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________________ यशस्तिलकपम्पूचव्ये जलवापि जन्मे म धर्माय सहते। कलात्मक भूनी विमला भवाराः ॥ १४३ ॥ स्थिरप्रकृतिरभारमतिरपि। तेनैव पर्याप्तमुदारसद स्नेदेन मे सन बस्स । तस्मादेई मयि च साशः पर पदे तत्र मनो मिहि ॥ १४ ॥ सं मोजलक्ष्मीझममीक्षवेद: सीवान तम्मा पमिदं वपुर्ने । अतो मसीतासरायो मुमस्यङ्गनासंगमने यत्तस्व ॥ १४६ ॥ हति विश्तिपरमार्धतयाधीरितमरणभया प्रसाश्वझिरपाले सहजम्मनरदेतसि शोधनविश्वामित्रापचिन्नती सदाननमपश्यत् । लि। देहारते कर्मण्ययं नरः कीजमोऽवनिति भवति । रिसायो कम्पत्रिका नारी तु मध्यमः पुरुषः ॥१४॥ अचलापतिपि स मारि (1) पस: पतीहानिदेशिामनासम्म अनिकमाएकयुगलप विलोकास्कुम्भोजदोरमाचोमाशा व नितरां प्रसलाइ चेतास, विरवा निगम मुमोच मावा बोलयो, जिनैतिभावामाग्महाभाग वनरकमवाप करणे, इण्या करते है. जिस दिन हम लोग (देवता लोग ) मनुष्य जम्म धारण करके समस्त कर्मोके शयरूप मोक्षमार्ग में अपना चित स्थिर करेंगे' ॥१५२।। जो मानव, इस मनुष्य जम्म को प्राप्त करके भी अहिंसा रूप धर्म के पालन करने की सुचारु रूपसे पेटा नही करवा उसके जीव और कर्म के प्रदेशों में दूसरे जन्महप नहर विस्तार पूर्वक उत्पन्न होवे ॥१४॥ ___ पश्चाम् चरित्रपालन में निश्चल स्वभावपाली प परमार्थ (प्रस्वहान ) आनने के फलस्वरूप मृत्यु-भय को निशरण करनेवाली अभयमति भुलिकनी ने अपने सहोपर-भाई (अभयाधि क्षुल्लक ) की मानसिक पीया को दूर करती हुई ही मानों-विशेष प्रसन्नपूर्वक इसके मुख-कमल की ओर देखा। हे विशिष्ट सानी बंधु ! पूर्वजन्म ( चन्द्रमती की पर्याय ) में उत्पन्न हुए स्नेह से मुझे पूर्णता होचुकी है, इसलिए अपने व मेरे शरीर से ममत्व छोड़कर शवम् कल्याण कारक मोक्षपद में अपनी चित्तवृत्ति स्थिर करो' ||४|| क्यों के तुम्हारा शरीर मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करानेवाली तपश्चर्या के योग्य है और स्त्री होने के कारण मेरा यह शरीर मोक्ष-दीक्षा में माननीय नहीं है, अतः मेरे शरीर की चिन्ता छोड़कर | मुखिहप बी के साथ समागम करने में प्रयाको ४ा यधपि शरीरानित क्रियाओं (मोक्षोपयोगी सपश्चर्या-आदि) में पुरुष और सीका मेव मर्यात-पत्नी की अपेक्षा विशेष तपश्चर्या-मादि कर सकता है परन्तु इब के अधीन रहनेवाली क्रियानो (पालना, पारवा, सरलता व शीलधर्म-आदि सद्गुणों) में पुरुष की अपेक्षा नारी में विशेषता है। सीता-मादि की तर विशेष प्रशंसनीय है, जबकि पुरुष रक गुणों में मारी की अपेक्षा मणा ) ॥१४॥ इस भुलक जोड़े के दर्शन से, जिसन पाने व चाबहारपाल द्वारा निवेदन किया गया था, मारित यहा का घिन उसप्रकार अत्यन्त प्रसन्न हुआ जिसमकार अगस्य नामक तारा के उदय से समुद्र प्रसन (वृद्धिंगत ) होजाता है। जिसप्रकार सूर्योदय से भाकाश मलिनता छोड़ देता है उसी घर इसके दर्शन से मारिदस्त राजा के नेत्रों ने कलुपता (मरष्टेि) बोर दी। जिसप्रकार पुण्यवान् पुरुष के रदय में जैनागम के ज्ञान से करुणारस का संचार होता है इसीप्रकार प्रस्तुत क्षुल्लक जो के दर्शन से मारिदत्त राजा की इन्द्रियों में भी करुणारस का संचार हुमा । १. कालबार। 1. पालद्वारा उशामार। ४. जाति-महार। ५. सपचालझार । ६, जाति-अलार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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