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________________ प्रथम आश्वास यः कण्ठः काबुाकाशः कलकोकिलनिस्वनः। स विशीर्णशिरासंघिर्जरस्पक्षरतां गतः ॥१०॥ यौ हारनिरससनवपत्रकान्तौ फोडायलाविव मनोजगजस्य पूर्वम् । तौ पूसिपुष्पफलदुरदशाविनानो वक्षोस्तो यलिभुजा बलिपिण्डकल्पौ ॥१४॥ लाण्याम्बुधिची चिकोविसरुची हस्ती मृणालोपमौ कामारामारताप्रसानसुभगो प्रान्सोल्छसपलदौ । यौ पुष्पाचपिशाचबन्धविधुरी लीलाविलासाछसौ तो जातो गतजङ्गलौ प्रविजरकोदा दहाती ॥१०६५ यः कृशोऽभूत्पुर। मध्यो वलिनयविराजितः। सोऽम वरसो धत्ते चर्मकारतियुतिम् ॥१०॥ केलियापीठ कामस्य नाभी गम्मीरमण्डला। यासीत्सा निर्गताबान्ता स्वपस्सर्पविलाविला ॥१॥ या कामशरपुकामसममाभोगनिर्गमा सार्धधाधिनप्रास्ताविवर्णा तनुजावली ॥१०॥ स्मरतिपविहाराय यजातं साधनान्तरम् । तदलस्क्लेदविक्टिनं जघन्यत्वमगात्परम् ॥१०९॥ या कामकलभाष्ठामस्तम्भिकेवोरुवारी। सा श्वनि“मलावण्या वानयेणुपरप्रभा ॥११॥ वही दन्तपक्ति अन्य मृतक अवस्था में करोंत के अप्रभाग-सी श्यामवर्ण हुई किन कामी पुरुषों को सन्तापित नहीं करती ? सभी को सन्तापित करती है ।।१०।। जो कण्ठ पूर्व में श्रीनारायणकर-स्थित शङ्ख सरीखा था और जिसका शब्द कोयल-सा मधुर था, अब उसी कण्ठ की नसों की सन्धियाँ टूट गई है, अतः उसने जीर्ण-शीर्ण पिंजरे की तुलना प्राप्त की है। ॥१०३|| जो कुच (स्तन) कलश, पूर्व में हार (मोतियों की माला ) रूप झरना और कस्तूरी-केसर-आदि सुगन्धित द्रव्यों से की हुई नयीन पत्ररचना से मनोहर प्रतीत होते हुए कामदेव रूप हाथी के क्रोडापर्वत सरीखे थे अब उनकी अवस्था दुर्गन्धि कपित्थ (कैंथ । फल-जैसी दूषित होचुकी है और वे काक पक्षियों के हेतु दिये गये भोजन-पासों सरीखे प्रतीत होरहे हैं। ॥ १४॥ जो इस्त पूर्व में कान्ति रूप समुद्र की तरङ्ग-सरीखे सुशोभित होते थे। मृणाल-सरीखे जो कामदेव के उपवन सबंधी विस्तृत लता सरीखी प्रीति उत्पन्न करते थे। जिनके प्रान्त भाग में कोमल पल्लव शोभायमान हो रहे थेष कामदेव रूप पिशाच के बन्धन सरीखे जिन्हे काम क्रीडा के विस्तार में बालस्य था. हुए उनकी क्रान्ति जीर्ण-शीर्ण धनुष-यष्टि-सी होगई है। ॥१०॥ जो शरीर का मध्यभाग ( कमर ) पूर्व में कुश ( पक्षला ) होता हुआ त्रिवलियों से विशेष शोभायमान था, इस समय उससे रस ( प्रथम धातु) निकल रहा है, इसलिए वह चर्मकार ( चमार) को चमड़े की मशक की कान्ति धारण कर रहा है ॥१०६॥ जो नाभि, जीषित अवस्था में गम्भीर (अगाध) मध्यभाग से युक्त हुई कामदेव की क्रीड़ा पापिका-सी शोभायमान होती थी अब ( मृतक अवस्था में ) उसके प्रान्तभाग पर वाहिर निकली हुई बातें वर्तमान है, अतः वह सोते हुए सपों के छिद्र-सरीखी कलुषित (भलिन ) होरही है ॥ १०७ ।। पूर्ष में जिस रोमराजि की पूर्ण उत्पत्ति काम-वाण के मूल के प्रान्तभाग की पूर्ण समानता रखती थी, वह अब अर्धदग्ध धर्मके प्रान्तभाग-सरीखी निकृष्ट वर्णवाली होगई है। ॥ १० ॥ जिस कमर के अममण्डल पर जीवित अवस्था में कामदेष रूप हाथी पर्यटन करता था, वह अय निकलती हुई पीप वगैरह कुधातुओं से आई (गीला) हुआ बहुत बुरा मालूम पड़ता है, जिसके फलस्वरूप उसने विशेष निकृष्टता प्राप्त की है। ।। १०६ ॥ जो ऊरु (निरोह) रूपी लता, पूर्व में कामदेव रूपी हाथी के बच्चे को बाँधने के लिए छोटे खम्भे-सी थी, अब उसका लाषण्य (कान्ति) कुत्तों द्वारा समूल पवाई जाने से नष्ट कर दिया गया है, इसलिए यह जीर्ण बाँस सरीखी किसी में न पाई जाने वाली ( विशेष निन्य ) कान्ति १. आक्षेपालकार व उपमालहार एवं इम्यबजा छन्द । २. उपमालङ्कार। ३. उपमालबार व पसन्ततिलका छन्द । 1. उपमालद्वार व शालविक्रीडित छन्द । ५. उपमालद्वार। .उपमालहार। ७. उपमालद्वार। ८. उएमालहार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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