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________________ प्रथम आश्वास आपातदुस्सहेमहापरी रहेखि तपः परीक्षितुमुपासाकारविधिभिर्धर्म प्रणिधिभिरिव प्रतिपक्षभावनाप्रकोपपतीः कर्मभिरिव धर्म,सप्रवः कलिकालतलैरिव प सैस्तदानपनाप सेन महीक्षिता प्रेषितनागरिकानुचरगणैः परिगा परम्पराचरितवस्त्र चीक्षणैः 'आः, कटा स्खलु शरीरिणय सेवया जीवनरेश पुरुषेषु । यस्मात् सस्य पूरे विहरति सम सामान पुंसो धर्मचित्तास्सह करणया याति देशान्तराणि । पापं शापादिय प सनुते मीपणन सायं सेवाकृतेः परमिह परं पातक नास्ति किंचित् ॥१३०॥ सौजन्यमैत्रीकरुणामणीमा व्यर्थ न भृत्यजनः करोति । फलं महीशादपि नैव तस्य यतोऽर्थमेवार्थनिमितमाहुः ॥१३१॥ ऐसा यह क्षुलक जोड़ा राजा मारिदत्त द्वारा मनुष्य-युगल लाने के लिए भेजे हुए ऐसे कोट्टपाल किडरों द्वारा पकड़ा गया, जो भागमन मात्र से उस प्रकार दुःखपूर्वक भी नहीं सहे जाते थे जिसप्रकार क्षुधा व सृषा-मादि परीषह भागमन मात्र से दुःखपूर्वक भी नहीं सहे जाते। जिन्होंने असुर-कुमारों (नारकियों को परस्पर में लड़ाने वाले देवताओं ) सरीखी भयानक आकृति धारण की थी। अतः जो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-प्रस्तुत क्षुल्लक जोचे की तपश्चर्या की परीक्षा हेतु आए हुए राजकीय धर्म सम्बन्धी गुप्तचर ही है। अर्थात-जिसप्रकार राजा के धर्म सम्बन्धी गुप्तचर धर्म की परीक्षा करने के लिए असुरों (वानों) सरीखी रौद्र ( भयानक ) आकृवि धारण करते हैं उसी प्रकार प्रस्तुत कोट्टपाल के नौकरों ने भी सक्त मुलक जोड़े की तपश्चर्या की परीक्षा करने के हेतु भसुराकार (रौद्र-आकृति) धारण की थी। जो ज्ञानावरण आदि को-सरीखे प्रतिपक्ष-भावना से विशेष क्रोध करते थे। अर्थान्-जिलकार शानायरल-बाद में प्रतिपक्ष-भावना श्रामिक भाषना-धर्मध्यानादि) से विशेष ऋध करते हैं (धर्मध्यानादि प्रकट नहीं होने देते ) उसी प्रकार वे भी प्रतिपक्षभावना ( शत्रुता की भावना ) से उत्पन्न हुए विशेष क्रोध से परिपूर्ण थे। वे धर्म का ध्वंस करने में उस प्रकार विशेष शक्तिशाली थे जिस प्रकार पंचमकाल (दुषमाकाल) की सामर्थ्य धर्म के ध्वंस करने में विशेष शक्तिशाली होती है। तदनन्तर (उस क्षुल्लक ओड़े को पकड़ लेने के बाद वे लोग परस्पर एक दूसरे के मुख की ओर देखने लगे और उनका मनरूप समुद्र निम्नप्रकार अनेक प्रकार की संकल्प-विकल्प रूप तरकों द्वारा विशेष चञ्चल हो उठा। उन्होंने पश्चाताप करते हुए विचार किया कि "दुःख है प्राणियों में से मनुष्यों की सेवावृत्ति की जीवन-क्रिया निमय से विशेष निन्दनीय है। क्योंकि सेवावृत्ति करनेवाले मानवों का सत्य गुण समानता के साथ दूर चला जाता है (नष्ट इजाता है) और उनके मन से प्राणिरता रूप धर्म करुणा के साथ दूसरे देशों में कूचकर जाता है-नष्ट हो जाता है। एवं जिस प्रकार महामुनि द्वारा दिया गया शाप सैकड़ों व हजारों गुण बढ़ता चला जाता है ससीप्रकार सेवावृत्ति करनेवालों का पाप भी क्षुद्र कर्मों के साथ-साथ सैकड़ों व हजारों गुणा बढ़ता चला जाता है, इसलिये सेवावृत्ति के समान संसार में कोई महान पाप नहीं है। ॥१३॥ वास्तव में यदि सेवकसमूह, सजनता, मित्रता और जीवदया-आदि अपने गुणरूप भणियों का व्यय न करे वो उसे अपने स्वामी से धन कैसे प्राप्त होसकता है? क्योंकि विद्वानों ने कहा है कि भन खर्च करने से ही धन प्राप्त होता है ॥१३॥ १. काम्यसौन्दर्य-सहोक्त्मतहार + महाकान्ताहन्द । १, परिवृत्ति-अलङ्कार व उपजातिरछन्द ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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