेनापति-प्रादि अधिकारीवर्ग) की शक्ति महान् है, पर्वत के समान किसके अधीन औसकता है: अपितु सती के श्री नहीं होसकता' अनुराग करनेवाली गुद्धि से व्याप्त हुई प्रकृति ( अमात्य-आदि अधिकारीगण व प्रजा के लोग ) को अन्याय करने में तत्पर कर रहा है। वह इसप्रकार सोचकर कि 'निश्चय से अल्प कोशवाला (निर्धन) राजा उसप्रकार सुख-साध्य ( विना कष्ट किये हस्तगत होनेवाला ) होजाता है जिसप्रकार लांच लिए गये है पंख जिसके ऐसा पक्षी सुख-साध्य होता है। राजकीय धन नष्ट कर रहा है। हे राजन ! वह ऐसा निश्चय करके कि 'निश्चय से व्यसनों ( युद्ध-आदि की कष्टप्रद अवस्थाओं ) से व्याकुलित हुआ राजपुत्र सचिव-श्रादि अधिकारियों पर कभी भी उसप्रकार उपद्रव नहीं कर सकता जिसप्रकार व्याधि-पीड़ित (रोग-प्रस्त) हुआ राजा उपद्रव नहीं कर सकता' शत्रों को बलबान कर रहा है, एवं जो मन्त्री ऐसा सोचकर कि 'निश्चय से पक्ष (कुल या अमात्य-आदि सहायक अथवा पल्टन ) की चारों ओर से रक्षा करनेवाला राजा निश्चय से प्रशस्त हाथी के समान दूसरों (श्रेष्ठी व सामन्व-आदि) द्वारा वश में नहीं किया जासकता' किसी भी कुलीन पुरुष को सहन नहीं करता। अर्थान-इससे ईर्ष्या या द्वेप करता है। हे राजन् ! निश्चय से उत्तप्रकार प्रजा-आदि को पीड़ित करना-प्रादि दुर्गुणों से युक्त हुआ वह 'पामरोदार' नाम का मन्त्री 'प्राण-रक्षा के अवसरों पर और धन देकर उपकार करने के समयों पर अथवा व्यसनों ( कटों) के अवसरों पर उपकार करनेवाला होगा' इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा ? अपितु कोई नहीं करेगा। क्योंकि हे राजन् । सस्य के अवसर पर भी दःख-श्रेणी देने के खेत चेष्टा करनेवाला वह मन्त्री व्यसनों ( संकटों) के अवसर पर स्वामी के हित-निमित्त क्यों चेष्टा करेगा ? अपितु नहीं करेगा' ॥१८॥ इसलिए हे राजन् ! आप कानों के लिए शूलप्राय मेरा निसप्रकार का षचन निश्चय कीजिए हे राजन् : लाँच घूस ग्रहण करने में राक्षस-सरीखा यह मन्त्री पूर्व में उत्पन्न हुए यशोर्घ-श्रावि राजाओं के समान आपको भी धोखा देकर उसप्रकार दूसरे राजाओं के मन्दिर में स्थित होगा जिसप्रकार मृदङ्ग बजानेवाला मानव दूसरे नृत्य करनेवाले की अनुकूलता से मृदङ्ग बजाता है। अर्थात्-जिस प्रकार मृदा बज्ञानेवाला मानत्र दूसरे नर्तक के नृत्य की अनुकूलता का आश्रय लेता है उसीप्रकार यह मंत्री भी दूसरे राजाओं के मन्दिर का प्राश्य लगा॥ १८६ ।। अन्यथा ( यदि उक्तप्रकार नहीं है तो) ऐसे किंकर लोग, जो कि उन उन जगप्रसिद्ध राजाओं द्वारा प्रतिज्ञा किए हुए सेषाफल में उसप्रकार तत्पर रहते हैं जिसप्रकार कुलीन स्त्रियाँ अपने पनियों की सेवा में तत्पर होती है, दूसरे राजा के पास किसप्रकार जाया करते है ॥१७॥ अब एकपात्रः क ख ग प्रतित: समुदृतः। मु. प्रतौ तु 'एकारक्षो हि' पाउः परन्वत्रार्थसमातिने घटते, भयदा कट- घर-पादकः। * 'कुलोद्भवाः क०। १. आक्षेपालंकार। २. रूपक र अनुमानालंकार । ३. उपमालहार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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