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तृतीय पाश्चासः
२४ भारमनि निषेकविकला प्रसिसिमायेण इज्यते. सकतः । कैप इव कमवेऽपि हिम श्री: पूज्य तथाप्याम् ॥१३॥ वृत्तं पुमरस्य पिण्याकपण्यानाअनस्येवालीकाम्सोत्सर्गरमेकसोऽनेकपाखविलीसंसगाविसगै रेष रामपधीकृतम् । पयः। दवि काहिपिकापालिककौलिकौशिकवतकैः । कीर्तिर्जगति प्रस्ता सरपवीक्षाधिरस्य ॥१८॥ पस्तु स्वास्थ्यावसरेष्वपि सम्वदेशो हि महीशः कीनाश पावरय करोति फामपि विहतिमिति सोनुरिवार
विशेष यह है कि हे राजन् ! [ संसार में ] समस्त पुरुष, जो कि अपने में विचार-शून्य होता है (अमुक व्यक्ति शिष्ट है ? अथवा दुष्ट है ? इसप्रकार की विचार शक्ति से रहित झेता है), दूसरे पुरुष के प्रति प्रसिद्धिमात्र से अनुराग प्रकट करता है। उदाहरणार्थ--जिसप्रकार श्वेत कमल में लक्ष्मी नहीं होती उसीप्रकार लालकमल में भी नहीं होती तथापि प्रसिद्धि-यश लालकमल ही पूज्य होता है न कि इतक्रमल। भावार्थ-प्रकरण में 'शगुनक' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से 'पामरोदार मंत्री के विषय में कहता है कि हे राजन! जिसप्रकार देवनाराज न होनों में लक्ष्मी नहीं है तथापि लाल कमल ही प्रसिद्धि के कारण पूज्य व लोगों के अनुराग का पात्र होता है उसीप्रकार कुलीनता व विद्वत्ताआदि की विशेषता से हीन (मूर्य ) 'पामरोदार' नामका मन्त्री मी प्रसिद्धि ख्याति-वश लोक के अनुराग का पात्र होरहा है, क्योंकि प्रायः समस्त लोक विचार-शून्य होता है| १३||
अथानन्तर 'शङ्खनक' नामक गुपचर यशोधर महाराज के प्रति 'पामरोदार' नामके मन्त्री का उपप्रकार से वंश व विद्या का कथन करके उसकी चरित्र-हीनता का वर्णन करता है--
हे राजन् ! इस 'पामरोदार' नामके मन्त्री का चरित्र तिल या सरसों की खली के खण्ड-सरीखे निकृष्ट वेश्याजन-सरीखा (निकृष्ट) है। अर्थान्-जिस प्रकार वेश्याजन स्खलावण्ड ( तुच्छ पैसा) लेकर बहमूल्य वस्तु ( जवानी) नष्ट करता है, उसीप्रकार यह भी तुम्छ लाँच चूंस-आदि लेकर बहुमूल्य राज्य की क्षति करता है। हे देव ! जिसका अधम चरित्र आपके समक्ष अनेक पातहिंड्डयों ( चार्वाक-आदि ) की संगति करनेवाले और आर्य व म्लेच्छ देशों में घूमनेवाले गुप्तचरों द्वारा अनेक बार प्रकट किया गया है।
हे राजन् ! इस पामरोदार' नाम के मन्त्री की कति नानाप्रकार के ऐसे गुप्तचरों द्वारा संसार में व्याप्त होरही है, जो कि दण्डिक ( शवलिङ्गी अथवा त्रिकमव के मानायी होकर तापमः का वेषधारक गुप्तचर , आहितुण्डिक ( सर्प के साथ क्रीडा करने में चतुर अथवा सपेरे का व-धारक गुमचर!, कापालिक {एक उपसम्प्रदाय, जिसके अनुयायी लोग अपने पास खोपड़ी रखते हैं और उसी में सेंधकर या रखकर खाते हैं उसका पधारक गुप्तचर ), कोल्लि (वाममार्गी या पायाही पधारक जप्तचर )
और कौशिक ( तन्त्रशास्त्र में कहीं हुई युक्तियों द्वारा मन में आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला पन्द्रजालिक का वेप-धारक गुप्तचर ) है और इनके कुत्सित व्रतों को धारण करनेवाले है तथा जो वर पटों। हिंसा-समर्थक सम्प्रदाय विशेष) की दीक्षा से अधिक है। 11 १८४ ॥ ..
हे राजन् ! जो मन्त्री प्रजा के सुख-समय में भी इसप्रकार विचारकर कि 'समृद्धिशाली देशवाला राजा निश्चय से उसप्रकार कोई उपद्रव उपस्थित करता है जिसप्रकार बमराज पर उपस्थित किया करता है' निर्दोष देश को भी उसप्रकार पीडित कर रहा है जिस प्रकार श्रग्नि का उत्पान-उपद्रव-पीड़ित करता है। इसीप्रकार हे राजन् ! वह मन्त्री इसप्रकार सोचकर कि 'निश्चय से ऐसा राजा. जिसके पक्ष
* 'उक्त शुद्धपाऽ; क. प्रतितः संकलितः । मु. पोतु कापालिकको शेक्वतका गठः। विमर्श:-मु. प्रत्यपाठेऽधादशमात्राणामभावेन छन्द - ( आर्या ) भादोष:--सम्पादकः । x 'अनपराधपदम.पेक. ।
१. सृष्टान्तालंकार । ३. भपकृष्ट-समुच्चयालंकार ।
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