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________________ प्रथम आश्वास सिंह व उपलोललोचनः संहाराविष्टः शिपिविष्ट एव भ्रुकुटिभीमः समालो किताशतिघटः सुमट व स्फुरिताधरः, सपत्नलोहितत्रिनिनकामः परशुराम इव शोणशरीरः प्रकटितण्डिाउस्बर: प्रलयकालाम्भोधर इव निर्खिशदुर्दर्शः प्रस्यूतिस्वाम्स: कृतान्त इव भीषणाकारः, क्रौर्यानलस्कुलिङ्गवर्षी जिसैकशितैः पर्यन्तेषु दायादन्यप्तिमिव परिस्फारयन् । 65 कि च । ज्वलन्निवान्तहितेन तेजस्सा सिवोद्रेण विष्टोकिते। काशीविषः १३६ ॥ सा देवता च वंट्राकोटिनिविष्टदृष्टि कुटिलक्ष्य लोकविस्फारित भङ्गोजदभाव भी पशमुखत्रस्यत्रिलोकी पति । सालादोगलोचना नलमिलवाकर छाम्बरप्लष्ट हिष्टपुरश्रयं विजयते यस्याः प्रचयं वपुः ॥ १३६ ॥ - इसलिए वह सिंह- सरीखा प्रतीत होता था । अर्थात् जिसप्रकार सिंह शिकार करने के लिए वीत्र क्रोध पूर्वक अपने पैर पंजे उठाता हुआ नेत्रों का चपल बनाता है उसीप्रकार क्रूर हिंसा -कर्म में तत्पर मारिदस राजा भी जी - हिंसा दुरभिप्रायवश तीत्र-क्रोध पूर्वक अपने पैर उठाते हुए नेत्रों को चपल कर रहा था।" भ्रुकुटिभङ्ग से भयानक प्रतीत होनेवाला राजा मारिदत्त पृथ्वी का प्रलय करनेवाले शिपिविष्ट ( फर्कश शरीर धारक श्री महादेव ) सरीखा मालूम होता था । अर्थात् -जिसप्रकार श्रीमदादेव पृथिवी का प्रलय करने के अभिप्राय के अवसर पर अपनी भ्रुकुटि चढ़ाने से भयङ्कर प्रतीत होते हैं उसीप्रकार प्रस्तुत मारिदन्त राजा भी प्रस्तुत जीव हिंसा के अवसर पर अपनी भौहों को चढ़ाने से भयङ्कर प्रतीत होता था । वह क्रोधवश ओठों को उसप्रकार संचालन करता था जिसप्रकार शत्रु-रचनाको भलीप्रकार देखनेवाला सुभट (सहस्रभट, लक्षभट, और कोटिभट योद्धा वीर पुरुष ) को वश अपने ओष्ठ का संचालन करता है । वह क्रोधवश उसप्रकार रक्त शरीर का धारक था जिसप्रकार मारे हुए शत्रुभूत क्षत्रियों के रक्तप्रवाह में स्नान करने के इच्छुक परशुराम का शरीर क्रोधवश लाल वर्णशाली होता है। जिसप्रकार बिजली-दंड का विस्तार प्रकट करनेवाला प्रलयकालीन मेघ महान् कष्ट से भी देखने के लिए अशक्य होता है उसीप्रकार बद मारिदत्त राजा भी खङ्गधारण करने के फलस्वरूप महान कष्ट से भी देखने के लिए अशक्य था । उसकी आकृति उसप्रकार भयानक थी जिसप्रकार बिन-बाधाओं से व्याप्त मनवाले यमराज जी आकृति भयानक होती है । यह क्रूरता रूपी अभिकणों की दृष्टि सरीखे अपने निरीक्षणों द्वारा सामने दावानल अभि के दीप्तिप्रसारको प्रचुर करता हुआ सरीखा प्रतीत होरहा था । * उसका विशेष वर्णन यह है कि वह मारित राजा आभ्यन्तर (हृदय) में प्रदीप्त हुए प्रताप से जल रहा सरीखा और अपनी तीव्र व क्रूर दृष्टि से जगत को भस्म कर रहा सरहखा एवं अपने प्रचण्ड व्यापार से जगत को भक्षण कर रहा जैसा प्रतीत होरहा था एवं जो आशी विष (दंष्ट्राविष या विचासर्प) समान अत्यन्त भयङ्कर मालूम होता था ।।१३५|| उक्त शुलक जोड़े ने ऐसी चण्डमारी देवी, देखी। जिस देवी का ऐसा अत्यन्त महान् शरीर, अप्रतिहत ( न रुकनेवाले ) व्यापार रूप से वर्तमान है। जिससे तीन लोक के स्वामी ( इन्द्र, चन्द्रव शेषनाग यादि ) इसलिए भयभीत होरहे थे, क्योंकि उसका मुख, दाद के अग्रभाग पर लगी हुई दृष्टि (नेत्र) के कुटिल निरीक्षण से प्रचुर किये हुए ( बढ़े हुए ) भ्रुकुटि भङ्ग ( भोड़ों का चढ़ाना) के आडम्बरपूर्ण अभिप्राय ( समस्त प्राणियों का भक्षणरूप आशय ) से भयानक था । इसीप्रकार जिसके द्वारा ऐसे आकाश में, त्रिपुर वान के तीनों नगर भस्म किये गये थे, जो कि उसके ललाट में उत्पन्न हुए ब प्रकट प्रतीत होनेवाले तीसरे नेत्र की अभि में एकत्रित हुई ज्वालाओं से रौद्र ( भयानक ) था ।।१३६।१ १. उपमालंकार | २. उपमालंकार । ३. उपमालङ्कार ४. उपमालङ्कार । ५. अतिशयालङ्कार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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