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यशस्तिलक चम्पूकाये
हितस्यापि पुरोहितल्या बहेलेन, कौक्रेषु कुरङ्गो देशकोशोचितप्रतापस्यापि सेनापतेरविशेपेण चेदिषु मदीशो निरपवादस्यापि महतः सुतस्य यौवराज्य देश यद्यपि देवस्य तेजोब ।
प्रबलम् तथापि
तेजस्तेजस्विनां स्थाने तं धृतिकरं भवेत् । कराः सूर्याश्वानो: किं स्फुरन्ति इवाश्मनि ॥ १७९ ॥
देव, लोकाधिश्वबन्धानां हि विद्यानां साधूपचरितं स्फुरितमवस्थानस्थितमपि स्त्रीरमिवातीवात्मन्यादर कारपरमेव जने । एतशास्त्र कृत्रिमरत्न मोरिव बहिरेव देव प्रसादनानात्मभाविन्योऽपि विभूतयः पतिवरा इव स्वात्पतितस्यापि जनस्य भवन्ति, म पुनरायः स्थितय हवानुपासितगुरुकुलस्य यववस्थोऽपि सरस्वस्यः । पतः | प्रान्त के देशों का 'मकरध्वज' नाम का राजा सदाचारी पुरोहित ( राजगुरु ) का अनादर करने के कारण मार दिया गया। कौन देश का 'कुरङ्ग' नाम का राजा देश व खजाने के अनुकूल प्रतापशाली सेनापति को अपमानित करने के कारण बध को प्राप्त हुआ और चेदि देशों के 'नदीश' नाम के राजा ने ऐसे ज्येष्ठ पुत्र को, ओ कि सदाचारी होने के कारण प्रजा द्वारा सन्मानित किया गया था, युवराज पद से युत कर दिया था, जिसके फलस्वरूप मार डाला गया । अथानन्तर- 'शङ्खनक' नामका गुप्तचर पुनः यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन! यद्यपि आपका तेजोबल ( सैनिकशक्ति व खजाने की शक्ति ) प्रचण्ड ( विशेष शक्तिशाली ) है तथापि -
तेजस्वी पुरुषों का तेज ( प्राण जानेपर भी शत्रुओं को सहन न करनेवाली - पराक्रमशालीसैन्यशक्ति व कोशशक्ति) जब योग्य देश पर स्थापित किया जाता है, तभी वह सन्तोष जनक होता है, जिसप्रकार सूर्य की किरणें सूर्यकान्दमणि में लगी हुई जैसा चमत्कार छाती है वैसा चमत्कार क्या नष्ट पाषाण में लगी हुई होनेपर लासकतीं हैं ? अपितु नहीं लासकतीं ' ।। १७६ ॥
हे राजन् ! विद्याएँ ( राजनीति भादि शास्त्रों के ज्ञान ), जो कि समस्त लोगों— विद्वान पुरुषोंके लिए अधिक ऐश्वर्य प्रदान करने के कारण नमस्कार करने योग्य होती हैं, उनका अच्छी तरह से व्यवहार में लाया हुआ चमत्कार योग्य स्थान ( पात्र - उपवंश में उत्पन्न हुआ सज्जन पुरुष ) में स्थित हुआ अपने विद्वान पुरुष का उसप्रकार विशेष आदर कराता है जिसप्रकार स्त्रीरन ( श्रेष्ठ स्त्री ) योग्य स्थान में स्थित हुई ( राजा-भादि प्रतिष्ठित के साथ विवाहित हुई ) अपना आदर करावी है। हे राजन् ! यह विद्वत्ता का चमत्कार इस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री में उसप्रकार बाहिरी पाया आता है जिसप्रकार कृत्रिम (बनावटी ) रत्न के हार में केवल ऊपरी चमत्कार पाया जाता है, न कि भीतरी । हे राजन् ! स्वामी को प्रसन्न करने के कारण अपने लिए प्राप्त न होनेवालीं भी लक्ष्मिय ( धनादि सम्पत्तियों ) अकस्मात् आए हुए भी लोक के लिए उसप्रकार प्राप्त होजाती हैं जिसप्रकार कन्याएँ अकस्मात् आए हुए पुरुष को (वसुदेव को गन्धदन्ता की तरह) प्रसन्न की हुई होने से प्राप्त होजाती हैं, परन्तु उक्त बाद सरस्वती में नहीं है; क्योंकि विद्याएँ दिन-रात अभ्यस्त की हुई होनेपर भी गुरुकुल की उपासना न करनेवाले पुरुष को उसप्रकार प्राप्त नहीं होती जिसप्रकार भोगी जानेवाली मायुकी स्थितियाँ वृद्धिंगत नहीं होतीं ।
+ 'अस्थानस्थितमपिं क० । * 'कारयत्येव A अनं' म० ।
A 'ड्डू क्रोरपि तथा कर्ता इनन्ते कर्म वा भवेत् । अभियादिवशोरे आत्मने विषये परं ॥१२ इत्यभिधानात् शुषः इनंतस्य द्विकर्मत्वं इति टिप्पणी ।
१. रात आक्षेपालङ्कार ।