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यशस्तिलक चम्पूकाये
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सुपा सोपान्तोपत्यक: नाय स्वशनिरिवाभ्याम्प च संयमिभावनाशधनात पनशिकाराभ्वमेनसः परिबरिफ्लोशीर इत्र माविमानाम् एवमभ्यैरपि तैस्तैरयमर्थमेनु विस्वापि
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कर्मकस्योत्पाि
समुपच मिथ च नितिमार्ग मध्याह क्रियः स्वयं तदिवसोपान्तोदवाला [स] समाकल्प परिवामहलमलिनं भ्रमणसमात्मवेशीयमान्तेवासिमा चितिं लोवनगोचरारामेषु प्रामेषु विध्याणार्थमादिदेश ॥
स च नम्बिनीनरेन्द्रस्व यशोधरमहाराजात्मजस्य पशोमति कुमारस्वाममहियां चण्डमहासेनमुवासरिरसंबन्तिप मारिदसमहीश्वरमही रहस्यामुअम्माला कन्यां कुसुमावस्यांसह संभूतं पूर्वभवस्मरणात् संसारसुखान्यागामिजन्मदुःखार
जिसकी समीपवर्ती उपत्यका ( पर्वत की समीपवर्ती भूमि) छोटे-छोटे वृक्षों से वेष्टित थी, अतः वह ऐसा प्रतीत होता था मानों— महामुनि - सुदुताचार्यश्री के समागम से ही उसने हर्ष से उत्पन्न हुए रोमा का कबुक ही धारण किया है। जिसके निकुब्जों ( लताओं से आच्छादित प्रदेश ) से रनों का जल प्रवाहित होरहा था, इसलिए ऐसा मालूम पड़ता था मानों संयमी महापुरुषों की कोजानेवाली आराधना-पूजा से ही मानों उसने हर्ष के नेत्राओं का प्रवाह प्रकट किया है। जिसकी कटिनियों, शिलाओं पर उतरे हुए गृहों से और विशाल चट्टानों से प्रशंसनीय थीं; इसलिए वह ऐसा प्रतीत होता था— मानो उसने द्वयातगों (रागद्वेष रात साधु महात्माओं या धूलि व अन्धकारशून्य पर्वतों ) के लिए शयनासन हूँ। उत्पन्न किया । इसप्रकार प्रस्तुत पर्वत ने उक्त गुणों के सिवाय अन्य दूसरे पाप शान्त करनेवाले प्रशस्त गुणों ( विस्तीर्णता व प्रासुकता आदि ) द्वारा सीन प्रकार के मुनिसंघ ( आचार्य, उपाध्याय व सर्वसाधु समूह ) को अपने में प्रीति उत्पन्न कराई थी।
उक्त पर्वत पर संघसहित जाकर स्थित हुए उन्होंने मार्ग व मध्याह्न की क्रिया पूर्ण की। अर्थात्मार्ग में संचार करने से उत्पन्न हुए दोषों की शुद्ध करने के लिए प्रायश्चित किया और देव वन्दना की एवं उसी दिन ( चैत्र शुक्ला नवमी के दिन ) हिंसा दिवस जानकर उपवास धारण किया । अर्थात्यद्यपि उन्होंने अष्टमी का उपवास तो किया ही था, परन्तु चैत्र शुक्ला हबों को राजपुर में होनेवाली हिंसा का दिवस जानकर उपवास धारण किया था। तत्पश्चात् - आहार संबंधी मध्याह्न-वेला जानकर उन्होंने अपने ऐसे मुनिसंघ (ऋष, मुनि, यात व अनगार उपास्थयों का संघ ) को, जो अपनी अपेक्षा तपश्चर्या ष आध्यात्मिक ज्ञान आदि गुणों से कुछ कम योग्यताशाली महान् शिष्य से रक्षित था, राजपुर के समीपवर्ती धामों में, जिनके बगीचे नेत्रों द्वारा दिखाई देरहे थे, आकर गोधरी ( चाहार ) ग्रहण करने की आज्ञा दी ।
तदनन्तर उन्होंने मानसिक व्यापार--अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम रूप अग्नि से प्रज्वलित हुए अवधिज्ञान रूप दीपक द्वारा यह निश्चय किया कि 'हमारे मुनिसंघ में रहनेवाले अभयरुचि ( क्षुल्क श्री ) और अभयमति (लिका श्री ) नामक क्षुल्लक जोड़े के निमित्त से निश्चय से आज होनेवाली महाहिंसा का बीभत्स वाडव बन्द होगा ( रुकेगा ) और जिसके फलस्वरूप यहाँ के समस्त नगर वासियों, मारत राजा और चण्डमारी आदि देषियों को अहिंसारूप धर्म- पालन करने के विशुद्ध अभिप्राय से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होगा' इसलिए उन्होंने अपने मुनिसंघ के उक्त नामवाले ऐसे क्षुखकजोड़े को उसी राजपुर नगर में जाकर आहार ग्रहण करने की आज्ञा दी, जो कि यशोधर महाराज के पुत्र ष यिनी नगरी के राजा 'यशोमांत कुमार' की ऐसी कुसुमावली नामकी पट्टरानी के उदर से साथ-साथ उत्पन्न हुआ भाई बहिन का जोड़ा था एवं जो, 'पूर्वजन्म के स्मरणवश सांसारिक सुखों ( कमनीय कामिनी आदि )