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________________ प्रथम आश्वास लतिरेव प्रणयतरोया वनदेवीक मेलिवनभूमेः। सा यमनृपतिबिमुक्ता फेलेव प्रास्यते पतर्गः ॥११॥ जीवन्स्येमा यौवालीस्सर्वस्य हृदयंगमा। मृताप्यभूत्तथैमेयं दुस्त्यजा प्रकृतियतः ॥११८॥ इंसायितं वदनपरदे स्मरातर्यस्या गजायितमभूस्कुचकुम्भमध्ये । एणायितं न जधनस्थलमेखलायां तस्याः कलेवरममी निकषन्ति कहाः ॥११९॥ पायं पायं मधु मधुरस्कपूर्व मुद्रभावात्स्मा स्मारं वदति च कसं या मुदा कुषितभूः । साय सस्मिनपगतमनोमर्कटस्वादनीहा प्रेतावासे निवसति गाता भोज्यमा शिवरनाम् ॥१२॥ यामन्तरेण जगतो विफलाः प्रयासा पामन्तरेण भवनानि बमोपमानि । यामन्तरेण हतसंगति जीवितं च तस्याः प्रपश्यत जनाः क्षणमेकमा ॥११॥ आश्लिष्ट परिणस्विस परमित वनागरोमाविस्तरसंसारसुखास्पद वपुरभूदेवं दशागोतारम् । शीर्थधर्मवयं पतस्पलभर भ्रश्यधिरापञ्जरं प चिप गलबलकुल कुध्यत्स्नसाजालकम् ॥१२॥ जो स्त्री पूर्व में स्नेहरूप वृक्ष की लता सरीखी व क्रीडास्थान संबंधी भूमि की वनदेवता जैसी थी, वह अब यमराजरूप राजा द्वारा छोड़ी हुई फेला (भक्षण करके छोड़ा हुआ अन्न) सरीखी काक-आदि पक्षियों द्वारा भक्षण की जारही है ॥ ११७ ॥ यह लो जिसप्रकार जीवित अवस्था में सभी की सदयंगमा (हृदयं गच्छति मनो हरति मनोवल्लभा) थी, उसीप्रकार अब मरने पर भी सबको हृदयंगमा ( हृदयं गमयति विरक्त करोति मन में उद्वेग-मय व वैराग्य-उत्पन्न करनेवाली) हुई है, क्योंकि वस्तुस्वभाव त्यागने के लिए अशक्य है.२ ।।११। काम-पीड़ित पुरुष पूर्व में जिस स्त्री के मुखकमल से उसप्रकार यथेच्छ क्रीड़ा करते थे जिसप्रकार राजईस कमलवनों में यथेच्छ कीड़ा करता है और जिसके कुचकलशों के मध्यभाग पर हाथी सरीखे कीड़ा करते थे एवं जिसकी जघनस्थल सम्बन्धी मेखला (कटिनी) पर कामीपुरुष उस प्रकार क्रीड़ा करते थे जिस प्रकार मृग पर्यंत-कटिनी पर यथेच्छ क्रीडा करता है परन्तु अब ( मृतक अवस्था में) उसी स्त्री का शरीर ये प्रत्यक्ष दृष्टगोचर हुए बगुले फाड़ रहे हैं ॥१९॥ मनोहर नेत्रशालिनी जो स्त्री पूर्व में विशेष गर्वपूर्वक बार पार मद्यपान करती थी और कुटेिल भृकुटिवाली जो बार वार स्मरण करके हर्षपूर्वक मधुर वाणी बोलती थी, अब वही स्त्री जिसका मनरूप बन्दर नष्ट होजाने के फलस्वरूप चेष्टा-हीन हुई इस श्मशान भूमि पर पड़ा हुई शृगालियों के भोजन को प्राप्त हुई है" ॥१२०॥ जिस स्त्री के बिना संसार के मानों को व्यापार-श्रादि संबंधी जीविकोपयोगी कष्ट उठाना निष्फल है और जिस प्रिया के विना गृह, भयर बटवीसरीखे मालूम होते हैं एवं जिसके विन्य जीवन भी मृतक-जैसा है। हे भव्यप्राणियो ! आप लोग, उस स्त्री का शरीर यहाँ पर क्षण भर के लिए देखें ॥१२॥ जिस स्त्री का शरीर सांसारिक सुख का आभय-स्थान-होने से जीवित अवस्था में राग से रोमानित हुए कामीपुरुषों द्वारा भुजाओं से गाद पालिङ्गन किया गया, चुम्बन किया गया व रति-पिलास किया गया, उसका शरीर अब निसप्रकार दयनीय दशा को प्राप्त होरहा है, जिसका चर्म-पटल फट रहा है, जिसमें से मांस का सारभाग गिर रहा है, जिसकी नसों का बन्धन नीचे गिर रहा है, जिसकी सान्धवन्धन-शक्ति नष्ट होरही है, जिसका हायों का समूह नष्ट होरहा है और जिसकी नसों की वेणी छिन्न-भिन्न होरही है' ।।१२२।। १. उपमालंकार । २. अर्थान्तरन्यास अलंकार। ३. समुच्चय १ उपमालंकार एवं सन्ततिलकायम्द । 8. उपमालंकार बसन्ततिलकाछन्द । ५. उपमालाकार व सन्ततिलका छन् । रूपकालहार घालविकोडित छन् ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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