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________________ - - यशस्तिनकचम्पूकाव्ये गयान नोभौदार्यात् । षसो देव, पटदासीमां हि वदनसौरभ स्वामिताम्बूलोद्गालान सौभाग्यबलात, पवनस्म हि परिमल पेशलता प्रसूनतमसंसगन्नि निसर्गात , दारुणो हि दावदारुपता बृहनानुभावान स्वभावान , मण्डलस्य हि भण्डनकालतापतिनिधानवशान शौर्याशान. 1 अपक्षशकलस्य हिनमस्सा देवाकारानभाषाम्न प्रतिभावासू । अपि। अबुधेऽपि बुधोद्वारे प्राशानुज्ञा विजाभते । संरकत': फौशालादेति यतः काचोऽपि स्नताम् ॥१८२।। यस्पुनः सेबकलोकदौरात्म्य प्रविख्यापयियुः किमयणकपश्यन्धेन भगवती सरस्वती विधमति, सत्र यो हि स्वयमेव निकायति स कर्थ नाम दुरात्मा स्वादिसि परप्रतारणार्थम् । किं च । आशा (पान्छा) रूपी जाल में बँधी हुई है। अर्थान-जिस विद्या देनेवाले वक्तालोक की बुद्धिरूपी हिरणी अल्प धन की प्राप्ति की इच्छारूपी जाल में बंधी हुई होने के कारण अपना यथेच्छ विकास नहीं कर पाती और जिसका अभिमानरूप वृक्ष का मध्यभाग महान् कष्ट से भरण कीजानेवाली कुक्षि (पेट) रूपी कुल्हाड़े या परशु द्वारा विदारण किया गया है एवं जिसका अहँकार नष्ट होगया है तथा जिसे सरस्वती के बेचने के पाप का अवसर प्राप्त हुआ है। हे राजन् ! घड़ों को धारण करनेवाली दासियों के मुख में वर्तमान सुगन्धि निश्चय से उनके स्थामियों द्वारा चधाये हुए पान के उद्गीर्ण-( उगाल ) भक्षण से ही उत्पन्न होती है न कि उनकी सौभाग्य शाक्ति से। हे देष ! वायु में धर्तमान सुगन्धि की मनोहरता निश्चय से पुष्पयाटी ( फूलों की बाड़ी) के संसर्ग-बश ही उत्पन्न हुई है न फि स्वभाषतः और काष्ट ( लकड़ी) में भस्म करने की रौद्रता ( भयानकता) अनि संयोग से ही उत्पन्न होती है न कि स्वभावतः एच कुत्ते में लड़ाई करने की खुजली उसके स्वामी के संसर्ग-बश होती है न कि स्वाभाविक शूरता के श्रावेश से, इसीप्रकार हे राजन् ! पाषाण-खण्ड में पाई जानेवाली पुरुषों द्वारा नमस्कार किये जाने की योग्यता देवताओं की प्रतिच्छाया के प्रभाव से होती है न कि स्वाभाविक प्रभाव-क्श। हे राजन् ! मूर्ख मनुष्य में भी विद्वानों के बचन ( कहने ) से दूसरे विद्वानों की अनुमति का प्रसार होता है। अर्थात् यदि विद्वान लोग किसी मूर्स मनुष्य को भी विद्वान कह देते हैं तब दूसरे विद्वान लोग भी कहते हैं कि 'यह यास्तव में विद्वान ही है' इसप्रकार की अनुमति देने लगते हैं। क्योंकि संस्कार करनेवाले के विज्ञान से काँच भी रत्नता प्राप्त करता है। अर्थात-जिसप्रकार शाणोल्लेखन-आदि संस्कार करनेवाले के विज्ञान-यश काँच रत्न होजाता है उसीप्रकार मुर्ख मनुष्य भी बिद्वानों के कहने से विद्वानों द्वारा विद्वान समझ लिया जाता है। प्रकरण में 'शङ्खनक' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे देव ! प्रस्तुत 'पामरोदार नामका मन्त्री स्वभाविक मूर्ख है परन्तु विद्वानों के घचन से उसप्रकार विद्वान् बन रहा है जिसप्रकार काँच शाणोल्लेखन-आदि संस्कार करनेवाले के चातुर्य से रत्न होजाता है। ॥१८॥ हे राजन् जो मन्त्री बार वार आपके समक्ष सेवक लोगों की दुष्टता कहने का इच्छुक होता हुआ निष्ट शोकों की रचना द्वारा जो कुछ थोड़ा सा परमेश्वरी वाणी को सन्तापित करता है, उसमें दूसरा ही कारण है। वह कारण यही है कि 'जो मन्त्री निश्चय से स्वयं इसप्रकार कहता है ( सेयकों की दुष्टता का निरूपण करता है ) वह किसप्रकार दुष्ट हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता।' हे राजम् ! उक्त प्रकार से दूसरों को धोखा देने के कारण ही वह ऐसा करता है। +'उपलरय' क० 'प्रकृतिप्रभावात् कः । १. दृष्टान्तालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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