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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये परिगृहीतमहातपश्चरण भारभित्र मन्दमन्दमध्वनि विहितविहारम् अभिमानव्ययभयाद्विभ्यविव पुरषीधिषु निमृसजिद्वान थम् विदादिशमपि लाघनीयशीलैस्तपः पयोधिकल्लोले यसामपि शांसिसचेतसामा चरिखाश्चर्य चिराचमस्कारम्, 47 पाप्राणानां न च हृदयहरिणस्य रतये न ददङ्गानमा करणकरिणोऽस्य मदनात् । ७२ फेरि मुनिषु च खलु स्थिसिरियम् ॥ १२७ ॥ भुवाय येषां न शरीरवृद्धिः चरित्राय च येषु नैष । तेषां वलिस्यं ननु पूर्वकर्मव्यापारमारोहहनाय मन्ये ॥ १२८ ॥ संसार बास्त रबौ कंदतुरसारमप्येनमुशन्ति यस्मात् । तस्मान्निरीहेरपि रक्षणीयः कायः परं मुक्तिसाप्रसूयै ॥ १२९ ॥ इति विश्विभ्सवत् तस्मान्महामुनिस मानन्दित बनदेवता मुख मण्डलागण्डशैलास्त्रिचतुराणि निवर्तमान्यविकान्तम्, प्रकरण में प्रस्तुत क्षुल्लक जोड़ा भी मयूरपिच्छ की पील्छी, जो कि चारित्र रक्षा का साधन है, रखता था । आणिरक्षा के उद्देश्य से मार्ग पर प्रस्थान करता हुआ वह क्षुल्लक जोड़ा ऐसा मालूम पड़ता था— मानों वह अपने शिर पर महान तपश्चर्या का बोझ धारण किये हुए हैं। जिसने नगर के मार्ग पर संचार करते समय अपने जारूपी रथ का संचार रोक रक्खा था, अतः मौनपूर्वक गमन करता हुआ वह ऐसा मालूम पड़ता था मानों वह अपने स्वाभिमान भङ्ग होने के भय से ही भयभीत होरहा था। क्योंकि वचन व्यापार से स्वाभिमान नष्ट होता है, यतः वह भोजनवेला में मोनपूर्वक गमन कर रहा था । अत्यन्त वालक अवस्था से युक्त होने पर भी जिसने अपनी प्रशस्त आचारशाली उपश्चर्या रूप समुद्र-तरकों द्वारा प्रशंसनीय चरित्र के धारक अत्यन्त वृद्ध तपस्वियों के चित्त में आश्चर्य से चमत्कार उत्पन्न किया था । जो निम्नप्रकार विचार करते हुए विहार कर रहा था - ' इस संसार में साधु महापुरुषों की व्याहारप्रण में प्रवृत्ति, न तो प्राणरक्षा के उद्देश्य से, न अपने मनरूपी मृग का पोषण करने के उद्देश्य से होती है, न शारीरिक आठों अङ्गों को बलिष्ट करने के लिये और न इन्द्रियरूप हाथियों के समूह को मदोन्मत बनाने के लिये होती है, किन्तु वे, निर्दोष श्राहार को, कामवासना को जब से उन्मूलन करनेवाले वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकरों द्वारा निरूपित मुक्तिलक्ष्मी की प्राप्ति का उत्कृष्ट उपाय समझ कर निश्चय से उसमें प्रवृत्त होते हैं। भावार्थ - निर्दोष आहार से शरीर रक्षा होती है और उससे मोक्ष प्राप्ति के उपायों में प्रवृत्ति होती है, यही साधु महात्माओं की निर्दोष आहार प्रवृत्ति का मुख्य उद्देश्य है" ।। १२७ ।। जिन मानवों या साधु पुरुषों की शारीरिक वृद्धि श्रुताभ्यास ( शास्त्रों का पठन-पाठन) के उद्देश्य से नहीं है और जिनका भुखाभ्यास, चरित्र संगठन करने के लिए नहीं है, उनकी शारीरिक दृढ़ता ( वलिष्टता) ऐसी प्रतीत होती है मानों - निश्चय से उन्होंने केवल पूर्वजन्म में किये हुये पाप कर्मों के व्यापार का बोझा ढोने के लिये ही उसे प्राप्त किया है ऐसा मैं जानता हूँ" ॥ १२८ ॥ क्योंकि तीर्थकरों ने इस मानव शरीर को असार ( तुच्छ ) होने पर भी संसार समुद्र से पार करने का अद्वितीय (मुख्य) कारण कहा है, अतः दिगम्बर साघु पुरुषों को भी मुक्ति रूपी लता को उत्पन्न करने के लिये निश्चय से इसकी रक्षा करनी चाहिए" || १२६ ॥ उक्त प्रकार चिन्तन करने वाला और प्रस्तुत 'सुनिमनोहर मेखला' नामक छोटे पर्वत से, जहाँ पर महामुनियों से वन देवताओं का मुख कमल प्रफुल्लित किया गया था, दीन चार निवर्तन ( मील वगैरह ) का मार्ग पार करके राजपुर की ओर आहारार्थ गमन कर रहा था, १ – तण चोचं - रजमेदाणमग्रहणं महकुमालदालनं च । अथे हे पंचगुणा तं पडिले परुविन्ति ॥ यशस्तिल को संस्कृत टीका पृ० १३७ से संकलित संपादक ४. उपमालङ्कार व उपजातिछन्द । २. मध्यदीपकालङ्कार । ३. उत्प्रेक्षालङ्कार व उपेन्द्र छन्द ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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