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________________ यशास्तलकचम्पूकाव्ये पहिसःस्फोट डिभिमः ( दिया) प्लमुराराने कायु शानिधिताल मलविलान्तालजातजन्तजनितभुजप्रयासस्थापि कास्पनीमोग स्वयमासम्मनारम्भासंभवादविहितहिंसाध्यवसागनारप्रामारण्यजन्मसमवायः पनजनैः समस्तं जगत्मजिहीभिः पिनाकपानिपरिजनैरिव परिवृतं महाभैरवं नाम तद्देवतापतनमानिन्ये ।। - लाभ्यां ... भावार्जन्म, बरं चयः, श्व चार्ग परमदशामाघनीयतपश्रणयक्रमः, पर पेय धर्मान्तरायपरम्परायां देवस्य मइती निघ्नना, सायमसाशप्रदेशप्रवेशः' इति ममानुशयस्तिमितातिभ्यामलिलक्षिवलशवलोकिभिरवशाकितहरहारायोयनोसानामदिनामाजन्मजीवनशपः कमलकुवलय कुसमाशिष व स्पर्शयजयामुस्सपिभिबोक्यपावनालेवः पावसयमयूखस्ताविशेषु देहिषु वधानुबन्धिवासि मनस्तमांसीव साक्ष्यद्भ्याम् । उत्सातम्रहो मुनिबालकाम्याम्यहोकि भूपो भवने भवाम्याः। नितम्मबिस्वोत्फणभागिभीमस्तीधरो मध्य स्थापगाया। ॥१३॥ भए - हिंसाध्यबसायाशयमद्धकोधानुबन्धाइमोसाइ: पहिस ( अस्त्र-विशेष ). मूसल. भुपुएिड-गर्जक ( अम्नविशेष ) भिण्डिमाल (गोफण ) और लोधन को आदि लेफर यष्टि, शक्ति, छुरी, गौशादी-आदि गनेक काशिनास निर्मिन रोके गए स्थल-जात (मृग-प्राडि ), जल-जात ( मगर-मरछ-आदि), विलों में पैदा हुए । सर्प-आदि ) जीवों से, प्रयास (दुःख) उत्पन्न कराया गया था। और जो अब भी ( समस्त जीवों के एकत्रीकरण के अबसर में भी) पृथ्वीपति (मारिदस राजा । द्वारा सत्र से प्रथम हिंसा का प्रारंभ नहीं किया गया था, इसीलिए ही जिन्होंने जोनों कर घात कर्म ( अलि नहीं किया था। और जिनमें कल ऐसे निर्दयी पुरुषों के समह थे, जो कि पर्वत. मार, पाम और वृक्षशाली बनों में उत्पन हुए थे। समस्त पृथिवी-भडल का संहार, (नाश) करने के इच्छुक हुए जो श्रीमहादेव के कुटुम्ब वर्ग सरीखे प्रतीत होते थे। "कहाँ तो प्रशस्त राजकुल में हुआ हमारा जन्म और कहाँ हमारी यह सुकुमार अवस्था और कहाँ वृद्धावस्था में धारण करने योग्य प्रशंसनीय तपश्चर्या का प्रारम्भ एवं कहाँ यह भाग्य की गुरूतर-अत्यधिकतत्परता. जो कि तपश्चर्या में वित्र समूह उपस्थित करती है एवं कहाँ यह अयोग्य स्थान पर गमन"। इसमकार की विचारधारा के फलस्वरूप कुछ पश्चाताप करने के कारण मन्द गमन करनेवाले ऐसे क्षुल्लक जोड़े द्वारा, जो ऐसा प्रतीत होरहा था-मानों-समस्त दिशाभों के मण्डल को देखनेवाली अपनी दृष्टियों द्वारा उन प्राणियों के लिए, जो कि देवी की पूजा के निमित्त बलि (घात, फरने के उद्देश्यसे लाये गये थे, आजीवन जीवन-दान देनेपाली कोमल और नीलकमल के पुष्पों सरीस्वी माशिषियों ( मस्तकों पर पुष्पों का निक्षेप रूप आशीर्षादों) को ही प्रदान कर रहा है। इसीप्रकार जो ऐसा मालूम पड़ता था, मानों-अपने घरों के नख-समूह की फैलती हुई ऐसी किरणों द्वारा, जिनके अप्रभाग तीन लोक को पवित्र करनेवाले थे, बलि के निमित्त लाए हुए उन प्राणियों की हृदय संबंधी दीनतात्रों को, जिनमें उनके घात की अवस्थाएँ वर्तमान है, प्रकाशित कर रहे थे। पण्डमारी देवी के 'महाभैरव' नाम के मन्दिर में ऐसा 'मारिवत' राजा देखा गया, जिसने हाथ से तलपार छा रखी थी, इसलिए जो नदी के मध्य में वर्तमान ऐसे पर्वत सरीखा था, जो कि कटनी मंडल (मध्य पार्श्वभाग ) पर फणा उठानेवाले सर्प से भयङ्कर है।" ।।१३४॥ उसका विशेष वर्णन यह है इस मारिदत्त राजा ने जीव-हिंसा संबंधी व्यापार के तुरभिप्राय की क्रियानिपतन से बढ़े हुए तीव क्रोध की निरन्तर प्रवृत्ति से अपने पैर उठाने का उद्यम किया था एवं विशेष रूप से अपने नेत्र चंचल किये थे __ * 'पुष: हाते कः । १. उपमा र समुच्चयालंकार । २. विमाटंकार । ३. यथासंख्योपमालबार । ४. उपमालंकार। ५. अतिशचालकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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