SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सृतीय आश्वासः नृपकरुणायाः कामं द्रविणकयाः संघरस्ति शरणेषु । म स्वाभिजात्यमेतस्पाण्डित्वं वा मृणां भवति ॥१८॥ देव, तबलून्येऽपि यत्स्यचिसि नभसि विगुप्त इव विधाविलसिसम् , सवनस्य घनस्येच माहात्म्यानात्मनः । यतः । विद्यारसविडोनापि धायली विभवासपात्। ध्यलोकोक्तो तरङ्गेयं भवेन्मुम्भभूगप्रिया ॥ ११॥ यपि क्वचिस्वधिककासु पयसि पतितस्य तैलबिन्दोरिवान्तन्याधिशून्यस्याप्यस्योपन्याससाहसम, तदपि लक्ष्मीका चलाभाशापाशस्खलितमतिमृगीप्रचारस्य दुभैरजठरकुठारविनिर्मिनमानसारस्य हताइंकारस्य सरस्वतीपण्यपातकावसरस्य जनस्या क्योंकि मानवों की कुलीनता व विद्वत्ता उनके लिए धन-धान्यादि सम्पत्ति प्रदान नहीं करती किन्तु राजा की दया से ही मानयों ( अधिकारी गण । के गृहों में धन-धान्यादि विभूतियाँ संचार करती हैं। भावार्थ--उक्त यात 'शजनक' नाम के गुप्तचर ने यशोधर महाराज से कही है। नीतिकारों ने भी कहा है कि 'स्वामी की प्रसन्नता सम्पत्तियाँ प्रदान करती है न कि कुलीनता व विद्वत्ता-पण्डिताई ।। १८० ।। है राजन् ! जिसप्रकार आकाश में बिजली का विलास ( चमक ) मेघों के प्रभाव से ही होता है न कि स्वयं उसीतकार आपके मन्बी-सरोखे कुलीनता व विद्वत्ता से दीन भी जिस किसी पुरुष में विधा का विलास (चमत्कार) पाया जाता है, यह उसके धन-प्रभाव से हो होता है न कि निजी प्रभाष से । भावार्थ-प्रकरण में 'शान' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! आपका "पामरोदार' नाम का मन्त्री तिल-आदि की खली का संग्रह करनेवाले तेलियों के नीच कुल में उत्पन्न हुआ है एवं उसने गुरुकुल में रहकर विद्याभ्यास नहीं किया, अतः वह नीच कुल का और मूर्ख है, जिसे मैं पूर्व में कह चुका हूँ परन्तु उसपर लक्ष्मी की विशेष कृपा है, इसलिए कुलीनता ब बहत्ता से हीन हुए उसमें जो कुछ विद्या-विलास पाया जाता है, बह. उसप्रकार स्वाभाविक नहीं है किन्तु धन के माहात्म्य (प्रभाव) से उत्पन्न हुआ है जिसप्रकार आकाश में विजली का विलास स्वाभाविक न होता हुआ मेघों के प्रभाव से ही होता है। धनाब्यों की यह बुद्धिरूपी मरुस्थली विद्यारूपजल से रहित होने पर भी धन की गर्मी से असत्य वचनरूप उत्कट तरङ्गोंवाली होती हुई मूर्ख मनुष्यरूप हिरणों के लिए ही प्रिय लगती है न कि विद्वानों के लिए। भावार्थ-प्रकरण में शङ्कनक' नामका गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि जिसप्रकार मृगतृष्णावाली मरुस्थली जल-शूग्य होने पर भी सूर्य की गर्मी से उत्कट तरङ्गशाली होती हुई मृगों के लिए प्रिय होती है, उसीप्रकार 'पामरोदार' नाम के मन्त्री-सरीख धनान्य पुरुषों की बुद्धिरूपी मरुस्थली भी विद्यारूपी जल से शून्य होती हुई धन की गर्मी से झूठे वचनरूप उत्कट तरङ्गों से व्याप्त हुई मूर्ख मानबरूप हिरणों के लिए प्रिय होती है न कि विद्वानों के लिए ||१८१।। हे राजन् ! यह 'पामरोदार' नाम का मंत्री, जो कि भाभ्यन्तर में कलाओं के अनुभव से उसप्रकार शून्य है जिसप्रकार जल में पड़ी हुई सैल-बिन्दु जल के भीतर-भाग के अनुभव ( स्पर्श) से शून्य होती है। इसमें । मन्त्री में ) जो कहीं-कहीं वक्तृत्व क कवित्वादि कलाओं का वचन रचना-चातुर्य पाया जाता है, यह भी ऐसे बुद्धिदायक वकालोक के संगम-वश उत्पन्न हुआ है न कि इसके बुद्धि के उत्कर्ष ( वृद्धि) वाय, जिसकी बुद्धिरूपी हिरणी की प्रवृत्ति ( यथेच्छ संचार ) लक्ष्मी-( धनादि सम्पत्ति ) लेश की प्राप्ति संबंधी * 'लक्ष्मीलबलाभास्वलितमतिमीप्रचारस्य' पर । १. तथा च सोमदेवसूरिः- स्वामि प्रमादः संपदं जनयति पुनराभिजात्यं पाणिहर वा।" २, जाति-अलहार। ३. रूपकालकार । नीतिघाण्यामृत से संकलित-सम्पादक
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy