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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पसंकल्पकालोलोस्टोक्सान्तसिन्धुमिः, 'सचिम्पान्तर्भवतु मामैवम् । स्थाप्यस्मिन्मत्रादेववर्मणि न प्रायेणालेबासि। यस्मादस्माकमप्याजम्माधर्मकर्मोपनीविनां निसर्गस भायभूलिकानपशाभिनिवेगासेविनामेतानामसात वारसः स्वभावकाठिन्यनिष्ठुरोदर्य हृदयं सत्करोति कि पुन न वस महीपतेविगेकाहस्पतेः प्रत्यैव च विधुरबान्धवस्थितः। सदा पथा स्वामिरासनसम्पधापत्ति न भजेत, पपा पेदं प्राणायाममयामोहिते, सथानुसितामः इत्यभिप्राय: प्रकपपराक्रतुष्टाम्तःकरणैः, मो मिसिलमानोनिस्लिीपरिनिरानतिमिधान मशिनिदान धर्मकया. स्वाधगल मुनिमारमयुगल, एसस्मिनुपासवर्तिनि बने भवामीभवनमतचातुराश्रमगुरुवातमन्त्रमाहात्म्याहारसकुल संभूतस्मफलपलवासंकृतकरशालाबालाइनपााचनमवसोः स्वयमेव स्वयंभुवा भुवनानन्दसपादितदेहसौदर्यरतोरागमनमाकण्य युष्मदर्शनकृतहली शवपि भवन्तौ भाइरविन सदित इत भागम्यताम् इति भावितमि निर्भी, भनीषा समनुष्यागामिव तं भीषणं वेपमीपदुम्मेषेण पक्षुषा निरीक्ष्य , 'सोडस्त्वत्प्रणयादनेग मनला सासदावानल संसाराम्पिनिमनामावपि पिचदानन्दनम् । सस्त्रीरोगमकारणोचितमतेस्स्थतः निषः संगमो यषणापि विषे न तुपसि सवा तत्रापि सजा वयम् ॥ १३३॥ अस्तु ( इसप्रकार सेवावृत्ति महाम् पाप भले ही क्यों न हो) सयापि स्वामी (मारिदास महाराज) की माझा-पालनरूप इस कार्य में हम लोगों को प्रायः करके कष्ट नहीं होसकते। क्योंकि इस क्षुल्लक जोदे के दर्शन-देग से उत्पन्न हुआ करुणारस जब हम लोगों के, जो कि जन्म-पर्यन्त पापकर्म से जीविका करते हैं और जिनका चित्त सोषणकर्म (महान् जीव-हिंसा-श्रादि पापकर्म ) करने के कारण खोटा अभिप्राय रखता है, स्वाभाविक निर्दयता से निष्ठुरता-युक्त हृदय को कोमल बनाता है, तब मान की अधिकता में वृहस्पति सरीखे और दूसरों के दुःखों में स्वभावतः पन्धुजनों की तरह करुणारस से भरे हुए मारिदत्त महाराज के हदय को कोमल नहीं बनायगा ? अपितु अवश्य पनायेगा। अतः ऐसे अवसर पर हम लोगों को ऐसा कार्य करना चाहिए, जिससे स्वामी की आज्ञा का उल्लमान न हो और यह क्षुलक जोदा मी प्राण जाने के भय से भयभीत न होने पावे।' इसप्रकार हृदय से प्रेम करने में तत्पर और निर्दोष-दया-युक्त अन्तःकरण-शाली उन कोहपाल-किकरों ने निम्नप्रकार कहे हुए वचनों द्वारा दूसरों को धोखा देने के प्राइम्बर से परिपूर्ण होकर उस क्षुल्लक जोड़े से निम्नप्रकार वचन कहे तीन लोक को अनौखा मजल ( पापगालन व सुखोत्पादन ) उत्पन्न करनेवाली कीर्तिरूपी गला से पवित्र हुई शारीरिक निधि के धारक, विशुद्ध चरित्रशाली और धर्मकथाओं से व्याप्त हुए काठ से विभूषित ऐसे हे साधुकुमार युगल ! (श्रुष्टक जोड़े: ) इसी समीपवर्ती बगीचे में 'चण्डमारी देवी के मन्दिर में स्थित हुए ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति इन चार आश्रमवासियों के स्वामी मारिवत्त महाराज ने ऐसे बनमाली द्वारा, जिसके कर-कमलों का अङ्गलि-समूह, आपके चरित्ररूप मन्त्र के प्रभाष से खिंचकर भाई हुई समस्त ऋतुओं (हिम, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ऋतुओं) के पुष्पों, फलों व पल्लवों से सुशोभित होरहा था, आप पूज्य महात्माओं का, जो ऐसे अनौखे शारीरिक सौन्दर्य से अलंकृत हैं, जिसे ब्रह्मा ने तीन लोक को आनन्दित करने के लिए स्वयं निर्माण किया था, आगमन सुना है, अतः आपके दर्शन की तीन लालसा-युक्त हुए वे आप दोनों को बामन्त्रित कर रहे हैं, इसलिए यहाँ आइए। इसप्रकार धोखा देनेवाले उन कोरपाल किंकरों द्वारा बलि के निमित्त पकड़े हुए क्षुल्लक जोड़े ने यमराजके नौकरों सरीखे धनका महाभयपुर आकार कुछ उपादे हुए नेत्रों से देखकर निम्न प्रकार वचार कया है विधि ! (हे पूर्वोपार्जित कर्म !) तुम्हारे स्नेहबश इस आत्मा ने वह दुःस्वरूप दावानल सहन किया। अर्थान् पूर्वजन्मों ( यशोधर-आदि की पर्यायों ) मैं षिष-आदि द्वारा मारे जाने-आदि के
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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