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________________ FERRE ६९ पुर्यावदयं दिगन्तरालेषु लोघने प्रसारयति तावदुत्तरस्यां हरिति राजपुरस्थाविवस्वमिं मुनिमनोहरमेव नाम खतरं पर्वतमपश्यत् पः खलु धम्मिविन्यास इद नागनगरदेवतायाः, किरोटोकलय वाटवीलक्ष्याः स्तनाभोग इव महिला, कन्दुक इव वनदेवतायाः, मातृमोक्क व दिग्बालक लोकस्य, ककुदोहम इव भूगोखावेन्द्रस्य द्वारभिधानस्तूप इष भुजङ्गभुवनस्य यज्यविधानबन्ध विहायविक्रमस्य त्रिविष्टपकुटनिर्माणमृत्पिण्ड इत्र प्रजापति जनस्य, केलिप्रासाद व ककुप्पा व्यकन्यकामिकरस्थ गविस्वमोष्ट व कलिकालस्य, मानस्तम्भ इवैकशिलाघटितारम्भ:, शिवशातकुम्भप्रदेश व विदूतिदयितासमावेशः अलोकाकाश श्च विगतजन्तुजातावकाशः तपश्चरणागम इव समुत्सारितवर्षधरसमागमः क्षप []कमेणिरिव सपः प्रत्यवायर हिवक्षोणिः, महावृत्त प्रस्तार एक विस्तीर्यापादविस्तारः, समीरकुमारैविरचितविशुद्धिरित्र स्वाध्यायोचितः कान्तारदेवताभिः संमार्जित व कमनीयकन्दरः, पर्यन्तपादपैः संपादितकुसुमोपहारः प्रदन्तरङ्गास्किरिष गुहापरिवरेषु तदनन्तर - श्मशानभूमि देखने के अनन्तर - उक्त प्रकार का विचार करते हुए ज्यों ही उन्होंने दिशासमूह की ओर हष्टपात किया त्यों ही उन्होंने उत्तर दिशा में राजपुर नगरके समीप 'मुनिमनोहर मेखल' नाम का ऐसा लघु पर्वत देखा, जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों- धरणेन्द्र नगर की देवता का केशपाश- समूह ही है । श्रथवा – मानों – वनलक्ष्मी का मुकुट समूह ही हैं । अथवा मानों – पृथिवीरूपी श्री के कुछ कलशों का विस्तार ही है । अथवा मानों - वनदेवी के क्रीड़ा करने की गेंद ही है। अथवामानों - दिशा रूपी स्त्री के बालक-समूह का माता द्वारा दिया हुआ लड्डू ही है । अथवा मानों पृथिवीरूप बैल के स्कन्ध का उन्नत प्रदेश ही है । अथवा - मानों पाताल लोक के दरवाजे को ढकनेवाला खम्भा ही है । अथया - मानों - आकाशरूप पक्षी का यष्टि पर आरोपण करने के लिए बना हुआ चबूतरा ही है । अथवा - मानों - ब्रह्मलोक का ऐसा मिट्टी का पिंड है, जो तीन लोक रूप घड़े के निर्माण करने में सहायक है । अथवा मानों - दिक्पालों की कन्या समूह का कीड़ा महल ही है । अथवा-मानों- पंचमकाल ( दुषमाकाल ) की गति को रोकने वाली चट्टान ही है । अथवा मानों- - एक अखण्ड शिला द्वारा निर्माण किया हुआ समवसरण भूमि का मानस्तम्भ ही है । अथवा मानों ऐसा मोक्ष रूप सुवर्ण का स्थान ही है, जहाँ पर स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया है । अथवा मानों - वह, ऐसा अलोकाकाश ही है, जहाँपर समस्त प्राणियों के समूह का प्रवेश नष्ट होगया है । अथवा मानों-ऐसा दीक्षा सिद्धान्त ही है, जिसमें नपुंसकों का प्रवेश निषिद्ध किया गया है। जिसकी पृथिवी एकान्त स्थान होने के फलस्वरूप ) उसप्रकार तपश्चर्या में होनेवाले प्रत्यवायों ( दोषों – विघ्नबाधाओं ) से शून्य थी जिसप्रकार क्षपकश्रेणी के स्थान ( आठवे गुणस्थान से लेकर वारहवें गुणस्थानों के स्थान ) तपश्चर्या संबंधी दोषों ( राग, द्वेष व मोहादि दोषों) से शून्य होते हैं ( क्योंकि क्षेपक श्रेणी में चारित्र मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का क्षय पाया जाता है ) । इसीप्रकार जो उसप्रकार विस्तीर्ण पादों (समीपवर्ती पर्वतों) से विस्तृत था, जिसप्रकार महाछन्दों के प्रस्तार ( रचना) विस्तीर्णपादों ( २६ अक्षर पाले चरणों) से विस्तृत होते हैं । स्वाध्याय के योग्य वह ऐसा मालूम पड़ता था मानों वायु कुमारों द्वारा जिसकी शुद्धि की गई है। यह धनवेषियों द्वारा संशोधित किया हुआ होने से ही मानों उसकी गुफाएँ अतिशय मनोहर थीं । अर्थात् जिसप्रकार तीर्थकर भगवान् की बिहारभूमि बनदेवियों द्वारा संमार्जन कीजाने से अतिशय मनोश होती है। जिसकी गुफाओं के प्राणों पर स्थित हुए अप्रक्त वृक्षों द्वारा जिसे पुष्पों की भेंट दीगई थी, इसलिए ऐसा मालूम पड़ता था मानों उसको गुफाओं के प्राङ्गणों पर विचित्र वशाली रंगावली दी कीगई है।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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