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प्रथम श्राभास
न केवलमसौ नाला चण्डमारीसिं पप्रथे । अत्यत्तित्तचारियडमारोति निश्रुता ॥१८॥
तत्र सकल वलयामृतरुचिरभयरुचिमुनिकुमारस्ताग्वि जनसंबाधमनिधाता देवताकारं नाचनीय 'विशुद्धबोध तप एवं रक्षा मामेवरपयेषु च संपतानाम् । अतः कृतान्तेऽपि समीपवृत्ती मातर्मनी माम्भ निशम् ॥ १६ ॥ जीवस्य सहर्शनरस्नमाजधारित्रयुनस्य समाहितस्य । आसितो त्युरुषपसातः परं पमोदस्य समागमा ॥१०॥
सा मृसियंत्र जन्तूनां पुरो दुःस्त्रपरम्परा। देवस्यास्य पुनक्षिा पुण्यभाजी महोत्सवः ॥१४॥
इति निवेदयन्निव यतो मा कदाचिदस्याः स्त्रैणो भावश्चिान्मनोर यशरमादितमिदं मन्यजन्म रिफलता मादिति कृतानुकम्पनः सकरुणामभषमतेः स्त्रसुर्मुखमत्रासोकिष्ट ।
यत्रैरपि—पर्याप्तं विरसावसान कटुरुिचावचैन किनां सौस्यमानसःबदाबदहनव्यापारदधात्मभिः । इत्यं स्वर्गसुखावधारणपरैराशास्ते सहिनं यत्रोस्पन्ध मनुष्यजन्मनि मनी मोशाय धास्यामः ॥ १४ ॥
प्रस्तुत देवता केवल नाम मात्र से 'चण्डमारी' रूप से प्रसिद्ध नहीं थी किन्तु अपनी शारीरिक व मानसिक क्रियाओं ( करता-आदि ) से भी चण्डमारी नाम से विख्यात थी ।।१३८ll
उस चण्डमारी देवी के मन्दिर में उक्त क्षुल्लक जोड़े में से 'अभयरुचि क्षुल्लक' ने समस्त कुवलय (पृथिषी-मण्डल ) को उसप्रकार आल्हावित (आनन्दित) करते हुए जिसप्रकार चन्द्रमा समस्त कुवलय (चन्द्र विकासी कमल समूह ) को आल्हादित-प्रफुल्लित - करता है, महाभयङ्कर जन-समूह, राजा मारिदत्त
और चण्डमारी देवी की मूर्ति देखी। तत्पश्चात्---अपनी बहिन अभयमति क्षल्लिका को निम्नप्रकार योध कराते हुए ही मानों और इसकी स्त्री पर्याय दुःखों से क्षुब्ध होकर किसी अवसर पर, दीर्घकाल से सैकड़ों मनोरथों द्वारा प्राप्त किये हुए इस मनुष्य जन्म को विफलना में न प्राप्त करा देवे' इसलिए उस पर दया का वर्ताव करते हुए उसने दया दृष्टि से उसके मुख की ओर दृष्टिपात किया।
"बहिन ! यदि यमराज भी सामने आजाय नथापि अपना चित्त रक्षकहीन मत समझो; क्योंकि संयमी (चारित्र धारक) साधु पुरुषों की सम्यम्ज्ञान पूर्ण तपश्चर्या समस्त ग्रामों व पर्वतों में उनकी रक्षा करती है॥१३९|| हे वहिन ! सम्यग्दर्शन रूप चिन्तामणि रत्न से अलंकत और चारित्र (अहिंसादिवतों का धारण), धर्मध्यान ष शुकभ्यान से सुशोभित आत्मा को प्राप्त हुई मृत्यु केवल प्रशंसनीय ही नहीं है अपित निश्चय से शाश्वत कल्याण को भी उत्पन्न करनेवाली होती हैं ॥१४०॥ प्राणियों की मृत्यु वही है, जिसमें उन्हें भविष्य जीवन में विविध भाँति की दारुग दृश्य-श्रेणी भेगनी पड़े। परन्न पण्यवान पुरुष इस शरीर के छोरने को महान सत्सय ( प ) मानते हैं. क्योंकि उससे उन्हें भविष्य जीवन में शाश्वम सब प्राप्त होता है। ॥१४|| “ऐसे देवताओं के सुखों से, जो कि नीरस (तुच्छ) और अन्त में कटुक (हलाहलविषसरीखे घातक) है। इसीप्रकार जो उत्कृष्ट और निमट है। अर्थात् इन्द्रादि पदों के मुख उत्कृष्ट और किल्विषादि देवों के सुख निकृष्ट हैं तथा जिनका स्वरूप मानसिक दुःस्व रूप दावानल को प्रचलित करने के कारण भस्म (नष्ट ) कर दिया गया है, हम लोगों ( देवों ) का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।" इस प्रकार निश्चय करके स्वर्ग सुखों का त्याग करने में तत्पर हुए देवता लोग भी ऐसे उस दिन को प्राप्त करने की
१. समुच्चमालकार। २. रूपकालकार । ३. तथा चोक-मृत्युकल्पमं प्राप्य येनात्माथी न साधितः । निमग्नो जन्मजन्याले सः पवान् किं करिष्यति ॥१॥
संस्कृत टीका पू. १५२ से समुत-सम्पादक अर्थातजिसने मृत्युरूपी कल्पधुक्ष प्राप्त करके आत्म-कल्याण नहीं किया, वह संसार रूप कोचर में फंसा हुआ दाद में क्या कर सकता है ? अपितु कुछ नहीं कर सकता।