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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आ, टाइप कहतरमहो स्मरनिछसितम् । इस्थमन्र्दुरन्ताङ्गी बहिर्मनुविभ्रमः । विषवझीव मोहाय यदेषा जगतोऽमि ॥ १२३ ॥ अपि च — माासाम्राज्यदर्याः कविञ्चनवचनस्पदिमाधुर्यपुर्याः स्वप्नातैश्वर्यजोभाः कुकनयमयारामरम्योउरामाः । फर्जन्यागप्रसारास्त्रिदिवपत्तिधनुर्वन्धुरा स्वभावादायुलविण्यलक्ष्म्यस्त जगदिदं चित्रमत्रैवतम् ॥ १२४ ॥ होय, स्वयं मन्त्रसरः । तलमवस्तुनि व्याप ट्रेन इद मिह ननु प्रस्तुतमवधार्यताम् — 'नैवात्र सखि परिणामुचितावकाशाः स्वाध्यायषन्धुरधशवसराः प्रदेश: । इन्द्र महतपन एवं पत्युदारं वाताव माग्सि परिसः पश्चप्रचारः ॥ १२६ ॥ किच-- पम्मृतानामवस्थानं तत्कथं जीवतां भवेत् । अन्यत्र शवशीलेभ्यः को सामदामहस्ततः ॥ १२६॥ प्रस्तुत सुताचार्य ने विचार किया है-जिस कारण जिसप्रकार विषवल्ली भीतर से दुष्ट स्वभाववाली (घातक) और बाहर से सुस्वादु होती हुई जगत के प्राणियों को मूर्च्छित कर देती है, उसीप्रकार यह स्त्री भी, जिसका शरीर मध्य में दुष्ट स्वभाव-युक्त है और बाहर से सौन्दर्य की भ्रान्ति उत्पन्न करती है. जगत के प्राणियों को मूर्च्छित करने के लिए उत्पन्न हुई है || १२३|| संसार में प्रागयों की आयु ( जीवन ), शारीरिक कान्ति और लक्ष्मी ( घनादि वैभव ) स्वभाव से ही क्षणिक हैं और उसप्रकार ऊपरी मनोहर मालूम पड़ती हैं जिसप्रकार विद्याधरादि की माया से उत्पन्न हुआ चक्रवर्त्तित्व मनोहर मालूम पड़ता है। इनमें उस प्रकार की श्रेष्ठ दिखाऊ मधुरता है, जिसप्रकार विद्वान् का मण्डल के शृङ्गार रस से भरे हुए वचनों में श्रेष्ठ मधुरता होती है। इनकी शोभा उसप्रकार की है जिसप्रकार स्वप्न ( निद्रा ) में मन द्वारा प्राप्त किये हुए राज्य की शोभा होती है और इनकी कान्ति उसप्रकार अत्यन्त मनोहर और उत्कृष्ट मालूम पड़ती है जिसप्रकार इन्द्रजाल से बने हुए बगीचे की कान्त विशेष मनं इर व उत्कृष्ट मालूम पड़ती है एवं इनकी रमणीयता उसप्रकार झूठी है । जसप्रकार मेघपटल के महल की रमणीयता झूठी होती है एवं ये उसप्रकार मिथ्या मन हर प्रतात दाते हैं जिसप्रकार इन्द्रधनुष रमणीक मालूम पड़ता है तथा पं यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ पृथिवी का जनसमूह इन्हीं आयुष्य, लावण्य और धनादि में आसात करता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है * ॥ १२४ ॥ अहो आत्मन् ! तुम पूर्वोक विचारधारा के प्रवाद में बहुत दूरतक बह गए। अर्थात्-तुमने यह क्या विचार किया ? क्योंकि आत्मद्रव्य से भिन्न वस्तु के विचार करने से कोई लाभ नहीं । अस्तु अ प्रकरण की बात सोचनी चाहिए । इस श्मशान भूमि पर ऐसे स्थान नहीं हैं, जो मुनियों के लिए योग्य अवकाश (स्थान) देने में समर्थ दों और जिनमें स्वाध्याय के योग्य क्षेत्र शुद्धि-संयुक्त भूमि का अवसर पाया जावे। हमारा मुनिसंघ मी महान है एवं यह सूर्य भी अत्यधिक सन्तापित कर रहा है और यहाँ का षायु-मण्डल भी चारों ओर से कठोर संचार करनेवाला वह रहा है, अतः यहाँ ठहरना योग्य नहीं ||२५|| वास्तव में जो भूमि मुर्दों के लिए है, वह शाकिनी, डॉकिनी और राक्षसों को छोड़कर दूसरे जीवित पुरुषों के ठहरने लायक किलप्रकार हो सकती है ? अतः हमें यहाँ ठहरने का आग्रह क्यों करना चाहे ? अपितु नहीं करना चाहिए ।। १२६ । सम्बन्द । १. समुच्चयालङ्कार थ वसन्ततिलका छन्द । १. उपमाकार २. उपमालङ्कार ४. आलेपाकङ्कार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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