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________________ ७५ प्रथम आश्वास अर्थ महामेच निरस्तदोषः कृती करें प्रासपये मम स्यात् । इति व्यपेक्षास्ति न जातु देवे तस्मादल दैन्यपरिग्रहेण ॥ १३३ ॥ हवि ध्यायत. अनायतभसेवनं च तदाराधनतधिषणानामसंशयं सद्दर्शनं तिमिश्यतीति चानुस्मरणस्मेरान्तःकरणम्, सरीरेण प्रतिपद्मतन्मनुष्यमार्गानुसरणम्, तत्र कानने कैश्विष्कृतान्तदंष्ट्राकोटिकुटिएकर बालाला सन्मानसमेपम हिपमयमातङ्गमिवं पतपाणिभिः कैमिस्कीनाश र सनातरछतर वारिधारा जलरुधिर । बले इलास पलाशवेश भयपट कुम्भीरमकरसालकुलीरकमडपा की मकठोर कर प्रयत्नैः कैश्रिन्मृत्युमुखावर्त निभोद्भ्रान्तभ्रमिभ्रमिभीषित भेरुण्डको कोक कुर्कुटकुर र कलहंसग्रहणमितिमाहुभिः कैस्पिरेशपतिपुरमाग निकारिकाण्डमण्डितमरचमूरु (र) हरिहरिणकत्र राहवानर गौर कर कुलितहस्तैरपरैव गमावासप्रवेश परप्रास भयङ्कर दुःख भोगे और संसार समुद्र में डूबने से ( मयूर व कुत्ता आदि की पर्यायों के दुःख भोगने से ) थोड़ा तुम्हें आनन्द पहुँचाया। तत्पश्चात् - ऐसी राज्यलक्ष्मी का भी, जिसका योग्य अभिप्राय तुम्हारी क्रीडाप्राप्ति का हेतु है, त्याग किया। हे विधे ! तथापि अब भी यदि तुम संतुष्ट नहीं होते । श्रर्थात्उक्त दुःखों के सिवाय दूसरे दारुण दुःख देने के इच्छुक हो तो उन अपूर्व दुःखों के भोगने के लिये भी हम सहर्ष तैयार हूँ' || १३२|| अमुक मानव महान, निर्दोष व पुण्यशाली है, इसलिये मेरे मुख का प्रास किस प्रकार होसकता है ? इसप्रकार विचार करने की इच्छा कराल काल नहीं करता । अवसर पर दीनता दिखाने से कोई लाभ नहीं |१३|| अतः ऐसे "कुत्सित देवता के मन्दिर में जाने और उसके दर्शन करने के फलस्वरूप सम्यग्दर्शन की आराधना के कारण स्थिर बुद्धिशाली सम्यग्दृष्टियों का सम्यक्स्व निस्सन्देह, मलिन होता है" इसप्रकार की विचारधारा से जिसका चित्त कुछ विकसित होरहा था और जिसने केवल शरीर मात्र से ( न कि मन से ) कोहपालसेवकों का मार्ग अनुसरण स्वीकार किया था, ऐसा वह भुल कजोड़ा कोटपाल - किङ्करों द्वारा पकड़कर 'महाभैरव' नामक एडमारी देवी के मन्दिर में बलि किये जाने के उद्देश्य से लाया गया । कैसा है वह 'महाभैरव' नामका मन्दिर ? जो वन में स्थित हुआ ऐसे निर्दयी पुरुषों से वेष्टित था, जिनमें कुछ ऐसे थे, जो यमराज की दाद के अमभाग सरीखे कुटिल खन्न को श्रधा निकालने से भयभीत मनवाले मेड़, भैसे, ऊँट, हाथी और घोड़ों को बलि करने के लिए अपने हाथों से पकड़ े हुए थे। और उन ( निर्दयी पुरुषों) में कुछ ऐसे थे, जिनके हाथों का प्रयत्न ( सावधानता ) ऐसे नक, मकर, मैंडक, केकड़े, कछुए और मच्छ-आदि जलजन्तुओं के ग्रहण करने से कठोर ( निर्वृयी ) था, जो कि यमराज की जिह्वासरीखे चञ्चल तलवार-संबधी धारा ( प्रभाग ) जल में स्थित रुधिर का चारों तरफ से आस्वादन करने की विशेष आकाङ्क्षा करनेवाले राक्षसों के प्रवेश के भय से नीचे गिर रहे थे। और उनमें से कुछ ऐसे थे, जिनकी भुजाएँ, ऐसे भेरुण्ड ( महापक्षी ), कुररी गण, चकवे मुर्गे, कुरर ( जलकाक ) और कलहंस ( वतख ) पक्षियों के, जो यमराज की मुखरूप भँवर के सदृश ऊपर घुमाए हुए चक्र के चलने से भयभीत किये गए थे, ग्रहण करने से व्याकु क्षित थीं। और उनमें से कुछ ऐसे थे, जिनके इस्त यमराज के नगर संबंधी मार्ग समान भयङ्कर बाणों द्वारा कुपित व भयभीत किये गए चमरीमृगों, व्याघ्रों, शेरों, मृगों, भेड़ियों, शूकरों, बन्दरों और गोरखुरों ( गधे के आकार पंचेन्द्रिय सम्मूर्च्छन जीवों) से व्याकुलित थे । इसीप्रकार जो 'महाभैरव' नामका मन्दिर उक्त निर्दयी पुरुषों के सिवा दूसरे ऐसे निर्दयी पुरुषों से वेष्टित था। जिनकी भुजाओं में, यमराज के निवासस्थान ( यमपुर ) में प्रविष्ट करानेवाले सरीखे भाले, १, रूपकालङ्कार | २. आक्षेपालङ्कार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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