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________________ ६४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये वाहि--या पूर्व स्मरकेलिंचामररूचिः कणांवतंसोत्परिलग्निन्दिरसुपरतिरभूगावलोमण्डनम् । सेयं मलयात्री पिपने दातेरिसा सांपतं धूलीसरिता दधाति विसरत्समार्जनौवेष्टितम् ॥१५॥ में पूर्व कामकोडकोटिकनिमम । ते संप्रति ध्रुवौ बाते शुक्षवल्लूरकल्मचे ॥९॥ ये नीमरकरवाम्सकन्द्रकान्तको शौ। ते जीर्णोदन उपगुदवसीमे ॥१॥ ये कलाकेटिदोला मुखालक्ष्मीलसीपमे। ते भुती विनखवाधीरन्ध्राधमस्थिती ॥९८॥ कस्त रिकातिलकपस्त्रविचित्रितीर्थोऽभन्सगासमकान्तिस्यं कपोषः । सोऽध वि वहति वायसवालभुमः कोधप्रदोणतनुम्बफलोपमेथाम् ।।१९।। पा कामकेसीशुकतुकान्ता पार्नु मुखामोमवायताभुद । सा गन्धवाहा विवरावशेषनिवेशनिर्गच्छदाछपया ॥१०॥ यत्राधाऽमृतधिया नवपालचाभे कामं कृतार्थहदय: समपादिलोकः । सोज्जनपिजविवशतपयपूरपर्यन्ततिरधरस्वमगण्यसागात् ॥१०॥ पा मन्त्रणासंनिमेशा मले बिता शोगमगिद्रवेग । सा दन्तपक्ति: करपस्त्रवनश्यावविः क न चुनोति लोकम्॥१०॥ उसी अवस्थान्तर का निरूपण करते हैं जो केशवल्ली जीवित-अवस्था में काम-क्रीड़ा के अवसर पर कामदेव के चॅमर-सरीखी शोभायमान होती थी (क्योंकि कामदेव के चॅमर श्याम होते हैं) और जिसकी कान्ति कर्णपूर किये हुए नीलकमल में स्थित भ्रमर-समूह-सी अति मनोज्ञ प्रतीत होती हुई कपोल ( गात ) स्थली को अलकृत करती थी, वही केशवल्ली अब श्मशान भूमि पर वायु-प्रेरित व धूलि-धूसरित हुई टूटनेवाली मार की चेष्टा ( भाचार ) धारण कररही है" ||६५ || जो भ्रकुटियाँ जीवित अवस्था में प्रकट रीति से कामदेव के धनुष के अमभाग-सी थी, वे ही अध ( मृतक अवस्था में ) शुष्क माँस की बत्ती-सरीखी हो गई है ॥६६॥ जो नेत्र जीवित अवस्था में नीलमणि और लालमणि ( माणिक्य ) के प्रान्त भाग पर स्थित चन्द्रकान्तमरण सरीखी अवस्थाशाली थे, वे अब मृतक अवस्था में फूटे हुए नारियलों के छिद्रों से निकलते हुए दुर्गन्धि जल के वु व जैसे प्रतीत होरहे ॥१७॥ जो श्रोत्र जीवित अवस्था में संगीत-श्रादि कलाओं के क्रीड़ा करने के झूलों सरीखे शोभायमान होरहे थे और जो मुख-लक्ष्मी ( शोभा) रूपलता की सरशता धारण करते थे, परन्तु अप मृतक अवस्था में ) उनकी स्थिति टूटती हुई बंधी हुई चर्मरन के विद्र-सरीखी निकृष्ट होरही है" ।। ९८ ।। ओ गाल पूर्व में चन्द्रमा के सदृश कान्तिशाली था और जिसकी शोभा कस्तूरी की तिलक रचना से विचित्रता धारण करती थी, वही गाल अब काफ-शावक (बा) द्वारा भक्षण किया हुआ होकर कुष्ठ से छिद्रित अवयवोंवाले तुम्बीफल की तुलना प्राप्त कर रहा है | || जो नासिका पूर्व में कामदेव के क्रीड़ा-शुक की चचुपुट-सी मनोहर थी और मानोंमुख कमल की सुगन्धि का शन करने के हेतु ही विस्तृत होरही थी, अब उसी नासिका के छिद्र संबंधी अवशेष स्थान से प्रचुर पीप निकल रही है ।। १००१॥ नबीन पल्लव-समान कान्तिधारक जिस प्रोष्ठ में छमी पुरुष पूर्व में अमृतपान की बुद्धि से ( धुम्बन द्वारा) अपने हृदय को यथेष्ट सफल मानता था, अब उसके प्रान्त भाग से दुर्गन्धि-वश परवश पीप का प्रवाह निरन्तर यह रहा है. जिससे घड निस्सीम अधरत (निकलपने ) को प्राप्त होचुका है' || ११॥ जो दन्तपक्ति पूर्व में चन्द्रकान्त मणि के अंकुरों सरीस्त्री रचना युक्त धी और मूल में पद्मराग मणियों के रस से आश्रित थी, १. उपमालझार व शार्दूलविक्रीडित छन्द । २, उपमालद्वार । ३. उपमालद्वार । ४. उपमालकार। ५. उपमालद्वार वसन्ततिमा सन्द। ६. उत्प्रेक्षा व उपमालकार एवं इन्दवमा छन्द । ५. उपमालार प पसन्ततिलका झाद ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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