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प्रथम आवास
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प्रणिधानविशेषान्मुमुक्षुरिव तमस्तिरकारान्तरास्मदिशि । पुनः कोपप्रसादयोरपरनपालक्ष्मी लाघवेत व्यवहारपरिक देदविभ्रमेण लोलासनसंश्रमेणापवार्य सभाभ्यन्तराध्वनि जनसंबाधम् अतीव च मनसि विस्मयमानः प्रकर्षवभिन्न बिन्दुमझरीजविरुपक्ष्म पल्लवः 'कथं नामैतदर्शनादाचान्यामृतमित्र नृशंसायामपि मुदुः प्रशान्तं मे येतः, चक्षुः पुनः कुलिशकीलितमय कथं न विपाभ्यामवगाहते, चिरप्रत्रसितप्रयजनलोकन दिन कम
रमन्तदि चित्तमपि चेदं विरायाचरित परिचयमिव कथसतीत्रानन्दथुमन्थरम् किं नु खलु तदेतत्र स्वान्सम भागिनेययमलम्, आचकगं चापरे रेव रेवल नामप्रसिद्धा कुलवृन्दादेवस्य बालकाल एवाश्वयं उपर्यापर्या भवन्ति मानीन्द्रियाण्यपि प्रिषणनेषु प्रायेण प्राखस्तपनतेजांसीव रागोल्वणत्रयसि । यतः । आवाष्पजलपूरितनेषपात्रैः प्रत्यचतै पूर्वमेव ॥ १४॥
जिसप्रकार धर्मध्यान व शुक्लध्यान के माहात्म्य से मोक्षाभिलाषी मुनि का मानसिक अज्ञान नष्ट होजाता है उसीप्रकार उस क्षुल्लक जोड़े के दर्शन के प्रभाव से मारिदत्त राजा का मानसिक अज्ञान नष्ट होगया । तदनन्तर उसे देखकर मन में विशेष आश्रर्य करते हुए उसके पक्ष्म (नेत्रों के रोमान ) रूप पल्लव अत्यन्त आनन्द के अनुपात की क्षरण होनेवालीं विन्दु-वह्नरियों से व्याप्त होगए । तत्पश्चात् उसने ऐसे भ्रुकुटिलता के उत्क्षेप ( चढ़ाना) संबंधी श्रादर से, जिसने कोप और प्रसाद ( प्रसन्नता ) में दूसरे राजाओं की लक्ष्मी का लघुत्व और महत्व - रूप बोलने का ज्ञान करने में तराजू-दण्ड की शोभा तिरस्कृत की है। अर्थात् - जिस भ्रुकुटि उत्क्षेप संबंधी कोप से शत्रुभूत राजाओं की लक्ष्मी लघु (क्षीण) और प्रसाद से मित्र-राजाओं की लक्ष्मी महान होती है ।" सभा के मध्य मार्ग पर वर्तमान सेवक समूह को हटाकर अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया
" इस क्षुल्लक जोड़े के दर्शन से मेरा मन, जो कि पूर्व में जीव-हिंसा के दुरभिप्रायवश अत्यन्त कलुषित ( मलिन ) होरहा था, अमृत पान किए हुए सरीखा क्यों चार घार ( विशेष ) शान्त ( क्रूरता रहित-अहिंसक) होगया है । अब मेरा नेत्र-युगल, वाकीलित-सा निश्चल हुआ, इसे छोड़कर दूसरे प्रदेश की ओर क्यों नहीं जाता ? जिसप्रकार चिरकाल से परदेश में गये हुए प्रेमीजन के दर्शन के फलस्वरूप यह आत्मा मन में विशेष आनन्द विभोर हो उठती है उसी प्रकार इसके दर्शन से मेरा हृदय क्यों इतना अधिक आनन्द-विभोर होरहा है? ऐसा प्रतीत होता है-मानों- मेरे हृदय ने इस क्षुल्लक जोड़ से चिरकालीन परिचय प्राप्त कर रक्खा है। इसीलिए यह विशेष उल्लास से मन्दगामी होरहा है। अथवा निश्चय से क्या यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ क्षुल्लक जोड़ा, मेरी बहिन की कुक्षि से साथ-साथ उत्पन्न हुआ भाज-भाजन का जोड़ा तो नहीं है ? क्योंकि मैंने कल या परसों ही 'रेवतक' इस प्रकट नामवाले कुलवृद्ध के मुख से अपने भानेज-भानेजन के जोड़े को बाल्यकाल में दीक्षित होकर आश्चर्य जनक तपश्चर्या करते हुए सुना था। क्योंकि जिसप्रकार प्रातः कालीन सूर्य के तेज (प्रकाश) विशेष अनुरक्त (लालिमा-युक्त ) होजाते हैं उसीप्रकार चक्षुरादिक इन्द्रियाँ भी पूर्व में बिना देखे हुए प्रियजनों (बन्धुओं) को देखकर प्रायः करके अनुराग से उत्कट तारुण्यशाली ( प्रेम-प्रवाह से ओतप्रोत ) होजाती हैं।
मनुष्यों के ऐसे हृदय, जिन्होंने अपने नेत्र रूपी वर्तन, जिसे देखकर आनन्द की अश्रु-बिन्दुओं से भरपूर कर लिये हैं, और जो सर्वाङ्गीण हर्ष के रोमाच रूप पुष्प पुत्रञ्ज से जिसकी पूजा करने तत्पर होजाते हैं एवं आनन्द रूप मधुपर्क (दही और घृत आदि) द्वारा जिसका अतिथि सत्कार करने में प्रयत्नशील होजाते हैं, उसे पूर्व में ही (बिना संभाषण किये ही ) अपना प्रिय जन (बन्धु वर्ग ) निश्चय कर लेते हैं ||१४७||
१. मथासंख्य अलंकार । २, रूपकालंकार ।
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