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प्रथम आचास
प्रसूतिवाणीव मन्यमानमरस्याचापि जिनरूपमहणायोग्यस्थायरमाचारवशामुपासकदशामाभितवदल मुनिकुमारका गम् 'अस्मारम्बस्वय पौरपुरेश्वरदेवताना धर्मकर्मावेशानुपशमो भविष्यति' इत्यन्त:संकष्यकृशानुकृतप्रयानावधियोधप्रदीपेन प्रस्यवमृश्य तत्रैव पुरे सदर्थमादित् ।।
तदपि तं भगवन्समुपसंगृह्य मनुष्यरूपेण परिंगसं धर्मवयमित्र, मर्यलोकायतोणं स्वापदर्गमार्गयुगामिया, नयनविषयतां गतं नययमलमित्र, प्रदर्शितात्मरूपं प्रमाणवितमिव, बहिःप्रकटल्यापार शुभध्यानयुग्ममिव तपस्विकीया प्रतिपक्षसोदरमा रतिस्परमिथुनमिय, पुरो युगान्तरावलोकप्रणिधानाधारैर्दयाईनगमध्यापारभयदानामृतमिव प्राणि प्रवर्षत् , समन्तादुन्मुखालेखावरणनखमयूखप्ररोहबहवर्मनि वृत्तसत्त्वानुकम्पनं संयमोपकरणमिव पुमरुकयात्, को भविष्य जन्म सम्बन्धी दुःखरूप अंकुरों की उत्पत्तिहेतु क्षेत्र सरीखे हैं' इसप्रकार भलीभाँति जान रहा है तथा जिसने अखीर की ग्यारहवी प्रतिमा के अधीन क्षुल्लक अवस्था का विशेषरूप से आश्रय किया था, क्योंकि अब भी ( तपश्चर्या का परिज्ञान होने पर भी) उसका शरीर सुकोमल होने के कारण निर्णय मुद्रा-धारण के अयोग्य था। कैसी है यह कुसुमावली रानी ? जो चण्डमहासेन राजा की पुत्रतारूप नदी से बढ़ाए हुए ऐसे मारिदत्त राजा रूप वृक्ष की लघुभगिना ( बाहेन । रूपलना की कन्दली थी। अर्थात्जा चण्डमहासेन राजा की पुत्री और मा.रेदत्त महाराज की छटी बहिन थी और जिसे उज्जायेनी के नरेन्द्र 'यशोमति' कुमार की पट्टरानी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।'
___ ऐसा क्षुल्लक जोड़ा, मारिदत्त राजा द्वारा मनुष्य युगल लाने के हेतु भेजे हुए ऐसे कोट्टपाल किरों द्वारा पकड़ लिया गया. जो ऐसा प्रतीत होता था-~-मानों-मुनिधर्म व श्रावकधर्म का ऐसा जोड़ा ही है, जिसने उस भगवान् सुदत्ताचार्य को नमस्कार करके मनुष्य की आकात धारण की है। अथवा मानों-मनुष्यलोक में अवतीर्ण हुआ, स्वर्ग व मोक्षमार्ग का जोड़ा ही है। अथवा--मानों-दृष्टिगोचर हुआ द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय का जोड़ा ही है। अथवा मानों-अपना स्वरूप प्रकट करनेवाले प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणों का जोड़ा ही है। अथवा मानों-मन से निकलकर याहिर प्रकट हुम्ला, धर्मध्यान व शुलध्यान का जोड़ा ही है। सर्वोत्तम प अनखी सुन्दरता के कारण जो क्षुल्लक जोड़ा ऐसा प्रतीत होता था मानों से रति और कामदेव का जोड़ा ही है, जिन्होंने तपश्चरण करने की इच्छा से परस्पर में भाई-बहिन-पना स्वीकार किया है। जिसकी नेत्रों की दृष्टि, आगे चार हाथ पर्यन्त पृथिवी को देखने की सावधानता धारण करनेवाली होने से क्या से सरस थी, इससे ऐसा मालूम होता था-मानों-वह अपनी दया-मयी दृष्टि धारा समस्त प्राणि-समूह के ऊपर अभयदान रूप अमृत की वर्षा कर रहा है। अपने चरण नखों के किरणार रूप मथुर-पिच्छों द्वारा, जो फि ऊर्ध मुखवाले अप्रभागों से योग्य थे, वह क्षुल्लक जोदा, मार्ग में समस्त प्राणियों की रक्षा करनेवाले अपने संयम के उपकरमा ( मं रपंख को पंछी ) को मानों-द्विगुणित कर रहा था। भावार्थ-उक्त क्षलक जोड़ा मार्ग में प्राणिरक्षा के उद्देश्य से संयमोपकरण ( चारित्रसाधक मयूपिच्छ की पीछी ) धारण किये हुए था। क्योंकि जब मार्ग में स्थित जीव-जन्तु विशेष कोमल मयूरपिच्छ द्वारा प्रतिलेखन-संरक्षण किये जाते हैं तथ उनकी भलीभाँति रक्षा होती है। मयूरपिच्छों द्वारा प्रतिलेखन किये हुए ( सुरक्षित ) प्राणी इसप्रकार सुखी होते है मानों वे पालकी में ही स्थित हुए हैं। क्योंकि मयूरपिच्छ नेत्रों में प्रविष्ट होजाने पर भी उन्हें पीड़ित नहीं करते। अतः जनतत्वदर्शन में साधुपुरुष व क्षुल्लक को संयमोपकरण (मयूरपिच्छ) रखने का विधान है। क्योंकि उसमें मार्दवता, शरीर को धूलि धूसरित न होने देना, सुकोमलता-आदि जीवरक्षोपयोगी पाँच गुण पाये जाते हैं।
१, उपमालहार ।