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यशस्सिलकचम्पूकाव्ये में पूर्व स्मररारधी समाविवर्तिते सुवृत्ते च। फोलिकनसकाकार ते बड़े सांप्रतं जाते ॥११॥ पत्राक्तकमनं विरचितं यत्रालिसौ नूपुरी पत्रासीन वमौक्तिकावलि कक्षा फान्सा मखानां ततिः । पत्रासोकालोपत्र समभूस्क्रीडाविहारोवितस्तावरपाण्डकापडपटालप्रस्पटटी प्रमौ ॥११॥ किंच-षा कौमुदीन सरसीव सणालिनीव लक्ष्मीरित्र प्रियसखीव विलासिनीव । सस्तै रजनि सा सुतनुः प्रजाता प्रेतावनीइनबका विवशा बराकी ॥११३॥ यस्पाः रेलिक कल काहहै। सीमन्तितः नाका यस्याश्रन्दनवम्वन प्रणयिभिभोलान्तरे निर्मिसम । पस्पारगमन कामिभिाय चित्रः कपोल सः सा समाजका स्वविकृति तय धसेऽद्रुतम् ॥११॥ षा मानसलहसी नेत्रोल्पसन्द्रिका नया अगतः । सा कालमहाप्रतिना पटवा करता नीता ॥११॥ यभ्यस्यति यो लोकः स भवेत्तम्मयः स्फुटम् । प्रकामाभ्यस्तखटवाने युका खट्वाङ्गता ततः ॥११॥ धारण कर रही है। ॥११- ।। जो दोनों जलाएँ, जीवित अवस्था में कामदेव के तूगीर ( भाता) सी प्रतीत होती थी और मनोहर कान्ति से व्याप्त हुई गोपुच्छसा वर्तुलाकार धारण करती थी, उनकी आकृति अब जुलाहे के नज़क ( तन्तुओं के फैलाने का उपकरण विशेष ) सरीस्त्री हो गई है। ।। ११|| जिन देनों चरणों पर पूर्व में लाहारस का आभूषण रचा गया था। जिन पर धारण किये हुए नूपुरों-मजोरों-की झनकार होरही थी। जिनके नखपङ्क्तयों की कान्ति नवीन मोतियों की श्रेणी की शोभा सी मने हर थी। अशोक वृन का पल्लव समूह जिनके लीलापूर्वक पर्यटन के योग्य था, उन चरणों की अयस्था अब एरण्ड वृत्त के जीर्ण स्कन्ध समूह सरीखी प्रत्यक्ष प्रतीत होरही है। ||११।। कुछ विशेषता यह है-सुन्दर शरीर धारिणी जो खी सन इन जगप्रसिद्ध कान्ति आदि गुणों के कारण जीवित अवस्था में चन्द्र-ज्योत्स्ना-सी हृदय को आल्हादित करती मी। जो लावण्यरूप अमृत से भरी हुई होने के फलस्वरूप अगाध सरोवर-सरीखी. प्रफुल्लित कमल सरीखे नेत्रों वाले मुख से कमलिनी समान, उदारता के कारण लक्ष्मी जैसी, प्रतिपन्नता-यश प्यारी सखी-सी और सुरता-पूर्ण बचनालाप से विलासिनी-सी थी, वही अब श्मशान भूमि संबंधी वन के अधीन हुई अकेली होकर विचारी ( दयनीय अवस्था-यंग्य ) होगई है ॥ ११३ ॥ जिस स्त्री के केशपाश पूर्व में कामी पुरुषों द्वारा मखों से मनोहरता पूर्वक सीमन्तित ( कॅघी आदि से अलकन) किये गये थे। जिसके ललाट के मध्यभाग पर स्नेही पुरुषों द्वारा उत्तम चन्दन से तिलक किया गया था। जिसका यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाला गाल कामी पुरुषों द्वारा कस्तूरी की पत्ररचना द्वारा मनोहर किया गया था. यही स्त्री अब उन्हीं केशपाश, मस्तक और गालों पर खाद के अषयय व नारियल के कपाल के मध्यभाग-सरीखी विकृति (कुरूपता । धारण कर रही है. ? यह बड़े आश्चर्य की बात है:॥ ११४ ॥
जो स्त्री पूर्व में जगत के कामी पुरुषों के मनरूप मानसरोवर की राजहंसी थी और उनके नेत्ररूप कुवलयों (बान्द्रविकासी कमलों) को विकसित करने के हेतु चन्द्र-ज्योत्स्ना थी वही स्त्री अब यमराजरूप कापालक धारा वाट के अवयव व कपाल-सरीखा अशोभन दशा में प्राप्त कीगई है। ॥ १२५॥ लोक में जो मनुष्य जिस वस्तु का अभ्यास करता है, वह निश्चय से तन्मय ( उस वस्तुरूप) होजाता है, इसलिए विशेष रूप से खवाङ्ग (खाट पर शयन) का अभ्यास करनेवाले को खट्वाङ्गता ( भग्न हुई खाट-सरीखा) होना इषित ही है। अर्थान्-अब वह भग्न-खाट सरीखी होगई है ।।१६।।
* 'समा क. पलाश क.। १. उपमालकार। २ उपमालधार व आछिन्द । ३. उपमा व समुख्यालाार एवं शार्दूलविक्रीडित छन्द । ४. उपमालङ्कार व वसन्ततिलकाछल । ५. उपमालवार व शार्दूलविक्रीवितमन्द । ६. सारचर उपमालंकार। ५. रुपक का अर्थान्तरन्यासालंकार ।