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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पस्याब । उत्सर्प दर्पसकुलविकटजटाजूटचिभ्यनिधूनि प्रान्तप्रेस्कपालावलिचलनरणण्टखट्वाङ्गकानि । दैत्यध्वंसप्रमोदो रविधुसकराभोगखर्वतिरीणि स्फाराधाताछियपातोलदुदधिशलान्युद्धसोदेहितानि ॥१३॥ अपि च तस्याः शरीरे मनसि किमिव नैर्धण्यं वयते। यस्याः कपालमालाः शिखण्डमण्टनानि, शवशिशक: श्रवणावतंसाः, प्रमितप्रकोष्ठाः कर्णकुण्डलानि, परेतकीकसमणयः कण्ठभूषगानि, परासुनलरसाः शरीरवशंकानि, गतजीविसकराः करक्रीयाकमलामि, सीधुसिन्धवः संध्याचमनफल्याः, पित्वनानि विहारभमयः, मिताभसितानि पनवसाः, पण्डातकमाईचर्माणि, सारसनं मृतकान्त्रच्छेदाः, प्रनर्तनप्रदेशः संस्थितोर:स्थलानि, कन्दुकविनोदः स्तमोत्तमाङ्क, जलकेलयः शोणिसदीपिकाभिः, निशादलिप्रदीपाः श्मशानकृशानुकीलामिः, प्रत्यवसानोपकरणानि नाशिरःकोटिभिः, महान्ति दोहदानि च सर्वसत्त्वोपहारेण । या व लघीयसी भगिनीव यमस्य, जननीव महाकालस्य, दूतिकेव कृतान्तस्य, सहचरीव कामानिरहस्य, महानसिकीव मातृमय दुलस्य, धात्रीच यातुधानलोकस्य, श्राद्धभूमिरिच पिलपतिपक्षस्य, क्षयराविरिख समस्यजन्तूनाम् , जिसकी ऐसी उद्धत चेष्टाएँ ( वेषभूषा-आदि) थीं, जिनमें ऐसे जटाजूट से चन्द्रमा भयभीत होरहे थे, जो कि विस्तृत और मदोन्मत्त काल-सों से वेष्ठित और विकट था। अर्थात्-प्रकट दिखाई देरहा था अथवा विशेष ऊँचा होने से गगनचुम्बी था। इसीप्रकार जिनमें क्षुद्र घण्टियों वाली खाट की ऐसी तकियाएँ थी, जो शरीर के आगे ( गले पर ) हिलनेसली मुण्डमाला के हिलने से शब्द कर रही थीं एवं जिनमें महिषासुर-आदि के मारने से उत्पन्न हुए हर्ष से उत्कट व कपनेवाले हाथों के विस्तार से पर्वत भप्र-शिखर होने के फलस्वरूप छोटे किये गए थे। इसीप्रकार जिनमें प्रचुर र निष्ठुर प्रहार करनेवाले चरणों के गिरने से समुद्र की जलराशि ऊपर उछल रही थी॥१३॥ विशेष यह कि उस देवी की शारीरिक व मानसिक निर्दयता का वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है? अर्थात्-उसकी निर्दयता असाधारण थी। मुदों को मुण्डश्रेणियाँ जिसके मस्तक के आभूषण हैं। मरे हुए बच्चे जिसके कर्णपूर है। मृतकों के प्रकोष्ठ (विस्तृत हाथ) जिसके कानों के कुपडल हैं। मृतकों की हड़ियाँ रूप मणियाँ जिसके कएठाभरण है। मुर्दो के नलों (पैर की हड्डियों) का रस ( उनसे निकलनेवाला पसला पदार्थ) जिसके शरीर का विलेपन द्रव्य था। मुदों के शुष्क शरीर ही जिसके कर-क्रीड़ा-कमल थे। मद्य के समुद्रही जिसकी संध्याकालीन पाचमनों की कुल्याएँ ( कृत्रिम नदिएँ) थीं। श्मशान भूमियों जिसके क्रीडावन ये। चिता की भस्मपशि जिसके मुख को विभूषित करनेवाले श्राभूषण थे। गीले चमड़े, जिसका लहंगा था। मुदों की आँतों के खण, जिसकी करधोनी थी। मुर्गों की हृदयभूमियों, जिसकी नाट्यभूमि थी। बकरों के मस्तकों से जिसकी कन्दुक-क्रीड़ा होती थी। खून की बावड़ियों से जिसकी जल-क्रीड़ा होती थी। श्मशानभूमि की पिता की अग्नि-ज्वालाओं से जिसके संध्याकालीन दीपक प्रज्वलित होते थे। मुर्दा मनुष्यों के शिर की इड़ियों से जिसके भोजन-पात्र निर्मित हुए थे और समस्त जीवों की बलि (हिंसा) रूप पूजन द्वारा जिसके मनोरथ पूर्ण होते थे। जो यमराज की छोटी बहिन सरीखी, रुद्र की मावा-सी और यमराज की दूती जेसी थी। जो प्रलय-कालीन रुद्र की सखी सरीखी और ब्रह्माणी व इन्द्राणी-श्रादि सप्त प्रकार के मातृ-मण्डल की पापिकासी और राक्षस लोक की उपमाता सरीखी थी। एवं जो यमराज के कर्ण में प्राप्त हुए की श्राद्ध-भूमि सरीखी और समस्त प्राणियों की प्रलय कालीन रात्रि जैसी थी॥ १. अतिशयालंकार । २. समुबमालकार । ३. मालोपमालकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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